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सन्तति लाभ ।
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अवश्य मरण कालमें पूर्व अभ्यासके निमित्तसे शुभ भावको प्राप्त कर सकते हैं परंतु जो अपने जीवन में धर्मध्यानका अभ्यास नहीं करते हैं उनके भाव मरणकाल में सांसारिक संबंधके चेतन अचेतन पदार्थों में उलझ जाते हैं जिससे आर्त्त व रौद्र ध्यानके वशीभूत हो वे नीच गतिमें चले जाते हैं, इससे हरएक प्राणीको उचित है कि वह अपनी आत्मा भविष्यको विचार कर धर्मकी शरणको कदापि न त्यागे, गृह सम्बन्धी कामको करते हुए धर्मका अभ्यास करना हरएक गृहस्थका मुख्य कर्तव्य है ।
सेठ हीराचंद के जीवन वृत्तान्तका अंत इस अध्याय में होता है । इस सेठका जीवन वृत्तान्त मनन करने योग्य है । धैर्य्यको कायम रखते हुए, परिश्रमको न छोड़ते हुए अपने पुत्रोंको योग्य सुआचरणी व धर्मसेवी बनाने में जो भाव उक्त सेठके थे वे प्रशंसनीय थे । इन्होंने बालविवाहसे विरोध करके प्रौढ़ आयुमें जब पुत्र धन कमानेके योग्य हो गए तब उनका विवाह किया, यह बात इस कालमें बहुत ही अनुकरणीय व प्रशंसनीय है । यदि छोटी आयुमें वे लग्न कर देते तो उनके पुत्रोंका उपयोग भोगविलास में अधिक लीन हो जाता और एक महान गरीब व साधारण स्थिति से एक धनाढ्य प्रसिद्ध व्यापारीकी अवस्था में पहुंचना स्वप्न में भी दुर्लभ हो जाता । पुत्रोंको कष्ट न हो, उनका शरीर अशुद्ध वीसीके भोजनसे रोगिष्ट न हो इसलिये वर्षो तक जो सेठ हीराचंदजीने अपने हाथसे रसोई बनाके खिलाई है यह एक अतिशय गंभीर, सहनशील, प्रेमालु और दीर्घ दर्शी व्यक्तिका ही कार्य हो सकता है ।
वर्तमान काल में भी सेठ हीराचंदजी ऐसे पिताओं की जरूरत है
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