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संयोग और वियोग । दुखसुख, धर्म कर्मकी वार्तालाप मित्रके समान कर रहे थे। तत्र धर्मचंदनीने कहा कि आपके पूर्वकृत पुण्यके उदयसे लक्ष्मीका लाभ हुआ है, पर लक्ष्मी तृष्णाको बढ़ानेवाली है। इसकी तृष्णाने बहुतोंको नरकादि नीच गतिमें पहुंचाया है। यह जितनी आती. है उतनी ही अधिक होनेकी वांछा पैदा करती है। किसीको आयुका भरोसा नहीं है। इससे इस तृष्णाको स्वाधीन रखनेका उपाय परिग्रहप्रमाणवत है सो आपको है या नहीं ? सेठजीने जब 'न' कहीं तब धर्मचंदनीने फिर कहा कि आप प्रमाण क्यों नहीं कर लेते कि इतनी लक्ष्मी मेरे भागमें जब हो जावेगी तब मैं नवीन उपार्जन छोड़ दूंगा । आप प्रमाण चाहे जितनेका करें पर प्रमाण होना आवश्यकीय है। सेठजी भी इस बातको अच्छी तरह समझते थे पर धनसंग्रहका लोभ नहीं मिटा था। इससे नियम नहीं ले सके थे । इन्होंने कहा-भाई धर्मचंद, जब मैं बम्बई पहुँचूं तब तुम मुझे पत्र लिखना पर यह तो बताओ क्या तुम्हारे नियम है ? धर्मचंदने कहा कि मुझे अभी तक प्रमाण नहीं है पर आगामीके लिये करनेका विचार हैं। मैं शीघ्र ही प्रमाण करके उसकी नकल आपको भेजूंगा।
सेठ माणिकचंद बम्बई पहुंचे ही थे कि भाई धर्मचंदजीका पत्र पहुंचा जिप्समें परिग्रहप्रमाणकी सर्व विगत लिखी गई थी उस समय सेठजीकी दूकानपर सेठ रामचंद नाथारंगजी भी मौजूद थे इन्होंने भी इस पत्रको पढ़ा और धर्मचंदकी वहुत प्रशंसा की। सेठजीने वह पत्र अपनी जेबमें रख लिया । रात्रिको चौपाटी जाकर सेठजीने व्यालु करके समुद्र तटपर घूमकर अपना पक्का विचार कर लिया कि
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