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संयोग और वियोग ।
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सेठ माणिकचंजीने जैन बोधक अगष्ट १८९७ में यह पढ़कर कि एक जर्मन स्ट्रयावगकी यूनिवर्सिटी के जर्मनी के अफसरका संस्कृत प्रोफेसर अर्नस्ट लेनमानने एक पत्र ब्रह्मसुर शास्त्री से भेजा हैं उसमें लिखा है कि ब्रह्मसूरि शास्त्री से कुछ ग्रंथ मिले पर मुझे भगवती आराधना सार और आराधना कथाकोष चाहिये तथा पत्रके
सम्बन्ध ।
ऊपर यह गाथा लिखी थी -
जिण पवयणं पसिद्धं जम्बू दीवम्मि चैव सव्वम्मि | कित्ति जस व अचिरा पावेज्जउ सयल प्रढवीए || अर्थ - जैसे भारत में जिन प्रवचनकी ससिद्धि है ऐसी इसकी कीर्ति सर्व लोक में फैले ।
यह वाक्य पढ़कर सेठजीको आश्चर्य हुआ । ब्रह्मसूरि शास्त्रीने जर्मनवालों को ग्रंथ दिये तथा इस गाथा के अर्थने अपने सेठजीको उत्साहित किया कि अपने जैन ग्रंथों का प्रचार यदि यूरुप में हो तो बड़ा लाभ हो ।
सं० १९५३ में सेठ नवलचंदजीने अपने भाइयोंसे राय करके स्वतः श्री सम्मेदशिखरजीकी यात्रा करनेका
सेठ नवलचंदजीकी निश्चय किया-स्व कुटुम्ब सहित यात्रा - सम्मेद शिखरकी या को पधारे अपने भानजे चुन्नीलाल झवेरचंदत्रा और सीढ़ीका को भी कुटुम्ब सहित साथमें लिया । यह सम्मेदाचल पर्वत हजारीबाग ( बिहार प्रान्त ) - में जैनियोंका महा पवित्र तीर्थ है। खास कर दिगम्बर जैन समाजको यह इसीसे विशेष मान्य है कि इस भरतक्षेत्र में २४ तीर्थंकर जो हरएक दुःखमा सुखमा कालमें होते
काम ।
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