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३९२ ] अध्याय दसवां । पैर मुंह सब ढका हुआ रहता है । उसको कुछ खबर नहीं। असवावमें एक स्त्री भी मानी जाती है जिसे उठा कर ले चलना पड़ता है। गुजरातकी स्त्रियां मुंह नहीं ढकतीं-ज़रूरत पड़नेपर कायदेके साथ देखभाल व बातचीत कर सकती हैं । अनपढ़ गुजराती स्त्रियोंकी अपेक्षा मगनबाईजी परदा न रखनेका पूरा लाभ ले सकती थी। वह पढ़ी लिखी ऐसी चतुर थी कि जो बातें पुरुषोंको न मालूम उनका इसे ज्ञान था। चौपाटी बंगलेपर जब सेठनी रात्रिको दीवानखाने में बैठते तब यह भी दूसरी कुर्सीपर बैठती और जो २ बाते सेठजी लोगोंसे करते उनको सुनती व कभी ज़रूरत होनेपर बीचमें भी बोलती थी। कुछ व्याख्यान देने व परोपकार करनेका भी शौक हो चला था । वृत्ति भी वैराग्य रूपमें थीं; इसीसे सेठजीने मौका दिया कि इसको प्रवासका अनुभव हो और यह जातिसेवाके लिये तय्यार हो । ललिताबाई भी इसीके समान संस्कृत व धार्मिक विद्या में चतुर थी, परिणति वैराग्य रूप थी। दोनोंका मेल भी था। दोनों एक दूसरेकी रक्षा करें, एक दूसरे का स्थितिकरण करें इसीलिये दोनोंका साथ सेठजीने कर दिया । कई मास यात्रामें विताए । बुन्देलखंडकी यात्राएं भी की। शिखरजीकी यात्रा बड़े भावसे की। फिर लौटते हुए काशी, अयोध्या होती हुई लखनऊ पधारी।
लखनऊमें बाबू धरमचंद फतहचंद जौहरीका नाम सेठजीने नोट करा दिया था सो चौकमें आई और बड़े मंदिरजीके निकट स्थानमें उक्त जौहरियोंने बहुत सन्मानके साथ ठहराया ।
चौकका मंदिर बहुत सुन्दर बना है। भीतर संगमर्मरका जड़ाव
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