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MERERENCESREPEATERREERSEENE
॥ श्रीः॥
WALESESERECENSES
श्रीसूर्यसिद्धान्त।
(पूर्वोत्तरखण्ड समग्र) गूढार्थप्रकाशसंस्कृतटीका
और
भाषाटीकासमेत ।
-00 -- "यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा ।। तद्ववेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्द्धनि स्थितम् ॥"
जिसको मुरादाबादस्थ पं०-बलदेवप्रसादमिश्रजीसे
भाषानुवाद कराय, ज्योतिर्विदोंके लाभार्थगंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, अध्यक्ष लक्ष्मीषकटेश्वर " छापेखानेमें मैनेजर पं० शिषदुलारे पानपेयीने मालिकके लिये
छापकर प्रसिद्ध किया. संवत् १९८०, शके १८४५.
कल्याण-मुंबई. इस पुस्तकका सब हक्क यंत्राधिकारीने स्वाधीन रक्खा है ।
TAK
गसमसगरमसम
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भूमिका। अति प्राचीन समयसे सबही देशोंके रहनेवाले इस बातको जानते हैं कि, भारत. वर्षके निवासी गण वैज्ञानिक विषयोंमें अत्यन्त पारदर्शी होते आये हैं । विलायतके पंडितगण इस भारतवर्षकोही गणितविद्याका मूल स्थान बतलाकर इसकी प्रतिष्ठा करते हैं । इङ्गलैण्डके तत्त्वदर्शीलोग जब भारतवर्षीय ग्रंथादिका विचार करनेको तैयार होते हैं तब वे गणितात्मक ज्योतिषशास्त्रकी अपार गवेषण निहार देशकालको विचार करके विस्मयसागरमें गोतेखाने लगते हैं । उप्त गणितशास्त्रके अत्यन्त प्राचीन, सर्वमान्य अठारह सिद्धान्तोमेंसे "श्रीसूर्यसिद्धान्त” नामक ग्रंथको बहुतही कम भारतवासी जानते हैं । अनादर प्राप्त करते २ इस गणितशास्त्रके मुख्य २ ग्रन्थ रत्न कालकी सर्व संहारिणी शक्तिके नीचे दबते चलेजाते हैं । भारतवासियोंने अपने पूर्व पुरुषोंकी कीर्तिको रक्षित करनेमें महा उदासीनता प्रगट की है। मैं आशा नहीं करसक्ता कि, इस समय वह मुझ तुच्छके कहनेसे उदासीनताको छोडदेंगे। तथापि अपना कर्तव्य समय यह सानुवाद ग्रन्थ अत्यन्त परिश्रम करके वर्तमान ज्योतिष्क मण्डली और साधारणके निकट प्रकाशित कर आनन्द प्राप्त करताहूं।
आजकल जो लोग विद्वान् ।गनेजाते और जिनके करने धरनेसे कुछ हो सकता है, उनसे बहुतसे तो शास्त्रको देखतेतक नहीं। बहुतसे ऐसे है कि, स्वयं तो शास्त्रको जानते नहीं परन्तु अपनी पंडिताई बराबर छोंके चले जाते हैं । उपरोक्त ग्रंथ विमुखता और अभिमानताही तो सब काम बिगाड रहीहै, और बगबर ज्योतिषी लोगोंके ऊपर अपना अधिकार करती चलीजाती है । यहांतक कि, अब इस अदूरदर्शिताका फलभी कुछ २ फलने लगाहै । माजकल ज्योतिषी लोग पेट-चिन्तामें लगे रहकर भली भांतिसे उस विद्याको नहीं पढते पढाते । इसी कारण कम परिश्रम करनेकी इच्छासे अनेक करण ग्रंथोंको विनाही देखे भाले, उन करण ग्रंथोंके मूल श्रीसूर्यसिद्धान्तका नाम लेकर और ग्रंथोंकी सारिणीकी सहायतासे तिन करण ग्रंथोंके फलको प्राप्त हो इस अप्रूव ग्रंथकी दुहाई दिया करते हैं । परन्तु इस विषयका सूची. पत्र बनाते हुए-कि उनमें से कितनोंने श्रीसूर्यसिद्धान्तका अवलोकन किया है एक साथ दुःखित होना पडता है।
सूर्यसिद्धान्तानुगामी सम्प्रदायके सिवाय भारतवर्ष में एक नये प्रकारके सिद्धान्त पूजकोंकी सृष्टि हुई है । इस सिद्धान्तके उत्पन्न करनेवाले अर्द्ध कुक्कुटी जरती न्या. यके समान ज्योतिषशास्त्रमें प्रवेश करनेके पहलेही अपनेको पंडित और ज्योतिषी कहलाना चाहते हैं। कोई नैयायिक, कोई थवईके कार्यमें महाबुद्धिमान्, कोई साधारण गणित तीर्थाभिमानी, कोई यश प्राप्त करनेके लिये नवीनमतके प्रचार करनेमें निपुण, कोई किसी ज्योतिषीका छात्र, या कोई साहित्य पारदर्शी; बस ! ऐसे लोगही इसमें प्रधान उद्योगी हैं। कोई भास्कराचार्यके वनाये सिद्धान्त शिरोमणीके
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गणिताध्यायका अनुवर्ती है । कोई अपने गुरुसे पायेहुए दो एक अंगरेजी “फर्मिडल" का भाषान्तर हस्तगत करकेही गुरुदास्याभिमान ज्योतिषीका पद पानेकी इच्छा करताहै, कोई विनाही अयनांश तत्त्वके जाने हुए, इच्छानुसार चलनवोले किसी पश्चिमदेशके ज्योतिषीका अनुकरण करताहै । उपरोक्त समस्त महाशयगणही इस मूलग्रन्थको पढकर अपने गुरु और भास्करादिके परमगुरु श्रीसूर्यसिद्धान्तके लेखक ऋषिजीके चरणोंमें प्रतिष्ठा प्राप्त कर अन्तदोहको निवारण करें ।
The humble translator didicates his worthless attempt to the benefactor of the Sunskrit knowing population of India i. e. Kleemaraj Shrikrishnadas Proprietor of the S. V. S. Press-Bombay.
P. B. PRASADA.
समर्पण। भारतवर्षके गौरवस्तम्भ वैश्यवंशावतंस परमादार देवभाषा उद्धारक
श्रीमान् सेठ-खेमराज श्रीकृष्णदासजी गुप्त महोदयेषु ।
श्रीमान् !
श्रीमान्ने संस्कृत भाषाका उद्धार करके भारतवासियोंका परमोपकार किया है । आपके समान धर्मरक्षक, दानशील, व आर्य ऋषियोंके बनाये प्राचीन शास्त्रोंका विस्तार करनेवाला और कोई नहीं है।
प्राचीन ऋषि मुनिजनोंके बनाये शास्त्रीय ग्रंयोंमें "सूर्यसिद्धान्त” नामक ज्योतिष ग्रन्थका आदर मान सब देशोंमें है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि, ज्योति शास्त्र प्रधान शास्त्र है । इस शास्त्रके रक्षित और विस्तारित होनेसे संसारका मंगल होना जानकर श्रीमान्के उत्साहसे उत्साहित हो अनेक यत्न और बहुत परिश्रम करके “सूर्यसिद्धान्त " ग्रंथका अनुवाद साधुभाषामें किया। श्रीमान् जानतेही है कि, गणितशास्त्र सर्व साधारणके लिये कितना कठिन है । इस अनुषादको पायकर ज्योतिर्वित् पाण्ड• तोका विशेष उपकार होगा । विशेषता यह है कि, जो उदाहरण मैंने दिये हैं उनका अवलम्बन करके इस जटिल शास्त्रके भीतर प्रवेश करना बहुत कठिन न होगा।
सर्व शास्त्र रक्षाका श्रीमान्के करकमलमें यह अनुवादित ग्रन्थ अर्पण करके मैं आशा करताँहूँ कि इसको प्रकाशित करके आप सारे भारतवर्ष प्रचारित करदेंगे। बिना धनवान् लोगोंकी सहायताके भारतवर्ष में कोई महान्कार्य नहीं होता । यह विचार कर इस ग्रंथको प्रचार होनेकी कामनासे भवदीय महायशस्वी नामके साथ इसको संयुक्त कराहूं ।
भवदीय अनुग्रहीबलदेवप्रसाद मिश्र मोहल्ला दीनदापुरा, मुरादारबाद (पश्चिमात्तर)
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सूर्यसिद्धान्तकी भूमिका |
(५)
गणित - ज्योतिषमें सूर्यसिद्धान्तका नाम अत्यन्त विख्यात है । भारतवर्षके अधिक पंचांग इसी ग्रंथसे बनते हैं, और इसीके अनुसार हमारे सारे व्यवहार हुआ करते हैं । इस कारण प्रत्येक विद्वान्को ऐसे ग्रंथके देखनेकी इच्छाका होना कुछ असम्भव नहीं है।
बहुत से मनुष्य कहा करते हैं कि सूर्यसिद्धान्त यहांतक कठिन है कि, इसका पढना पढाना अधिकारसे बाहर पाँव रखना है । गणितशास्त्र में साधारण अधिकारके साथ २ क्रमशः प्रवेश करना कुछ कठिन बात नहीं है । निःसन्देह अंकपात बहुत करने पडते हैं सो वहभी दुरारोह नहीं है ।
नये पढनेवालों के लिये तो संज्ञाज्ञानही वास्तव में कठिन है । उदाहरणके साथ ग्रंथका पढना बहुत ही लाभकारी है। जहां दो एक विषय आगये, बस फिर और विषयोंका समझमें आना कुछ कठिन नहीं रहता । पश्चात् करण ग्रंथोंकी स्वयं ही निर्देश करदी जा सकेगी और मूलमें पूर्णाधिकार होजायगा। अब यही निवेदन है कि जो पहली पहल कठिन समझपडे, तो आप इसका पढना छोड़ें नहीं, बरन् बराबर देखे जाँय । जहां कहीं कठिन ज्ञात हो वहीं पर दो चार बार दृष्टि डालजाओ, अवश्य सरलता - पूर्वक जान जाइयेगा । यदि पहले करणग्रन्थ पढलिये जॉय दो सुभीता है ।
गणना के समय में साधारणता विकला के नीचे सूक्ष्माङ्कका प्रयोजन नहीं है. और बहुत से विषयों में तिसको छोडदेन से भी कुछ हानि लाभ नहीं ।
गवर्नमेंट के अनुग्रहसे, स्वदेश वासियोंके अनुरागसे, धनी व धर्मात्मा पुरुषों की मार्थिक सहायता से प्रतिवर्ष सहस्रों विद्यार्थी लोग अंकशास्त्रमें प्रवीण होते हैं । आ शा की जाती है कि इनमेंसे अनेक विद्यार्थी लोग निजदेशकी अंक विद्या और ज्योतिविद्यापर ध्यान देंगे इस ग्रन्थ में १४ अध्याय हैं । इनके मध्य
१ अध्याय में - ग्रन्थारंभ, कालविभाग, युगमान, दिनसंख्या, बहर्गण, भगणादि ग्रहांका मध्य, मन्दोच्च और शीघ्र, देशान्तर परमविक्षेपादि हैं ।
२ अध्यायमें - ग्रहगतिका कारण, गतिप्रकार, ज्यानिर्णय, क्रांति और केन्द्रसाधन मुज और कोटोसे परिधि करके फलादि निर्णय ' ग्रहस्पष्ट, भुजांतर संस्कार, स्पष्ट गति, स्पष्टविक्षेप, अहोरात्रमान, चर, तिथि, नक्षत्र, योग, करण हैं ।
३ अध्याय में - पूर्व पश्चिम रेखा निर्णय, अयनांश, विषुवद्भा, लम्बज्या, · नत्यानयन, मग्राकोणशङ्कु, निरक्ष राशिमान, लग्न, दशम हैं ।
४ अध्यायमें - स्पष्ट, चंद्र, छाया और सूर्यका मान, ग्रास, स्थिायर्द्ध, कोटि, बलनांश है ।
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सूर्यसिद्धान्तकी-भूमिका । ५ अध्यायमें-चन्द्रलम्बन, अवनति (सूर्यग्रहण ) है । ६ अध्यायमें-परिलेखाधिकार है। ७ अध्यायमें-ग्रहयुत्यधिकार, अक्ष-दृक्कर्म अयन-दृकर्म, ग्रहविम्ब । ग्रहदर्शन
युद्ध हैं।
८ अध्यायमें-नक्षत्रग्रह युत्यधिकार, नक्षत्रों के स्थान हैं। ० अध्यायमें-उदयास्ताधिकार, कालनिर्णय, कालांश हैं। १० अध्यायमें-शृंगोन्नति, चन्द्रोदय । ११ अध्यायमें-पाताधिकार, व्यतिपात, कालनिर्णय, गण्डक, भसन्धिः ।
सूर्यसिद्धांतकी-भूमिका । १२ अध्यायमें-अध्यात्मविद्या, कक्षास्थिति, मेरु, भद्राश्व, यमकोटी, लंका, केतुमालधुवनक्षत्रकी पृथ्वीसे दूरी है ।
१३ अध्यायमें-गोल और यंत्रादि वनाना हैं । १४ अध्यायमें-कालानर्णय है । त्रिज्या ( Radus ) धनु ( Aae ), ज्या ( Sine ), कोटी ( Cosine ) कर्ण (Hy, Poteneuse ) आदि कई एक त्रिकोण मितिके शब्दोंका व्यवहार निरन्तर हुआ है इस कारण इनको पहलेहीसे जान रखना चाहिये । लम्ब विषुवच्छाया आदि अपने २ देशके अक्षांशसे निर्णीत होते हैं । विक्षेप (Latitude) क्रान्ति (Declination) स्फुट
आदिग्रहोंके अवस्थिति करके हैं । मध्य, मन्दोच्च, शीघ्र, परिधि आदि स्पष्टादि लानेके प्रकरण हैं।
राशिचन्द्रका जो बिन्दु मध्यरेखाके परे स्थित हो, सो दशम और उदयगत लग्न है, त्रिप्रश्नाध्यायमें किस प्रकारसे दिक् और कालका निर्णय करना चाहिये, और पश्चात् यंत्राध्यायमें यंत्रके वनानेकी रीतिको दिखाय मानमान्दरके वनानेका उपदेश दिया है । भूमिकाको समाप्त करनेसे पहले सर्वोपमोपमेय, गुणिजनमंडलीमंडन पाखण्डमत खण्डन, श्रीमान् पं०ज्वालाप्रसाद मिश्र व श्रीमान् श्रीविमलाप्रसाद सिद्धान्तसरस्वतीजीको वारम्बार धन्यगद दियाजाता है, क्योंकि उपरोक्त महाशयोंके द्वारा इस ग्रंथके अनुवादमें बडी सहायता मिली है, पाठार्थियोंके लाभार्थ इस पुस्तकमें योग्य व उचित उदाहरणभी दिये हैं । अलमातिविस्तरेण ।
सुखानंदमिश्रात्मजसंवत् १९५२ विक्रमी।
बलदेवप्रसाद मिश्र, चैत्रकष्ण २ रविवार र मोहल्ला दीनदारपुरा मुराराबाद.
पश्चिमोत्तर
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.... ६८.६
.....
७४--१३
॥ श्रीः ॥ अथ सूर्यसिद्धांतस्थविषयानुक्रमणिका। मंगलाचरणम् .... .... १-१ दिग्देशकालप्रश्नाः दिग्ज्ञानम् ६५-१ ज्योतिषज्ञानप्राप्त्यर्थमयासरतपो- छायाज्ञानम् ....
वणेन वरप्राप्तिश्च .... २-२ अक्षज्ञानम् .... सूर्याशपुरुषोत्पत्तिपूर्वकंमयेनस
अक्षात्पलभानयनम् .... ७५-१६ हसवादवर्णनम् .... ५-७ भुजसाधनम् .... कालभेदनिरूपणम् .....
स्वदेशोदयादिज्ञानम् .... ९०-४३ युगमानंसंधिसंध्यांशमानंच ९-१६ कालसाधनम् .... .... ९४-४९ मन्वन्तरमानम्....
इतित्रिप्रश्नाधिकारः ३. ....
.... १०-१८ कल्पमानम् ....
अथ चंद्रग्रहणंतत्रसूर्यचंद्रबिंब.... ११-१९
स्फुटीकरणम् परार्धकालमानम् .
.... ९५-१ .... ११-२१
ग्रहणद्वयसंभूतिज्ञानम् ग्रहादिस्पष्टकरणार्थवर्षगणानयनम्१२-२३
पातसाधनम् .... .... १००-८ ग्रहाणांगतिनिरूपणम् .... १३-२५ बिंबप्रयोजनम् .... .... १००-९ भगणस्वरूपम् .... .... १४-२७ ग्रासानयनम् .... .... १०१-१० अहगणसाधनम्
मध्यग्रहणस्पर्शमोक्षकालज्ञानम् १०३-१६ भगणादिग्रहानयनम् २५-५३
निमीलनोन्मीलनकालज्ञानम् १०४.-१७ संवत्सरानयनस्
२६-५५ सूर्यग्रहणविशेषः .... १०५-१९ मध्यमग्रहानयनम् २७-५६ ग्रासानयनेअनेकभेदाः .... १०५-२० रेखादेशाः .... .... ३०-६२ बिबानामंगुलीकरणम् .... १०७.२४ वारप्रकृत्तिकालज्ञानम् .... ३२-६६
३२-६६। इति चंद्रग्रहणाधिकारः ४. ग्रहस्यतात्कालिककरणम् .... ३३-६७ चन्द्रग्रहणात्सूर्यग्रहणसाधनेयोविति मध्यमाधिकारः १.
। शेषस्तमाह.... .... १०९-१ अथग्रहस्पष्टाधिकारः .... ३५-१ नतिसाधनम् .... .... ११५-१० ग्रहाणांज्यासंस्कारः .... ४१-१५ - इति पंचमोध्यायः ५. ग्रहाणांमंदकेंद्रसंस्कारः .... ४८-३४ सूर्यचन्द्रग्रहणयाः परिलखा• ग्रहाणां शीघ्रकेंद्रसंस्कारः .... ५०-४० धिकारः .... .... १२२-१ ग्रहाणां नतिसाधनम् .... ५२-४५ इति च्छेदकाऽध्यायः ६. दिनमानरात्रिमानज्ञानम् .... ५९-५८ अथयतिभेदनिरूपणम् .... १३२..१ ग्रहाणांनक्षत्रानयनम् .....
६२-६४ अथक्कर्मनिरूपणम् .... १३४-७ योगानयनम् ....
६३-६५ बिंबकलानयनम् .... १३२-१३ तिथ्यानयनम् .... .... ६३-६६ युद्धसमागमनिरूपणम् .... १४३-१८ करणानयनम् ...
६४-६७ हातग्रहयुश्यधिकारः ७. इतिस्पष्टाधिकारः २.
नक्षत्रधुवकज्ञानंशरज्ञानंच .... १४६.१ .. अथतिप्रश्नाधिकारः .... ६५-१ योगताराज्ञानम्
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(८)
अनुकमाणका। इति त्रिज्यत्यधिकारः ८. देवासुरयोदिनरात्रिनिर्णय..... २०१-४५ ..अयोदयास्ताधिकार:... १५५-१ गोलस्थितिवर्णनम् .... २०८-६३ पंचताराणयपश्चिमास्तपूोदयौ १५६-२ कक्षानिरूपणम् . .... २१३-७५ चंद्रबुकशुकाणामूर्तस्तपश्चिमो. आकाशकक्षाब्रह्मांडांतर्गताब्रह्मां
दयौ .... .... १५६-३ डकक्षायानामांतरंबृहद्भूमिमानइष्टकालांशानयनम् .... १५७-४ सूचकम् .... .... २१८-९० गुर्वादीनांकालांशाः
हति भूगोलाऽध्यायः १२. कालांशमाननास्तोदयोर्गतैष्य. अथज्योतिषोपनिरूपणम् .... २१९.-१.
त्वज्ञानम् .... .... १५९-.९ तत्रगोलबंधनविधिः .... २२०-३ नक्षत्राणामस्तोदयज्ञानम् .... १६०-१२ अनेकविधयत्राणांसाधनानि २२७..१९
इति नवमाधिकारः ९. .... उपनिषत्फलश्रुतिः .... २३१-२५ चंद्रस्यास्तोदयशृंगोन्नतिनिर्णयः१६३-१ | इति त्रयादशोऽध्यायः १३. चंद्रेशृंगोन्नतिपरिलेखः .... १६९-१० मानाध्यायः .... .... २३१-१
इति पाताध्यायः १० .... १७३-१ तत्रबाहेस्पत्यमानम् .... २३२-२ क्रांतिसाम्यानयनम् .... १७७-९ सौरमानम् २ .... ..... २३२-३ स्पष्टपातकालज्ञानम् .... १७९-१३ चांद्रमानम् ३ .... .... २३५..१२ पंचांगस्यव्यतिपातज्ञानम् .... १८३--२० पितृमानम् ४ .... .... २३६-१४ गंडांतस्वरूपादिकम् .... १८३-२१ नाक्षत्रमानम्५.... .... २३७- १५ यकशिपुरुषवाक्योपसंहारः....१८४-०२३ सावनमानम्६ .... .... २३८-१८
इति संहाराऽध्यायः ११. दिव्यमानम् ७.... .... २३९-२० भूगोलज्ञानार्थमयासुरप्रश्नः .... १८५-१ प्राजापत्यमानम् ८ .... २३९-२१ अकांशपुरुषोक्तिः .... १८९-११ ब्राह्ममानम् ९.... .... २३९-२१ लगदुत्पत्तिक्रमः .... १९०.१२ ग्रंथोपसंहारपूर्वकफलश्रुतिसर्यएवसर्वात्मा... .... १९१-१५/ कथनम् १० .... २४२-२२ महाभूतात्पत्तिः .... १९३-२३ । इति चतुर्दशोऽध्यायः १४. पंचतारोत्पत्तिः.... ... १९४-२४ अहगणानयनोदाहरणम् .... २४४.० राशिनक्षत्रोत्पात्तः .... १९४-२५ मध्यानयनोदाहरणम् .... २४४ - ० रचितपदार्थानांस्थानानि .... १९५..२७ देशान्तरानयने उदाहरणम् । २४४... श्रीभागवतोक्तद्ब्रह्मांडगोलम् १९५-०२८ मंदोचानयने उदाहरणम् .... २४५-. ग्रहभूगोलादिकानामाकाशप-
पातमध्यानयनम् .... २४५... रिभ्रमणम् ..... .... १९६-३० रविस्फुटानयनम् .... २४५-० सप्तपाताला: .... .... १९७.३३ शनिस्फुटानयनम् । ... २४५.० मेरुस्थितिः .... .... १९७.-३४ ग्रहगतिः
.... २५३-४७ भूगोलेसमुद्रावस्थानम् ... १९८-३६ चंद्रग्रहणम् .... .... २५३-४७ मूगोलेयमालयकोटिलंकारोमककुरु- मुजज्या .... .... २५५-७४ वर्णनम ... .... १९९.-३८ प्रश्नावलिः ..... .... २५०...
इत्यनुकमाणका समाप्ता।
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श्रीगणेशाय नमः ।
अथ
श्रीसर्यसिद्धान्तः।
मूढार्थप्रकाशटीका-भाषाटीकास्यां सहितः।
प्रथमोऽध्यायः । यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा।
तद्ववेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूद्धनि स्थितम् ॥ पत्स्मृत्याभीष्टकार्यस्य निर्विघ्नां सिद्धिमेष्यति । नरस्तं बुद्धिदं वंदे वक्रतुण्डं शिवो द्भवम् ॥ १॥ पितरौ गोजिबल्लालौ जयतोऽम्बाशिवात्मकौ । याभ्यां पञ्च सुता जाता ज्योतिःसंसारहेतवः ॥ २ ॥ सार्वभौमजहांगीरविश्वासास्पदभाषणम् । यस्य तं भ्रातर कृष्णबुधं वंदे जगद्गुरुम् ॥ ३ ॥ नानाग्रन्थान्समालोच्य सूर्यसिद्धांतटिप्पणम् । करोमि रंगनाथोऽहं तद्गूढार्थप्रकाशकम् ॥ ४ ॥
अथ ग्रहादिचरितजिज्ञासून्मुनीस्तत्प्रश्नकारकान्प्रति स्वविदितं यथार्थतत्त्वं सूयौशपुरुपमयासुरसंवादं वक्तुकामः कश्चिदृषिः प्रथममारम्भणीयतत्व.थननिर्विघ्नसमापयर्थ कर प्रमाणाममंगलं शिष्यशिक्षायै निबध्नाति
अचिन्त्याव्यक्तरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ।
समस्तजगदाधारमूर्तये ब्रह्मणे नमः ॥१॥ ब्रह्मणे बृहत्त्वादपरिच्छिन्नत्वाज्जगद्व्यापकायेश्वराय “तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाश सम्भूतः" इत्यादिश्रुतिप्रतिपाद्यायेत्यर्थः । नमः कायवावचेष्टोपलक्षितेन मानसेन्द्रिपघुद्धिविशेषेण मत्तस्त्वमुत्कृष्टस्त्वत्तोऽहमपकृष्ट इत्यादिरूपेण नते.ऽस्मीयर्थः । ना व्यापकत्वेनाकाशस्यैव सिद्धिरत आह- समस्तजगदाधारमृतंय इति । समस्तस्य स्थावरजंगमात्मकस्य जगत उत्पत्तिस्थितिविनाशवत आधाराश्यभूता ब्रह्मविष्णुशिवरूपा मूर्तयः स्वरूपाणि यस्य तस्मै ब्रह्मविष्णुशिवात्मकायेत्यर्थः । आकाशस्य तदात्मक वाभावान्न सिद्धिारात भावः । नन्वेतादृशस्य स्वरूपध्यानं कर्तुं समुचितमित्यत आह । मचिन्त्याव्यक्तरूपायेति । अचिन्त्यश्चासावव्यक्तरूपस्तस्मै । अचिन्त्यो ध्यानाविषयः) मत्र हेतुरव्यक्तरूपः । न व्यक्तं प्रकटं रूपं स्वरूपं यस्य तथा च स्वरूपध्याना सम्भवान्नमस्कार एव समुचित इति भावः । नन्वव्यक्तरूपः कथमित्यत आह । निर्गुणा इति । निर्गता गुणाः सत्त्वरजस्तमोरूपा यस्मात्तस्मै गुणातीतायेत्यर्थः । तथा
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( २ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोऽ
च गुणात्मकस्य व्यक्तरूपत्वेनायं तदभावादव्यक्तरूप इति भावः । नन्वेवमस्यारूपित्वमेव फलितं नाव्यक्तरूपित्वमित्यत आह । गुणात्मन इति । गुणा नित्यज्ञानसुखादय आत्मगुणा आत्मस्वरूपं यस्य तस्मै नित्यज्ञानसुखाय । “सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म ” इति श्रुतेरित्यर्थः तथाचास्य रूपित्वमसिद्धमिति भावः । साक्षान्निर्गुणाय परम्परया गुणात्मने । कथमन्यथा जगत्कर्तृत्वं सम्भवति । “प्रकृतिं स्वामवष्टम्य विसृजामि पुनः पुनः । भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशः प्रकृतेर्वशात् ॥ " इति भगवदुक्तेरित्यन्ये ॥ १ ॥
भः० टी०-अचिन्त्य ( विचार में न आनेके योग्य), अव्यक्तरूपी, निर्गुण, गुणात्मा समजगदाधारमूर्ति ब्रह्मको प्रणाम है ॥ १ ॥
अथ स्वोक्तस्य स्वकल्पितत्वशङ्कावारणाय तत्संवादोपक्रमं विवक्षुः प्रथमं मयासुरेण तपस्तप्तमिति श्लोकाभ्यामाह
अल्पावशिष्टे तु कृते मयनामा महासुरः ॥ रहस्यं परमं पुण्यं जिज्ञासुर्ज्ञानमुत्तमम् ॥ २ ॥ वेदाङ्गमय्यमखिलं ज्योतिषां गतिकारणम् ॥ आराधयन्विवस्वन्तं तपस्तेपे सुदुश्वरम् ॥ ३ ॥
मयेति नाम यस्यासौ मयाख्यो महादैत्यः कश्चित् । तपोऽभिमतदेवताप्रीतिकरजपहोमध्यानादिना स्वशरीरादिक्लेश नियमरूपं तेपे कृतवान् । दैत्यानां तपश्चरणं पुराणेषु प्रति'पदं सुप्रसिद्धम् । ननु तत्र तेषां तपश्चरणस्य देवताविशेषमभिमतमुद्दिश्य प्रसिद्धेरनेन कं देवमुद्दिश्य तपस्तप्तमित्यत आह । आराधयन्निति । विवस्वन्तं सवितृमंडलाधिष्ठातारं नारायणं सेवयन् । ननु दैत्यारिमेनं स्वशत्रुं ज्ञात्वाप्ययं कथं स्वाभिमतसिद्ध्यर्थमारराध । नहि स्वशत्रुतः स्वहितसिद्धिरन्यथा शत्रुत्वव्याघात इत्यतस्तपोविशेषणमाहसुदुश्चरमिति । सुतरां दुःखैरत्यन्तक्लेशैश्चरितुं कर्तुं शक्यमित्यर्थः । तथाच भक्तजनैकवत्सलतया तादृशतपश्चरणसुप्रसन्नो दैत्यानामप्यभिमतं पूरयतीति पुराणेषु शतशः `श्रसिद्धम् । अतस्तत्प्रतीत्याराधयन्निति भावः । ननु पुराणेषु दैत्यानां तपश्चरणोक्तिअसं कचिदप्यस्यानु तेस्तत्तपश्चरणं कथं प्रमाणं ज्ञेयमित्यंत आह- अल्पावशिष्ट इति । कृते कृताख्ये युगचरणे तुकारात्सन्ध्या सन्ध्यांशसहित इत्यर्थः । तेन सन्ध्यासाध्या'शसभेत केवलकृतरूपाभि मतकृतचरणेन ग्रन्थान्तरोक्त केवलकृत इति पर्यवसन्नम् । अल्पकालेन सन्ध्यांशान्तर्गतेन शेषिते । समाप्त्यासन्नाभिमतकृतयुगे मयासुरेण तपस्तप्त मित्यर्थः । तथाच साम्प्रतमेव मयासुरण तपस्तप्तमिति सर्वज नावगत प्रत्यक्षप्रमाणसिद्धं नामांतरप्रामाण्यमपेक्षतइति भावः । ननु मयासुरणं किमर्थं तपस्तप्तं नहि प्रयोजनअनुद्दिश्य मन्दोऽपि प्रवर्तत इत्यतो मयासुरविशेषणशाह - जिज्ञासुरिति । ज्ञायतेऽनेनोत
मये नाम इते पठान्तरम्
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ध्यायः १ ]
संस्कृतटीका - भाषा टीकासमेतः ।
(३)
3
ज्ञानं शास्त्रं ज्ञातुमिच्छुः । तथाच शास्त्रज्ञाननिमित्तं तेन तपस्तप्तमिति भावः । किं तच्छास्त्रमित्यतो ज्ञानविशेषणमाह - ज्योतिषामिति । प्रवहवायुस्थानां ग्रहनक्षत्राणां गतिकारणम् । ये गत्यर्थास्ते ज्ञानार्था इति) गतेः संस्थानचलनमानादिज्ञानस्य कारणं प्रतिपादकं ज्योतिःशास्त्रं जिज्ञासुरिति फलितम् । ननु ज्योतिःशास्त्रज्ञानार्थमयमा - यासो न युक्तस्तस्य सर्वविज्ञेयत्वेनादुरूइत्वादित्यत आह- अखिलमिति । समग्र ज्योतिःशास्त्रमित्यर्थः । तथाचर्षीणां मानुषत्वेनैभ्यो मम ज्ञानमखिलं यथार्थ वा न भविष्यतीति दैत्यबुद्ध्या मत्वा निःशेषज्योतिःशास्त्रस्य दुरूहस्य विदिततत्त्वं भगवंतमप्रतारकं सर्वज्ञं महागुरुं सेवयामासेति भावः । ननु तस्यासुरस्य ज्योतिःशास्त्रमवृत्तिर्न युक्ता फलाभावादित्यत आह-वेदांगमिति । वेदस्यांगम् । तथाचांगिनो यत्फलं तदेवांगस्येति मोक्षरूपफलसद्भावादत्र प्रवृत्तिर्युक्तेति भावः । अतएव पुण्यजनकं पुराणन्यायेत्यादिचतुर्दशविद्यांतर्गतत्वात् । नन्विदं वेदांगं कुत इत्यत आह- परममिति । "कालोऽयं भगवान्विष्णुरनन्तः परमेश्वरः । तद्वेत्ता पूज्यते सम्यक्पूज्यः कोऽन्यस्ततो मतः ॥ " इत्युक्तेः कालप्रतिपादकत्वेनोत्कृष्टमतो वेदांगम् । एतेन पुराणादीनां निरास इति भावः । ननु व्याकरणादीनां षण्णां वेदांगत्वादस्मिन्नेव प्रवृत्तिः कथमित्यत आह- अग्र्यमिति । षण्णां वेदाङ्गानां मध्ये श्रेष्ठम् । कुत इत्यत आह- उत्तममिति । मुख्यांगं नेत्रमित्यर्थः। तथाच नेत्ररहितस्याकिञ्चित्करत्वादिदं ज्योतिःशास्त्रं वेदांगेषु श्रेष्ठमिति भावः । ननु तथाप्येतस्य ज्ञानार्थमेतावानाथासो न युक्त इत्यत आह । रहस्यमिति । विद्या ह वै ब्राह्मणमाजगाम गोपाय मा शेवधिष्टेऽहमस्मि । असूयकायानृजवेऽयताय नमा ब्रूया वीर्यवती तथा स्याम्" इति श्रुत्युक्तेर्गोप्यमित्यर्थः । तथाचास्य शास्त्रस्यादेयत्वेन निश्चितत्वादनेन तत्प्राप्त्यर्थमेतावानप्यायासः कृत इति भावः ॥ २ ॥ ३॥
66
मा० टी० - सत्ययुग कुछेक ( अंश ) शेष रहते हुए, मयनामक महाअसुर ने परमपुरहस्य वेदों में श्रेष्ठ समस्त ज्योतिषों (ग्रहनक्षत्रों ) की गतिका कारणरूप उत्तम ज्ञानको. प्राप्त करनेके लिये जिज्ञासु हो अतिकठोर तप करके सूर्यकी आराधना कीथी ॥ २ ॥ ३ ॥
ततस्तुष्टोऽको मयायेदं दत्तवानित्याह
तोषितस्तपसा तेन प्रीतस्तस्मै वरार्थिने ॥
ग्रहाणां चरितं प्रादान्मयाय सविता स्वयम् ॥ ४ ॥
स्वयं स्वतः प्रीतः सुखरूपः । यद्वा शोभनोऽयं प्रत्यक्षः प्रीतः सन्तुष्टोऽपि सन् सविता सवितृमण्डलमध्यवर्ती तेनः सुदुश्वरेण तपसाराधनेन तोषितः । अत्यन्तं सन्तुष्टः तस्मै असुराय मयनाम्ने वरार्थिने वरं स्वाभिमतं ज्योतिःशास्त्रमर्थयते ज्ञातुमिच्छति तस्मै
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सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोऽज्योतिःशास्त्रजिज्ञासवे ग्रहाणां प्रवहवायुस्थग्रहताराणां चरितं ज्ञानं प्रादात् । प्रकर्षण साकल्येन यथार्थतत्त्वेनादाद्दत्तवान् ॥ ४॥ __भा० टी०-उसके तपसे संतुष्ट हुए स्वयं सूर्यमगवान्ने प्रसन्न हो बरके चाहने. वाले मय मसुरको ग्रहोंका चरित्र दिया ॥ ४ ॥
नवयं सूर्यः स्वकार्याथै शरणागतमपि स्वशत्रु प्रति कथमिदमुक्तवानित्यतो मयं प्रति साक्षात्सूर्येणोक्तस्य वचनस्यानुवादार्थमुद्यतः प्रथमं तत्संगतिप्रदर्शकमेतदाह
__ श्रीसूर्य उवाच । विदितस्ते मया भावस्तोषितस्तपसा ह्यहम् ॥
दद्या कालाश्रयं ज्ञानं ग्रहाणां चरितं महत् ॥५॥ श्रीसूर्य उवाचेति । तेजःसमूहैदैदीप्यमानोऽकों मयासुरं प्रत्यवददित्यर्थः । अन्यथा चतुर्थपञ्चमश्लोक्योः संगत्यनुपपत्तेः । किमुवाचेत्यतस्तद्वचनमनुवदति । हे मयासुर ते तव भावो मनोरथो ज्योतिःशास्त्रजिज्ञासारूपः मया सूर्येण विदितस्त्वदकथितोऽपि स्वतो ज्ञातः । ततः किं न ह्येतावता मम तत्सिद्धिरत आह-अहमिति । ते इत्यस्यातेस्ते तुभ्यं ज्ञानं शास्त्रं कालाश्रयं कालप्रधानम् । ग्रहाणां प्रवहवायुस्थानां महदपरिमेयं चरितं माहात्म्यम् । ग्रहस्थितिचलनादिप्रतिपादकज्योतिःशास्त्रमिति फलिवार्थः । अहं सूर्यमण्डलस्थः दद्यां दास्यामि । ननु मां दैत्यं प्रतीदं वाक्यं प्रतारकं भविष्यतीत्यतः स्वविशेषणमप्रतारणपूर्वकतत्कथनहेतुमूतमाह-तोषित इति । हि यतस्तपसा त्वत्कृतागधनेनात्यन्तसन्तुष्टोऽतो दद्यामित्यर्थः । तथा च त्वत्कर्मवश्येन मया भक्तजनवत्सलतया जातिवरमुपेक्ष्यानुकम्पितमहादवत्त्वममतार्योऽनुकम्पित इति मावः ॥५॥
मा० टी-सूर्यभगवान्ने कहा:-ने तुम्हारे मभिप्रायको नाना, तपसे संतुष्ट भी हुआ ई, काल ( समय ) के आश्रित हुए ग्रहोंके चरित्रका ज्ञान तुमको दूंगा ॥५॥
ननु सूर्यस्य सदा जाज्वल्यमानतया तत्सन्निधौ श्रषणकालपर्यन्तं मयःस्थातुं कथं शक्तः कथं वानवरतभ्रमस्य तस्य मयसंवादार्थ भ्रमणविच्छेदः सम्भवति । अतो दानासम्भवात कथं दद्यामित्युक्तस्तद्वचनान्तरमनुवदति
नमे तेजःसहः कश्चिदाख्यातुं नास्ति मे क्षणः ॥
मदंशः पुरुषोऽयं ते निःशेष कथयिष्यति॥६॥ हेमय ते तुभ्यमयमग्रस्थः पुरुषो निःशेष सम्पूर्ण ज्योतःशास्त्रं कथयिष्यति । नवयं तथ्यं न वदिष्यतीत्यत आह-मदंश इति । मम सर्यस्यांशः सम्बन्धी मदुत्पन्न इत्यर्थः। तथा च मदनुकम्पितं त्वां प्रत्ययं तथ्यमेव वदिष्यतीति भावः । एतेनाई
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अध्यायः १] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (५) स्वांशद्वारा दास्यामीत्यर्थो दद्यामिति पूर्वपद्योक्तस्य प्रकटीकृतः । ननु त्वयैव वक्तव्यमित्यत आह-नेति । कश्चिदपि जीवो मे सूर्यमण्डलस्थस्य तेजःसहस्तेजोधारको न। सथा च बहुकालं मत्समीपे स्थातुमशक्तस्त्वं कथं मत्तः श्रोष्यसीति भावः । ननु स्वतपःसामर्थ्यनाहं त्वत्समीपे बहुकालं स्थातुं शक्तस्त्वत्तः श्रोष्यामीत्यत आह-आख्यातुमिति । मे सूर्यमण्डलस्थस्य प्रवहवायुनानवरतं भ्रममाणस्य स्वशक्त्या कदाप्यस्थिरस्य कथयितुं क्षणः कालो नास्ति । भ्रमणावसानासम्भवेनैकत्र स्थित्यसंभवात् । तथा च स्थिरस्य तव बहुकालं मत्संगासम्भवान्मत्तः श्रवणमसम्भावि । नहि त्वमपि मत्स्थानमधिष्ठातुं शक्तो येन मत्तः श्रवणं तव सम्भवति । ईश्वरनियोगाभावादिति भावः॥६॥
भा० टी०-मेरे तेनको कोई नहीं सह सकता और हमको समयभी नहीं है । हमारा अंशरूप यह पुरुष तुमसे विशेषतासहित कहेगा ॥ ६ ॥ मथ सूर्यवचनानुवादमुपसंहरन्सूर्यांशपुरुषमयासुरसंवादोपक्रममाह
इत्युक्त्वान्तर्दधे देवः समादिश्यांशमात्मनः ॥
संपुमान्मयमाहेदं प्रणतं प्रान्नलिस्थितम् ॥ ७॥ देवः सूर्यमण्डलस्थः इति पूर्वोक्तमुक्त्वा कथयित्वा आत्मनः स्वस्यांशमग्रस्थमंशपुरुष समादिश्य त्वं मयं प्रति सकलं ग्रहमाहात्म्यं कथयेत्याज्ञाप्य 'विनाज्ञां स मयं प्रति कथं कथयेत् समुच्चयार्थश्चकारोऽनुसन्धेयः । अन्तर्दधे अन्तर्धानं सूर्यांशपुरुषमयनेत्रागोचरतां प्राप्तवान् । प्रकृतमाह । स इति । सूर्याज्ञप्तः सूर्यांशपुरुषो मयासुरं प्रतीदं वक्ष्यमाणमवदत् । ननु नापृटो वदेदित्युक्तेर्मया पृष्टोऽयं कथं मयं प्रत्यवददित्यतो मयविशेषणद्वयमाह-प्रणतं प्राञ्ज लस्थितमिति । प्रकर्षण भक्तिश्रद्धातिशयेन नतं नम्र स्वनमस्कारकारकम् । प्रकृष्टो मानमवेष्टाद्योतको योऽञ्जलिः कराप्रयोः सम्पुटीकरणं तत्र चित्तैकाठयेणावस्थितम् । एतेनावनतभिरकरसम्पुटसंयोगः कायिकनमस्कार इति स्पष्टमुक्तम् । तथा च स्वामिन्नहं त्वां नतोऽस्मि मामनुगृहाणेर्दै कथयेत्युक्तियोतकनमस्कारोक्तेर्मयपृष्टोऽयं मयं प्रत्यवदेदिति भावः ॥ ७ ॥ __ भा० टी०-सूर्यभगवान् यह कह अपने अंशयको आज्ञा देकर मन्तर्धान हुए। और प्रणाम करते हाथ जोडकर खडे हुए मयसे सूर्याशारुपने कहीं ॥ ७ ॥
अथ प्रतिज्ञाततत्संवादानुवादे मयं प्रति ज्ञानं वक्तुकामः सूर्याशपुरुषः सावधानतया मदुक्तं शृणु त्वमित्याह
शृणुष्वैकमनाः पूर्व यदुक्तं ज्ञानमुत्तमम् ॥
युगेयुगे महर्षीणां स्वयमेव विवस्वता ॥८॥ हे मय एकस्मिन्नेव मनो यस्यासौ । अन्यविषयेभ्यो मनः, समाहृत्य मदुक्ते मनो ददानस्त्वं तज्ज्योतिःशास्त्रं शृणुष्व । श्रोत्रद्वारात्ममनः संयोगेन प्रत्यक्ष कुर्वित्यर्थः । ननु
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सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोऽलं स्वकल्पितं वदिष्यसीत्यतस्तच्छब्दसम्बन्धमाह-पूर्वमित्यादि । यदुत्तमं नेत्ररूपं ज्ञानं शास्त्रं ज्योति शास्त्रमित्यर्थः । बहुकालांतरेण पूर्वकाले कदेत्यत आह-युगेयुग इति । प्रतिमहायुगे महामुनीनां तान्प्रतीति तात्पर्यार्थः । सूर्येण स्वयमद्वारकेण साक्षादित्यर्थः । एवकारो यथा त्वां प्रत्यहं द्वारं साक्षात् कथनासंभवात् तथा तान्प्रत्यहमन्यो वा द्वारमित्यस्य वारणार्थः । तेषां स्वतपःसमाजवशीकृतेश्वराणां तत्प्रसादाधिगताप्रतिहतेच्छानां सूर्यमण्डलाधिष्ठानसम्भवात् । उक्तमुपदिष्टम् । तथा च सूर्योक्तं त्वां प्रति कथ्यते न स्वकल्पितमिति भावः ॥ ८॥
भा० टी०-युग २ में महर्षियोंसे आपही सूर्यभगवान् जो उत्तम ज्ञान कहा करते हैं, तिसको एकचित्त होकर श्रवण करो ॥ ८॥
ननु प्रतियुगं सूर्योक्तस्यैक्याभावात्त्वया किंयुगीयं शास्त्रमुपदिश्यते। अन्यथैकदोक्या युगेयुग इत्यस्यानुपपत्तरित्यत आह-.
शास्त्रमाद्यं तदेवेदं यत्पूर्व प्राह भास्करः॥
युगानां परिवर्तन कालभेदोऽत्र केवलम् ॥ ९॥ इदं मया तुभ्यं वक्ष्यमाणं ज्योतिःशास्त्रं तत्सूर्योक्तम् । । पक्कारात्सूर्योक्ताभि नत्वेन त्वां प्रत्यनुवादो न क्वचित्स्वकल्पनान्तरेणेत्यर्थः । आद्यं प्राकाले सूर्येणोक्तम् । नन्वासन्नयुगीयसूर्योक्तस्यापि पूर्वकालोत्तयाद्यत्वसंभव इत्यतस्तत्पदापेक्षितमाद्यपदविवरणरूपमाह-यदिति । शास्त्रं सूर्यः पूर्व प्रथमं यस्मात्पूर्वमनुक्तमित्यर्थः । प्राह प्रकर्षेण विस्तरेण मुनीन् प्रत्युक्तवान् । तथाच प्रथमातिरेके कारणाभावात् प्रथमस्य विस्तृतत्वाचानन्तरोक्तं पूर्वोक्ते गतार्थतया संक्षिप्तमुपेक्ष्य प्रथमयुगीयशास्त्रमुपदिश्यत इति भावः । ननु तर्झनन्तरयुगीयशास्त्राणां सूर्योक्तानां वैयर्थ्यप्रसङ्ग इत्यत आहयुगानामिति । महायुगानां परिवर्तेन पुनःपुनरावृत्त्यात्र सूर्योक्तशास्त्रेषु केवलं स्वभिभभावस्तन्मात्रमित्यर्थः । कालभेदः कालकृतमन्तरम् । पूर्वशास्त्रकालादनन्तरशास्त्रकालो भिन्न इत्येषु शास्त्रेषु भेदो न शास्त्रोक्तरीतिभेद इत्यर्थः । तथाच कालवशेन ग्रहचारे किञ्चिदैलक्षण्यं भवतीति युगान्तरे तत्तदनन्तरं ग्रहचारेषु प्रसाध्य तत्कालस्थितलोकव्यवहारार्थ शास्त्रान्तरमिव कृपालुरुक्तवानिति नानन्तरशास्त्राणां वैयर्थ्यम् । एवञ्च मया वर्तमानयुगीयसूर्योक्तशास्त्रसिद्धग्रहचारमंगीकृत्याद्य सूर्योक्तशास्त्रसिद्धं ग्रहचारं च प्रयोजनाभावादुपेक्ष्य तदुक्तमेव त्वां प्रत्युपदिश्यत इति भावः । एवञ्च युगमध्येऽप्यवान्तरकाले ग्रहचारेष्वन्तरदर्शने तत्तत्काले तदनन्तरं प्रसाध्य ग्रंथास्तत्कालवर्तमानाभियुक्ताः कुर्वन्ति । तदिदमन्तरं पूर्वग्रंथे बीजमित्यामनन्ति । पूर्वग्रंथानां लुप्तत्वात्सूर्यर्षिसंवादोऽपीदानी न दृश्यत इति । तदप्रसिद्धिरागमप्रामाण्याच नाशंक्या ॥९॥
केवल इति वा पाठः।
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घ्यायः १) संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
भा० टी० -पहले भास्कर ( सूर्य ) ने जो कहाथा वही आदि शस्त्र है, वे वल युग बदबनेके हेतु करके कालभेद हुमा है, सोही इस समय कहताहूं ॥ ९ ॥ अथ कालभेदं इत्यनेनोपस्थितं कालं प्रथमं निरूपयि घुस्तावत्कालं विभजते
लोकानामंतकृत्कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः॥
स द्विधा स्थूलसूक्ष्मत्वान्मूर्तश्वामूर्त उच्यते ॥ १० ॥ कालो द्विधा तत्रैकः कालोऽखण्डदण्डायमानः शास्त्रान्तरप्रमाणसिद्धः । लोकानां जीवानामुपलक्षणादचेतनानामपि अन्तकृविनाशकः । यद्यपि कालस्तेषामुत्पत्तिस्थितिकारकस्तथापि विनाशस्यानन्तत्वात्कालत्वप्रतिपादनाय चान्तकृादत्युक्तम् । अन्तकृदित्यनेनैवोत्पत्तिस्थितिकृदित्युक्तमन्यथा नाशासम्भवात् । अतएव “कालः सृजत्ति भूतानि कालः संहरति प्रजाः" इत्यायुक्तं ग्रन्थान्तरे । अन्यो द्वितीयः कालः खण्डकालः। कलनात्मको ज्ञानविषयस्वरूपः । ज्ञातुं शक्य इत्यर्थः । स द्वितीयः कलनात्मकः कालोऽपि द्विधा भेदद्वयात्मकः । तदाह-स्थूलसूक्ष्मत्वादिति । महत्त्वाणुत्वाभ्याम् . मूर्तः इयत्तावच्छिन्नपरिमाणः । अमूर्तस्तद्भिन्नः कालतत्त्वविद्भिः कथ्यते । चकारो हेतुक्रमेण मूर्तीमूर्त्तकमार्थकः । तेन महान्मूतः कालोऽणुरमूर्तः काल इत्यर्थः ॥ १० ॥
मा० टी०-एक काल लोकोंका अन्तकारी अर्थात् अनादि है। दूसरा काल कलनात्मक अर्थात् ज्ञानयोग्य है। खण्डकाळ रथूल व सूक्ष्मके भेदसे मूर्त मौर ममूर्त है ॥ १० ॥
अथोक्तभेदद्वयं स्वरूपेण प्रदर्शयन्प्रथमभेदं प्रतिपिपादयिषुस्तदवान्तरभेदेषु भेददयमाह
प्राणादिः कथितो मूर्तरुयुट्यायोऽमूर्तसंज्ञकः ॥ षभिः प्राणविनाडी स्यात्तत्षष्ट्या नाडिका स्मृता ॥ ११॥ . प्राणः स्वस्थसुखासीनस्य श्वासोच्छ्वासान्तवर्ती कालो दशगुर्वक्षरोचार्यमाण आदियस्यैतादृशः प्राणानन्तर्गतो मूर्तः काल उक्तः । त्रुटिराया यस्यैतादृशः काल एकमाणा न्तर्गतत्रुटितत्परादिकोऽमृतसंज्ञः । अथामूर्तस्य मूर्त्तादिभूतस्य व्यवहारायोग्यत्वेन प्रधानतयानन्तरेद्दिष्टस्य भेदप्रतिपादनमुपेक्ष्य मूर्त्तकालस्य व्यवहारयोग्यत्वेन प्रधानतया प्रथमोद्दिष्टभेदान्विवक्षुः प्रथमं पलघट्यावाह-षभिरिति । षट्प्रमाणैरसुभिः पानीथपलं भवति पलानां षट्या घटिकोक्ता कालतत्त्वज्ञैः ॥११॥
मा० टी०-प्राणादि मूर्त्तकाल है, वृध्यादिकी अमूर्त संज्ञा है। ६ प्राएकी एक विनारी (पळ) और ६० पळकी एक नाडी ( दण्ड) होती है ॥ ११ ॥ अथ दिनमासावाह
नाडीषष्टया तु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम् ॥
तात्रंशता भवेन्मासः सावनोऽकोदयस्तथा ॥ १२॥ १ उच्यत इति पाठान्तरम् ।
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( ८ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोऽ
घटीनां षष्ट्याहोरात्रं नाक्षत्रमुक्तम् । तुकारादहोरात्रस्य नाक्षत्रत्वोक्त्योक्तघट्या व्यपि नाक्षत्रत्वमुक्तम् । एतत्षष्टिघटीभिर्भचक्र परिवर्त्तनात् नाक्षत्रदिनानां त्रिंशत्संख्यया मामो नाक्षत्रः । मासानामनेकत्वेन सावनमासस्वरूपमाह - सावन इति । तथा त्रिंशदहोरात्रैः सूर्योदय सम्बं वैस्तदवधिकैः । सूर्योदयादि सूर्योदयान्तकाल रूपकाहोरात्र मान सापितैरित्यर्थः । सावनो मासः ॥ १२ ॥
•
मा० टी०-६० नाडीकी नाक्षत्रिक महोरात्र (दिनरात ), ३० अहोरात्र का एक मास ( महीना ) होता है सूर्योदय से लेकर फिर सूर्यके उदय होनेतक सावनदिन होता है ॥ १२ ॥ अथ चान्द्र सौरमास निरूपणपूर्वकं वर्षवद्दिव्यं दिनमाहऐन्दवस्तिथिभिस्तद्वत्संक्रान्त्या सौर उच्यते ॥
मार्द्ध दशभिर्वर्ष दिव्यं तदहरुच्यते ॥ १३ ॥
तद्वत्रिंशता तिथिमिश्चान्द्रो मासस्तत्र दर्शान्तावधिकः पूर्णिमान्तावधिकश्च शास्त्रे मुख्यतया प्रतिपादितः । अत्र शास्त्रे तु दर्शान्तावधिक एवं मुख्यः । इष्टतिथ्यवधिकस्तु मासो गौणः । सङ्क्रान्त्या सङ्क्रान्त्यवधिकेन कालेन सौरो मासो मासज्ञः कथ्यते । सङ्क्रान्तिस्तु सूर्यमण्डल केन्द्रस्य राश्यादिप्रदेश संचरणकालः । द्वादशभिर्वर्षम् । यन्मानेन मासास्तन्मानेन वर्षं ज्ञेयम् । तद्वर्ष सौरमासस्यासन्नवात्सौरम् | अहः अहोरात्रः । दिव्यं दिविभवम् । सौरवर्ष देवानामहोरात्रमानं मानतचज्ञैः तेः कथ्यत इत्यर्थः ॥ १३ ॥
भा० टी० - चान्द्रमास तिथियोंकर के और सौरमास राशिसंक्रमण के द्वारा निश्चित होता है। १२ भासका एक वर्ष है यही देवताओंका एक दिन है ॥ १३ ॥
ननु देवानां यथाहोरात्रमुक्तं तथा दैत्यानामहोरात्रं कथं नोक्तमित्यतस्तदुत्तरं वददेवासुरयोर्वर्षमाह
सुरासुराणामन्योऽन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ॥
तत्वष्टिः षड्गुणा दिव्यं वर्षमासुरमेव च ॥ १४ ॥
देवदैत्यानां बहुत्वाद्बहुवचनम् । अन्योन्यं परस्परम् । विपर्ययात् व्यत्यासात् अहोरात्रम् । अयमर्थः । देवानां यद्दिनं तदसुराणां रात्रिः । देवानां या रात्रिस्तदुसराणां दिनम् । दैत्यानां यद्दिनं तद्देवानां रात्रिः । दैत्यानां या रात्रिस्तद्देवानां दिनमिति । तथाच देवदैत्ययोर्दिनरात्र्योरेव व्यत्यासाद्भेदो न मानेनेति तयोरहोरात्रस्यैक्यादेवाहोरात्रमानकथनेनैव दैत्याहोरात्रमानमुक्तमिति भावः । युगकथनार्थं दिव्यवर्षे परिभाषया सुगममपि विशेषद्योतनार्थ प्रकारान्तरेणाह - तत्पष्टिरिति । दिव्याहोरात्रटिः । देवरूपा वर्षतुभिः षष्टिगुणिता दिव्यमासुरं दैत्यसम्बन्धि । च:
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व्यायः १ संस्कृतटोका-भाषाटीकासमेत
(९) समुच्चये । तेन द्वयोरित्यर्थः । वर्षम् । एवकारस्तयोदिनरात्र्योर्भेदेन वर्षभेदः स्यादिति मन्दशङ्कानिवारणार्थम् ॥ १४ ॥
भा० टी०-सुर व मसुरों की दिन रात्रिका विपर्यय पर्थात् जब एकका दिन होलाहे तो दूसरेकी रात्रि होती है ३६० दिव्य अहोरात्रसे देवासुरका एक वर्ष होता है . १४ ॥ अथ कल्पमानं विवक्षुः प्रथमं युगमानमन्यदपि श्लोकाभ्यामाह
तद्वादशसहस्राणि चतुर्युगमुदाहृतम् ॥ सूर्यान्दसंख्यया द्वित्रिसागरेरयुताहतः ॥ १५ ॥ सन्ध्यासन्ध्यांशसहितं विज्ञेयं तच्चतुर्युगम् ॥
कृतादीनां व्यवस्थेयं धर्मपादव्यवस्थया ॥ १६ ॥ तेषां दिव्यवर्षाणां द्वादशसहस्राणि चतुर्युगम् । चतुर्णा युगानां कृतत्रेताद्वापरक ख्याख्यानां समाहारो योगस्तदात्मकं महायुगमित्यर्थः । एतद्दयोतनाथै चतुरित्युक्तिरन्यथा युगमित्युक्त्या तद्वैयर्थ्यापत्तेः । मानाभिरुक्तम् । अथ सौरमानेन तत्संख्यां विशेषं चाह-सूर्याब्दसंख्ययोत । तद्देवासुरमानेनोक्तं चतुर्युगं द्वादशसहस्रवर्षास्मकं महायुगं सन्ध्यासन्ध्यांशसहिसम् । युगचरणस्याद्यन्तयोः क्रमेण प्रत्येकं सन्ध्यासन्ध्यांशाभ्यां युक्तं स देवसन्ध्यासन्ध्यांशावन्तर्गतौ न पृथग्यत्रैतादृशम् । सौरवर्षप्रमाणेन द्वित्रिसागरैः 'अङ्कानां वामतो गतिः' इत्यनेन द्वात्रिंशदधिकैश्चतु:शतमितैः अयुतेन दशसहस्रेण गुणितैः । खचतुष्कद्वात्रिंशचतुर्भिः परिमितं ज्ञेयमित्यर्थः । अथ चतुर्युगान्तर्गतयुगांघ्रीणां विशेषतो मानाश्रवणात्समं स्यादश्रुतत्वादितिन्यायेन प्रत्येक महायुगचतुर्थाशो मानमिति चतुर्युगमित्येन फलितं निषेधति-कृतादीनामिति । कृतत्रेताद्वापरकालयुगानाम् । धर्मपादव्यवस्थया धर्मचरणानां स्थित्या । इयं वक्ष्यमाणा व्यवस्थास्थितिज्ञैया न. तु समकालप्रमाणस्थितिः । अयमर्थः । कृतयुगे चतुश्चरणो धर्म इति तस्य मानमधिकम् । ततस्त्रेतायां धर्मस्य त्रिपादवत्वात्तदनुरोधेन त्रेतामान न्यूनम् । एवं द्वापरकल्योधर्मस्य क्रमेण व्येकचरणवत्त्वात् कृतत्रेतामानाभ्यां क्रमेणोक्तानुरोधान्न्यूनमानम् । नतु समं मानमिति ॥ १५ ॥ १६ ॥
भा००-दिव्य मानके १२००० हजार वर्षका एक चाकडी-युग होताहै। सूर्याब्दकी संख्या ४३२०००० वर्ष है ॥ १५ ॥ सन्ध्या भौर सन्ध्यांशके साथ जो चतुर्युग हैं तिसमें धर्मपादके अनुसार कृतादि युगमानकी व्यवस्थिति है ॥ १६ ॥
अथ सर्वधर्मचरणयोगेन दशमितेन महायुगं भवति तहि स्वस्वधर्मचरणैः किमित्यनुपातेन पूर्वोक्तफालतेन कृतादियुगानां मानज्ञानं सविशेषमाह
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( १० )
सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोs
युगस्य दशमो भागश्चतुस्त्रिव्येकस गुणः || क्रमात्कृतयुगादनि षष्ठांशः सन्ध्ययो स्वकः ॥ १७ ॥
प्रागुक्तदिव्यवर्षद्वादशसहस्रमितस्य युगस्य दशमो भागो दशांश इत्यर्थः । चतुर्द्धा क्रमेण चतुस्त्रिद्वयेकेगुणितः । गुणक्रमात् कृतयुगादीनां 1 गुणक्रमात् कृतयुगादीनां कृतत्रेताद्वापरकालयुगानां मानं स्यादिति शेषः । ननु मनुग्रन्थे कृतादिमानं दिव्यवर्षप्रमाणेन ४०००। ३००० । २००० । १००० । अत्र तु तन्मानं तद्वर्षप्रमाणेन ४८०० । ३६०० ॥ २४०० । १२०० । इति विरोध इत्यत आह । षष्ठ इति । स्वकः स्वसम्बन्धी षष्ठो विभागः सन्ध्ययोराद्यन्तसन्ध्ययोरैक्यकाल इति शेषः । तथा च मदुक्तमानानि ४८०० । ३६०० । २४०० । १२०० । एषां षडंशाः ८०० 1. ६०० । ४०० । २०० । एते स्वस्वयुगानामाद्यन्तयोः संध्ययोर्योगा इत्येषामधे सन्धिकालः । प्रत्येक माद्यन्तयोः सन्धिकालः ४०० । ३०० । २०० । १०० । अनेन प्रत्येकं मदुक्तमानं न्यूनीकृतं ग्रन्थान्तरोक्तं केवल मानं भवति न स्वसन्धिभ्यां सहितम् । यथा कृतादिसन्धिः ४०० कृतमानं ४००० कृतान्तसन्धिः ४०० त्रेतादिसन्धि३०० । त्रेतामानम् ३००० त्रेतान्तसन्धिः ३०० द्वापरा दिसन्धिः २०० द्वापरमानं २००० द्वापरान्तसन्धिः २०० कल्यादिसन्धिः १०० कलिमानम् १००० कल्यन्तसन्धिः १०० । एवं च स्वसन्धिभ्यां सहितं मयोक्तं स्वसम्बन्धात्सन्ध्ययोस्तदन्तर्गतत्वाच्चोत न विरोध इति भावः ॥ १७ ॥
मा० टी० - चतुयुर्गके दशम भागको ४, ३, २ और एकसे गुणा करके कृतादिका युगमान होता है । स्वीय षष्ठांश भागही संध्या है ॥ १७ ॥
1
अथ कल्पमानार्थ मनुमानं तत्सन्धिमानं चाह
युगानां सप्ततिः सैका मन्वन्तरमिहोच्यते ॥ कृताब्दसंख्या तस्यान्ते सन्धिः प्रोक्को जलपुत्रः ॥ १८ ॥
युगानां सैकासप्ततिरेकसप्ततिर्महायुगमित्यर्थः । इह मूर्त्तकाले मन्वन्तरं मन्वारम्भतत्समाप्तिकालयोरन्तरकालमानमित्यर्थः । मूर्त्तकालमानभेदाभिज्ञैः कथ्यते । तस्य मनोरन्ते विरामे जाते सति कृताब्दसङ्ख्या मदुक्तकृतयुगवर्षमिति सन्धिः कालविद्भिः प्रकर्षेण द्वितीयमन्वारम्भपर्यंतं भूतभाविमन्वोरन्तिमादिसन्धिरूपैककालेन कथितः । तत्स्वरूपमाह - जलप्लव इति 1 जलपूर्णा सकला पृथ्वी तस्मिँलोकसंहारकाले भवति ॥ १८ ॥
० टी० एकतर युगका एक मन्वन्तर होता है; तिसके अन्त में कृतयुगमान संख्यक सन्धिमान है | उसी समय जबप्लव (बाढ ) होता है ॥ १८ ॥
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ध्यायः १] संस्कृतटीका-भाषाटाकासमतः। (११) अथ कल्पप्रमाणं सावशेषमाह
ससन्धयस्ते मनवः कल्पे ज्ञेयाश्चतुर्दश ॥
कृतप्रमाणः कल्पादो सन्धिः पञ्चदशः स्मृतः॥ १९॥ ते एकसप्ततियुगरूपा मनवः स्यायंभुवाद्याः ससन्धयः स्वस्वसन्धिसहिताश्चतुर्दशसंख्याकाः कल्पकाले ज्ञातव्याः । स्वसन्धियुक्तचतुर्दशमनुभिः कल्पः स्यादित्यर्थः । ननु ग्रन्थान्तरे कल्पमानं युगसहस्रं त्वया तु युगमानमेकसप्ततिगुणं मनुमानम् ३०६७ २०००० कृताब्द १७२८००० युक्तससन्धिमनुमानम् । ३०८४४८००० । इदं चतुर्दशगुणं कल्पप्रमाणं कृतोनं युगसहस्रमित्यतआह-कृतप्रमाण इति । कल्पादौ प्रथममन्वारम्भे कृतयुगवर्षमितो मनोश्चतुर्दशत्वेऽप्याद्यः पञ्चदशक: स' न्धिः काल रुक्तः । तथाच कृतवर्षानन्तरं पथममन्वारम्भ इति तद्वर्षयोजनेनाविरोध इति भावः ॥१९॥ __ भा० टी०-कल्पमें सन्धिके साथ १४ मनु होते हैं । कल्पकी आदिमें कृतयुगप्रमाणकी एक सन्धि अर्थात् कल्पमें १४ मनु मोर पंद्रह सन्धियां होती हैं ॥ १९ ॥ अथ ब्रह्मणो दिनराव्योः प्रमाणमाह
इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः ॥
कल्पो ब्राह्ममहः प्रोक्तं शर्वरी तस्य तावती ॥ २०॥ इत्थं पूर्वोक्तप्रकारसिद्धेन युगसहस्रेण भूतसंहारकारको ब्राह्मलयात्मकः कल्पकालो ब्राह्मं ब्रह्मणः सम्बन्ध्यहो दिनं कालज्ञैरुक्तम् । तस्य ब्रह्मणस्तावती दिनपरिमिता शवेरी रात्रिः कल्पद्वयं तदहोरात्रमिति फलितार्थः ॥ २० ॥
भा० टी०-इस प्रकारसे सहस्र युगका मतसंहारकारी कल्प होता है। यही ब्रह्माका एक दिन और ऐसेही उसकी रात्रि है ॥ २० ॥ अथ ब्रह्मण आयुःप्रमाणमतीतवयाप्रमाणं वाह
परमायुः शतं तस्य तयाहोरात्रसंख्यया ॥
आयुषोऽर्द्धमितं तस्य शेषकल्पोऽयमादिमः ॥ २१ ॥ परमपरं शृणु पूर्वोक्तं त्वया श्रुतमपरं च वक्ष्यमाणं शृणु त्वम् । यद्वा परमेति दैत्यवरार्थकं सम्बोधनम् । त्वं तस्य ब्रह्मणस्तथा पूर्वोक्तयाहोरात्रमित्याकल्पद्वयरूपया शतं शतवर्षपरिमितमायुः शरीरधारणकालं जानीहि । एतदुक्तं भवति । 'अहोरात्रमानात्पूर्वपरिभाषया मासमानं तस्मात्पूर्वोतपरिभाषया मासमानं तस्मात्पूर्वोक्तपरिभाषया ब्रह्मणो वर्षमानमेतच्छतसङ्ख्यया ब्रह्मायुरिति । नतु यथाश्रुतार्थेन कल्पशतद्वयमायुः की। दीनामाप दिनसल्ययायुषोऽनुक्तेः सुतरां ब्रह्मणः शतदिनात्मकायुषोऽसम्भवात् ।
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( १२ )
सूर्य्यसिद्धान्तः
[ प्रथमो
“ निजेनैव तु मानेन आयुर्वर्षशतं स्मृतम्” इति विष्णुपुराणोक्तेश्च । एतेन परमायु रिति निरस्तम् । ब्रह्मणोऽनियतायुदयासम्भवात् । तस्य ब्रह्मण आयुः शतवर्षरूप मस्यार्द्ध पञ्चाशद्वर्षपरिमितमितं गतम् । अयं वर्त्तमान आदिमः प्रथमः शेषकल्पः शेषायुदयस्य ब्रह्मदिवस उत्तरार्द्धस्य प्रथमदिवसो वर्त्तमान इति फलितार्थः ॥ २१ ॥
भा० टी० - ब्रह्म अहोरात्र की संख्या से ब्रह्माकी परमायु शत वर्ष है । गतकल्पमें तिनकी आधी आयु बतिगई । यह कल्प द्वितीयार्द्धका पहला दिन है || २१ || अथ वर्त्तमानेऽस्मिन्दिवसेऽप्येतद्गतमित्याह
कल्पादस्माच्च मनवः षड्व्यतीताः ससन्धयः ॥ वैवस्वतस्य च मनोर्युगानां त्रिघनो गतः ॥ २२ ॥
अस्माद्वर्त्तमानात्कल्पाद्ब्रह्मदिवसात् षट्संख्याका मनव एकसप्ततियुगरूपाः ससनन्धयः सप्तभिः सन्धिभिः कृतयुगप्रमाणैः सहिता व्यतीता गताः । चकार आयुषोऽ धमितमिति प्रागुक्तेन समुच्चयार्थकः । वर्त्तमानस्य सप्तमस्य मनोर्वैवस्वताख्यस्य युगानां त्रिवनस्त्रयाणां घनः स्थानत्रयस्थिततुल्यानां घातः सप्तविंशतिस ख्यात्मको गतः । सप्तविंशति युगानि गतानीत्यर्थः । चः समुच्चये ॥ २२ ॥
भ० टी० - ललके आदिले लेकर वैवस्वत मनुके पहले सन्धि सहित ६ मनु बीते हैं । और इस वैवस्वत मनुकेभी २७ युग बीत चुके हैं ॥ २२ ॥
अथ वर्त्तमानयुगस्यापि गतमेतदिति वदन्नमितकालेऽग्रतो वर्षगणः कार्य इत्याहअष्टाविंशा युगादस्माद्यातमेतत्कृतं युगम् ॥
अतः कालं प्रसंख्याय संख्यामेकत्र पिण्डयेत् ॥ २३ ॥ अष्टाविंशतितमाद्वर्त्तमानान्महायुगादेतदल्पकालेन पूर्वकाले साम्प्रतं स्थितं कृतं युगं गतम् । अतः कृतयुगान्तानन्तरमभिमतकाले कालं वर्षात्मकं प्रसंख्याय गणयित्वा संख्यां पञ्चस्थानस्थितां भिन्नामेकत्रैकस्थाने पिण्डयेत्सङ्कलनविषयां कुर्यात् । सर्वेषां गतानां योगं कुर्यादित्यर्थः ॥ २३ ॥
J
मा० टी० - षड् अठाईस युगका कृतयुग बीता है। इस कारण काल की संख्या करके : एक स्थान में गत वर्ष स्थिर करो ॥ २३ ॥
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अथ कल्पादितो ग्रहादिभचक्रनियोजनकालं ग्रहगतिप्रारम्भ रूपमाह
ग्रहदेव दैत्यादि सृजतोऽस्य चराचरम् ॥ कृताद्रिवेद। दिव्यान्दाः शतघ्नो वेधसेो गताः ॥ २४ ॥
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घ्यायः १] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
(१३) अस्य वर्तमानस्य ब्रह्मणो ग्रहनक्षत्रदेवदैत्यमानवराक्षसभूपर्वतवृक्षादिकचराचरं जंगमस्थावरात्मकं जगत्सृजतः सृजतीति सृजन् तस्य जगन्निर्मायकस्य शतसङ्ख्यागुणिताश्चतुःसप्तत्यधिकचतुःशतसख्या दिव्याब्दा गताः एभिर्दिव्यवहसष्टयादिप्रबहवायुनियोजनान्तं कर्म ब्रह्मणा कृतमिति फलितार्थः ॥ २४ ॥
भा० टी०-कल्पके आरम्भसे दिव्यमानके ४७४०० वर्ष बीतने पर ग्रह, नक्षत्र, देष, दैत्यादि चराचरकी सृष्टि हुई है ॥ २४ ॥ अथ ग्रहपूर्वगत्युत्पत्तौ कारणमाह
पश्चाद्वजन्तोऽतिजवानक्षत्रेः सततं ग्रहाः ॥
जीयमानास्तु लम्बन्ते तुल्यमेव स्वमार्गगाः ॥२२॥ पश्चादनन्तरं पुनरावृत्त्या पश्चात् पश्चिमदिगभिमुखं नक्षत्रैस्तारकादिभिः सह प्रहार सूर्यादयोऽतिजवात् प्रवहवायुसत्वरगतिवशात्सततं निरन्तरं व्रजन्तो गच्छन्तः स्वमार्गगाः स्वकक्षावृत्तस्था जीयमाना नक्षत्रैः पराजिता नक्षत्राणामग्रे गमनात् । अतएव लज्जयेव गुरुभूता इति तात्पर्थिः । तुल्यं समम् । एवकारादधिकन्यूनव्यवच्छेदः । लम्बन्ते स्वस्थानात्पूर्वस्मिल्लम्बायमाना भवन्ति । यथा लज्जितः पश्चाद्भवति नागे। तुकारादधोऽधाकक्षाक्रमानुरोधेन शन्यादिग्रहाणां चन्द्रान्तानां गुरुतापचयः शनिरतिगुरुभूतस्तस्मात् किंचिन्यूनो गुरुस्तस्मादपि भौम इत्यादि यथोत्तरम् । यस्य कक्षा महती. तस्य गुरुत्वाधिक्यं यस्य लम्बी तस्य तदनुरोधेन गुरुताल्पत्वमिति । एतदुक्तं भवति । ब्रह्मणा प्रवहवायौ नक्षत्राधिष्ठितो मूर्ती गोलः स्थापितस्तदन्तर्गताः स्वस्वाकाशगोल स्थाः शन्यादयो नक्षत्राधिष्ठितमूर्तगोलस्थक्रान्तिवृत्तस्थरेवतीयोगतारासन्नरूपमेषादिमदेशसमसूत्रस्थाः स्थापिताः । क्रान्तिवृत्तं तु मेषतुलस्थाने विषुववृत्तलग्नसम्पातात् त्रिभान्तरितक्रान्तिवृत्तप्रदेशौ स्वासन्नविषुववृत्तप्रदेशाभ्यां चतुर्विंशत्यंशान्तरेण दक्षिणोत्तरौ मकरकर्कादिरूपौ तदेव द्वादशराश्यात्मकं वृत्तं ग्रहचारभूतम् । विषुवत्तं तु ध्रुवमध्यस्थं निरक्षदशोपारंगम् । तत्र प्रवहवायुना स्वाघातेन मूर्ती नक्षत्रगोलो नाक्षत्रषष्टिघटीमः परिवर्तते । तदन्तर्गतवायुभिस्तदाघातेन वा ग्रहा भ्रमन्त्यपि नक्षत्रगोलस्थितक्रान्तिवृत्तीयमेषादिप्रदेशेन समं न गच्छन्ति वायूनां स्वल्पत्वात्तदाघातस्याप्यल्पत्वादिम्बानां गुरुत्वाच्च । अतस्तत्स्थानाद्ग्रहाणां लम्बनं दृश्यते । अत एवं नक्षत्रोदयकाले तेषां द्वितीयदिने नोदयः किन्तु ग्रहो लम्बितपदेशेन वायुना तदनन्तर मूर्ध्वमागच्छतीत्यनन्तरमुदयः। लम्बनं तु शन्यादीनां कक्षानुरोधेत गुरुत्वादायूनां तद्घातानां वा कक्षानुरोधेन बह्वल्पत्वात्तु यद्यपि वायोधुवानुदोधेन सरवानग्रहावलम्बन विषुवत्ते भवितुमुचितं न क्रान्तिवृत्ते । तथाच वक्ष्यमाणक्रान्त्यनुपपत्तिः क्रान्तिबु. चस्थद्वादशराशिभोगेन वक्ष्यमाणानां भगणानामनुपपत्तिश्च । तथापि वायुनावलम्बितो
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(१४) सूर्यसिद्धान्त:
[ प्रथमोऽग्रहो विषुवन्मार्गगोऽपि तद्विषुवप्रदेशासन्नक्रान्तिवृत्तपदेशेन ग्रहाकाशगोलएव स्वसमसूत्रेणाकृष्यत इति नानुपपत्तिः अत एव स्वमार्गगा इति क्रान्तिवृत्तानुसृतस्वाकाशगोलस्थकक्षा मार्गगता इत्यर्थकमुक्तमिति संक्षेपः ॥ २५ ॥
मा० टी०-सदा अतिशीघ्र चलनेवाले नक्षत्र से, पाछे चलते हुए ग्रह पराजित होकर अपने लाडीमें तुल्यभावसे विलम्ब करते हैं ॥ २५ ॥ अथात एव ग्रहाणां लोके प्राग्गतित्वं सिद्धमित्यतआह
प्राग्गतित्वमतस्तेषां भगणेः प्रत्यहं गतिः॥
परिणाहवशादिना तशाद्भानि भुञ्जते ॥ २६ ॥ अतोऽवलम्बनादेव तेषां ग्रहाणां प्राग्गतित्वं प्राच्यां दिशि गतिर्येषां ते प्राग्गतयस्त द्भावः प्राग्गातत्वं सिद्धम् । लम्बनस्वरूपैव ग्रहाणां पूर्वगतिरुत्पन्नालोकः कारणानभिज्ञैः प्रत्यक्षावगततया तच्छक्तिजानता कल्पितेत्यर्थः । सा कियतीत्यत आह-भगणैरिति । वक्ष्यमाणभगणैः प्रत्यहं प्रतिदिनं गतिः प्राग्गमनरूपा भगणानां गत्युत्पन्नत्वाद्भगणसम्वन्धिवक्ष्यमाणदिनैः सूर्यसावनग्रहभगणा लभ्यन्ते तदैकेन दिनेन केत्यनुपाताज्ज्ञेया । ननु ग्रहभगणानां तुल्यत्वाभावात्मतिदिनं ग्रहगतिर्भिन्नात पूर्वलंबनरूपा ग्रहगतिरयुक्तोक्ता ग्रहलम्बनस्याभिन्नत्वादित्यत आह-परिणाहवशादिति । परिणाहः कक्षापारधिस्तदशात्तदनुरोधादियं ग्रहगतिभिन्ना तुल्या । अयमभिप्रायः । ग्रहाणां लम्बनं तुल्यप्रदेशे न परन्तु स्वस्खकक्षायां तत्प्रदेशे तुल्ये या कलास्ता गतिकलास्तास्तु महति कक्षावृत्तेऽल्पा लघुकक्षावृत्ते बढ्यः । सर्वकक्षापरिधीनां ऋकलाङ्कितत्वात् । भगणास्तु गतिवशादेव यस्यकक्षावृत्तं महत्तस्याल्पायस्य च लघुकक्षावृत्तं तस्य बहवस्तदुत्पन्ना गतिरपि तथेति विरोधः । नन्वेकरूपगात विहाय भिन्नरूपा गतिः कथमङ्गीकृतेत्यत आह-तदशादिति । भिन्नगतिवशाभानिराशीन्नक्षत्राणि भुञ्जते ग्रहा भुजन्तीत्यर्थः । तथाच.ग्रहराश्यादिभोगज्ञानार्थमियमेव गतिरुपयुक्ता नैकरूपेति भावः ॥२६॥ . भा० टी०-भिन्न कक्षासे उत्पन्न हुए भगणके हेतु प्रतिदिनकी गतिमें पृथक्ता होती है, तिसी कारणसे राशिभोग कालादिकी. विभिन्नता होती है ॥ २६॥ अथ भमोगे विशेष वदन्वक्ष्यमाणभगणस्वरूपमाह
शीघ्रगस्तान्यथाल्पेन कालेन महताल्पगः॥
तेषां तु परिवर्तन पोष्णान्ते भगणः स्मृतः ॥२७॥ अथशब्द पूर्वोक्तेविशेषसुचकः । शीघ्रगतिग्रहस्तानि मान्यल्पेन कालेन नं भुनक्त्य ल्पगतिम्रहो बहुकालेन भुनक्ति तुल्यराश्यादिभोगो मन्दशीघ्रगतिग्रहयोस्तुल्यकालेन न भवतीति विशेषार्थः । तेषां राशीनां परिवर्तन भ्रमणेन । तुकाराद्रहादिगतिभोगजनि
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ध्यायः १] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमतः। (१५) तेन भगणः प्राहरुक्तः । क्रांतिवृत्ते द्वादशराशीनां सत्त्वात्तगोगेन चक्रभोगसमाप्तेर्यस्थानमारभ्य चलितो ग्रहः पुनस्तत्स्थानमायातिः स चक्रभोगः । परिवर्तसंज्ञोऽपि द्वादशराशिभोगाद्भगण इत्यर्थः । ननु क्रान्तिवृत्ते सर्वप्रदेशेभ्यः परिवर्तसम्भवादत्रकः परिवादिभूतः प्रदेश इत्यतआह-पोष्णान्त इति । सृष्ट्यादौ ब्रह्मणा क्रान्तिवृत्ते खेतीयोगतारासन्नप्रदेशे सर्वग्रहाणां निवेशितत्वात्तदवधितो ग्रहचलनाच । पौष्णस्य खेतीयोगताराया अन्ते निकटे प्रदेशे तथाच खेतीयोगतारासन्नाग्रिमस्थानमेवाद्यन्तावधिभूतामति भावः ॥ २७ ॥
भा० टी०-शीघ्र चलनेवाले ग्रह थोडे समयमें, मौर थोडे चलनेवाले मधिक समयमै गमन करते हैं। रेवतीके मंतमें फिर लौट आनेसे भगण होता है ॥ २७ ॥
ननु परिवर्तस्य भगणसंज्ञात्वयुक्ता व्यादिराशीनामपि भगणत्वादित्यतः परिभाषाकथनच्छलेन भगणस्वरूपमाह
विकलानां कलाषष्टया तत्पष्टया भाग उच्यते ॥
तत्रिंशता भवेद्राशिभगणो द्वादशैव ते ॥२८॥ यथा मूतकाले प्राणकाल आदिभूतस्तथा क्षेत्रपरिभाषायां विकलाः सुक्ष्मादिभूतास्तासां षष्टयैका कला कलानां षष्ट्या भोगोंऽशः क्षेत्रपरिभाषाभिः। कथ्यते भागांत्रशता राशिः स्यात् । ते राशयः सकला द्वादश । एक्कारस्त्रिचतुरादीनां निरामार्थः । तथाच साकल्यै गणपदप्रयोगाद्भगणस्य भोगेऽपि भगणव्यवहाराच पूर्वोक्तं युक्तमिति भावः ॥ २८ ॥
भा० टी०-६० विकलाकी एक कला, और ६० कलाका एक भाग होता है। ३० भाग ( अंश) की एक राशि और १२ राशिका एक भगणहोता है । २८ ॥ अथ भगणान्विवक्षुः प्रथमं सूर्यबुधशुक्राणां भौमगुरुशनिशीघ्रोच्चानां च भगणानाह
युगे सूर्यज्ञशुक्राणां खचतुष्करदार्णवाः ॥
कुजार्किगुरुशीघ्राणां भगणाः पूर्वयायिनाम् ॥ २९ ॥ महायुगे सूर्यबुधशुक्राणां खानां चतुष्कर्मकस्थानादिसहस्रस्थानान्तचतुःस्थानस्थितानि शून्यानि ततोऽयुतादिप्रयुतस्थानपर्यन्तं दंतसमुद्रास्तथा च युगसौरवर्षाणि खाभ्रखानीद्वरामवेदमितानि भगणा द्वादशराशिभोगात्मकपरिवर्तानां संख्या भवंतीति शेषः । भौमशनिबृहस्पतीनां यानि शीघ्राणि शीघ्रोच्चानि तेषामेतन्मिता भगणाः । चकारः समुच्चयार्थकोऽनुसन्धयः । अत्र कक्षाक्रमेण चारक्रमेण वा गुरोः खलमध्यगता मव तीति न तथोद्देशः । स्वतंत्रस्य नियोगानहत्वाद्वा । नन्वाकाश एषां बिम्बाभावादवलम्बनासम्भवेन गत्यभावात कथं भगणा उक्ता इत्यत आह-पूर्वयायिनामिति । पूर्व
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(१६) सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोगामिनाम् । तथा च तेषामदृश्यरूपाणां पूर्वगतिसद्भावाद्भगणांती न क्षतिः । एषां स्वरूपादिनिर्णयस्तु स्पष्टाधिकारे प्रतिपादयिष्यते ॥ २९ ॥
मा०टी०-युगमें सूर्य बुध व शुक्रके मध्य और मंगल, शनि व बृहस्पतिके मध्य शीघ्र पूर्व को चलनेवाले भगण ४३२००००हैं ॥ २९ ॥ अथ चन्द्रभौमयोर्भगणानाह
इन्दो रसानिवित्रीषु सप्तभूधरमार्गणाः ॥
दस्त्यष्टरसाङ्काक्षिलोचनानि कुजस्य तु ॥ ३० ॥ पूर्वश्लोकोक्तभगणा इत्यत्रानिमश्लोकेष्वप्यन्वेति । भूधराः सप्त न तु पर्वतस्य धराभिधानत्वादेकसप्ततिः । मार्गणाः शरास्तथा च चन्द्रस्य मगणाः षडग्निदेवपञ्चसप्तसप्तपश्च मिताः । मौमस्य तुकारादाकाशस्थबिम्बात्मकस्यति पुनरुक्तिभ्रमवारणार्थ दन्ताष्टपडंकाकृतिमिताः ॥ ३० ॥ भाटी-चन्द्रमाके ५७७५३३३६, मंगल के २२९६८३२ भयण हैं ॥ ३० ॥ अथ बुधशीघ्रोच्चगुर्वा गणानाह
बुधशीघ्रस्य शून्यतुखाद्रियङ्कनगेन्दवः ॥
बृहस्पतेः खदास्रतिवेदपादयस्तथा ॥३१॥ सुषशीघ्रोधस्यादृश्यरूपस्य पूर्वगते गणाः षष्टिसप्ततित्र्यंकात्यष्टिमिताः । बृहस्पते स्वथा बिम्बात्मकस्यति पुनरुक्तिभ्रमवारणाय नखद्विवेदषड्राममिताः ॥ ३१ ॥ मा०टी०-बुघशीघके १७९३७०६०; बृहस्पति के ३६४२२० भगण हैं ॥ ३१॥ अथ शुक्रशीघ्रोच्चशन्योभंगणानाह
सितशघ्रिस्य षट्सप्तत्रियमाश्विखभूधराः ॥
शनेभुजङ्गषट्पञ्चासवेदनिशाकराः ॥ ३२ ॥ शुक्रशीघ्रोचस्यादृश्यरूपस्य पूर्वगतेभंगणाः षट्सप्तत्रिद्विद्विखसप्तमिताः । एतेन भूधरा इत्यस्यैकसप्तांतरेकादशवार्थो निरस्तः । शनेविम्बात्मकस्याष्टषट्पश्चरसेन्द्रमिताः ॥ ३२ ॥ मा०टी०-शुक्र शीघ्र के ७०२२३७६; शनिके १४६५६८ भगण हैं ।। ३२ ॥ अथ चन्द्रस्योचपातयोर्भगणानाह
चन्द्रोच्चस्यानिशून्याश्विवसुसणिवा युगे ।
वाम पातस्य वस्वनियमाश्चिशिखिदेखकाः ॥३३॥ चन्दमन्दोवस्य पूर्वगतेरदृश्यरूपस्य भगणा महायुगे रामनखाष्टाटवेदमिताः । पातस्य चन्द्रशब्दस्य संनिहितत्वाचन्द्रपातस्यादृश्यरूपरम वामं पश्चिमगत्या द्वादशगशि.
