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अध्याय छठा। ऐसे अशक्त हो गए थे कि कुछ दिनोंसे इनका मंदिर जाना मी बन्द हो गया था। पर प्रगट रूपसे कोई ऐसी बात नहीं थी कि जिससे सेठ हीराचंदकी तवियत असाध्य व नाजुक समझी जाती हो । उधर तो भादों मासकी खटपट इधर हीराचंदजीने एकाएक णमोकार मंत्र कहते व श्री अरहंत सिद्धको नमस्कार करते हुए अपने ही सहवासमें प्राण छोड़ दिये।
एकाएक मरण जानकर तीनों ही सुपुत्र बहुत ही दुःखित हुए। हम अपने पूज्य पिताकी कुछ भी सेवा न कर सके इसका पछतावा करते हुए जो उदासी इनके चित्तको हुई उसका वर्णन नहीं हो सकता है। माणिकचंदनीका चित्त बड़ा कोमल था, इनके अश्रुओंकी धारा वह निकली थी पर थे समझदार । तुर्त सम्हालकर जीवको गया जान व केवल जड़ पुद्गलको देख उसमें अधिक जंतु न पड़े इस ख्यालसे शीघ्र ही सर्व सम्बन्धियोंको एकत्रकर स्मशानमें दग्ध क्रिया की। सेठ हीराचंदजी ६० वर्षकी आयुमें अपने जीवनके कर्तव्यको बहुत ही नीति व परिश्रमसे पूर्ण कर, सेठ माणिकचंद, पानाचंद, नवलचंद ऐसे उद्योगशील धर्म व जाति हितैषी तथा परोपकारी पुत्रोंको छोड़ स्वर्गधाम पधारे। हीराचंदजीके भाव मृत्युके समय आर्तध्यान रूप नहीं थे किन्तु श्री पंचपरमेष्ठीके ध्यानमें अनुरक्त थे जिससे सेठजीकी आत्माको शुभभावोंके निमित्तसे अवश्य शुभ गति प्राप्त हुई होगी। मरण कालमें जैसे भाव होते हैं वैसी ही गति आत्माकी होती है । जिन जीवोंको निरन्तर धर्मध्यान, सामायिक, जाप, पूजन, भक्ति तथा स्वाध्यायका अभ्यास रहता है वे जीव
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