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संयोग और वियाग । [२८७ चलने लगे तब फिर २५) पचीस २ वसूल किये जावें । इस तरह काम पूरा किया जावे । हीराचंदजीके दिलमें यह बात जम गई, उसी समय ब्रह्मसूरि शास्त्रीको यह सब हकीकत लिखी। वहाँसे उत्तर आया कि इसमें कोई हर्ज नहीं है । मूडबिद्रीवाले खुशीसे स्वीकार करेंगे तथा मैं पूर्ण परिश्रम करके प्रति लिपिका प्रबन्ध कर दूंगा । फिर सेठ हीराचंदजीने जैन बोधक अंक १२९ मास मई १८९६में यह बात प्रकाशित की और सौ सहायक मांगे । इस अपीलको देखते ही सेठ माणिकचंद पानाचंदनीने १०१) का एक भाग लेना स्वीकार किया। उन्हींका अनुकरण धरमचंद अमरचंद, शोभागचंद मेघराज, माणिकचंद लाभचंद, सेठ जवारमल मूलचंद, गुरुमुखराय सुखानंद आदि १३ बम्बईके व गांधी हरीभाई देवकरण आदि १९ शोलापुरके व अन्य फलटन, दहीगांव, इंडी आलंद व सेठ हरमुखराय फूलचंद आदि ११ कलकत्ताके सब मिलाकर अक्टूबर १८९६ तक सत्र १४२२९) की स्वीकारता हो गई । लाला रूपचंद सहारनपुरने जैन गजट पत्रमें मालूम कर १००) की सहायताका पत्र जुलाई मासमें पंडित गोपालदासजीको बम्बई भेजा । सेठ हीराचंदजीने जबानी पक्की बात करनेके लिये ब्रह्मसूरि शास्त्रीको शोलापुर बुलाया । वे मार्गसिर सुदी ४ को आए तब सेठ माणिकचंदजीको बुलानेके लिये तार दिया । तार पाते ही सेठ माणिकचंद गांधी रामचंद नाथाके साथ सुदी ६ को शोलापुर पहुंचे । शोलापुरकी मंडलीके सामने ब्रह्मसूरि शास्त्री को १२५) मासिक व आने जानेका खर्च देनेका ठहराव हुआ तथा शास्त्रीजीने पौष मासमें मूलबिद्री जाकर प्रति
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