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ध्यायः १]
संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१७ मोगात्मकपरिवर्तरूपभगणा महायुगे अष्टरामाकृतिरामद्विमिताः । अत्र युगग्रहणं वक्ष्यमाणग्रहोचपातभगणसम्बन्धिकल्पकालवारणार्थम् । ग्रहोच्चपातभगणास्तु युगेयुगे नो पन्ना इत्यस्मिन्युगसम्बन्धिप्रसंगेनोक्ताः । मन्दोचपातस्वरूपादिनिर्णयस्तु स्पष्टाधि कारे व्यक्तो भविष्यति ॥ ३३ ॥ मा०टी०-चंद्रोच्चके ४८८२०३, चंद्रपातके बाई ओर २३२२३८ भगण हैं ॥ ३३ ॥
अथ युगे नाक्षत्रदिवसांस्तत्स्वरूपावगमाय ग्रहसावनदिनस्वरूपं स्वसंख्याज्ञानहेतु कंचाह
भानामष्टाक्षिवस्वद्विविद्विद्वयष्टशरेन्दवः ॥
भोदया भगणेः स्वैः स्वरुनाः स्वस्वोदया युगे ॥३४॥ भानां नक्षत्राणां स्वतो गत्यभावेऽपि प्रवहवायुना परिभ्रमणात्तत्संख्यातुल्या मगणाः स्वदिनतुल्याः। अतएवात्र वाममिति पूर्वोक्तस्य युक्तोऽन्वयः । अष्टद्वयष्टनगाग्निजातिमजदिनमिताः । ननु ग्रहाणामपि प्रवहवायुना परिभ्रमणनोदयसद्भावात्तेषां दिवसा: कथं ज्ञेया इत्यत आह-भोदया इति । उदयो यस्मिन्नहान स्वाद्यन्तावधि रूप इति व्युत्पत्त्योदयशब्देन दिनम् । तथा च भोदया नाक्षत्रदिवसा एत उक्ताः स्वैः स्वैः स्वकीयैः स्वकीय गणैः प्रागुक्तैर्वर्जिताः सन्तः स्वस्वोदया निजनिजसावनदिवसा युगेमवान्त । युग इत्येननाभीष्टकाले नाक्षत्रदिवसा ग्रहगतभोगादिना भगणादिनोना ग्रहसाबनदिवसा अभीष्टा भवन्ति । परंतु राशीन्पश्चगुणितानंशादिकं दशगुणितं कृत्वा घट्यादिस्थाने हीनं कार्यमन्यथा विजातीयत्वादन्तरानुपपत्तेरिति सूचितम् । अत्रोपपत्तिः । यदि ग्रहाणां प्राग्गमनावलम्बनं न स्यात्तर्हि ग्रहोदयनक्षत्रोदययोरकेहेतुत्वान्नाक्षत्रसावन दिवसयोरभेदः स्यात् । अतो ग्रहाणां लम्बनेन नाक्षत्रदिवसेभ्यः सावनदिवसानामन्तरितत्वादवलम्बनजभगणान्तरेण युगे नाक्षत्रदिवसेभ्यो ग्रहसावनदिवसा न्यूना भवन्ति । प्रवहण भगणतुल्यपश्चिमाहतुल्यानामकरणादित्युपपन्नम् । भोदया इत्यादि । अनेक मगणसावनयोगो नाक्षत्रदिवसा इत्यप्यर्थसिद्धम् ॥ ३४ ॥
भा०टी०-नक्षत्रोंके १५८२२३७८२८ भगण हैं नक्षत्रोंके भगण से ग्रहोंके भगण घटानेर धुगमें अपने २ उदयकी संख्या निकल आवंगी ॥ ३४ ॥ अथ वक्ष्यमाणचान्द्रदिवसाधिमासयोः संख्याज्ञानहेतुकं स्वरूपमाह
भवन्ति शशिनो मासाः सूर्यन्दुभगणांतरम् ॥
रविमासोनितास्ते तु शेषाः स्युरधिमासकाः॥ ३५ ॥ सूर्यचन्द्रमगणयोरन्तरं चन्द्रस्य मासा भवन्ति ते चान्द्रमासा रविपासोनितात अत्र प्रथमं तुकारान्वयाद्वादशगुणितरविभगणरूपवक्ष्यमाणार्कमासैरूनिताः मन्तः शेषा
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(१८ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ प्रथमोऽअवशिष्टा ये चान्द्रमासास्तेऽधिमासा एव भवन्ति नान्ये । अनेन चान्द्रत्वमधिमासानां स्पष्टीकृतम् । अत्रोपपत्तिः । त्रिंशत्तिथ्यात्मकस्य रवीन्दुयुतिकालरूपदशतावधेश्वान्द्रमासस्य द्वादशर शिमितेन सूर्यद्वन्तरेणैव सिद्धिः । कथमन्यथा 'दशान्ते जातस्य मन्दशीघ्रयोः सूर्येन्द्वोर्योगस्य पुनर्दशन्ते संभवः । द्वादशराश्यन्तरं वकं भगणान्तरमतो भगणान्तरेण चान्द्रो मासः सिद्धः । सौरमासापेक्षया यदन्तरेण चान्द्रमासानामधिकत्वं त एवाधिमासा इति स्वरूपमेव वक्ष्यमाणोपयोगात्परिभाषितम् ॥ मा० टी० - चंद्रमा और सूर्य का मगणान्तर चान्द्रमास है । चन्द्रमास से रविमास घट नेपर अधिमास होजाता है ॥ ३५ ॥
अथ वक्ष्यमाणावमसूर्य सावनयोः स्वरूपमाह
सावनाहानि चान्द्रेभ्यो द्युभ्यः प्रोज्झ्य तिथिक्षयाः ॥ उदयादुदयं भानेोर्भूमिसावनवासराः ॥ ३६ ॥
चान्द्रेभ्यो द्युभ्यो वक्ष्यमाणवान्द्रदिवसेभ्यः सकाशादित्यर्थः । सावनाहानि सावन दिनानि प्रोज्झ्य त्यक्त्वावशेषं तिथिक्षयाः । तिथिषु चान्द्रदिनेषु सावनदिनानामवशेषतुल्यः क्षयो न्यूनत्वम् । यद्वा तिथिशब्देन सावनो दिवसस्तस्य चान्द्रदि
सात्क्षय इति स्वरूपमेव वक्ष्यमाणोपयोगात्परिभाषितम् । ननु भोदया भगणैरित्यादिना पूर्व सर्वेषां सावनदिवसा उक्ता इत्यत्र कस्य ग्राह्या इत्यतः सूर्यसावन स्वरूप कथनच्छलेनोत्तरमाह-उदयादिति । सूर्यस्योदयकालमारभ्याव्यवहिततदुदयकालपर्यन्तं यः कालः स एको दिवसः । इति ये दिवसास्ते भूमिसावनवासराः । भूदिचसा उदयस्य भूसम्बन्धेनावगमात् । सावनादिवसाश्चेत्यर्थः । तथाच निरुपपदसाचनभूमिशब्दाभ्यां सूर्यस्य वासरा एवं नान्येषां सोपपदत्वाभावादिति भावः ॥ ३६ ॥ मा० टी० - चन्द्रदिन से सावन दिन दूर करनेपर तिथिक्षय होता है । सूर्य के एक उदय दूसरे उदयतक एक भौम या सौर दिन होता है ॥ ३६ ॥
ते कियन्त इत्यतस्तत्प्रमाणं चान्द्रदिनपमाणं चाह
वसुव्यष्टाद्रिरूपां कसप्ताद्वितिथयो युगे ॥
चान्द्राः खाष्टखखव्योमखानिखर्तुनिशाकराः ॥ ३७ ॥ अष्टाश्विगज सप्तभूगोनगसप्तपञ्चभूमिता युगे सूर्यसावनदिवसाः । भान्द्रदिवसा युगतियय इत्यर्थः । अशीतिशून्यचतुष्कत्रिखनृपा एते त्रिंशद्वताश्चान्द्रमासा उक्तप्रायाः । अनेनैव चान्द्र दिवसानामुपपत्तिः सूर्यचन्द्रयोर्भगणयोरन्तररूपचान्द्रमा सास्त्रिंशद्गुणिता इति स्पष्टीकृताः ॥ ३७ ॥
"
भा० टी०-युगमें १५७७९१७८२८ सौर देने और १६०३००००८० तिथि ( चन्द्रदिन ) हैं ॥ ३७ ॥
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व्यायः १.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
(१९) अथाधिमासावमयोः संख्यामाह• षड्वह्नित्रिहुताशाङ्कतिथयश्चाधिमासकाः॥
तिथिक्षया यमार्थाविध्यष्टव्योमशराश्विनः ॥ ३८ ॥ अधिमाप्तकाः प्रागुक्तस्वरूपाश्चकारायुगे षड्देवरामगोशरेन्दुमितास्तिथिक्षया दिनक्षया अवमानीत्यथः । अर्थाः पञ्च । एवं द्विशराकृत्यष्टखतत्त्वानि ॥ ३८॥ भ० टी०-युगमें मधिमास १५९३३३६ और तिथिक्षय २५०८२२५२ हैं ॥ ३८॥
ननु सूर्यमासानुक्तेरधिमाससंख्या कथं ज्ञातेत्यतो रविमाससंख्यास्वरूपेण वहां श्वाह
खचतुष्कसमुद्राष्टकुपञ्चरविमासकाः॥
भवन्ति भोदया भानुभगणरूनिता कहाः ॥ ३९ ॥ सूर्यमासा द्वादशगुणितरविभगणानुरूपाः शून्यखाभ्रखवेदधृतिशरमिताः । ननु सावनदिवससंख्या प्रागुक्ता कथमवगतेत्याह-भवन्तीति । भोदया नाक्षत्रदिवसाः प्रागुक्ताः सूर्यभगणैः प्रागुक्तैवर्जिताः सन्तः कहा भूवासरा भवन्ति मोदय इत्यादिप्रागुक्तेः ॥ ३९ ॥
भा० टी०-युगमें रविमास ५१८४२००० हैं । नक्षत्र भगगले सूर्यभगण घाईने पर कुदिन (सौरदिन ) की गिनती होतीहै ॥ ३९ ॥
ननु सूर्यादिमन्दोचभौमादिपातानां युगे भगणानुत्पत्तेः कल्पभगणकथनमवश्य कमतस्तत्पत्त्यां प्रागुक्ता एते भगणादयः कल्प एव कथं नोक्ता इत्यत आह
अधिमासोनरात्र्यक्षचान्द्रसावनवासराः ॥
एते सहस्राणिताः कल्पे स्युभंगणादयः॥ १० ॥ एते प्रागुक्ता भगणादयो भगणा आदिर्येषां ते भगणादयः। अधिमासोनराध्यक्षवान्द्रमावनवासराः । अधिमासाः षड्वनीत्यादिातेथिक्षया इत्याचूनरात्रयोऽत्रमानि । ऋक्षचान्द्रसावनानां प्रत्येक वासरसम्बन्धः । नाक्षत्रदिवसामानामित्यादि । चान्द्रदिवसाश्चान्द्रा खाष्टेत्यादि । सावनदिवसा वसुयष्टाद्रीत्यादि । अत्र सौरमासा आप खचतुष्केत्यादि ग्राह्याः । सहस्रगुणिताः कल्पे भगणादय उक्ता भवन्ति युगसहस्रस्य कल्पत्वात् । तथा च लाघवार्थ युगयुक्ता इति भावः ॥ ४० ॥
भा० टी०-एक युगके अधिमास, तिथिक्षय, चान्द्रसावनदिन आदि सबको १००० से गुणा करनेपर एक कल्पके भगणादि होते हैं ॥ ४० ॥ अथ श्लोकाभ्यां रविचंद्रसूर्यादिग्रहाणां मन्दोच्चभगणान्वदन्पातभगणान्प्रतिजानीते
प्राग्गतेः सूर्यमन्दस्य कल्पे सप्ताष्टवह्नयः ।। कोजस्य वेदखयमा बोधस्याष्टविह्नयः ॥ ११ ॥
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(२०) सूर्यसिद्धान्तः
[प्रथमोऽखखरन्ध्राणि जैवस्य शोकस्यार्थगुणेषवः ।।
गोऽग्नयः शानिमन्दस्य पातानामथ वामतः ॥१२॥ पागतः कल्प इत्यनयोः शनिमन्दान्तं प्रत्येकं सम्बन्धः । पूर्वगतः सूर्यमन्दोचस्य कल्पे सप्ताष्टराममिताः शनिपातस्य भगणा इति वक्ष्यमाणस्य भगणा इति पदमत्र प्रत्येकमन्वेति । कोजस्य कुजसम्बन्धिनः सूर्यमन्दस्येत्यस्यैकदेशो मन्दस्येति मन्दोचस्येत्यर्थकमत्रान्वेति । तथा च भौममन्दोवस्य चतुरधिकं शतद्वयम् । बौधस्य बुधमन्दोचस्याष्टषत्रिमिताः । जैवस्य गुरुसम्बन्धिमः । अत्र शनिमन्दस्येति वक्ष्यमाणस्यैकदेशो मन्दस्येति मन्दोचस्येत्यर्थकमन्वेत्येकवृत्तस्थत्वात् । यद्वाद्यन्तयोर्मन्दस्येत्युक्त्यैव मध्यस्थानामन्वयः सूपपन्न इति । तथा च गुरुमन्दोच्चस्य नवशतं शौकस्य शुक्रमन्दोबस्य पञ्चत्रिंशदधिकपञ्चशतं शनिमन्दोचस्यैकोनचत्वारिंशत् । अथानन्तरं पातानां मौमादिपातानां वामतः पश्चिमगत्या भगणा उच्यन्त इति शेषः ॥ ४१॥४२॥
भा० टी०-एक कल्पमें मंदसूर्यके ३८७, मंगलके २०४ बुधके ३६८, बृहस्पतिके ९०० शुक्रके ५३५ और शनिके ३९ भगण बाई भोरको चलते हैं ॥ ४१ ॥ १२ ॥ तालोकाभ्यामाह
मनुदस्रास्तु कोजस्य बोधस्याष्टाष्टसागराः॥ कृताद्रिचन्द्रा जैवस्य त्रिखाङ्काश्व भुगोस्तथा ॥ १३ ॥ शनिपातस्य भगणाः कल्पे यमरसतवः॥
भगणाः पूर्वमेवात्र प्रोक्ताश्चन्द्रोचपातयोः॥४४॥ कुजसम्बन्धिनः। तुकारात्पातस्य भौमपातस्य कल्पे भगणाश्चतुर्दशाधिकं शतद्वयम् । बौधस्य बुधसम्बन्धिनः शनिपातस्येत्यस्यैकदेशः पातस्येत्यत्रान्वेति । बुधपातस्य द्वादशोनम पञ्चशती । जैवस्य गुरुपातस्य चतुःसप्तत्यधिकं शतम् । भृगोः शुक्रस्य तथा सम्बन्धिनश्चकारात्पातस्य शुक्रपातस्येत्यर्थः । व्यधिका नवशती । शनिपातस्य द्विरस पटुका भगणाः कल्पे भवन्ति । नन्वस्मिन् प्रसंगे चंद्रस्योचपातयोर्भगणाः कथं नोक्ता इति मन्दाशङ्कापाकरणाय पूर्वोक्तं स्मारयति । भगणा इति । चंद्रोच्चपातयोश्चन्द्रस्य मन्दोचपातयोर्भगणा अत्रास्मिन्नधिकारे पूर्व ग्रहयुगभगणकथने एवकारो विस्मरणनिरासार्थकः । प्रोक्ताश्चन्द्रोच्चस्येत्यादिश्लोकेनोक्ताः ॥ ४३ ॥ ४४॥
मा०टी०-एक कल्पमें मंगल के २१४, बुधके १८८, बृहस्पतिके १७४, शुक्रके ९०३, शनिके ६६२ पातके बाई ओर चलनेवाले भगण हैं पहनेही चन्द्रमाके पात कहे हैं॥४३४४॥
अथाभिमतकाले ग्रहगतभोगानयनं विवक्षुस्तदुपजीव्याहर्गणसाधनार्थं प्रवृत्तग्रहं चार कालागताब्दज्ञानोपजीव्यं कृतयुगान्तीयगताब्दज्ञानं श्लोकत्रयणाह
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ध्यायः १.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।।
षण्मनूनां तु सम्पिण्ड्य काल तत्सन्धिभिः सह ॥ कल्पादिसन्धिना सार्दै वैवस्वतमनोस्तथा ॥ ४५ ॥ युगानां विघनं यातं तथा कृतयुगं त्विदम् ॥ प्रोड्य सृष्टेस्ततः कालं पूर्वोक्तं दिव्यसंख्यया ॥१६॥ सूर्यान्दसंख्यया ज्ञेया कृतस्यान्ते गता अमी ॥
खचतुष्कयमाद्यनिशररन्ध्रनिशाकराः ॥ १७॥ षमननां कालं सौरवर्षात्मकं तत्सन्धिभिः षण्मनूनां कृतयुगप्रमाणैः षभिः संधिभिः • सह सार्द्ध कल्पादिसन्धिना कृतप्रमाणः कल्पादावित्यनेन कल्पप्रारम्भसम्बद्धकृतयुगमितसन्धिना सार्दै सार्थ सर्मिपण्डयैककृित्य । तुकारादायुषोऽर्धमितं तस्येत्यस्य निरासः । वैवस्वतमनोर्वर्तमानसप्तमवैवस्वताख्यस्य मनोयुगानां त्रिधनं यातं युगसप्तविंशतिंगतां तथैकीकृत्येदमष्टाविंशतियुगान्तर्गतं तुकारात्साम्प्रतं स्थितं कृतयुगं तथा गतत्वेनैकीकृत्य ततः सिद्धाकात्सृष्टेः कालं सृष्टिकरणार्थ यः कालो वर्षात्मकस्तं दिव्यसंख्यया दिव्यमानेन पूर्वोक्तं कृताद्रिवेदा दिव्याब्दाः शतघ्ना इत्यनेनोक्तम् । सूर्याब्दसंख्यया • सौरवर्षमानेन षष्टयधिकशतत्रयगुणितं कृत्वेति तात्पर्यार्थः । एतेन प्रागुक्तकीकरणं सौर वर्षप्रमाणेन दिव्यवर्षप्रमाणेनेति व्यक्तीकृतम् । प्रोज्झ्य न्यूनीकृत्य । चा समुच्चयार्थोऽनुसन्धेयः । अमी अवशिष्टान्दाः खाभ्रखाभ्रद्विसप्तत्रिशरातिधृतयः कृतयुगचरणस्यावसाने गता अतीता ज्ञातव्याः । ननु कल्पादस्माच मनव इत्यादिपूर्वोक्तसम्पिण्डितकालोक्त्येदं षण्मनूनामित्यादि पुनरुक्तपाभाति । नच पूर्व ब्रह्मगतवयाप्रमाणज्ञानार्थमिदानी च ग्रहसाधनार्थम् । अन्यथा गतब्रह्मवयाप्रमाणाद्रहसाथनापत्तोरति वाच्यम् । ब्रह्मगतवयाप्रमाणादेव ग्रहसाधनस्य युक्तत्वादिष्टापत्तेः। अन्यथा ग्रहचक्रादेब्रह्मोत्पत्तितस्तद वसानपर्यंतं सत्त्वाब्रह्मदिनाधिककाले गताब्दज्ञानाभावाद्ग्रहसाधनानुपपत्तिरिति चेन्न । इत्थं युगसहस्रेण भूतसंहारकारकः कल्प इत्यनेन ब्रह्मदिनान्ते ग्रहचक्रादिनाशोक्तेस्तदिनादौ ग्रहचक्रोत्पत्तेश्च ब्रह्मदिवस एव तदादिगताब्दा ग्रहचारोपजीव्या न ब्रह्मगतायुः प्रमाणाब्दाः ग्रहासत्त्वे ग्रहसाधनापत्तेः । अतः पुनर्गतान्दाग्रहचारोपजीव्या ब्रह्मदिवसे साधिताः । परन्तु ब्रह्मदिनादितो ग्रहचारप्रवृत्तिकालपर्यंत यः सृष्टिविलम्बितकालस्तदूना ब्रह्मदिनादिगताब्दाः सृष्टिगताब्दा ग्रहसाधनोपजीव्या इति तथोक्तम् । अन्यथा सृष्टयन्तर्गतकाले ग्रहचारासत्त्वे तत्साधनापत्तेः सृष्टिकालकथनानुपपत्तेश्चेति दिक् । यथा दिव्याब्दस्य सौरवर्षाणि ३६० । द्वादशसहस्रगुणितानि महायुगम् ४३२०००० इदमेकसप्ततिगुणं मानुनमम् ३०६७२०००० इदं षड्गुणितं षण्मनुमानम् १८४०
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(२२) सूर्यासद्धान्तः
[ प्रथमोऽ३२०००० इदं स्वसन्धिभिः कृतयुगप्रमाणैः सप्तभिरेभिः १२०९६००० युगम् १८५२४१६००० एतत्सप्तविंशतियुग ११६६४०००० सहितम् १९६९०५६००० कृतयुग १७२८००० युक्तं जातानि कल्पगतवर्षाणि १९७०७८४००० । सृष्टिदिव्याब्दैः ४७४०० । खपडग्निगुणितैरोभः १७०६४००० । हीनं सृष्टिगताब्दा ग्रहचारोपजीव्याः कृतयुगान्ते खचतुष्कत्याद्युपपन्नाः १९५३७२०००० ॥ ४५ ॥ ॥ ४६॥ ४७ ॥ __ भा० टी०-सन्धिके सहित छ:मनुका समय कल्पकी आदि सन्धि, बीते हुए सत्ताईस युगका प्रमाण मोर कृतयुगमान जोडके उसमेंसे वल्पारम्भसे लेकर सृष्टिकालतकके सौर वर्ष ( २४ श्लोक ) की संख्या घटानेसे सृष्टि के बीते हुए वर्ष निकल भावेंगे । सो १९५३ ७२०००० वर्ष हैं ।। ४५ ॥ ४६ ।। ४७ ॥
तथाभीष्टकालेऽहर्गणसाधनं ततो दिनमासाब्दपप्रतिज्ञा वासरेश्वरज्ञानं च श्लोकचतुष्टयेनाह
अत ऊर्ध्वममी युक्ता गतकालान्दसंख्यया ॥ मामीकृता युता मासमधुशुक्लादिभिर्गतः ॥ १८॥ पृथक्स्थास्तेऽधिमासनाः सूर्यमासविभाजिताः ॥ लब्धाधिमासकर्युक्ता दिनीकृत्य दिनान्विताः ॥ १९॥ द्विष्ठास्तिथिक्षयाभ्यस्ताश्चान्द्रवासरभाजिताः ॥ लब्धोनराविरहिता लङ्कायामार्धरात्रिकः॥५०॥ सावनो हुगणः सूर्यादिनमासान्दपास्ततः॥
सप्तभिः क्षयितः शेषः सूर्यायो वासरेश्वरः॥५१॥ अतः कृतयुगान्तादूर्ध्वमुपर्यनन्तरमित्यर्थः । अभीष्टकाले यो गतकालस्तस्य सौरवर्षसल्ययामी कृतयुगान्तीयसृष्टयब्दाः खचतुष्केत्यादिपूर्वोक्ता युक्ता अभीष्टकाले सौरगताब्दा भवंति । एते मासीकृता द्वादशगुणिता इत्यर्थः । अभीष्टकाले मधुशुक्लादिभिश्चत्रशुक्लायवधिभूतगतैर्मासैर्युताः । अत्र गतमासांतर्गतोऽधिमासश्चन्न ग्राह्यस्तस्योतरमासाह्वयत्वेन तदन्तर्गतत्वात् तन्मासस्य षष्टिदिनात्मकत्वाच्च । ते सिद्धाः पृथक्स्था युगाधिमासगुणिता युगसूर्यमासभक्ताः प्राप्ताधिमासकैर्निरः सिद्धा युक्ताः । अत्र यदा स्पष्टोधमासः पतित आनयनेन लब्धस्तदानयनप्राप्ताधिमासैः सैकैर्युक्ताः । यदा तु स्पष्टोऽधिमासो न पतित आनयने प्राप्तस्तदानयनप्राप्ताधिमासनिरंकैयुक्ताः । अन्य
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घ्यायः १.] संस्कृतटोका-भाषाटीकासमेतः । (२३ वाभीष्टकालसाधिताहर्गणस्य त्रिंशदिनान्तरितत्वापत्तेरिति ध्येयम् । एते सिद्धा दिनीकृत्य त्रिंशता संगुण्येत्यर्थः । दिनान्विता वर्तमानमासस्य शुक्ल प्रतिपदादिगततिथिमियुक्ता इत्यर्थः । एते द्विष्ठाः स्थानद्वये स्थाप्या एकत्र युगावमैर्गुणिता युगचान्द्रादेनैर्मक्ताश्च प्राप्तावमैर्निरौरपरत्र हीनाः सन्तो लङ्कादेशेऽर्धरात्रकालिकः सावनोहर्गणः स्यात् । ततः साधिताहर्गणात्सकाशात्सूर्यात्सर्यमारभ्य दिनमासाब्दपा वारेश्वरमासेश्वरवर्षेश्वरा भवन्ति । तत्र वासरेश्वरज्ञानमाह-सप्तभिरित । अयमहर्गणः सप्तभिः क्षयितो भक्त्वा शेषितः कार्यः । स शेषोऽवशिष्टः सूर्याद्यः सूर्यवारादिको वासरेश्वरो वारस्वामी गतो भवति । तदग्रिमो वर्तमानो वारेश इत्यर्थसिद्धम् । अत्रोपपत्तिः । सौर वर्षाणां मासकरणे सृष्टयाद्यधिमासांतकालसम्बन्धिसावयवसौरमासा अव्यवहितपूर्वपतिताधिमासान्तकालादिस्वाभीष्टचैत्राद्यन्तकालसम्बंधिसावयवचान्द्रमासाः स्तयोर्योगश्चैत्रादौ द्वादशगुणितौ सौरवर्षाणि जातानि कुत इतिचेच्छृणु । द्वादशगुणितसौरवाणि सौरवर्षादौ सौरमासा इति तु निर्विवादम् । ते स्वानीताधिमासैः सावयवैर्युताश्चांद्रासावयवाः सौरवर्षादौ । एतेऽवयवहीनाश्चैत्रादौ निरवयवाश्चान्द्रमासाः अवयवस्य चैत्रादिसौरवर्षाद्यन्तरकालरूपाधिशेषत्वात् । ते निरग्राधिमासोनाश्चैत्रादावधिमासो न चान्द्रा दादशगुणितसौरवर्षरूपा उक्त योगस्वरूपाः सिद्धाः । कथमन्यथा निरग्राधिमासयोजने नैषां चैत्रादौ चान्द्रमासमानत्वसम्भवः । एते स्वाभीष्टमासादिकालसिद्धयर्थं चैत्र शुक्लादिगवमासयुक्ताः । एतेन द्वादशगुणितसौरवर्षमितसौरमासानां चैत्रादिगतचान्द्रमासा.. कथं योजिता एकजातित्वाभावादिति दूषणांगीकारो निरस्तः । उक्तरीत्या तत्र चान्द्रमासानामापे सत्त्वादेकजातीयत्वेन योगसम्भवात् । नहि पूर्वयोगोऽस्माभिः कृतो येन विजातीययोगो दूषणं तस्य द्वादशगुणितसौरवर्षरूपत्वेन स्वतः सिद्धत्वात् अर्थक निरग्राधिमासा योज्या इति सृष्ट्यादिपूर्वपतिताधिमासान्तकालावधि ये सौरमासा: सावयवास्वेभ्यो युगसौरमासैर्युगाधिमासास्तदैभिः सौरमासैः क इत्यनुपातेन निरग्राधिमासाश्चान्द्रा भवन्ति सौरेभ्यः साधितत्वात् । अथाभीष्टक लेऽधिमासावयक ज्ञानाथै युगवान्द्रमासयुगाधिमासास्तदा पूर्वपतिताधिमासान्तकालाभीष्टमासाद्यन्तरस्थितचान्द्रमासैः सावयवैरोभः क इत्यनुपातेनाधिमासाभावात् तदवयवः सौर आयाति चान्द्रात्साधितत्वात् । परन्त्ववयवायविनोरेक जातित्वासिद्धिरतस्तत्सम्पादनार्थमधिमासावयवस्योक्तसारस्य युगसौरमासयुगचान्द्रमासास्तदोक्तसौराधिमासावयवेन किमित्यनुपातेन युगचान्द्रमासा गुणो युगसौरमासाहर इति तुल्ययोगुणहरयोयुगचान्द्र मासयो शादिष्टचान्द्रमासानां युगाधिमासागुणो युगसौरमासाहर इति फल मधिमासावयवश्वांद्रः । अथ तादृशेष्टसौरचांद्रमासयोः पृथगज्ञानादधिमासतदवयवयो। ज्ञानमशक्यमप्येको हरश्चंगुणको विभिन्नावित्यादिरीत्यष्टतादृशसौरचांद्रमासयोयोग
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(२४) सूर्यसिद्धान्त:
[ प्रथमोऽ'एवायं ज्ञातो युगाधिमासगुणितो युगसूर्यमासभक्तः फलमधिमासाः। शेषात्तदवयवोड हर्गणानयनेऽनुपयुक्तः । तत्र केवलाधिमासानामेव न्यूनत्वेन तेषामेव योजनावश्यकत्वात्। अयं सृष्टयादित इष्टमासादिपर्यंत चांद्रमासगणः सिद्धः । । बहवस्तु द्वादशगुणितसौरवर्षरूपसौरमासानां सौरवर्षादितोऽभीष्टकालपर्यन्तं सौरमासानामज्ञानाज्ज्ञातचैत्रादिगतचान्द्रमासा एव योजिताः परमिष्टसौरमासेष्वधिमासशेषमधिकं तच्चाधिमासानयनेधिशेषत्यागेन केवलाधिमासयोजने निरन्तरं भवति अधिमासानयनं च चान्द्रमिष्टसौरमासत्वेनैवाधिशेषाधिकेष्टसौरमासानामंगीकारादित्याहुः । तचिन्त्यम् । केवलेष्टसौरमासानीताधिमासानां निरग्राणामधिशेषाधिकसौरष्टमासेषु योजनेनैव निरन्तरितत्वसिद्धेः । अन्यथाधिशेषगुणितयुमाधिमासेभ्यो युगार्कमासभक्ताप्तफलेनाधिशेषमाधिकमायातीति परमासनाधिशेषस्याधिकत्वे भवद्रीत्यनुपातानयनेनैकाधिकमासलब्ध्या योजितेन चान्द्र मासगण एकाधिकः स्यादिति । अथाभीष्टमासादिसिद्धचान्द्रमासाश्चान्द्रदिनकरणार्थ त्रिंशद्गुणिता अभीष्टदिने तत्सिद्धयर्थ शुक्लादिगततिथयोऽत्र योजिता अभीष्टतिथ्यादौ चान्द्राहर्गणः । युगवान्द्रदिनैयुगावमानितदानेन किमित्यनुपातागतावमैः सावयवैीनाचान्द्राहर्गणस्तिथ्यन्ते सावनोऽहर्गणोयमकोटिदेशे सूर्योदयकाले ग्रहचारस्य प्रवृत्तेस्तदादितो निरवयवाहर्गणसिद्धयर्थ तिथ्यन्ततत्कालयोरेन्तरमवमावयवरूपं योज्यमतः पूर्वमेवावमाक्यवोऽनुपयुक्तोऽत्र न गृहीतोऽतश्चान्द्राहर्गणःस्वानीतावमैर्निर नोऽहर्गणः । सावनो निरवयवो यमकाोर्टदशयिसूर्योदयकाले तत्र तद्देशस्याप्रसिद्ध तया प्रसिद्धलङ्कादशादरात्रस्य तदूपस्योक्तिः कृता । सृष्टयादावर्कवारसद्भावात् तदाद्या दिनमासवर्षे घराः । ग्रहाणां सप्तसत्यत्वात् सप्ततष्टोऽहर्गणः शेषं गतवारः ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ ॥ ५० ॥ ५१॥
भ० टी०-कृतयुगके बीतेहुए वर्षों की संख्यामें उपर कही हुई संख्या मिलाय, मास करके मधु शुक्ल दि विगत मासकी संख्याको मिलावै ॥ ४८ ॥ और जगह उक्तमास - संख्या अघिमाससे गुणकरके, सूर्यमाससे भागकर मास संख्याके साथ मिलाय दिन करके बाते हुए दिनोंके साथ मिलावै ॥ ४९ ॥ अन्यत्र दिनसंख्याको तिथिक्षयद्वारा गुणकरके, चांद्रदिनसे भाग करे, फिर दिनकी संख्या घटानेपर लङ्काके भाईरात्रिक महर्गण होंगे ॥ ५० ॥ झुगणसे दिनमासान्दपति निकलता है । महर्गणको ७ से भागकरके शेषङ्क रविले गणित करनेपर दिनका अधिपति (स्वामी ) होगा ॥ ११ ॥
अथ प्रतिज्ञातयोर्मासवर्षपयोरानयनमाह
मासान्ददिनसंख्याप्तं द्विविघ्नं रूपसंयुतम् ॥ प्रतोद्धृतावशेषो तु विज्ञयो मासवर्षपो॥१२॥
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संस्कृत टीका - भापाटीका समेतः ।
(२५)
ध्यायः १. ] अहर्गणाद्विष्ठादेकत्र मासदिनानां संख्यया त्रिंशता भक्तादाप्तं फलम् । अपरत्र वर्षदिनानां संख्यया षष्ट्यधिकशतत्रयेण भक्तादाप्तं फलम् । शेषयोरनुपयोगात्त्यागः ! क्रमेण फलद्वयं द्वाभ्यां त्रिभिर्गुणितमुभयत्रैकसंख्यायुक्तं सप्तभागहारेण भक्तात्फलत्यागेनावशिष्टौ क्रमेण मासस्वामिवर्षस्वामिनौ ज्ञातव्यौ । तुकाराद्वयुत्क्रमेण वारेश्वरगणना तत्क्रमेणानयोर्गणना परमत्र वर्तमानेत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । सृष्टयादित्रिंशदहोरात्राणामेकः सौरसावनमानस्तस्य सूर्योऽधिपतिर्मासादिदिनेऽर्कस्याधिपतित्वात् । एवं द्वितीयमासादौ भौमस्य दिनाधिपतित्वाद्धौमो द्वितीयमासेश्वर इति प्रतिमासं मासेश्वरयोरन्तरं इयम् । त्रिंशद्दिनानां सप्ततष्टतया इयवशेषात् । एवं षष्ट्यधिकशतत्रयाहोरात्राणामेकं सौरसावन वर्ष तस्याधिपोऽर्कः । वर्षादिदिनेऽर्कस्याधिपतित्वात् । एवं द्वितीयसावन वर्षादाँ बुधस्य दिनाधिपतित्वादूबुधो द्वितीयवर्षेश्वर इति प्रतिवर्ष वर्षेश्वरयोरन्तरं त्रयं पष्टयधि कशतत्र्यदिनानां सप्ततष्टतया व्यवशेषात् । तथा च वर्तमानकाल तद्गणनया कियन्तो माता गताः । कियंति च वर्षाणि गतानीति ज्ञानार्थमहर्गणस्त्रिंशद्भक्तः फलं गतमासाः । षष्ट्यधिकशतत्रयभक्तः फलं गतवर्षाणि । एकमासे द्वौ वारौ तदा गतमासैः क इति गतमासवारा वर्तमानार्थं सैकाः । एवमेकवर्षे त्रयो वारास्तदा गतवर्षैः क इति गतवर्ष - वारा वर्त्तमानार्थे सैका वाराणां सप्तसंख्यत्वात् सप्ततष्टौ शेषौ सूर्यादिको मासवर्षेश्वरौ ॥ ५२ ॥
मा० टी० - अहर्गणको मास (३०) और वर्ष (३६०) दिनसंख्या से भागकरके २ और तीन गुणा करके तिगुणित फलमें एक मिळावे । फेर तिस संख्या में ७ का भाग देनेपर शेषांक रविसे गणित करनेपर मासेश्वर और वर्षेश्वर होगा ॥ ५२ ॥
पथ ग्रहानयनमाह
यथा स्वभगणाभ्यस्तो दिनराशिः कुवासरेः ॥ विभाजितो मध्यगत्या भगणादिग्रहो भवेत् ॥ ५३ ॥
दिनराशिरहर्गणो यथा स्वभगणाभ्यस्तो यत्कालिकनिजोक्तभगणैर्गुणितो युगभगणैः कल्पभगणैर्वेत्यर्थः । तथा कुवासरैस्तात्कालिकसावनदिनैर्युगसावनैः कल्पसाब-नैर्वेति यथायोग्यमित्यर्थः । भक्तः फलं यस्य ग्रहस्य भगणा गुणनार्थं गृहीताः सग्रहो भगणादिर्भगणराशिभागकलाविकलात्मकभोगात्मकः । मध्यगत्या मध्यगतिमानेन नं प्रतिदिन विलक्षणस्फुटगतिप्रमाणनाग्रे तत्प्रमाणेन ग्रहभोगज्ञानस्योक्तेः । मध्यमो ग्रहः स्यादित्यर्थः । अत्रेोपपत्तिः । युगादिसावनैर्युगादिभगणास्तदैकेन दिनेन केति प्राप्त मध्यम गतिस्तत एकेन दिनेनेयं गतिस्तदेष्टाहर्गणेन केति रूपयोस्तुल्यत्वेन विकाराजनकत्वाच्च नाशादुपपन्नमानयनम् । यद्यपि युगादिसावनैर्युगादिभगणास्तदेष्टाहर्गणेन किमित्येकानुपातेनानयनमुपपन्नं लाघवात्तथापि मध्यगत्येत्यस्य प्रदर्शनार्थमनुपात द्वयं गुरुभूतमपि प्रदर्शितम् ॥ ५३ ॥
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(२६) सूर्यसिद्धान्त:
[ प्रथमोऽभा० टी०-अपने २ भगण करके दिनराशिको (अह ) गुणकरके कुदिनसे भाग करनेपर ग्रहकी मध्यगतिसे उत्पन्न हुए भगणादि मध्य होंगे ॥ १३ ॥ अथामु प्रकारमुचपातयोरानयनायातिदिशति
एवं स्वशीघ्रमन्दोच्चा ये प्रोक्ताः पूर्वयायिनः ॥ विलोमगतयः पातास्तद्वचनाद्विशोधिताः ॥५४॥ ये पूर्वयायिनः पूर्वदिग्गतयः स्वशीघ्रमन्दोच्चाः स्वेषां ग्रहाणां शीघोचमन्दोच्चा ग्रहबहुत्वेन शीघ्रोचमन्दोच्चयोर्बहुत्वादहुवचनम् । प्रोक्ताः पूर्व भगणोक्त्या कथितास्तेऽप्येवं ग्रहानयनरीत्या साध्याः । ननु पूर्वयायिन एवं साध्यास्ताहिँ पश्चिमगतयः पाताः कथं साध्या इत्यत आह-विलोमगतय इति । पश्चिमगतयः पाता अपि तद्वद्रहानयनरीत्यात्र चंद्रोच्चपातौ ग्रहानयनवयुगकल्पभगणसावनाम्यां सिद्धौ भवतोऽन्येषामुच्चपातौ तु कल्पसावनदिनहरेणेति ध्येयम् । ननु तर्हिः पूर्वपश्चिमगत्योः को विशेष आनयन इत्यत आह-चक्रादिति । आगता राश्यादिपाता द्वादशराशिभ्यः शोध्याः पाता भवन्ति । एतावानेव विशेष इति भावः । अत्रोपपत्तिः । पूर्वयायिनो मेषवृषमिथुनादिक्रमेण गच्छन्ति पश्चिमगतयस्तु मेषमीनकुम्भेत्याद्युत्क्रमेण गच्छन्ति । तत्रोत्क्रमगणनाया लोकेऽनभ्यासाद्राशिकमेण तज्ज्ञानार्थ द्वादशराशिभ्यः शोधिताः । पूर्वगतिपक्तिस्था भवन्ति ॥५४॥
भा०टी०-ऐसे ही अपने २ पहले चलनेवाले शीघ्रमन्दोच्चादि मध्य निर्णय होजायगा परन्तु समस्तपात विलोम गमन करनेवाले अर्यात् विपरीत भार्गमें चलानेवाले हैं, तिस कारणसे मध्यराश्यादि १२ राशिसे महग करनेपर मध्य होजायगा ॥ ५४॥ अथ संवत्सरानयनमाह
द्वादशना गुरोर्याता भगणा वर्तमानकः॥
राशिभिः सहिताः शुद्धाः षष्टया स्युविजयादयः॥ ५५॥ अहर्गणा तस्य भगणादिकस्य बृहस्पतेर्याता गता भगणा उपरिस्था द्वादशगुणिता वर्तमानकैयस्मिन्नधिष्ठिनः स वर्तमानस्तत्साहतैरकेयुक्तरित्यर्थः । राशिभिर्गणितागतगशिभिर्यद्राशौ तिष्ठति तस्य मेषादिसंख्ययेति फलितार्थः । युताः षष्ट्याशुद्धा भागावशेषिताः फलं भागादिकं चानुपयोगात्त्याज्यम् । विजयादयः संवत्सरा वर्तमानसहिता मवन्ति । अत्रोपपत्तिः “मध्यगत्या भभोगेन गुरोगैरववत्सराः" इति लघुवसिष्ठसिद्धान्तोक्तगुरुमध्यमराशिभोगकाल एकः संवत्सर इति सृष्टयाद्यानीतभगणादिगुरोः सम्पूर्णराशिज्ञानाथ भगणा द्वादशगुणा वर्तमानराशिसंख्यायुताः षष्टितष्टाः शेष विजयादिकः संवत्सरो वर्तमानो भवति । संवत्सराणां षष्टिसंख्यत्वात् । सृष्टचादौ विजयसंवत्सरसद्भावाच ॥ ५५ ॥
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(ध्यायः १.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (२७)
भा० टी०-बृहस्पात के भगणको १२ से गुणकरके राशिक साथ मिलाय ६० से भाग करनेपर भागफल विजयादि संवत्सर होगा ॥ ५५॥ अथोक्तमुपसंहरल्लाघवेन ग्रहानयनमाहविस्तरेणैतदुदितं संक्षेपाट्यावहारिकम् ॥
मध्यमानयनं कार्य ग्रहाणामिटतो युगात् ॥५६॥ एतत् षण्मनूनां तु सम्पिण्डयेत्यादिविस्तरेण गणितक्रियाबाहुल्येनोदितमुक्तं व्यावहारिकं लोकव्यवहारोपयुक्तमिदं ग्रहानयनं संक्षेपादल्पगणितप्रयासाज्ज्ञेयम् । तदाह-मध्यमानयनमिति । ग्रहाणां मध्यमानयनं मध्यमानेन गणितामष्टतो वर्तमानात्रेताख्याधुगान्महायुगस्य चरणास्त्रेतायुगादितो गतान्दैरल्पभूतैरवोक्तरीत्याहर्गणमानीयोक्तरत्यिा मध्यग्रहाः कार्या इत्यर्थः ॥५६॥
भा० ०- यह समस्त विस्तारसे कहा कार्यके संक्षेपसे मी त्रेताकी आदिसे ग्रहोंके बीचमें लाना उचित है ॥ ५६ ॥
ननु सृष्टयादितो ग्रहचारप्रवृत्तेस्तदादित आनीतस्य ग्रहस्य वास्तवत्वेन तत्तुल्योऽय ग्रहः कथमवगत इत्यत आह
अस्मिन्कृतयुगस्यान्ते सर्वे मध्यगता ग्रहाः ॥ विना तु पातमन्दोच्चान्मेषादौ तुल्यतामिताः ॥ ५७॥ अस्मिन्निदानीन्तने कृतयुगस्यावसानसमये सर्वे सप्तग्रहाः सूर्यादयो मध्यगता मध्यमा मेषादौ मेषादिप्रदेशे तुल्यतां समानतां गणिता गतराश्यादिभोगेनेताः प्राप्ताः । पात.. मन्दोच्चान्विना । पातमन्दोच्चास्तु न तुल्या न वा मेषादौ । तथा च ग्रहाणां शीघ्रो. चानां च भगणपूर्तित्वात्रेतादिसमयावगतगतकालादागतराश्यादयः सृष्टयादिगतकालावगतराश्यादिभिस्तुल्या भगणानां च प्रयोजनाभावादिति भावः ॥५७ ॥
भा०टी०-इस कृतयुगले भन्तमें पात और मन्द व उच्चके सिवाय समरत ग्रह मध्य मेषके प्रथममें थे ॥ १७ ॥ अथोचपातयोर्विशेषमाह
मकरादौ शशाङ्कोच्चं तत्पातस्तु तुलादिगः॥
निरंशत्वं गताश्चान्ये नोक्तास्ते मन्दचारिणः ॥ ५८॥ चन्द्रस्य मन्दोचं तदानी मकरादावस्ति तत्पातश्चन्द्रपातस्तुलादिस्थोऽस्ति । तुकारादतस्तयोस्त्रेतादित आनयनं नवषड्राशियोजनविशेषेण सुगममित्यर्थः। नन्वेवमन्येषामपि यद्राश्यादिस्थत्वं तत्कथनेन तेषामप्यानयनं सुगम भविष्यतीत्यत आह । निरंशत्वामति । अन्येऽवशिष्टा मन्दोच्चपाता ये मन्दचारिणोऽल्पगतय उक्ताः पूर्व भगणोत्तया कथितास्ते
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(२८) सूर्यसिद्धांत:
[ प्रथमोऽचकारादस्मिन् कृतयुगान्ते निरंशत्वमंशाभावतां न प्राप्ताः । तथाच तेषां राश्यादिकथने गौरवं मन्दगतित्वादेकदानीताः सहस्रवर्षपर्यंतमुपयुक्ता भवंतीति निरंतरं तत्साधनावश्यकताभावात्तेषामानयनं त्रेतादिगताब्दभ्य उपेक्षितमिति भावः । यदि च तत आनीयन्ते तदा स्वस्वक्षेपयुक्ताः कार्याः । क्षेपकास्तु रविमन्दोच्चं राश्यादिकं । ७ । २८ । १२ । भौमस्य ३ । ३ । १४ । २४ । बुधस्य ५।४ । ४ । ४८ गुरोः । ९ । । ० । शुक्रस्य ११ । १३ । २१ । ० । शनेः ४ । २० । १३ । १२ । भौमपातस्य ९ । ११ । २० । १२ । बुधस्य ८ । ११ । १६ । ४८। गुरोः ८८ ५६ । २४ । शुक्रस्य ४ । १७ । २५ । ४८ । शनिपातस्य ४ । २० । १३ । १२। एवमिष्टकालादपि ग्रहाः साध्याः स्वस्वक्षेपयोजनपूर्वम् ॥ ५८ ॥
भा० टी०-उच्च चन्द्रमा मकरका और चंद्रमाका पात तुलाकी आदिमें था मन्द चलनेवाले मंदोच्चांदिके अंशादिभी थे इस कारण नहीं कहे गये ॥ ५८ ॥ ___ अथ ग्रहाणां देशान्तरफलानयनाथै भूपरिधि स्वोपजीव्यभूव्यासक थनपूर्वकमाह
योजनानि शतान्यष्टौ भूक! द्विगुणानि तु ॥ तर्गतो दशगणात्पदं भूपरिधिर्भवेत् ॥ ५९॥ अष्टौ शतानि द्विगुणानि षोडशशतं योजनानि भूको भुवो भूगोलस्य कर्णो वृत्तपरिधिमध्यभागसूत्रं परिध्यर्द्धमितचापस्य ज्यारूपं द्विगुण इत्यनेन शतान्यष्टौ केंद्रात्परिधिपर्यंतमृजुसूत्रस्य मानमिति सूचितम् । कक्षाव्यासाद्धस्य कर्णव्यवहारवदस्यापि भूकर्णव्यवहारः तुकारात्पुराणविरुद्धोऽपि प्रत्यक्षसहकृतागमप्रमाणसिद्धः । अस्मात् परिधिज्ञानमाह । तदर्गत इति । भूव्यासवर्गातुल्ययोर्घातरूपाद्दशगुणान्मूलम् । क. स्यायं समद्विघात इति तन्मूलं तत्प्रकारश्च ग्रन्थांतरे प्रसिद्धः भूपरिधिः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । गजाग्निवेदराममित ३४३८ त्रिज्यायाः कक्षाव्यासाईत्वाद्विगुणत्रिज्यारूपव्यासे चक्रकलातुल्यः परिधिः २१६०० तदेष्टव्यासे क इति गुण २१६०० हरौ ६८७६ हरेणापवर्तितौ हरस्थाने रूपं गुणस्थाने सार्दाष्टावयवयुतास्त्रयस्तथा च व्यासोऽनेन गुणितः परिधिर्भवति । तत्रभगवता गुणस्यैकस्थानकरणार्थ वर्गः कृतः ९ । ५२ । ५२।अत्र स्वल्पान्तराद्दशगृहीताः वर्गण वगै गुणयेदित्युक्तत्वाझ्यासवर्गो दशगुणितस्तन्मूलं व्यासो मूलरूपगुणगुणितः सिद्धो भवति । यद्यपि वर्गस्थाने दशग्रहणेन स्थूलमिदमानयनं तथापि परमकारुणिकेन भगक्ता लोकानुग्रहार्थ गणितलाघवायांगीकृतम् । वस्तुतो भगवता वेदमंगलविश्वरूपमितव्यासस्य११३८४ । परिधिणिता गतः प्रत्यक्षेण ___ मंदोच्चके ० । ७ । २८ । १२ । मं.३ । ३ । १४ : २४ । ५ । ४ । ४ । ४८ बृ० । ९ । शु. ११। १३ .२१ ।। ४ । २० । १३ । १२ पात म ९ । ११ । २० ।।
२ ८।११६ । ४८ । बृ ८॥ .८ । ५६ । २४ । शु ४ । १७ । २५ । ४८ । श ४ । २० । १३ । १२ कृतयुगक अमामें थे ।
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ध्यायः १. ]
संस्कुतटीका - भाषा टीकासमेतः ।
( २९ ) खखखरसराममितः ३६००० अत्र पूर्वोक्तररीत्यापवर्तने गुणाः ३ । ९ । ४४ । पादोन। दशावयवयुतत्रयमस्य वर्गो दशप्रायः ९ । ५९ । ५९ । इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ ५९ ॥ मा० टी० - भूकर्ण १६०० योजन है । तिसके वर्गको १० से गुणा करके पद अर्थात् मूल निकाल लेनेसे भूपाधि होती है ।। ५९ ।।
स्फुटपरिध्यानयनं देशान्तरफलानयनं तत्संस्कारं च श्लोकाभ्यामाहलम्बज्यानस्त्रि जीवाप्तः स्फुटो भूपरिधिः स्वकः ॥ तेन देशांतराभ्यस्ता ग्रहभुक्तिर्विभाजिता ॥ ६० ॥ कलादितत्फलं प्राच्यां ग्रहेभ्यः परिशोधयेत् ॥ रेखा प्रतीची संस्थाने प्रक्षिपेत्स्युः स्वदेशजाः ॥ ६१ ॥ द्वादशपलभयोवर्गयोग मूलमक्षकर्णः । अनेन द्वादशगुणिता त्रिज्याभक्ता फलं लंबज्या । अनया गुणितो भूपरिधिस्त्रिज्यया : गजाग्निवेदराममितया भक्तः फलं स्वकः स्वदेशसम्बन्धी स्पष्टो भूपारीधः स्यात् । ग्रहस्य गतिर्देशान्तराभ्यस्ता स्वररेखादे - शस्वदेशयोरन्तरयोजनानि देशान्तरपदवाच्यानि तैर्गुणिता तेन स्पष्टेन भूपरिधिना भक्ता फलं कलादिकं तत्फलं प्राच्यां स्वरेखादेशात्स्वदेशस्य पूर्वदिग्भागस्थितत्वे ग्रहेभ्यः कलादिस्थाने परिशोधयेद्वर्जयेद्धीनं कुर्यादित्यर्थः । रेखाप्रतीचीसंस्थाने स्वरेखादेशात्पश्विमदिग्भागस्थिते स्वदेशे ग्रहेभ्यः कलादिस्थाने प्रक्षिपेद्योजयेत्कुर्यात् । गणक इति शेषः । ते सिद्धा ग्रहाः स्वदेशजाः स्वदेशीया भवन्ति । पूर्वमहगर्णस्य लंकादेशीयत्वेन तदुत्पन्नग्रहाणां लंकादेशीयत्वात् । अत्रोपपत्तिः । यद्यपि भूमेः कन्दुकाकारत्वेन सर्वत्राभिन्नः परिधिरिति स्फुटपरिध्यसम्भवस्तथापि निरक्षदेशस्य मध्यत्वकल्पनेनेोक्तो भूपरिधिस्तद्देशानामेवं तदन्यत्र तदनुरोधेन वृत्तानां लघुत्वसम्भवेनोत्तरोत्तरं न्यूनपरिधिः स्वदेशे स्फुटसंज्ञः । एवं नवत्यक्षांशे मेरुस्थाने वडवास्थाने च परिध्यभावः । निरक्षदेशे परम उक्तः परिधिरतो यत्राक्षांशा नवतिपरमास्तत्र लम्बांशाभावः । यतोऽक्षांशाभावस्तत्र लम्बांशाः परमा नवतिः । लम्बांशाक्षांशौ तु वक्ष्यमाणस्वरूपौ । तथाच लम्बांशहासानुरोधेन परिधेरपि ह्रास इति परमलम्बांशैर्नवतिमितैरुक्तो भूपरिधिस्तदा स्वदेशीयलम्बांशैः क इत्यनुपात उपपन्नोऽपि वृत्ताश्रितांशेभ्योऽनुपातानामसम्भवेन सर्वेरुपेक्षितत्वाच्च ज्यानुपातस्य सर्वैरङ्गीकृतत्वात्प्रमाणस्थाने प्रमाणांशज्या परमातिज्या । इच्छास्थाने इच्छांशानां ज्यालम्बज्येति युक्तमुक्तमुपपन्नं स्पष्टपरिध्यानयनम् । देशान्तरोपपत्तिस्तु लङ्कादेशीयो ग्रहः स्वदेशत: समसूत्रेण यो दक्षिणोत्तरयोर्निरक्षदेश आसन्नस्तत्र कार्यः । तदर्थं लङ्कादेशस्व निरक्षदेशयोरन्तरयोजनज्ञानमावश्यकम् । एतत्त्वस्मादृशामशक्यमिति परिभ्यपचयवत्तदन्तरता पचितं लङ्कोत्तरदक्षिणसूत्रस्थस्वरेखादेशस्वदेशयोरन्तरं स्वपरिधिस्थं गणनया
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(३०) सूर्यासद्धान्तः
[प्रथमोऽज्ञातमस्मात्स्वपरिधिनेदमन्तरं योजनात्मकं तदोक्तपरिधिना किमित्यनुपातेन लङ्कास्वनिरक्षेदशयोरन्तरमुक्तपरिधिस्थं ज्ञातम् । ततोऽर्कोदयद्वयान्तरकालेनार्को भूपरिधिं क्रामति तत्र ग्रहाः स्वां स्वां गाते कलात्मिकामातिकामन्त्यत उक्तपरिधिना ग्रहगतिकलास्तदा प्रासिद्धलङ्कास्वनिरक्षदेशान्तरयोजनैः केत्यनुपातेनोक्तपरिध्योर्गुणहरयोस्तुल्यखेन नाशात्स्वरेखादेशस्वदेशयोरन्तरयोजनानि ग्रहगतिगुणितानि स्वपरिधिभक्तानि फलं ग्रहस्यान्तरकलाः । यद्यपि स्वपरिधिना गतिकलास्तदा स्वरेखादेशस्वदेशयोरन्तरयोजनैः केत्येकानुपातेनैव देशान्तरफलमुपपन्नं भवति तथापि निरक्षदेशपदार्थसम्बन्धाभावादिदमुपपन्नं फलं निरक्षदेशीयं कथमित्याग्रहनिरतातिमन्दस्य बोधार्थ गुरुभूतमप्यनुपातद्वयमुक्तम् । तद्धनर्णोपपत्तिस्तु लङ्कादेशात्स्वनिरक्षदेशस्य पूर्वभावस्थितत्वे लङ्का देशार्द्धरात्रात्स्वनिरक्षदेशार्द्धरात्रमर्वाग्भवति । तदुदयकालात्प्रवहानिलवेगेन पूर्वभागे पूर्व मेवोदयात् । अतोऽग्रिमकालीनग्रहस्य पूर्वकालिकत्वासिद्धयर्थं तत्फलं न्यूनं कार्यम् । एवं निरक्षदेशस्य लङ्कातः पश्चिमस्थत्वे लङ्कोदयानन्तरोदयसद्भावालङ्कार्द्धराबादग्रिमकालेऽर्द्धरात्रमतः पूर्वकालिकग्रहस्याग्रिमकालिकत्वसिद्धयर्थं तत्फलं योज्यम् । चक्रशोधितपातस्यायं संस्कारो विपरीत इति ज्ञेयम् । स्वनिरक्षदेशस्य लङ्कातः पूर्वापर. भागस्थत्वं स्वरेखादेशात्स्वदेशस्य पूर्वापरभागस्थस्यानुरोधेनति स्वनिरक्षदेशस्वदेशयोयाम्योत्तरेक्यादर्द्धरात्रयोरभिन्नत्वात्स्वदेशार्धरात्रेऽपि स्वनिरक्षदेशार्द्धरात्रकालिका एव ग्रहा अविकृता इति सर्वमुक्तमुपपन्नम् ॥ ६०॥ ६१ ॥
भा० टी०-पृथ्वीकी परिधिको अपने देशशी सम्मज्यासे गुणकरके त्रिज्यासे भाग करनेपर स्फुट भूपरिधि होती है । (ज्यादिको दूसरे अध्यायमें देखना चाहिये ) देशान्तर द्वारा ग्रहभक्ति गणेयरके स्फुट भू-परिधिसे भाग करनेपर जो कलादि फल हो, 45 अपने देशसे पूर्वमें से तो ग्रहसे घटावै । पश्चिममें हो तो मिलावे ॥ ६० ॥ ६१ ॥ अथ रेखास्वरूपं तद्देशांश्च कांश्चिदाह
राक्षसालयदेवोक शेलयोर्मध्यसूत्रगाः ॥
रोहीतकमवन्ती च यथा सन्निहितं सरः ॥ ६२ ॥ राक्षसालयं लङ्का देवानां गृहरूपः पर्वतो मेरुरनयोर्मध्ये ऋजुसूत्रं तत्र स्थिता देशा रेखाख्या- लङ्कादक्षिणसूत्रस्थास्त्वनुपयुक्तास्तत्र मनुष्यागोचरत्वादिति नोक्ताः । ज्ञा. नार्थमुदाहरति । रोहीतकमिति । यथा रोहीतकं नगरमवन्त्युजयिनी सन्निहितं सरः कुरुक्षेत्रम् । चकारस्तथेत्यव्यवपरः । तथान्यानि परस्परं सन्निहिततया ज्ञेयानि ॥ ६२ ॥ __ भा० टी०-राक्षसालय और देवौक पर्वतके मध्यमें जो सूत्र रोहीतक, भवन्ती और कुरुक्षेत्रादि स्थानके निकट दिया गया है, वही मध्य रेखा है ॥ ६२ ॥
१ दैनिकग्रहभुक्तिकलादि र. ५९ । ८ । चं. ७९० । ३८ । मं. ३१ । २६ बु-शी. २४ ५३२ बृ. ४: ५९ शु शी. ९६ । ८ श. २ । च-उ. ६४ रा. वक्र ३ । ११ । भूपरिधि ५० । ६० पोजन है।
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ख्यायः १. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
(३१)
ननु येन स्वस्थानं रेखापुरात्पूर्वतोऽपरत्र वा किययोजनान्तरेणास्तीति न ज्ञायते तेन देशान्तर फलादिकं कथं कार्यमित्यतः लोकत्रयेणाह -
अंतीत्योन्मीलनादिन्दोः पश्वात्तद्गणितागतात् ॥ यदा भवेत्तदा प्राच्यां स्वस्थानं मध्यतो भवेत् ॥ ६३ ॥ अप्राप्य च भवेत्पश्चादेवं वापि न मीलनात् ॥ तयोरन्तरनाडीभिर्हन्याद्भूपरिधि स्फुटम् ॥ ६४ ॥ षष्ट्या विभज्य लब्धैस्तु योजनैः प्रागथापरैः ॥ स्वदेशपरिधिर्ज्ञेयः कुर्यादेशान्तरं हितेः ॥ ६५ ॥
चन्द्रस्य सर्वग्रहणान्तर्गतोन्मीलनकालाद्विना, देशान्तरं गणितागताच्चन्द्रग्रहणोक्तप्रकारगणितज्ञानात् । अतीत्य तत्कालस्यातिक्रमणं कृत्वा पश्चादनन्तरकाले मन्दबोधार्थमिदम् । अन्यथातत्य पश्चादित्यनयोरेकतरस्य वैयर्थ्यापत्तेः तच्चन्द्रबिम्बस्योन्मीलनं यदा यदीत्यर्थः । स्यात्तदा तर्हित्यिर्थः । स्वाभिमतस्थानं मध्यतो मध्यरेखादेशात्पूर्वदिशि भवेत्तिष्ठतीत्यर्थः । पश्चात्तदित्यत्र दृक्सिद्धमिति पाठे तु प्रत्यक्षमुन्मीलनमित्यर्थः । अप्राप्य तदतिक्रमणमकृत्वा पूर्वकाल एव । चकाराच्चन्द्रोन्मीलनं यदि स्यात्तर्हि मध्यरेखातः स्वस्थानमित्यर्थः । पश्चात् पश्चिमदिग्भागे भवेोत्तिष्ठतीत्यर्थः । ननु चन्द्रस्य स्पर्शमोक्षसम्मीलनोन्मीलनकालेघून्मीलनकाल एव कथं गृहीत इत्यत आह- एवमिति । वा प्रकारान्तरेण निमीलनाचन्द्रसम्मीलनकालात् । एवं चन्द्रग्रहणाधिकारोक्तगणितप्रकारज्ञानादनन्तरकाले सम्मीलनं यदि तर्हि मध्यरेखादेशात्स्वस्थानं पूर्वदिग्भागे तिष्ठति पूर्वकाले सम्मीलनं यदि तर्हि मध्यरेखादेशात्स्वस्थानं पश्चिमदिग्मागे तिष्ठतीत्यर्थः । अपिशब्दो निश्चयार्थे । तेनोन्मीलनसम्मीलनकालयोन्निरीतिव्युदासः । तथा' चोन्मीलनग्रहणमुपलक्षणार्थ तत्रापि स्पर्शमोक्षयो ग्रहणाद्यन्तरूप योरनिश्चयत्वसम्भावनयोक्तिमुपेक्ष्य ग्रहणमध्यस्थयोः सम्मीलनोन्मीलनयोनिश्चयत्वेनोक्तिः कृतेति भावः । अथ देशान्तरयोजनपुरःसरं देशान्तरफलं सिद्धमित्याह - तयोरिति । प्रत्यक्षोन्मीलन कालगणितागतोन्मीलनकालयोः सम्मीलनकालयोस्तादृशयोर्वान्तरघटीभिर्भूपरिधिस्पष्टं स्वदेशभूपरिधिं लंबज्याघ्न इत्याद्यवगतं हन्याद्गुणयेत् । तादृशं गुणितस्पष्टपरिधिं षष्ट्या भक्त्वा लब्धैः प्राप्तैर्योजनैः पूर्वभागयोजनैः । अथाथवा परैः पश्चिमविभागस्थितै यो जनैः स्वदेशपरिधिः स्वदेशस्य परिधिरवधिः स्वदेशस्थानमण्डलरूपस्तु काराद्रेखा देशान्तरित इत्यर्थः । ज्ञेयो गणकेने• अतत्यिोन्मीलनादिन्दो कसिद्धं गणितागतात् । इति वा पाठः ।
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(३२) सूर्यसिद्धान्त
[ प्रथमोऽतिशेषः । स्वरेखास्वदेशयोरन्तरयोजनानि फलामेति फलितार्थः। तैरन्तरयोजनैर्देशान्तरं तेन देशान्तराभ्यस्तेत्यादिप्रागुक्तमकारेण ग्रहाणां देशान्तरफलं कलात्मकं कुर्याद्गणक इति शेषः । हिकारात्तत्संस्कारोप्यभिन्नप्रकारत्वादभिन्न इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । विना देशान्तरसंस्कार ग्रहगणितं स्वरेखादेशीयं भवति । अतो गणितसाधितोन्मीलनसम्मीलनादिकालाः स्वरेखादेशे सिद्धयति । स्वदेशे पूर्वविभागस्थे प्रथमं स्वस्य सूर्योदयादिकालास्तदन्तरं रेखाया इति चन्द्रग्रहणस्य सर्वदेशे युगपत्सम्भवात् । गणितागतकालादेखादेशस्थादनन्तरं स्पर्शादिकालो भवति । एवं स्वदेशे पश्चिमविभागस्थे प्रथम रेखादेशेऽर्कोदयादिकालास्तदनन्तरं स्वदेश इति रेखास्थगणितांगतस्पर्शादिकालाट्या -- त्मकात्पूर्वमेव स्पर्शादिकालो भवति । अतः सम्यगुपपन्नमतीत्येत्यादिसाई श्लोकोक्तम् । स्वदेशरेखादेशसूर्योदयाघवधिकघश्यात्मककालयोरन्तरं देशान्तरघटिकाः सिद्धाः सूर्यो दयद्यान्तरकालेनार्को भूपरिधिं कामतीति षष्टिसावनघटीभिर्भूपरिधियोजनानि स्वदेशीयानि तदा तत्कालान्तररूपदेशान्तरघटीभिः कानीत्यनुपातेन स्वरेखादेशस्वदेशयोरन्तरयोजनानि । ज्ञातेभ्यः एभ्यः पूर्वदिशैव देशान्तरं भवति । सूर्यग्रहणस्य सर्वदेशे युगपदसम्भवात्तदुन्मीलनकालादिनाक्तदिशा नैतज्ज्ञानमित्यनुरुक्तरिति ध्येयम् ॥६३॥ ॥ ६४ ॥६५॥
भान्टो०-गणित पडेहुए चंद्रग्रहणके पीछे जिस स्थानमें ग्रहण निकलताहो वही स्थान मध्यरेखासे पूर्व दिशामें भोर भागे होनेपर पश्चिममें जानना चाहिये । प्रत्यक्ष और गणि तसे आये हुए कालके भन्तर दण्ड स्वभूगरिघिसे गुणकरके ६० से भाग करनेपर स्वदेशान्तर योजन प्राप्त होजायँगे । तिनसे अपने देशकी भूपरिधि और देशांतरादि निर्णय करना गचित है ॥ ६३ ॥ ६४॥६५॥ अथ वारप्रवृत्तिकालज्ञानमाह
वारप्रवृत्तिः प्राग्देशे क्षपाऽभ्यिधिके भवेत् ॥
तद्देशान्तरनाडीभिः पश्चादूने विनिर्दिशेत् ॥६६॥ रेखातः पूर्वभागस्थितस्वाभिमतदेशे तद्देशान्तरनाडीभिः पूर्वप्रकारज्ञातदेशान्तरना डीभिरभ्यधिकेऽर्धरात्रे युक्तार्द्धरात्रसमयेऽर्धरात्रादनन्तरं देशान्तरघटीकाल इत्यर्थः । वारप्रवृत्तिर्वारस्यादिभूतः कालः स्यात् । रेखातः पश्चिमभागस्थदेशे पूर्वप्रकारज्ञातदेशान्तरघटीभिरूनेऽर्धरात्रेऽधंरात्रात् पूर्वमेव देशान्तरघटीकाले वारप्रवृत्तिं विनिर्दिशेद्गणकः कथ येत् । अत्रोपपत्तिः । यमकोटिसूर्योदयकालो लङ्कार्धरात्रसमयरूपो ग्रहचारप्रवृत्तिरूप: स्वदेशे कदोत रेखातः पूर्वापरभागयोः स्वार्धरात्रकालादनन्तरं पूर्वक्रमेण तदर्द्धरात्रं देशान्तरघटीभिर्भवति । स्वनिरक्षदेशस्वदेशाधरात्रयायुगपत्संभवात् । अत उपपन्नं.
