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सन्तति लाभ
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धर्मचंदजीने महाचंदजी से प्रार्थना की कि इस उत्सव के सम्बन्ध में कोई पद बना दीजिये । महाचंदजीने दूसरे दिन एक पद लिखकर धर्मचंदजीको दे दिया । जिस रात्रिको सेठ माणिकचंद मंडपमें बैठे हुए थे उस रात्रिको धर्मचंदने वह पढ़ मंडप में गाया | इस भजनको सुनकर सेठ माणिकचन्दका प्रेम इस भजनपर हो गया । यह तो पाठकोंको मालूम ही है कि सेठ माणिकचंद गुणग्राही और मिलनसार थे, यह मौका पाकर धर्मचंद से बात करने लगे । धर्मचंद पहले से ही बात करना चाहते थे क्योंकि वे इनके गंभीर सिंह सदृश अति सुन्दर मुख और शरीरको देखकर अपने मनमें यह जान रहे थे कि यह कोई बड़ा भारी सेठ है । इनकासा सुन्दर रूप धर्मचंद के देखनेमें नहीं आया था । यह उस समय धोती, कोट और सुरती पगड़ी पहने हुए थे । दाहने कान में सुन्दर दो गोल मोती और नीलमकी एक कड़ी अटकाए हुए, गलेमें मोतियोंका कंठा डाले हुए, हाथोंमें सुवर्णके कड़े सुवर्णके कड़े पहने हुए एक राजा के समान दीखते थे, पर धर्मचंदका साहस नहीं पड़ता था कि ऐसे प्रभावशाली व्यक्ति से बात करे । जब माणिकचंदजीने स्वयं बात की तो यह बहुत ही हर्पित हुए और तब इनको मालूम हुआ कि यह सूरत निवासी बम्बई के प्रसिद्ध सेठ माणिकचंद हैं । माणिकचंदनीने धर्मचंदजीके भजन गानेकी बहुत प्रशंसा की और कहा कि आप यह भजन मुझे नकल करके बम्बई भेज देवें क्योंकि मैं ज्यादा ठहर नहीं सक्ता, कल ही मुझे बम्बई पहुंचना है । धर्मचंदजीने सहर्ष स्वीकार किया | धर्मचंद की स्थिति साधारण थी तथा इनको दिन रात यह दुःख रहता था कि इनको आजीविका के लिये हिंसा
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