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संयोग और वियोग ।
[ २६५ पंडित प्यारेलाल, छेदालालजीने विरोध में व्याख्यान दिये थे तथा लोगोंको प्रेरित किया था कि कोई मुद्रित पुस्तक न खरीदे ।
अष्टमी के दिन रायबहादुर सेठ मूलचंदजीके डेरेमें सर्व प्रतिनिधि जमा हुए। मूलचंदजीने कहा कि रायबहादुर सेठ मूल- एकता के अभाव से सभा होना कठिन है । चन्दजीका उपदेश | विद्यावृद्धिके लिये ग्राम २ में पाठशाला खोलो, कालेज के लिये रुपया आना कठिन है। इससे महासभा व कालेजकी बातें सत्र छोड़ो। मद्यमांस छुड़ानेका उपदेश दो । ऐसे बड़े मेले में हजारों आदमी आते हैं, पंडित लोगों की चर्चा वे सुन नहीं सक्ते । ऐसे मेलेमें सब लोग समझें ऐसा साधारण 'धर्मका उपदेश खड़े होकर देना चाहिये। रात्रिको शास्त्रसभा के पीछे सेठ मूलचंदजीने खड़े होकर धर्मके विषय में व्याख्यान दिया तथा सेठ लछमणदास के डेरेपर नियमावली पर विचार हुआ ।
उस समय लाला रूपचंदजी (सहारनपुर ) ने भी कहा कि यहां तो कुछ सुननेको मिलता नहीं सो कोई खड़े होकर उपदेश देने में ऐसा उपाय सोचो कि जिससे मेलेके सब लाला रूपचंदजीकी राय । लोग शास्त्रजीको सुन सकें। सबको सुनानेके वास्ते खड़ा रहके बांचे तौभी कुछ हर्ज नहीं हैं परंतु सत्रको उपदेशका लाभ मिलना चाहिये । अंत में नियमावली "पसंद हो गई। दूसरे दिन रातको सभा हुई । नियमावली स्वीकृत हुई, कार्याध्यक्ष नियत हुये । सभा के मंत्री पंडित प्यारेलालजी अलीगढ़, मूलचंद वकील मथुरा, व भैरोप्रसादजी इलाहाबाद नियत हुए ।
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