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ध्यायः १ ]
संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः ।
( ३३ )
वारप्रवृत्तिरित्यादि । नन्वेतत्कालज्ञानं किमर्थमुक्तं प्रयोजनाभावादिति चेन्न । अहगणोत्पन्नग्रहस्य तात्कालिकत्वात् तत्कालज्ञानेन स्वार्धरात्रसमयस्य तत्कालस्य च यदन्तरं तेन तात्कालिकस्य ग्रहस्य चालने कृते सति स्वार्धरात्रसमये ग्रहः पूर्वसाधित एव भवतीति मन्दप्रत्ययस्यैव प्रयोजनत्वात् तत्कालज्ञानेन ग्रहस्य देशांतरसंस्काराकरणमिति लाघवाच्च । अतएव समनन्तरमेव ग्रहस्येष्टकालिकत्वसिद्धयर्थं चालनोक्तिः सङ्गच्छते । एतेन तत्ततोऽर्धरात्रात्क्षपाध निरक्षरात्र्यर्धे पञ्चदशघटिकात्मककाल उत्तरगोलेऽकदयाचरघटीमिताग्रिमकाले दक्षिणगोलेऽकदयाच्चरघटीमितपूर्वकाल इति फलितम् । पूर्वपश्चिमदेशयोर्देशान्तरघटीभिरधिकोने काले क्रमेण वारप्रवृत्तिरिति व्याख्यानं लङ्कासूर्योदय कालरूपवारप्रवृत्तिबोधकमपास्तम् । तच्छब्दस्य पूर्वपरामर्शकत्वादर्धरात्रादित्यस्यानुपपत्तेः पञ्चदशघटिकाकालस्य क्षपार्द्धशब्देनासिद्धेश्व | श्रीभगवताहर्गणस्य लङ्कायामार्द्धरात्रिक इत्यनेन लङ्कार्धरात्रकालिकत्वोक्तेः स्वदेशे तत्काल रूपवार प्रवृत्तिकालज्ञानस्योक्तस्य सङ्गत्यनुपपत्तेः । व्यवहारयोग्यलङ्कासूर्योदयकालवारप्रवृत्तेरत्र सङ्गत्यभा
वाच्च ॥ ६६ ॥
मा०टी०-देशांतर घडीके अनुसार पूर्वदेशके मध्य मध्यरात्र में मिलानेसे और पश्चिम देशमें घटानेसे वार आदि निकल आयेंगे || ६६ ॥ अथ ग्रहस्य तात्कालिककरणमाह
इष्टनाडीगुणा भुक्तिः षष्टया भक्ता कलादिकम् ।
गते शोध्यं युतं गम्य कृत्वा तात्कालिको भवेत् ॥ ६७ ॥ यत्कालिको ग्रहस्तत्कालात्पूर्वमपरत्राभष्टिकाले या इष्टघट्यस्ताभिर्गुणिता ग्रहमध्यगतिः षष्ट्या भक्ता फलं कलादिकं गते गताभीष्टकाले पूर्वकालेऽभीष्टे सतीत्यर्थः । शोध्यं ग्रहे हीनं गम्येऽग्रिमाभीष्टकाले सति ग्रहे युतं कृत्वा गणकेन विधाय तात्कालिकः स्वाभीष्टसामयिको ग्रहो भवेत् । गणकेन ज्ञातो भवेत् । अत्रोपपत्तिः । षष्टिसावनघटीभि गतिकलास्तदाभीष्टगतैष्यघटीभिः का इत्यनुपातेनावगतकलात्मकचालनेनः ग्रहः क्रमेण युतानस्तात्कालिको ग्रहो भवति । चक्रशोधितपातस्य विपरतिमिति ज्ञेयम् । चालितस्पष्टग्रहापेक्षया चालितमध्यग्रहः स्पष्टः कृतश्चेत्सूक्ष्म इति सूचनार्थमत्र ग्रहचालनमुक्तम् ॥ ६७ ॥
भा०टी० - मुक्तिको इष्ट नोडीसे गुण करके, ६० से भागकरके फल जाननेपर योग और गत होनेपर त्रियोग ( अलग) करनेपर तिस कालका ग्रह होगा || ६७ ॥ अथ चन्द्रस्य परमविक्षेपमानमाह
भचत्रलिप्ताशीत्यंशपरमं दक्षिणोत्तरम् ॥
विक्षिप्यते स्वपातेन स्वक्रान्त्यन्तानुष्णगुः ॥ ६८ ॥
१ मध्यरात्र से अभीष्टदण्डकी अलगताका नाम इष्ट नाडी है । अभीष्ट दण्ड परे होने से इष्टदण्ड निकलत हैं । ३
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सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वितीयोऽ
अनुष्णगुश्चन्द्रः स्वक्रान्त्यन्ताद्विषुवद्वत्तानुकारेणावलम्वितश्चन्द्रः स्वासन्नक्रान्तिवृत्तप्रदेशेनाकृष्यते तथा तत्स्थानात् स्वभोगामितरेवत्यासन्नाद्यवधिकाभीष्टस्थानभूतक्रान्तिवृत्तप्रदेशादपि स्वपातेन चन्द्रपातेन दक्षिणोत्तरं दक्षिणस्यामुत्तरस्यां वा तत्सूत्रेण विक्षिप्यते त्यज्यते स्वभोगस्थानक्रान्तिवृत्तप्रदेशे चन्द्रबिंबं स्थातुं पातेन न दीयते ततोऽपि चन्द्रबिंबं स्थलान्तरे दक्षिणोत्तरसूत्रेण किञ्चिदन्तरेण त्यज्यत इत्यर्थः । एतेन सूर्यस्य पाताभावात्स्वभोगस्थानीयक्रान्तिवृत्तप्रदेशे बिंबं भवति न विक्षिप्तमित्यनुष्णगुरित्यनापि सूचितम् । परमविक्षेपणं दक्षिणोत्तरमित्यस्य विशेषणान्याह - भचक्रेति । द्वादशराशिकलानां षट्शताधिकैकविंशतिसहस्रमितानामेषाम् २१६०० अशीतिभागः स्वसप्रयमकलामितः परमं यस्य तद्दक्षिणोत्तरमित्यर्थः । चन्द्रस्य परमो विक्षेपः स्वभमित इति फलितम् । केचिदत्र सूर्यस्य शराभावात्तत्कक्षातो भचक्रस्य पञ्चमकक्षात्वात् ततोऽपि चन्द्रकक्षाया अष्टमत्वात् तत्र दक्षिणोत्तररूपदिग्द्वये चन्द्रस्य विक्षेपणात् पंचाष्टद्विघातरूपाशीत्यंशो भचक्रलिप्तानां परमचन्द्रविक्षेप इत्युपपत्तिमाहुः ॥ ६८ ॥
मा० टी० - चन्द्रमा के पात से भचक्र कला संख्या के अस्सी भाग, क्रान्ति से उत्तर में या दक्षिणमें परम विक्षेप होता है ॥ ६८ ॥
यथैवं भौमादयोऽपि स्वपातैर्विक्षिप्यन्त इत्येषामपि परमविक्षेपानाहतन्नवांशं द्विगुणितं जीवस्त्रिगुणितं कुजः ॥ बुधशुक्रार्कजाः पातैर्विक्षिप्यन्ते चतुर्गुणम् ॥ ६९ ॥
तन्नवांशं तस्य चन्द्रपरमविक्षेपस्य नवभागं त्रिंशतं द्विगुणितं षष्टिकलामितं परमेण तदंतरेणेत्यर्थः । पातेन गुरुर्दक्षिणोत्तरयोः क्रमेण विक्षिप्यते । भौमः पातेन त्रिगुणतं शिवं नवतिकलामि परमांतरेण विक्षिप्यते चतुर्गुणं त्रिंशतं विंशत्यधिकशतकलामितपरमांतरण बुधशुक्रशनैश्वराः स्वस्वपातैः प्रत्येकं विक्षिप्यन्ते स्वभोगक्रान्तिवृत्तप्रदेशात्त्यज्यन्ते । केचिदत्रापि त्रयस्त्रिंशत्कला बिंबाचंद्रान्नवांश द्विगुणेन सत्र्यंशकलाससकस्य गुरुबिम्बस्य तद्रूपं विक्षेपणं युक्तमस्माद्भौमस्याधःस्थत्वात् त्रिगुणं परमविक्षेपणमस्मादपि बुधशुकयोर्लघुपृथुविम्बयारेधःस्थत्वाच्चतुर्गुणं परमविक्षेपणं तुल्यं नाल्पाधि - • कमेवं शनेरुच्चकक्षास्यत्वेऽपि मन्दत्वाबदुधशुक्रविक्षेपणतुल्यं परमविक्षेपणं युक्तमित्युपपत्तिमाहु ॥ ६९ ॥
मा०टी० - तिस के नवशिसे दूना वृहस्वति, तिगुना मंगल, और चौगुने वध शुक्र व शनि पातकर के विक्षिप्त होते हैं ॥ ६९ ॥
नन्वेषामत्र कथने का सङ्गतिरित्यतः पूर्वोक्तमुपसंहरन्नाह
(३४)
एवं त्रिघनरन्ध्रार्करसार्कार्का दशाहताः ॥
चन्द्रादीनां क्रमादुक्ता मध्यविक्षेपलिप्तिकाः ॥ ७० ॥
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ध्यायः २.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३५)
एवं पूर्वश्लोकांभ्यां त्रिधनः सप्तविंशतिरंध्राणि नव द्वादश षट् द्वादश द्वादशैते दशगुणिताः क्रमादुक्ताङ्कक्रमाचंद्रादीनां वारक्रमाचंद्रभौमबुधगुरुशुक्रशनीनां विक्षेपकला मध्या अग्रे परमशरकलानामनियतत्वेनोक्तेः कथिताः । तथा च मध्यत्वेनैषामत्र प्रसंगसंगत्या कथनमिति भावः ॥ ७० ॥
भा० टी०-ऐसेही २७, ९, १२, ६, १२, १२ के १० से गुण करके क्रमानुसार चन्द्रादिमें विक्षेपकला होगी ॥ ७० ॥ अथ पूर्वापरग्रंथयोरसंगतिनिवारणायाधिकारसमाप्तिं फक्कियाह
इति सूर्यसिद्धान्ते मध्यमाधिकारः ॥१॥ मयं प्रति- सूर्यांशपुरुषेण सूर्योक्तस्यैव कथनादेतदुक्तस्यापि सूर्यसिद्धान्तत्वम् । तत्र मध्यममानेन गणितमधिक्रियते यस्मिन्नेतादृशो ग्रंथैकदेशः परिपूर्तिमाप्त इत्यर्थः । रंगनाथेन रचिते सूर्यासद्धान्तटिप्पणे॥ मध्याधिकारः पूर्णोऽयं तद्गूढार्थप्रकाशके। इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके मध्यमाधिकारः पूर्णः ॥१॥
इति प्रथमाध्यायः समाप्तः ॥१॥
द्वितीयोऽध्यायः। अथ स्पष्टाधिकारो व्याख्यायते । तत्र ग्रहाणां मध्यमातिरिक्तस्पष्टक्रियायां कारणमाह
अदृश्यरूपाः कालस्य मूर्तयो भगणाश्रिताः॥
शीघ्रमन्दोच्चपाताख्या ग्रहाणां गतिहेतवः ॥१॥ शीघ्रोचमन्दोचपातसंज्ञकाः पूर्वोक्तपदार्थजीवाविशेषाः सूर्यादिग्रहाणां गतिकारणभूताः सन्ति । ननु कालेनैव ग्रहचलनं भवतीति कालो गतिहेतु त इत्यत आहकालस्योत । पूर्वप्रतिपादितकालस्य स्वरूपाणि तथा चैषां कालमूर्तित्वेन ग्रहगतिहेतुत्वे न सम्भवतीति भावः । ननु कालस्य घट्यादिमूर्त्तित्वादेषां तदात्मकत्वाभावात्कथं कालमातत्वमित्यत आह-भगणाश्रिता इति । भगोलस्थक्रान्तिवृत्तानुसृतग्रहगोलस्थ. क्रान्तिवृत्तप्रदेशाश्रिता राश्यात्मका इत्यर्थः । तथा च ग्रहराश्यादिभोगानां कालवशेनैवोत्पन्नत्वात् तदात्मकानां कालमूर्तित्वामति भावः । ननु दृश्यन्ते कुतो नेत्यत आहअदृश्यरूपा इति । वायवीयशरीरा अव्यक्तरूपत्वादप्रत्यक्षा इति भावः एवं च ग्रहा. णामुच्चादिसद्भावात्स्पष्टक्रियोत्पन्नेति तात्पर्यम् ॥ १॥
भा० टी०-शीघ्रमन्दोच्चपात इत्यादि अदृश्यरूपी, भगणाश्रित एककालकी मूर्ति मौर ग्रहोंकी गतिके हेतु हैं ॥ १ ॥
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(३६) सूर्यसिद्धान्तः
[द्वितीयोऽअथानयोरुचपातयोर्मध्याच्चयोर्गतिहेतुत्वं प्रतिपादयति
तदातरश्मिभिर्बद्धास्तः सव्येतरपाणिभिः॥
प्राक्पश्चादपकृष्यन्ते यथासन्नं स्वादिङ्मुखम् ॥२॥ तेषामुच्चसंज्ञकजीवानां वायुरूपा ये रश्मयो रजवस्ताभिर्बद्धाविम्बात्मकग्रहास्तैरुच्चसंज्ञकजीवैः सव्यवामहस्तैरुच्चबहुत्वेन हस्तबाहुल्यादहुवचनं हस्ताभ्यामित्यर्थः । स्वदिङ्मुखं स्वाभिमुखं यथासन्नं ग्रहबिम्बं भवति तथा प्राक्पश्चात् पूर्वपश्चिममागाभ्यामित्यर्थः । अपकृष्यन्ते आकर्ण्यन्ते । अयमभिप्रायः । भचक्रगोलस्थक्रान्तिवृत्तानुसृतग्रहाकाशगोलान्तर्गतकान्तिवृत्ते कक्षारूपे स्वस्थप्रदेशे ग्रहोच्चपातास्तिष्ठन्ति । तत्र बिम्बव्यासोनकक्षाकारसूत्रं प्रवहवाय्वतिरिक्तवायुरूपं स्वतो गतिस्वस्थ ने कम्पमानं ग्रहबिम्बव्यासे पूर्वापरे प्रोतमुच्चजीवहस्तव्यान्तर्गतमास्ति । अथ ग्रहबिम्बमु. जस्थानात्पूर्वस्मिन्स्वशक्त्या गच्छदाप वामहस्तास्थितसूत्रणाचस्थानात्पूर्वरूपेण ग्रहस्थानात्पाश्चिमरूपंण बृहत्सूत्रावयवात्मकेन स्वस्थानात्पश्चात् स्वाभिमुखमपकृष्यते निरन्तरमुच्चदैवतैः स्वशक्त्या यावत् षड्भान्तरं तयोः । अनन्तरं तन्मार्गेणाकर्षणसम्भवात्पूर्वस्मिन् गच्छद्रहबिम्ब सव्यहस्तस्थितसूत्रेणोच्चस्थानात् पश्चिमरूपेण ग्रहस्थानात्पूर्वरूपण बृहत्सूत्रावयवात्मकेन स्वस्थानात्पूर्वस्मिन् स्वाभिमुखमाकृष्यते स्वशक्त्या निरन्तरं यावदन्तराभावस्तयोरेति ॥२॥ __ भा. टी.-बह वायु ( अदृश्य ) किरणों करके बाएं और दाहिने हाथमें बैंचकर सन्मुख पूर्व या पंछे अपने स्थानसे ग्रहोंको ले जाते हैं ॥ २॥
अथातएवकरूपां पूर्वाधिकारावगतां गतिं त्यक्त्वा प्रत्यहं विलक्षणां गति प्राप्ता ग्रहा इत्यत आह
प्रवहाख्यो मरुत्तांगस्तु स्वोच्चाभिमुखमीरयेत् ।
पूर्वापरापकृष्टास्ते गति यांति पृथविधाम् ॥३॥ प्रबहाख्यः प्रवहसंज्ञको मरुद्वायुः पाश्चमाभिमुखभ्रमस्तान्ग्रहान् तुकारादुच्चानि स्वोचामिमुखं स्वस्य प्रवहभ्रमेणेनोचं भावप्रधाननिर्देशादुचता यस्यां दिशि तत्स्वोच्च पूर्वदिक्पूर्वभाग एव ग्रहाणां प्रवहभ्रमेणेचगमनदर्शनात् । तत्सम्मुखं पूर्वादेशोति तात्पर्यार्थः । ईरयेत् पश्चिमाभिमुखभ्रमणसिद्धप्रागुक्तग्रहावलम्बनरूपेण चालयतीत्यर्थः । अतः कारणात्ते ग्रहाः पूर्वापरापकृष्टा उच्चदैवतैः पूर्वपश्चिमदिशोराकृष्टाः पृथग्विधां प्रथमावगतैकरूपभिन्नप्रकारावगतां प्रतिक्षणविलक्षणां गात गमनक्रियां यान्ति प्रामु वन्ति । अवलम्बनाकर्षणाभ्यां प्रतिदिनं ग्रहाणां गतेरन्यादृशत्वं तदनुसारेण ग्रहचरज्ञान युक्तामति ग्रहाणां स्पष्टाक्रयोत्पन्नति भावः । यद्वा । ननु वायुरज्जुभिः कथं
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ध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (३७) ग्रहाणामाकर्षणं सम्भवति तद्रज्जूनां विरलतया घनीभूतत्वाभावनाकर्षणायोग्यत्वादित्यत आह । प्रवहाख्य इति । उच्चदेवताहस्तद्वयस्थितकक्षाकारसूत्रं वायुः प्रवहवायुसम्बन्धात्प्रवहसंज्ञो न पश्चिमाभिमुखभ्रमप्रवहात्मकस्तान्ग्रहान्स्वोच्चाभिमुखं स्वीचदेवतास्थानसम्भुखमीरयेत् प्रेरयति चालयात । तुकारादुच्चस्थानात् पूर्वस्मिन्ग्रहे वायुः पश्चिमगत्या ग्रहं चालयति पश्चिमस्थे वायुः पूर्वगत्या ग्रहं चालयतीत्यर्थः । तथा च कक्षा कारसूत्रं तदा तदा तथा तथा भ्रमतीति दैवतैराकृष्यत इत्युपचारादुच्यत इति भावः अतएव ग्रहाणां स्पष्टाक्रयोत्पन्नेत्याह-पूर्वापरापकृष्टा इति । उच्चदैवतैः पूर्वापरदिशयोरपकृष्टा ग्रहाः पृथाविधांमध्यमतिरिक्तप्रकारां गति गमनक्रियां यान्ति । अतो न केवलं मध्यक्रियया निर्वाहः ॥ ३ ॥ ___भा० टी०-प्रवह नामक वायु ग्रहको अपनी उंची २ दिशाभोंमें लेजाता है । इस प्रकार पूर्व पश्चिम दिशामें खींचकर पृ.क् गतिको प्राप्त करता है ॥ ३ ॥ अथ प्राक्पश्चादपकृष्यन्त इ युच्चं विशदयति
ग्रहात्प्राग्भगणाद्धस्थः प्राङ्मुखं कर्षति ग्रहम् ॥
उच्चसंज्ञोऽपरार्द्धस्थस्तद्वत्पश्चान्मुखं ग्रहम् ॥ ४॥ ग्रहस्थानात्पूर्वभागस्थराशिफ्ट्रकस्थित उच्चसंज्ञो जीवो ग्रहबिम्बं पूर्वदिगभिमुखं स्वाभिमुखं कर्षत्याकर्षति । अपगईस्थो ग्रहस्थानात्पश्चिमभागस्थराशिषट्रकास्थित उच्चसंज्ञो जीव इत्यर्थः। ग्रहबिम्ब पश्चान्मुखं पश्चिमदिगभिमुखं स्वाभिमुखं तदाकर्षतीत्यर्थः ४॥ __ भा० टी०-पूर्व आधे भगणम स्थित उच्चग्रहको पूर्व में और दूसरे अर्द्धमें स्थितग्रहको पाश्चममें खेचता है ॥ ४॥ अथ पूर्वोक्तसिद्धं फलितमाह
स्वोचापकृष्टा भगणेःप्रामुखं यान्ति यद्रहाः ॥
तत्तेषु धनमित्युक्तमृणं पश्चान्मुखेषु तु ॥५॥ स्वोच्चजीवाकर्षिता ग्रहाः पूर्वाभिमुखं भगणैराशिभिर्भगोलस्थक्रान्तिवृत्तानुसृतस्वाकाशगोलान्तर्गतक्रान्तिवृत्ते द्वादशराश्यन्तिके यद्राशिविभागैरित्यर्थः । यद्यत्संख्यामितं गच्छन्ति तत्तत्संख्यामितं मागादिकं फलरूपं तेषु पूर्वावगतग्रहराश्यादिभोगेषु धनं योज्यम् । पश्चान्मुखेषु, पश्चिमाकर्षितग्रहपूर्वावगतराश्यादिभोगेषु कारायत्संख्यामित लरूपं पश्चिमतो गच्छन्ति तदित्यर्थः । ऋणं हीनमिति । एतत्पूर्वैः कथितम् ॥ ५॥
भा० टी०-अपने उच्चसे खेंचकर जब ग्रह पूर्वदिशामें जाते हैं, तब तिसमें धन विपरीत पश्चिम दिशामें जाय तो ऋण होता है ॥ ५॥ अथ पातानां ग्रहविक्षेपरूपगतिहेतुत्वं प्रतिपादयति
दक्षिणोत्तरतोऽप्येवं पातो राहुः स्वरहंसा ॥ विक्षिपत्येष विक्षे चन्द्रादीनामपक्रमात् ॥६॥
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( ३८ )
[ द्वितीयोs
चन्द्रादीनां विरविग्रहाणामपक्रमात् क्रान्तिवृत्तस्थस्पष्टग्रहभोगस्थानाद्दक्षिणोत्तरतो दक्षिणस्यामुत्तरस्यां वा दिशि । अपिशब्दः पूर्वापराभ्यां समुच्चयार्थकः । एष गणितागतः पातः पातराश्यादिभोगस्थानम् । अत्राप्यपिशब्द उच्चेन समुच्चयार्थकोऽन्वेति । एवमुच्चेन पूर्वापरयोः फलान्तरं भवति तथेत्यर्थः । विक्षेपं विक्षेपणं स्वरंहसात्मवेगेन विक्षिपति करोति । विशिष्टवाचकानां पदानां विशेषणवाचकपदसमवधाने विशेष्यमा त्रार्थत्वात् । चन्द्रादीन्विक्षिपतीति तात्पर्यार्थः । ननूच्चेन स्वाधिष्ठितजीवद्वारा ग्रहाकर्षणं क्रियते तथा पातेनाचेतनत्वाद्वेगाभावेन ग्रहविक्षेपणं कर्त्तुमशक्यमित्यत आह- राहुरिति । पातस्थानाधिष्ठात्री देवता राहुजीवविशेषश्चन्द्रपातस्तु दैत्यविशेषो राहुः । रहति त्यजति ग्रहमिति राहुरिति व्युत्पत्तेः ॥ ६ ॥
मा० टी० - अपने बलसे पातहुआ राहु, ग्रहों को दक्षिण व उत्तर दिशा में विक्षिप्त करता है । क्रान्तिवृत्तसे चन्द्रादिके विक्षेपको विक्षेप कहते हैं ॥ ६ ॥
अथैतद्विशदयति
उत्तराभिमुखं पातो विक्षिपत्यपरार्द्धगः ||
ग्रहं प्राग्भगणार्द्धस्थो याम्यायामपकर्षति ॥ ७ ॥
अपरार्द्धगो ग्रहस्थानात्पश्चिमविभागस्थित भगणार्धात्मक राशिषट्कस्थितो राहुग्रहबिम्बं स्वराश्यादिभोगस्थानीयप्रदेशादुत्तरदिगभिमुखं विक्षिपति विक्षेपान्तरेण त्यजति । प्राग्भगणार्धस्थः ग्रहस्थानात्पूर्वविभागस्थितराशिषट्रकमध्यस्थितो दक्षिणस्यां दिश्यपकर्षात विक्षिपति ॥ ७ ॥
मा० टी०-पश्चिमके आधे भगण में गये हुए पात ग्रहोंको उत्तराभिमुख में और पूर्वके आने भगण में स्थित ग्रहोंको दक्षिण दिशामें खेचता है ॥ ७ ॥ अथ बुधशुक्रयाविशेषमाह
बुधभार्गवयोः शीघ्रात्तद्वत्पातो यदा स्थितः ॥ तच्छीघ्राकर्षणात्तौ तु विक्षिप्येते ययोक्तवत् ॥ ८ ॥
बुधशुक्रयोः शीघ्रोच्चाज्जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । बुधशुकयोः पातो जात्यभिप्राकवचनम् । तद्वत्परार्धपूर्वार्धभगणार्धमध्ये यदा यत्काले स्थितस्तुकारात् यत्काले पाताभ्यामित्यर्थः । ............................................... ( ? ) @ तो बुधशुकौ यथोक्तवत्पूर्वार्धपरार्धक्रमेण दक्षिणोत्तरयोर्विक्षिप्येते विक्षेपान्तरेण त्यज्येते । तनृच्चात्तादृगवस्थितपातौ सम्बन्धाभावाद्बुधशुक्रौ दक्षिणोत्तरयोः कथं त्यजतोऽ न्यथा वैयाधिकरण्येनातिप्रसङ्गापत्तेरित्यतः कारणमाह तच्छीघ्राकर्षणादिति । बुधशुऋयोः शीघ्रोच्चे तयोराकर्षणाभ्यां जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । तथा च तदुच्चाभ्यां तादृगवस्थितपातौ तदुच्चजीवौ दक्षिणोत्तरयोस्त्यजत इति पूर्वोक्तरीत्या न्यायार्सद्धमतस्तदुच्च
.....
सूर्यसिद्धान्तः
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ध्यायः २. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
(३९)
सूत्रबद्धत्वाद्वबुधशुक्रयास्तथा विक्षेपणं न्यायसिद्धमेवेति भावः । ननु भौमगुरुशनीनामेवं कथं नोक्तमनयोर्वा कथमेतदुक्तं सर्वेषामेकरीतिकथनस्य समुचितत्वात् । किञ्च गुरुभौमशनीनामुचदवेताः स्वस्वकक्षास्था इति फलमुपपन्नं भवति बुधशुक्रयोरुञ्चदेववतयोः कक्षतो दक्षिणोत्तरयोः स्थितत्वेन पूर्वोक्तरीत्या फलानुपपत्तिर्विलक्षणप्रवहवायुसूत्रस्थदेवतासम्बद्धस्य स्पष्टभूपरिध्याकारत्वेन कक्षाकारत्वाभावात् । विना कक्षाकारतां फलोत्पादनस्य ब्रह्मणोऽप्यशक्यत्वाच्च । न च विलक्षणप्रवहवायुसूत्रं देवता सम्बद्धं ग्रहाकाशगोले कक्षाकारत्वाभावेऽपि कक्षातुल्यं स्थानांतर इति फलोत्पत्तिर्याम्योत्तरान्तरसपि कल्पनयेति वाच्यम् । उच्च देवतास्थानस्य कक्षातो दक्षिणत्वे तत्षड्भान्तरप्रदेशस्योत्तरत्वावश्य सम्भावेनोच्च बुध शुक्रयोरे के दिग्विक्षेपतुल्यत्वनियमानुपपत्तेः । तत्कथमिदं सङ्गत भगवदुक्तमिति चेत् । अत्रोच्यते । स्वरुच्या सङ्गतार्थमङ्गीकृत्य तदूषणोद्घाटन भगवदुपालम्भनकर्तृ रसनाच्छेदस्तत्तत्वार्थप्रकाशेनावश्यं करणीयः । तथाहि स्वशीघ्रोच्चाबुधशुक्र योर्यदन्तरं राश्यात्मकं तद्वत्पातस्थेनान्तरेण युक्तः पूर्वातीतपात इत्यर्थः । यथा बुधशुक्रयोरपरपूर्वार्धक्रमेण स्थितोऽवस्थितः तुकरात्तथेत्यर्थः । तच्छ्रीग्राकर्षणात्तादृशपाताभ्यां शीघ्रवेगेनाकर्षणं तस्मात्पातस्थानाधिष्ठातृदेवताभ्यां स्वहस्तस्थितग्रहसंबद्धवायुसूत्रस्यातिवेगाकर्षणरचनादित्यर्थः । तौ बुधशुक्रायुक्तवदुत्तरदक्षिणक्रमेण विक्षिप्येते । अत्र पातशब्देन चक्रशोधितपातो बोध्यः । अन्यथा ग्रहो न शीघ्रोच्चरूपकेन्द्रयोजनस्योपपत्तिसिद्धत्वेन शीघ्रोच्चोनग्रहरू केन्द्रयो जनोक्त्यनुपपत्तेः । तथा च सर्वग्रहसाधारणं विक्षेपकथनं पातभेददर्श ये बुधशुक्रयोः पृथगुक्तम् । नह्यन्यस्मिन्पक्ष उच्चयेोर्विक्षेपणं प्रतीयते येन प्रागुक्त सर्वविलोपाशंकनं शंकनीयम् । पातभेदोक्तिकारणं च " ये चात्रपात भगणाः कथिता - ज्ञभृग्वोस्ते शीघ्रकेन्द्रभगणैरधिका यतः स्युः । स्वल्पाः सुखार्थमुदिताश्वलकेन्द्रयुक्तौ पातौ तयोः पठितचक्रभवौ विधेयौ ॥ " इति भास्कराचार्योक्तमिति दिक् ॥ ८ ॥ मा०टी० - बुध और शुक्रका पात, शीघ्र से पहली कही हुई रीतिकरके स्थित होनेपर शीघ्र:कर्षण हेतु से पहले की समान विक्षिप्त होता है ॥ ८ ॥ स्यादेतत्परमुच्चेदेवतयोरविशेषात्सूर्यचन्द्रयोः समं फलं कुतो न भवतीत्यत आहमहत्त्वान्मण्डलस्यार्कः स्वल्पमेवापकृष्यते ॥
1
मण्डलाल्पतया चन्द्रस्ततो बहुपकृष्यते ॥ ९ ॥
सूर्यो मण्डलस्य बिंबस्य महत्वाद्गुरुत्ववत्त्वात्स्वल्पमितरग्रहापेक्षयाल्पं परमफलम् एवकारो निर्धारणेऽपकृष्यते उच्चजीवनापकृष्यते । चंद्रो मण्डलाल्पतया बिम्बस्य लघुत्वेन ततः सूर्यफलाद्बह्रधिकं परमफलमुच्चजीवेना कृष्यते ॥ ९ ॥
भा० टी० - सूर्यमंडल अधिक भारी होनेसे कम खिंचता है, चंद्रमा स्वल्प होनेसे अधिक। खींचा जाता है ॥ ९ ॥
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(४०) सूयासद्धान्तः
[ द्वितीयोऽअथातएव भौमादीनामल्पमूर्तित्वादाभ्यां फलाधिकत्वं सम्भवतीत्याह
भोमादयोऽल्पमूर्तित्वाच्छीघ्रमन्दोचसञ्जकः॥
देवतरपकृष्यंते सुदूरमतिवेगिताः ॥ १०॥ भौमादयः पञ्चग्रहा अल्पमूर्तित्वालघुतरविंबत्वाच्छीघ्रमंदोच्चसङ्घकैः शीघ्रोच्चमंदोच्चसंज्ञेतैः सुदूरमत्यंतं बह्वपकृष्यंते । अतएवातिवोगता अत्यंतवेगः संजातो येषां ते बिवलघुत्वेनोचव्याकर्षणेन च बहुपरमफला इत्यर्थः । ननु सूर्यचंद्रयोः कक्षाकारविलक्षणप्रवहवायुचलनेन फलोत्पादनं युक्तं भौमादीनां तु प्रत्येकमुच्चद्वयसद्भावाद्वायुरश्म्याकर्षणासम्भवेन कक्षाकारप्रवहविलक्षणवायुचलनेन फलोत्पादनार्थमंगीकृतं कथं सम्भवति । उच्चद्वयस्थानस्यैकत्वाभावान्नह्येकमेव वायुमण्डलं युगपद्विरुद्धगत्योराश्रमं स्वतो भवितुमहतीति चेन्न भौमादीनां शीघ्रमंदोच्चदेवताइयेन तत्सूत्रमार्गेण ग्रहबिम्बाकर्षणस्यैव मशक्त्यारचनात् । न वायुमण्डलचलनकल्पनं सूर्यचंद्रयोरप्येवमेवांगीकारे बाधकामा पाच । वायुमण्डलकल्पनं तु तदातरश्मीत्युक्त्वानुपपत्त्या नातिप्रयोजनम्। तद्वातरश्मिाभि द्धा इत्यस्य पश्चिमभ्रमात्मकप्रवहायौ स्वस्वाकाशगोले. समसूत्रसम्बन्धेन स्थिता इति ग्रहस्थितिस्वरूपोक्त्यासमर्थनात् । नहिः तदत्र हेतुगर्भ येनानुपपत्तिः शंकनीया । उच्चदेवताकल्पनेनाकाशस्थग्रहाणां तथातथा स्वशक्त्या तदाकर्षणात्फलव्यसंस्काररूपैकफलोत्पादनं संगच्छते । अतएव सूत्रं ग्रहबिंबप्रोतकक्षाकारामति कल्पनमपि निरस्तम् । उच्चद्वयात्तल्यकर्षणेन विरुद्धकर्षणेन चः सूत्रमण्डलभंगापत्तीरति ॥१०॥
मा० टी०-मंगल आदि छोटी मूर्तिवाले होनेके कारणसे शीघ्रमन्दोच्च देवताओंकरके दूर खिंचे जाते और अति शीघ्र चलते हैं ।। १० ।! अथैतदुपसंहरति
अतो धनणं सुमहत्तेषां गतिवशाद्भवेत् ॥
आकृष्यमाणास्तवं व्योनि यान्त्यनिलाहताः ॥११॥ अतः पूर्वोक्तसुदूराकर्षणप्रतिपादनात्तेषां भौमादीनां गतिवशादाकर्षणोत्पन्नचलनवशात्सुमहदत्यधिकं फलं धनणं स्वोच्चापकृष्टेत्यादिना भवति । नन्वाकर्षणोत्पन्नचलनं कथं न प्रत्यक्षमित्यत आह-आकृष्यमाणा इति, । तैरुचपातदैवतैरवेमुक्तप्रकारेणाकृष्यमाणा आकर्षिता एते भौमादयो व्योम्नि स्वस्वाकाशगोलेऽनिलाहताः पश्चिमाभिमुखानवरतप्रवहवाय्वाधाता यान्ति गच्छन्ति । तथाचावलम्बनोत्पन्नपूर्वगतिर्यथानप्रत्यक्षा तथा पूर्वगतिविकृत्यात्मकमेतदाकर्षणचलनमानयतं प्रवहवायुभ्रमणप्राबल्यादप्रत्यक्षमिति भावः ॥ ११ ॥
मा० टी०-इस चालके वासे उनका धन और ऋण अत्यन्त माधक होताहै । इस प्रकार आकाशमार्गमें खिंचते हुए होकर पवनके सहारेसे चलते हैं ॥ ११ ॥
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ध्यायः २]
संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः।
(४१)
अथैवं गातकारणसञ्चयैहाणां भौमादीनां फलिते का गतिरष्टभेदात्मिकेत्याह
वक्रानुवका कुटिला मन्दा मन्दतरा समा ॥
तथा शीघ्रतरा शीघ्रा ग्रहाणामष्टधा गतिः ।। १२॥ ____ भौमादिग्रहाणां विरविचंद्राणामष्टप्रकारा गतिः फलिता । तत्र वक्रेत्यादिसमेत्यन्तं षटूप्रकारा गतिः शीघ्रतरा शीघेति गतिद्वयम् । तथा समुच्चये । आसां स्वरूपज्ञानमग्रे स्फुटम् ॥ १२ ॥
भा० टी०-चक्र, मनुवा कुटिल, मन्द, मदन्तर, सम, शीघ्र, शीघ्रतर यह आठ प्रकारकी गति है ॥ १२॥ अथनामष्टधा गतिं भेदद्वयेन कोडयति
तत्रातिशीघ्रा शीघ्राख्या मन्दा मन्दतरा समा॥
ऋज्वीति पञ्चधा ज्ञेया या वका सानुवक्रगा॥१३॥ तत्राष्टविधगतिष्वतिशीघ्रत्यादिसमेत्यन्ता इत्येवं पञ्चधा गतिः । ऋज्वी मार्गों गतिर्जेया या गतिः सानुवक्रगानुवक्रगमनेन सह वर्तमाना पूर्वश्लोकेऽनुवक्रगतेर्वक्रकुटिलमामध्याभिधानादुभयथासन्नत्वाच्च वक्रानुवक कुटिलेति गतिर्वक्रा ज्ञेया तथा च ग्रहाणां गौ वक्रेति गतिद्वयम् ॥ १३ ॥
मा०टी०-तिनमें अतिशीघ्र, शीघ, मन्द, मन्दतर भौर सम यह पांच सीधी गति है, कुटिल, वक्र आर अनुवक्र यह तीन वक्रगति हैं ॥ १३ ॥ अथ ग्रहाणां स्पष्टक्रियां प्रतिजानीते
तत्तद्दतिवशान्नित्यं यथा हक्तुल्यता ग्रहाः॥
प्रयांति तत्प्रवक्ष्यामि स्फुटीकरणमादरात् ॥ १४ ॥ नित्यं प्रत्यहं तत्तद्गतिवशात्तास्ता गतय एकस्मिन्दिने शीघ्रा परदिनेऽतिशीघ्रत्यादिना यस्मिन्दिने या गतिस्तत्सम्बन्धानुरोधादित्यर्थः । ग्रहाः सूर्यादयो यथा येन प्रकारेण दृक्तुल्यतां वैधितग्रहसमतां गच्छन्ति तत्तादृश स्फुर्टाकरणं स्पष्टक्रियागणितप्रकारमादरादत्यन्ताभिनिवेशादेतेनासंगतत्वनिरासः। प्रवक्ष्यामि सूक्ष्मत्वेन कथयामि ॥ १४ ॥
भा०टी०-इन गतियोंके वश होकर ग्रह सदा दृक्तुल्यता प्राप्त करते हैं । इस समय वही स्पष्टीकरण आदरसहित कहूंगा. ॥ १४ ॥ अथ तत्र प्रथमं ज्यासाधनार्थ ज्यापिण्डान्विवक्षुस्तदानयनं श्लोकाभ्यामाह
राशिलिप्ताष्टमो भागः प्रथमं ज्यामुच्यते ॥ तत्तद्विभक्तलब्धोनमिश्रितं तद्वितीयकम् ॥ १५॥
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(४२) सूयासद्धान्तः
[द्वितीयोऽआधेनवं क्रमात्पिण्डान्भक्त्वा लब्धोनसंयुताः ॥
खण्डकाः स्युश्चतुर्विशज्यापिण्डाः क्रमादमी ॥ १६॥ एकराशिकलानामष्टादशशतानामष्टमोऽशस्तत्त्वाश्विमितः प्रथममायं ज्याधे संपूर्ण जीवार्द्धपिण्डकः कथ्यते तदभिज्ञैः । ततः प्रथमज्यार्धात्तेन प्रथमज्याधैन भक्ताल्लब्धेन हीनमन्यस्याप्रसंगात्प्रथमज्यामनेन युक्तं तत्प्रथमज्याध द्वितीयकं ज्याधं भवति । द्विगुणप्रथममेकोनम् । तृतीयादीनामानयनार्थमुक्तप्रकारमातदिशति-आयेनोत । प्रथमज्याधीपण्डेन । एवमुक्तरीत्या क्रमात्सिद्धपिण्डान्भक्त्वा लब्धैरूनमाद्यं खण्डमनेन युताः खण्डका असिद्धा व्यवहितसिद्रज्यापिण्डा असिद्धपिण्डा भवन्ति । यथा प्रथमखण्डं २२५ प्रथमभक्तं फलं १ द्वितीयखण्डं ४४९ प्रथमभक्तं फलं द्वयम् २ अर्धाधिकावयवस्यैकाधिकत्वे. न ग्रहस्य साम्प्रदायिकत्वात् । फलैक्योनं प्रथमम् २२२ अनेन द्वितीयखण्डो ४४९ युतस्तृतीयम् ६७१ एवमिदं प्रथमखण्डभक्तं फलम् ३ अनेन' पूर्वफलैक्यं ३ युतं जातं ६ सर्वफलैक्यमनेन प्रथमं खण्डं हीनम् २१९ अनेन तृतीयं ६७१ युतं चतुर्थम् ८९० एवमिदं प्रथमखण्डभक्तं फलं ४ पूर्वलब्धैक्योनप्रथमखण्डरूपं २१९ ज्यान्तररूपखण्डकमनेन ४ हीनम् २१५ अनेन चतुर्थ युतं पञ्चमम् ११०५ एवमग्रेपि । यथोक्तरीत्या संख्यखण्डानां सम्भवात्खण्डनियममाह-स्युरिति । एवं चतुर्विंशत्संख्याका ज्यापिण्ड : कार्या न तदधिकाः । अत्र । “एकविंशाच विशाच षष्ठात्पञ्चदशादपि ॥ सप्तमाद्वादशात्सप्तदशान्ना?त्तरं मतम् ॥" इति ब्रह्मसिद्धान्तोक्तस्थलेऽर्धाधिकावयवस्यैकाधिकत्वेन न ग्रह इति ध्येयम् । गणितस्याविकृतत्वात्सिद्धाः पिण्डाः कथं नोक्ता इत्यत आह । क्रमादिति । अमी सिद्धाः पिण्डाः क्रमात्समनन्तरमेवोच्यन्ते । अत्रोपपत्तिः। समायां भूमौ वृत्तं भगणकलांकित तिर्यगूर्ध्वाधरव्यासमितरेखाभ्यां चतुर्भागं कार्य तत्रोवरेखासक्तपीरधिप्रदेशादुभयत्र समविभागं विगणय्य तदग्रयोर्बद्धं सूत्रं वृत्ते द्विगुणविभागामेतसम्पूर्णचापस्य सम्पूर्णज्या । अत्र गणितऊर्ध्वरेखातोऽर्धज्याया एव प्रयोजनात्तदर्धचापस्य तदर्धमर्धज्या । एवं वृत्तचतुर्थांश ऊर्ध्वरेखातोऽभीष्टाशानां चापार्धाकाराणामर्धज्या अभीष्टा गण्याः । तत्रभगवता. स्वेच्छया वृत्तचतुर्थांशे त्रिराशिमिते चतुर्विंशज्याः कल्पितास्तज्ज्ञानं तु वृत्ते चक्रकलानामंकितत्वात्तत्परिधिव्यासार्धं त्रिराशिज्यान्तिमा । भनन्दाग्निमितपरिधौ खबाणसूर्यमितो व्यासस्तदा चक्रकलापरिधौ क इत्यनुपातेन व्यासानयनम् । यथा चक्रकलाः २१६०० खबाणसूर्यगुणाः २७०००००० भनन्दाग्नि ३९२७ भक्ता व्यासः ६८७६ एतदर्धमन्तिमाज्या ३४३८ अथ वृते चापज्ययोविवेक तयोरतुल्यत्वमपि भगवता कोऽपि वृत्तभागः समोऽस्त्यन्यथामल
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ध्यायः २ ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमतः ।
( ४३ )
""
कादौ सर्षपाद्यवस्थान न स्यादिति मत्वा तद्भागस्य ज्या तत्तुल्यैवेति । " वृत्तस्य षण्णवत्यंशो दण्डवद्दृश्यते तु सः ॥ इात शाकल्योक्तः । प्रथमज्याचक्रकलाद्वादशांशरूपैकराजिकलानामष्टभागस्तत्त्वाश्वमितः । एतन्मितमेव प्रथमचापत एव दन्तरेणाभीष्टाज्याश्चतुर्विंशत् । अथ चतुर्विंशतिजीवानां यथोत्तरमुपचयात्तदन्तररूपखंडानां यथोत्तरमपचयस्य वृत्तेज्यांकनेन प्रत्यक्षत्वाज्ज्यान्तररूपखंडानामन्तरं यथोत्तरमुपचितमिति द्वाविंशतित्रयोविंशतिचतुर्विंशतिज्यानामन्तरयोरन्तरमिदं परमं खंडान्तरं सूक्ष्मज्योत्पत्तिप्रकारेणावगतम् १५ । १६ । ४८ । अथ त्रिज्ययेदं खंडकान्तरं तदा प्रथमज्यया किमित्यनुपातेन फलप्रमाणयोः फलेनापवर्त्य प्रमाणस्थाने तत्त्वाश्विनोऽनेन भक्ताः प्रथमज्याफलं पूर्वद्वितीयखंडयोरन्तरम् । अनेन पूर्वखंड हीनं द्वितीयं खंडं भवति । तत्र पूर्वखंडं प्रथमज्यातुल्यमेव । द्वितीयखंड प्रथमज्यायां युतं द्वितीयज्या । एवमस्यास्तत्त्वाश्विभागलब्धं द्वितायतृतयिखण्डकयारेन्तरमनेन द्वितीयखण्डनं तृतीयखण्डमित्यनेन द्वितायज्यायुता तृतीयज्या । एवं चतुर्थाद्याः । तत्र पूर्वमर्धाभ्यधिकग्रहणेनोत्तरत्राधिकान्तरपातसम्भावनया क्वचित् क्वचिदर्धाः भ्यधिकावयवस्यैकाधिकत्वेनाग्रह इत्युपपन्न श्लोकद्वयम् ॥ १५ ॥ १६ ॥
O
भा०टा० - राशिकलाका ( १८८० ) अष्टमभाग प्रथम ज्यार्द्ध है । तिनको तिसकर क भाग करके, भाग फलहीन करके पूर्वके साथ मिलानेसे दूसरा ज्यार्ध है ॥ १५ ॥ विगतपिण्डोंको क्रमशः आदि २१५ से भागलब्ध एकत्र कर २२५ से अलग कर तिसको पूर्व खण्डमें मिलानेसे खण्ड होंगे; इस प्रकार निम्नलिखित २४ ज्याई पिण्ड नियत होंगे ॥ १६ अथैताः सिद्धाः श्लोकषट्केन कथयन्नुत्क्रमज्यार्धपिण्डज्ञानमाहतत्त्वाश्विनोऽधिकृता रूपभूमिधरर्तवः ॥ खांकाष्टौ पंचशून्येशा बाणरूपगुणेन्दवः || १७ ॥ शून्यलोचनपञ्चकाछिद्ररूपमुनीन्दवः ॥ वियच्चन्द्रातिधृतयो गुणरंधाम्बराश्विनः ॥ १८ ॥ मुनिषड्यमनेत्राणि चन्द्रानिकृतदस्रकाः || पञ्चाष्टविषयाक्षण कुञ्जराश्विनगाश्विनः ॥ १९ ॥
रन्ध्रपञ्चाष्टकयमा वस्वद्यंकयमास्तथा ॥
कृताष्टशून्य ज्वलना नगादिश शिवह्नयः ॥ २० ॥ षट्पञ्च लोचनगुणाश्चन्द्रनेत्रानिवह्नयः ॥ यमाद्रिवह्निज्वलना रन्ध्रशून्यार्णवाग्नयः ॥ २१ ॥
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( ४४ )
सूयोसद्धान्तः
रूपाग्निसागरगुणा वस्वनिकृतवह्नयः ॥ प्रोयोत्कमेण व्यासार्थादुत्क्रमज्यार्धपिण्डकाः ॥ २२ ॥
तथा समुच्चये । एतानुक्तान्क्रमज्यार्धपिण्डान् । उत्क्रमेणोपान्त्यपिण्डादिप्रथमपि - ण्डान्तं प्रत्येकं व्यासार्धात्रिज्यारूपपरमपिण्डात्प्रोज्झ्य न्यूनीकृत्य क्रमेणोत्क्रमज्यार्धपिण्डा भवन्ति । यथा त्रयोविंशतितमं ज्यार्धमुक्त रूपाग्निसागरगुणा इति वस्वग्निकृतवय इति चरमपिण्डादूनं सप्रथम उत्क्रमज्यार्धपिंडः । एवं द्वाविंशतितमं चरमाच्छुद्धद्वितीय उत्क्रमज्यार्धपिण्डः । एवमग्रेऽपीति चतुर्विंशदुत्क्रमज्यार्धपिंडाः । अत्रोपपत्तिः । ज्याचापयोर्बाणरूपमन्तरमुत्क्रमज्या । यद्यपि पूर्वार्द्धज्यावद्वाणस्यार्धं न सम्भवतीत्युत्क्रमज्यापिण्डा इति वक्तुमुचितं नोत्क्रमज्यार्धपिण्डा इति । तथापि भगवतानुगतपरिभाषार्थं चापबाह्यशराग्राभावेनोत्क्रमज्यायाः पूर्णशरांशत्वादुत्क्रमज्यार्धमित्युक्तम् । अथ वृत्तचतुर्थीशे सर्वज्याङ्कनेन यदंशानां ज्यात्रिज्यातो हीना तत्कोटयंशानामुत्क्रमज्येति स्फुटं दृश्यते अत उक्तज्यार्धक्रमेणोत्क्रमज्याज्ञानार्थं व्युत्क्रमेण त्रिज्या शुद्धा उक्त पिंडा उत्क्रमज्यापिण्डा इत्युपपन्नं प्रोज्जयेत्यादि ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥ २० ॥ ॥ २१ ॥ २२ ॥
[ द्वितीयोऽ
अथ श्लोकपञ्चकेनोत्क्रमज्यापिंडान्पूर्वोक्त सिद्धान्निबध्नातिमुनयो रन्धयमला रसषट्का मुनीश्वराः ॥ व्यष्टका रूपषड्दस्राः सागरार्थहुताशनाः ॥ २३ ॥ खर्त्तवेदा नवाद्यर्था दिङ्नगान्यर्थकुञ्जराः॥ नगाम्बरवियच्चन्द्रा रूपभूधरशङ्कराः ॥ २४ ॥ शरार्णवताका भुजङ्गाक्षिशरेंदवः ॥ नवरूपमहीका गजैक|कनिशाकराः ॥ २५ ॥ गणाश्विरूपनेत्राणि पावकाग्निगुणाश्विनः ॥ वस्वर्णवार्थयमला स्तुरङ्गर्तुनगाश्विनः ॥ २६ ॥ नवाष्टनवनेत्राणि पावकैकयमानयः ॥
गजाग्निसागरगुणा उत्क्रमज्यार्धपिण्डकाः ॥ २७ ॥
एत उत्क्रमज्यापिण्डाः पूर्वसिद्धा निबद्धा महीघ्रः पर्वतो भुजज्याभावे : कोटयुत्क्रमज्यायाः परमत्वाच्छ्रन्यज्योना त्रिज्या परमोत्क्रमज्यापिण्डविज्याया उभयत्र परमत्वेना-र्थसिद्धमन्त्यपिण्डत्वं वेति ध्येयम् ॥ २३ ॥ २४ ॥ २५ ॥ २६ ॥ २७ ॥
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ध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
(४५) ज्यासंख्या ज्यापिण्ड उत्क्रम ज्यासंख्या ज्यापिण्ड उत्क्रम ज्यासंख्या ज्यापिण्ड उक्रम
२२५ ७ ९ १९१० ५७९ १७ ३०८४ १९१८ ४४९ २९ १० २०९३ ७१० १८ ३१७७ २१२३ ६७१ ६६ ११ २२६७ ८५३ १९ ३२५६ २३३३ ८९० ११७ १२ २४३१ २००७ २० ३३२१ २५४८ ११०५ १८२ १३ २५८५ ११७१ २१ ३३७२ २७६७ १३१५ २६१ १४ २७२८ १३४५ २२ ३४०९ २९८९
१५२० ३५४ १५ २८९९ १५२८ २३ ३४३१ ३२१३ ८ १७१९ ४६० १६ २९७८ १७१९ २४ ३४३८ ३४३८ अथ प्रसंगात्परमक्रान्तिज्यां वदन्क्रांत्यानयनमाह
परमापक्रमज्या तु सप्तरन्ध्रगुणेन्दवः॥
तद्गुणाज्या त्रिजीवाप्ता तच्चापं क्रान्तिरुच्यते ॥ २८॥ ब्यूनं चतुर्दशशतं १३९७ परमक्रांतिज्या तुकाराच्चतुर्विंशत्यंशानां वक्ष्यमाणज्यानयनप्रकारसिद्धत्यर्थः । अभीष्टाज्या परमक्रान्तिज्यया गुणिता त्रिज्याभक्ता फलस्य वक्ष्यमाणप्रकारेण धनुः क्रांतिः कलात्मिका तत्त्वज्ञैः कथ्यते । अत्रोपपत्तिः । विषुवतचात्क्रांतिवृत्तभागस्य याम्योत्तरस्यान्तरं ध्रुवाभिमुखवृत्ताकारसूत्रे क्रान्तिः । तत्र सायनमेषतुलादिस्थाने तयोरन्तराभावात् । कर्कमकरादौ तयोः परमान्तरत्वादभीष्टभुजज्यावशात्क्रान्तिरुपपन्नेति त्रिज्या तुल्यभुजज्यया परमक्रांतिज्या तदेष्टभुजज्यया केत्य नुपातेन फलं ध्रुवाभिमुखसूत्रे तदन्तररूपाधचापस्या ज्याविषुववृत्तोर्ध्वाधरमध्यसूत्रात्तचापं तदन्तरकलात्मिका क्रान्तिः ॥ २८॥
मा० टी०-परमापक्रमज्या १३९७ इसको इसकी ज्यासे गुणकरके त्रिज्या ( ३४३८) से भाग करनेपर क्रान्तिज्या होगी । इसको धनु करनेसे क्रान्ति होगी ॥ २८ ॥
अथ फलानयनाथ केंद्रपदाटुजकाोटज्ये कार्ये इत्याहग्रहं संशोध्य मन्दोच्चात्तथा शीघ्रादिशोध्य च ॥
शषे केन्द्रपदं तस्माद्धजज्याकोटिरेव च ॥ २९॥ . ग्रह राश्यादिकं मन्दोच्चात्मागानीतस्वकीयराश्यादिकमन्दोचभोगात् संशोध्योनीकृत्य शीघ्रात्प्रागानीतराश्यादिशीघ्रोच्चात् । चः समुच्चये। उनीकृत्य शेषं राश्यात्मकं तथोचसम्बन्धेन केन्द्रं मन्दोच्चादीनो ग्रहो मन्दकेन्द्रम् । शीघ्रोच्चाद्धीनो ग्रहः शीघ्रकेन्द्रं भवतीत्यर्थः । तस्मात्केन्द्रात्पदं राशिवयात्मकं विषमं समं पदं ज्ञेयम् ।
१ एकादि ज्यासंख्याके क्रमसे अपक्रमज्या ९१,१८२, २७३, ३६२, ४४९, ५३५, ६१८, ६९९, ७७६, ८५०, ९२१, ९८८, १०५०, ११०७, ११६२, १२१०, १२५३, १२९१, १३२३, १३४९, १३७०, १३८८, १३९५, १३९७ ॥
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(४६) सूयसिद्धान्तः
[ द्वितीयोऽत्रिराश्यन्तर्गतं चेत्प्रथमं विषमं पदम् । ततः षड्राश्यन्तर्गतं चेत् ब्यूनं केन्द्रं द्वितीयं समं पदम् । ततो नवराश्यन्तर्गतं चेत्षडून तृतीयं विषमं पदम् । ततो नवोनं चतुर्थ पदं सममित्यथः । तस्मात्पदाटुजस्य ज्याकोटिः कोटेा चः समुच्चये । एवकारादेकाद्वयं साध्यमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । उच्चस्थानाभिमुखमुच्चदैवतैर्ग्रहाणामाकर्षणोक्तेरुच्चाद्ग्रहः कियदन्तरेणति ज्ञानार्थमुच्चहीनो ग्रहः केन्द्रमुच्चग्रहणवशात्तदाख्यम् । तत्र भगवता स्वेच्छया ग्रहादुचं यदन्तरेण तत्केन्द्रं कृतम् । उभयथा भुजकोटयोस्तुल्यत्वात् । द्वादशराश्यङ्किते वृत्त उच्चास्थानाचतुर्विभागात्मक एकैको भागो राशिवयात्मकः पदसंज्ञः । अथोच्चस्थानाद्रहः कस्मिन्पदेऽस्तीति शून्यत्रिषण्णवोंने केन्द्रं कृतं ज्यानां पदान्तर्गतत्वात् । ग्रहाधिष्ठितपदाछजज्याकोटिज्ययोमा॑नम् ॥ २९ ॥
मा० टी०-भन्दोच्चसे ग्रहमध्य वियोग करनेपर अथवा शीघ्रसे ग्रहमध्य हीन करनेपर केन्द्र होता है । भगणके जिस पादमें केन्द्र है, तिससे भुजज्या और कोटिज्या स्थिर होती है ॥ २९॥
ननु पदे ग्रहस्य राशिविभागात्मकेनैकत्वाटुजकोटिज्ययोरतुल्ययोः साधनं कथमित्यत आह
गता जज्याविषमे गम्यात्कोटिः पदे भवेत् ॥
युग्मे तु गम्यादाहुल्यात्कोटिज्या तु गताद्भवेत् ॥ ३०॥ विषमे पदे गताग्रहस्य पदादितो यद्गतं राशिविभागात्मकं प्राग्ज्ञातं तस्मादि. त्यर्थः । भुजज्या स्यात् । गम्यागतोनं त्रिभं ग्रहात्पदान्तावधिकमेष्यम् । तस्मात्कोटिः कोटिज्या स्यात् । युग्मे समे तुकारात्पद एष्याटुजज्यागतात्कोटिज्या स्यात् । तुकारो विशेषद्योतकः । एकस्मादेवोक्तरीत्या द्वयं साधितमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । विषमपदेग्रहोचोर्ध्वाधररेखान्तरानुसारेण फलमुत्पद्यते ततो वृत्तान्तस्तदन्तरमर्धज्या भुजरूपा तदर्धचापं तदंतरांशा वृत्तभागस्था गताः । ऊर्ध्वाधररेखामत्स्यसम्पन्नतिर्य ग्रेखाग्रहयोरन्तरसूत्रमधज्यापदान्तः कोटिज्याभुजोत्क्रमज्योनव्यासारिखारूपकोटितुल्यत्वात् । तदर्धचापं भुजांशोनं त्रिभमिति गम्यात्कोटिज्या । समपदे ग्रहो;धररेखान्तरं तिर्यगर्धज्याभुजज्येति तदर्धं चापं यदैव्यं तिर्यग्रेखाग्रहान्तरं तिर्यगर्धज्याकोटितुल्यत्वात्कोटिस्तचापं पदगतमित्युपपन्नं गतादित्यादि ॥ ३० ॥ __ भा०टी०-विषम पदमें गतसे भुजज्या और गम्यसे कोटिज्या होती है । युग्मपदमें गम्यसे भुजज्या और गतसे कोटिज्या होती है ॥ ३० ॥
अथाभीष्टकालानां ज्यासाधनं श्लोकाभ्यामाहलिप्तास्तत्त्वयमैर्भक्ता लब्धं ज्यापिण्डकं गतम् ॥ गतगम्यान्तराभ्यस्तं विभजेत्तत्त्वलोचनः ॥३३॥
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अध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (४७)
तदवाप्तफलं योज्यं ज्यापिण्डे गतसज्ञके ।।
स्यात्क्रमज्याविधिरयमुत्क्रमज्यास्वपि स्मृतः ॥ ३२॥ यस्य राश्यात्मकस्य पदान्तर्गतस्य ज्या कर्तुमिष्टा तस्य कलाः कार्याः । तत्त्वाविभिभक्ता लब्धं चतुर्विंशज्ज्यापिण्डेषु पूर्वोक्तेषु लब्धसंख्याकः पिण्डो गतो भवति तदानमापिण्ड एष्यः पूर्व तु स्वरूपोक्त्यर्थं पिण्डानां ज्याधैत्युक्तिरिदानीं तु तेषामेवार्धत्यागेन ज्यापिण्डत्वोक्तिः । अर्धग्रहणे गणितक्रियायां व्याकुलतापत्तेः । नतु पूर्वपिण्डाद्विगुणागणितक्रियायां ग्राह्या इत्याशयेनार्धानुक्तिर्गौरवात् । भागेडवशिष्टं तद्गतैष्यपिण्डयोरन्तरण गुणितं तत्त्वाश्विभिर्भजेत् तस्मात्प्राप्तं यत्कलादिकं फलं तद्गते ज्यापिंडे युक्तं कार्यम् । उत्क्रमज्याभीष्टांशकलानामर्धज्यारूपा क्रमज्या भवति । अयमुक्तः प्रकार उत्क्रमज्यापिंडेषु कथितः । अभीष्टांशकलानामुत्क्रमज्यापिण्डैरुक्तविधिनोत्क्रमज्या स्यादित्यथः । अत्रोपपत्तिः । तत्त्वाश्विकलाभिरेका ज्या तदाभीष्टकलाभिः केत्यनुपातेन गतज्या ततस्तत्त्वाश्विकलाभिर्गताग्रिमज्यान्तरं लभ्यते तदा शेषकलाभिः केत्यनुपातागतलब्धेन युक्ताभीष्टज्या ॥ ३१ ॥ ३२॥
भा० टी०-३न्द्रपेद कलाको २२५ से भाग करनेपर जो प्राप्त हो तिसके परिमाणसे ज्यापिण्ड गत हुए हैं गत और गम्य ज्यापिण्डके अन्तरकी बचीहुई क्लासे गुणकरके २२५ से भाग करे ॥ ३१॥ भागफल, गतज्यापिण्डमें मिलावे । इस प्रचारसे कमज्या और उत्क्रमज्याका विधान होताहै । उत्क्रमज्याके स्थानमें उत्क्रमखण्डाज्या ग्रहण करनी चाहिये ॥ ३२॥ अथ ज्यातो धनुरानयनममाह
ज्यां प्रोज्य शेषं तत्त्वाविहतं तदिवरोद्धतम् । सङ्ख्या तत्त्वाश्विसंवगै संयोज्य धनुरुच्यते ॥ ३३ ॥ यस्य धनुः कर्तुमिष्टं तस्मिन्नशुद्धपूर्व ज्यापिण्डं न्यूनीकृत्य शेष पञ्चाकृतिगुणं तद्विवरोद्धृतं योः शुद्धाशुद्धापण्डयोरन्तरेण भक्तं फलं शुद्धज्या यतमा ततमसङ्ख्या तत्त्वाश्विनोः संवर्गे घाते संयोज्य सिद्धं धनुः कथ्यते । अत्रोपपत्तिः । ज्या यतमा शुद्धयति ततमा याश्चापकलास्ततमस-ख्यागुणिततत्त्वाश्विनः । ज्यान्तरेण तत्त्वाश्विकला स्तदा शेषज्यया केत्यनुपातागतफलयुता इति वैपरीत्येन सुगमतरा ॥ ३३ ॥ __ भा० टी०-इष्टज्यासे निकटतम न्यून ज्यापिण्डको मग करके शेषको २२५ से गुणकरके निकटतम न्यूनज्या और पल्लोज्याके अन्तरसे भाग करे । इस भाग फलको २२५ गुणित ग्रहण कोहुई ज्यापिण्डकी संख्यामें मिलानेसे धनु मला निकल भावेगी ॥ ३३ ॥
१ केन्द्रराश्यादि, ३ राशिका न्यन होनेसे समपाइ, तदुपरान्त ६ राशितक २ दूसरा पाद, फिर ९ राशितक तीसरा पाद और शेष चौथे पादके अन्तर्गत है । पहला और तीसरा पाद विषम है, तीसरे चौथे युग्म पाद हैं । गत अर्थात् उस पादके जिप्तेन गये हैं, गम्य अर्थात् उस पादकें पूर्ण होनेमें जितने बाकी हैं। अर्थात् ३ राशिसे अलग करनेपर जितने बाकी रह । इस प्रकारस निर्णय हुए केन्द्रको केंद्रपात कहते हैं। यहां ज्या और ज्यांईका कोई भेद नहीं है।
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( ४८ )
सूर्यसिद्धान्तः
अथ ग्रहाणां मन्दपरिध्यंशान्विवक्षुः प्रथमं सूर्यचन्द्रयोराहवेर्मन्दपारिष्यंशा मनवः शीतगो रदाः ॥ युग्मान्ते विषमान्ते च नखलिप्तोनितास्तयोः ॥ ३४ ॥
[ दितीयोs
सूर्यस्य परमाकर्षणोत्पन्नपरमपूर्वपरगमनरूपपरममन्दफलांशानां ज्यापरमफलज्यातत्तुल्यव्यासार्धेनोत्पन्नवृत्ते कक्षावृत्तस्थितांशप्रमाणेन येंऽशास्ते मन्दपरिध्यंशाः केन्द्रयुग्मपदान्ते नीचोच्चसमेऽर्के चतुर्दश चन्द्रस्य तत्र ते द्वात्रिंशत् । केन्द्रविषमपदान्ते नीचोच्चाभ्यां त्रिभान्तरिते चकार। दुक्ता मन्दपरिध्यंशा विंशतिकलोनाः सन्तः सूर्यचन्द्रयोर्मन्दपरिध्यंशा भवन्ति ॥ ३४ ॥
भा० टी०-युग्मपादके अन्तमें सूर्य की मन्दपरिधि १४ अंश, चन्द्रमाकी ३२ अंश. विषम पादान्तमें २० कला कम हैं ( अर्थात् र १३ । ४० चं ३१ | ४० ) ॥ ३४ ॥ अथ भौमादीनामाह
युग्मान्तेऽर्थाद्रयः खाग्री सुराः सूर्या नवार्णवाः ||
ओजे व्यगा वसुयमा रुद्रा रुद्रा गजाब्धयः ॥ ३५ ॥ भौमस्य पञ्चसप्ततिः । बुधस्य त्रिंशत् । गुरोखयस्त्रिंशत् । शुक्रस्य द्वादश । शनेरेकोनपंचाशात् पूर्वोक्तमन्दपरिध्यंशा इति वक्ष्यमाणकुजादीनामिति चात्रान्वेति । एते युग्मपदान्ते । ओजे विषमपदान्ते भामस्य द्विसप्ततिः बुधस्याष्टाविंशतिः । युरोरेकादश । शुक्रस्यैकादश । शनेरष्टचत्वारिंशत् ॥ ३५ ॥
भा० टी० -युग्म के अन्त में मन्दपरिधि अंश में मं. ७५ बु ३०, बृ ३३. शु १२, शनि ४९, । विषमान्त में मं ७२, बु. २८, बृ. ११, शु. ११, . ४८ ॥ ३५ ॥ अथ भौमादीनां गुग्मपदान्तेशैध्यपरिध्यंशानाह
कुजादीनामतः शेष्यायुग्मान्तेऽर्थादित्रकाः ॥ गुणानिचन्द्राः खनगा द्विरसाक्षीणि गोऽग्रयः ॥ ३६ ॥ भीमादीनामतो मन्दपरिव्यंशकथनानन्तरं शैध्याः शीघ्रपरिध्यंशा युग्मपदान्ते भौमस्य पंचत्रिंशदधिकं शतद्वयम् । वुधस्य त्रयस्त्रिंशदधिकं शतम् । गुरोः सप्ततिः । शुकस्य द्विषष्ट्यधिकं शतद्वयम् । शनेरेकोनचत्वारिंशत् ॥ ३६ ॥
मा०टा० - युग्भके अन्त में शीघ्र पारीचे अंश मं. २३५, बु. १३३, बृ. ७०, शु. २६२ श. ३९ ॥ ३६ ॥
अथैतेषां विषमपदान्ते शैघ्यपरिध्यंशानाह
ओजान्ते द्वित्रियमला द्विविश्वे यमपर्वताः ॥ खर्तुदस्रा वियद्वेदाः शीघ्रकर्माण कीर्तिताः ॥ ३७ ॥
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ध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः।
विषमपदान्ते शीघ्रकर्माण शीघ्रफलसाधनार्थ पारधय उक्ताः । एते शीघ्रपारधयः कुजादीनामिति पूर्वोक्तमत्रान्वेति । भौमस्य दन्ताश्विनाः । बुधस्य दन्तेन्दवः । गुरोप्तिप्ततिः । शुक्रस्य षष्टयधिकं शतद्वयम् । शनेश्चत्वारिंशत् । अत्र कीर्तिता इत्यनेन युग्ममान्ते फलाभावादेव परिधयः कथं सम्भवन्ति । अतो विषमपदान्ते परमफलस्य सत्त्वात्तत्रैव युक्ताः परिधयः शनिमन्दशीघ्रपरिध्योः क्रमेणाधिकन्यूनत्वं च संज्ञाव्याः घातादयुक्तमित्यादिना शङ्कनीयमागमप्रामाण्यात् " श्रुतिर्यत्रप्रमाणं स्यायुक्तः का तत्र नारद” इति ब्रह्मसिद्धान्तोक्तेश्चति सूचितम् ॥ ३७॥ भा०टी०-विषमके अंत में शीध्रपारीध अंश मं.२३२, बु.१३२, बृ.७२, शु.२६०, श ४० ३७॥ अथाभीष्टकेन्द्रसम्बन्धेन परिधिभागानयनमाह
ओजयुग्मान्तरगुणा भुजज्या विज्ययोद्धृता ॥
युग्मवृत्ते धन] स्यादोजादूनाधिके स्फुटम् ॥ ३८॥ भुजज्या यत्परिधिः स्फुटीकर्तुमिष्यते तत्केन्द्रस्य मन्दशीघ्रान्तरस्य भुजज्यौजयुग्मान्तरगुणा विषमसमपदान्तीयकेन्द्रीयपरिध्योरन्तरेण गुणिता त्रिज्यया भक्ता फलं युग्मवृत्त केन्द्रयुग्मपदान्तीयपरिधौ। ओजात्केन्द्रीयविषमपदान्तीयपरिधेः सकाशादूनाधिके क्रमेण धनर्ण होने युक्तमधिके हीनं स्फुटं परिधिमानं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । युग्मपदान्तीयस्थात् परिधेविषमपदान्तीयपरिधिर्यावता न्यूनाधिकस्तदन्तरं विषमपदत्वाद्धजज्ययोपचितमतस्त्रिज्यातुल्यभुजज्ययेदमन्तरं तदेष्टभुजज्यया किमिति फलं युग्मपरिधौ । ओजपरिधेन्यूनत्वे ऋणमधिकत्वे धनमिति । विषमपदपरिधेरधिकन्यूनयुग्मपरिधावेवर्णधनं कृतमित्युपपन्नम् ॥ ३८ ॥
भा०टी० विषम और युग्मपरिधिके भन्तरसे भुजज्याको गुणकरके त्रिज्यासे भाग करनेपर जो प्राप्त हो, लब्धफलपरिधिमें धन वा हीन करनेपर फुः परिध होगी विषमान्तसे युग्मान्त अधिक होनेपर लब्धफलहीन अन्यथा योग करे ॥ ३८॥ अथ भुजकोटिफलानयनं मंदफलानयनं चाह- . .
