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. अध्याय चौथा। पानाचंद बड़े साहसके साथ कहते थे कि-पिताजी, आप चिंता न करें, मैं बड़ा हूँगा तब बहुत धन कमाऊँगा । माताकी सेवामें चारों ही पुत्र लवलीन थे । माता अपनी शिथिल अवस्थामें इनको देखदेखकर अपने जीवन में मैंने रत्न उत्पन्न किये ऐसा मानकर परम सन्तोष प्राप्त करती थी और जब कभी प्रेमभरी दृष्टिसे अपने स्वामीको निरखती थी तब अंतरंगमें महासुख प्राप्त करती थी। मनमें सिवाय : अर्हत सिद्ध ' के किसीका स्मरण नहीं करती थी। मुखसे भी यही सदा कहा करती थी। एक दिन विजलीबाईके चित्तमें यह अच्छी तरह जम गया कि
अब मेरा अन्तसमय आ गया है। उसने साह माता विजलीबाईका हीराचंदको कहा कि अब मेरी आयु नहीं स्वर्गवास । मालम होती, मुझे धर्मके बचन सुनाओ और
जो कुछ मुझसे दान पुण्य कराना हो सो इसी समय करा लो। साह हीराचंदकी आंखोंसे आंसू बहने लगे, दिल घबड़ा गया, पर यकायक मनको सम्हालर कहा-तुम्हें मरणकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये । चिन्ता करनेसे भी आयु कम होती है ऐसा शास्त्रोंमें सुना है । धैर्य रक्खो । श्री पंच परमेष्ठिका ध्यान करो। मुझे तो आशा है तुम बहुत शीघ्र अच्छी हो जाओगी। यदि तुम्हारी इच्छा है कि अभी कुछ दान धर्म किया जाय तो तुम्हारे लिये सब कुछ हाज़िर हैं। ये चार पुत्ररत्न तुम्हारे मौजूद है। हमें तुम्हें कोई बातको फिकर नहीं है। साहनीने मोतीचंदको १०) दिये और कहा कि बाज़ार में गांधीके यहाँसे पूजनकी सामग्री ले आ। मोतीचंद समझता था, वह तुर्त गया पर बड़े उदास मनसे
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