________________
९८ ]
अध्याय तीसरा।
मूर्तियोंको देखकर बहुत आनन्दित होते थे और निरन्तर इस बातका उद्योग करते थे कि ये दोनों सुपुत्री बनें, जिससे ये अपने पतिके घरोंको दीप्तमान कर सकें और मेरे यशको उज्वल रखें ।। साह हीराचंद व अन्य श्रावकों ने उस बड़े जिनमंदिरजीके, जो
भस्म हो गया था जीर्णोद्धार करनेका बहुत चंद्रप्रभुके मंदिरका ही शीघ्र प्रबन्ध किया, यहां तक कि संवत् जीर्णोद्धार । १८९८ तक वह मंदिर फिरसे तय्यार हो
गया, तब मुहूर्त दिखाकर इसकी प्रतिष्ठा करानेकी मिती वैशाख सुदी १२ संवत् १८९९ नियत की गई। देशदेश पत्र भेजकर संघको एकत्रित किया गया। भट्टारकोंकी आम्नायके भाणा पंडितने जो विद्याभूषण भट्टारकके शिष्य थे इस मंदिरकी प्रतिष्ठा विधिके अनुसार की । सूरतमें उस दिन जैन धर्मकी बड़ी प्रभावना हुई । सम्पूर्ण संघके मध्यमें साह हीराचंद अपनी दोनों पुत्रियोंके साथ जिनकी अवस्था क्रमसे ६ और २॥ वर्षकी थी लिये हुए बहुत ही शोभते थे और अन्य सज्जनोंको यह उत्साह होता था कि ये कन्याएं चिरंजीवित रहें तो हम हमारे पुत्रोंसे इनका सम्बन्ध करें । श्रीमंदिरजीकी प्रतिष्ठा होकर सर्व प्रतिमाएँ सविनय विराजमान की गई । भट्टारकोंकी आम्नायमें पद्मावती देवीके मस्तक पर पार्श्वनाथ स्वामीकी छोटी प्रतिबिम्ब हो ऐसी प्रतिमा निर्मापणका रिवाज़ प्रचलित है उसीके अनुसार भाणा पंडितने एक मूर्ति निर्मापण कराय उसकी प्रतिष्ठा की, जिसका लेख दूसरे अध्यायमें दिया गया है । इस समय सूरतमें जितने लोग बाहरसे आए थे उनका भोजनादिसे यथायोग्य सत्कार किया गया।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org