तद्गणे भुजकोटिज्ये भगणांशावभाजिते ।
तद्भुजज्याफलधनुर्मान्दं लिप्तादिकं फलम् ॥ ३९॥ भुजकोटिज्ये मन्दशीघ्रान्तरसंबन्धेन केन्द्रभुजकोटिज्ये तद्गुणे स्वीयस्फुटपरिधिना गुणिते भगणांशैः षष्टयधिकशतत्रयेण भक्ते भुजफलकोटिफले भवतः । मन्दकद्रभुजज्योत्पन्नफलस्य धनु कलादिकं मांदं फलं भवति । अत्रोपपत्तिः । कक्षास्थाचस्थानस्थितदेवतया स्वहस्तस्थितसूत्रप्रोतं ग्रहबिंबं स्वाभिमुखाकर्षणेन कक्षास्थमध्यग्रहस्थानात्परमफलज्यांतरितस्थान आकर्षणसूत्रमार्गरूपतिर्यकर्णमार्गेणाकर्ण्यते । तेन मध्य. ग्रहस्थानीयकक्षाप्रदेशांत्यफलज्याव्यासार्धेनोत्पन्नवृत्ते भगणांशांकिते भूमध्यग्रहस्पग्रे.
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(५०) सूर्यासद्धान्तः
[द्वितीयोऽखासक्ततद्वृत्तप्रदेशरूपोच्चस्थानात्केन्द्रान्तरेण कक्षाविपरीतमार्गेण तदृत्तपरिधौ ग्रहो भवति । तस्मिनीचोचवृत्त ऊर्ध्वरेखाग्रहयोस्तिर्यगन्तरसूत्रमर्धज्याकारं परमफलज्यानुरुद्धं भुजफलं तस्मिन्नेव वृत्ते व्यासमिततिर्यग्रेखाग्रहयोरन्तरमूर्ध्वाधरमर्धज्याकारं परमफलज्यानुरुद्धं कोटिफलम् । एते तंत्र कक्षास्थभुजज्याकोटिज्यावद्धनकोटिरूपे इति कक्षास्थभगणांशप्रमाणे ते भुजज्याकोटिज्यारूपे भुजकोटी तदा कक्षास्थभागप्रमाणानुरुद्धप्रागुक्तनीचोचपरिधिमागैः केत्यनुपातेन फलवृत्तस्थत्त्वाद्धजकोटिफले । तत्र नीचोच्चपरिधिवृत्तस्थग्रहमध्यसूत्रं कर्णरूपं कक्षावृत्ते यत्र लग्नं तत्र स्पष्टो ग्रहभोगः । नीचवृत्तमध्यस्पष्टग्रहमोगस्थानयोः । कक्षावृत्ते यदंतरांशमानं तत्फलं तदर्धज्यातिर्यक्सूत्रं मध्यग्रहस्थोर्ध्वाधररेखारूपमध्यसत्रात्स्पष्टग्रहभोगस्थानासक्तं फलं ज्या । कर्णाग्रे भुजफलं तदा त्रिज्याने किमित्येतदनुपातावगतास्वाश्चापं फलम् । तत्र मन्दफलज्या भुजफ. लरूपा कर्णानुपातोपेक्षया भगवतांगीकृता । मन्दकर्णस्य त्रिज्यासन्नत्वेन स्वल्पान्तरेण त्रिज्यातुल्यत्वेनांगीकारात् । तचापं मन्दफलमित्युपपन्नं सर्वमुक्तं बोधार्थ छेद्यकन्यासश्च यथा ॥ ३९ ॥
भा० टी०-स्फुट परिधिको भुज भोर कोटिज्यासे गुणकरके ३६० से भाग करने पर भुन मौर केट.फल होगा। भुजज्याका धनुनिर्णय होजानेपर कछादि मान्इफल होगा ॥ ३९ ॥ अथ शीघ्रफलं श्लोकत्रयेणाह
शेध्यं कोटिफलं केन्द्र मकरादो धनं स्मृतम् ॥ संशोध्यं तु त्रिजीवायां कर्कादौ कोटिजं फलम् ॥ ४० ॥ तबाहुफलवगैक्यान्मूलं कर्णश्चलाभिधः ॥ त्रिज्याभ्यस्तंभुजफलं चलकर्णविभाजितम् ॥४१॥ लब्धस्य चापंलिप्तादिफलं शैध्यमिदं स्मृतम् ॥
एतदाये कुजादीनां चतुर्थे चैव कर्मणि ॥ ४२ ॥ शीघ्रसम्बन्धिकोटिफलं मकरादिषड्भे शीघ्रकेन्द्रे त्रिज्यायां योज्यमुक्तम् । कर्कादिषडमे....(?) शीघ्रकेन्द्रे कोट्युत्पन्नं फलं त्रिज्यायां हीनं कार्यम् । तुर्विशेषे । तेन मन्दकर्मण्येतक्रियानिरासः। कोटिफलसंस्कृतत्रिज्याभुजफलयोर्वर्गयोर्योगान्मूलं शीघ्रसञ्ज्ञः कर्णः । भुजफलं त्रिज्यया गुण्यं शीघ्रकर्णेन भक्तं फलस्य धनुःकलादि । इदं सिद्धं शीघ्रसम्बन्धिफलं कथितम् । भौमादीनामेतच्छीघ्रफलमाद्ये प्रथमे कर्माण चतुर्थे कमणि । चः समुच्चये । कार्यगे चकाराद्वितीयतृतीयकमणोर्नेत्यर्थः । अर्थात्तत्र मन्दपलं संस्कार्यमिति सिद्धम् । अत्रोपपत्तिः। मन्दस्पष्टभोगस्यानीयकक्षावृत्तप्रदेशाद्रहबिम्ब शीघ्रोधस्थानस्थिततद्देवतया स्वहस्तस्थितसूत्रेण स्वाभिमुखं शीघ्रान्त्यफलज्यान्तरेणाकर्ण्यते । तेन मन्दस्पष्टस्थानाच्छ्रीघ्रान्त्यफलज्यया वृत्ते भांशातिते शीघ्रनी
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भ्यायः २.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (५१) चोचसझे पूर्वरीत्या शीघ्रोच्चस्थानाच्छाम्रकेन्द्रान्तरेण कक्षामार्गवैपरीत्येन ग्रहबिम्ब भवति । तत्र पूर्ववत्कोटिफलभुजफले कोटिभुजौ कक्षास्थतिर्यग्रेखातः शीघ्रनीचोचवृत्ततिर्यग्व्यासरेखात्रिज्यान्तरेणेति त्रिज्याकोटिफलयोगो मकरादौ । कर्कादौ कोटिफलोनत्रिज्याशीघ्रनीचोच्चपरिधिस्थग्रहकक्षांतिर्यग्रेखयोरंतररज्जुसूत्ररूपा कोटिः । कोटिमूलमध्ययोरन्तरं कक्षा तिर्यग्रेखान्तर्गतं भुजफलतुल्यं भुजो ग्रहभूमध्यस्थसूत्रं तिर्यकर्णः । कोटिभुजफलयोर्वर्गयोगमूलं ततः कक्षायां कर्णसूत्रं यत्र लग्नं तत्र स्पष्टो ग्रहभोग: कक्षामध्यसूत्रादहसत्तात्स्पष्टभोगस्थानपर्यन्तमर्धज्याकारं सूत्रं शीघ्रफलज्याशीघ्रकर्णाग्रे भुजफलं तदा त्रिज्याने किमित्यनुपातज्ञाता । अस्याश्चापं मन्दस्पष्टस्पष्टग्रहभोगस्थानयोरन्तररूपं शीघ्रफलम् । अथ नीचोचवृत्तमध्यज्ञानाय मन्दस्पष्टज्ञानमावश्यकम् । ततः शीघ्रफलसंस्कारण स्पष्टज्ञानम् । तत्र स्फुटसाधितमन्दफलसंस्कृतमध्यग्रहो मन्दस्फुटः सूक्ष्म इति पूर्व मध्यग्रहस्यासन्नस्फुटत्वसिद्धयर्थ फलयोः संस्कार आवश्यकस्तत्रापि प्रथमं मन्दफलं. शीघ्रफलसंस्कृतान्मध्यग्रहसाधितमन्दफलापेक्षया 'मुक्ष्ममिति प्रथमं शीघ्रफलसंस्कृतमध्यग्रहान्मन्दफलं शीघ्रफलसंस्कृतमध्यग्रहे संस्कार्य स्फुटासन्नो भवति ।। ४० ॥४१॥ ४२ ॥ __ भा० टी०-शीघ्र कोटिफल मकरादि ६ राशिम त्रिज्यामें योग और कर्कादिमें वियोग करना होता है इस संख्याके वर्गमें, शैघ्य भुजफलवर्ग योग करके मूल निकालनेसे शीघ्र- . कर्ण होगा शघ्र भुजफलको त्रिज्यासे गुणकरके शीघ्रकर्णद्वारा माग करनेपर जो लब्ध हो तत्परिमाणानुसार धनुनिर्णय करनेपर शीघ्रफल होगा | यह शीघ्रफल भौमादिके प्रथम मौर चतुर्थ संस्कार में प्रयोजनीय है ॥ ४० ॥ ४१ ॥ ४२ ॥
ननु सूर्येन्दोः शीघ्रफलाभावात्कथं स्पष्टत्वं भवतीत्यतस्तदुत्तरं वदन्नतदाये कुजाः। दीनामित्यर्थ स्फुटयाति
मान्दं कमैकमर्केन्द्रो मादीनामथोच्यते ॥
शघ्यं मान्दं पुनर्मान्दं शैघ्यं चत्वार्यनुक्रमात् ॥ ४३ ॥ सूर्यचन्द्रयोर्मान्दं कमैकं तथा चानयोः शीघ्रफलाभावात्केवलेन मन्दफलेनैव स्पष्टस्वम् । एकमित्यनेन सकृन्मान्दं फलं साध्यं मध्यग्रहेणैव मन्दनीचोच्चमण्डलमध्यज्ञानान कर्मान्तरापेक्षेत्युपपत्तिः स्पष्टा । अथानन्तरं भौमादीनामुच्यते । प्रागुक्तं स्फुटतया कथ्यते । तदाह शैघ्यमिति । प्रथमतो मध्यग्रहात्साधितशीघ्रफलं मध्यग्रहे संस्कार्यमस्मान्मन्दफलमस्यैव संस्कार्यमस्मात्पुनर्दितीयवारं मन्दफलं साधितं मध्यग्रहे संस्कार्य मन्दः स्पष्टो भवति । अस्मादपि शीघ्रफलं साधितमस्यैव संस्कार्यमेवमनुक्रमाचत्वारि कर्माणि भवन्तीति प्रागुक्ततात्पर्यम् ॥ ४३ ॥
भा० टी०-सूर्य और चंद्रमाका मान्द्यकर्म एक संस्कार है भौमादिके शैघ्य, मान्द्य, पुन मन्द्यि, और पिछला घ्य क्रमशः यह चार संस्कार हैं ॥ ४३ ॥
१ शीघ्रफलके साधनकालमें शौनकेंद्र और शीग्रपरिधि आदिका व्यवहार होता है।
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(५२)
सूर्यसिद्धान्तः
अथात्रापि विशेषमाह -
मध्ये शीघ्र फलस्यार्धं मान्दमर्धफलं तथा ॥ मध्यग्रहे मन्दफलं सकलं शैयमेवच ॥ ४४ ॥
[ द्वितीयोs
मध्यग्रहे स्वसाधितशीघ्रफलस्यार्ध संस्कार्यम् । अस्मात्साधितं मन्दसम्बन्ध्यर्धफलं साधितमन्दफलस्यार्धमित्यर्थः । तथा यस्मात्साधितं तस्यैव संस्कार्यम् । शीघ्रफलार्धसंस्कृते संस्कार्यमिति फलितार्थः । अस्मात् साधितं मन्दफलं सम्पूर्ण मध्यग्रहे संस्कार्यं मन्दस्पष्टो भवति । अस्मात्साधितं शीघ्रफलं संपूर्णम् । चः समुच्चये । तेन मन्दस्पष्टे संस्कार्यम् । एवकारादुक्तरीत्या सिद्धो ग्रहः स्पष्टो नान्यथेति । अत्रोपपत्तिः । मन्दफलं स्फुटसाधितं वास्तवं स्फुटस्तु मन्दफलसापेक्ष इत्यनोऽन्याश्रयात्सूक्ष्ममन्दफलसाधनशक्यमपि भगवता तदासन्नसाधनार्थमर्धस्फुटादेव मन्दफलं साधितं मध्यग्रहसाधितमन्तफलापेक्षया सूक्ष्मम् । अर्धस्फुटस्तु फलं द्वयार्धसंस्कृतो मध्यग्रहः । अत्रापि मन्दफलस्यार्धं शीघ्रफलार्धसंस्कृता त्किञ्चित्सूक्ष्मत्वार्थ साधितमित्युपपन्नं मध्ये शीघ्र फलस्येत्यादि ॥ ४४ ॥
भ०
टी० - ग्रहमध्यमै शीघ्रफटका अर्द्धसंस्कार करे ( संस्कारका भई मिलाना या अलग करना है - ४५ श्लोक के अनुसार ) शैघ्यार्द्ध संस्कृत मध्यानुसार, मन्दफलार्द्ध - फिर शैन्यार्द्धसंस्कृत मध्यमें संस्कार करने से शीघ्रार्द्ध- मन्दार्द्ध-संस्कृत मध्य होगा शीघ्रार्द्ध मन्दार्द्ध संस्कृत मध्यानुसारसे फिर दूसरा मन्दफल निर्णय करे । मन्दफल ग्रहमध्य में संस्कार करे । यह शेष- मन्दफल- संस्कृत - मध्यानुसार से शीघ्रफल साधन करके शेष - मन्द-फल- संस्कृ· संस्कार करनेपर स्फुट होगा ॥ ४४ ॥
ननु फलयोः संस्कारः कथं कार्य इत्यत आहअजादिकेन्द्रे सर्वेषां त्रे मन्देि च कर्मणि ॥
धनं ग्रहाणां लिप्तादि तुलादावृणमेव च ॥ ४५ ॥
सर्वेषां ग्रहाणां शैत्रे कर्मणि मान्दे कर्मणि । चकारः समुच्चये । कलात्मकं फलं मेषादिषड्भान्तर्गतकेन्द्रे युतं कार्यं तुलादिषड्भान्तर्गतकेन्द्रे हीनं कार्यम् । चकारो व्यव स्थार्थकः । एवकारः फलयोरानयन प्रकारभेदेऽपि धनर्णरीतिभेदव्यवच्छेदार्यकः । यत्रोपपत्तिः । पूर्वाकर्षणे ग्रहस्य फलं धनं पश्चादाकर्षण ऋणमिति प्रागुक्तम् । तत्र ग्रहादुच्चपर्यंतं केंद्रे गृहीते पूर्वाकर्षणे मेषादिकेंद्रं भवति पश्चादाकर्षण तुलादि । केंद्रं मवतीति तथोक्तमुपपन्नम् ॥ ४५ ॥
भा० टी० - मेषादि केन्द्र में ग्रहों के शीघ्र और मन्द संस्कार योग और तुलादिकेन्द्र में फळ चला ) वियोग करनी चाहिये ॥ ४५ ॥
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ध्यायः २.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (५३) अथ ग्रहाणां भुजांतरफलमाह
अर्कबाहुफलाभ्यस्ता ग्रहमुक्तिविभाजिता ॥
भचक्रकलिकाभिस्तु लिप्ताः कार्या ग्रहेऽवत् ॥ ४६॥ स्पष्टा सूर्यादिग्रहगतिः सूर्यस्त्र भुजफलेन मंदफलेन कलात्मकेन गुणिता द्वादश राशिकलाभिः षट्शतयुतै कविंशतिसहस्रमिताभिर्भक्ता प्राप्तफलकला ग्रहे सूर्यादग्रहेकवत् सूर्यमंदफलधनर्णशादित्यर्थः । कार्याः तुकाराद्धनर्णं संस्कायीः । अत्रोपपत्तिः । अहर्गणस्यैकरूपमध्यममानेन सत्त्वात्तदुत्पन्नग्रहाणां मध्यममानेन यदर्धरात्रं तात्कालिकत्वं सिद्धम् । मध्यममानार्द्धरात्रे तु मध्यमसूर्यमितक्रान्तिवृत्तप्रदेशोऽधोयाम्योत्तरवृत्ते भवति । अस्मात्कालात्स्पष्टार्द्धरात्रं स्पष्टसूर्यमितक्रान्तिवृत्तप्रदेशाधों याम्योत्तरवृत्तसंयोगरूपं मन्दफलधनर्णक्रमेणानन्तरपूर्वकाले भवति । अतो मन्दफलकलाभोगसम्बन्धिकालेन ग्रहोऽनन्तरपूर्वकालयाश्वाल्पः स्पष्टार्द्धरात्रसमये भवति । एते. नानेन कर्मणा स्फुटार्धरात्र लीनग्रहाः क्रियन्ते । सूर्यश्च स्फुटार्द्धरात्रकालीन एवातः सूर्यस्य नायं संस्कार इति पर्वतोक्तं निरस्तम् । सूर्यव्यतिरिक्तग्रहामध्यार्धरात्रे सूर्यस्तु स्फुटार्धरात्र इत्यत्राहगणोत्पन्नत्वेन सर्वेषामेककालिकत्वसिद्धहेत्वभावादिति । तत्र मन्दफलकलानां कालस्त्वेकराशि कलाभिः सायनस्पष्टाकोकान्तराश्युदयासवो लभ्यन्ते तदा मन्दफलकलाभिः इत्यनुपातेन ततोऽहोरात्रासुभिर्गतिकलास्तदा फलकलासुभिः का इति मन्दफलकलाग्रहे धनर्णमन्दफलवशादन] कार्या इति सिद्धम् । तत्रापि भगवता लोकानुकम्पया स्वल्पान्तरेग नक्षत्रदिने ग्रहगतिभोगमङ्गीकृत्य चक्रकलापरिवर्तात्मकनाक्षत्राहोरात्रेण गतिकलास्तदा सूर्यमन्दफलकलाभ्रमणेन का इत्येकानुपातालाघवादानीताश्चालनकला इत्युपपन्नम् ॥४६॥
मा०टी०-सूर्य भुजमान्य-पल ग्रह-मुक्तिको गुणकरके २१६०० द्वारा भाग करके लब्धकलादि ग्रहों में संस्कार क ना चाहिये । अर्थात् सूर्य स्फुटकालमें भुजफल मिलानेसे मिलाने और अलग (धटाने ) कर देनेपर वियोग करना चाहिये ॥ ४६ ॥ अथ स्पष्टगति विवक्षुश्चन्द्रस्य प्रथमं विशेषमाह
स्वमन्दभुक्तिसं शुद्धा मध्यभुक्तिनिशापतेः ॥
दोव्न्तरादिकं कृत्वा भुक्तावृणधनं भवेत् ॥ ४७॥ ग्रहगतिसाधने वक्ष्यमाणे गतिफलं ग्रहगतेः साधितं तथा चन्द्रगतेः चन्द्रगतिफलं न साध्यं किन्तु चन्द्रस्य मध्यमगतिः स्वस्य चन्द्रस्य मन्दं मंदोचं तस्य दिनगत्या. हीना कार्या तादृशगतेः सकाशादोज्यांतरादिकं दोज्यांतरमादिभूतं यस्यैतादृशं गतिफलं वक्ष्यमाणप्रकारे दोतिर्गुणा भुक्तिरित्यादौ दोयाँतरादेव गतिफलोत्पत्तेः । सिद्धं कृत्वा चंद्रमध्यमगतावृणधनं वक्ष्यमाणरीत्या भवति । अत्रोपपत्तिः। वक्ष्यमाणं गतिफल १ भचक्रकलिकाभिः स्युलिप्ताः कार्या इति वा पाठः।
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(५४) सूर्यासद्धान्तः
[द्वितीयोऽकेंद्रगत्योपपन्नमित्यनेन सूर्यादिग्रहाणां विचंद्राणां मंदोचगतेरत्यल्पत्वात्स्वगत्यैव गतिफलमुक्तम् । तत्र चंद्रस्य तथा साधने वखंतरपातात्तस्य मंदोच्चगत्यूनस्वगतिरूपकेंद्रगतेः फल साधितं गतिफलं यद्गतेः साध्यं तद्गतावेव संस्कार्यमिति वक्ष्यमाणरीतिव्युदासाय चंद्रभुक्तावित्युक्तमन्यथा केंद्रगतरेव स्फुटत्वं स्यान्न चन्द्रगतेरिति ॥ ४७ ॥
भा ०टी०-चंद्रभुक्ति तिसकी मन्दोच्चभुक्ति अलग करके ( नीचे कहे अनुसार) दोयातरसाधन करके मध्यगतिसे योग या वियोग करने पर स्पष्टगति होती है ॥ ४७ ॥ अथ ग्रहाणां मंदस्पष्टगतिवासनासूचनपूर्वगतिफलानयनपूर्विका श्लोकाभ्यामाह
ग्रहमुक्तेः फलं कार्य ग्रहवन्मन्दकर्मणि ॥ दोान्तरगुणा भुक्तिस्तत्त्वनेत्रोदृता पुनः॥ १८॥ स्वमन्दपरिधिक्षुण्णा भगणांशोद्धता कलाः॥
कदिौ तु धनं तत्र मकरादावृणं स्मृतम् ॥४९॥ मंदकर्माण गतिमंदफलक्रियानिमित्तमित्यर्थः । ग्रहवद्ग्रहमंदफलानयनरीत्या परिधिगुणनभगणांशभजनाप्तचापमित्यात्मिकया ग्रहगतेः सकाशात्फलं ग्रहमंदगतिफल साध्यम् । यथा ग्रहमंदफलं केंद्रभुजज्यातः साधितं तथेदं गतिफलं ग्रहगतेः साध्यमित्यर्थः । तथाहि ग्रहमंदफलांतरस्यैकदिनान्तरीयस्य ग्रहगतिमंदफलत्वाद्धजज्ययोरेकदि. नांतरयोरंतरात्फलं मन्दगतिफलं पर्यवसितं तत्र केंद्रयोरंतरस्य केंद्रगतित्वात् । तज्ज्ययोरंतरं तत्त्वाश्विप्रमाणेनोक्तज्यापिण्डांतरं गतिकलापरिणामितं भवति । तदेवाह । दोातरगुणोत । ग्रहमध्यगतिः केंद्रगतिरूपा । उच्चगतेरत्यल्पत्वात् । दोयातरगुणा भुजज्यानयनावसरे यज्ज्यापिण्डांतरं तेन गुणितन पञ्चाकृतिभिर्भक्ता पुनरनंतरमित्यर्थः । ग्रहमदपरिधिना स्फुटेन गुणिता पष्टियुतशतत्रयेण भक्ता फलं गतिमन्दफलकलाः । यद्यपि गतिज्यातः फलज्यानयनं कृत्वा तच्चापं गतिफलं समुचितम् । तथापि ग्रहगते. स्तत्त्वाश्विभ्यो न्यूनत्वाज्ज्याचापयोस्तुल्यत्वेन तदनुक्तावक्षतिः। चंद्रस्य तु स्वल्पांतरात्तकरणमुपेक्षितम् । मंदस्पष्टगतिसिद्धयर्थ मध्यगतौ फलसंस्कारमाह-कर्कादाविति । तत्र ग्रहमध्यगतौ पूर्वानीतफलं कर्कादिषड्भांतर्गतकेंद्रे धनं मकरादिषड्भांतरगतकेंद्र ऋणमुक्तम् । तुकारान्मंदस्पष्टगतिः सिद्धा भवतीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । ऋणफलोपचये पूर्वफलादनिमफलमधिकं हीनमिति फलांतरं गतावृणम् । ऋणफलापचये पूर्वफलादग्रिमफलं न्यून हीनमिति फलांतरं गतौ धनम् । धनफलेपचये, पूर्वफलादानमफलमधिकं युतमिति फलांतरं गतौ धनम् । ऋणफलापचयस्तु मकरादितः प्रावित्रिभे। धनफलोपचयस्तु तुलादितः प्रावित्रभ इति कर्कादिकेंद्रे गतिफलं धनम् । फलापचये
१ दोव्न्तर अर्थात् भुजज्यान्तर । केन्द्रज्या साधनकालके समय ३१ लोकमें जिसको गत और गम्य ब्यापिण्डका- अन्तर कहा गया है ||
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ध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः पूर्वफलादग्रिमं फलं न्यून हीनमिति फलांतरं गतावृणम् । धनफलापचयस्तु कर्कादितः प्राक् त्रिभऋणफलापचयस्तु मेषादितः प्राक्त्रिम इति मकरादिकेन्द्रे गतिफलमृणं सिद्धम् ॥ ४८ ॥४९॥ __ भा० टी०-शेष मन्द संस्कारके स्थानमें दोान्तरको भुक्तिद्वारा गुण करके २२५ से भाग करे । भागफलको मान्यस्फुट परिधिसे गुणकरके ३६० द्वारा भाग करनेपर कलादिफल होता है। कर्कटादिकेन्द्र भुक्तिमें धन और मकरादिवेन्द्र, पियोग करनेपर मन्दगति होगी ॥ ४८ ॥ ४९ ॥ अथ श्लोकाभ्यां स्पष्टगतिसाधनमाहमंदस्फुटीकृतां भुक्तिं प्रोज्य शीघ्रोचभुक्तितः ॥ तच्छेषं विवरणाथ हन्यात्रिज्यान्त्यकर्णयोः ॥५०॥ चलकर्णहृतं भुक्तो कर्णो त्रिज्याधिके धनम् ॥
ऋणमूनेऽधिक प्रोज्ड्य शेषं वक्रगतिर्भवेत् ॥५१॥ मन्दस्पष्टां गति प्राक्सिद्धां शीघ्रोच्चगतेः पातयित्वा तत्रावशिष्टं त्रिज्यान्त्यकर्णयोस्त्रिराशिज्याद्वितीयशीघ्रकर्णयोर्ग्रन्थान्तरैकवाक्यताथै त्रिज्याशब्देन द्वितीयशीघ्रफलकोटिज्याग्राह्यति ध्येयम् । अन्तरेण गुणयेत् । तत्र यत् सिद्धं तच्छीघ्रकर्णेन द्वितीयन भक्तं फलं मन्दस्पष्टगतौ द्वितीयशीघ्रकर्णे त्रिज्याधिके गृहीतफलकोटिज्यांतोऽधिके सति होने च सति धनमृणं क्रमेण कार्य स्पष्टगतिः स्यात् । ननु यदा मन्दस्पष्टगतितो गतिशीघ्रफलमधिकं तदा मन्दस्पष्टगतौ फलमूनं न स्यादिति तत्र स्पष्टगतिज्ञानं कथम् । न चैतदसम्भव इति वाच्यम् । नीचासन्ने ग्रहे फलकोटिज्याशघ्रिकर्णान्तराच्छीघ्रकर्णस्य न्यूनत्वात्फलस्यावश्यं मन्दस्पष्टगत्यधिकत्वसम्भवादित्यत आह । अधिक इति । मन्दस्पष्टगतिः। अधिक फले पातायत्वा शेषं वक्रगतिविपरीतगतिः । पश्चिमगतिः स्याल तथा च न क्षतिः । अत्रोपपत्तिः । “फलांशखाङ्कान्तरशिञ्जिनीनी द्राकेन्द्रभुक्ति: श्रुतिहद्विशोध्या । स्वशीघ्रभुक्तेः स्फुटखेटभुक्तिः शेषं च वक्रारिपरीतशुद्धौ ॥ " इति सिद्धांतशिरोमणौ वृद्धवसिष्ठसिद्धान्तोक्तेः सूक्ष्मप्रकारस्तस्योपपत्तिस्तु तट्टीकायां व्यक्ता तत्र द्राक्केंद्रभुक्त्यर्थं प्रथमार्धमुक्तम् । इयं गतिः फलकोटिज्यया गुण्या कर्णभक्ता फलं स्वशीघ्रोच्चगतेः शोध्यम् । तत्र प्रथममेव समच्छेदपूर्वकशोधनार्थ शीघ्रोच्चगतेः कर्णो गुणः । तत्रापि शीघ्रोच्चगतेः केंद्रग्रहगतियोगरूपत्वात्खण्डद्वयं केन्द्रगतावेव फलं हीनं कृतामति कर्णगुणितकेंद्रगतिफलकोटिज्यागुणितकेंद्रगत्योरंतरं तत्रापि गुणितयोरेंत रेऽन्तरे वा गुणिते समत्वाल्लाघवाच्च फलकोटिज्याकर्णीतरेण केन्द्रगतिर्गणिता कर्णभक्ते। ति तच्छेषमित्यादि हृतमित्यंतमुपपन्नम् । अथ फलकोटिज्यातुल्यकणे मुख्यप्रकारेण गतेमंदस्पष्टगतितुल्यतया सिद्धत्वात् । फलाभावः कर्णस्य न्यूनत्वे फलस्य शीघ्रकेंद्र
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(५६) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वितीयोऽगत्यधिकत्वात् तदूने शीघ्रोच्चगतौ शीघ्रकेंद्रगतिनाशादधिकस्य गतिफलरूपस्य मंदस्पष्टगतो हीनत्वं पर्यवसन्नम् । कर्णस्याधिकत्वे पूर्वप्रकारफलस्य शीघ्रकेन्द्रगतितो न्यूनत्वात् तदूने शीघ्रोच्चगतौ यन्न्यूनं तदाधिका मन्दस्पष्टगतिः स्पष्टगतिरिति पर्यवसन्नम् । तदत्र शीघ्रोच्चगतिस्थाने शीघ्रकेंद्रगतिग्रहणेन फलं गतिफलमेवोत्पन्नं तं मंदस्पष्टगतो फलकोटिज्यातः कर्णस्याधिकन्यूनत्वक्रमेण धनमृणमित्युपपन्नं कर्ण इत्याद्यून इत्यन्तम् । ऋणफलस्य मन्दस्पष्टगतितोऽधिकत्वे विपरीतशोधनाच्छेषं पश्चिमगतिरेव स्पष्टेति सर्वमनवद्यम् ॥ ५० ॥५१॥ __ भा० ४०-मन्द स्पष्टगति शीव भुक्तिसे अलग करके त्रिज्या भार दूसरे शीघ्रकर्णके अन्त. रसे गुण करे । गुजफळको दूसरे शीघ्रकर्णसे भाग, करनेपर लब्धफल मन्द. स्पष्ट भुक्तिमें। इसरा विकर्ण त्रिज्यासे अधिक होने पर योग और नहीं तो वियोग करनेसे स्पष्टगति होगी । वियोगफल ऋण होनेसे वक्रगति होती है ॥ ५० ॥ ५१ ॥ अथ वक्रगत्युपपत्तिमाह
दूरस्थिताः स्वशीघ्रोच्चाहः शिथिलराश्मिभिः ॥
सव्येतराकृष्टतनुर्भवेदक्रगतिस्तदा ॥ १२ ॥ स्वशीघ्रोच्चाहूरस्थितास्त्रिभाधिकान्तरितो ग्रहो भौमादिकः शिथिलरश्मिभिः शीघ्रो' चदेवताहस्तस्थितग्रहबिम्बप्रोतरज्जुभिः सव्येतराकृष्टतनुर्देवतायाः सव्येतरे वामभागेतरे आकर्षिता तनुः शरीरं विम्बरूपं यस्यासौ यदा तदा वक्रगतिः स्यात् । अयं भावः । त्रिभादूनान्तीरतो ग्रहो वृत्ताकारसूत्रैराशिथिलैदेवतैर्यथाकर्षितुं शक्यते तथा त्रिभाधिकान्तरितो ग्रहो दैवतैर्वृत्ताकारसूत्रैः शिथिलैराकर्षितुं न शक्यतेऽतोऽल्पधनर्णफलस्थाने ग्रहो वक्री भवति । आकर्षणोत्कर्षाभावेन वृत्तमार्गे वस्तुनो नीचगामित्वसंभवादिति ॥५२॥ _मा० टी०-अपने शीघ्रोच्चसे दूर रहकर ग्रह शिथिलरश्मिसे अर्थात् स्वल्पपलसे दाहिने और वाये खिंचते हैं, तिससे वक्रगति होती है ॥ ५२ ॥
अथ यत्केंद्रांशेषु गतिफल मृणं मन्दस्पष्टगतितुल्यं भवति तान् वक्रारंभभागांस्तदंतभागांश्च विना गतिसाधनप्रकारं ग्रहवक्रतदन्तज्ञानार्थं श्लोकाभ्यामाह
कृतर्तुचन्द्रेर्वेदेन्द्रैः शून्यव्येकैर्गुणाष्टिभिः ॥ शररुदैश्चतुर्थेषु केन्द्रोश सुतादयः ॥ ५३॥ भवन्ति वक्रिणस्तैस्तु स्वैः स्वैश्वक्राद्विशोधितः ॥ अवशिष्टांशतुल्यः स्वैः केन्द्ररुझान्त वक्रताम् ॥ ५४॥
, त्रिज्याके स्थानमें दूसरी शीघ्र-फल कोटिज्याके ग्रहण करनेको रंगनाथकी सम्माति है ॥
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ध्यायः २) संस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः । (५७)
भौमाद्या ग्रहाश्चतुर्थकर्मसु केन्द्रांशैः शीघ्रकेन्द्रांशैः कृततुचन्द्ररित्यायुक्तरूपैः क्रमेण वक्रिणो भवन्ति । स्वकीयैः स्वकीयैस्तैः केन्द्रांशैरुक्ततुल्यैश्चक्राबादशराशिभागेभ्यः षष्टियुतशतत्रयेभ्यो विशोधितीनैरवशेषसमानैः स्वकीयैश्चतुर्थकेन्द्रांशैः। तुकारः क्रमार्थे । भौमादयो वक्रत्वं त्यजन्ति । परिवर्ते वारद्वयं भुजतुल्यत्वेन नीचासन्ने मन्दस्पष्टगतितुल्यगतिफलस्य सम्भवादिति ॥ ५३ ॥ ५४॥ __ भा० टी०-शेषशीघ्रकेन्द्र मं. १६४, बु. १४४, बृ. १३०, शु. १६३ और शनि ११५ अंश होनेपर पक्रगति प्रारम्भ होती है ॥ ५३ ॥ शेषशीघ्रकेन्द्र (चक्रसे उपर कहे अंक शोधन करनेपर अर्थात् ) मं. १९६, बु. २१६, बृ. २३०, शु. १९७, श. २४५ अंश होनपर पक्रको त्याग करता है ॥ ५४॥ अथ वक्रान्तभागानामतुल्यत्वे कारणान्तरमप्याह
महत्त्वाच्छीघ्रपरिधेः सप्तमे भृगुभूसुतो ॥ __ अष्टमे जीवशशिजो नवमे तु शनैश्वरः ॥५५॥
शीघ्रकेन्द्रस्य सप्तमे राशौ शुक्रभौमौ वक्रत्वं त्यजतः । अष्टमे राशौ गुरुबुधौ वक्रत्यजनाहौँ । अत्र शुक्रगुर्वोः पूर्वोदेश इतरापेक्षयाभ्यर्हितत्वज्ञापकः । नवमे राशौ शनिर्वऋत्वं त्यजति । तुरेवार्थे । तेन शनिरेव तत्र वक्रत्वं त्यजति नान्ये । अत्र कारणमाह । महत्त्वादिति । अन्येषां शीघ्रपरिधेः प्रागुक्तस्य महत्त्वाच्छनिशीघ्रपरिधेराधिकत्वात् । तथा च परिध्यधिकत्वेन पूर्वमेव वक्रत्यजनमत एव भौमशुक्रयोर्बुधगुरुभ्यां प्रथमोदेशः। शनेस्तु सुतरां बुधगुर्वोः शनितः पूर्वोद्देशः भृगुभूसुतौ जीवशशिजावित्यत्र परिध्यधिकत्वेन शुक्रगुर्वेः प्रथमं केवलमुद्देशो न भागानामल्पत्वक्रम इति भावः । ननु परिध्यधि कत्वे पूर्वपूर्वराशौ वक्रत्यजने कोपपत्तिरिति चेच्छणु । शून्यगतिसम्बद्धशीघ्रकणात्फलांशखाङ्कान्तरेत्यादेविलोमविधिना शीघ्रोच्चगतेः फलकोटिज्यास्याः फलज्यास्यास्त्रिज्याभ्यस्तं भुजफलं चलकर्णविभाजितमित्यस्य विलोमविधिना भुजफलमस्मात् तद्गुणं भुजकोटिज्ये भगणांशविभाजिते इत्यस्य विलोमप्रकारेण भुजांशज्ञानार्थ भौमादीना भुजज्या उत्तरोत्तरमधिकाः शीघ्रपरिधिभ्यो यथोत्तरमपचयवयो हरेभ्यो लब्धत्वाद्धाराधिकन्यूनत्वाभ्यां फलयोयूनाधिकत्वनिश्चयात् । तासां चापानि भुजभागा यथोत्तरमधिका वक्रारंभे तदन्ते च तुल्या अत एव तृतीयपदे वक्रान्तत्वाटुजभागाः षड्युता यथोत्तरमधिकं शीघ्रकेन्द्रं तेषां वक्रान्ते भवति । वक्रारम्भस्य द्वितीयपद सम्भवाद्धजभागहीनाः षड्राशयस्तेषां वक्रारम्भे यथापचितं केन्द्रं भवति । तत्तूक्तरीत्या भौमशुक्रयोः षष्ठराशौ बुधगुर्वोः पञ्चमराशौ शनेश्चतुर्थराशाविति ज्ञेयम् । इदं भगवता विना चक्रशोधनमापाततः । शीघ्रकेन्द्रराशिज्ञानाद्वक्रान्तज्ञानं लोकानुकम्पार्थमनातप्रयोजनमुक्तमिति ध्येयम् ॥ ५५ ॥
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(५८) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वितीयोऽभा० टी०-शीघ्रपरािधिका अधिकार होनस शुक्र और मंगल केन्द्रकी सातवीं राशिमही और बृहस्पति बुध अष्टममें और शनि नवम राशिमें वक्रका त्याग करता है ॥ ५५॥ अथ चन्द्रादिग्रहाणां विक्षेपसाधनं श्लोकाभ्यामाह
कुजार्किगुरुपातानां ग्रहवच्छनिजं फलम् ॥ वामं तृतीयकं मान्दं बुधभार्गवयोः फलम् ॥५६॥ स्वपातोनाद्रहाज्जीवा शीघ्राशगुजसोग्ययोः ॥
विक्षेपनान्त्यकर्णाप्ता विक्षेपस्त्रिज्यया विधोः ॥२७॥ भौमशनिगुरूणां ये पाता मध्याधिकारावगतास्तेषां शीघ्रजं फलं स्वग्रहसम्बन्धिश्चतुर्थकर्मस्थशीघ्रफलं पूर्वसिद्धं ग्रहवद्हे यथासंस्कृतं तथा संस्कार्यम् । ग्रहशीघ्रफलं ग्रहे चेद्युतं तदा तत्पाते तदेव फलं याज्यं चेद्धीनं तदा हीनं कार्यमित्यर्थः । बुधशुक्रयोस्तृतीयकं तृतीयकर्मसम्बन्धि मान्दं फलं तत्पातयोविपरीतं संस्कार्यं बुधशुक्रयोमन्दफलं धनमृणं चेत्तत्पातयोस्तदेव फलमृणधनं क्रमेण कार्यमित्यर्थः । अनुक्तत्वाचन्द्रस्य यथागत एव पातो ज्ञेयः । स्पष्टग्रहात्स्वस्य फलसंस्कृतो यः पातस्तेन हीनाडुजज्या । बुधशुक्रयोर्विशेषमाह-शीघ्रादिति । शुक्रबुधयोः शीघ्रोच्चात्पातेन हीनाद्धजज्या न पातो न बुधशुक्राभ्यां भुजज्या। विशेषस्य सामान्यबाधकत्वात् । अर्थात्पूर्वोक्तं चन्द्रभौमगुरुशनीनां सिद्धम् । मध्याधिकारोक्तस्वमध्यमविक्षेपकलाभिगुण्या चतुर्थकर्माण यः शीघ्रकर्णस्तेन भक्ता फलं ग्रहाणां विक्षेपकलाः स्फुटा भवन्ति । ननु चन्द्रस्य शीघ्रकर्णासम्भवात्तत्पातोनतद्धजज्या खभगुणिता केन भाज्यत्यत आह-त्रिज्ययोत । चन्द्रस्य विक्षेपसाधने तादृशी भुजज्या त्रिज्यया भाज्येत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः। यथा विषुवत्तारक्रान्तिवृत्तयाम्योत्तरभागौ यदन्तरेण याम्योत्तरसूत्रे सा ध्रुवाभिमुखी क्रान्तिस्तथा क्रान्तिवृत्ताद्विक्षेपवृत्तभागौ यदन्तरेण याम्योत्तरसूत्रे स विक्षेपः कदम्बाभिमुखः । तथा हि । विक्षेपवृत्तानि ग्रहबिबाधिष्ठितानि सूर्यव्यतिरिक्तग्रहाणां षण्णां स्वस्वगोले भिन्नानि सूर्यस्य नित्यं क्रांतिवृत्तस्थत्वमेव तानि क्रान्तिवृत्ते स्वस्वगत्या प्रोतान्येव गच्छन्ति । तत्र विक्षेपक्रान्तिवृत्तसम्पाते पातस्थाने तत्षड्भान्तप्रदेशे च स्थिते ग्रहबिम्बे वृत्तप्रदेशैक्यादन्तराभावेन ग्रहविक्षेपाभावः । क्या तस्माद्रहविम्बं गच्छति तथा ग्रहबिम्बक्रान्तिवृत्तस्थाचह्नयोर्याम्यमुत्तरं वान्तरं क्रांतिवृत्तादहस्य भवति तदेव विक्षेपसज्ञम् । स च पातात्रिभान्तरे ग्रहे मध्याधिकारोक्तः । अन्तगले पातस्थानाद्रहचिह्न क्रान्तिवृत्ते यदन्तरेण तदन्तरं राश्याद्यात्मकं पातोनग्रहरूपं तदुजज्ययानुपातः । त्रिज्याभुजज्यया परमविक्षेपस्तदेष्टया भुजज्यया क इति । एवं चन्द्रस्यैव त्रिज्याव्यासार्धगोले परमशरस्य गणितागतपातस्य च लक्षितत्वात् ।
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ध्यायः २.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (५९) अन्येषां तु परमशराः शीघ्रोच्चदेवताकृष्टग्रहबिम्बाधिष्ठितकल्पितवृत्ते शीघ्रकर्णव्यासाः लक्षिताः । कथमन्यथा शीघ्रफलसंस्कारेण ग्रहस्य स्पष्टत्वं युक्तम् । ग्रहबिम्बस्य तत्स्थत्वे तत्पातस्यापि तत्स्थत्वं युक्तम् । ग्रहबिम्बाधिष्ठितवृत्ते ग्रहभोगगस्य मन्दस्पष्टत्वेन गणितागतपातान्मन्दस्पष्टाच्छरसाधनमुपपन्नम् । तदुक्तं सिद्धान्तशिरोमणौ " मन्द स्फुटो द्राक्प्रतिमण्डले हि ग्रहो भ्रमत्यत्र च तस्य पातः । पातेन युक्ताद्गणितागतेन मन्दस्फुटाखे चरतः शरोऽस्मात् ॥” इति । तत्र स्पष्टाच्छरसाधनार्थ शीघ्रफलं पाते संस्कृतं शीघ्रफलव्यस्तसंस्कृतस्पष्टग्रहस्य मन्दस्पष्टत्वाद्यथोक्तसंस्कृतपातोने स्पष्टग्रहे पातोनमन्दस्फुटग्रहस्य सिद्धे । अथ बुधशुक्रपातभगणौ वास्तवौ नोक्तौ । तौ तु शीघ्र केंद्रभगणाधिको अतो गणितागतपातयोर्मध्यग्रहोनशीघोचरूपशीघ्रकेंद्रयुतयोदशराशिशुद्धयोः पातत्वम् । तत्र पूर्वपातस्य द्वादशशुद्धत्वाच्छीकेंद्रं चक्रशुद्धं योज्यम् । अतो लाघवाद्गणितागतपातस्य शीघ्नाचोनमध्यग्रहरूपं केंद्रं योज्यम् । अयं पातो मन्दस्पष्टे मन्दफलसंस्कृतमध्यरूपे हीन इति ग्रहयोर्मध्ययो शायथागतमन्दफलसंस्कृत शीघ्रोच्चं पातोनमिति सिद्धम् । तत्रापि मन्दफलं पाते व्यस्तं कृत्वा तदूनं शीघ्रोवं कृतं संस्कृतपातपंक्तयां संस्कृतपातयोर्युक्तत्वात् । अथैतदानीतविक्षेपः कर्णव्यासार्धवृत्तेन त्रिज्यावृत्ते स्फुटग्रहस्थानः अतः कर्णाग्नेऽयं पूर्वानुपातानीतविक्षेपस्तदा त्रिज्याग्रेक इत्यनुपातेन त्रिज्यागुणः कर्णो हरः पूर्व त्रिज्याहर इति त्रिज्ययो शाहजज्यापर मविक्षेपगुणिता शीघ्रकर्णभक्तेति सर्वमुक्तमुपपन्नम् ॥ ५६ ॥ ५७ ॥ __ मा०टी०-मंगल शनि और बृहस्पतिके चतुर्थ संस्कारगत शीघ्रफल पहले ग्रहमें जिसप्रकार संस्कृत हुए हैं । वैसेही इन फलोंको फिर इनहीके पातोंसे संस्कारित करे । बुध और शुक्रके काल में तीसरा मान्द्यफल जिप्त भावसे संस्कारको प्राप्त हुभा है, तिसके विपरीतभावसे उक्तफल तिनके पातों में संस्कार करे । अर्थात् मान्यफल ग्रहमें योग करना हो तो वियोग करे, और वियोग करना हो तो योग करे | चन्द्र, मंगल, शनि और बृहस्पति के स्थानमें स्फुरसे उसके स्पष्टपात अलग करके शुक्र और बुधके स्थानमें शीघ्रसे स्फुटपात हीन करके भुजच्या स्थिर करे । भुजज्याको परमविक्षेप (१ अध्याय ७० श्लोक ) से गुणकरके शेष शीघ्रकर्णके अनुसार भाग करनेपर विक्षेप-स्पष्ट होगा । चंद्रमाके पक्षमें त्रिज्यासे भाग करनेपरही विक्षेप-स्पष्ट होजायगा ॥ १६ ॥ ५७ ॥ अथ दिनरात्रिमानज्ञानार्थ चरानयनं विवक्षुः प्रथमं तदुपयुक्तां स्पष्टक्रांतिमाह
विक्षेपापक्रमेकत्वे क्रान्तिर्विक्षेपसंयुता॥
दिग्भेदे वियुतास्पष्टा भास्करस्य यथागता ॥ ५८॥ यस्य ग्रहस्य स्पष्टक्रांतिरभीष्टा तस्य ग्रहस्यायनांशसंस्कृतस्य भुजज्यातः परमापक्रमज्येत्यादिना क्रांतिरयनांशसंस्कृतग्रहगोलदिका ज्ञेया । तस्य विक्षेपोऽपि पूर्वोक्तप्रका--
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६०) सूर्यसिद्धांत:
["द्वितीयोऽरेण पातोनगोलदिको ज्ञेयः । गोलस्तु मेषादिषट्र मुत्तरस्तुलादिषट् दक्षिणः । अथ शरक्रांत्योरकदिक्त्वेन क्रांतिः कलाद्या कलात्मकविक्षेपेण युता तयोदिगन्यत्वे क्रांतिविक्षेपेण वियुतांतरिताशेषदिक्का स्पष्टा क्रांतिः स्यात् । ननु सूर्यस्य विक्षेपाभावात्कथं स्पष्टा क्रांतिज्ञेयेत्यत आह-भास्करस्यति । सूर्यस्य यथागता पूर्वागता क्रांतिरेव स्पष्टा क्रांतिः । अत्रोपपत्तिः । विषुवढ्ताद्रहविम्बकेन्द्रपर्यन्तं याम्यमुत्तरं वान्तरं स्पष्टक्रां तिरिति तयोरेकदिक्त्वे तद्योगतुल्यमन्तरं भिन्नदिक्त्वे तदन्तरमितमन्तरमिति । अत्र शरस्य क्रांतिसंस्कारयोग्यत्वसम्पादिका क्रिया लोकश्रमभयात्स्वल्पान्तरत्वाञ्चोपेक्षिता भगवता कृपावता । अन्यथा शरस्य ध्रुवाभिमुखत्वं भगवदुक्तमायनकर्मकथमन्पाहतं स्यादित्यलम् ॥ ५८॥
भा० टी०-ग्रहका विक्षेप और क्रान्ति एक दिशामें गतं हो तो भध्य क्रान्तिमें विक्षेप मिलानेसे और भलग किसी दिशामें हों तो वियोग करनेस स्पष्ट क्रांति होगी। सूर्यकी मध्य क्रान्तिही स्पष्ट क्रान्ति है ॥ ५८ ॥ अथ दिनरात्रिमानज्ञानार्थमहोरात्रासून्साधयति
ग्रहोदयप्राणहता खखाष्टैकोद्धता गतिः ॥
चक्रासवो लब्धयुताः स्वाहोरात्राप्तवः स्मृताः ॥ ५९॥ ग्रहस्य येऽयनांशसंस्कृतराशेर्वक्ष्यमाणनिरक्षोदयासवस्तर्पणिता ' निजस्फुटगतिः कलाद्याष्टादशशतभक्ता फलेन युताश्चक्रासवः षष्टिघटिकानामसवः षट्शतयुतैकविंशतिसहस्रमिताः स्वस्वग्रहस्याहोरात्रासकः कालतत्त्वज्ञैः कथिताः । अत्रोपपत्तिः । ग्रहः पूर्व गत्या लम्बितः प्रवहेण गतिभोगकालेन भचक्रपरिवर्तानन्तरमुदत्यतो भचक्रपरिवर्तकालः पष्टिघटिकासु मितो ग्रहगतिकलासम्बद्धास्वात्मककालेनाधिको ग्रहाहोरात्रमस्वात्मक नाक्षत्रप्रमाणेन भवति । तत्रैकराशिकलाभिर्ग्रहसम्बद्धराश्युदयप्राणास्तदा गतिकलाभिः क इत्यनुपातेन गत्यसव इत्युपपन्नं ग्रहोदयेत्यादि । अनेनैव श्लोकेन ग्रहाणामुदयान्तर कर्मास्तीत्युक्तं भगवता । तथाहि । अनुपातानीतमध्यग्रहाणां नियताहोरात्रमानान्तरकाले सिद्धत्वान्न मध्यरात्रकाले ग्रहाणां सिद्धिः। रविमध्यगत्यसूनां प्रतिराशौ भिन्न त्वेन मध्यमसूर्याहोरात्रमानस्य नियतत्वाभावादतस्त्रैराशिकावगतग्रहा अनियतमध्याकोहोरात्रमानान्तरेणार्धरात्रे यत्संस्कारेण भवन्ति तदेवोदयान्तरं तत्साधनं भगवता स्वल्पान्तरत्वादुपेक्षितम् । कथमन्यथा गतिकलासूनां समत्वमुपेक्ष्य गतिकलानामसवो भगवदुक्ताः संगच्छन्ते । उदयान्तरस्य गतिकलासु भेदोत्पन्नत्वात् ॥ ५९ ॥
मेषादि छ राशि उत्तर दिश की और तुलादि ६ राशि दक्षिण श्शिामें हैं ।
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ध्याय: २.] संस्कुतटीका-भाषाटीकासमेतः। (६१)
मा० टी०-सायनग्रह जिस राशिमें हो उस स्पष्ट राशिकी प्राणसंख्या तिसकी स्पष्ट गतिसे गुणकरके, १८०० से भाग करनेपर फल दैनिक प्राणसंख्यामै अर्थात् २१६०० ग्रहका स्पष्ठाहोरात्रमान होगा || ५९ ।। अथ चरोपयुक्तां क्रांतिज्यां गुज्यां चाह
क्रान्तः क्रमोत्क्रमज्ये द्वे कृत्वा तत्रोक्रमज्यया ॥
हीना त्रिज्या दिनव्यासदलं तदक्षिणोत्तरम् ॥ ६०॥ स्पष्टकान्तेः क्रमोत्क्रमज्ये क्रमज्योत्क्रमज्ये द्वे अपि प्रसाध्य तत्र तन्मध्ये क्रान्त्युत्क्रमा ज्यया त्रिज्याहीना दिनव्यासदलमहोरात्रवृत्तस्य व्यासार्धं |ज्येत्यर्थः। तद्दिनव्यासार्ध दक्षिणोत्तरं दक्षिणगोल उत्तरगोले च स्यात् । क्रान्तर्गौलदयेऽपि सत्त्वात् । अपरा क्रान्ति ज्यैव । अत्रोपपत्तिः। कान्त्यंशानां क्रमज्याक्रान्तिज्याभुजो विषुववृत्तानुकाराण्यहोरात्र कृतान्युभयगोले तदुभयतस्तव्यासार्ध युज्याकोटिस्त्रिज्या कर्ण इति गोले प्रत्यक्षम् । त्रिज्यावृत्त उन्मडले याम्योत्तरवृत्ते वा प्रत्यक्षम् । तत्र भुजकर्णयोर्वर्गान्तरपदं कोटि: रिति क्रान्तिज्यावर्गोना त्रिज्यावन्मूलं |ज्यां । तत्रापि भुजोत्क्रमज्यया हीना त्रिज्या द्युकोटिक्रमज्या स्यादिति वृत्ते प्रत्यक्षदर्शनात्क्रान्त्युत्क्रमज्थयोना त्रिज्या युज्या स्थादिति लाघवेन वर्गमूलनिरासेनोक्तं भगवता क्रान्तरित्यादि ॥ ६० __ भा०टी०-क्रांतिसे क्रमज्या और उत्क्रमज्या निश्चय करे । त्रिज्यासे उत्क्रमज्या घटाने पर तिस दिनका व्यास उत्तर और दक्षिणके अनुसार नियत होताहै ॥ ६० ॥ अथ चरानयनपूर्वकदिनरात्रिमानसाधनं श्लोकत्रयेणाह
क्रान्तिज्या विषुवद्भानी क्षितिज्या द्वादशोद्धृता ॥ त्रिज्या गुणाहोरात्रार्धकर्णाप्ता चरजासवः ॥ ६ ॥ तत्कामुकमुक्कान्तौ धनहानी पृथविस्थते ॥ . स्वाहोरात्रचतुर्भागे दिनरात्रिदले स्मृते ॥ ६२॥ याम्यक्रान्तो विपर्यस्ते द्विगुणे तु दिनक्षपे ॥
विक्षेपयुक्तोनितया क्रान्त्या भानामपि स्वके ॥ ६३ ॥ क्रांतिज्या विषुवद्दिनीयमध्याह्ने द्वादशांगुलशंकोश्छायया गुण्या द्वादशभक्ता फलं कुज्या स्यात् । सा, त्रिज्यया गुणिताहोरात्रार्धकर्णाप्ताहोरात्रवृत्तस्यार्धकर्णेन व्यासदलेन युज्यया भक्ताफलं चरजाज्या चरज्येत्यर्थः । अस्याश्चरज्याया धनुरसवश्वरासवो मवान्त । स्वाहोरात्रचतुभांगे स्वस्य चरसम्बन्धिनो ग्रहस्य प्रागुक्ताहोरात्रासवस्तेषां चतुर्थाशे पृथविस्थते स्थानद्वयस्थे उत्तरकांतो सत्यां चरासू धनहानी युतहीनौ कार्य
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( ६२ )
सूर्यसिद्धान्तः
:
[ द्वितीयोऽतक्रमेण दिनरात्रिदले दिनार्धरात्र्यर्धे कालविद्भिरुक्ते । दक्षिणकान्तौ सत्यां विपर्यस्ते दिनरात्रिदले यत्र हीनं तद्दिनार्धं यत्र युतं तद्रात्र्यर्धमित्यर्थः । तुकारात्ते दिनरात्र्यर्षे द्विगुणे दिनक्षपे दिनमा रात्रिमाने ग्रहस्य स्तः । उक्तरीत्या नक्षत्राणामपि दिन रात्रिमाने साध्ये इत्याह - विक्षेपेत्यादि । नक्षत्रध्रुवाणामानीतया क्रान्त्या नक्षत्रविक्षेपेणैकामिन्नादिक्रमेण युक्तयान्तरितयोक्तप्रकारेण सिद्धया स्वके नक्षत्रदिनरात्रिमाने साध्ये इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । द्वादशांगुलशंकुः कोटिः पलभाभुजोऽकर्णः कर्णः क्रान्तिज्या कोटि: कुज्या भुजोऽग्राकर्ण इत्यक्षक्षेत्रद्वयं प्रसिद्धम् । तत्र द्वादशकोटी पलभाभुजः क्रान्तिज्याकोटी को भुज इत्यनुपातेन कुज्या । तत्स्वरूपं तु निरक्षदेशक्षिीतजस्वदेशक्षितिजान्तरालस्थिताहोरात्रवृत्तप्रदेशस्य युज्याप्रमाणेन ज्येति त्रिज्याप्रमाणेन तज्ज्याचरज्येति द्युज्या प्रमाणेन कुज्या त्रिज्या प्रमाणेन केत्यनुपातेन । चरज्या तद्धनुश्वरासवोऽहोरात्रवृत्त - खंडप्रदेशे निरक्षस्वक्षितिजान्तराल उत्तरगोले : स्वक्षितिजस्य निरक्षक्षितिजादधः स्यत्वा निरक्षाक्षितिजयाम्योत्तरःत्तान्तरालेऽहोरात्रावृत्तचतुर्थांशत्वादहोरात्रासु, चतुर्थांशे चरासवो युता दिनार्थ हीना राज्य दक्षिणगोले स्वक्षितिजस्य निरक्षक्षितिजादूर्ध्वस्थत्वाद्धीना दिनार्ध युता रात्र्यर्धमित्युपपन्नं सर्व क्रान्तिज्येत्यादि ॥ ६१ ॥ ६२ ॥ ६३ ॥
भा०टी०-क्रांतिज्या विषुवच्छाया से गुणकर के १२ से भांग करनेपर क्षितिज्या होगी । क्षितिज्याको त्रिज्यासे गुणकरके दिन के व्यास से भागकरके धनु नियत करनेपर चर प्राणसंख्या होगी ||६१ || अहोरात्र के चौथे भागको दो स्थानों में रखकर कहाहुआ चर प्राण एक. में मिलावे और दूसरे से घटावे | उत्तर क्रांति होने पर योग फल दिनार्द्ध और वियोगफल रात्र्यं - ईमान होगा || ६२ ॥ परंतु दक्षिणक्रांति में उल्टा अर्थात् वियोगफल दिनार्थ और योगफल राज्यर्द्ध होता है। इनको दूना करनेसे दिनादिमान होता है। इस प्रकार नक्षत्रोंके विक्षेपसे क्रांतिका निर्णय करके दिनादिमान निर्णीत होता है ॥ ६३ ॥
अथ ग्रहस्य नक्षत्रानयनमाह
भभोगोऽष्टशतीीलिप्ताः खाश्विशैलास्तथा तिथेः ॥ ग्रहलिप्ता भभोगाप्ता भानि भुक्त्या दिनादिकम् ।। ६४ ।
अष्टशतमिताः कला नक्षत्रभोगः । प्रसङ्गात्तिथिभोगमाह - खाश्विशैला इति । तिथेविंशत्यधिकसप्तशतमिताः कलास्तथा भोग इत्यर्थः । यस्य ग्रहस्य नक्षत्रज्ञानमिष्टं तस्य ग्रहस्य राशय त्रिंशद्वण्या अंशा योज्यास्ते षष्टिगुणिताः कला योज्या इति परिभाषया कला नक्षत्रभोगभक्ताः फलं ग्रहस्य गतनक्षत्राणि शेषं वर्तमाननक्षत्रस्य गत कलास्तस्मात्तस्य गतदिनाद्यानयनमाह - भुक्त्येति । ग्रहस्य कलात्मिकया त्या शेषदिनादिकं गतं भागहरणेन साध्यभेवं शेषोनाद्भोगाद्गतिकलामागै
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ध्यायः २] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (६३) नैष्यदिनादिकं साध्यम् । अत्रोपपत्तिः । भचक्रभोगेन सप्तविंशतिनक्षत्राण्यश्चिन्यादीनि ग्रहो भुनक्त्यतः सप्तविंशतिनक्षत्राणां चक्रकलाः षट्शतयुतेकविंशतिसहस्रमिता भागस्य तदैकनक्षत्रस्य क इत्यनुपातेनाष्टशतकलाभोगः । एवं तिथेश्चान्द्रमासत्रिंशदंशत्वाचान्द्रमासस्य सूर्यचन्द्रान्तरकभगणसिद्धत्वाच्च । त्रिंशत्तिथीनां चक्रकलाभोगस्त- • दैकतिथेः क इत्यनुपातेन विंशत्यधिकसप्तशतकलाभोगः । अथाष्टशतकलाभिरेकं नक्षत्र तदा ग्रहकलाभिः किमित्यनुपातेन फलमाश्विन्यादीनि ग्रहभुक्तानि शेषकलाग्रहाधिष्ठि. तनक्षत्रस्य गतं भभोगाद्धीनं तस्यैष्यमाभ्यां ग्रहगत्यै दिनं तदाभीष्टकलाभिः किमित्यनुपातेन तस्य गतैष्यदिवसायं भवति । एवं चन्द्राद्दिननक्षत्रं ज्ञेयम् ॥ ६४ ॥
मा० टी०-नक्षत्र भोग ८०० कला, तिथिभोग ७२० कला हैं । ग्रहकलाको ( स्पष्ट राश्यादि)८०० से भाग करके लब्धं संख्या, गत नक्षत्र और मपशेषको स्पष्ट गतिसे भाग करनेपर भोग निर्णीत होता है ॥ ६४ ॥ अथ प्रसंगाद्योगानयनमाह
खीन्दुयोगलिप्ताभ्यो योगाभभोगभाजिताः॥
गता गम्याश्च पष्टिना भुक्तियोगातनाडिकाः॥६५॥ सूर्यवन्द्रयोगस्य राश्यादेकस्य पारभाषया याः कलास्ताभ्यो योगा विष्कमादयो भभोगभाजिता भभोगेन पूर्वोक्तेन विभक्ता भवन्ति । एकैकयोगस्य मभोगमितो भोगः स प्रत्येकं ताभ्योऽपनीय यन्मितीः शुद्धास्तन्मिता योगा गताः । यस्य भोगो न शुध्यति स वतमान इत्यर्थः । कलामभोगभक्ता नप्ता योगास्तदाग्रिमो वर्तमान इति तात्पयम् । तस्य शेषं गतं भोगात्पतितमेष्यं ताभ्यां घटिकाद्यानयनमाह-गता इति । गता एष्याः। चः समुच्चये । कलाः षष्टिगुणिताः कार्यास्ताभ्यो भुक्तियोगाप्तनाडिका रविचन्द्रकलात्मकगत्योर्योगेन भजनालब्धा घटिका गतैष्या भवंति । अत्रोपपत्तिः । सूर्यचन्द्रयोगमितस्य ग्रहस्य नक्षत्राणि विष्कम्भादिसंज्ञानि योगोत्पन्नत्वाद्योगा अतस्तदानयनं पूर्वोक्तवत् । अत एव सूर्यचन्द्रगतियोगतुल्यतद्गत्या षष्टिसाक्नघटिकास्तदा गतैष्यकलाभिः का इत्यनुपातेन गतैष्यघटिकानयनं युक्तमुक्तम् ॥ ६५ ॥
मा० टी०-सूर्य मोर चन्द्रमाका स्फुट मिलाय कला करके ८०० से भाग कानेपर लब्धफल गायोग होगा | अवशिष्टगत और ८०० से वियोग करनेपर गम्य होता है । तिसको ६० से गुण करक भुक्तियोगद्वारा भाग कानेपर गत और गम्य दण्ड होंगे ॥ ६५ ॥ अथ प्रसगात्तिथ्यानयनमाह
अर्कोनचन्द्रलिप्ताभ्यास्तिथयो भोगभाजिताः ॥ गता गम्याश्च षष्टिना नाड्यो भुत्त्यंतरोद्धताः ॥६६॥
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(६४) सूर्यसिद्धान्तः
[द्वितीयोऽपूर्वार्धव्याख्यानं पूर्वश्लोकपूर्वार्धरीत्या ज्ञेयमुत्तरार्धे स्पष्टम् । अत्रोपपत्तिः। तिथिभोगकलाभिरका तिथिस्तदा सूर्योनचन्द्रकलाभिः का इत्यनुपातेन फलं गततिथयो वर्तमानातथर्गतष्ये शेषशेषोमभोगकले ताभ्यां गत्यन्तरकलाभिरनुपातेन गतैष्यघ.टिकाः पूर्ववत् ॥ ६६ ॥
भा० टी०-चन्द्रमासे सूर्यको वियोगकरके तिथिभोग (७२० ) से भाग करनेपर लब्धगत तिथि होती है । अपशिष्ट और ७२० से भवशिष्ट वियोग करनेपर गत और गम्य होते हैं। तिनको ६० से गुणकरके चन्द्ररवि-भुक्त्यन्तरसे भाग करनेपर गत और गम्य दण्ड होंगे ॥६६॥ ___ अथ पञ्चांगावशिष्टं करणानयनं विवक्षुस्तावस्थिरकरणान्याह
ध्रुवाणि शकुनि गं तृतीयं तु चतुष्पदम् ॥
