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अध्याय नवां ।
चलाई पर चित्तको सन्तोष न हुआ तब आपने एक नोटिस 'जैनमित्रः व जैनगजट में अपने नामसे मुद्रित कराया । यह जैनमित्र अंक १०-११ प्रथम वर्ष सन् १९०० में व जैन गजट अंक ४ छठ वर्ष सन् १९०१ में मुद्रित है। वह इस भांति है
५०) रु. इनाम। " पुराण और शास्त्रोंके देखनसे मालूम होता है कि पहिले समयमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चार जातिथेही थीं। यद्यपि शूद्र जातिके गुणकर्मानुसार खाती, रंगरेज, दरजी, धोबी, कुम्हार, लुहार, आदि जातियें प्राचीनकालसे प्रसिद्धि में हैं, परंतु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य तथा खासकर जैन वैश्योंमें जुदी २ जातिय अग्रवाल, खंडेलवाल, ओमवाल, जैसवाल, परवार, सैतवाल, बघेरवाल आदि नहीं थी और वर्तमानमें प्रसिद्धि है कि जैन जाति-- कुछ समय पहले ८४ विभागों में विभक्त (बंटी हुई) थी, जिनमें की २०-२५ जातियां वर्तमान समयमें मोजूद भी हैं और अग्रवाल, खंडेलवाल आदि कई जातियोंकी उत्पत्तिके इतिहास भी प्रसिद्ध हैं सो इन बातोंके विचारनेसे स्पष्टतया सिद्ध होता है कि हमारी यह पवित्र जन जाति (वेश्य जाति) एक ही थी परंतु पीछेसे अनेक कारणोंसे अनेक जातियाँ (टुकडा) हो गई और उनमें से ५०-६० जातियाँ हम लोगोंके जन्मसे ही नष्ट हो गई और रही सही जातिया दिनों दिन नष्ट होती जाती हैं जिसका उपाय अनेक जातिहितैषी महाशय अहो रात्रि सोच रहे हैं परंतु अभी तक नष्ट होती हुई जैन जातियोंके उद्धारका
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