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अध्याय आठवाँ । विना अनात्मभूत जड़ हो गए- आकार रहते हुए भी चेतना विना किसी कामके न रहे। माता वारंवार पुकारती है-"खेमचंद, खेमचंद पर खेमचंद शब्दको समझनेवाला चेतन ही जब नहीं तब कौन मुखको प्रेरणा करे कि तू हां कह । बेबोल, प्राणरहित, मुर्दा शरीर जानकर माता ज़मीनपर गिर पड़ी । मगनबाई हाय हाय करती हुई धाड़े मारकर रोने लगी । केशरके भी रुआई आ गई। इतनेमें जितने और घरमें थे आए। खेमचंद चल बसे इस खबरने सर्वको शोकसागरमें डुबा दिया। इस समय सबसे अधिक नुकसान यौवनवती १९ वर्षकी अति स्वरूपवती, सुशील, पतिप्रेमिनी मगनमतीको हुआ था । उसके दिलको यांभनेवाला, उसके मुखको प्रेमसे निरखनेवाला, उसे स्नेहभावसे प्यार करनेवाला, उसके यौवनरूपी मकरंदका पिपासु भ्रमर, उसके एक मात्र जीवनका आधार, उसके दुःख सुखमें एक अनुपम साथी इस वर्तमान पर्यायसे चल बसा और इसे अपने जन्मभर एकाकी विधवा अवस्था में छोड़ गया। वह वर जो थोड़ी देर पहले गार्हस्थ्यमई सुखमें डूबा हुआ था सो बातकी बातमें शोकके अंधकारसे व्याप्त हो गया। यदि किसीका राज्य छिन जाय, धन लूट जाय यहां तक कि उसे वस्त्र रहित कर दिया जाय तो भी दुःख नहीं होता है जितना कि एक जीवनके आधार इष्ट वस्तुके सदाके लिये वियोग हो जानेपर होता है । वास्तव में यह संसार असार है, यह एक माया जाल है, जो इसमें लुभाता है वह सदा त्रास पाता है, जो ज्ञानी होता है और अपनी आत्मीक विभूतिको पहचानता है वह जब अपने शरीरमें ही नहीं लुभाता तब उसके सम्बन्धी अन्य वस्तुयोंसे कैसे प्रेम करेगा ? ऐसे ज्ञानीके
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