किंस्तुघ्नं तु चतुर्दश्याः कृष्णायाश्चापरार्धतः॥ ६७॥ कृष्णपक्षीयायाश्चतुर्दश्यास्तिथेर्द्वितीयार्धाद्वितीयार्धमारभ्येत्यर्थः । चकार एवार्थे । तेनान्यतिथेरतत्तिथिपूर्वार्धस्य च निरासः स्थिराणि करणानि । तान्याह-शकुानरिति । चतुरघ्रिस्तृतीयमानेन शकुनिनागयोः क्रमेणाद्यद्वितीयत्वं सूचितम् । तुकारात्क्रमेण तिथ्यर्धेषु भवन्ति । किंस्तुघ्नं चतुर्थम । तुरन्तावधिद्योतकः तेनोक्तातिरिक्तं स्थिरकरणं नास्तीति सूचितम् ॥ ६७ ॥
भा०टी०-शकुनि, नाग, चतुष्पद और किंस्तुघ्न यह चार ध्रव करण हैं। कृष्णा चतुर्दशीके शेषाईसे क्रमशः भोग करते हैं ।। ६७ ॥ अथ चरकरणान्याह
बवादीनि ततः सप्त चराख्यकरणानि च ॥
मासेऽष्टकृत्व एकैकं करणानां प्रवर्तते ॥ ६८॥ ततः स्थिरकरणपूर्त्यनन्तरं ववादीनि चरसंज्ञककरणानि सप्तभद्रान्तानि शुक्लपतिपद्वितीया तश्चतुर्थ्यंतं भवन्तीति चार्थः । ननु पञ्चम्यादितः कानि करणानि भवन्तीत्यत आह-मास इति । चरकरणानां बवादीनां सप्तानां मध्ये एकैकमेकमेकं करणं मासे स्थिरकरणकालोनितत्रिंशत्तिथ्यात्मकमासे स्वल्पान्तरान्मासग्रहणम् । अष्टकृत्वोऽष्टवारं प्रवर्तते प्रकर्षण तिष्ठति भवतीत्यर्थः । तथाच पंचम्याद्यर्धादेतानि करणानि पुनःपुनः परिभ्रमन्ति । कृष्णचतुर्दश्याद्यार्धपर्यंतामति भावः ॥ ६८ ॥ __ भा० टो०-जवादि सात चर करण क्रमानुसार एक चांदमासमें आठवार घूमते है॥ ६८॥
ननु स्थिरकरणोक्तावपरार्धत इत्युक्त्या तेषां चतुर्णा तिथ्यधभोगेन शुक्लपतिपदाद्य... र्धपर्यंत क्रमणावस्थानं युक्तं चरकरणानां तु केवलोक्त्या तदनन्तरं कृष्णचतुर्दश्याद्यार्ध
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अध्यायः २. ]
संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः ।
पतमेक एव परिभ्रमोऽस्त्वित्यतस्तदुत्तरं कथयन्नन्यदप्याहतिथ्यर्द्धभोगं सर्वेषां करणानां प्रकल्पयेत् ॥ एषा स्फुटगतिः प्रोक्ता सूर्यादीनां खचारिणाम् ॥ ६९ ॥ सप्तानां चरकरणानां प्रत्येकं तिथ्यन्तश्वासौ भोगश्च तं तिथ्यर्धकालमितावस्थानं प्रकल्पयेत् । एकत्र निर्णीतः: शास्त्रार्थोऽपरत्र भवतीतिन्यायात् करणत्वेनैषामप्यवस्थानं तत्तुल्यं कुर्यादित्यर्थः । अतएव तिथ्य करणं स्मृतमित्युक्तत्या चान्द्रमासे त्रिशत्तिथ्यात्मक पष्टिकरणानां सन्निवेशाच्चरकरणानामेव परिभ्रमणे प्रतिमासमनियततिथिभोगकं करणं भवतीति तद्वारणकप्रतिमासनियततिथिभोगककरणकसिद्धयर्थ चरकरणानामष्टवारं परिभ्रमणोत्तरमवशिष्टतिथ्योश्चतुर्ष्वर्थेषु स्थिरकरणान्युक्तानीति तात्प र्यम् । तत्रापि कृष्णचतुर्दश्य परार्धतस्तत्कल्पनं तदिच्छानियामकं स्वतन्त्रेच्छस्य नियोगानर्हत्वात् । अथाग्रिमग्रन्थासंगतित्वनिरासार्थमुक्ताधिकारमुपसंहरति - एषेति । हे मय सूर्यादीनां सप्तग्रहाणामेषा दृश्येत्यादिकल्पयेदित्यन्तं या वार्ता सा स्फुटगतिः स्पष्टगतिः स्पष्टक्रिया ज्ञानसम्पादिका प्रोक्ता तुभ्यं मयोक्ता । एतेन स्पष्टाधिकारः परिपूर्तिमास इति सूचितम् ॥ ६९ ॥
मा० टी०-करण भी तिथिको भोगते हैं । इस प्रकार सूर्यादिग्रहों के स्फुटगती कही गई ॥ ६९ ॥
रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे ॥ स्पष्टाधिकारः पूर्णोऽयं तद्गूढार्थप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके स्पष्टाधिकारः संपूर्णः ॥ २ ॥ इति द्वितीयोऽध्यायः ॥ २ ॥
( ६५ )
शिलातलेऽम्बुसंशुद्धे वज्रलेपेऽपि वा समे ॥ तत्र शंक्कंगुलैरिष्टेः समं मण्डलमालिखेत् ॥ १ ॥ तन्मध्ये स्थापयेच्छंकुं कल्पना द्वादशांगुलम् || तच्छायायं स्पृशेद्यत्र वृत्ते पूर्वापरार्धयोः ॥ २ ॥
अथ तृतीयोऽध्यायः ।
अथ त्रिप्रश्नाधिकारो व्याख्यायते । तत्र विना प्रश्नं गुरोस्तत्प्रतिपादनेच्छानुदयाद्विना च तदिच्छां छात्राणां तज्ज्ञानासम्भवात्रयाणां दिग्देशकालानां प्रश्ना इति त्रिप्र नव्युत्पत्तेस्तद्दिग्ज्ञानं श्लोकचतुष्टयेनाह
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(६६) सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयोऽतब बिंदू विधायोभो वृत्ते पूर्वापराभिधौ ॥ तन्मध्ये तिमिना रेखा कर्त्तव्या दक्षिणोत्तरा ॥३॥ याम्योत्तरदिशोमध्ये तिमिना पूर्वपश्चिमा ।
दिङ्मध्यमत्स्यः संसाध्या विदिशस्तद्वदेव हि ॥४॥ तत्र दिक्साधनोपक्रमे प्रथममम्बुसंशुद्धे जलवत्समीकृते शिलाप्रदेशे । अपिवा अथवा तदभावेऽन्यत्र वज्रलेपे चत्वरादौ घुण्टनादिना समस्थाने कृते. शंक्वंगुलै: शड्डस्थांगुलविभागमानगृहीतैरभीष्टसख्याकांगुलैः व्यासार्धरूपैर्वृत्तमवक्रमालिखेत् । सर्वतः केन्द्रादृत्तपरिधिरेखातुल्या स्यात्तथेत्यर्थः। ततस्तन्मध्ये तस्य केन्द्ररूपमध्ये कल्पनया द्वादशसंख्याकांगुलानि तुल्यानि' यस्मिस्तं द्वादशविभागांकितमित्यर्थः । शंकुं समतलमस्तकपरिधिकाष्ठदं स्थापयेत् । ततः पूर्वापरार्धयोदिनस्य प्रथमद्वितीयभागः योस्तच्छायाग्रं स्थापितशंकोश्छायान्तप्रदेशो मण्डलपरिधौ यस्मिन्विभागे स्पृशेत् । दिनस्य प्रथमविभागेऽनुक्षणं छायाह्रासादृत्ते यत्र प्रविशति दिनस्यापराई छायानुक्षण. वृदेवृत्तं यत्र निर्गच्छतीत्यर्थः । तत्र निर्गमनप्रवेशस्थानयोरुभौ दो बिन्दू पूर्वापरसंज्ञौ अमेण वृत्ते परिधिरेखायां कृत्वा तन्मध्ये पूर्वापरविन्दन्तरमध्ये तिमिना मत्स्येन रेखा कार्या सा दक्षिणोत्तररेखा भवति । मत्स्यस्तु बिन्दन्तरालसूत्रमितेन व्यासार्दैन बिन्दुदयकेन्द्रकल्पनेन वृत्तद्वयं निष्पाद्य वृत्तद्वयसंयोगाभ्यां वृत्तद्वयपरिधिविभागाभ्यामन्तर्गतं मत्स्याकारं स्थानं भवति । तत्रैकः संयोगो मुखं बाह्यवृत्तभागसम्मार्जनेनापरसंयोगस्तु पुच्छमितरवृत्तभागद्वयं सम्मार्जनेन । मुखपुच्छावध्य॒ज्वी रेखा दक्षिणोत्तररेखा । तत्र विन्दोः सव्यं रेखाग्रं दक्षिणा दिक् । पश्चिमबिन्दोः सव्यं रेखाग्रमुत्तरा दिक् । अनन्तरं पूर्ववृत्तं मत्स्यश्च सम्मार्जनीयः । शंकुरपि तत्स्थानानिष्कास्य इति केवला दक्षिगोत्तररेखा स्थितेति तात्पर्यम् । दक्षिणोत्तरदिशोमध्यस्थाने तिमिना दक्षिणोत्तररेखामितेन व्यासार्द्धन दक्षिणोत्तरस्थानाभ्यां पूर्ववत्प्रत्येकं वृत्तं विधाय पूर्ववत्सिद्धेन मत्स्ये. नेत्यर्थः । पूर्वपश्चिमा रेखा कार्या । तत्र पूर्वबिन्दोरासन्नं रेखाग्रं पूर्वा पश्चिमबिन्दोरासन्नं रेखा पश्चिमेति मत्स्यसंमार्जनेन केवला पूर्वापररेखा सिद्धा । अथ रेखासंयोगस्थाना. हिक्साधनोपक्रमोक्तं पूर्ववृत्तमुलिखेत्तवृत्तपरिधौ यत्र रेखा लग्ना तत्र दिगिति तद्वत्तमध्यस्य दिक्चतुष्टयं वृत्ते सिद्धम् । तद्वत् । यथा दक्षिणोत्तराभ्यां पूर्वापरा साधिता नत्प्रकारेणेत्यर्थः । एवकारोऽन्यप्रकारनिरासार्थकः । हि निश्चयेन । विदिशकेण दिशो दिशां पूर्वादिसिद्धदिशां ये मध्यमत्स्या अव्यवहितदिग्वयान्तरोत्पन्नाः । लघवस्तैः संसाध्याः सम्यक्प्रकारेण साध्याः रेखवृत्तसंयोगस्थत्वेन ज्ञेयाः । अत्रोपपाचः। क्षितिजपूर्वापरवृत्तसंयोगौ पूर्वापरविभागस्थौ पूर्वापरदिशे तत्र पूर्वापरविभाग
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
(६७) ज्ञानं सूर्योदयास्ताभ्यां तत्र क्षितिजे पूर्वापरवृत्तं कुत्र लग्नामति ज्ञानं तु विषुववृत्तकान्तिवृत्तसम्पातस्थसूर्यस्योदयास्तस्थलज्ञानेन विषुववृत्तस्य पूर्वापरक्षितिजवृत्तसम्पातयोः सम्बद्धत्वात् । अथान्यास्मिन्दिने सूर्यस्योदयास्तावनांशान्तरेण याम्योत्तरे भवत इति । सर्योदयास्तस्थानाभ्यामग्रांशान्तरेणोत्तरयाम्ये पूर्वापरस्थानं भवतीति क्षितिजस्य महवाहूरत्वाच्च तद्दानेन पूर्वापरज्ञानमशक्यमतस्तत्सत्रण स्वाभीष्टप्रदेशे तज्ज्ञानार्थमभीष्टसमस्थलेक्षितिजानुकारं वृत्तं कृतम् । तत्रापि सूर्योदयास्तसमसूत्रणस्थलज्ञानस्य दुःशकत्वाच्छायार्थ शंकुः स्थाप्यः । तथापि सूर्योदये छायानन्त्यावृत्तपरिधौ तदग्रस्पर्शाभावः । परन्तु यथायथा सूर्य ऊर्ध्वं भवति तथातथा छायाह्रासाद्यत्र छाया वृत्तपरिधौ यदा प्रविशति तत्स्थानात्तात्कालिको वक्ष्यमाणभुजो व्यस्तोऽर्धज्याकारेण देयस्तदु. स्क्रमज्यात्र परिधिप्रदेशे लगति तत्र शंकुस्थानस्य पश्चिमा । छायाग्रस्य पूर्वाफ्रसूत्रादुजान्तरेण याम्योत्तरपतनात्सूर्यापरदिशि छायापतनाच्च । एवं दिनापरार्द्ध सूर्यो यथा यथाधःसञ्चरति तथातथा छ.यावृद्धेः शंकुच्छाया वृत्तपरिधौ यत्र यदा निर्गच्छति तात्कालिको वक्ष्यमाणभुजो व्यस्तोऽर्धज्याकारेण तत्स्थानाद्देयस्तद्गुत्क्रमज्या यत्र परिधिप्रदेशे लगति तत्र शंकुस्थ नस्य पूर्वा । तत्सूत्रं पूर्वापरसूत्रम् इदं शङ्कोरुपलक्षणत्वेन ज्ञातं तथा छायोपलक्षणेनापि प्रदेशस्य पूर्वापरसूत्रज्ञानम् । तथाहि । छाया विशति तत्रापरा छायाग्रं निर्गच्छति तत्र पूर्वा । तत्रापि प्रवेशनिर्गमयोरेककालत्वासम्भवाद्यत्कालिका प्रवेशस्तरकाले छायायाः पश्चिमत्वं तत्र वस्तुभूतं तत्काले निर्गमनस्य पूर्वत्वासम्भवः । एवं निर्गमकाले निर्गमस्थानस्य पूर्वत्वं वस्तुभूतं तत्काले निर्गमनस्य पश्चिमत्वासम्भवः । एककालिकसिद्ध्यर्थमुभयोरकेतरं चिद्रं चाल्यं तात्कालिकभुजयोरन्तरण तत्र पूर्वचिद्रं भुजान्तरांगुलैरयनदिशि चाल्यम् । पश्चिमचिह्न वा व्यस्तायनदिशि चाल्यम् । तत्सूत्रं सूत्रमध्यदेशस्य पूर्वापरसूत्रम् । एतन्मध्ये स्थापितशङ्कोश्छायाग्रप्रवेशनिर्गमचिगाभ्यां यथोक्तरीत्या भुजदानेन सिद्धपूर्वापरसूत्रेणाभिन्नत्वात् । तदुक्तं सिद्धान्तशिरोमणी-“तत्कालामपजीवयोस्तु विवराद्भकर्णमित्याहतालम्बज्यासमितांगुलैरयनदिश्यैन्द्री स्फुटा चालिता" इति । तदेतद्भगवता लोकानुकम्पया स्वल्पान्तरत्वादेकतराबन्दुचालनं नोक्तं सुखार्थ किञ्चित्स्थूलावेव निर्गमप्रवेशबिन्दुपूर्वापरा भिधायुक्तौ । एवञ्चाभीष्टं स्थानं प्रवेशनिर्गमसूत्रमध्ये यथा भवति तथानेन प्रकारेण मण्डलकेन्द्रशंकुस्थापनादिनाभष्टिप्रदेशे पूर्वापरदिशे साध्ये इति । तन्मध्ये दक्षिणोत्तररेखाबिन्दुद्वयोत्पन्नमध्यमत्स्यरेखेवेति । याम्योत्तरमध्ये पूर्वापरारेखातादिङ्मध्यमत्स्येनति याम्योत्तरदिशोरत्याद सम्यगुक्तम् । ननु पूर्वापरबिंदुभ्यां मत्स्येन या दक्षिणोत्तररेखा तदग्राभ्यां मत्स्येन रेखा पूर्वापरविन्दुस्पृष्टैवेति पूर्व तस्या एक बिन्दन्तरत्वने सिद्धत्वात्पुनः साधनं व्यर्थम् अन्यथा दक्षिणोत्तररेखाया अप्यसंगतत्वापत्तरित
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(६८) सूर्यसिद्धांत:
[ तृतीयोsचेत्सत्यम् । दक्षिणोत्तररेखाशुद्धयर्थमेव पूर्वापरबिन्दुस्पृष्टरेखायाः पुनः साधनामति केचित् । वस्तुतस्तु दक्षिणोत्तरपूर्वापर सूत्रसम्पातरूपाभीष्टस्थानाकेन्द्रात्प्रागुक्तवृत्तस्य वक्ष्यमाणोपयोगित्वेनावश्यकत्वात्तस्य च पूर्वापरबिन्द्वन्तरसूत्राधिकव्याससूत्रत्वाद्विन्दन्तरेखाया मूलाग्रयोर्वर्धनीया सा तत्र वृत्ते पूर्वापररेखा भवति । तस्या बिन्दोरुपर्यधश्च वक्रत्वं कदाचित्स्यादतः प्रथममेव पूर्णरेखासिद्धयर्थं बिन्दन्तरसिद्धमत्स्यमुखपुच्छगतरेखाया बिन्द्वन्तराधिकत्वेन तदुत्पन्नमत्स्यरेखाया ऋज्व्याः सुतरामधिकत्वेन पुनः पूर्वापररेखासाधनं युक्ततरमिति तत्त्वम् । एवमेवाव्यवहितं दिग्द्धयान्तरोत्पन्नलघुमत्स्यैश्चतुर्भिः सूत्रैर्वृत्ते कोणदिशः । तदिदमभीष्टस्थानकेन्द्रमण्डले दिगष्टकं सिद्धम् ॥१॥२॥३॥४॥
भा० टी०- जलकी समान इकसार शिलापर अयवा कै. समक्षेत्रमें इष्ट अंगुलके परिमाणका सममण्डल (वृत्त) बँचे । तिसमें १२ अंगुलके. परिमाणका शंकु स्थापन करे तिसकी छायाके अग्रभाग वृत्तको पूर्व या अपराह्नमें जिस स्थानपर स्पर्श करे तहां दो पूर्वीपर संज्ञा बिन्दु विधान करे | तिमि से जिनमें दक्षिण व उत्तरकी रेखाको खेंचें । दक्षिणोत्तरके दो विन्दुओंको केन्द्रकरके व्यासाईके परिमाणसे वृत्तमंकित करनेपर तिमि होगा । तिसंसे पूर्व पश्चिम रेखा बनती है। दिक मध्य मत्स्यसे शिानादि दिक्को. निर्णय करना चहिये ॥ १ ॥२॥ ३ ॥ ४ ॥ अथ दिक्सत्रसम्पातरूपाभीष्टस्थानात्तात्कालिकच्छायाग्रस्थानमाह
चतुरस्त्रं बहिः कुर्यात्सूत्रैर्मध्याद्विनिर्गतैः ॥
भुजसूत्रांगुलस्तत्र दत्तैरिष्टप्रभा स्मृता ॥५॥ मध्यादभीष्टस्थानाद्दिनेखासम्पातरूपाद्विनिर्गतौर्नःसृतैरष्टदिनेखारूपैः । बहिर्दिक्सत्रसम्पातकेन्द्रवृत्तागहिः । अननैव वृत्तकरणं पूर्वमनूक्तं द्योतितम् । अन्यथा बहिरित्यस्यानुपपत्तेः पूर्ववृत्तग्रहणे तु दिग्रेखासम्पातस्य मध्यत्वानुपपत्तेः । चतुरस्रं कोणरेखाधिकसूत्रकर्णद्वयतुल्यं समचतुर्भुजं कुर्यात् । तथा च' तद्दर्शनम् । तत्र चतुरस्र भुजसूत्रांगुलैर्वक्ष्यमाणभुजमितसूत्रस्यांगुलनिर्गमप्रवेशकालिकैर्दत्तैः पूर्वापरसूत्रादर्धज्या बद्दीयमानस्तत्र वृत्ते यस्मिन्प्रदेशे भुजाग्रं तत्प्रदेश इष्टप्रभानिर्गभप्रवेशान्यतरकालिकच्छायायमुक्तम् । प्रतीतिस्तु दिक्सूत्रसम्पातस्थशंकुना ज्ञेया । अत्रोपपत्तिः । वक्ष्यमाणभुजस्य छायानपूर्वापरसूत्रान्तरत्वेन प्रतिपादितत्वादिष्टछायायमुक्तदिशाज्ञानं सम्यक् । चतुरस्रकरणं वक्ष्यमाणाग्रासाधकमाच्यपररेखानुकाररेखाया वृत्तान्तस्तद्भहिर्वा ऋजुत्वास दवमिति ॥५॥
दो वृत्तके छेदमें उत्पन्न मत्स्य कार स्थानका नाम तिमि है ।
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (६९)
भा०टी०-छायाकै परिभाणसे वृत्त खंचकर पूर्व पश्चिमकी रेखास वृत्त के बाहर एकनम चतुष्कोण कल्पित परे । वृत्तमें. छायाके अनुसार भुजे । पूर्वमें या पश्चिममें उत्तरमें या दक्षिण में वंचकर भय सहित केंद्र संयोग करने से इष्ट छायाकी दिक्का निर्णय होजायगा ॥ ५॥ अथ पूर्वापररेखायाः संज्ञान्तरमाह
प्राक्पश्चिमाश्रिता रेखा प्रोच्यते सममण्डलम् ॥
उन्मण्डलं च विषुवन्मण्डलं परिकीर्त्यते ॥ ६॥ प्राक्पश्चिमाश्रिता पूर्वपश्चिमसम्बद्धा साधिता रेखा समवृत्तमुच्यते । सैव रेखोन्म ण्डलं विषुवन्मण्डलम् । चः समुच्चये । उभयसझकं कथ्यते । अत्रोपपत्तिः। क्षितिजपूर्वापरवृत्तसंयोगौ पूर्वापरे तत्सूत्रं पूर्वापरसूत्रमिति । पूर्वापरवृत्तस्य भूमावू/धरानुकारिवृत्तत्वेनादर्शनानेखाकारतयैव दर्शनाच पूर्वापरवृत्तमपि तत्सूत्रम् । पूर्वापावृत्तस्य सममण्डलत्वेनाभिधानात्तदेवासम्मण्डलसज्ञोक्ता । अथ स्वनिरक्षदेशक्षितिजवृत्तस्थोमण्डलाख्यस्य तत्संयोगयोः । संलग्नत्वात्तन्मध्यसूत्रत्वेन पूर्वापरसूत्रस्यापि सत्त्वात्पू. वापरसूत्रमुन्मण्डलसञ्ज्ञम् । एतेनान्यदेशक्षितिजसज्ञया स्वदेशक्षितिजसंज्ञा सुतरां सिद्धात पूर्वापरसूत्रस्य क्षितिजवृत्तसञ्ज्ञा द्योतिता । पूर्वापरस्थानयोः क्षितिजवृत्तस्य संलग्नत्वादुल्लिखितवृक्षस्य क्षितिजानुकारित्वाच्च । एवं निरक्षदेशपूर्वापरवृत्तं विषुवन्मण्डलाख्यं पूर्वापरस्थानयोः । संलग्नमिति तन्मध्यसूत्रत्वेनापि पूर्वापरसूत्रस्य सिद्धत्वात् त्पूर्वापरसूत्रं विषुवन्मण्डलसं क्रांतिवृत्तस्य दृग्वृत्तस्य चलत्वात्कादाचित्वत्वेन पूर्वा'परस्थानसंलग्नत्वात्तत्संज्ञानोक्तेति ध्येयम् ॥ ६ ॥
भा० टी०-सममण्डल, उन्मंडत, या विषुवन्मण्डल पूर्व व पश्चिमकी माश्रित रेखा है ॥ ६॥ अथाग्राज्ञानमाह
रेखा प्राच्यपर। सा या विषुवद्भाग्रगातथा ॥
इष्टच्छाया विषुातोर्मध्यमग्राभिधीयते ॥ ७ ॥ तस्मिंश्चतुरस्र पूर्वापररेखात उत्तरभागे विषुवदाग्रगाक्षमाग्रप्रदेशस्थाक्षभांगुलान्तरितेत्यर्थः । प्राच्यपरारेखा पूर्वापररेखानुकारा रेखा तथा सर्वतस्तुल्यान्तरेण यथेष्टच्छायारेखा भुनान्तरेण तथाक्षमान्तरेण कार्या । अनन्तरमिष्टच्छायाविषुवतोरिष्टच्छायापरे खयोरित्यर्थः । मध्यं चतुरस्रेऽङ्गुलात्मकमन्तरालं सर्वतस्तुल्यम् । अग्रा कर्णवृत्तानोच्यते । तत्रोपपत्तिः । भुजस्य कर्णवृत्तामा पलभासंस्कारेणाग्र उक्तत्वादक्षिणगोले
१ शंकग्रच्छायाका दूरताके परिमाणको भुज कहते हैं ।
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( ७० )
सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयोऽपलभाधिकोत्तर भुजसद्भावेन पलमानो भुजोऽग्रेति प्राच्य पर सूत्रादुत्तरभागेऽक्षमाग्रेरेखा भुजमध्ये भवतीति द्वयोररेखयोरन्तरमग्रापलभोन भुजरूपा । एवमुत्तरगोल उत्तरभुजस्यपलभाल्पत्वाडजोनपलभाग्रेति पलभारेखा प्राच्यपरसूत्र | दुत्तरभागस्था भुजरे खातोऽप्यग्रान्तरेणोत्तरदिशीति द्वयोररेवयोरन्तरभुजानपलभारूपं कर्णवृत्ताग्रा । एवं दक्षिणभुजस्य पलभोनाग्रात्वात्पलभायुतो भुजोऽग्रेति प्राच्यपरसूत्राद्धजाग्रपलभाग्रेरेखायोः क्रमेण याम्योत्तरत्वात्तयोरन्तरालपलभाभुजक्य रूपमा पलभायाः शंकुतलानुकवपत्वात्सदान्तरत्वं छायासम्बन्धाद्युक्तम् । गोले शंकुतलस्य दक्षिणत्वाद्रहापरदिशि च्छायासद्भावाच्च । अतएव प्राध्यतरसूत्राद्दक्षिणभागे दक्षिणं भुजवशादक्षमारेखाकल्पना उक्तानुत्पत्त्या सम्यगुत्तरभागे पूर्वापरसूत्रादिति विषुवद्भागेत्यत्र व्याख्यातम् ॥ ७ ॥
भा०टी० - विषुवच्छाया के परिमाण में पूर्वपश्चिम रेखा से दूर एक सम देखा साधन करे । विषुव देखासे इष्टछाया रेखा के अन्तरको अग्रा कहते हैं ॥ ७ ॥
अथ प्रसंगाज्ज्ञातच्छायातः कर्णज्ञानं तच्छुद्धिं चाह -
शंकुच्छायाकृतियुतेर्मूलं कर्णोऽस्य वर्गतः ॥ प्रोज्झ्य शंकुकृतिं मूलं छायाशंकुर्विपर्ययात् ॥ ८ ॥
द्वादशांगुलशंकुच्छाययो वर्गयोगात्पदं छायाकर्णः स्यात् । अथास्य शुद्धिरूपं छायासाधनमाह-अस्येति । छायाकर्णस्य वर्माच्छंकुवर्ग चतुश्चत्वारिंशदधिकं शतं विशोध्य मूलं छाया । प्रकारान्तरेण छायाकर्णशुद्धिमाह - शंकुरिति । विपर्याच्छायासाधनवैपरीत्याच्छाया कर्णवर्गाच्छायावर्ग विशोध्य मूलमित्यर्थः । शंकुर्द्वादशांगुलमितः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । द्वादशांगुलशंकु कोटिरक्षभाभुजस्तत्कृत्योर्योगपदं कर्ण इत्यक्षकर्णः । कर्ण इत्याद्यक्ष क्षेत्राद्युक्तरीत्योपपन्नम् । ननु दिक्साधनोत्तरमिष्टप्रभा ग्राकर्णसाधनं भगवता सर्वज्ञेन किमर्थमुक्तमग्रेऽग्रादीनां स्वतंत्रतयोक्तत्वात् । नच विना गणितश्रममग्राज्ञानार्थमिदं युक्तमुक्तमिति वाच्यम् । वक्ष्यमाणभुजज्ञानस्याग्रोपजव्यित्वेन तस्याश्च भुजोपजीव्यत्वेनान्योन्याश्रयात् । गणितज्ञाताग्रायाः पुनः साधनस्य व्यर्थत्वाच्च । नच भुज सूत्रांगुल त्तैरित्यनेनेष्टच्छायावृत्तं ज्ञातमिति न किन्त्वेतदुत्तया दिक्सूत्रसम्पातस्थशंको वृत्तपरिधौ छायावृत्तज्ञानात्तत्पूर्वापर सूत्रांतरे भुजसद्भावाद्विना गणितं भुजोऽपिज्ञात इति नान्यान्याश्रय इति वाच्यम् । तथापि भगवतः सर्वज्ञस्य निष्प्रयोजनत्वोक्तेरनु चितत्वात् । विनाप्रयोजनं मन्दोक्तेरप्यभावाच्च । नहि दिक्साधनेऽग्राभुजादिकमावश्यकं येन तदुक्तियुक्ता । किंच कर्णसाधनस्य गणितोक्त्या वक्ष्यमाणकर्णसाधन तुल्यत्वेनात्र कथनमनुचितम् । नहि दिक्साधनार्थे भाकर्णमित्याहतादिति सिद्धान्तशिरोमण्य
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घ्यायः ३.] संस्कृतटीका-मापाटीकासमेतः । क्तिवदत्र छायाकर्ण उपयुक्तो येन तदुक्तियुक्तेति चतुरस्रमित्यादिश्लोकचतुष्टयमन्यने मन्दबुद्धिनाक्षिप्तं न भगवतोक्तमिति चेन्मैवम् । भुजसाधनोपजीव्यायाया एतदुक्तप्रकारेण सिद्धौ दिशःसम्पसिद्धा इति दिक्साधनशुद्धयर्थमग्रासाधनम् । प्रकारान्तरेणापि वक्ष्यमांणत्रिज्यावृत्तीयाग्रया त्रिज्या लभ्यते तदानयागतया केत्यनुपातेन साधितकर्णासंवादेन शुद्धयवगमार्थ कर्णसाधनं चोक्तम् । अनयाग्रया कर्णस्तदा त्रिज्या वृत्तीयाग्रया क इति फलस्य त्रिज्या तुल्यस्यानयनार्थ वा कर्णसाधनमिति केचित् । वस्तुतस्तु मण्डले छायाप्रवेशनिर्गमस्थानस्थितपूर्वापरबिन्द्रोः प्रत्येकं रेखेति रेखाद्वयसर्वतस्तुल्यान्तरं कार्य तेनान्तरेणान्यतरो बिन्दुश्वाल्पस्तौ पूर्वापरबिन्दू तरेखामध्यस्थानस्य पूर्वापररेखेति । तत्रोभयबिन्दुरेखयोरन्तरांगुलमानं स्वल्पत्वाद्गणयितुमशक्यमतः प्रत्येकरखे प्राच्यपररेखे प्रकल्प्य तन्मध्यकेन्द्रात्पूर्ववृत्तं प्रत्येकमिति वृत्तद्वयं कुर्यात् । तत्र स्वस्ववृत्ते स्वस्थ प्राच्यपररेखास्पृष्टा कार्या ताभ्यां स्वस्वकालिको भुजौ स्वस्ववृत्ते देयौ तदने छायाग्ररेखे स्वस्ववृत्ते कार्य स्वस्वप्राच्यपरसूत्रात्स्वस्ववृत्त उत्तरभागेऽक्षभांगुलान्तरेण रेखे कार्ये ततः स्वस्ववृत्ते स्वस्वतदेखयोरन्तरं स्वस्ववृत्त उभयकालिककर्णवृत्ताग्रे बहुत्वेन गणयितुं शक्ये तदन्तरं पूर्वबिन्दोर्याम्योत्तरमन्तरं कर्णवृत्ताग्रासाधनकथनेनानीतं भुनान्तरस्य बिन्दन्तरत्वात्तस्य चाग्रान्तरत्वेन फलितत्वात् । विषुवदिने गोलभेदे तु भुजा. न्तरमग्रायोग इति बिन्दोर्याम्योत्तरमग्रायोग इति । तेनोक्तरीत्या बिन्दुश्चाल्यस्तसूत्रं पूर्वापरसूत्रं स्फुटमित्याशयेन भगवताग्रा निरूपिता तस्याः शुद्धयर्थ कर्णोऽपि साधित इति तत्त्वम् ॥८॥
भा० टी०-शंकुच्छायावर्ग और शंकुर्ग मिलाकर मूल करनेसे छायाकर्ण होता है । कर्ष वर्गसे शंकुवर्ग हीन करके मूल करनेसे छाया और तिसके विपरीत अर्थात् कर्णवर्ग छाया वर्गहीन करनेपर शंकुकवर्ग होगा ॥ ८ ॥
अथ पूर्वाधिकारे क्रान्ताद्यानयनमुक्तं तत्पूर्वाधिमासावगतग्रहात्केवलान्न साध्यामति श्लोकाभ्यामाह
त्रिंशत्कृत्यो युगे भानां चक्रं प्राक्परिलम्बते ॥ तद्गुणाद्भूदिनर्भक्ता युगणायदवाप्यते ॥ ९॥ तदोस्त्रिना दशाप्तांशा विज्ञेया अयनाभिधाः॥ तत्संस्कृतागृहात्क्रान्तिच्छाया चरदलादिकम् ॥ १० ॥ भानां चक्रं राशीनां वृत्तं क्रांतिवृत्तं स्वस्वविक्षेपमितशलाकाग्रपाते नक्षत्रगणैर्युक्तमि. त्यर्थः । युगे महायुगे प्राक्पूर्वविभागे त्रिंशत्कृत्यस्त्रिंशत्संख्याका कृतिविंशतिः षट्रश;
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( ७२ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयोऽतमित्यर्थः । परिलम्बते धवाधारभगोलस्थानात्तद्द्वारमवलम्बते । अत्र परिलम्बत इत्यनेन भचक्रपूर्ण भ्रमणाभाव उक्तोऽन्यथा ग्रहभगणप्रसंगेन मध्याधिकार एवैतदुक्तं स्यात् । तथाच तद्दारमवलम्बनोक्त्या परावर्त्य यथास्थितं भवतीत्यागतं तत्रापि स्वस्थानात्तथैव पश्चिमतोऽप्यवलम्बत इति सूचितम् । एवञ्च भचक्रं पश्चिमत ईश्वरेच्छा प्रथमतः कतिचिद्भागैश्चलति ततः परावृत्त्य यथास्थितं भवति ततोऽपि तद्भागैः क्रमेण पूर्वतश्चलति ततोऽपि परावर्त्य यथास्थितमित्येको विलक्षणो भगणः । तेन प्रागित्युपलक्षणम् । पश्चिमावलम्बनानुक्तिस्तु संवादकाले तदभावात् अत्र त्रिंशत्कृत्वे ति पाठः प्रामादिकः । “युगे षट्शतकृत्वो हि भचक्रं प्राग्विलम्बते " इति सोमासद्धान्तविरोधात् । तत्पश्चाञ्चलितं चकमिति ब्रह्मसिद्धान्तोक्तेश्च । अहर्गणात्तद्गुणात्षटुशतगुणिताद्भूदिनैर्युगीयसूर्यसावन दिन भक्ताद्यत्फलं भगणादिकं प्राप्यते तस्य भगणत्यागेन राश्यादिकस्य भुजः कार्यस्तस्माद्दशाप्तांशा दशभिर्भजनेनाप्तभागास्त्रिगुणिता अयनसंज्ञका ज्ञेयाः । भुजांशास्त्रिगुणिता दशभक्ताः फलमयनांशा इति तात्पर्यार्थः । तत्संस्कृतात्तरय नांशैर्भचक्र पूर्वापर चलनवशाद्युतहीना हात्पूर्वापरभचक्रचलना वगमस्त्वयनग्रहस्य षड्भानन्तर्गतांतरगतत्वक्रमेण क्रान्तिच्छायाचरदलादिकं साध्यम् । न केवलाद्विशेषोक्तेः । छाया वक्ष्यमाणा चरदलं चरं पर्वाधिकारोक्तम् । आदिशब्दादयनवलनमानकर्म संगृह्यते । यद्यपि तत्संस्कृताद्ग्रहात्कान्तिरित्येव वक्तव्यमन्येषामत्र तदुपजीवत्वाद्ग्रहणं व्यर्थ तथापि क्रांतिरित्युक्त्या केवलक्रांतिज्ञानार्थं तत्संस्कृतग्रहात्क्रांतिः साध्या | पदार्थात रोपजीव्यायाः कांतेः साधनं तु केवलादित्यस्य वारणार्थं क्रांतिमात्रं तत्संस्कृतात्साध्यमिति सूचकच्छायाचरदलादिकथनम् । अत्रोपपत्तिः । ईश्वरेच्छया क्रां वृत्तं स्वमार्गे पश्चिमतः सप्तविंशत्यंशैः क्रमोपचितैश्चलितंततः परावृत्य स्वस्थान आगत्य तत्स्थानात् । पूर्वतः सप्तविंशत्यंशैश्वलितम् । तथा च सृष्ट्यादिभूतक्रांतिविषुवद्वृत्तिसम्पा ताश्रितक्रान्तिवृत्तप्रदेशी खेत्यासन्नः प्रागानीतग्रहभोगावधिरूपः स्वस्थानात्पूर्वमपरत्र वा क्रांतिवृत्तमार्गे गतः । विषुवद्वृत्ते तु तद्भागस्य पश्चिमभागः पूर्वभागो वा गतः सम्पाते तद्वृत्तयोर्याम्योत्तरांतराभावात्कान्त्यभावः । पूर्वसम्पातप्रदेशे तु तयोर्याम्योत्तरान्तरत्वात्क्रांतिरुत्पन्ना । अतोयथास्थित ग्रहभोगात्क्रांतिरसंगतेति सम्पातावधिकग्रहभोगात्क्रांतियुक्ता । तत्र सम्पातावधिकग्रहभोगज्ञानार्थं पूर्वसम्पातावधिकः पूर्वाधिकारोक्तो ग्रहभोगो वर्तमानसम्पात पूर्वसम्पाताश्रितक्रांतिवृत्तप्रदेश योरन्तरभागैरयनांशाख्यैः पूर्वसम्पातप्रदेशस्य पूर्वपश्चिमावस्थानक्रमेण युतहीनो भवति । क्रान्त्युपजीव्यपदार्था अपि वर्तमानसम्पातादुत्पन्ना इति तत्साधनमपि तत्संस्कृतग्रहात् । अथायनांशज्ञानं तु षट्शतभगणेभ्यः पूर्वानुपातरीत्या हर्गणाग्रहभोगो भगणादिकस्तत्र गतभगणमितं परपूर्वभचक्रावलम्बनं गतम् । वर्तमानं त्वारम्भे पश्चिमावलम्बनाद्राशिष
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (७३) ट्रकान्तर्गते राश्यादिके पश्चिमावलम्बनमनन्तर्गते पूर्वावलम्बनम् । तत्रापि त्रिभान्तर्गसानन्तर्गतत्वक्रमेण चलनं परावर्तनं चेति भुजः साधितस्ततो नवत्यशैः सप्तविंशतिभागास्तदा भुजांशैः क इत्यनुपातेन गुणहरौ नवभिरपवर्त्यभुजांशास्त्रिगुणिता दशभक्ता इति सर्वमुपपन्नम् ॥९॥१०॥ __ भा० टी०-भचक्र महायुगमें ६०० वार पूर्वदिशामें परिलम्बमान होता है। उस संख्याको दिनगणसे गुणकरके भूदिन संख्यासे भाग करनेपर कब्ध संख्या भगणादि होंगे । (भगण छोडकर ) राश्यादि भुज (जैसा पहले कह भाये हैं) करे । भुजको तीनसे गुणकरके और दशसे भाग करनेर भयन होगा । ग्रहमें अयन संस्कार करके क्रान्तिज्या, चर भादि निर्ण य करे । दोनों विषुवमें यह सरलतासे दृग्गोचर होताहै ॥ ९ ॥ १० ॥ अथोक्तस्यान्तरस्य प्रत्यक्षसिद्धत्वमिति सार्द्धश्लोकेनाह
स्फुटं हक्तुल्यतां गच्छेदयने विषुवद्धये ॥ प्राक्चक्र चलित होने छायात्किरणागते ॥
अन्तरांशेरथावृत्तपश्चाच्छेपेस्तथाधिके ॥ ११॥ अयने दक्षिणोत्तरायणसन्धौ विषुवद्धये गोलसन्धौ चलितं चक्रं दृक्तुल्यतां दृष्टिगो. चरतां स्फुटमनायासं गच्छेत् । तत्र प्रत्यक्षतस्तन्मितमन्तरं दृश्यत इत्यर्थः । तथाच सृष्टयादिकाले रेवतीयोगतारासन्नावधि मेषतुलाद्योः कर्कमकराद्योर्विषुवायनप्रवृत्तेरिदान स्वन्यत्र तत्स्वरूपे प्रत्यक्षे इति क्रान्तिवृत्तं चलितमन्यथा तदनुपपत्तेरिति भावः । ननु पूर्वतोऽपरत्र वा चलितमिति कथं ज्ञेयमित्यत आह-प्रागिति । छायाांद्यदिने सूर्यस्यायनदिक्परावर्तनमुदये प्राच्यपरसूत्रस्थत्वं वा तस्मिन्दिनेऽन्यस्मिन्दिने वा मध्याह्न‘च्छायातो वक्ष्यमाणप्रकारेण सूर्यः साध्यस्तस्मादित्यर्थः । करणागते प्रागुक्तप्रकारेणाभीतः स्पष्टः सूर्यस्तस्मिन्नित्यर्थः । न्यूने सति । अन्तरांशैः सूर्ययोरन्तराशैश्चक्रं क्रांति वृत्तं प्राक्पूर्वस्मिंश्चलितमिति ज्ञेयम् । अथ यद्यधिके सति शेषैः सूर्ययोरन्तरांशैश्चकमावृत्त्य परिवृत्त्य पश्चात्पश्चिमाभिमुखं तथा चलितमिति ज्ञेयम् । अत्रोपपत्तिः। छायातो वक्ष्यमाणप्रकारेण सूर्यो वर्तमानसम्पाताद्गणितागतस्तु खेतीयोगतारासन्नाद्यावधितोऽतस्तयोरन्तरमयनांशास्तत्र क्रान्तिवृत्तस्य पूर्वचलने गणितागतार्काच्छायार्कोऽधिको भवति । पश्चिमचलने तु न्यूनो भवतीति सम्यगुपपन्नम् ॥ ११ ॥
भा० टी०-छायागत मर्कसे गणितागत न्यून होनेपर चक्र पूर्वचारी है। अधिक होनेपर पश्चात्गामी अर्थात् पीछे चलनेवाला है । अन्तरांश परिमानमें क्रान्तिवृत्त चलता है ॥ ११॥ अथ चरायुपजीव्यां पलभामाह
एवं विषुवति च्छाया स्वदेशे या दिनार्धजा॥ दक्षिणोत्तररेखायां सा तत्र विषुवत्प्रभा ॥ १२॥
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(७४) सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयोऽस्वाभीष्टदेश एवं विषुवती चलितविषुवद्दिनसम्बद्धा रेवत्यासन्नस्याप्युपचाराद्विषुव. सज्ञा तव्यावर्तकमेवमिति । दिनार्धजा माध्यानिकी या यन्मिता द्वादशांगुलशंकोश्छाया दक्षिणोत्तररेखायां निरक्षोत्तरदक्षिणदेशक्रमेणोत्तरस्यां दक्षिणस्यां प्रभायाः दक्षिणोत्तर रेखास्तत्वं विना मध्याह्नसम्भवात्सा तन्मिता तत्र तस्मिन्नभीष्टदेशे विषुवत्प्रभाक्षमा भवति । एतेन द्वादशांगुलशंकुः कोटिः पलभासुजस्तत्कृत्योर्योगपदं कर्ण इत्यक्षकर्णः । कर्णइत्यक्षक्षेत्रं वक्ष्यमाणोपयुक्तं प्रदर्शितम् । तदा सूर्यस्य विषुववृत्तस्थत्वादिषुवत्प्रभति संज्ञोक्ता ॥ १२॥
भा० टी०-इसी प्रकारसे विषुपदिनके मध्याह्नकी छ'या दक्षिणोत्तर रेखामें दिखाई देती है, सेही तहांकी विषुवच्छाया है ॥ १२ ॥ अथ लम्बाक्षयोरानयनमाह
शंकुच्छायाहते त्रिज्ये विषुवकर्णभाजिते ॥
लम्बाक्षज्ये तयोश्चापे लम्बाक्षी दक्षिणी सदा ॥ १३ ॥ त्रिज्ये द्विस्थानस्थे शंकुच्छायाहते एकत्र द्वादशगुणितापरत्र प्रागुक्तया विषुवत्कर्णभाजितोभयत्राक्षकर्णेनं भक्ता फले क्रमेण लम्बज्याक्षज्ये तयोर्ययोर्धनुषी क्रमेण लम्बा. सौ सदोभयगोले दक्षिणदिवस्थौ भवतः । अत्रोपपत्तिः । याम्योत्तरवृत्ते निरक्षस्वदेशपूर्वापरवृत्तयोर्यदन्तरं तदक्षः। याम्योत्तरवृत्ते दक्षिणक्षितिजपदेशाद्विषुववृत्तस्य यदन्तरं तल्लम्बः । उभावूर्ध्वगोले स्वपूर्वापरवृत्तादक्षिणौ तज्ज्ये अक्षलम्बज्ये भुजकोटी त्रिज्या कर्ण इत्यक्षक्षेत्रादक्षकर्णकर्ण द्वादशपलभे कोटिभुजौ तदा 'त्रिज्या कर्ण कावित्यनुपाताभ्यां लम्बाक्षज्ये तद्धनुषी लम्बाक्षावित्युपपन्नम् ॥ १३॥।।
भटी-विषुव दिनके शंकु (१२) और हायाको त्रिज्या ( ३४३८) से भलग गुणकरके कणेसे भाग करनेपर क्रमानुसार लम्बज्या और मक्षज्या होगी तिसका धनु करनसळप और अक्ष होगा ॥ १३ ॥ अथ मध्याह्नच्छायातोऽक्षानयनं श्लोकाभ्यामाह
मध्यच्छायाभुजस्तेन गुणिता त्रिभमौर्विका ॥ स्वकर्णाप्ता धनुलिप्ता नतास्ता दक्षिणे भुजे ॥१४॥ उत्तराश्चोत्तरे याम्यास्ताः सूर्यक्रांतिलिप्तिकाः ॥ दिग्भेदे मिश्रिताः साम्ये विश्लिष्टाश्चाक्षलिप्तिकाः ॥ १५॥ अभीष्टदिने माध्याह्निकी छाया भुजसंज्ञा ज्ञेया । तेन भुजेन त्रिज्यागुणिता मध्या
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (७५) ह्रच्छायाकर्णेन भक्ता फलस्य धनु:कला नतानतसज्ञास्ता नतकलादक्षिणे भुजे मध्याइच्छायारूपभुजे प्राच्यपरसूत्रमध्यादक्षिणदिक्स्थे सति । उत्तरदिका उत्तरे भुजे दक्षिणाः । चो विषयव्यवस्थार्थकः । ता नतकलाः सूर्यक्रांतिकलाः प्रागुक्ताः। दिग्मेदे स्वदिशोभिन्नत्वे मिश्रिताः संयुक्ताः साम्येऽभिन्नदिक्त्वे विश्लिष्टा अन्तरिताः । चो विषयव्यवस्थार्थकः । अक्षकला भवन्ति । अत्रानावश्यकभुजसज्ञया भगवतोपपत्तिरुक्ता । तथा हि द्वादशांगुलशङ्ककोटौ मध्याह्नच्छायाकणे वा मध्यच्छायाभुजस्तथा खस्वस्तिकान्मध्याह्नकाले सूर्यस्य याम्योत्तरवृत्ते यदन्तरेण नतत्वं ता नतकलास्तज्ज्या० नतांशज्यामध्याह्नोन्नतांशज्यारूपशङ्को त्रिज्याकणे वा भुज इति मध्याह्नच्छायाकणे कर्णे मध्याह्नच्छायाभुजस्तदा त्रिज्याकणे को भुज इत्यनुपातेन नतज्या तदनुरत्र कला: त्मकत्वान्नतकलास्ता ग्रहसंबद्धा इति छायादिदिग्विपरीतदिकाः । अथ क्रान्त्यांशाक्षाशयोरेकदिक्त्वे योगेन नतांशा इति दक्षिणानतकलादक्षिणक्रान्तिकलाभिहींना अक्षांशा भवन्ति । क्रान्त्यंशाक्षांशयोभिन्नदिक्त्वेऽन्तरेण नतांशा यदि दक्षिणास्तदा क्रान्त्यूना: क्षांशस्य नतत्वादुत्तरक्रान्तियुता अक्षांशाः । यदि तूत्तरास्तदाक्षोनक्रान्ते तत्वान्नतो. त्तरक्रान्तिरक्ष इति सम्यगुपपन्नम् । केचित्तुं भुजग्रहणादभीष्टकाले प्राच्यपरसूत्राच्छायाग्रं यदन्तरेण याम्यमुत्तरं वा भुजस्तं स्वल्पान्तरान्मध्यच्छायां प्रकल्प्य तस्याः कर्ण चानीयोक्तदिशानतालप्तास्ता अभीष्टक्रान्तिसंस्कृता अक्षांशा भवन्तीत्याहुः ॥१८॥१५॥
भा० टी०-मध्यकी छायाही भुज है। तिसको ज्यासे गुणकरके छायाकप से भाग करके धनु निर्णय करनेपर नति होगी। छाया दाक्षणमें हो तो उत्तर नति और उत्तर होनेसे दक्षिण नति होती है। यह अलग दिशामें हो तो सूर्यक्रान्ति में योग करने स्वार्थ मक्ष होगा । सम दिशामें होनेसे वियोग करना चाहिये ॥ १४ ॥ १५ ॥ अथाक्षात्पलमानयनमाह
नाभ्योऽक्षज्या च तद्गै प्रोज्झ्य त्रिज्याकृतेः पदम् ॥
लम्बज्यार्कगुणाक्षज्या विषुवदाथ लम्बया ॥ १६ ॥ ताभ्योऽक्षकलाभ्योऽशज्या भवति । चः समुच्चये । अक्षज्यावर्ग त्रिज्यावर्गात्यक्त्वा शेषान्मूलं लम्बज्या । अनन्तरमक्षज्या द्वादशगुणा लम्बया लम्वज्यया गुणनस्य भजनसम्बन्धाद्भक्त्यर्थसिद्धम् । अक्षमा स्यात् । अत्रोपपत्तिः । अक्षकलानां ज्यादज्यातस्यास्त्रिज्या कर्णे भुजत्वात्तदर्गोनात्रिज्यावर्गान्मूलं लम्बज्याकोटिः । तयाक्षज्या भुजस्तदा द्वादशकोटौ को भुज इत्यनुपातेन विषुवच्छायेति ॥ १६ ॥
भा० टी०-मक्षज्यावर्ग त्रिज्यावर्गसे अलग करके अन्तमेंसे लमज्या होता है द्वादशः गुणित अक्षज्या, लम्बज्यासे भाग करनेपर विषुनद्भा होती है ॥ १६ ॥
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(७६) सूर्यसिद्धान्तः
[तृतीयोऽअथाक्षज्ञाने नतभागेभ्यः क्रान्तिद्वारा सूर्यसाधनं सार्धश्लोकाभ्यामाह
स्वाक्षार्कनतभागानां दिक्साम्येऽन्तरमन्यथा ॥ १७॥ दिग्भेदेऽपक्रमः शेषस्तस्य ज्यात्रिज्यया हता॥ परमापक्रमज्याप्ता चापं मेषादिगो रविः ॥ १८ ॥ कोदो प्रोड्य चक्रार्धात्तलादो भार्घसंयुतात् ॥
मृगादो प्रोज्य भगणान्मध्याह्नकः स्फुटोऽभवेत् ॥१९॥ स्वदेशाक्षांशेष्टदिनीयमध्याह्नसूर्यनतांशयो गानां बहुत्वात्वहुवचनम् । एकदिक्त्वेन्तरमन्यदिक्त्वेऽन्यथा योगः कार्यः । शेष उक्तसंस्कारसिद्धोऽङ्कः क्रान्तिः स्यात् । तस्यापक्रमस्य ज्यात्रिज्यया गुण्या परमकान्तिज्यया प्रागुक्तया भक्ता फलस्य धनुर्भागादिकं मेषादिगो मेषादिराशित्रितयान्तर्गतोऽर्कः स्यात् । कर्कादित्रये चक्रार्धात्षड्राशितं आगतार्क त्यक्त्वा शेषं मध्याह्नकाले स्फुटोऽकः स्यात् । तुलादित्रितये षडूभयुतादागतात्स्फुिटोऽर्को ज्ञेयः । आगतोऽर्कः षड्भयुतः स्फुटोऽर्कः । स्यादित्यर्थः । मकरा. दियेके द्वादशराशिभ्य आगता त्यक्त्वा शेषमयनांशसंस्कृतः स्फुटोऽर्कः स्यात् । करणागतज्ञानार्थ व्यस्तायनांशसंस्कृत इत्यर्थसिद्धम् । पूर्व तत्संस्कृतग्रहात्क्रान्तिः साध्येत्यर्थस्योक्तेः । अत्रोपपत्तिः । एकदिशि क्रान्त्यक्षयोगान्नतं दक्षिणमतोऽझोनं क्रान्तिदक्षिणा । भिन्नदिशि क्रान्त्यूनाक्षानतं दक्षिणमनेनाक्षो हीनः क्रान्तिरुत्तरा । अक्षोनक्रान्तिनतं तूत्तरमतोऽशयुतं क्रान्तिरुत्तरा । अस्या ज्याक्रान्तिरर्क ? ज्या । परमक्रान्तिज्याया त्रिज्याभुजः स्यात्तदानया केतीष्टा सायनार्कभुजज्या तद्धनुः सायनार्कभुजः । भुजस्य चतुर्षु पदेषु तुल्यत्वात्प्रथमपदे मेषादित्रये सूर्यस्यैव भुजत्वाद्भुज एव सूर्यः । कर्कादिवये द्वितीयपदे षड्भादूनस्यार्कस्य भुजत्वाट्ठजोनषड्भमर्कः । एवं तृतीयपदतुलदिनये षड्भेन होनार्कस्य भुजत्वात्पडयुतो भुजोऽर्कः । चतुर्थपदे मकरादित्रये सूर्योनभगणस्य भुजत्वाखजोनभगणोऽर्क इति सर्व वैपरीत्यात्सुगमतरम् ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥
मा० टी०-निजवेशके अक्ष और सूर्यनतांश एक दिशामें हों तो अन्तर करनेसे अन्य दिशामें योग करनेसे अपक्रम होगा। इस अपक्रमकी ज्या त्रिज्यासे गुणकरके परमापक्रमज्या (१३९७) से भाग करके ज्या करनेसे मेषादिमें सायन रवि स्पष्ट होगा । कटादिमें चक्रार्ध (६राशि) से वियोग करने पर, तुलादि ६ राशिमें योग करनेसे मोर मकररादिम १२ राशि वियोग करनेपर (सायन ) विस्पष्ट होगा ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥
अथागतस्फुटमूर्यस्य करणागतस्फुटतुल्यत्वज्ञानमागतस्फुटसूर्यान्मध्यमयकरणागतमध्यमार्कलुल्यत्वेन विशेषं वक्तुं श्लोकार्धेनाह
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (७७)
तन्मान्दमसकृद्धामं फलं मध्यो दिवाकरः ॥ तस्मादागतस्फुटसूर्यान्मान्दफलं मन्दफलमसकृदनेकवारं वामं व्यस्तं संस्कृतं स्फुटसूर्येऽहर्गणानीतः स्फुटसूर्यः स्यात् । अयमर्थः । स्फुटसूर्यमध्यम प्रकल्प्य पूर्वमन्दोच्चात्प्रागुक्तरीत्या मन्दफलं धनमृणमानीय स्फुटमूर्यऋणं धनं कार्य मध्यमसूर्यः। अस्मादपि मन्दफलं स्पष्टसूर्ये व्यस्तं संस्कृतं मध्यमोऽस्मादपि मन्दफलं स्पष्टे व्यस्त मध्यस्तं मध्यमार्क इति यावदविशेषस्तावदसकृत्साध्योऽर्को मध्योऽहर्गणानीतो भव' तीति । तथाच मध्यमाकोत्स्फुटार्कसाधन एकवारं मन्दफलसंस्कारः स्फुटार्कान्मध्याकैसाधने त्वनेकवारं मन्दफलव्यस्तसंस्कार इति विशेषोऽभिहितः । अत्रोपपत्तिः । मध्यमसूर्यादानीतमन्दफलेन संस्कृतो मध्यः स्फुटोऽर्को भवति । वा तेनैव मन्दफलेन व्यस्तं संस्कृतो मध्यो भवति । अत्र स्फुटार्कान्मध्यार्कसाधने मध्यमज्ञानासम्भवात्तदानीतमन्दफलज्ञानमशक्यं अतः स्फुटसूर्य मध्यम प्रकल्प्यानीतमन्दफलेनाभिमतासबेन स्पष्टोऽर्को व्यस्त संस्कृतो मध्यमासन्नः। अस्मादपि मन्दफलमभिमतासन्नमापि पूर्वस्मात्सूक्ष्मामति यावदविशेषे मध्यार्कसाधितं मन्दफलं भवतीति निरवयं सर्वमुक्तम्॥
भा० टी०-निरयण रवि स्पष्टसे मान्द्यफल निर्णयकरके विपरीतभावसे असकृत् संस्कार करनेसे रविमध्य लाभ होगा । अर्थात् रविस्पष्टको रविमध्यकी समान गिनकर मन्दोच्च संस्कारादिके द्वारा मान्दफल प्राप्त होकर विपरीत संस्कार करनेसे सूर्यकी स्थूल होगा । तिसको मध्य ज्ञानकरके मान्द फल फिर वहीहुई रीतिसे रविस्पष्ट में विपरीत भावकरके संरकार करे। __ अथ मध्याह्न छ, यकर्णयोरानयनं विवक्षुः प्रथमं तात्कालिकनतांशज्ञानं कथयस्तटु कोटिज्ये कार्ये इत्याह
स्वाक्षाकापक्रमयुतिदिवसाम्येऽन्तरमन्यथा ॥
शेष नतांशाः सूर्यस्य तदाहुज्या च कोटिजा ॥२०॥ दिक्साम्य एकदिक्त्वे स्वदेशाक्षांशमध्याह्नकालिकसूर्यक्रांत्यंशयोर्योगः । अन्यथा अत उक्तादेकदिक्त्वौद्वपरीत्येभिन्नदिक्त्वादित्यर्थः । अक्षांशक्रांत्यंशयोरंतरं कार्य शेष संस्कारोत्पन्नं सूर्यस्य मध्याह्ने नतांशास्तेषां नतांशानां भुजरूपाणां ज्या कोटिज्या तदंशा नवतिशुद्धाः कोटिस्तत उत्पन्ना ज्या । चः समुच्चये साध्या । अत्रोपपत्तिः। याम्योत्तरवृत्ते मूर्यस्य मध्याह्ने स्वस्वस्तिकादनन्तरं नतांशा विषुववृत्तपर्यंतमक्षांशाः । विषुववृत्तसूर्ययोरन्तरं क्रांत्यंशाः । अतो दक्षिणकान्तौ क्रान्त्यक्षयोगो नताशा उत्तरक्रान्तो क्रान्त्यूनाक्षोऽक्षोनक्रान्तिर्वा दक्षिणोत्तरनतांशास्तेषां ज्यादृग्भ्यां भुजस्तत्कोटिज्यामहाशंकुः कोटिस्त्रिज्याकर्ण इति च्छायाक्षेत्रे तदंशानां भुजः त्वात् ॥२०॥ __ भा० टी०-निजदेशके अक्षांश और सूर्यन्ति एकांदिशामें हो तो योग, और विपरीत अन्तर करनेसे शेषमाध्याहिक सूर्यकानतांश हैं तिसकी भुजण्या भौर कोटिज्या करे ॥२०॥
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सूर्यसिद्धान्तः
(७८)
अथ च्छायाकर्णयोरानयनमाहशङ्कमानगुलाभ्यस्ते भुजत्रिज्ये यथाक्रमम् ॥ कोटिज्यया विभज्याते छाया कर्णावहर्दले ॥ २१ ॥
भुजत्रिज्ये नतांशज्या त्रिज्ये इत्यर्थः । शङ्काः प्रमाणांगुलानि द्वादश तैर्गुणिते कार्ये । उभयत्र कोटिज्या नतांशोननक्यंशानां ज्ययेत्यर्थः । भक्त्वा लब्धे द्वे यथाक्रमं भुजज्या त्रिज्यास्थानीयफलक्रमेण मध्याह्ने छाया तत्कर्णौ भवतः । अत्रोपपत्तिः । द्वादशांगुलशंकुः कोटिरिष्टच्छायाभुजस्तत्कृत्योयोगपदं कर्ण इति च्छायाकर्णः कर्ण इति च्छायाक्षेत्रे । महाशंकुकोटौ दिग्ज्यात्रिज्ये भुजकर्णे तदा द्वादशांगुलशंकुकोटौ कावित्यनुपातेन मध्याह्नकाले छाया तत्कर्णौ भवतः । साधकयोस्तात्कालिकत्वादियुपपन्नम् ॥ २१ ॥
[ तृतीयोs
मा० टो० - शंकुम नांगुलि ( १२ ) से भुजज्या ( नतशिको ) और त्रिज्याको अलगअलग गुणकरके कोर्टज्यासे विभक्त करनेपर छाया और कर्ण होंगे ॥ २२ ॥ व्यथ भुजसाधनं विवक्षुः प्रथममग्रां कर्णाग्रआनयतिक्रांतिज्या विषुवत्कर्णगुणाप्ता शंकुजीवया ॥ तर्कायास्वेष्टकर्णघ्नी मध्यकर्णोद्धृता स्वका ॥ २२ ॥
सूर्यकान्तिज्या अक्षकर्णगुणिता शंकुजीवया शंकुर्द्वादशांगुलस्तद्रूपाज्या तयेत्यर्थः द्वादशाभिरिति फलितम् । भक्ताफलं सूर्यस्याग्रा । उपलक्षणाद्रहस्यापि इयमग्रास्वा - मिमतकालिकच्छाया कर्णेन गुणिता मध्यकर्णोड़ता कर्णस्य व्यासस्य मध्यमर्धमिति मध्यकर्णो व्यासार्धं त्रिज्या तयेत्यर्थः । पूर्वापरप्रथमचरमजघन्य समानमध्यमध्यमवीराश्चेति सूत्रेण मध्यपदस्य पूर्वनिपातः । भक्ताफलं स्वका स्वकर्णाग्रा स्यात् । अत्रोपपत्तिः । क्रांतिज्योन्मण्डले कोटिरक्षितिजे कर्णः कुज्याभुज इत्यक्षक्षेत्रे द्वादशकोटावकर्णः कर्णस्तदा क्रान्तिज्याकोटौ कः कर्ण इत्यनुपातेनाग्रा । त्रिज्यावृत्त इयं कर्णवृत्ते केत्यनुपातेन कर्णवृत्तात्युपपन्नम् ॥ २२ ॥
मा० टी० - क्रान्तिज्याको मक्षकर्ण से गुणकरके शंकु ( १२ ) से भाग करनेपर सूर्याग्रा देता है । मग्राको इष्ट देवसीय कर्णसे गुणकरके त्रिज्या से भाग करने पर स्वकर्णाग्रा होगी। ॥ २२ ॥
स्मथ भुजानयनश्लोकाभ्यामाह
विषुवद्भायुताकांग्रा याम्ये स्यादुत्तरो भुजः ॥ विषुवत्यां विशोध्योदग्गोले स्याद्वाद्दुरुत्तरः || २३ || विपर्ययाद्भुजो याम्यो भवेत्प्राच्य परान्तरे ॥ माध्याह्निको भुजो नित्यं छाया माध्याह्निकी स्मृता ॥ २४ ॥
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ध्यायः ३] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
