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संयोग और वियाग ।
[ २९७ बिम्ब थे, बीच में श्वेतांबरी तथा दो बगलके कोठोंमें दिगम्बरी प्रतिमाओं की बड़े भाव से प्रछाल पूजन की। शाम पडते २ यात्रा करके नीचे आए । महान आनंद माना ।
रात्रिको चुन्नीलालजीने भी आवश्यक समझा तब वहां एक सभा बुलाकर ४००० सीढ़ियोंके बनवाने का निश्चय करके यात्रियोंसे चन्द्रा किया उसमें सबसे पहले १००१) अपनी तरफ से दिये ।
सीढ़ी बनवाने में
१००१)
कुल चन्द्रा ६०१४ ) का किया गया और
उपरैली कोटीके मुनीम बाबू हरलालजीको सीढ़ी बनवानेका काम सुपुर्द किया गया ।
सेठ नवलचन्द सुकुशल अन्य यात्राओंको करके सर्व संवसहित बम्बई लौट आए ।
मुनीम धर्मचंदजी बहुत परिश्रम करके संवत १९५४ तक पालीतानाकी धर्मशाला नकशे व विचार के पालीतानाकी दि०जैन अनुसार पुरी करवा दी। इसमें १२०००) का धर्मशालाकी पूर्ति । प्रबन्ध सेठ माणिकचन्दजीने किया था पर खर्च
रु० १९०००) हुए । ७०००) का कर्ज सेठजीने अपनी दुकानसे दिया । किसी तरह कामको पुरा कराया क्योंकि इनके दिल में यह चिंता थी कि यात्रियोंको कोई कष्ट न हो । यह रुपया धीरे २ आमदनी आनेपर अदल कर दिया गया। तीर्थ धर्म प्रेम इसीका नाम है कि जब काम पड़े तब उसको जिस तरह बने निकाल लेना चाहिये ।
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