(७९) अर्काग्रा सूर्यस्याभीष्टकालिककर्णाग्रा याम्ये दक्षिणगोले विषुवद्भायुताक्षच्छायया युक्तोत्तरदिको भुजः स्यात् । उत्तरगोले विषुवत्यां पलभायां कर्णायां विशोध्य न्यूनीकृत्य शेषमुत्तरादिको भुजः स्यात् । ननु कर्णाग्रा पलभायां यदा न शुद्धयति तदा कथं भुजः साध्य इत्यत आह-विपर्ययादिति । अक्षभां कर्णाग्रायां विशोध्य शेष दक्षिणो भुजः स्यात् । ननु भुजस्य याम्यत्वमुत्तरत्वं वा कस्मादित्यत आह-पाच्यपरान्तर इति । पूर्वापरसूत्रादन्तरालप्रदेशे याम्य उत्तरो वा भुजः स्यादित्यर्थः । ननु तथापि द्वितीयावधेरनुक्तत्वादन्तरस्याप्रसिद्धेः पूर्वापरसूत्रात्कस्यान्तरं भुज इत्याशङ्काया उत्तरं मध्याह्नच्छायास्वरूपकथनच्छलेनाह-माध्याह्निक इति । मध्याह्नकालिको भुजः सदा माध्याह्निकी मध्याह्नकालिकी छायोक्ता । तथा च छायाग्रं प्राच्यपरसूत्राद्याम्यमु. तरं वा यदन्तरण स भुज इति व्यक्तीकृतम् । अत्रोपपत्तिः । शङ्खमूलं प्राच्यपरसूप्राथाम्यमुत्तरं वा यदन्तरेण स याम्योत्तगे भुजो ग्रहस्य । शड्डस्तु 'ग्रहादवलम्बसूत्र क्षितिजसमसूत्रावधि तत्रायं भुजः शंकुतलाग्रयोः संस्कारजः । शंकुतलं तु स्वाहोरात्रवृत्तस्थितोदयास्तसूत्राच्छड्डुमूलं यदंतरेण तद्दक्षिणम् । अग्रानुपूर्वापरसूत्रादुदयास्तसूत्रावध्यन्तरमुत्तरदक्षिणगोलक्रमेणोत्तरदक्षिणा । तत्र ग्रहापरदिशि षड्भान्तरेऽस्मादयस्तमिति शङ्कतलमुत्तरमग्रापि व्यस्तदिकति तत्संस्कारो भुजो गोले प्रत्यक्षः । स महाशङ्कोरिति महाशङ्कोरयं तदा द्वादशाङ्गुलशङ्कोः क इत्यनुपातेन भुजः पूर्वापरसूत्राच्छायाप्रावधि । तत्र शकुन्तलाग्रे द्वादशाङ्गुलशङ्कोः साधिते तत्संस्कारेण भुजः स एव । तत्राप्यप्रात्पूर्व साधिता शङ्कुतलं तु द्वादशाङ्गुलशङ्कोः पलभा महाशङ्कः कोर्टः शङ्कुतलं भुजो हृतिः कर्ण इत्यक्षक्षेत्रे द्वादशकोटौ पलभाभुजस्तदा महाशङ्कुकोटौ को भुज इत्यनुपातन शङ्कतलमानीय महाशङ्कोरियं द्वादशाङ्गुलशङ्कोः किमित्यनुपाते गुणहरयोस्तुल्यत्वान्नाशेन पलभाया एवावशिष्टत्वात् । सा तूत्तरादक्षिणगोलेऽग्राया उत्तरत्वादेकदिक्त्वेन पलभाग्रयोर्योग उत्तरो भुजः । उत्तरगोलेयाया दक्षिणत्वेन भिन्नदिक्त्वात्पल भारयोरन्तरं भुजस्तत्र पलभायाः शेषमुत्तरो भुजोऽयायाः शेषं दक्षिणो भुजः । मध्याह्न छायायाभुजरूपत्वान्मध्याह्नकालिको भुजो मध्याह्नच्छायेति सर्वं युक्तम् ॥ २२ ॥२४॥
मा० टी०-दक्षिणगोलमें विषुवद्भासे स्वकर्णाग्राका योग और उत्तरमै विषुवदासे वियो। ग करनेपर उत्तर भुज होता है ।। २३ ॥ विषुवद्भासे वियोग मसम्भव, होनेपर स्वकर्णा ग्रासे वियोग करनेपर दक्षिणभुन होता है । मध्याह्न की मध्याह्नच्छाया कहते हैं ॥ २४॥ मथ याभ्योत्तरवृत्तस्थच्छायाकर्णमुक्त्वा पूर्वापरवृत्तस्थच्छायाकणे प्रकारद्वयेनाह
लम्बाक्षजीवे विषुवच्छायाद्वादशसंगुणे ॥ क्रान्तिज्याप्ते तु तो कौँ सममण्डलगे खो ॥२५॥
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(८०) सूर्यसिद्धान्तः
[तृतीयो:लम्बज्याक्षज्ये क्रमेणाक्षभाद्वादशाभ्यां गुणिते उभयत्र क्रान्तिज्यया भक्ते तुकाराकले समवृत्तस्थ तौ दृग्योग्यच्छायासम्बद्धौ कौँ भवत उभयत्र छायाकर्णः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । स्वमस्तकोपरि पूर्वापरानुकारेण यदृत्तं तत्सममण्डलसंज्ञम् । तत्रस्थस्य च्छायाकर्णानयनम् । पलभाभुजेऽक्षकर्णः कर्णस्तदा क्रांन्तिज्या भुजे कः कर्ण इति समशङ्कः क्रान्तिज्याभुजे समशङ्कुः क्रान्तिज्याभुजे समशकुकुज्योनतदृत्योः क्रमेण कर्णकोटित्वात । अस्मात् शङ्कमानांगुलाभ्यस्ते इत्यादिना त्रिज्या द्वादशगुणितानेन भक्ता तत्र 'छेदं लवं च परिवर्त्य हरस्य शेषः कार्योऽत्र भागहरणे गुणनाविधिश्च' इत्युक्तेः । पलभया त्रिगुण्याक्रान्तिज्याक्षकर्णाभ्यां भक्ता । तत्र त्रिज्या 'द्वादशगुणिताक्षकर्णभका लम्बज्यैव सिद्धातो लम्घज्यापलभागुणिताकान्तिपाभक्ताफलं समवृत्तगतच्छायाकर्णः । अथात्रैव पलभाभुजे द्वादशकोटिरक्षज्या भुजे का कोटिरिति लम्बज्यान. हणे पलभयोस्तुल्यत्वान्नाशादक्षज्याद्वादशगुणाकान्तिज्याभक्ताछायाकर्णः सममण्डल गतः क्रान्तिज्यायाः सदायं कर्णः सिद्धयेन्नहि सर्वदा समवृत्तगतो ग्रह इति समवृत्तगता ग्रहस्यैव कर्णः साध्यो नान्यदेति सूचनार्थ सममण्डलगे रखावित्युक्तम् ॥ २५॥
भा० टी०-(विमण्डलस्थ होनेपर लम्बज्याको विषुवच्छायांसे गुण अथवा मक्षज्याके द्वादशद्वारा गुणकरके क्रान्तिज्यासे भाग करनेपर कर्ण होगा ॥ २५॥ , ननु ग्रहाधिष्ठिताहोरात्रपूर्वापरवृत्तसम्पातादवलम्बरूपसमशङ्कोर्गोले प्रत्यक्षसिद्धस्य साधनाथ समवृत्तस्थत्वाभावेऽपि च्छायाकर्णः साध्यः । सममण्डलगे खावित्युक्तिस्तु स्वाधिष्ठिताहोरात्रवृत्तपरा न त्वन्यदा न साध्योऽन्यथा लक्षत्वेन प्रकारस्यातिप्रसङ्गापत्तेः । नहि प्रकारे तव्यावर्तकं विशेषणं प्रसिद्धं येन नातिप्रसंगः । परन्तु यदा सममण्डलेऽशांशाधिकक्रान्त्या ग्रहाधिष्ठितारात्रवृत्तानामसम्बन्धस्तदा गोले समशङ्कारदर्शनात्तत्र कथं तत्साधनमनिवारितमित्यतः सममण्डलगे खावित्यस्य पूर्वोक्त एवार्थ इत्यभिप्रायं सममण्डलकर्णानयनप्रकारान्तरकथनच्छलेनाह
सोम्याक्षोना यदा क्रान्तिः स्यात्तदा छुदलश्रवः॥
विषुवच्छाययाभ्यस्तः कणों मध्याग्रयोद्धृतः ॥२६॥ यदोत्तराकान्तिरक्षादल्पा स्यात्तदा द्युदलश्रवः समवृत्तस्याकाक्रांतिसाधितमध्याह्नकर्णः । नतु मध्याह्नकालिकः। अक्षमया गुणतो मध्याग्रया गृहीतमध्याह्नकर्णाग्रया भक्तः फलं सममण्डलगतग्रहबिम्बस्य च्छायाकर्णः स्यात् । अत्र सौम्यत्यनेन दक्षिणक्रान्तौ तदसाधनं सममण्डलगतग्रहबिम्बस्यादर्शनादिति स्फुटमुक्तम् । अन्यथाक्षाल्पकान्तौ दक्षिणगोले समशङ्कोः प्रत्यक्षत्वात्तन्निवारणानुपपत्तेः । अत्रोपपत्तिः । सममण्डलप्रवेशकालिकमध्याह्नच्छायाकर्णादवस्तुभूता
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ध्यायः ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासभेतः। (८१) कर्णेन द्वादशांगुलशंकुस्तदा त्रिज्याकर्णेन के इति मध्यशंकुस्तात्कालिकः । द्वादशकोटावक्षमाभुजस्तदा महाशंकुकोटौ क इति शंकुतलम् । द्वादशयो शात्पलभात्रिज्याघातो मध्यकर्णभक्त इति । अनेन भुजेन मध्यशंकुस्तदाग्राभुजेन क इति समशंकुादशाग्रामध्यकर्णघातो मध्यकर्णपलभाभ्यां भक्तोऽग्राभुजे समशंकुतडत्योः कोटिकर्णत्वात् । अस्मात्पूर्वप्रकारेण च्छायाकर्णानयने द्वादशयो शान्मध्यकर्णपलभात्रिज्याघातोऽग्रामध्यकर्णाभ्यां भक्त इति तुल्ययोर्मध्यकर्णमितगुणहरयो शाकरणेन सिद्धम् । स्वतन्त्रे च्छस्य नियोक्तमशक्यत्वात् । तत्रापि भाज्यहरौ त्रिज्ययापवर्त्य हरस्थाने मध्यकर्णगुणिताया त्रिज्याभक्तेति मध्यकर्णाग्रा सिद्धा अतो मध्याग्रयोडत इत्युक्तम् । भाज्यस्थाने तु मध्यकर्णपलभाषात इति दक्षिणगोले ग्रहादर्शनान्न साधितः । उत्तरगोलेऽ. पि क्रांतिरक्षाधिका तदा सममण्डलप्रवेशासम्भवान्न साधितः सममण्डलावध्यक्षांशत्वात्। अल्पक्रांती तत्सम्भवात्साधितः । नासिद्धं गोले गणितसाध्यं मानाभावादित्युपपन्नं सौम्येत्यादि । भास्कराचार्यैस्तु -"मार्तण्डः सममण्डलं प्रविशति स्वल्पेऽपमे स्वात्पलादृश्यो ह्युत्तरगोल एव स विशन् साध्या तदैवास्य भा । अप्राप्तेऽपि समाख्यमण्डलमिने यः शंकुरुत्पद्यते नूनं सोऽपि परानुपातविधये नैवं क्वचिदृश्यति ॥” इत्यनेन तत्रापि साधितः ॥ २६ ॥ ___ भा०टी०-जब क्रान्ति अक्षसे कम होवे,तघ विषुवच्छाया गुणित मध्याह्न कर्णको मध्याग्रासे भाग करनेपर पहला कहा हुआ कर्ण होगा ॥ २६ ॥
अथ स्वाभिमतकर्णेन स्वस्वकाले भुजाथै कर्णवृत्ताग्रा साध्येति। सूचनार्थ कर्णाग्र भुक्तप्रकारेण पुनरपि मध्यकर्ण इति प्रागुक्तस्य स्फुटीकरणाथै चाह
स्वक्रान्तिज्या त्रिजीवानी लम्बज्याप्ताग्रमोर्विका ॥
स्वेष्टकर्णहता भक्तात्रिज्ययायांगुलादिका ॥ २७ ।। स्वाभिमतकालिकक्रांतिज्या त्रिज्यया गुणिता लम्बज्यया भक्ता फलमग्राज्यारूपा । लम्बज्याकोटौ त्रिज्याकर्णः क्रांतिज्याकोटौ कंः कर्ण इत्यग्रेत्युपपत्तिः।' उत्तरार्द्ध पुनरुक्तव्याख्यातप्रायम् । यदि तु पूर्वोक्तकर्णवृत्ताग्रानयनश्लोके' शंकुजीवयेत्यस्य शंकोः कोटिरूपत्वात्पूर्व साधितनतांशभुजकोटिज्ययेत्यर्थो मध्यकर्ण इत्यस्य च तात्कालिकमध्याह्नच्छायायाः कर्णस्तदा न पुनरुक्तम् । परन्त्वर्काग्रेत्यस्य तात्कालिकमध्याह्नकालिककर्णाग्रार्थः स्वकेत्यस्य च स्वाभीष्टकालिककर्णाग्रार्थो बोध्यः । एतदुपपत्तिस्तु दादशकोटावक्षकर्णः कर्णस्तदाक्रांतिज्याकोटौ कः कर्ण इति स्वकालिकाप्रा । त्रिज्यावृत्त इयं तदा तात्कालिकमध्याह्नकालिकच्छायाकर्णेन नतांशकोटिज्याभक्तद्वादशत्रिज्याघातात्मकेन केति द्वादशत्रिज्याघातयोगुणहरत्वेन तुल्ययो शादक्षकर्णगुणितक्रान्तिज्या तात्कालिकमध्याह्ननतांशकोटिज्यया भक्तति । तात्कालिकमध्याह्नच्छायाकर्णेनेयं
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(८२) सूर्यसिद्धांत:-
[तृतीयोऽकर्णाग्रा तदा स्वाभीष्टकालिकच्छायाकर्णेन केति स्वकालिकाकर्णाग्रेत्युपपन्ना। सूर्याधिष्ठिताहोरात्रवृत्तयाम्योत्तरवृत्तोर्ध्वसम्पातस्तात्कालिकमध्याह्न ,परानुपातार्थ बोध्यम् २७॥
मा० टी०-स्वक्रांतिज्या त्रिज्यासे गुणकरके लम्वज्यासे भाग करनेपर अग्रा होगी उसको उसके इष्टकर्णसे गुणकरके त्रिज्यासे भागकरनेपर अंगुलादिक होंगे ॥ २७ ॥ अथ कोणच्छायाकर्णसाधनार्थ कोणशंकुदृगुज्ये श्लोकपञ्चकेनाहत्रिज्यावर्गाधतोऽग्रज्या वर्गोनाद्वादशाहतात् ॥ पुनदशनिघ्राच लभ्यते यत्फलं बुधैः॥ २८॥ शंकुवंगाधसंयुक्तविषुवर्गभाजितात् ॥ तदेव करणी नाम तां पृथक्स्थापयेदुधः ॥२९॥ अर्की विषुवच्छायाग्रज्यया गुणिता तथा ॥ भक्ता फलाख्यं तद्वर्गसंयुक्तकरणीपदम् ॥ ३० ॥ फलेन हीनसंयुक्तं दक्षिणोत्तरगोलयोः॥ याम्ययोविदिशोः शंकुरेवं याम्योत्तरे खो॥ ३१॥ परिभ्रमति शंकोस्तु शंकुरुत्तरयोस्तु सः॥
तत्रिज्यावर्गविश्लेषान्मूलं दृग्ज्याभिधीयते ॥ ३२॥ पूर्वप्रकारानीतैस्तात्कालिकाग्रज्याया नतु कर्णायायाः पूर्वकर्णस्यैवासिद्धेः । वर्गण होना त्रिज्या वर्गा बादशगुणात्पुनदितीयवारं द्वादशगुणात् । चः, समुच्चये । तेन हादशगुणितस्य द्विधा स्थापननिरासाचतुश्चत्वारिंशदधिकशतगुणितादित्यर्थः । पृथगू गणकोक्तिस्तु गुणनसुखार्थम् । शंकोर्टादशांगुलात्मकस्य वर्गार्धेन द्विसप्तत्या युक्तेन पलमावर्गण भाजिताद्रधैर्गणितकर्तृभिर्यत्संख्यामितं फलं प्राप्यते तत्संख्यामितं करयणीनाम सञया करणी । तां करणी बुधो गणकः पृथगेकत्र स्थाने स्थापयेत् । ततो बादशगुणितापलमाग्रज्यया पूर्वगृहीतया गुणिता तथा द्विसप्ततियुतेन पलमावर्गेण भक्ताछधं फलसंज्ञं तस्य फलस्य वर्गेण युतायाः करण्या मूलं दक्षिणोत्तरगोलयोः क्रमेण फलेनोनयुतम् । एवमुक्तप्रकारेण सिद्धः शंकुशङ्कोर्गणितकर्तुः सकाशाद्दक्षिणोत्तरे सूर्य परिभ्रमति सति तुकारः क्रमा?' क्रमेण याम्ययोरुत्तरयोविदिशोराग्नेयनैर्ऋत्योरीशानीपायव्योः कोणयोरित्यर्थः । द्वितीयतुकारः पूर्वापरदिने विभागक्रमार्थकत्वेन विदिशोरित्यवान्चति । तेन दिनपूर्वार्धे आग्नेयैशान्योर्दक्षिणोत्तरक्रमेण दिनापरार्धे नैर्ऋत्यवायव्याक्षिणोत्चरक्रमणोत फालतार्थः । स कोणसञ्ज्ञः शंकुः स्यात् । कोणशंकुत्रिज्य
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घ्यायः ३. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
योर्वर्गान्तरान्मूलं दृग्ज्योच्यते । अत्रोपपत्तिर्बीजैकवर्णमध्यमाहरणेन । तत्र " यावत्तावत कल्प्यमव्यक्तराशेर्मानं तस्मिन् कुर्वतेोद्दिष्टमेव । तुल्यौ पक्षौ साधनीयौः प्रयत्नात्त्य त्तत्वाक्षिप्ता वापि संगुण्य भक्त्वा ॥ " इत्युक्तेः । समौ पक्षौ साध्यौ तदर्थ कोणशंकुमानम् । या १ द्वादशकोटौ पलभा भुजः शंकुकोटौ को भुज इति कोणशंकुतलम् । या. प. १२ । अग्रयायुतं दक्षिणगोले भुजः । या. प. अ. १३' । उत्तरगोलेऽग्रयान्तरितं भुजस्तत्र समवृत्तादुत्तरं शंकृतलोनामा भुजः । या. प. अ. १३ । समवृत्ताद्दक्षिणेऽग्रोन शंकुतलं भुजः । या. प. १ ० ३ । कोणस्य दक्षिणोत्तरपूर्वापरसूत्रमध्यत्वाद्धजतुल्यसमचतुरस्रे कर्णः स्वस्वस्तिकात् कोणस्थसूर्यनतांशानां ज्यादृग्ज्येति भुजवर्गे द्विगुणदृग्ज्यावी दक्षिणगोले । याव. प. व. १. या. प. अ. २४ अव ७३४ उत्तरगोले । याव. पव. १ या. प. अ. २४ अव ४ । अयं कोणशंकुः । या १ वर्गयाव - १ हीनत्रिज्या वर्गरूपदृग्ज्यावर्गयाव त्रिव १ सम इति पक्षौ समच्छेदीकृत्य च्छेदगमे पक्षयोः शोधनार्थ न्यासः ।
दक्षिणगोले { याव॰ पव. १ या. प. अ. २४ अव १४४
}
उत्तरगोले {
याव. पव. १ या. प. अ. २४. अव १४४ / या. ७२ या. त्रिव. ७२
अथ " एकाव्यक्तं शोधयेदन्यपक्षादूपाण्यन्यस्येतरस्माच्च पक्षात् " इत्युक्तेनाव्यक्तपक्षेऽव्यक्तवर्गस्थाने द्विसप्ततिपलभावर्गयोगो यावत्तावद्वर्गगुणोव्यक्तस्थाने पलभाग्रा चतुर्विंशतिघातो यावत्तावद्गुणो दक्षिणगोले धनमुत्तरगोले ऋणम् । रूपपक्षे तु चतुश्च - त्वारिंशदधिकशतगुणितेनाग्रावर्गेण हीनो द्विसप्ततिगुणात्रिज्यावर्गस्तत्र द्विसप्ततिगुणत्रिज्यावर्गश्चतुश्चत्वारिंशदधिकशतगुणितेन त्रिज्यावर्गार्थेन न तुल्यत्वात्तुल्य गुणला -: घवार्थ तथैव धृतः । तत्राप्येकदैव गुणनार्थं त्रिज्यावर्गार्थमग्रावर्गेण हीनं चतुश्चत्वारिंशदधिकशतगुणमिति सिद्धम् । सार्धराशिंज्याधिकाग्रायां तु त्रिज्यावर्गाधन हीनोऽग्रावर्गश्चतुश्चत्वारिंशदधिकशतगुण ऋणम् । “ अव्यक्तवर्गादि यदावशेषं पक्षौ तदेष्टेन निहत्य किश्चित् । क्षेप्यं तयोर्येन पदप्रदः स्यादव्यक्तपक्षोऽस्य पदेन भूयः । व्यक्तस्य पक्षस्य समक्रियैवमव्यक्तमानं खलु लभ्यते तत् ॥ " इत्युक्तेः पक्षयोर्मूलार्थमव्यक्तवगौनापवर्तः कार्यः । वर्गीकस्तु द्विसप्ततियुतः पलभावर्गस्तेनापवर्तितेऽव्यक्तपक्षे प्रथमस्थाने यावत्तावद्वर्गः सिद्धः । द्वितीयस्थाने द्विमितगुणकस्य पृथक्करणादर्कनी विषुवच्छायाग्रज्यया गुणिता तथा भक्ता फलाख्यमित्युक्त्या फलं द्विगुणं यावत्तावगुणं दक्षिणोत्तरगोलक्रमेण धनमृणम् । रूपपक्षेऽपवर्जिते करण्याख्यं सार्द्धराशिज्यातोऽग्रायामूनाधिकायां धनमृणम् । ततोऽपि मूलार्थपक्षयोरव्यक्तांकार्धरूपफलस्य वर्गों योजितः ।
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(८४) सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयsतत्राव्यक्तपक्षयोजनपूर्वकमूलग्रहणे प्रथमस्थाने यावत्तावत् । द्वितीयस्थाने फलं दक्षिणात्तरगोलयोर्धनमृणम् । यथा । या १ फ १ । या १ फ। उत्तरगोलेऽव्यक्तस्यर्णत्व था ; फ १ । उभयथा मध्याव्यक्तनाशसम्भवात् । रूपपक्षे तु फलग्रहणे तद्वर्गसंयुक्तकरणीपदमिति सार्धराशिज्यानधिकाग्रायामधिकायां तु करण्यूनस्य फलवर्गस्य मूलम् । तथा च त्रिज्यावर्धितोऽग्रज्यावर्गोनादित्यत्र सार्धराशिज्याधिकायायामुक्तानुपपत्तावपि । “यत्र क्वचिच्छद्धिविधौ यदेह शोध्यं न शुद्धद्विपरीतशुद्धया। विधिस्तदा प्रोक्तवदेव किन्तु योगे वियोगः सुधिया विधेयः ॥” इति भास्करोक्तरीत्याग्र. ज्यावर्गोनादित्यत्राग्रावर्गेणावर्गाद्वा हीनादित्यर्थद्वयेन क्रमेण न्यूनाधिकाग्रासम्बन्धेन वा न क्षतिरिति ध्येयम् । अथ पुनः समशोधनार्थम्पक्षयोासः। दक्षिणगोले या१फ११करण्यूनफलवर्गपदस्य फलतो न्यूनत्वात्
या प१ तत्पक्षयोरपि न्यासः । या१फ१ अत्रैकाव्यक्तीमत्यादिना, । “शेषाव्यक्तेनोद्धरेद्रूप
या०प० शेषव्यक्तं मानं जायतेऽव्यक्तराशेः" इत्यनेन च प्रथमस्थाने पदं फलेन हीनमित्युपपनम् । द्वितीयस्थाने पदेन हीनं · फलमित्यृणकोणशंकुर्भगवतायं नोक्तः । ऋणस्य स्थितिविपरीतत्वात् । न ह्यूगोले स्थितिविपरीतमधोगोलेऽदृश्यमपि दृश्यते येन तत्कथनमावश्यकम् । नाप्यधोगोले दृश्यत्वात् तत्कथनापत्तिः ऊर्ध्वगोलस्थस्य च्छायासाधकत्वेन साधनात् तत्र च्छायासंभवादेवाप्रयोजकत्वात् । उत्तरगोले तु या१फ१/वा
या०५१ या?फ१ प्रथमस्थाने फलेन युतं पदमुपपन्नम् । द्वितीयस्थाने फलेनोनं पदमित्यृणया०पः। त्वान्नोक्तः । छायानुपयुक्तत्वात् । करण्यूनफलवर्गपदस्य फलतो न्यूनत्वात् तत्पक्षयोरापि न्यासः। या१फ.१८ वा या१फ१४ अत्र प्रथमस्थाने पदेन युक्तं फलं कोण
या० ५.१९ या०५१ शंकुरुपपन्नः । द्वितीयस्थाने पदेन हीनं फलं कोणशंकुरिति तद्व्यमुपपन्नम् । नन्विदं ततोर्ध्वगोले दिनार्ध एव कोणशंकुद्धयं दृश्यत्वाद्भगवता कथमुपेक्षितामति चेन्न । तत्र त्रिज्यावर्धित इत्यत्र व्यस्तशोधनात्फलेन हीनसंयुक्तं पदमित्यत्राप्युत्तरगोल एव होनसंयुक्तमित्यस्यावृत्त्या फलं पदेन हीनसंयुक्तमित्यर्थसिद्धर्भगवता तइयस्यानुपेक्षितत्वात् । समवृत्ताद्दक्षिणस्थत्वे कोणशंकुर्दिने पूर्वापरार्धक्रमेणाग्नेय्यां नैर्ऋत्यां . वोत्तरस्थत्वेनशान्यां वायव्यां वा भवतीति सर्वमुपपन्नम् । अत्र बीजक्रियोपपादकसूत्राणामुपपत्तिविस्तरभीत्या नोक्ता । सा त्वग्रजकृष्णदेवज्ञगुरुचरणरचितायां भास्करीयबीजटीकायां सम्यगुक्तावर्धयति । शंकुं: कोटिस्त्रिज्याकर्णस्ववर्गान्तरपदं गूज्या दृग्वृ
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ध्यायः ३. | संस्कृतटीका-भापाटीकासमेतः । (८५) त्तनतांशानां ज्येति तत्रिज्यावर्गविशेषान्मूले दृगुज्यत्युपपन्नम् ॥ २८ ॥ २९ ॥ ॥ ३० ॥ ३१ ॥ ३२ ॥ ___ भा० टी०-त्रिज्यावर्गाईसे (५९०९९२२ ) तात्कालिक मग्रज्यावर्ग वियोगकरके १४४ से गुणकरके जो फललाभ होगा तिसको शंकुवर्गाई (७२) संयुक्त विषुषच्छाया वर्गसे भागकरनेपर करणी होगी। तिसको अलगकर रखना चाहिये ॥ २८ ॥ २९ ॥ द्वादशगुणित विपुवच्छाया अग्रज्यासे गुणकरके पहले कहेहुये शंकुवर्गाई (७२) संयुक्त विषुवच्छायावगैसे भाग करनेपर फल होगा। इसका वर्ग भौर करणी योगकरके भूलकरनेसे जो हो तिससे दक्षिण गोलमें फलहीन और उत्तरगोलमें फल योग करनेपर कोणशंकु होगा । सूर्य दक्षिणमें हो, कोणशंकु, दक्षिणके दो के नाम और उत्तरमें होनेपर उत्तरके दो कोमि होगा ॥३०॥ ॥ ३१ ॥३२॥ अथैतच्छायाच्छायाकर्णधारानयनमाह
स्वशंकुना विभज्याते दृक्त्रिज्ये दादशाहते ॥
छायाकौँ तु कोणेषु यथास्वं देशकालयोः॥ ३३ ॥ कोणीयग्ज्यात्रिज्ये द्वादशगुणे दृग्ज्यासम्बन्धिकोणशंकुना भक्त्त्वा लब्धे दृगज्यात्रिज्याक्रमेण छायाच्छायाक! स्तः । तुकारादेव कोणेषु चतुर्यु देशकालयोः। यथा स्वं स्वमनतिक्रम्यति यथास्वं यथादेशं यथाकालं छायाच्छायाकौँ साध्यौ। अयमर्थः । कविदेशे चतुर्यु कोणेषु कविच कोणद्वये क्वचिच्च दिनार्ध एव कोणद्वय इत्यादिदेशका. लानुरोधेन यथायोग्यमिति । अत्रोपपत्तिः । प्रागुक्ता स्पष्टा च ॥ ३३ ॥
भा०टी०-तिसकावर्ग मोर त्रिज्यावर्गका अन्तर भूलकरनेसे दृग्ज्या होगी । द्वादशगुणिता दृग्ज्या और द्वादशगुणितत्रिज्या (४१२५६ ) कोण शंकुसे भाग करने पर इष्टस्थानमें यथासमयमें छाया और कर्ण होगी ॥ ३३ ॥ अथ दिकप्रदेशसम्बन्धेन च्छायाकर्णायुक्त्वा कालसंबधेन सार्धश्लोकाभ्यामाहत्रिज्योदक्चरजायुक्ता याम्यायां तद्विवर्जिता ॥
अन्त्या नतोत्क्रमज्योना स्वाहोरात्राधसंगुणा ॥ त्रिज्याभक्ता भवेच्छेदो लम्बज्यानोऽथ भाजितः ॥ ३४ ॥ त्रिभज्यया भवेच्छंकुस्तद्वर्ग परिशोधयेत् ॥
त्रिज्यावर्गात्पदं दृग्ज्या छायाकर्णौ तु पूर्ववत् ॥ ३५ ॥ उत्तरंगोले चरोत्पन्नया ज्यया चरज्यत्यर्थः । पूर्वचरानयने चरज्यायाश्चरज्यति सज्ञोक्तेः । युक्ता त्रिज्यान्त्या स्यात् याम्यगोले तया चरज्ययोना त्रिज्यान्त्या स्यात् । नतोत्क्रमज्योना सूर्योदयादिनगतघटयोर्दिनशेषघट्योर्वा दिनान्तिर्गता उन्न. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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(८६) सूर्यसिद्धान्तः
[तृतीयोऽतसज्ञास्ताभिरूनं दिनार्धे नतकालो घट्यात्मकस्तस्यासुभ्यो लिप्तास्तत्त्वयमैरित्यादिः विधिना मुनयो रंध्रयमला इत्यायुक्तोत्क्रमज्यापिण्डैोत्क्रमज्या । पञ्चदशघट्यधिकनते तु पञ्चदशघटातून नतस्य क्रमज्याखण्डैः क्रमज्या तया युक्ता त्रिज्योत्क्रमज्या भवति । तया हीनेत्यर्थः । स्वाहोरात्रार्धसंगुणा । गृहीतचरज्यासम्बन्ध्यहोरात्रवृत्तव्यासाई गुज्या तया गुणिता त्रिज्यया भक्ता फलं छेदसञः स्यात् । अथानन्तरं छेदो लम्ब.. ज्यया गुणितत्रिज्यया भाज्यः फलमिष्टकाले शंकुः स्यात् ।। तस्य शङ्कोर्वत्रिज्यावर्गाच्छोधयेत् । शेषस्य मूलं गुज्या । आभ्यां छायाको तु पूर्ववत् पूर्वोक्तरीत्या भवतः । अत्र च्छायाकौँ त्विति कोणच्छाया कर्णसाधनश्लोकान्तर्भागस्य ग्रहणाचलोकोक्तरीत्याभीष्टशंकुगुज्याभ्यां छायाकौँ साध्यावित्युक्तम् । अत्रोपपत्तिः। याम्योत्तरवृत्तो भागग्रहाधिष्ठितारात्रवृत्तसम्पातात् क्षितिजारात्रवृत्तसम्पातद्वयबद्धों दयास्तसूत्रक्षितिजसम्बद्धयाम्योत्तरवृत्तसूत्रसम्पातपर्यन्तमहोरात्रवृत्ते सूत्रं त्रिज्यानुरु.. दमन्त्या सा तूत्तरंगोले चरज्यायुता त्रिज्यादक्षिणगोले चरज्ययोना त्रिज्या । उन्मण्डलयाम्योत्तरसूत्रावध्यहोरात्रवृत्तन्यासा त्रिज्यात्वात् । उन्मण्डलस्योत्तरदक्षिणक्रमेण क्षितिजादूर्वाधःस्थत्वेन तद्याम्योत्तरसूत्रयोर्मध्ये चरज्यात्वाच्च । ग्रहाहोरात्रवृत्ते याम्यो चराहोरात्रवृत्तसम्पातादुभयत्र नतवट्यन्तरेण स्थाने तत्सूत्रं नतकालस्थसम्पूर्णज्या । तन्मध्यादुर्घसूत्रं शररूपं नतोत्क्रमज्या । तया हीनान्त्या ग्रहस्थानादहोरात्रवृत्त उदयास्तसूर्यपर्यन्तमृजुसूत्रं त्रिज्यानुरुद्धमिष्टान्त्या । ततुल्या याम्योत्तरोर्ध्व व्याससूत्रा न्तर्गता सा गुज्या प्रमाणसाधितेष्टहतिः । युज्यागुणात्रिज्याः भक्ताफलं छेदः । अस्मात्रिज्याकर्णलम्बज्याकोटिस्तदेष्टहतिकर्णे काकोटिरित्यनुपातेनेष्टशंकुः। अस्माद्दृग्ज्याच्छाया तस्कर्णा उक्तरीत्यासिद्धयन्तीत्युक्तमुपपन्नम् ॥ ३४ ॥ ३५ ॥
मा० टी०-उत्तर दिशामें सूर्य होनेपर विज्यासे चरज्याको योग और दक्षिणमें रहनेसे त्रिज्यासे चरज्याका वियोग करनेपर मन्त्य होताहै मध्याह्नसे इष्टकाल वियोग करके अंशादिमें परिवर्तन करनेसेनत होताहै, नतके अनुसार उत्क्रमज्या अन्तसे वियोग करके स्वाहोरात्रार्द्ध व्यासद्वारा गुणकरके त्रिज्या (३४३८) से भाग करनेपर छेद होताहै ।छेदको लम्बज्यासे गुणकरके त्रिज्यासे माग करनेपर शंकु होगा। विज्यावर्ग ( ११८१९८४४ ) से शंकु : वर्ग(१४४) वियोगकरके मूगकरनेपर दृग्ज्या होतीहै । इसकी छाया मोर कर्ण पहले जैसे होंगे ॥ ३४ ॥ ३५॥ अथ श्लोकत्रयेण च्छायाकर्णाभ्यां नतकालानयनमाह
अभीष्टच्छाययाभ्यस्तात्रिज्या तत्कर्णभाजिता ॥ दृग्ज्या तदर्गसंशुद्धात्रिज्यावर्गाच्च यत्पदम् ॥ ३६ ॥
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ध्यायः ३.] सस्कृतरीका-भाषाटीकासमेतः । (८७
शंकुः सत्रिमजीवानः स्वलम्बज्याविभाजितः ॥ छेदः स त्रिज्ययाभ्यस्तः स्वाहोरात्र्याईभाजितः ॥ ३७॥ उन्नतज्या तया हीना स्वान्त्या शेषस्य कामुकम् ॥
उत्क्रमज्याभिरेवं स्युः प्रापश्चार्धनतासवः ॥ ३८॥ अभीष्टकालिकच्छायया गुणिता त्रिज्यागृहीतच्छायायाश्छायाकर्णेन भक्ता फलहगूज्याया वर्गेण हीनात्रिज्यावर्गाद्यत्सङ्ख्यामितं मूलम् । चकारो यत्तदोर्नित्यसम्बन्धात्तच्छब्दपरः । अभीष्टशंकुः । स इष्टशंकुस्त्रिज्यया गुणितः स्वदेशीयलम्बज्यया भक्तः फलं छेदः । स च्छेदस्त्रिज्यया गुणितो घुज्यया भक्त उन्नतकालस्य ज्या विल क्षणा । यद्धनुरुन्नतकालो न भवति । तयानीतयोन्नतज्यया हीना स्वान्त्या स्वाज्यासम्बद्धचरज्यायावगतान्त्या । अवशेषस्यौत्क्रमज्याभिर्मुनयो रंध्रयमला इत्यायुक्तोत्क. मज्यापिण्डैर्धनुः । अवशेषस्य त्रिज्याधिकत्वे तु यदधिकं तस्य क्रमज्यापिण्डैधनुश्चतु:पञ्चाशद्युक्तमुत्क्रमधनुर्भवति । एवं प्रकारेण सिद्धाङ्का दिनस्य पूर्वार्धापरार्धयोन्तकालासवो भवन्ति । अत्रोपपत्तिः पूर्वोक्तव्यत्यासात्सुगमा । तत्र च्छेदस्त्रिज्यापरिणत इष्टान्त्या तस्या ज्यात्वासम्भवः । अवध्युदयास्तत्सूत्रस्याहोरात्रवृत्तव्याससूत्रत्वाभावादित्युन्नतज्याकारेण स्वल्पान्तरत्वेन दर्शनादुन्नतज्येत्युक्तम् । अत एव भास्कराचार्यैः “इष्टान्त्यकामुन्नतकामौर्वीतुल्या प्रकल्प्या” इत्याद्युक्तम् । तद्धनुरसुनामुन्नतकालत्वापत्त्या तया हीनेत्यादिमागस्य व्यर्थत्वापत्तेरिति दिक् ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥
भा० टी०-इष्टच्छायाको त्रिज्यासे गुणकरके तिसको कर्णद्वारा भाग करनेपर दृग्ज्या होता है । त्रिज्यावर्गसे दृग्ज्यावर्ग वियोग करके मूल करनेसे शंकु होताहै । शंकुको विज्या से गुणकरके स्त्रीय सम्मज्यासे भाग करनेपर छेद होताहै । छेदको त्रिज्यास गुणकरके स्वांहोरात्रा से भाग करके स्त्रीय अन्त्यसे वियोग करनेपर शेष उन्नतज्या होगी। तिस्से धनुकरे । उन्नतज्याके उत्क्रमज्याके परिमाणसे धनकरनेपर पूर्वापर नति प्राण सिद्ध होगा ॥ ३६ ॥ ३७ ॥ ३८ ॥ अथेष्टकालिकाग्रया क्रान्तिज्याद्वारा सूर्यसाधनं सार्धश्लोकेनाह
इष्टापाघ्री तु लम्बज्या स्वकीगुलभाजिता ॥ क्रान्तिज्या सा त्रिजीवानी परमापक्रमाद्धृता ॥
तचापं भादिकं क्षेत्र पर्दस्तत्र भवो रविः ॥ ३९ ॥ इष्टकाालकाकाग्रय गुणिता लम्बज्या । तुकारादग्रज्याया निरासः । तात्कालिकच्छायायाः काँगुलसङ्ख्याभिर्मक्ता फलं क्रान्तिज्याः । सा क्रान्तिज्या त्रिज्यया
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(८८) सूर्यसिद्धान्तः
[तृतीयोऽगुणितापरमक्रान्तिज्यया मक्ता फलस्य धनराश्यादिकं क्षेत्रं स्थानं भुज इति यावत् । पदैश्चतुर्भिश्चिद्वज्ञातैस्तत्र पदे भव उत्पन्नः । यथोक्तरीत्या कर्कादौ प्रोज्झ्य चक्रार्धे त्यायुक्त्या सूर्यः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । कर्णाग्रे कर्णाग्रा लभ्यते त्रिज्याग्रे केत्यग्रा । त्रिज्याकर्णे लम्बज्याकोटिस्तदानाकर्णे काकोटिरित्यनुपातेन त्रिज्ययोस्तुल्ययोगुणहरयो शादिष्टकर्णाग्रागुणितलम्बज्याकर्णभक्ता क्रान्तिज्या । अस्यासूर्यानयनं प्रागेवाक्तमिति पुनरुक्तत्वात्सुगमतरम् ॥ ३९ ॥ ___ भा० टी०-इटाग्रसे लम्बन्धाको गुण करके अपने कर्णागुलसे भाग करनेपर रविक्रान्ति ज्या होगी । तिसको त्रिज्यासे गुणकरके परमापक्रमज्यासे भाग करनेपर लब्धज्यासंख्याके धनु निर्णय करनेसे (यह जाना हुआ रहनेसे कि चक्रके कोन पदमें है ) रविका (सायन) स्फुट होताहे ॥ ३९॥ अथ माभ्रमणमाह
इष्टेऽह्निमध्ये प्रापश्चाद्धृते बाहुबयान्तरे ॥
मत्स्यद्रयान्तरयुतस्त्रिस्पृकसूत्रेण भाभ्रमः ॥ ४० ॥ अभिमते दिवसे पूर्वविभागे पश्चिमविभागे बाहुत्रयान्तरे पूर्वापरसूत्राभुजत्रयान्तरे स्थाने धृते । अयमर्थः। पूर्वापरसूत्रस्य मध्यस्थानाडुजांगुलान्तरेण चिह्नमेकं द्वितीयं पूर्वविभागे पूर्वापरसूत्रात्कालान्तरीयभुजांगुलान्तरेण चिह्नतृतीयं पश्चिमविभागे पूर्वा परसूत्रादितरकालान्तरीयभुजांगुलान्तरेण चिह्नम् । एवमेकस्मिन् दिवसे कालत्रये स्वभुजान्तरेण पूर्वापरसूत्राचिह्नत्रये कृते सतीति । मत्स्यद्वयान्तरयुतेरव्यवहितचिह्नाभ्यां प्रत्येकं मत्स्यमुत्पाद्येति मत्स्यद्वयस्य प्रत्येकमुखपुच्छगतरूपमध्यसूत्रयोः स्वमार्गानुसारेण प्रसारितयोर्योगो यस्मिन् स्थाने तस्मादित्यर्थः । त्रिस्पृक्सूत्रे । चिह्नत्रयलग्नतुल्यसूत्रमितितेन व्यासार्धेन भाभ्रमच्छायामार्गमण्डलं भवति । प्रथमान्तिमकालान्तर्गतकालिकच्छायाग्रं तद्वृत्तपारधौ भवतीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । प्राच्यपरसूत्राझुजान्तरे छायाग्रामति छायाप्रत्रयं ज्ञात्वा तत्स्पृष्टपरिधिवृत्तस्य मध्यज्ञानार्थमव्यवहितचिह्नद्वयमत्स्याभ्यामव्यवहितचिह्नमध्यस्य दक्षिणोत्तरसूत्रे भवतः । तत्र वृत्तपरिधिप्रवेशेभ्यः केन्द्रस्य तुल्यान्तरत्वेनाव्यवहितचिह्नमध्यस्थानस्यावश्यं परिधिसक्तत्वात्तत्सूत्रमाप केन्द्रे लग्नं भवति । एवं प्रत्येकाव्यवहितचिह्नमध्यसूत्रयोर्योगस्तद्वृत्तकेन्द्रं सिद्धम् । मध्यरेखाज्ञानार्थ मत्स्यद्वयं तत्केन्द्रावृत्तं भागत्रयस्पृग्भवतीति किं चित्रम् । यद्यपि छायाग्रस्य सूर्यचलनानुरोधेन चलनात्तस्य तु वृत्ताकारासम्भवास्प्रतिक्षणयुरात्रवृत्तभेदात् । अन्यथा क्रान्तिभेदानुपपत्तेरित्येकवृत्तपारधौ छायाग्रभ्रमणं न सम्भवति । अतएव भास्कराचार्यैः ‘भत्रितयागाभ्रमणं न सत्' इत्युक्तम् । तथापि साधितभाग्राणामवश्यमेकवृत्तस्थत्वसम्भवात्तदन्तर्वतिनां छायाग्राणां
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ध्यायः ३. ]
संस्कुतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
(८९)
तत्परिधिस्थत्वं स्वल्पान्तरत्वादङ्गीकृत्य भगवता कृपालुना छायाग्रदर्शनं विनापि छायाप्रस्थानज्ञानमन्यकालिकच्छायाग्रस्थानयोर्दर्शनेनाभीष्टसमये मेघादिनाच्छादिते खौ राश्यादिस्सूर्यज्ञानोपजीव्याग्राभुजादिज्ञानार्थमुक्तम् । बहुकालान्तरितभाग्रहणे स्थूलम् । अल्पान्तरिते किञ्चित् सूक्ष्ममिति ध्येयम् ॥ ४० ॥
मा०टी० - इष्ट दिनके मध्य में और पूर्वमें व परमें तीन चिह्न करके. मत्स्यद्वयगत रेखाके संयोगस्यान से तीन चिह्नाको स्पर्श करके वृत्तकल्पना करनेसे छायाशेष, भ्रमणमार्ग निर्णीत होता है ( वास्तविक सुक्ष्मविचार करके छापाय दूसरे मार्ग में भ्रमण करत ह) ॥ ४० ॥
अथ कालज्ञानमुक्त्वा तदुपजीवकफलादेशाद्युपयुक्तलग्नज्ञानं विवक्षुस्तदुपयुक्त स्वोदयज्ञानार्थं मेषादित्रयाणां लकोदयासुसाधनपूर्वकतन्निषंधनं श्लोकाभ्यामाह
त्रिभद्युकर्णार्धगुणाः स्वाहोरात्रार्धभाजिताः ॥ क्रमादेकद्वित्रिभज्यास्तच्चापानि पृथक् पृथक् ॥ ४१ ॥ स्वाधोधः परिशोध्याथ मे पालङ्कोदयासवः ॥ खागाष्टोऽर्द्धगोऽगेकाः शत्र्यंकहिमांशवः ॥ ४२ ॥
एकद्वित्रिभज्याः एकराशिज्या द्विराशिज्या. त्रिराशिज्यास्त्रिराशिद्युज्यया गुण्याः क्रमात्स्वक्रान्तिज्यासम्बन्धिद्युज्याभिर्माज्याः । फलानां धनूंषि भिन्नभिन्नस्थाने स्थाप्यानि । स्थानद्वये स्थाप्यानीत्यर्थः । अनन्तरं स्वाधोऽधः स्वादधोऽध एकराशिज्यासम्बन्धिफलं यथास्थितं ततः प्रथमफलं द्वितीयफलाद्वितीयफलं तृतीयफलान्यूनीकृत्य पृथगनुक्तौ प्रथमफलं द्वितीयफलान्यूनं कृतं सद्दयोः फलयोर्मार्जनात् तृतीये शोध्यासम्भवः । प्रथमस्य ज्ञानासम्भवश्चेति प्रथमद्वितीययोः पृथक् स्थापनमावश्यकम् । अतएव न त्रिधा पृथगित्युक्तम् । मेषात् मेषमारभ्य राशित्रयाणां लंकोदयासवो भवन्ति । प्रथमफलं मेषस्योदयासवः द्वितीयोनतृतीयंफलं मिथुनस्योदयासव इत्यर्थः । नियतत्वात्तन्मान नमाह--खागाष्टय इति । मेषमानं सप्ततियुतं षोडशशतं वृषमानं पञ्चोनमष्टादशशतम् । मिथुनमानं पञ्चत्रिंशदधिकमेकोनविंशतिशतमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । सिद्धान्तशिरोमण "मेषादिजीवाः श्रुतयोऽववृत्ते तद्भूमिजे क्रान्तिगुणा भुजाः स्युः । तत्कोटयः स्वद्युनिशाख्यवृत्ते व्यासार्द्धवृत्ते परिणामितानाम् ॥ चापेषु । तासामसवस्ततो ये तेऽधोविशुद्धा उदया निरक्ष ॥” इति । तत्स्वरूपोत्तत्याविज्याकर्णे त्रिराशिद्युज्या कोटिस्तदैकद्वित्रिराशिज्याकर्णेषु काइत्यनुपातेन कोटयो युज्याप्रमाणेनाहोरात्रवृत्ते तदासुकरणार्थं त्रिज्या - प्रमाणेन साध्या इति युज्याप्रमाणेनैतास्तदा त्रिज्याप्रमाणेन का इत्यनुपातेन त्रिज्ययोर्गु
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( ९०
सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयोऽ
हरयोस्तुल्यत्वेन नाशादेकादिराशिज्याखिराशिद्युज्यया गुण्याः स्वद्युज्यया भक्ता इत्युपपन्नाः। आसां धनेष्वेकादिराशीनामुदयासवस्तत्र प्रत्येकराश्युदयासुज्ञानार्थं स्वाधोऽधः शोधनमित्युपपन्नं त्रिभद्युकर्णार्धगुणा इत्यादिलंकोदयासव इत्यन्तम् । अत्र लङ्कापर्द निरक्षदेश परं व्याख्येयम् । सर्वनिरक्षदेशे क्षेत्र संस्थानस्योक्तस्य तुल्यत्वेनोक्तरीत्यान्यनि रक्षदेशे तत्सिद्धौ बाधकाभावात् । अन्यथा' स्वनिरक्षदेशे तत्साधनार्थं ग्रहवद्देशान्तरसंस्कारकरणापत्तेः। निजोदयकराणार्थ: स्वनिरक्षदेशीयानां चरसंस्कारस्य समनन्तरमे वोक्तत्वादिति दिक् । खागाष्टय इत्यादावुक्तप्रकारगणितकर्मैवोपपत्तिः ॥ ४१ ॥४२॥
भा०टी०-एक, दो और तीन राशिकी ज्याको क्रमशः त्रिराशिद्युज्या ( १३८७ ) से गुण करके निज : २ राशिको अहोरात्रार्द्धज्यासे भाग करके धनुर्निर्णयकरे | पहले का, 'द्विराशिके प्रथमका वियोग और त्रिराशिके फलसे द्विराशिफल हीन करनेपर कलामे - बादिका लंकोदय प्राण होगा । प्राणसंख्या मेष १६७०, वृष १७९५, मिथुन १९३५ है || ४१ ॥ ४२ ॥
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व्यथैभ्यः स्वदेशोदयासून् श्लोकार्थेनाह
स्वदेशचरखण्डीना भवन्तीष्टोदयासवः ॥ ४३ ॥
एते सिद्धाः । स्वकीयैर्देशसम्बन्धेन यान्युत्पन्नानि चरखण्डानि चरानयनप्रकारेणैकादिराशीनां चराण्यानीयोक्तरीत्या स्वाधोऽधः शोधितानि मेषादिमिथुनान्तानां राशीनां चरखण्डानि भवतिः । तैरूनाः सन्त इष्टोदयासवश्वरखण्डसम्बन्धिदेशे मेषादित्रयाणामुदयासवो भवन्तीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । " मेषादेर्मिथुनान्तो नाडीभिस्तिथिमिताभिरुइत्ते '|' लगाते कुजे तदधःस्ये प्रथमं ताभिश्वरोनाभिः ॥ " इति भास्करोक्त्या प्रत्ये कोदयासुज्ञानं प्रत्येकचरणेति । प्रत्येकचरं तु चरखण्डमित्युपपन्नम् ॥ ४३ ॥ मा०टी० - इससे स्वदेश चरखंड वियोग करनेपर इष्टदेशका उदयप्राण होगा । पीछे से क्रमानुसार कोदयप्राणके साय पश्चात् से चरखंडयोग करनेपर कर्कादिका उदयप्राण होगा ॥ ४३ ॥
:
4
अथावशिष्टराशीनामुदयानाह
व्यस्ताव्यस्तैर्युताः स्वैः स्वैः कर्कटाद्यास्ततस्त्रेयः ॥ उत्क्रमेण षडेवेते भवन्तीष्टास्तुलादयः ॥ ४४ ॥
ततोऽनन्तरमेते मेषादिलङ्कोदयासवो व्यस्ता मिथुनवृषमेषक्रमेण स्थापिताः स्वैः स्वैर्मेषादिचर खण्डकैस्त्रिभिव्यस्तैरुदयक्रमेण स्थापितैर्युताः कर्कादयस्त्रयः कन्यान्ताः क्रमेण ज्ञातोदयासु : माना भवन्ति । एवं षण्णामुक्त्वावशिष्टानामुदयासुज्ञानमाह -
१ कर्कटाद्याः पुनस्त्रय इत्ते पाठान्तरम् । २ मवन्तीष्टोदयासब इति वा पाठः ।
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घ्यायः ३.] संस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः। (९१) उत्कृमणोत । एत उक्तमेषादयः कन्यान्ताः प.सङ्ख्याका उत्क्रमेण कन्यासिंहकोंद्युत्क्रमेण । एक्कारो मेषवृषादिक्रमनिरासार्थकः । तुलादयः षड्राशय इष्टाज्ञातस्वदेशोदयासुमाना भवन्ति । तथाच कन्योदयस्तुलायाः। सिंहोदयो वृश्चिकस्य । कौदयो धनुषः । मिथुनोदयो मकरस्य । वृषोदयः कुम्भस्य । मेषोदयो मीनस्यति सिद्धम् । अत्रोपपत्तिः । “कन्यान्ताद्धनुषोऽन्तस्तिथिमितनाडीभिरुदलये । लगति कुजे चौद्धस्थे पश्चात्तामिश्चराढ्याभिः ॥ तद्रहितैः खहुताशैः कन्यान्तो वा झषान्तो वा । चरखण्डैरूनाढ्यास्तेन निरक्षोदयाः स्वदेशे स्युः॥” इति भास्करोक्त्या सुगमा ॥ ४४ ॥ मा० टी०-मेषादि ६ राशिका उदयप्राण, पीछेसे तुलादिका उदयप्राण होगा ॥ ४४ ॥ अथाभीष्टकाले ऋणधनलग्नसाधनार्थ गतभोग्यासूनाह
गतभोग्यासवः कार्या भास्करादिष्टकालिकात् ॥
स्वोदयासुहता भुक्तभोग्या भक्ताः खवाह्निभिः॥४५॥ इष्टकाले चालनेन सञ्जातात्सूर्याद्गतभोग्यासवः । गतासवो भोग्यासवश्च साध्याः । कथं साध्या इत्यत आह-स्वोदयासुहता इति । भुक्तभोग्याः सूर्याक्रान्तराशेर्यै भुक्तभागाः । सूर्यस्य भागाद्यवयवात्मका एते त्रिंशतः शुद्धा भोग्यभागाः। सूर्याक्रान्तराशेः स्वदेशोदयासुभिर्गुणितास्त्रिंशता भक्ता गतासवो भोग्यासवः क्रमेण भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । यस्मिन् काले लग्नं साध्यं तस्मिन्काले सूर्यः साध्योऽन्यथा तात्कालिकलनासिद्धिर्न स्यात् । अथैतदर्थ सूर्याक्रान्तराशेर्भुक्तासवो भोग्यासवश्च साध्याः सूर्योदयातत्कालपर्यन्तं पूर्वाग्रिमकालयोस्तद्राशेर्लग्नत्वात् । अनन्तरं च राश्युदयासुगणनया लग्नज्ञानस्य सुशकत्वाच्च । अतस्त्रिंशद्भागैरुदयासवस्तदा भुक्तभोग्यभागैः कइति भुक्तभोग्यकालासवः अत्रोदयकालासूनां सम्पातावधि राशिग्रहणेनोत्पन्नत्वात्सूर्योऽयनांशसंस्कृतो ग्राह्यः। अन्यथा सूर्याक्रान्तराशेरुक्तादयसम्बन्धाभावादसंगततापत्तेः । अत एव “युक्तायनांशादपमः प्रसाध्यः कालौ च खेटात् फल भुक्तभोग्यौ " इति भास्कराचार्योक्तं संगच्छते । ननूक्तरीत्यौदयिकाौदेव भुक्तभोग्यासवः साध्याः सूर्योदयातत्कालावधि तद्राशेर्लग्नत्वात् । नहीष्टकाले तद्राशिर्लग्नं येन तद्गतभोग्यासवः साधवः । नापि तात्कालिकार्कात्सूर्योदयावधिकास्ते तात्कालिकार्कस्य सूर्योदयकालिकत्वाभावात् । तत्कथं भगवता सर्वज्ञेन भास्करादिष्टकालिकादित्युक्तामति चेत् । उच्यते । उदयानां नाक्षत्रत्वान्नक्षत्रघट्यो ग्राह्यास्तास्त्वसिद्धाः । सर्वत्र साधितघटीनां सावन त्वात् । तासां नाक्षत्रीकरणमावश्यकमन्यथा तद्गणनानुपपत्तेः । तदर्थ ग्रहोदयप्राणहता इत्यायुक्त्या षष्टिसावनघटीषु गतिकलोत्पन्नासवोऽधिका. नाक्षत्रत्वार्थ तदेष्टसावनघटीषु कियदधिकमित्यनुपातेनागतफलयुक्ताः सावनाः कार्याः तत्रागतफलस्य क्षेत्रा
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(९२) सूर्यसिद्धान्तः।
[ तृतीयोःवयवोदयासुभिरष्टादशशतकलास्तदागतासुभिः का' इत्यनुपातसिद्धाष्टादशशतोदयास्वो गुणहरयोस्तुल्यत्वेन नाशादवशिष्टचालनस्वरूपः सूर्य योजितः । सावनास्त्वविकृता एव स्थिताः । तथा चेष्टकालिकोऽर्को यत्काले लग्नं तत्कालात्पूर्वगृहीतसावनघट्यो नाक्षत्रा एव भवन्तीति भगवता सम्यगुक्तम् । भास्करादिष्टकालिकादिति । अनेनैवाभिप्रायेण भास्कराचाय्यैरप्युक्तम् “लग्नार्थमिष्टघाटका यदि सावनास्तास्तात्कालिकाककरणेन भवेयुरायः। आर्योदया हि सदृशीभ्य इहापनेयास्तात्कालिकत्वमथ न क्रियते यदायः ॥” इति ॥ ४५ ॥
भा० टी०-उदयमान करके तिसकालके ( सायन ) रविस्पष्ट के गत और भोग्य मंशादि पूरण करके ३० भोग्य करनेपर गत और भोग्य मासव होगा ॥ ४५ ॥ अथाभीष्टघटिकाभ्य ऋणधनलग्नसाधनं श्लोकाभ्यामाह
अभीष्टपटिकासुभ्यो भोग्यासून प्रविशोधयेत् ॥ तद्वत्तदेष्यलग्नासून यातांस्तथोक्रमात् ॥१६॥ शेषं चत्रिंशताभ्यस्तमशुद्धन विभाजितम् ॥
भागहीनं च युक्त च तलग्नं क्षितिजे तदा ॥४७॥ अभीष्टकाले याः सूर्योदयघटिकास्तासामसुभ्यो भोग्यासून् शोधयेत् । तदनन्तरं तदेष्यलग्नासून् । सूर्याक्रान्तराशेरग्रिमराशय एष्यलग्नानि । तेषामुदयासूनपि तहकमेण शोधयेत् । एवमुक्तरीत्या शेषघटिकासुभ्यो यातान्भुक्तासून्भुक्तराश्युदयासूंश्च व्यस्तकमात्तथा शोधयेत् । यो राश्युदयो न शुद्धयति सोऽशुद्धस्ते विंशता गुणितं शेष भक्तम् । चेदित्यनेन शेषाभावे क्रिया न कार्या शून्यफलसिद्धेरिति सूचितम् । फलेन भागादिना भुक्तसम्बद्धन हीनं चकारादशुद्धराशिसङ्ख्यामानं भोग्यसम्बद्धभामादिफलेन युक्तं चकारादन्तिमशुद्धराशिसयामानं तदा गतराश्यादिमानसम्वन्धिसम्पातावधिकक्रांतिवृत्तैकप्रदेशरूपं तदाभीष्टकाले क्षितिजेक्षितिजवृत्तपूर्वविभांगे लग्नं समसूत्रसम्बन्धेन लग्नस्वरूपोक्त्याभीष्टकाले तल्लग्नं स्यादित्यर्थः । फलादेशार्थ ग्रहाणां रेवतीयोगतारासन्नावधितो ग्रहात् तत्पंक्तिस्थलग्नस्यापि फलादेशार्थ तत एव समुषितं ग्रहणमित्यागतलग्नसम्पातावधिकमयनांशैर्व्यस्तं संस्कुर्यादिति स्वतः सिद्धमिति नोक्तम् । नच पूर्वमेव सूर्यस्यायनांशसंस्कारानुक्त्या लग्नमपि यथास्थितमित्ययनांशव्यस्तसंस्कारोऽनुक्तः संगत इति वाच्यम्। स्थूलत्वाल्लग्नार्थं सूर्येऽयनांशसंस्कारस्तस्य तत्संस्कृतादहात्क्रान्तिच्छायाघरदलादिकमित्यत्रादिपदसंगृहीतत्वाच । अथ भगवतायनांशव्यस्तसंसकारः कण्ठेन नोक्त इति लग्नं सम्पातावधिकमेव फलादेशार्थे गृहीतम् । सूर्यस्य तु लग्नाथमयनांशसंस्कारस्यावश्यकत्वात् । उदयानां सम्पातावधिकत्वादिति चेन्मैवम् । “भाग
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ध्यायः ३] संस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः । (९३) हीनंच युक्तं च तल्लग्नं क्षितिजे तदा" इत्यर्धस्यावृत्त्याग्रिमश्लोकादिस्थप्रापश्चादित्यस्यावृत्त्या चे प्राक्पश्चाचक्रचलने भागैरयनांशैः क्रमेण हीनं युक्तं लग्नं स्यादित्यर्थे च भगवतः कण्ठोक्तेः सिद्धत्वाच्च । अत्रोपपत्तिः । अभीष्टघटिकासुभ्यो भोग्यगतासुशोधने सूर्याक्रान्तराशिर्लग्नं नेति ज्ञातम् । ततोऽग्रिमपश्चाद्राश्युदयशोधने शुद्धो राशिर्लग्नं नेति ज्ञातम् । ततो यो राश्युदयो न शुध्यति स एव राशिरभीष्टकालेक्षितिजे लग्न इति। तस्य को भागो लग्न इति ज्ञानार्थमशुद्धराश्युदयासुभिस्त्रिंशद्भागास्तदा शेषासुभिः क इत्यनुपातेन भुक्तभोग्यक्रमेण लग्नराशे ग्यभुक्तभागादिकं सिद्धम् । तत्र भोग्यभागास्त्रिंशतः शुद्धा गता भागा लग्नराशेर्भवन्तीत्यशुद्धा राशिसंख्यातो भोग्यभागा शुद्धा लग्नं भवति । भुक्तभागाश्च भुक्तराशिमंख्यायां युक्ता लग्नं भवति । अयनांशव्यस्तसंस्कारो ग्रहपंक्तिस्थत्वार्थम् । अन्यथा कलादेशार्थ ग्रहा अयनांशसंस्कृता ग्राह्या इति सर्व निरवद्यम् ॥ ४६॥ ४७ ।। __ भा० टी०-स्वाभीष्ट धटिकाके प्राणसे भोग्य वियोग करे | फिर क्रमानुसार पीछे २ की रशिके प्राण जबतक वियोग होसके, करे शेषको ३० तीससे गुणा करके, शोध्यराशिकी प्राणसंख्यासे भाग करनेपर जो भशादि होंगे, सो गतराशिकी संस्थासे मिलानेपर (सायन) लग्न स्पष्ट होगी ॥ ४६॥ ४७॥ अथ प्रसङ्गान्मध्यलग्नानयनं लग्नानयनविशेषसूचनार्थमाह
प्राक्पश्चानतनाडीभिस्तस्मालंकोदयासुभिः॥
भानी क्षयधने कृत्वा मध्यलयं तदा भवेत् ॥ १८ ॥ दिनार्धान्तर्गतदिनगतशेषहीनं दिनार्धे क्रमेण प्राक्पश्चिमं नतं राध्यान्तर्गतरात्रिशेषगतयुतं दिनार्धं प्रापश्चिमनतं जातकपद्धतौ . प्रसिद्धम् । नतघटिकाभिस्तस्माचात्कालिकसूर्यात् । निरक्षदेशराश्युदयासुभिः पूर्वोक्तप्रकारेण सिद्धराशिभागादिकं प्रापश्चिमनतक्रमेण सूर्ये क्षयधने हीनयुते कृत्वा तदाभीष्टकाले मध्यलग्नं दशमलग्नं स्यात् । अयमभिप्रायः । प्रनते नतघट्यसुभ्यः सूर्याक्रान्तराशेनिरक्षोदयासुभिर्भुक्तासन्विशोध्य तत्पूर्वराशीनां निरक्षोदयातूंश्च विशोध्य शेषं त्रिंशद्गुणमशुद्धनिरक्षोदयभक्तं फलेन भागादिना शोधितगृहसंख्यातुल्यराशिमिश्च सूर्यो हीनो मध्यलग्नम् । एवं पश्चिमनतेन नतघट्यसुभ्यः सूर्याक्रान्तराशेनिरक्षोदयासुभि ग्यासन् विशोध्य तदग्रिम राशीनां निरक्षोदयातूंश्च विशोध्य शेषं त्रिंशद्गुणमशुद्धनिरक्षोदयभक्तं फलेन भागादिना शोधितग्रहसंख्यातुल्यराशिभिश्च सूर्यो युतो मध्यलग्नम् । एवं भुक्तभोग्यासुभ्योऽल्पकालेपीष्टासवस्त्रिंशद्वणिताः . सूर्याक्रांतराश्युदयभक्ताः फलेन भागादिना हीनयुतोऽर्को मध्यलग्नं स्यात् । अनेन प्रकारेण लग्नमपि साध्यम् । अत्रोपपत्तिः । ऊर्ध्वयाम्योत्तर. वृत्ते यः क्रान्तिवृत्तप्रदेशो लग्नस्तन्मध्यलग्नम् । तत्साधनार्थमभीष्टकाल याम्योत्तरवृत्ताद्?
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(९४) सूर्यसिद्धान्तः
[ तृतीयः] युरात्रवृत्ते सूर्यो यावता घटीविभागादिना नतः स नतकालः । प्राक्पश्चिमकपालयोः पापश्चिमसंज्ञः । अर्धरत्रिमारभ्य दिनार्धपर्यंतं प्राकपालम् । 'दिनार्धमारभ्याऽर्धरात्रपयेतं पश्चिमकपालम् । तत्र प्राङ्नते सूर्यस्य याम्योत्तरवृत्तात्पूर्वस्थत्वेन सूर्यात्पूर्वराशिमाग एव याम्योत्तरवृत्तलग्न इति सूर्यादूनमृणलग्नरीत्या नतघटीभिः साध्यम् । पश्चिमनते तु सूर्यस्य याम्योत्तरवृत्तात्पश्चिमस्थत्वेन सूर्याग्रिमराशेर्मध्यलग्नत्वात्सूर्यादधिकामलग्नरीत्या नतघटीभिः साध्यम् तत्रोद्वत्ताद्याम्योत्तरवृत्तस्य पञ्चदशघट्यन्तरेण नियतं सत्त्वान्निरोदयासुभिः साध्यमिति । शेषक्रियोपपत्तिस्त्वतिस्पष्टतरोत संक्षेपः ॥४८॥
मा०टी०-इस प्रकार प्राक् पश्चान्नतनाडीसे भोर लंकोदयप्राणखण्ड लेकर रविस्फुटमें कण. घन करनेसे मध्य वा दशम लग्न होगी ॥ ४८ ॥ अथ कालसाधनमाह
भोग्यासूनूनकस्याथ भुक्तासनधिकस्य च ॥
संपिंड्यान्तरलपासूनेवं स्यात्कालसाधनम् ॥ १९॥ अथानन्तरं लग्नार्कयोमध्ये योऽत्यन्तमूनस्तस्य भोग्यासूनधिकस्य भुक्तासन् सम्पिण्डयैकीकृत्यांतरलग्नासून् सूर्यलग्नमध्ये ये लग्नराशयस्तेषामुदयासून् । चासमुच्चये। ए. कीकृत्यैवमुक्तप्रकारेण कालस्य सिद्धिर्भवति । अत्रोपपत्तिः । ऊनादधिकमग्र एव भवतीत्यूनतुल्यलग्नस्य भोग्यकालोऽन्तरस्थराश्युदययुतोऽधिकतुल्यलग्नस्य मुक्तकालेन युतस्तल्लग्नयोरन्तरवर्ती कालः सिद्धः स्यात् ॥ ४९ ॥ __ भान्टी०-लग्न और रवि स्पष्टके मध्य में न्यनको भोग भौर दसरका भुक्त मौर इन दोनोंके मध्यमें स्थित राशियोंकी प्राणसंख्या इकट्टी करनेसे जो प्राणसंख्या होगी तिससे काल सिद्ध होगा ।। ४९॥ अथवं लग्नार्काभ्यां साधितकालस्य दिनराज्यन्तर्गतत्वज्ञानमाह
सूर्यादूने निशाशेष लग्नेऽकादधिके दिवा ॥
भचक्रायुतादानोरधिकेऽस्तमयात्परम् ॥५०॥ सूर्यात्रिराश्यन्तर्गतत्वेन न्यूने लग्ने सति पूर्वप्रकारसिद्धः कालो रात्रिशेषे भवति । सूर्यात् षड्भान्तर्गतत्वेनाधिके लग्ने पूर्वप्रकारसिद्धः कालो दिने स्यात् । षड्भायुतात्सू. दिधिके लग्ने लग्नसषड्यसूर्याभ्यामानीतः पूर्वरीत्या कालोऽस्तमयात्सूर्यास्तकालात्परमनन्तरं रात्रावित्यर्थः । एतेन रात्रीष्टकाले गते सषड्भसूर्याल्लनं साध्यमिति सूचितम् । अत्रोपपत्तिः। सूर्योदये सूर्यतुल्यलग्नत्वात्सूर्यादूनाधिके लग्ने क्रमेण रात्रिशेषे दिने च कालः स्यात् । एवमस्तकाले सषड्भसूर्यस्य लग्नत्वात बदाधिके लग्ने रात्रावेव कालः सिद्धोदित्यादि सुगमतरम् ॥ ५० ॥
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अपायः ४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (९५)
भाल्टी--लग्नस्पष्ट, सूर्यस्फुटसे कम होनेपर रात्रिशेष और मधिकहोनेपर दिवा और ह राशियुक्त सूर्यसे ब्न अधिक होनेपर सन्ध्याका पर होगा ॥ ५० ॥
मथाग्रिमग्रन्थस्यासङ्गतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्ति फकिकयाह-दिग्देशकालानां प्रतिपादनमिदं परिपूर्तिमाप्तमित्यर्थः । दिशां साधनं 'शिलातल इत्यादिनियतं तत्सम्बन्धेन । समकोणयाम्योत्तरशंकूनां साधनान्यपि दिगन्तर्गतान्यनियतानि । पलमालम्बाक्षादिसाधनं देशमिरूपणं नियतम् । अग्राचरादिसाधनमानियतम् । कालसाधनं तशाच्छायादिसाधनं च कालनिरूपणमिति विवेकः ॥ रङ्गनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे ॥ त्रिप्रश्नस्याधिकारोऽयं पूर्णी गूढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरङ्गनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशे त्रिप्रनाधिकारः पूर्णः॥
॥ इति त्रिप्रश्नाधिकारः ॥ तीसरा अध्याय समाप्त ।
अथ चतुर्थोऽध्यायः। अथ चन्द्रग्रहणाधिकारो व्याख्यायते । तत्र प्रथमं सूर्यचद्रयोंबिवयोजनानि तत्स्फु टीकरणं च सार्धश्लोकेनाह
सार्धानि षट्सहस्राणि योजनानि विवस्वतः ॥ विष्कंभो मण्डलस्येन्दोः सहाशीत्या चतुःशतम् ॥
स्फुटस्वभुक्त्या गुणिती मध्यभुक्त्योद्धृतौ स्फुटो ॥१॥ षट्रसहस्राणि सार्धानि सहस्रस्यार्धं पञ्चशतं तत्सहवर्तमानानि पञ्चषष्टिशतं योजनानि सूर्यस्य मण्डलस्य गोलरूपबिंबस्य विष्कंभो व्यासः । चन्द्रस्य गोलाकारबिम्बस्याशीत्या महाशीत्याधिकं चतुःशतं योजनानि । तौ व्यासौ स्पष्टया. निजगत्यां गुणितौ निजमध्यगत्या भक्तौ स्फुटौ स्तः । अत्र गणिते व्यासस्यैव बिम्बव्यवहारोऽभियुक्तानाम् । अत्रोपपत्तिः । त्रिज्यामितकणे मध्यमकक्षायां भ्र. मणात्तत्र यहिम्बं व्यासात्मकं तन्मध्यमम् । तत्र स्वरूपान्तरेण मध्यगत्यङ्गीकारान्मध्यगत्येदं तदा स्फुटगत्या किमिति स्पष्टं बिम्बं नीचे पृथूचेऽणुतरम् । गत्योः परमाधिकन्यूनत्वात् ॥ १॥ माल्टो०-सूर्यमण्डलका परिमाण ६५०० योजन और चंद्रमाका परिमाण ४८०
१ चतुःशांती इति पाठान्तरम् ।
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सूसिद्धान्तः
[चतुर्थोऽयोजन है । निज २ की तात्कालिक गतिसे गुणकरको मध्यगतिसे माग करनेपर स्फुट व्यास होगा ॥१॥
अथ सूर्यबिम्बं चन्द्रकक्षायां साधयंस्तयोः 'कलात्मकविम्बानयनं . सार्धश्लोकेनाह
खेः स्वभगणाभ्यस्तः शशांकभगणोद्धृतः ॥२॥ शशांककक्षागुणितो भाजितो वार्ककक्षया ॥
विष्कम्भश्चन्द्रकक्षायां तिथ्याप्तामानुलिप्तिकाः ॥३॥ सूर्यस्य विष्कभः प्रागुक्तस्पष्टो व्यासः स्वभगणैः सूर्यभगणैरुक्तैर्गुणितश्चन्द्रभगणेभक्तो वाथवा चन्द्रकक्षया वक्ष्यमाणया गुणितः सूर्यकक्षया वक्ष्यमाणया भक्तश्चन्द्रकक्षायां चन्द्राधिष्ठिताकाशगोले सूर्यव्यासः स्पष्टो भवति । ततो व्यासयोजनसंख्यापञ्चदशभक्ता मूर्यचन्द्रयोविव्यासप्रमाणकला भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । चक्रकलाभिश्चन्द्रकक्षायोजनानि तदैककलया कानीति चन्द्रकक्षास्थितैकफलायां पञ्च" दशयोजनानि । अतश्चन्द्रस्य स्वकक्षायां स्थितत्वात्स्पष्टचन्द्रबिंवव्यासयोजनानि पञ्चदशभक्तानि चन्द्रबिंबव्यासकला भवन्ति । एवं सूर्यकक्षायामेका कला सार्धशतद्वययोजनैरिति स्पष्टसूर्यव्यासस्तैर्भक्तो व्यासकला भवन्ति । तत्र सूर्यस्य लोकैदरान्तराचन्द्राकाश इव दर्शनात्प्रत्यक्षतो विविक्तान्तरण दर्शनाभावाच्च चन्द्रकक्षाप्रमाणेन सूर्यबिंबव्यासः सूर्यकक्षयायं तदा चन्द्रकक्षया क इत्यनुपातेन गणितार्थमवस्तुभूतः साधितः । नतु वस्तुतश्चन्द्रकक्षायां सूर्यमण्डलावस्थानं सूर्यग्रहणे चन्द्रस्य च्छादकत्वानुक्तिप्रसङ्गात् । अथ सूर्यस्पष्टव्यासश्चन्द्रभगणभक्तखकक्षारूपच. न्द्रकक्षया गुणितः सूर्यभगणभक्तस्वकक्षारूपसूर्यकक्षया भक्त इति स्वकक्षारूपगुणहरयो शात्सूर्यभगणगुणितश्चन्द्रभगणभक्त इति पूर्व कक्षयोरनुक्तेरयं प्रकारो मुख्यत्वात्म. थममुक्तस्ततश्चन्द्रकक्षासिद्धसूर्यविभव्यासः पञ्चदशभक्तः सूर्यबिंबव्यासकलाः सिद्धा इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ २ ॥ ३ ॥
भा० टी०-रविस्पष्ट व्यासको रविभगणसे गुण करके चन्द्रभगणसे भाग करनेपर अथवा चन्द्रकक्ष से गुण करके, रविकक्षासे मांग करनेपर चन्द्राधिष्ठित आकाशगोलमें सूर्यव्यास निरूपित होगा भर्यात् चंद्रमाकी कक्षामें सूर्यके व्यासका परमाण होगा । उस सूर्यव्यास और चन्द्रभ्यासमानको १५ से भाग करनेपर कलादिबिम्बमान होगा ॥ २ ॥ ३ ॥ अथोपयुक्तां भूच्छायां लोकाभ्यां साधयति
स्फुटेन्दुभुक्तिभृव्यासगुणिता मध्ययोद्धता॥
लब्धं सूचीमहीव्यासस्फुटार्कश्रवणान्तरम् ॥४॥ १ भाजितश्चार्ककक्षया इति पाठान्तरम् ।
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ध्यायः ४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (९७)
मध्येन्दुव्यासगुणितं मध्यार्कव्यासभाजितम् ॥
विशोध्यलब्धं सूच्या तु तमोलिप्तास्तु पूर्ववत् ॥५॥ स्पष्टाचन्द्रस्य गति व्यासेन गुणिता मध्यया चन्द्रगत्या भक्ता फलं सूचीसंज्ञ स्यात् । भूव्यासस्पष्टसूर्यबिम्बन्यासयोरन्तरं मध्येन चन्द्रबिम्बव्यासेनाशीत्याधिकचतु:शतयोजनेन गुणितं मध्येन सूर्यबिम्बव्यासेन पंचषष्टिशतयोजनेन भक्तं फलं सूच्यां प्रासिद्धायां न्यूनीकृत्य तुकाराच्छेषं तमः । भूच्छायारूपं योजनात्मकं भाभावस्तम इति च्छायायास्तमस्त्वात् । अस्य कलात्मकं मानमाह-लिप्ता इति । त्वन्तस्य पूर्वसम्बंधानुक्तेरुत्तरत्र सम्बन्धस्तुकारेण सुबोधः । अतएव पूर्ववाक्यसमाप्तिस्थं तमापदमत्र नान्वति । पूर्ववत्तिथ्याप्तामानलिप्तिका इति पूर्वोक्तेन भूच्छायायाः कलाः कार्याः । अत्रोपपत्तिः । “भूव्यासहीनं रविबिंबमिंदुकर्णाहतं भास्करकर्णभक्तम् ॥ भूविस्तृतिर्ल ब्धफलेन होना भवेत्कुमा विस्तृतिरिन्दुमार्गे ॥” इति सिद्धान्तशिरोमणौ सूक्ष्मप्रकार उक्तः । अस्योपपत्तिस्तट्टीकायां व्यक्ता । तत्र भूव्यासोनस्य रविबिम्बस्य ४९०० स्वल्पान्तरांगीकारेण स्पष्टगतिभक्तमध्यगतिगुणितचन्द्रमध्ययोजनकर्णरूपस्पष्टेन्दुयों जनको गुणः । तादृशसूर्यकर्णो हरः। तत्रैतत्खण्डस्य कलाकरणा) त्रिज्यागुणश्चन्द्रकर्णस्तादृशो हर इति चन्द्रस्पष्ठमध्यगत्योस्तुल्यगुणहरत्वेन नाशात् त्रिज्यामध्येन्दुयो. जनकर्णयोस्त्रिज्यापवर्त्तनेन हरः पंचदश पृथगुक्तः । अग्रेऽवशिष्टौ भूव्यासहीनमध्यार्कबिम्बयोजनानां रविस्पष्टगतिगुणहरौ । चन्द्रसूर्ययोर्मध्ययोजनकर्णावपि क्रमेण गुणहरौ । तत्र कर्णस्थाने लाघवात्तयोबिम्बयोजनानि गृहीतानि । यद्यपि सूर्यचन्द्रयोर्मध्ययोजनकर्णानुसारित्वाभावाद्विम्बयोजनग्रहणमनुचितम् । तथाप्यल्पान्तरांगीकारेण तददोषः । इन्दुव्यासार्कव्यासयोभूगोलाध्यायोक्तकक्षा भूकर्णगुणिता महीमण्डलभाजिता तत्कर्ण इति । तत्कक्षव्यासार्धत्वे तु सुतराम् । तत्रापि स्पष्टार्कबिम्बयोजनग्रहणे मध्यायोजनबिम्बं सूर्यस्पष्टगतिगुणितं सूर्यमध्यगतिभक्तमिति सिद्धम् । नचोक्तरीत्या सूर्यस्पष्ट मध्यगती गुणहरौ भूव्यासमध्याबिम्बयोजनान्तरस्योत्पन्नौ न केवलं विम्बस्येति भूव्यासस्तादृशो महीव्यास इत्यनेन कथं सिद्ध इति वाच्यम् । भगवता स्वल्पान्तरेण: महीव्यासस्य यथास्थितस्यैवांगीकारात् । महीव्यासस्फुटार्कश्रवणान्तरमित्युक्त्या मध्यस्थस्फुटपदस्योभयत्रान्वयेनार्कश्रवणसन्निधानेन च सूर्यबिम्बस्फुटरीत्यैव महीव्यासस्य स्फुटत्वसिद्धेश्च । अथैतत्खण्डसिद्धफलं भूव्यासाद्धीनं भूभायोजनानि । तत्र कलाकरणार्थं भूव्यासस्यापरखण्डस्य त्रिज्यागुणः स्पष्टचन्द्रगतिभक्तमध्यगतिगुणितचन्द्रमध्य. योजनकर्णरूपस्पष्टयोजनकर्णो हरः। तत्र त्रिज्यामध्ययोजनकौँ गुणहरौ गुणेनाव| हरस्थाने पञ्चदश चन्द्रस्पष्टमध्यगती गुणहराविति सूच्युक्तोपपन्ना । भूभायाः सूच्यनुकारत्वात्प्रथमखण्डं द्वितीयखण्डे हीनं भूभायोजनात्मिका सा पञ्चदशभक्ता
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(९८) सूर्यसिद्धान्तः
[ चतुर्थोऽकलादि कत्युक्तमुपपन्नम् । यदि तु भूव्यासहीनं रविविम्बमित्यादौ मध्यबिम्वानुक्तेः प्रथममेव स्पष्टार्कबिम्बग्रहणं तदा महीव्यासस्य स्पष्टत्वाप्रसिद्धया महीव्यासस्फुटार्कश्रवणान्तरमित्येव यथाश्रुतं सम्यक् । परन्तु तदा भूव्यासोनार्कबिम्बस्य सूर्यमध्यस्पष्टगती हरगुणाववशिष्टौ वाच्यावपि भगवता स्वल्पान्तरत्वादनुक्तौ । न चानुपाते सूर्यचन्द्रयोर्भध्ययोजनकर्णीवेव गृहीतौ न स्फुटाविति मध्यस्फुटगती हरगुणावनुत्पन्नौ नोक्ताविति वाच्यम् । चन्द्रस्पष्टयोजनकर्णस्वरूपग्रहणेनोत्पन्नसूच्यां अनुक्तत्वापत्तेः । नच चन्द्रकर्णस्य मध्यत्वेन गृहीते बसन्तरमतः स्पष्टत्वेन तस्य ग्रहे सूच्युपपन्ना सूर्यकर्णस्य मध्यत्वेन गृहीतेत्यल्पान्तरमिति वाच्यम् । मध्यार्कबिम्बयोजनग्रहणेन स्फुटार्कश्रवणानुपपत्तेः । नचोभयत्रागृहीते प्रत्येकमल्पान्तरमपि बह्वन्तरमत एकत्र सूर्यगतिग्रहणमुचितमिति वाच्यम् । विनिगमनाविरहात् । पूर्व सूर्यबिम्बस्यैव सूर्यस्पष्टमध्यगतीगुणहरौ न महीव्यासस्य प्रान्त्ये तूभयारिति स्थूलसूक्ष्मविनिगमकेतुप्रान्त्ये सूर्यगतिग्रहणस्यौचित्याच । अथ महीव्यासस्य प्रथमखण्डस्य चन्द्रगतिग्रहणेन सूच्युक्तावेव द्वितीयखण्डस्य भूव्यासोनस्फुटरविबिम्बस्यार्थात्सूर्यगतिग्रहणं सूचितमिति न क्षतिरिति चेन्न । व्याख्याप्रसंगे सूर्यगतिग्रहणे मानाभावादुपपत्तरप्रसंगाच्च । अन्यथात्रापि चन्द्रगतिग्रहणापत्तेरिति । एतेन चन्द्रमध्यगत्या भूव्यासस्तदा चन्द्रस्पष्टगत्या क इति भूव्यासरूपं खण्डं स्पष्टं सूचीसंज्ञं सूर्यबिम्बप्रमाणेनापरं भूव्यासोनस्फुटरविबिम्बखण्डं तदा चन:बिम्बप्रमाणेन किमिति स्पष्टं द्वितीयं खंडं तयोः स्पष्टयोरन्तरं स्पष्टा भूमेति सर्वमुप. पन्नमिति निरस्तम् । उक्तानुपाताभ्यां तयोः स्पष्टत्वसिद्धौ मानाभावात् । स्पष्टत्वस्याप्रसंगाच । चन्द्रसूर्ययोमध्यबिम्बानुपपत्तेश्च । यत्तु भूव्यासस्य स्पष्टत्वं सूचीरूपमनुपपद्य मानं हृदि ज्ञात्वा भूव्यास एव प्रथमखण्डं भूव्यासोनस्पष्टरविबिम्बस्य मध्यकर्णानुपाताभ्यामल्पान्तरेणाप्रवर्तनान्मध्यबिम्बे गुणहरावुत्पाद्य द्वितीयखण्डमुभयोरंगुलीकरणं चन्द्रमध्यकर्णेन त्रिज्यामिताः कलास्तदाभ्यां का इत्यनुपाते प्रमाणफलयोः फलाव
नन प्रमाणस्थानापन्नपञ्चदशहरेणेति तयोरन्तरं भूभेत्युक्तं ज्ञानराजदैवज्ञैः सिद्धान्त सुंदरे । “इनावती व्यासवियोगनिघ्नं शशाङ्कविम्ब रविबिम्बभक्तम् । फलोनभूव्याससमा कुभासौ शरेन्दुभक्ता कलिकादिका स्यात् ॥” इतिग्रन्थेन । अत्र सूर्यव्यासः स्फुटार्कविम्बयोजनात्मकोनमध्ययोजनात्मकः । चन्द्राबिम्बे गुणहरौ मध्ययोजनालको न स्फुटबिम्बयोजनात्मको तट्टीकाकृचिन्तामण्यभिमतौ उपजीव्य सूर्यसिद्धान्तविरोधात् । तदुक्तं तदुपपत्त्यापि तदसिद्धेश्च । अत्र यदपि तट्टीकाकृचिंतामण्युक्तं मध्यमस्य भूभाबिम्बस्यानयनं फलाविशेषेण मध्यकर्णावेव गुणहरौ प्रकल्प्योक्तविधिना सिद्धस्य मध्यबिम्बस्य यदि मध्यगत्यन्तरेणेदं स्फुटगत्यन्तरेण किमित्यनुपातेन स्फुटत्वं मूलकृदनुक्तमपि कार्यामति तद्गत्यन्तरवशेन भूभाया अनुत्पत्त्या न सम. असम् । अन्यथा गतिवशेन साधितार्कचन्द्रबिम्बवद्गत्यन्तरकलाभ्यो विकृताभ्य एवं
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ध्यायः ४.] सस्कृतटाका-भाषाटीकासमेतः । भूभायाः साधनापचेरिति । तदसत् । “स्फुटेन्दुभुक्ति व्यासगुणिता मध्ययोता" इति सूर्यसिद्धान्तोक्तयुक्तिसिद्ध सूच्यनुक्त्या भूव्यासस्यैवाविकृतस्य ग्रहणादित्यलं परदोषगवेषणापल्लवितेन ॥ ४ ॥५॥ __ भा०टी०-चन्द्रस्पष्टगतिसे पृथीव्यासको (१६०० ) गुण करके चन्द्रमाकी दैनिकभुक्तिसे भाग करनेपर सूची होगी । महीव्यास (१६०० ) और सूर्यस्फुटव्यासके अन्तरको चन्द्र मध्यव्या (४८०) से गुण करके मध्यार्कव्यास (६५०० ) से भाग करने पर जो प्राप्त होवे, तिसको सूचीसे वियोग करनेपर तमव्या सयोजन होंगे। पहलेकी अनुसार इसको १५ से भाग करनेपर कलादि होगी ॥ ४ ॥५॥ अथ ग्रहणद्वयसंभूतिमाह
भानो र्धे महीच्छाया तत्तुल्येऽर्कसमेऽपि वा ॥
शशांकपाते ग्रहणं कियद्भागाधिकोनके ॥६॥ सूर्यात्सकाशात्पड्ान्तरे भूच्छाया सूर्यापरदिक्त्वात् । तत्तुल्ये सषड्भारूप च्छायाक्षेत्रादिना समे चन्द्रपाते । अपिवाथवा सूर्यतुल्ये चन्द्रपाते सूर्यचन्द्रयोः प्रत्ये. कं ग्रहणम् । ननु समत्वाभावेऽपि ग्रहणमित्यत आह-कियद्भागेत्यादि । सषड्भाकौदादा कतिपयैर्भागैधिक उनेऽपि चन्द्रवाते ग्रहणम् । तथाच न क्षतिः । मागाश्चन्द्रग्रहणे द्वादशनिश्चयार्थम् । सूर्यग्रहणे तु नतांशषडंशसंस्कारात्सप्तेत्यापाततः । अत्रोपपत्तिः । सपइभाककवेलान्यितरतुल्ये चन्द्रपाते शराभावश्चन्द्रस्य तत्तुल्यत्वात् । तदा चन्द्रो भूच्छायायां भवतीति ग्रहणम् । एवं शरसत्त्वेऽपि मानैक्यखण्डादल्पे भूच्छायायां मण्डलैकदेशस्य सत्वेन ग्रहणम् । एवं शराभावे मानक्यखण्डान्यूनशरे च चन्द्रमण्डलं सूर्यमण्डलस्याच्छादकं भवति । परन्तु तत्र शरो नतिसंस्कृतोऽतः सम्यगुक्तमुपपन्नम् ॥ ६॥
भा० टी० -सूर्यसे ६ राशि दूरपर पृथिवीकी छाया स्थित है। चन्द्रपात छाया या सूर्य की बराबर राशिमें स्थित हो ग्रहण होगा | थोडी कमताई अधिकाईमेंभी ग्रहण होगा ॥ ६ ॥ ननु तत्कुत्र भवतीत्यतस्तयोर्ग्रहणयोः कालमाह
तुल्यो राश्यादिभिः स्याताममावास्यान्तकालिको ।
सूर्येन्दुपौर्णमास्यन्ते भार्धे भागादिको समौ ॥७॥ अमावास्यान्तकालोत्पन्नौ सूर्यचन्द्रौ राश्याद्यवयवैः समौ भवतः । पौर्णमास्यते भागादिको तुल्यौ सूर्यचन्द्रौ षड्भान्तरे स्याताम् । तथाचामान्ते सूर्यचन्द्रयोरेकत्रो;धरान्तरेण सत्त्वात्सूर्यग्रहणम् । पौर्णमास्यन्ते चन्द्रभूभयोरकेत्रावस्थानाचन्द्रग्रहणम् । एतेन पूर्वश्लोके शशाङ्कमात इत्यत्र चन्द्रपातौ द्वौ न ग्राह्यविति सूचितम् । एतच्छो
दको तुल्यौ सूर्यचन्द्र पौर्णमास्यन्ते च ग्राह्यविति सूचि
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(१००) सूर्यसिद्धान्तः
[ चतुथोऽकस्य वैयर्थ्यापत्तेः । अत्रोपपत्तिः । अमान्ते सूर्यचन्द्रयोः पूर्वापरान्तराभावेन योगात्तुल्यौ सूर्यचन्द्र पूर्णिमान्ते भचक्रार्धान्तरत्वात्षड्राश्यन्तरी भागादिसमाविति ॥७॥
मा० टी०-अमावस्याके अन्तिमकालमें सूर्यकी राश्यादि चंद्रमाकी तुल्य हैं । पूर्णिमाके अंतमें चन्द्रमा भोर सूर्यमें ६ राशिका फरक (अन्तर ) है ॥ ७ ॥ अथ पर्वान्ते सूर्यचन्द्रपातानां साधनमाह
गतैष्यपर्वनाडीनां स्वफलेनोनसंयुतौ ॥
समालप्तौ भवेतां तो पातस्तात्कालिकोऽन्यथा ॥८॥ तौ सूर्यचन्द्रौ गतेष्यपर्वनाडीनां यत्कालिको सूर्यचंद्रौ तत्कालाद्गता एष्या वा दर्शान्तपूर्णिमान्तान्यतरघटिकास्तासां स्वफलेन स्वगतिसम्बन्धेन यत्फलम् । “ इष्टनाडी गुणा भुक्तिः षष्टयाभक्ता कलादिकम् ” इति मध्याधिकारोक्तेनानीतम् । तेन गौष्यक्रमेणोनयुतौ तत्र समकलौ स्तः। यद्यपि समांशाविति वक्तुं युक्तं तथाप्यन्यतिथ्यन्तापसाधितौ समकलाविति द्योतनार्थं समकलावित्युक्तम् ।। पातः स्वगत्युत्पन्नफलेनान्यथागतैष्यक्रमेण युतोनस्तात्कालिक पर्वान्तकालिकः स्यात् । अत्रोपपत्तिश्चालनलोकः । तत्र तिथ्यन्ते भागान्तरत्वेन कलादिसाम्यम् । पातस्य चक्रशोधितत्वेनेतरग्रहवैपरीत्यम् ॥ ८॥
भा टी०-मध्यरात्रिके स्पष्टराश्यादिमें पर्वातकाल मध्यरात्रिके पूर्व होनेपर तात्कालिक हीन नहीं तो योगकरने पर चन्द्रमा और सूर्यकी समकला होगी पातसंबंध तिसं कालका संस्कार उलटा करना पडता है ॥ ८ ॥ अथ प्रागुक्तानां बिम्बानां प्रयोजनमाह
छादको भास्करस्येन्दुरधःस्थो धनवद्भवेत् ॥
भूच्छायां प्राङ्मुखश्चन्द्रो विशत्यस्य भवेदसौ ॥९॥ सूर्यमण्डलस्याच्छादकश्चन्द्रः स्यात् । नन्वाकाशे द्वयोः सत्त्वेन सूर्य एव चन्द्रस्य च्छादकः कथं न स्यादित्यत आह-अधःस्थ इति । वक्ष्यमाणकक्षाध्याये सूर्यकक्षातोऽध:कक्षास्थत्वाच्चन्द्रस्यैवाच्छादकत्वम् । 'नालयश्छादको येन सूर्यश्चन्द्रस्य च्छादकः। ननु विनैकवावस्थानं छादनं न भवत्यतआह-घनवदिति । यथाऽधःस्थो मेघः सूर्यस्याच्छादको भवति तथा चन्द्रो भवतीत्यर्थः । प्राइमुखः पूर्वाभिमुखो गच्छंश्चन्द्रो भूच्छायां प्रति प्रविशति । अतः कारणादस्य चन्द्रस्यासौ भूभाच्छादिका भवेत् । तथा च सूर्यग्रहणे सूर्यचन्द्रबिम्बयोः प्रयोजनं चन्द्रग्रहणे चन्द्रभूभाबिम्बयो: प्रयोजनमिति मावः । अत्रोपपत्तिः । चन्द्रो दर्शान्ते सूर्यादधोभवतीति चन्द्रः सूर्यस्याच्छादकः । बुधशुक्रयोस्तु मण्डलाल्पत्वान्नाच्छादकत्वम् । चन्द्रस्याधीग्रहाभावात्पड्भान्तरे भूम्या प्रतिबद्धाः सूर्यकिरणाश्चन्द्रगोले न पतन्ति । अतो निष्प्रभस्य चन्द्रस्य भूभायां प्रवेश इति चन्द्रस्य भूभाच्छादिका ॥९॥
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ध्याय ३. ]
संस्कृतटीका भाषाटीकासमेतः ।
( १.१ )
भा० टी० - मेघकी समान चंद्रमा नीचे आयकर सूर्य को ढक लेता है । आगे चलता हुआ चंद्रमा पृथिविकी छाया में प्रवेशकरे तो ग्रहण होता है ॥ ९ ॥
अथ ग्रासानयनमाह
तात्कालिकेन्दुविक्षेपं छाद्यच्छादकमानयोः ॥ योगार्धात्प्रोज्झय यच्छेषं तावच्छन्नं तदुच्यते ॥ १० ॥
यश्छाद्यते स च्छाद्यः । सूर्यग्रहणे सूर्यचंद्रग्रहणे चन्द्रः । यश्छादयति स च्छादकः ॥ सूर्यचन्द्रग्रहणयोः । क्रमेण चन्द्रभूभे । तयोः पूर्वानीतमान कलयोरैक्यस्यार्धातात्कालिकचन्द्रात्पूर्वोक्तप्रकारेण साधितं विक्षेपं कलादिकं विशोध्य यदवशिष्टं तत्प्रमाणकं छन्नं छादकेन च्छाद्यस्य यावान्मण्डलप्रदेश आच्छादितस्तावत्प्रदेशात्मकं ग्रासरूपं ग्रहणं तत्त्वज्ञैः कथ्यते । अवोपपत्तिः । छाद्यच्छादकमण्डलनेमियोगे ग्रहणाद्यन्तरूपे मण्डल केन्द्रयोरन्तरं स्वबिम्बखण्ड योगरूपम् । बिम्बस्य व्यासमानात्मकत्वात् । तत्तु समत्वालाघवाच्च योगार्धरूपं धृतम् । ततो यथा प्रवेशस्तथा ग्रासो भवतीति पर्वान्ते छाद्यच्छादकयोर्विक्षेपान्तरितत्वात्तदूने विक्षेपे मण्डलयोगस्तदन्तरमितः स एव
ग्रासः ॥ १० ॥
भा० टी० - तिलकालके चन्द्र - विक्षेपको छाद्य और छादकमान के योगार्द्धसे वियोग करने पर जो बचता है तिस्रको छन्न कहते है ॥ १० ॥
अथ सम्पूर्ण न्यूनग्रहण (नग्रहणाभावज्ञानं चाह
यद्रामधिके तस्मन्सकलं न्यूनमन्यथा ॥ योगादधिके न स्याद्विक्षेपे ग्राससम्भवः ॥ ११ ॥
तस्मिञ्छन्नमानेऽधिके प्राद्यमानाधिके यद्यस्मात्कारणाद्राह्यमानमस्ति । अतः कार णात्सकलं सम्पूर्ण ग्रहणं भवात । अन्यथा ग्राह्यमानान्यने ग्रासे न्यूनं ग्राह्यमानान्तर्गतं ग्रहणं स्यात् । मानैक्यखण्डाद्विपेऽधिके सति ग्राससम्भवो ग्रहणं न स्यात् । अत्रोपपत्तिः । ग्राह्यमानादधिके ग्रासे सम्पूर्णग्रहणं न्यूने न्यूनं मानैक्यखण्डादधिके विक्षेपे मण्डलस्पर्शासम्भवाग्रहणाभावः ॥ ११ ॥
मा० टी० - जो ग्राह्य ग्रहबिम्ब से छन्नमान अधिक हो तो संपूर्ण ग्रहण किया जायगा अन्यथा होने से कम ग्रहण किया जायगा | योगासे विक्षेप अधिक होनेपर ग्राससम्भव नहीं होता ॥ ११ ॥
अथ स्थित्यर्धविमर्दा श्लोकाभ्यामाह - ग्राह्यग्राहक संयोग वियोगौ दलितौ पृथक् ॥ विक्षेपवर्गहीनाभ्यां तद्वर्गाभ्यामुभे पदे ॥ १२ ॥
• यच्छिष्टं तत्तमश्छन्नमुच्यत इति वा पाठ: । २ ग्राह्यमानाविक इति पाठान्तरम् ।
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(१०२) सूर्यसिद्धान्तः
[चतुर्थोऽषष्टया संगुण्य सूर्येन्द्रो(त्यन्तरविभाजिते ॥
स्यातां स्थितिविमर्धेि नाडिकादिफले तयोः ॥ १३ ॥ ग्राह्यग्राहकमानयोर्योगान्तरे अर्धिते पृथकूस्थानान्तरे स्थाप्ये । अग्रिमझियायां कदाचिदशुद्धत्वसंभवे पुनः क्रियार्थमेतयोरावश्यकत्वात् । तदर्गाभ्यां योगार्दान्तरार्धयोर्वर्गाभ्यां विक्षेपवर्गेण वर्जिताभ्यामुभे द्वे मूले षष्टया गुणयित्वा सूर्यचन्द्रयोर्गत्यन्तरकलाभिर्भक्ते तयोर्योगवियोगयोः स्थाने षष्ट्यादिफले क्रमेण स्थित्यर्ध विमर्दार्धे भवतः । पत्रोपपत्तिः । ग्रहणारंभाद्रहणान्तपर्यन्तं यः कालः स स्थितिसंज्ञः । तस्य खण्ड एकं ग्रहणारंभान्मध्यग्रहणपर्यन्तमपरं मध्यग्रहणाद्रहणान्तपर्यन्तम् । तत्र बिम्बनेमिस्पर्श काले मानक्यखण्डं कर्णः स्पर्शमोक्षकालिकशरो भुजः स्पर्शमोक्षान्यतरकालिकशराग्रमध्यकालिकशराग्रयोरन्तरं पूर्वापरं कोटिरिति तत्खण्डसाधकं क्षेत्रम् । एवं संपूर्णग्रहणे सम्मीलनोन्मीलनकालयोरन्तरकालो : मर्दस्तत्र मध्यग्रहणात्सम्मीलनोन्मीलनकालावधि खण्डे तत्साधकं छाद्यच्छादकमण्डलकेंद्रयोरन्तरं मानार्धान्तरतुल्यं कर्णस्तात्कालिकशरो भुजः शराग्रयोरन्तरं विक्षेपवृत्ते पूर्वापरं कोटिरिति क्षेत्रम् । सम्मलिनं छाद्यमण्डलस्या च्छादनसमाप्तिः । उन्मीलनं तु छादकमण्डलादाच्छादितसंपूर्णच्छाद्यमण्डलस्य निः सरणारंभः । तत्र स्पर्शमोक्षसंमीलनोन्मीलनकालानामज्ञानान्मध्यकालिकविक्षेपग्रहणम् । भुजकर्णवर्गान्तरपदं कोटिरिति पूर्वश्लोकोक्तमुपपन्नम् । छाद्यच्छादकमण्डलकेंद्रयोः पूर्वोपरान्तराभावे मध्यग्रहणसंभवाच्छाद्यच्छादकयुतिर्गत्यातरकलाभिः षष्टिघटिकास्तदानीतकोटिक्लाभिः काइत्यनुपातेन स्थितिमर्दखण्डे । तत्र चन्द्रग्रहणे भूभागतेः सूर्यगत्यनुरोधात्सूर्यगतित्वमित्युपपन्नं द्वितीयश्लोकोक्तम् ॥ १२ ॥ १३ ॥ - भाटी०-पृथक् ग्राह्य ग्राह्यकमान योगार्द्ध और वियोगाई वर्ग निर्णयकरे । तिससे विक्षेप वर्ग हीन करके मूल निर्णय करे । उन दो मूलको ६० से गुण करके सूर्येन्दु स्पष्ट भुक्त्यन्तरसे माग करने पर स्थूलस्थितार्द्ध और स्थूल विमर्धि दण्डादि होंगे ॥ १२ ॥ १३ ॥ अथ स्थित्यर्धविमदर्धि असकृत्साध्ये इति श्लोकान्यामाइ
स्थित्यर्धनाडिकाभ्यस्ता गतयः षष्टिभाजिताः ॥. लिप्तादिप्रग्रहे शोध्यं मोक्षे देयं पुनः पुनः ॥ १४ ॥ तद्विक्षेपः स्थितिदलं विमधि तथासकृत् ॥
संसाध्यमन्यथा पाते तल्लिप्तादिफलं स्वकम् ॥ १५॥ सूर्यचन्द्रपातानां गतयः स्थित्यर्धघटीभिर्गुणिताः षष्ट्या भक्ताः फलं कलादिप्रग्रहे स्पर्शस्थित्यर्धनिमित्तं सूर्यचन्द्रयोहीनमोक्षे मोक्षस्थित्यर्धनिमित्तं सूर्यचन्द्रयोदेयं योज्यम् । चन्द्रपाते तल्लिप्तादिफलं स्थिायर्धघट्यानीतं कलादिपूर्वफलं स्वकं स्वगत्युत्पन्नमन्यथा
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ध्यायः ४. ]
संस्कृतटीका - मापाटीकासमेतः ।
( १०३ ) विपरीतं प्रग्रहस्थित्यर्धनिमित्तं योज्यं मोक्षस्थित्यर्धनिमित्तं हीनमित्यर्थः । तद्विक्षे पैस्तात्कालिकचन्द्रपात|भ्यामानीतशरकलाभिः । कलानां बहुत्वाद्विक्षेपैरिति बहुवचनम् । विक्षेपाभ्यामित्यर्थः । पुनः पुनः स्थितिदलं कार्यम् । अत्रकं पुनः पदं स्पर्शस्थित्यर्थसम्बद्धं द्वितीयं मोक्षस्थित्यर्ध सम्बद्धं पुनः पदम् । तेन स्पर्शस्थित्यर्धार्थसाधितचन्द्र-पाताभ्यामानीतशरेण प्रागुक्तप्रकारेण स्पर्शस्थित्यर्थं संसाध्यम् । मोक्षस्थित्यर्धार्थसाधितचन्द्रपाताभ्यामानीतशरेण पूर्वोक्तरीत्या मोक्षस्थित्यर्धे साध्यमित्यर्थः । तच्चोभयमसकृद्वारंवारं स्पर्शस्थित्यर्धानीतचालनेन मध्यकालिकौ चन्द्रपातावुक्तरीत्या प्रचाव्य तच्छः रेण पूर्वोक्तरीत्या स्पर्शास्थित्यर्धमस्मादप्युक्तरीत्या स्पर्शास्थित्यर्धमेवं यावदविशेषः एवं मोक्षस्थित्यर्धांनीतचालनेन मध्यकालिकौ चन्द्रपाता उक्तरीत्या प्रचाल्य तच्छरेण पूर्वोक्तरीत्या मोक्षस्थित्यर्धमस्मादप्युक्तरीत्या मोक्षस्थित्यर्धमेवं यावदविशेष इत्यर्थः । ननु स्थित्यर्धविमर्दार्धयोरकमित्युक्तेः कथं विमदर्धमसकृत्साध्यमिति नोक्तमित्यत आह-विम दर्धमिति । तथा स्पर्शमोक्षस्थित्यर्धसाधनरीत्या सकृद्यावदविशेषस्तावत्स्पर्शमदर्घ मोक्ष मर्दा व संसाध्यम् । तथाहि स्थित्यर्धनाडिकाभ्यस्ता इत्यत्र विमदर्धनाडिका ग्रहास्पर्शमदधिमोक्षमदर्द्धं साध्ये | आभ्यां प्रत्येकमसकृत्स्पर्शमदर्धमोक्षमदीधे स्फुटे स्तः । अत्रोपपत्तिः । प्रागुक्तं क्षेत्रं स्पर्शमोक्षसम्मीलनकालिकशरवशादिति तदज्ञानान्मध्यकालिकशरग्रहणेन स्थूलं स्थित्यर्ध मदर्थं चातो मध्यकालात्तदन्तरेण पूर्वाग्रिमकालिकयोस्तेषां सम्भवात्तत्कालचालितचन्द्रपाताभ्यां विक्षेपस्तात्कालिको भवति परं स्थूलः । स्थूलस्थित्यर्धाद्यानीतत्वात् । अतोऽस्मदानीतं स्थित्यर्धादिपूर्वापेक्षया सूक्ष्ममपि स्थूलमित्यसकृत्सूक्ष्ममिति । तत्र सम्मीलनोन्मीलनकालयोराकाशस्पर्शमोक्षसम्भवाःस्पर्श मोक्षमर्दार्धमिति ध्येयम् ॥ १४ ॥ १५ ॥
भा० टी० - स्थित्यर्थ दण्ड से सूर्य चन्द्र और राहुकी गति गुण करके ६० से भाग करनेपर जो कलादिहों, सो ग्रहले स्पर्शहीन (पातस्थान में योग ) और मोक्षमें चंद्रमा व सूर्यमें योग और पातस्थान में वियोग करना होता है || १४ || तिससे तिसकालके विक्षेपद्वारा स्थित्यर्द्ध और विमदर्द्ध बारम्बार निर्णय करनेपर सूक्ष्म होता है ॥ १५ ॥
अथ मध्यग्रहणस्पर्शमोक्षकालानाह
स्फुटतिथ्यवसाने तु मध्यग्रहणमादिशेत् ॥ स्थित्यर्धनाडिकाहीने ग्रासो मोक्षस्तु संयुते ॥ १६ ॥
स्पष्टतिथ्यन्तकाले | तुकारात्तत्पूर्वापरकालनिरासः । मध्यग्रहणग्रासोपचयसमाप्तिं कथयेत् । मध्यग्रहणसम्बन्धेन मध्य सूर्यचन्द्रानीतमध्यतिथ्यन्ते तत्सम्भव इति कस्य - चिद्भ्रमस्तद्वारणार्थं स्फुटेति । स्थित्यर्धघटिकाभिरूने तिथ्यन्तकाले ग्रासः स्पर्शः । संयुते स्थित्यर्धघटीभिर्युते तिथ्यन्तकाले मोक्षः | तुकारः स्पर्शमोक्षस्थित्यर्धाभ्यां
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(१०४)
सूर्यसिद्धान्त:
[ चतुर्थोस्पर्शमोक्षकालाविति विषयव्यवस्थार्थकः । अत्रोपपत्तिः। तिथ्यन्तकाले छाद्यच्छादकयोः पूर्वापरान्तराभावाद्योगे मण्डलस्पर्शी यावान्भवति ततः पूर्वाग्रिमकालयोन्यून एवातोऽत्र मध्यग्रहणकालः । केचित्तु । “पर्वान्तः किल साधितो भवलये सूर्येन्दुचिह्नान्तरात्तस्मिन्बिम्बसमागमो न हि यतश्चन्द्रः शराग्रे स्थितः । तस्मादायनदृष्टिसंस्कृत. विरोधानीततिथ्यन्तके बिम्बैक्यं भवतीति किं न विहितं पूर्वैर्न विद्मो वयम् ॥” इत्य. नेनात्र मध्यग्रहणं खण्डयति । तन्न । पूर्वापरान्तराभावे योगसत्वेन कदम्बसूत्रस्थयोर्याम्योत्तरान्तरस्यैव सत्त्वेन सत्र मध्यग्रहणस्योचितत्वात् । अन्यथा ध्रुवसूत्रे समसूत्रे वा योगाभ्युपगमे विनिगमनाविरहापत्तेः । यथा गतग्रहयोः कदम्बसूत्रेणैव योगाभ्यु: पगमात् । दृष्टिप्रत्ययार्थ दृक्कर्मोक्तेः । ग्रहणद्वयस्य स्वत एव दृग्गोचरत्वात्। ग्रहद्वया' दर्शनाचेत्यादिसंक्षेपः। मध्यग्रहणकालात्पूर्व स्पर्शस्थित्यर्धघटीभिः स्पर्शः । अग्रिमकाले मोक्षस्थित्यर्धघटोभिर्मोक्षः । स्थित्यर्धयोस्तदन्तररूपत्वेन सिद्धेः ॥ १६ ॥
भाटी-स्पष्टतिथिके शेषमें मध्यग्रहण होता है । तिससे सूक्ष्म स्थित्यर्घ दण्डवियोग करनेपर ग्रास (स्पर्श) काल होताहै और योग करनेसे मोक्षकाल होता है ।। १६ ॥ अथ सम्पूर्णग्रहणे निमीलनोन्मीलनकालावप्याहतदेव विमर्धिनाडिकाहीनसंयुते ॥
निमीलनोन्मीलनाख्ये भवेतां सकलग्रहे ॥ १७ ॥ संपूर्णग्रहणे तहत् । यथास्थित्य|नाधिके तिथ्यन्ते स्पर्शमोक्षौ तथेत्यर्थः । एककारात्तद्भिन्नतिव्युदासः। स्पर्शविमर्धिमोक्षविमर्दार्धघटीभ्यां क्रमेणोनयुते तिथ्यते क्रमण मिमीलनोन्मीलनसझे स्याताम् । अत्रोपपत्तिः। मर्दार्धस्य मध्यकालात्तदन्तररूपत्वेन तदूनाधिके तस्मिन्क्रमेण निमीलनोन्मीलने सम्पूर्णग्रहण एव भवतः ।। न्यूनग्रहणे तत्स्वरूपव्याघातात्तदभावः ॥ १७ ॥
भा०टी०-सम्पूर्ण ग्रहणमें सूक्ष्म विमर्द्धि घटिका मध्य ग्राणसमयसे हीन और तिसमें योग करनेसे निमीलन उन्मीलन काल होगा ॥ १७ ॥ अथेष्टकाल इष्टयासज्ञानार्थ कोटिकलानयनमाह
इष्टनाडीविहीनेन स्थित्य(नार्कचन्द्रयोः॥
भुक्त्यन्तरं समाइन्यात्षष्टयाप्ताः कोटिलिप्तिकाः॥१८॥ सूर्यचन्द्रयोर्गत्यन्तरं कलात्मकं ग्रहणारम्भाद्या इष्टघाटकाः स्पर्शस्थित्यर्धघटयनधिकास्ताभिरूनेन स्पर्शस्थित्यर्धेन गुणयेत्। अस्मात्पष्टिविभक्तप्राप्ताः कोटिकला भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । इष्टकाले छाद्यच्छादकमण्डलकद्रयोरन्तरं कर्णस्तत्कालशरो भुजस्तत्कालशराममध्यकालिकशराप्रयोरन्तरं, विक्षेपवृत्चे कोटिरिति क्षेत्रइष्टघट्यूनस्पस्थित्य
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मायः ४.] संस्कृतटीका-माषाटीकासमेतः। ( १०५) र्धघटिकानां कलाः कोटिः सिद्धा । पूर्वस्पर्शकालिककोट्याः स्थित्यर्धघटिकानां सिद्धस्वात् ॥ १८ ॥
भा०टी०-सूर्यचन्द्रकी गतांतरकलाके द्वारा ग्रहणारम्भसे दण्डादिवियुक्त स्थित्यई गुणकरके ६० से भागकरनपर भागफक कोटि कला होगा ॥ १८ ॥ अथात्र सूर्यग्रहणे विशेषमाह
भानोहे कोटिलिप्ता मध्यस्थित्यसंगुणाः॥
स्फुटस्थित्यर्धसम्भक्ताः स्फुटाः कोटिकलाः स्मृताः॥ १९ ॥ सूर्यस्य ग्रहणे उक्तप्रकारेण याः कोटिकलाः सूर्यग्रहणोक्तस्पष्टस्थित्यर्धा नीतामध्यस्थित्यर्धेन सूर्यग्रहणोक्तस्पष्टशरानीतस्थित्यर्धेन संगुणिताः स्फुटस्थित्यर्धेन सूर्यग्रहणाधिकारोक्तेन भक्ताः सत्यः स्पष्टा कोटिकलाः सूर्यग्रहणतत्त्वज्ञैरुक्ताः । अत्रोपपत्तिः । सूर्यग्रहणे स्पर्शमोक्षान्यतरमध्यकालयोरन्तरस्य स्थित्यर्धत्वात्तस्य च स्पष्टशरोडूत" स्थित्यर्धलम्बनान्तरैक्यसंस्कारमितत्वात्स्पष्टस्थित्यर्धानुरुद्धा उक्तरीत्या नीताः कोटि कलाः । अपेक्षिताश्च स्पष्टशरोभूतस्थित्यानुरुद्धाः । एतत्कोटिसम्बद्धं क्षेत्रम् । स्थित्यर्धक्षेत्रान्तर्गतत्वात् ।। स्पष्टस्थित्यर्धस्य तूक्तक्षेत्रोत्पन्नत्वाभावात् । अन्यथा स्पष्ट शरोद्गतस्थित्यर्धस्य लंबनान्तरक्यसंस्कारानुक्तिप्रसङ्गः ।। अतः स्पष्टस्थित्यर्धनताआगताः कोटिकलास्तदा स्पष्टशरोद्गतक्षेत्रजमध्यमरूपस्थित्यर्धेन का इति स्फुटा: कलाः सिद्धाः ॥ १९॥
भा०टी०-सूर्यग्रहण में कोटिकला मध्यस्थित्यर्घद्वारा गुणकरके स्फुट स्थिस्यद्वारा भागकरनेपर स्फुट कोटिकला होगी ॥ १९ ॥ अथाभ्य इष्टग्रासानयनमाह
क्षेपो भुजस्तयोर्वर्गयुतर्मुलं श्रवस्तु तत् ॥
मानयोगार्धतः प्रोज्य ग्रासस्तात्कालिको भवेत् ॥ २० ॥ क्षेपो विक्षेपो भुजः । कोटिभुजयोः कर्णसापेक्षत्वादाह-तयोरिति । कर्णस्तु तयों कोटभुजयोर्वर्गयोगान्मूलं सिद्ध एव । तत्कर्णवर्गात्मकं मूलं ग्राह्यग्राहकमानैक्याधाद्धिशोध्य शेषं तात्कालिकः कल्पितेष्टकालसंबंधी ग्रासो वातासः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । क्षेत्रं पूर्व प्रतिपादितम् । स्पर्शकाले मानैक्यखण्डस्य कर्णत्वात् क्षेत्रयोरुभयोर्मध्यकालावधित्वादिष्टकोनं मानैक्यखण्डमिष्टग्रास एव ॥ २० ॥ ___ भा०टी०--विक्षप (भुज)वर्ग और कोटीफलका वर्ग मिलाकर मूल ग्रहण करनेसे कर्ण होगा । चन्द्रसूर्यमान-योगाईसे वर्णवियोग करनेपर तात्कालिक ग्रास होगा ॥ २० ॥
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(१०६) सूर्यासद्धान्तः।
[ चतुर्थोऽअथ मध्यग्रहणानन्तरमिष्टयासानयनमाह
मध्यग्रहणतश्चोर्ध्वमिष्टनाविंशोधयेत् ॥
स्थित्यर्धान्मोक्षिकाच्छेषं प्राग्वच्छेषं तु मौक्षिके ॥ २१ ॥ मध्यग्रहणकालादूर्ध्वमनन्तरम् । चकारो विशेषार्थकतुकारपरः । इष्टघटि काः कर्म । मौक्षिकान्मोक्षकालसम्बद्धात् स्थित्यर्धात् । न स्पर्श विशोधयेत् । गणक इति कर्ताक्षेपः । शेषं कोटिलिप्तादिनासानयनान्तं गणितकर्मप्राग्वटुक्त्यः तरं समाहन्यादित्युक्तमकारण कुर्यात् । मौक्षिके मोक्षस्थित्यर्धान्तर्गतेष्टकाले तुविशेषे । ग्रासः शेषमुरितो ग्रासोऽवान्तरग्रासो भवति । पूर्ववद्गतः । अत्रोपपतिः । पातादिमध्यग्रहणात्पूर्वामिष्टकालस्य ग्रहणारंमावधिकस्य स्पर्शस्थित्यर्ध: सम्बद्धत्वादागतो ग्रास उपचयात्मकः । नावशिष्टः । अवशिष्टमण्डलस्य शुदत्वेन ग्रस्तत्वासम्भवात् । एवं मध्यग्रहणानन्तमिष्टकालस्य मोक्षस्थित्यान्तर्गतत्वादुक्तरीत्यानीतो ग्रासोऽपचयात्मकः । न शुद्धविम्बदर्शनात्मकः । ग्रस्त. त्वाभावात् ॥ २१॥
भा०टी०-मध्यग्रहणके पीछे होनेपर.मौक्षिक स्थित्यर्द्धसे इष्टनाडी ( मोक्षकाविमुक्त इष्ट दण्डादि ) वियोग करके कोटिनिर्णय करे ॥ २१ ॥ अथाभीष्टग्रासादिष्टकालानयनं श्लोकाभ्यामाह
ग्राह्यग्राहकयोगार्धाच्छोध्या स्वच्छत्रलिप्तिकाः ॥ तदर्गात्प्रोड्य तत्कालविक्षेपस्य कृति पदम् ॥ २२॥ कोटिलिप्ता खेः स्पष्टस्थित्यधनाइता हृताः ॥
मध्येन लिप्तस्तन्नाड्यः स्थितिवद्ग्रासनाडिकाः ॥२३॥ छायच्छादकमानैक्यखण्डादभीष्टग्रासकलाः शोध्याः। शेषस्य वर्गादभीष्टग्रासकालिकविक्षेपस्य वर्ग विशोध्यः शेषस्य मूलं कोटिकलाः । सूर्यग्रहणे विशेषमाह-वेरिति । सूर्यस्य ग्रहण इतिशेषः । भानोर्ग्रह इति पूर्वमुक्तेः । उक्तप्रकारेण याः कलास्ता मध्यग्रहणकालस्पर्शमोक्षान्यतरकालयोरन्तररूपेण स्पष्टास्थित्यर्धेन गुण्याः । स्पष्टशरोत्पन्नस्थित्यर्धेन मध्यमेन भक्ताः फलं कोटिकला भवन्ति । स्थितिवत् स्थित्यर्धसाधनरीत्या । “षष्ट्या सद्गुण्य सूर्येन्दोमुक्तयन्तरविभाजिताः ” इत्युक्तेन तासां कोटिकलानां घटिकायास्ता अभीष्टग्राससम्बन्धिघटिकाः स्पर्शमोक्षान्यतरस्थित्यान्तर्गताः ऋमेण मध्यग्रहणाच्छेषा गता वा भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । पूर्वोक्तव्यत्यासात्सुगमतरा । परन्तु स्वाभीष्टपासकालिकशरज्ञाने सूक्ष्मम् । तच्छराज्ञाने मध्यकालिक शरग्रहणेन
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ध्याय ३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१०७) स्थूलम् । अतएव भास्कराचार्यैः कालसाधने तत्कालबाणेन मुहुः स्फुट इत्युक्तामति विशेषः ॥ २२ ॥ २३ ॥
भा० टी०-ग्राह्य और ग्राहकके योगाईसे स्वीय आच्छन्न ( ग्रास ) कला पृथक्वारे तिसके दर्गसे तितकालका विक्षेपवर्ग अलग करके. मूळकरनेसे कोटि होगी ॥ २२ ॥ परन्तु सूर्य ग्रहणमें कोटिकला स्पष्ट स्थिरयाई से गुणकरके मध्य स्थित्य से भागकरनेपर कोटि होगी। तिस से स्थितिके सिद्ध होनेकी समान ग्रासनाडीको स्थिर करना चाहिये ॥ २३ ॥ अथ वक्ष्यमाणग्रहणपरिलेखोपयुक्तवलनस्यानयनं श्लोकाभ्यामाह
नतज्याक्षज्ययाभ्यस्ता त्रिज्याप्ता तस्य कार्मुकम् ॥ वलनांशाः सौम्ययाम्याः पूर्वापरकपालयोः ॥ २४ ॥ राशित्रययुताग्राह्याकान्त्यशैदिक्समैर्युताः ॥
भेदेऽन्तराज्ज्यावलना सप्तत्यंगुलभाजिताः ॥२५॥ यत्कालिकं वलनं कर्तुमिष्टं तात्कालिकं नतं चन्द्रग्रहणे चन्द्रस्य सूर्यग्रहणे सूर्यस्य साध्यम् । तद्यथा स्वोदयात्स्वास्ताद्गतशेषघटिकाः । स्वदिनार्धान्तर्गताः स्वदिनार्धादुनाः क्रमेण पूर्वापरनतघटिका भवन्ति । तन्नत नवतिगुणं स्वादिनार्धभक्तं नतांशास्तेषां ज्या नतज्येत्यर्थः । स्वदेशांक्षांशज्यया गुणिता त्रिज्यया भक्ता फलस्य धनुः कलात्मकं षाष्टिभक्तं पूर्वापरकपालयोः पूर्वापरनतयोः क्रमेणोत्तरदक्षिणावलनांशा भवन्ति । यत्कालिकं वलनं तात्कालिकाद्राह्याद्रांशित्रययुतात्सायनांशाये क्रान्त्यंशास्तैदिक्तुल्ययुता स्तेषां ज्याभेदे भिन्नदिक्त्वेऽन्तरात्क्रान्त्यंशवलनांशयोरन्तराज्ज्यासप्तत्यंगुलैभक्ता शेष: दिक्का । अंगुलात्मकत्वेन हरस्योदेशांगुलादिका वलना भवति । अत्रोपपत्तिः । समवृतपूर्वापरादिदिग्भ्यः क्रान्तिवृत्तपूर्वापरादिदिशो यावतान्तरेण वलिता उत्तरस्यां दाक्षणस्यां वा वलनांशाः । तदानयनार्थ प्रथमतः समवृत्तानुरुददिग्भ्यो विषुववृत्तदिशो यावतान्तरेण वलिता दक्षिणोत्तरयोस्तदाक्षवलनम् । तथाहि । समप्रोतचलवृत्तं ग्रहचिह्नस्थं समविषुट्टवत्तयोर्यत्र लग्नं तत्प्रदेशान्नवत्यंशान्तरे स्वस्ववृत्ते प्राच्योरन्तरं वलन तत्तुल्यमेवेतरादिशामन्तरं पूर्वकपालस्थग्रह समवृत्तप्राचीतो विषुववृत्तप्राच्या उत्तरत्वा दुत्तरम् । पश्चिमकपालस्थे तु समवृत्तप्राचीतो विपुववृत्तप्राच्या दक्षिणत्वादक्षिणम् । तत्र क्षितिजस्थे ग्रहे तदन्तरमक्षांशतुल्यम् । याम्योत्तरवृत्तस्थे ग्रहे तदन्तराभावः । अतस्त्रिज्यातुल्यया नतकालज्ययाक्षज्यातुल्याक्षवलनज्या तदेष्टनतज्यया केत्यनुपातागताक्षज्याया धनुराक्षवलनमुक्तमुपपन्नम् । द्वितीयं तु विषुववृत्तदिग्भ्यः। क्रांतिवृत्तदिशो यावतान्तरेण वलिता दक्षिणोत्तरयोस्तदायनं वलनम् । तथाहि वप्रोतवृत्तं ग्रहचिह्नर्थ विषुववृत्ते यत्रासन्नं लगति तत्स्थानाचतुर्थांशान्तरे यत्स्थानं तद्विषुवत्प्राची । तस्या ग्रह
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सूर्यसिद्धान्तः
( १०८ ) [ चतुर्थोऽचिह्नात् त्रिभान्तरितक्रान्तिवृत्तप्राची यदन्तरेण तदायनं वलनम् । ततुल्यमेवेतर दिशामन्तरम् । उत्तरायणस्थे ग्रह उत्तरं दक्षिणायनस्थे ग्रहे दक्षिणम् । नत्वयनसंधावभावात्म कम् । गोलसन्धौ परमक्रान्तितुल्यमतः सत्रिभक्रान्तितुल्यं सत्रिभग्रहगोलदिक्कामित्युपपन्ने राशित्रययुताद्भाह्यात्कास्यंशैरिति । द्वयोर्वलन योरकेदिक्त्वे समवृत्तमाचीतः क्रान्तिवृतप्रचीतद्योगरूपस्फुटवलनान्तरेण वलनादाशे भवति । भिन्नदिक्त्वे तु वलनान्तररूयस्फुटवलनान्तरेण शेषदिशि भवति । तज्ज्यस्फुटवलनज्या त्रिज्यावृत्ते । अग्रे परिलेख एकोनपञ्चाशन्मितव्य | सार्द्धवृत्ते दानार्थं त्रिज्यावृत्त इयं तदैकोनपञ्चाशन्मितं व्यासार्द्ध केत्यनुपाते प्रमाणेच्छयोरिच्छा पवर्तनाद्धरस्थानेऽधोवयवत्यागात्सप्ततिः । अतो दिक्समै
इत्याद्युपपन्नम् ॥ २४ ॥ २५ ॥
1 मा० टी० - ग्रस्तकी नवी हुई ज्याको अक्षज्यासे गुणकर के त्रिज्यासे भागकरने पर जो ज्या होगी तिससे धनुकरनेपर वलनांश होगा नतके पूर्वापर के अनुसारसे वलन उत्तर दक्षि में स्थिर करना चाहिये || २४ || तीन राशिवाले ग्रस्तग्रहस्फुटकी निर्देश करे । वलनशि और उत्क्रान्ति एकदिशा में होनेसे योग, अन्यथा अन्तर करनेसे स्फुट वलन है । स्फुट बलनन्या ७० से भागकरनेपर भागफल भंगुलादिक वलनग्रस्त ग्रहका होगा ॥ २५ ॥
अथ कलात्मकबिम्बविक्षेपादीनामंगुलीकरणमाहसोन्नतं दिनमध्यर्थं दिनार्घाप्तं फलेन तु ॥ छिन्द्याद्विक्षेपमानानि तान्येषामंगुलानि तु ॥ २६ ॥
दिनमानमध्यर्धमर्ध इत्यध्यर्धे स्वार्धयुक्तमित्यर्थः । अभीष्टकालिकोन्नतघटीभिः सहितं दिनार्धेन भक्तं फलेन । तुकारो यद्ग्रहणं तस्य दिनमानोन्नते ग्राह्ये इत्यर्थकः वि क्षेपग्राह्यग्राहकबिम्बमानानि । तानि पूर्वोक्तानि कलात्मकानि । ग्रासादिकमपि ध्येयम् । भजेत् । तुकारात्फलमेषां कलात्मकानामङ्गुलानि भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । उदयास्तकाले बिम्बकिरणानां भूमिगोलावरुद्धत्वेनाल्पोर्ध्वस्थ करणानां नयनप्रतिहननार्हत्वाद्विम्बं व्यक्तत्वान्महद्भासते । तत्रांगुलात्मकं बिम्बकलात्रयात्मकै कांगुलप्रमाणेन भवति । मध्यस्थे ग्रहे तु बिम्बस्य सर्वकिरणावरुद्धत्वान्नयनप्रतिघाताच्च सूक्ष्मं विम्बं भासते तत्रांगुलात्मकं बिम्बं कलाचतुष्टयात्मकैकांगुलप्रमाणेन भवति । तत्रोदयास्तकाले शङ्कोरभावात्खमध्ये तस्य त्रिज्यातुल्यत्वात्रिज्यातुल्यशङ्कावुदयकालिकैकांगुलमानस्य कलात्रयस्यैकांगुलमुपचयो लभ्यते तदेष्टशङ्कौ कइत्यनुपातेनाभीष्टकाले फलं युक्तम् । त्रयमेकांगुलस्य कलात्मकं मानं भवति । rara भास्कराचार्यैरुदयास्तकाले सार्द्धद्वयं कलांगुलमानमंगीकृत्य “त्रिज्योद्धृतस्तत्समयोत्थशंकुः सार्धंद्वियुक्तोऽङ्गुललिप्तिकाः स्युः इत्युक्तम् । तत्र भगवता लोकानुकम्पया स्वल्पान्तरत्वाच्च मध्याह्नेऽपि कला - चतुष्टयात्मकमेकांगुलमंगीकृत्य दिनांर्धतुल्य परमोन्नत काल एकापचयस्तदेष्टोन्नतकाले क
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अन्यायः५] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१०९) इत्यनुपातागतफलयुक्तं त्रयं कला एकांगुलमानमभीष्टकाले । तत्र दिनार्धभक्तोन्नतकालस्य फलरूपत्वात्रयाणां समच्छेदतया योजने त्रिगुणितं दिनार्ध साँधैकगुणदिनमा नरूपमुन्नतकालयुक्तं दिनार्धभक्तामति सिद्धम् । तत एतत्कलाभिरेकांगुलं तदेष्टकलाभिः किमित्यनुपातन कलात्मकानामगुलीकरणमुक्तमुपपन्नम् ॥ २६ ॥ __ भा०टी०-दिनमानमें निजके भई और उन्नतघटिका योग करके दिनाईसे भागकरनेपर जो फल होगा, तिस्से कलादि विक्षेप बिम्बमान भादिको मागकरनेसे अंगुलादि होंगे ॥ २६॥ __ अथानिमग्रन्थस्यासङ्गतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्तिं फक्किकयाह-स्पष्टम् ।। रंगना थन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । चन्द्रग्रहाधिकारोऽयं पूर्णो गूढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमवल्लालदैवज्ञात्मजरंगनाथगणकावराचतेगूढार्थप्रकाशके चन्द्रग्रहंणाधिकारः पूर्णः ॥
इति चन्द्रग्रहणाधिकारः। .
चतुर्थोऽध्यायः समाप्तः।
अथ पंचमोऽध्यायः। अथ सूर्यग्रहणाधिकारो व्याख्यायते । तत्र यत्पदार्थविशेषप्रयुक्तश्चन्द्रग्रहणाधिकारातिरिक्तः सूर्यग्रहणाधिकारस्तद्विशेषयोरभावस्थानादेवोत्पत्तिनियमात्तयोरभावस्थानकथनव्याजेन तयोरुद्देशमाह
. मध्यलनसमे भानो हरिजस्य न सम्भवः ॥ __ अक्षोदङ्मध्यभक्रान्तिसाम्येनावनतेरपि ॥ १॥ सूर्येऽमावास्यान्तकालिके मध्यलग्नसमे सति दिनमध्यस्थान ऊर्ध्वयाम्योत्तरवृत्ते लग्नः क्रांतिवृत्तप्रदेशो मध्यलग्नं त्रिप्रश्नाधिकारोक्तम् । तत्तुल्ये सति मध्याह्न इति फलितम् । हरिजस्य लम्बनस्य भूपृष्ठक्षितिजवशालम्बनोत्पत्तेलंबनस्यापि क्षितिजवाचकहरिजशब्देनाभिधानात्सम्भव उत्पत्तिन । तत्र लम्वनाभाव इत्यर्थः । अथ मध्याह्नइति स्फुटोक्त्यपेक्षया मध्यलग्नसम इति वक्रोक्तिः कृपालोभगवतो नोचितेत्यग्रिमग्रन्थार्थतत्त्वविचारणयापि मध्याह्न तदभावानुपपत्तेः साम्प्रदायिकव्याख्यामनादृत्य तत्त्वार्थो व्याख्यायते । लग्नयोरुदयक्षितिजास्तक्षितिजप्रदेशयोः संलग्नक्रांतिवृत्तप्रदेशयोर्मध्यम् । ऊर्ध्वमध्यप्रदेशस्त्रिभोनलग्नमित्यर्थः । प्रयोगस्तु मध्याह्न इतिवत् । तत्तुल्येऽर्के लम्बनस्याभाव इति । “दर्शान्तलग्नं प्रथमं विधाय न लम्बनं वित्रिभलग्नतुल्ये । वौ तदनेऽभ्याधिके च तत्स्यादेवं धन% क्रमशश्च वेद्यम् ॥” इति भास्कराचार्येण स्फुट
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(११०) . सूर्यसिद्धान्तः
[पंचमोऽमुक्तेश्च । नत्यभावस्थानमाह-अक्षेत्यादि । अक्षांशा उत्तरा ये मध्यभस्य मध्यलग्रस्य क्रान्त्यंशाः । अत्र मध्यलग्नशब्देन दशमभावास्त्रभोनलग्नं वा ग्राह्यमुभयपक्षेऽप्यदोषः । अनयोस्तुल्यत्वेऽवनतेनतेः । अपिशब्दात्सम्भवो न । अभाव इत्यर्थः । नत्वपिशब्दालम्बनस्यापि तत्राभावः । उत्तरक्रान्त्यक्षयोस्तुल्यत्वे मध्यलग्नतुल्यार्कवाभावेऽपि तद. भावापत्तेः । अत्रोपपत्तिः । अमावास्यान्तकाले समौ सूर्यचन्द्रौ । तत्र चन्द्रशराभावे भूगर्भान्नीयमानं भूसूत्रमर्कस्थानावधि चन्द्रं स्पृशत्येवोत भूगर्भेच्छादकत्वं चन्द्रस्य सूर्यस्य च्छाद्यत्वं सम्भवति । तत्र मनुष्याणामसत्त्वाडू पृष्ठे तेषां सत्त्वाच्च भूपृष्ठान्नीयमानमर्कोपरि सूत्रं चन्द्रे न लगत्येव। किन्तु चन्द्राधिष्टानगोले चन्द्रचिह्नादूर्ध्व लगति । तत्र यदा चन्द्र आयाति तदा भूपृष्ठे सूर्यस्य चन्द्रश्छादको भवति । यदा तु खमध्ये सूर्यरतदा भूगर्भसूत्रं भूपृष्ठसूत्रं च सूर्योपरिगमेकमेव चन्द्रे लगतीति भूपृष्ठेऽमान्तकाले चन्द्रश्छादको भवति । अतएव भूगर्भपृष्ठसूत्रान्तरं लंबनम् । भूपृष्ठसूत्रात्सू र्योपरिगाचन्द्राधिष्ठानाकाशगोले चन्द्रस्य शरसत्त्वे चन्द्रचिह्नस्य वा लम्बितत्वात् । अतएव भास्कराचार्यैरुक्तम् 'दृग्गर्भसूत्रयोरैक्याखमध्ये नास्ति लम्बनम् ॥' इति । अथ चन्द्राधिष्ठानगोले भूपृष्ठसूत्रमर्कोपरिगतं चन्द्रचिदादूर्व चन्द्रदृग्वृत्ते यदशैलंगति तल्लम्बनं दृग्वृत्ताकारकक्रांतिवृत्ते भवति । यया तु दृग्वृत्ताद्भिन्नं क्रांतिवृत्तं तदा भूपृष्ठसूत्रं चन्द्राधिष्ठानगोले चन्द्रग्वृत्ते चन्द्रादूर्ध्वं यत्र लग्नं तत्र चन्द्रगोलस्थक्रांतिवृत्तयाम्योत्तर रूपकदम्बप्रोतवृत्तमानीय चन्द्रगोलस्थक्रांतिवृत्ते यत्र लग्नं तच्चन्द्रचिह्नयोरन्तरं क्रांतिवचे पूर्वापरं स्फुटलम्बनकलाः कोटिः। चन्द्रस्य क्रान्तिवृत्तानुसारेण गमनात्मोतवृत्ते क्रांतिवृत्तदृग्वृत्तयोरन्तरं याम्योत्तरं कलात्मकं नतिर्भुजः । भूगर्भपृष्ठसूत्रान्तरं दृग्वृत्ते कलात्मकं दृग्लम्बनं कर्णः । दृग्वृत्तस्य कदम्बप्रोतवृत्ताकारत्वे क्रान्तिवृत्ते तयोरन्तरा. भावालम्बनाभावः । याम्योत्तरमन्तरं दृग्लम्बनं नतिरेवोत्पन्ना । दृग्वृत्ताकारक्रान्तिवृत्ते तु दृग्लंबनमेव क्रांतिवृत्ते तयोरन्तरमिति लम्बनमुत्पन्नंनत्यभावश्च । तथा च दृग्वृत्तस्य कदम्बप्रोतवृत्ताकारत्वे त्रिभोनलग्नस्थानेऽर्को भवति । तदृत्तस्य क्रान्तिवृत्तयाम्योत्तरत्वेनोदयास्तलग्नमध्यवर्तित्वेन लग्नस्थानात् त्रिभान्तरितत्वात् । नहि क्रान्तिवृत्ताद्याम्योचरान्तरज्ञानार्थसमप्रोतवृत्तमङ्गीकार्यम् । येन दशमभावतुल्यार्के लम्बनाभाव उपपत्रः स्यात् । क्रान्तिवृत्तस्य गोलवृत्तत्वेन समप्रोतवृत्तस्य देशवृत्तत्वेन सम्बन्धाभावात् । अतएव भगवता सर्वज्ञेन नतिसाधनार्थमग्रे दृक्क्षेपः कदम्बप्रोतवृत्ते त्रिभो नलग्नस्यैव साधितः । दृकूक्षेपाभावे त्रिभोनलग्नस्य खमध्यस्थत्वेन तदा तस्य दशमभावतुल्यत्वेन दशमभावनतांशाभावाक्षेपाभावः । तदा त्रिभोनलग्नस्य नतांशाभावश्च । नतांशाभावस्त्वक्षांशतुल्योत्तरकांन्तौ सुखार्थ स्थूलांगीकारे तु दशमभावस्यैव नतांशोन्नतज्ये क्षेपदृग्गती नतिलम्बनयोः साधनार्थ समनन्तरमेव भगवतोक्ते तु वस्तुरूपे । आयासेन हक्षेपसाधनस्योक्तस्य वैयापत्तेरिति सर्व निवद्यम् ॥ १ ॥
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ध्यायः ५] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१११)
भा० टी०-सूर्यस्फुट मध्यलग्न सम होनेसे लम्बनका सम्भव नहीं होता.। उत्तर-अक्षांश और दशमकी क्रान्तिसाम्यमै अवनतिकीभी सम्भावना नहीं है ॥ १ ॥ अथोद्दिष्टयोरभावस्थानातिरिक्तस्थाने सम्भवात्प्रतिपादनं प्रतिजानीते
देशकालविशेषेण ययावनतिसम्भवः॥
लम्बनस्यापि पूर्वान्यदिग्वशाच्च तथोच्यते ॥२॥ देशविशेषेण कालविशेषेणावनतिसम्भवो नतिकालोत्पत्तिर्गोलस्थित्या यथा भवति । लम्बनस्यापि समुच्चये त्रिभोनलग्नस्थानात् पूर्वापरदिगनुरोधात् चकारात्सम्भवो देशकालविशेषेण यथा भवतीत्यर्थः । तथा तत्तुल्येन नतिलम्बने आनयनद्वारा मया कथ्यते ॥ २॥
मा०टी०-देशकालके उपरोक्त न होनेसे जो अवनति होती है और मध्यरेखाके पूर्व या पश्चिम होनेके वशसे जो लंपन होता है, सो इस समय कहता हूं ॥२॥ तत्रोपयुक्तामुदयाभिधामाह
लग्ने पर्वान्तनाडीनां कुर्यात्स्वैरुदयासुभिः ।।
तज्ज्यान्त्यापक्रमज्यानी लम्बज्याप्तोदयाभिधा ॥३॥ स्वैः स्वदेशीयैरुदयासुभी राश्युदयासुभिः पर्वघटिकानां लग्नं गणकः कुर्यात् । पर्वान्तकालिकं लग्नं साध्यमित्यर्थः । यद्यपि' पूर्व लग्नसाधनं स्वोदयैरेवोक्तमिति स्वैरुदयासुभिरिति व्यर्थ तथापि समनन्तरमेव दशमभावसाधनोत्तया कस्यचिल्लग्नं व्यक्षोदयेखात्र साध्यमिति भ्रमस्य वारणाय पुनरुक्तिः । तस्य लग्नस्यायनांशसंस्कृतस्य ज्याभुजज्यापरमक्रान्तिज्यया गुण्या स्वदेशीयलम्बज्यया भक्ताफलमुदयसझं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । लग्नक्रान्तिज्यासाधनाथ लग्नभुजज्यायाः परमक्रान्तिज्यागुणस्त्रिज्या हरस्ततो लंबज्याकोटौ त्रिज्याकर्णस्तदा लग्नक्रान्तिज्याकोटौ कः कर्ण इत्यनुपाते त्रिज्ययो नाशाल्लमभुजज्या परमक्रान्तिज्या गुणालम्बज्यया भक्ताफलं लग्नस्याया। इयं भगवतोदयसझोक्ता लग्नस्योदयसंज्ञत्वात् । उदयसम्बन्धाचेत्युक्तमुपपन्नम् ॥ ३ ॥
भाल्टी-स्वदेशीय उदयप्राणसे पर्वान्तकालकी ( सायन ) लग्न गिने । तिसकी भुज न्याको परमापक्रमज्या ( १३९७) से गुणकरके स्वदेशीय सम्बज्यासे भाग करनेपर उदय होगा ॥३॥ अथोपयुक्तां मध्यज्यां सार्धश्लोकेनाह
तदा लकोदयेर्लनं मध्यसझं यथोदितम् ॥ तत्क्रान्त्यक्षांशसंयोगो दिक्ताम्येऽन्तरमन्यथा ॥ शेषं नताशास्तन्मौर्वी मध्यज्या साभिधीयते ॥४॥
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(११२) सूर्यसिद्धान्तः
[ पञ्चमो-- तदा पन्तिकाले लङ्कोदयैर्व्यक्षदेशीयराश्युदयैर्यथोदितं पूर्वोक्तमकारेण जातकपद्धत्युक्तनतघटीभिर्धनमृणं यथायोग्यं मध्यसझं लग्नं दशमभावात्मकं साध्यम् । अत्र ल. नसम्बन्धेन स्वदेशराश्युदयासु ग्रहणशङ्कावारणाय लंकोदौरित्युक्तम् । तस्य दशमभावस्यायनांशसंस्कृतस्य क्रान्तिः स्वदेशाक्षांशाः । अनयोर्योग एकदिक्त्वे कार्यः । अन्यथा भिन्नदिक्त्त्वेऽन्तरं तयारखे शेषं संस्कारजदिकानतांशास्तेषां ज्या, कार्या सा मध्यलग्ननतांशज्या मध्यज्योच्यते तत्सम्बन्धात् । अत्रोपपत्तिः स्पष्टा ॥ ४॥
भा०टी०-तदुपरान्त लङ्कोदयप्राणसे (सायन ) मध्यलग्न (दशम ) साधन करै । मध्य_ लग्नकी क्रान्ति और अक्षांश एक मोर होनेसे योग भार भन्यथा वियोग करनेसे शेषनतांदा होता है, तिसकी ज्या करनेसे मध्यज्या होती है ॥ ४॥
अथाभ्यामुपयुक्तं दृक्क्षेप लम्बनोपयुक्तां दृग्गतिं च सार्धश्लोकेनाहमध्योदयज्ययाभ्यस्ता त्रिज्याप्तावर्गितं फलम् ॥५॥ मध्यज्यावर्गविश्लिष्टं दृक्षः शेषतः पदम् ॥ तत्रिज्यावर्गविश्लेषान्मूलं शकुः सदृग्गतिः॥६॥ पूर्वोक्तमध्यज्या पूर्वानीतोदयाभिधयोदयज्यया । अस्या ज्यारूपत्वाज्ज्ययेत्युक्तम् । गुणितात्रिज्यया भक्तफलं वर्गितं वर्गः मञ्जातो यस्य तत् । फलस्य वर्गः कार्य इत्यर्थः । मध्यज्यायावर्गे विश्लिष्टं हीनं वर्गितं फलं कार्यम् । शेषान्मूलं दृक्क्षेपः स्यात् । दृक्क्षेपत्रिज्ययोयौं वर्गों तयोरन्तरान्मूलं शंकुः स आनीतः शंकुदिग्गतिसञो भवति । नतु शंकुमात्रम् । अत्रोपपत्तिः । त्रिभोनलग्नस्य गूज्यानयनाथ क्षेत्रम् । मध्यलग्नहग्ज्याकर्णस्त्रिभोनलग्नस्य याम्योत्तरवृत्तात् प्रागपरस्थितत्वेन तत्वस्वस्तिकान्तरस्थिततदीयदृग्वृत्ते प्रदेशांशज्या कोटिः । मध्यलग्नत्रिभोनलग्नान्तरांशज्याक्रान्तिवृत्तस्थो भुजः । अत्र भुजानयनं चोदयलग्नस्थक्रांतिवृत्तप्रदेशः । प्रास्वस्तिकात्तदग्रान्तरेणोत्तरदक्षिणो भवति एवमस्तलग्नप्रदेशः परस्वस्तिकाद्दक्षिणोत्तरः । तदनुरोधेन च त्रिभोनलग्रप्रदेशक्रांतिवृत्तीययाम्योत्तरवृत्तरूपतग्वृत्तं क्षितिजे याम्योत्तरवृत्तक्षितिजसम्पातात्तदाग्रान्तरेण लग्नमवश्यं भवति । अतस्त्रिज्यातुल्यमध्यलग्नग्ज्यया लग्नाग्रातुल्यो भुज. स्तदाभीष्टतदृग्ज्यया कइत्यनुपातेन सफलसज्ञः । तदर्गोनान्मध्यलग्नग्ज्यावर्गान्मूलं त्रिभोनलग्नस्य दृग्ज्या हक्क्षेपाख्या। एतदर्गोनात् त्रिज्यावर्गान्मूलं त्रिभोनलग्नशंकुईग्गतिसज्ञः । अत्रेदमवधेयम् । त्रिप्रश्नाधिकारोक्तमकारेण त्रिभोनलग्नस्य शंकुदृग्ज्ये दृग्गतिहक्क्षेपतुल्ये न भवतः । किन्तु दृग्गतिक्षेपाभ्यां क्रमेण न्यूनाधिके भवतः सर्वदा धूलोकर्मणानुभवात् । अत आनीतोऽयं दृक्क्षेपत्रिभोनलग्नदृमण्डल स्थिताऽपि न त्रिज्यानुरुद्धः । 'किन्तु फलवर्गोनत्रिज्यावर्गपदरूपविलक्षणवृत्तव्यासाई प्रमाणेन सिद्ध इति गम्यते ॥ अतो गज्यायास्त्रिज्यानुरुद्धत्वेन त्रिज्यावृत्तपरिणतो
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ध्यायः ५.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । दृक्षपस्त्रिभोनलग्नस्य दृगूज्यास्फुटदृक्क्षेपरूपा । अस्यास्तत्रिज्यावर्गेत्यादिना दृग्गतिः स्फुटा त्रिभोनलग्नशंकुरूपा । एतदनुक्तिः स्वल्पान्तरत्वाद्गणितसुखाथै कृपालुन कृता । त्रिप्रश्नक्रियागौरवाभियैतन्मार्गान्तरं लाघवादुक्तमिति दिक् ॥५॥६॥
भान्टो०-मध्यज्याको पहली कही हुई उदयज्यासे गुण करके त्रिज्यासे भाग करके बर्ग करता हुआ मध्यज्यावर्गसे वियोग करके मूल करनेसे हक्क्षेप होगा, हक्क्षेपवर्ग भार त्रिज्या वर्गका अन्तर शंकवर्ग है. तिसके मूलको दृक्गति कहते हैं ॥ ५ ॥६॥ अथ लाघवाक्क्षेपदृग्गती गणितसुखार्थं श्लोकार्धेनाह
नतांशबाहुकोटिज्ये स्फुटे हक्क्षेपहरगती ॥ दशमभावनतांशानां भुजकोटयोर्नतांशतदूननवतिरूपयोरनयोज्यै क्रमेण दृक्क्षेपदृग्गती अस्फुटे स्थूल । यद्वा स्फुटे प्रागुक्ते इक्षेपदृग्गती विहाय गणितलाघवा थै दशमभावनतांशभुजकोटयोये तत्स्थानापन्ने ग्राह्ये । यत्तूदयज्याभाव नतांशबाहकोटिज्ये दृक्क्षेपदृग्गती स्फुटे इतिः । तन्न । उक्तप्रकारेणैतत् सिद्धेस्तत्कथनस्य व्यर्थत्वात् । अत्रोपपत्तिः । त्रिभोनलनस्य दशमभावासन्नत्वेन दशमभावस्य याम्योत्तरवृत्तस्थत्वेन लाघवार्थ दशमभावमेव त्रिभोनलग्नं प्रकल्प्य तन्नतांशज्यामध्यज्यारूपा त्रिभोनलग्नहक्क्षेपः । उन्नतज्याशंकुर्दग्गतिः । इदमतिस्थूलम् । यैस्तु भगवतोक्तं मध्यलग्नं दशमभावपरतया व्याख्यातं तेषां मते एतदुक्तमिति सूक्ष्मम् । प्रयाससाधितहक्षेपदृग्गती प्रागुक्ते सूक्ष्मे अप्यतिस्थूले इति ध्येयम् । भास्कराचा
न । "त्रिमोनलग्नस्य दिनार्धजाते नतोन्नतज्ये यदि वा सुखार्थम् ” इति यदुक्तं तदस्मात्सममिति ध्येयम् ॥
भा०टी०-स्थूलपक्षमें दशम उनके नताशकी वाहु और कोटिज्याको दृक्षेप और दृग्गति समझा जाता है ॥ अथ लम्बनोपयुक्तच्छेदकथनपूर्वकं लम्बनानयनं साईश्लोकेनाह
एकज्यावर्गतश्छेदो लब्धं दृग्गतिजीवया ॥७॥ मध्यलपार्कविश्लेषज्याछेदेन विभाजिता ॥
रवीन्दोर्लम्बनं ज्ञेयं प्रापश्चाइटिकादिकम् ॥८॥ एकराशिज्याया वगादृग्गतिजीवया प्रागुक्तहग्गत्या । दृग्गतेस्त्रिशंकुरूपत्वेन या पत्वाजीवयेति स्वरूपप्रतिपादनम् । भागहरणेन लब्धं छेदसंज्ञ: स्यात् । अथ मध्यलग्नं त्रिभोनलग्नं दर्शान्तकालिकं नतु दशमभावः तात्कालिकः सूर्यः अनयोरन्तरस्य त्रिभानथिकस्य ज्याछेदेन प्राक्साधितेन भक्ता फलं घटिकादिकं प्रापश्चात्रि १ प्राक्पश्चाद्घटिकादितत्इति वा पाठः ।
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( ११४ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ पञ्चमो -
भोनलग्नरूपमध्यलग्नस्थानात्पूर्वा परविभागयोः सूर्यचन्द्रयोस्तुल्यं लम्बनं ज्ञेयम् । अत्रोपपत्तिः । “त्रिभोनलग्नार्कविशेषशिञ्जिनीकृता हता व्यासदलेन भाजिता । हतात्फला द्वित्रिभग्नशंकुना त्रिजीवयाप्तं घटिका दिलम्वनम् ॥” इति सिद्धांतशिरोमणी सूक्ष्मं लम्बनानयनमुक्तम् । तस्योपपत्तिस्तट्टीकायां सुप्रसिद्धा । मध्यलग्नस्य त्रिभोन पर - त्वेन व्याख्यानान्मध्यलग्नार्क विश्लेषज्यात्रिभोनलग्ना कविश्लेषशिञ्जिनीरूपा जाता । इयं चतुर्गुणात्रिभोनलग्नशंकुरूपदृग्गत्या च गुण्या त्रिज्यावर्गेण भाज्येति लंबनानयनप्रकारेण सिद्धम् । तत्र चतुखिज्यावर्गयोर्गुणहरयोर्गुणापवर्त्तनेन हरस्थाने एको रा शिज्यावर्गः सिद्धः । अत्रापि दृग्गत्येक शिज्यावर्गौ गुणहरौ गुणेनापवर्त्यहरस्थाने एकज्यावर्ग इत्यादिना छेद उपपन्नः । हरस्य च्छेदाभिधानात् । अतो मध्यलग्नात्याद्युक्तमुपपन्नम् । लंबनघटीभिरुभयोश्चालनं वक्ष्यमाणगणित आवश्यकीमीत सूचनायें रवीन्द्रोवनमित्युक्तम् । अन्यथा दर्शान्तकाले सूर्यगतभूपृष्ठसूत्राच्चन्द्रकक्षायां चन्द्रचिह्नस्य तद्वटी भिलबितत्वाद्वयोरुक्त्यनुपपतिः । त्रिभोनलग्नसमेऽर्के लंबनाभावात्पूर्वापर विभागै सूर्ये सति लंबनं भवतीति प्राक्पश्चादित्युक्तम् । अत्रेदमवधेयम् । लम्बनानयने मध्यलग्नस्य त्रिभोनलग्नेत्यर्थे छेदः पूर्वसाधितसूक्ष्मढग्गत्या सूक्ष्मो नतांशेत्यादिगृहीतस्थूलहग्गत्या स्थूल इति । एवं मध्यलग्नेत्यस्य दशमभावाथ तु विपरीतमिति । एतेन मध्यलग्नेत्यस्य दशमभावार्थः । तत्र प्रयाससा - घितसूक्ष्मदृग्गत्या सूक्ष्मं लम्बनम् । नतांशेत्याद्युक्तस्थूलदृग्गत्या स्थूललम्बनामति साम्प्रदायिकोक्तं निरस्तम् । युक्त्यभावात् । नचात्र मध्यलग्न रूपदशमभावगृहेऽपि गोलयुक्त्या प्रतिपादनस्य सत्त्वात्कथमादित्योक्तं मध्यलग्नमिति पदं सार्वजनीनदशमभावप्रत्यायकं त्रिभोनलग्नपरतया हठाद्वयाख्यांतुं युक्तम् " नतांशबाहुकोटिज्ये स्फुटे दृक्क्षेपग्गती ” इत्यत्र स्फुटे इत्यनेन भगवतस्तदाशयस्य व्यक्तीकृतत्वादिति वाच्यम् । तथापि गौरवसाधित कक्षेपोक्तिर्भगवदाशयस्थितत्रिभोनलग्नग्रहणं व्यनक्ति । अन्यथा प्रयाससाधितदृक्क्षेपस्य वैयर्थ्यापत्तेरिति सुधियावलोक्यमित्यलं विस्तरेण
॥ ७ ॥ ॥ ८ ॥
मा० टी० एकराशिज्या वर्गको हग्गति (ज्या) द्वारा भाग करनेसे छेद होगा । मध्यलग्न और तिस कालका सूर्यका अन्तर करके: ज्या करे, तिसको छेदसे भाग करनेपर मध्यग्रसे पूर्वापर विचार करके रविसे चंद्रमाके लम्बन दण्डादि स्थिर होंगे || ७ || ८ ॥
अथ मध्यग्रहणकालज्ञानार्थं तिथौ लम्बनसंस्कारं तदसकृत्साध्यमिति चाह..मध्यमाधिके भाना तिथ्यन्तात्प्रविशोधयेत् ॥ धनमूनेऽसकृत्कर्म यावत्सर्व स्थिरीभवेत् ॥ ९ ॥
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घ्यायः ५.] संस्कृतटीका-भाषारकासमतः । (११५)
सूर्ये मध्यलग्नं त्रिभोनलग्नं तस्मादधिके सति तिथ्यन्ताद्दशतिथ्यन्तकालादागतं लम्बनं शोधयेत् । सूर्ये त्रिभोनलग्नान्न्यूने सति तिथ्यन्तकाले लम्बनं धनं युतं कार्यम् । एवं कर्मगणितमसकृन्मुहुः कार्यम् । अयमर्थः । तिथ्यन्तकालिकः सूर्यो लम्बनघटीभिः क्रमेण पूर्वाग्रिमकाले चाल्पो लम्बनसंस्कृततिथ्यन्तेऽर्को भवति । तस्माः ल्लम्बनसंस्कृततिथ्यन्तकाले लग्नदशमभावौ प्रसाध्य पूर्वोक्तरीत्या लम्बनं साध्यम् । इदमाप केवलतिथ्यन्ते संस्कार्याक्तरीत्या लम्बनं केवलं तिथ्यन्ते संस्कार्यम् । अस्मा. दपि लम्बनं तिथ्यन्ते संस्कार्यमित्यसकृदिति । गणितावधिमाह-यावदिति । सर्व गाणत लम्बनादि यावद्यत्परिवर्तावधि स्थिरीभवेत् । अविलक्षणं यावदविशेष इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । दर्शान्तकाले रविगतभूपृष्ठसूत्राचन्द्रस्याधोलम्बितत्वेन त्रिभोनलग्नादने खौ क्रान्तिवृत्ते पूर्वापरान्तराभावनैकसूत्रस्थितत्वरूपयुर्तिर्दान्तकालालम्बनकालेना भवति । शीध्रगचन्द्रस्य मा गरवितः पृष्ठे स्थितत्वात् । अधिके खौ चन्द्रस्य पुरः स्थितत्वेन दर्शान्तकालालम्बनकालेन पूर्व युतिर्भवति । अतो दर्शान्तकालो लम्बन संस्कृतो मध्यग्रहणकालः स्यात् । युतिकालस्य मध्यग्रहणकालत्वात् । परन्तु तावता लम्बनकालेन सूर्यस्यापि ऋन्तिवृत्ते चलनालम्बनसंस्कृतदर्शान्तकाले विगतभूपृष्ठसत्राचन्द्रस्य लम्बितत्वं स्यादेवेति मध्यग्रहणकालस्त्वसिद्धः । नहि सूर्यो धनलम्बनऋणलम्बने चन्द्रश्च लम्बनकाले स्थिरो येन तयोर्युतिः सङ्गता स्यात् । अतस्तादृशकालात्पुनस्तात्कालिकं लम्बनं प्रसाध्य दर्शान्ते पुनः संस्कार्यम् । मध्यकालः स्यात् । एवं तादृशलम्बनसंस्कृतदर्शान्तेऽपि तयोभूपृष्ठसूत्रस्थत्वाभावात्पुनलम्बनं साध्यम् । तत्संस्कृतो दर्शान्तो मध्यग्रह इत्यसकृविधिना यदालम्बनं पूर्वलम्बनतुल्यं सिध्यति तदावश्यं तादृशलम्बनसंस्कृतदर्शान्तरूपमध्यग्रहणकाले भूपृष्ठसूत्रे तयोः सनिवेशः । यतस्तदा सूर्यगतभूपृष्ठसूत्रचन्द्रयोरेन्तराभावेन पूर्वागतलम्बनतुल्यलम्बनस्य पुनः सिद्धः । अन्यथा तुल्यलम्बनानुपपत्तेः । तस्मान्मध्यकालोऽसकृद्यावदविशेषः साध्यइत्युपपन्नं मध्यलग्नत्यादि ॥९॥
मा० टी० - मध्यलग्नसे सूर्य अधिक हो तो तिथ्यन्तसे काल-लम्बन अलग करे, नहीं हो अन्यथा योग करे । प्राप्त समयके ऊपर फिर लम्बन साधन करके तिथ्यन्त में संस्कार करे। जबतक स्थिर न हो तबतक ऐसाही करे ॥ ९ ॥ अथ नतिसाधनमाह
हक्क्षेपः शीततिग्मांशोमध्यभुत्त्यन्तराहतः॥
तिथिनस्त्रिज्यया भक्तो लब्धं सावनतिर्भवेत् ॥ १० ॥ हक्क्षेपः प्रागानीतः शीततिग्मांशोश्चन्द्रार्कयोमध्यगती कलात्मके तयोरन्तरेण गुणि: तया त्रिज्यया भक्तः फलं सा देशकालविशेषाभ्यां या गोले सिद्धा भवति सैवात्र गणिों
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( ११६ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ पंचमोडनतिर्भवेत् । अत्रोपपत्तिः । यदा क्रांतिवृत्तं दृग्वृत्ताकारं तदा नत्यभाव इति प्रागुक्तम् । तत्र त्रिभोनलग्नस्य खमध्यस्थत्वेन दृक्क्षेपाभावः । यत्र च षष्टचक्षांशास्तत्र देशे त्रिभो - नलग्नस्य क्षितिजस्थत्वेन परमा नतिः । परमास्तु नतिकल। भूगर्भक्षितिजा पृष्टक्षितिजस्य भृव्यासाधन्तरेणोच्छ्रितत्वाद्वतियोजनैर्गत्यन्तरकला लभ्यन्ते तदा भूव्यासार्धयोजनैः का इत्यनुपातेन तत्र मध्यगतियोजनानां भूव्यासार्धस्य व नियंतत्वाद्द्रव्यासार्धेनापवर्तःकृतः। तेन मध्यगत्यन्तरकलानां स्वल्पान्तरेण पञ्चदशांशः परमा नतिकलाः । अत एव षष्टिघटिकानां पञ्चदशांशो घटिकाचतुष्टयं परमं लम्भनं सिद्धम् । आभित्रिज्यातुल्यकक्षेपे सूर्यगतभूपृष्ठसूत्राच्चन्द्रस्य दक्षिणोत्तरेणावलम्बनं भवति । अतत्रिज्यातुल्यहक्क्षेपेण 'मध्यगत्यन्तरपञ्चदशांशो नतिस्तदेष्टदृक्क्षेपेण कत्यनुपाते गत्यन्तरगुणों दृक्क्षेपो हरघातेन पञ्चदशगुणितत्रिज्यात्मकेन भक्तो नतिकला इत्युपपन्नम् ॥ १० ॥ मा० टी० टक्क्षेत्रको रविचन्द्रमध्यभुक्त्यन्तरसे गुण करके १५ गुणित - त्रिज्यासे भाग करने पर अवनति स्थिर होगी ॥ १० ॥
अथ प्रकारान्तराभ्यां नतिसाधनं लाघवादाहहकूक्षेपात्सप्ततिहृताद्भवेद्वावनतिः फलम् ॥
अथवा त्रिज्या भक्तात्सप्तसप्तकसङ्गणात् ॥ ११ ॥
सप्तत्या भक्तादृक्क्षेपात्फलं कलादिका नतिः प्रकारान्तरेण भवेत् । अथवा प्रकारान्तरेण सप्तसप्तकसंगुणात्सप्तानां सप्तकं सप्तवारमावृत्तिर्वर्ग एकोनपञ्चाशदित्यर्थः । तेन गुणिता हक्क्षेपात्रिज्या भक्तात्फलं कलादिका नतिः । अत्रोपपत्तिः । दृक्क्षेपस्य गत्यन्तरकलांमित ७३ । २७ गुणकपञ्चदश गुणित त्रिज्यामितहरौ ५१५७० प्रथमप्रकारे गत्यन्तरापवर्त्तिती हरस्थाने सप्ततिः । द्वितीयप्रकारे पञ्चदशभिरपवर्त्य गुणस्थाने स्वल्पान्तरादेकोनपञ्चाशद्धरस्थाने त्रिज्येत्युपपन्नम् ॥ ११ ॥
मा०टी० - अथवा टक्क्षेपको ७० से भाग करनेपर वही होगा; या ४९ से गुण करके त्रिज्या से माग करने पर भी होजायगा ॥ ११ ॥
अथ नतेर्दिग्ज्ञानं स्पष्टविक्षेपं चाह
मध्यज्यादिग्वशात्सा च विज्ञेया दक्षिणोत्तरा ॥
विपदिकसा युक्ता विश्लेषितान्यथा ॥ १२ ॥
सावनतिर्मध्यंज्याया दिगनुरोधादक्षिणोत्तरा मध्यज्या चेदक्षिणा तदा नतिरपि दक्षिणा चेदुत्तरा तदोत्तरा ज्ञेया । चः समुच्चये । तेन मध्यज्यानतांशदिक्केति । सा दक्षिणोत्तरा नतिश्चन्द्रविक्षेप दिक्समत्वे । तयोरेकादिक्त्वे इत्यर्थः । युक्ता विक्षेपेण युतेत्यर्थः । अन्यथा तयोर्भिन्नदिक्त्वे विक्षेपेणान्तरिताशेषदिक्काविक्षेपसंस्कृता नतिः स्पष्टशररूपा
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ध्यायः ५.] संस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः। स्यात् । अत्र चन्द्रविक्षेपो मध्यग्रहणकालिक इति ध्येयम् । अत्रोपपत्तिः । नतांशदिकमध्यज्यावशाक्क्षेपस्योत्पन्नत्वात्तदुत्पन्ननतेस्तदिक्त्वं युक्तमेव । अथ रविगत्तभूपृष्ठसूत्राचन्द्राकाशगोले क्रान्तिवृत्तावधि याम्योतरांतरस्य नतित्वात्क्रांतिमण्डलाचंद्रबिम्बावधि विक्षेपत्वादविगतभूपृष्ठसूत्राचंद्रबिम्बावधि याम्योत्तरान्तरस्य सूर्यग्रहणोपयुक्तनतिसंस्कृतविक्षेपरूपस्पष्टविक्षेपत्वाद्दयोरेकदिशि योगो भिन्नदिश्यन्तरमित्युपपन्नम् ॥ १२॥ ___भा० टी०-मध्यज्यादिकके अनुसार भवनति दक्षिणोत्तरा होगी, दिसाम्यम चन्द्रशिक्षपके सहित योग नहीं तो वियोग करनेसे स्पष्ट विक्षेप होगा ॥ १२ ॥ अथ चन्द्रग्रहणाधिकारोक्तमत्रातिदिशति
तया स्थितिविमधिग्रासाद्यं तु यथोदितम् ॥
प्रमाणं वलनाभीग्रासादि हिमरश्मिवत् ॥ १३ ॥ तया विक्षेपसंस्कृतया न या स्पष्टविक्षेपरूपयेत्यर्थः । स्थित्यर्धविमर्धग्रासाः आयशब्दात्स्पर्शमोक्षसम्मीलनोन्मीलनं यथोदितं चन्द्रग्रहणे यथोक्तं तथा । तुकार-स्तदतिरिक्तरीतिव्यवच्छेदार्थकैवकारपरः । प्रमाणं मतमित्यर्थः । अवशिष्टमप्याह-बलनेत्यादि । वलनाभीष्टग्रासः। अादिशब्दादिष्टग्रासादिष्टकालानयनम् । हिमरश्मिवचन्द्रग्रहणोक्तरीत्या कार्यमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिरविशेष एव ॥ १३ ॥
भा०टी०-मानति संस्कृत वेपसे स्थित्यई, विमर्द्धि, ग्रास, प्रमाण, वन अभीष्ट ग्रीसादि चंद्रग्रहणकी समान निगय करने चाहिये ॥ १३ ॥ अथ स्थित्यर्धविमर्दीधै च विशेषे श्लोकचतुष्टयेनाह
स्थित्य|नाधिकात्प्राग्वत्तिथ्यन्ताल्लम्बनं पुनः॥ ग्राप्तमोक्षोद्भवं साध्यं तन्मध्यहारजान्तरम् ॥ १४॥ प्राकपालेऽधिकं मयाद्भवेत्याग्रहणं यदि ॥ मोक्षिकं लम्बनं हीनं पश्चादै तु विपर्ययः ॥ १५॥ तदा मोशस्थितिदले देयं प्रग्रहणे तथा ॥ हरिजान्तरकं शोध्यं यत्रतत्स्याद्विपर्ययः ॥१६॥ एतदुक्तं कपालैक्ये तद्भेदे लम्बनकता॥
स्वे स्वे स्थितिदले योज्या विमधेिऽपि चोक्तवत् ॥ १७॥ . चन्द्रग्रहणाधिकारोक्तपकोरगासवसाधितं स्पर्शस्थित्यधै मोक्षास्थत्यधैं च त. ग्रंथों । मध्यग्रहणकालिकस्परशरादुक्तरीत्या स्थित्यर्धवटिकास्ताभिस्तिथ्य नका;
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(११८) सूर्यसिद्धान्तः
[ पंचमो. लिका ग्रहाः। स्पर्शस्थित्यनिमित्तं पूर्व चाल्याः । मोक्षस्थित्यर्धनिमित्तमने चाल्याः । तत्कालयोः प्रत्येकं नतिशरौ प्रसाध्य स्पष्टशरः साध्यः । ततः प्रथमकालिक स्पष्टशरात्स्थित्यर्धमनेन पूर्व तिथ्यन्तकालिकग्रहान्प्रचाल्योक्तरीत्या स्पष्टशरं प्रसाध्य स्थित्य साध्यम् । एवमसकृत्पर्शस्थित्यधम् । एवमेव द्वितीयकालिकस्पष्टशरास्थित्यर्धमनेनाग्रे तिथ्यन्तकालिकग्रहान्प्रचाल्योक्तरीत्या स्पष्टशरं प्रसाध्य स्थित्यधै सा ध्यम् । एवमसकृन्मोक्षस्थित्यमिति । अथाभ्यां स्पर्शमोक्षस्थित्यर्धाभ्यां क्रमे हीनयुता.. दर्शान्तकालात्तु प्राग्वदुक्तरीत्या लम्बनं पुनरसकृद्रासमोक्षोद्भवं' स्पर्शमोक्षकालिकं कार्यम् । तथाहि । स्पर्शस्थित्यर्धहीनात्तिथ्यन्तात्तात्कालिकसूर्यालग्नदशमभावौ प्रसाध्योक्तरीत्यास्मालम्बनं साध्यम् । तेन स्पर्शस्थित्य/नतिथ्यन्तं संस्कृत्यास्मालम्बनमनेनापि स्पस्थित्य|नतिथ्यन्तं संस्कृत्यास्मालम्बनमेवमसकृत्स्पर्शकालिकं लम्बनम् । एवमेव मोक्षस्थित्यर्धयुतात्तात्कालिकसूर्याल्लनदशमभावौ प्रसाध्योक्तरीत्या लम्बनं साध्यम् । तेन मोक्षस्थित्यर्धयुतीतथ्यन्तं संस्कृत्यास्मालंबनमनेनापि मोक्षस्थित्यर्धयुततिथ्यन्तं संस्कृत्यास्मालम्बनमेवमसकृन्मोक्षकालिकं लंबनमिति । प्राक पाले त्रिभोनलग्नापूर्वभागे त्रिभोनलग्नाधिके वो मध्यान्मय कालिकात् । अग्रोक्तलम्बनस्य विभक्तिविपरिणामादन्येन लम्बनात्प्रग्रहणं । प्रग्रहण स्पर्शः। स्पर्शकालिकम् । अत्रापि लम्बनमित्यस्यान्वयः । लम्बनं चेदधिकं स्यात् । मौक्षिकं मोक्षकालसम्बन्धि लंबनं न्यूनं स्यात् । पश्चार्दै त्रिभोनलग्नात्पश्चिमभागे त्रिभोनलग्नादीने रवौ । तुकार समुच्चयार्थकचकारपरः । विपर्यय उक्तवैपरीत्यम् । मध्यकालिकलम्बनात्स्पर्शकालिक लम्बनं न्यूनं मोक्षकालिकं लम्बनमाधकमित्यर्थः । तदा तर्हि तन्मध्यहरिजान्तरम् । तयोः स्पर्शमोक्षकालिकलम्बनेन प्रत्येकमन्तरं मोक्षस्थित्यर्धे योज्यम् । प्राग्रहणे स्पर्शस्थित्यधैं तथा देयम् । मोक्षमध्यकालिकलम्बनयोरन्तरं मोक्षस्थित्यर्धे योज्यम् । स्पर्शमध्यकालिकलम्बनयोरन्तरं स्पर्शस्थित्यर्धे योज्यमित्यर्थः । यत्र यस्मिन्काले विपर्यय उक्तवैपरीत्यं प्राक्कपाले मध्यकालिकलम्बनात्स्पर्शकालिकलम्बनं न्यूनं मोक्षकालिकलंबनमधिकं पश्चिमकपाल तु मध्यकालिकलम्बात्स्पर्शकालिक लम्बनमधिकं मोक्षकालि कलम्बनंन्यूनं भवतीत्यर्थः। तत्रैतन्मोक्षस्पर्शमध्यकालिकं हरिजान्तरकं लम्बनान्तरं मोक्ष स्थित्यः मध्यमोक्षकालिकलम्बनयोरन्तरं स्पर्शस्थित्यर्धे मध्यस्पर्शकालिकलम्बनयोरन्तमित्यर्थः। शोध्यं हीनं कुर्यात् । एतल्लम्बनान्तरं योज्यं शोध्यं वा कपालैक्ये द्वयोः स्पर्शमध्ययोर्मध्यमोक्षयोर्वेककपाले स्वस्वकालिकत्रिभोनलनात्स्वस्वकालिकसूर्य उभयत्राधिके न्यूनेवेत्यर्थः । उक्तं कथितम् । तद्भेदे तयोः पईमध्ययोर्मध्यमोक्षयोश्च मेदे कपालभेदे पर्शकालिकत्रिभोनलग्नात्तात्कालिकसूर्यस्याधिवये मध्यकालिकत्रिमोनलग्ना
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ध्यायः ५. ]
संस्कुतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
( ११९ ) तात्कालिकाकस्य न्यूनत्वे मध्यका लिकत्रिभोनलग्नात् तात्कालिकार्कस्याधिकत्वे मोक्षकालिकत्रिभोनलग्नात् तात्कालिकार्कस्य न्यूनत्व इत्यर्थः । लम्बनैकता लम्बनैक्यम् । स्पर्शमध्ययोर्भेदे तात्कालिकलम्बनयोर्योगः । मध्यमोक्षयोर्भेदात्तात्कालिक लम्बनयोयोग इत्यर्थः । स्वकीये स्वकीये स्थित्यर्द्ध संयुक्ता कार्या । स्पर्शस्थित्यद्धे स्पर्शमध्यकालिक लम्बनयोर्योगों योज्यः । मोक्षस्थित्यर्थे मोक्षमध्यकालिक लम्बनयोर्योगो योज्य इत्यर्थः । स्पर्शस्थित्यर्ध मोक्षस्थित्यर्ध च स्फुटं भवति । आभ्यां चन्द्रग्रहणाक्त दिशा मध्यग्रहणकालात्पूर्वमपरत्र क्रमेण स्पर्शमोक्षकालौ स्त इत्यर्थसिद्धम् । अथोक्तरीत्या विमदर्धपि स्पष्टत्वमतिदिशति विमर्दार्ध इति । स्पर्शमदर्द्धमोक्षमदधिं चन्द्रग्रहणाधिकारोक्तरीत्या स्पष्टशरेण सकृत्साधिते उक्तवत् । स्थित्यर्धेनाधिकात्प्राग्वत्तिभ्यं तालं - बनं पुनः ' इत्याद्युक्तरीत्या स्थित्यर्धस्थाने मदर्धिग्रहणेन ग्रासमोक्षोद्भवमित्यत्र संमीलनोन्मीलनोद्भवमिति ग्रहणेन प्राग्ग्रहणमित्यत्र संमीलनग्रहणेन मौक्षिकमित्यत्रोन्मीलनग्रहणेन स्फुटे साध्ये | अपिः समुच्चये । चकारात्ताभ्यां सम्मीलनोन्मीलनकालौ मध्यग्रहणकालात्पूर्ववत्साध्यावित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । स्थित्यर्धीनयुतो मध्यग्रहणकालः स्पर्शमोक्षकालः । मध्यकालिक लन्चनसंस्कारात् । स्पर्शमोक्षकालिकलम्बनसंस्कारस्वापेक्षितत्वाच्च । नहि यः कालो लम्बनसंस्कृतः स्फुटः स त्वभिन्नकालिकलम्बनसंस्कृतः स्फुटः स्यात्सम्बन्धाभावात् । पूर्वस्पर्शमोक्षकालयोरज्ञानात् तात्कालिक लम्बन ज्ञानाभावाच्च । अतो मध्यकालज्ञानार्थं यथा तिथ्यन्तादसकृलम्बनं प्रसाध्य तिथ्यन्ते संस्कृत्य मध्यकालस्तथा स्पर्शमोक्षस्थित्यर्धहीन युक्त तिथ्यन्तकालाभ्यां स्पर्शमोक्षतिथ्यन्तरूपाभ्यां प्रत्येकं लम्बनमसकृत्प्रसाध्य स्वस्वतिथ्यन्ते संस्कृत्य स्पर्शमोक्षकालौ स्फुटौ तन्मध्यकालयोरन्तरं स्फुटं स्थित्यर्धम् । तत्रर्णलम्बनेन स्पर्शमध्यमोक्षोत्पत्तौ यदा मध्यलम्बनादधिकं स्पर्शलम्बनं मोक्षलंबनं च न्यूनं तदा स्पर्शस्थित्य धानतिथ्यन्तस्याधिकलम्बनोनितस्य स्पर्शकालत्वान्यूनलम्बनोनितस्य तिथ्यन्तस्य मध्यकालत्वातयोरन्तरे तिथेः समत्वेन नाशात्स्पर्शस्थित्यर्धं स्पर्शकालिकलम्बनेन युतं मध्यकालिक लम्बनेन हीन मेति लम्बनयोरन्तरं तत्र धनं योज्यम् । एवं मोक्षास्थित्यर्धयुततिथ्यन्तस्य न्यूनलम्बनोनितस्य मोक्षकालत्वान्मध्यमोक्षकालयोरन्तरे पूर्वरीत्या मध्यमो . क्षकालिकयोर्लम्बनयोरन्तरं धनं मोक्षस्थित्यर्धे योज्यम् । यदा तु मध्यलम्बनादीनं स्पर्शलंबनं मोक्षलंबनं चाधिकं तदा न्यूनलम्बनहीनस्य स्पर्शकालत्वादधिकं लंबनम् । हीनस्य मध्यकालत्वादुक्तरीत्या तदन्तरे स्पर्शस्थित्यर्थे लंबनान्तरं हीनम् । एवमधिकलंबनहीनस्य मोक्षकालत्वान्मध्यमोक्षयोरन्तरे मोक्षस्थित्यर्धे लंबनान्तरं हीनम् । धनलंबनेन स्पर्शमध्यमोक्षोत्पत्तौ तु यदा मध्यलंबनान्न्यूनं स्पर्शलंबनं मोक्षलंबनं चाधिकं तदा स्पर्शस्थित्यर्धेनातिथ्यन्तस्य न्यूनलंबनाधिकस्य स्पर्शकालत्वादधिकलंबनाधिक
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(१२.) सूर्यासेद्धान्तः
[पचमा:स्य तिथ्यन्तस्य मध्यकालवाचयोरन्तरे लंबनान्तरं स्पर्शस्थित्यर्थे योज्यम् । एवं मोक्षस्थित्यर्धयुता तिथ्यन्तस्याधिकलंबनाधिकस्य मोक्षकालत्वान्मध्यमोक्षयोरन्तरे लंबनान्तरं मोक्षस्थित्यर्धे पूर्वरीत्या योज्यम् । यदा तु मध्यलंबनादाधिकं स्पर्शलंबनं मोक्षलं बनं च न्यून तदा अप्यधिकलंबनाधिकस्य स्पर्शकालत्वाद्धीनलंबनाधिकम्य मध्यकाल त्वात्तयोरन्तर उक्तरीत्या स्पर्शस्थित्यर्धे लंबनान्तरं हीनम् । एवं न्यूनलंबनाधिकस्य मोक्षकालत्वात्तन्मध्यकालान्तरे मोक्षस्थित्यधैं लंबनान्तरं हीनामिति सिद्धम् । नन्वयं लंबनान्तरहीनपक्षो न संगतः। बाधात् । तथाहि । ऋणलंबनस्य क्रमेणापचयात्स्पर्श मध्यमोक्षकालानां यथोत्तरं सम्भवाच्च मध्यकालिकलंबनात्स्पर्शमोक्षकलाालकलंबनयोः क्रमेण न्यूनाधिकत्वमसिद्धम् । एवं धनलंबनस्य क्रमेणोपचयान्मध्यलंबनात् । स्पर्शमोक्षकालिकलंबनयोः क्रमेणाधिकन्यूनत्वमसिद्धम । नहि कदाचिन्मध्य. कालात्स्पर्शमोक्षकालक्रमेणाग्रिमपूर्वकालयोः सम्भवतो येनोक्तं युक्तम् । बाधात् । तथा च लंबनान्तरं योज्यमित्यस्यैवोपपन्नत्वे महतैतावता प्रपंचेन । "हरिजान्तरकं शोध्यं यत्रतत्स्याद्विपर्ययः" इति सर्वज्ञभगवदुक्तं कथं निर्वहतीति चेत् । मैवम् । लंबनसंस्कृतस्पर्शमोक्षकालयोः स्फुटयोर्वस्तुभूतयोः सर्वदा मध्यकालात्क्रमेण पूर्वोत्तरावश्यं. भावित्वेऽपि लंबनासंस्कृतयोः स्थित्य/न युततिथ्यन्तरूपस्पर्शमोक्षकालयोः पारिभाषिकत्वेनावास्तवयोः कदाचिन्मध्यकालर्णधनलंबनाभ्यां स्पर्शस्थित्यर्धमोक्षस्वित्यर्थयोः क्रमेण न्यूनत्वे मध्यकालादाग्रिमपूर्वकालयोः क्रमेण संभवात्स्फुटो निर्वाहः । परनवृणलंबने धनलंबने च मध्यलंबनात्क्रमेण मोक्षस्पर्शलंबनयोधिकत्वासंभवः । मध्यकालात्पूर्वाग्रिमकालयोर्मोक्षस्पर्शयोः पारिभाषिकयोः क्रमेणासंभवात् । अतः साक्षा. कण्ठोक्तेरभावाद्विपर्यय इत्यनेन विपर्ययविशेषस्यैव विवक्षितत्वम् । पूर्व तु साधारण्या च्छब्दस्य साधारण्येन व्याख्यानं कृतमित्यदोषः । ननु तथाप्यसकृलंबनसाधने लंबनस्य स्पष्टस्पर्शमोक्षकालाभ्यां सिद्धत्वेनर्णलंबनात्स्पर्शलंबनं न्यूनं भवत्येव । धनलंबने मोक्षलंबनं न्यून न भवत्येव । मध्यकालाद्वास्तवस्पर्शमोक्षकालयोः क्रमेणाप्रिमपूर्वकालयोरसंभवनिर्णयात् । अन्यथा स्थिरलंबनासंभवात् । किश्वासकलंबनसाधनेन यत्कालास्थिरलंबनं सिद्धं तत्कालस्य सूक्ष्मस्पर्शमोक्षकालत्वात्स्फुटस्थित्यर्धसाधनं व्यर्थम् । तस्य तज्ज्ञानार्थमेवावश्यकत्वात् । नच चन्द्रग्रहणरीत्या स्पर्शमोक्षकालयोर्ज्ञानार्थ स्फुटस्थित्या|क्तिरिति वाच्यम् ।गौरवाद्यर्थत्वाद्धरिजांतरकं शोध्यमित्यस्वानुपपत्तेशेत चेन्न । लंबनयोरसकृत्साधनस्यानंगीकारात् । संकृत्साधितलंबनस्य सांतरत्वेऽपि भगवता स्वल्पांतरेणांगीकाराच्च । अतएंव लंबनं पुनरित्यत्र पुनीरत्यस्य व्याख्यान मंसकृदिति पूर्वमुक्तं न युक्तम् । किंतु मध्यकालार्थ लंबनस्य साधनात्स्पर्शमोक्षकालार्थमपि द्वितीयवारं लंबनं साध्यमिति व्याख्यानम् । पुनरिति वाक्यालंकरणं वा युक्ततरमिति । अथ यदा स्थूलस्पर्शकालणलंबने धनलम्बने च मध्यकालस्तदा स्पर्शस्थि
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अध्यायः५.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१२१) त्य|नतिथ्यतस्य लंबनहीनस्य स्पर्शकालत्वाल्लंबनाधिकतिथेमध्यकालत्वात्तदन्तरे स्पस्थित्यधैं तात्कालिकलंबनयोर्योगेन युक्तमित्युक्तरीत्योपपद्यते । एवं यदा मध्यकालर्णलंबने स्थूलमोक्षकालश्च धनलंबने तदा लंबनहीनतिथ्यंतस्य मध्यकालत्वात्माक्षस्थि त्यर्धयुततिथ्यंतस्य लबनाधिकस्य मोक्षकालत्वात्तदंतरे मोक्षस्थित्यधैं लंबनयोगयुक्तमित्युपपन्नम् । नचासकलंबनसाधनेन सूक्ष्मस्पर्शमोक्षयोः सिद्धौ सकलंबनांगीकारेणोक्तरी तेः सांतरत्वात्कथं भगवतः सर्वज्ञस्यास्यां रीत्यामभिनिवेश इति वाच्यम् । असकलंबनसाधने प्रयासाधिक्यभयाद्भगवता' सर्वज्ञेन स्वल्पांतरांगीकाराल्लाघवाच चंद्रग्रहणो. क्तरीत्यानुगमार्थ स्फुटस्थित्यर्धसाधनस्यैवोक्तरिति दिक् । वस्तुतस्तु सूर्योदयाद्यत्र प्राक्स्पर्शोऽनंतरं मध्यकालस्तदा मध्यलंबनात्स्पर्शलंबनं सत्रिभलग्नचतुर्थभावसाधितं कदाचिन्यूनं भवति । यत्र चोदयात्पूर्व मध्यः परतो मोक्षस्तत्र कदाचित्सत्रिभलग्नचतुर्भावानीतमध्यकाललंबनात्मोक्षकाललंबनमधिकं भवति । यत्र चास्मात्पूर्व स्पर्शः परतो मध्यस्तदा मध्यकाललंबनाद्रात्रिसंबंधात्स्पर्शकाललंबनं कदाचिदधिकं भवति । यत्र चास्तात्पूर्व मध्यकालः परतो मोक्षस्तदापि मध्यकाललंबनान्मोक्षकाललंबनं रात्रिसंबद्धं न्यूनं न भवति । कदाचिदिति । प्रस्तोदयग्रस्तास्तयोः । कदाचिद्विपर्ययसंभवादरिजांतरकं शोध्यमित्यस्य नाप्रसिद्धिः । एतेन लंबनमसकृन्न साध्यं विपर्यय इति विपर्यय विशेष इति चोक्तं समाधानं निरस्तमिति तत्त्वम् । विमर्दार्धेऽप्युक्तरीतिस्तुल्येति
सर्वमुपपन्नम् । भास्कराचार्यैस्तु “तिथ्यन्ताद्गणितागतात् स्थितिदलेनोनाधिकाल्लम्बनं तत्कालोत्थनतीषु संस्कृतिमवस्थित्यर्धहीनाधिके । दर्शान्ते गणितागते धनमृणं यदा विधायासकृज्ञेयौ प्रग्रहमोक्षसज्ञसमयावे क्रमात्प्रस्फुटौ ॥ तन्मध्यकालान्तरयो। समाने स्पष्टे भवेतां स्थितिखंडके च। दर्शान्ततो मर्ददलोनयुक्तात्सम्मीलनोन्मीलनकाल एवम् ॥” इत्यनेन भगवदुक्तादतिसूक्ष्ममुक्तामत्यलं पल्लवितेन ॥१४॥१५॥१६॥१७॥
भा० टी०-तिथ्यन्तमें स्थित्यर्द्धहीन या योगकरके भसकृत् कर्मके द्वारा स्पर्श और मोक्षकालके लंबसाधन करे । मध्यलग्नके पूर्व में रवि होनेपर. स्पर्शकालीन लंबन, मध्यकालीनकी अपेक्षा और वह मोक्षकी अपेक्षा अधिक होगा । पश्चिम दिशामें होनेसे उलटा होता है। तिसकाल मध्यलग्नके पूर्व होनेसे मोक्षलंबन और मध्यलंबनके अन्तर मोक्षस्थित्यई योग
और स्पर्शलंबन और मध्यलंबनके अन्तर स्पर्शस्थित्यर्द्ध योग, अन्यथा विपरीत करनेसे स्पष्टस्थित्यर्द्ध होगा | स्पर्श और मध्य या मध्य और मोक्ष यदि मोक्षरेखाक दोनों ओर हों, तो लंबनयोग करना चाहिये आर स्थितिदल में योग करना होगा । इस प्रकार विमर्दाई स्थिरकरे ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ १७ ॥
अथाग्रिमग्रंथस्यासङ्गतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्तिं फकिकयाह । इात सूर्य ग्रहणाधिकारः । इतिस्पष्टम् । रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । सूर्यग्रहा
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सूर्यसिद्धान्तः
( १२२ )
धिकारोऽयं पूर्णो गूढप्रकाशके ॥ इात श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके सूर्यग्रहणाधिकारः सम्पूर्णः ॥ इति पंचमोऽध्यायः समाप्तः ।
पांचवा अध्याय समाप्त ॥
षष्ठोऽध्यायः ।
अथ परिलेखाधिकारो व्याख्यायते । तत्र तं सप्रयोजनं प्रतिजानीतेन च्छेद्यकमृते यस्माद्भेदा ग्रहणयोः स्फुटाः ॥ ज्ञायन्ते तत्प्रवक्ष्यामि च्छेद्यकज्ञानमुत्तमम् ॥ १ ॥
यस्मात्कारणाद्भहणयोश्चन्द्रसूर्यग्रहणयोः । द्विवचनेन ग्रहणत्वेन पूर्वाधिकारयोरे - काधिकारत्वं निरस्तम् । भेदाः कस्यां दिशि स्पर्शमोक्षौ सम्मीलनोन्मीलने ग्रस्तोंऽशः कियानित्यादिभेदाः । स्फुटा गोलस्थितिसिद्धा वास्तवाः । छेद्यकं गोलस्थितिप्रदर्शकः कल्पितः प्रकारश्छेद्यकपदवाच्यस्तम् । ऋते विना । छेद्यकव्यतिरकेणेत्यर्थः । न ज्ञायन्ते । तत्तस्मात्कारणात् । ग्रहण भेदज्ञानार्थमित्यर्थः । उत्तमं सूक्ष्मं तद्भेदज्ञानसाधकं छेद्यकज्ञानम् । ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानं परिलेखसाधकग्रन्थं सूर्यांशपुरुषोऽहं प्रवक्ष्यामि कथयामि ॥ १ ॥
1
तत्र प्रथमं वलवृत्तं लिखेदित्याह --
भा० टी० - छेदक के बिना दोनों ग्रहणोंकी स्पर्शमोक्षदिक या परिमाणमेद स्पष्ट नहीं होता इससे इस समय छेदक ज्ञान कहता हूं ॥ १ ॥
[ षष्ठो
सुसाधितायामवनौ बिन्दुं कृत्वा ततो लिखेत् ॥
सप्तगुलेनादौ मण्डलं वलनाश्रितम् ॥ २ ॥
आदौ प्रथमं सुसाधितायां जलवत्समीकृतायामवनौ पृथिव्यामभीष्टस्थाने बिन्दु वृत्तमध्यज्ञापकचिह्नं कृत्वा ततश्चिह्नात्सप्तवर्गागुलेनैकोनपञ्चाशदंगुलमितेन व्यासार्धेन मण्डलं वृत्तं वलनाश्रितं प्रागुक्तस्फुटवलनमाश्रितं यत्र वलनाश्रयीभूतं वलनदानार्थे वृत्त मित्यर्थः । लिखेद्ग्रहणभेदज्ञानेच्छुगणक उल्लिखेत् । अत्रोपपत्तिः प्रागुक्ता ॥ २ ॥ मा० टी० - साधितसमतल भूमिमें बिन्दुचिह्न करके ४९ अंगुली व्यासार्द्ध परिमित बलनाश्रय के लिये वृत्त रचना करे ॥ २ ॥
अथ द्वितीयतृतीयवृत्ते आह
ग्राह्यग्राहक योगार्धसम्मितेन द्वितीयकम् ॥
मण्डलं तत्समासाख्यं ग्राह्यार्धेन तृतीयकम् ॥ ३ ॥
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घ्यायः ६.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१२३
ग्राह्यग्राहकबिम्बमानांगुलयोर्योगामितनांगुलात्मकव्यासार्धेन द्वितीयमेव द्वितीयक द्वितीयवृत्तं लिखेत् । तद्वृत्तं समाससझं योगोत्पन्नत्वात् । तृतीयकं वृत्तं ग्राह्यबिम्बांगुलार्धमितेन व्यासान लिखेत् । अत्रोपपत्तिः। ग्रहणे शरस्य मानैक्यखण्डन्यूनत्वाद्विक्षेपो मानक्यखण्डवृत्त इति । विक्षेपदानार्थ मानक्यखण्डवृत्तलेखनम् । तत्परिधिकेन्द्रग्राहकार्धब्यासार्धवृत्तेन ग्राह्यवृत्तेऽवश्यं योगात्समाससञ्ज्ञम् । ग्राह्यवृत्तं तु ग्रहण भेदज्ञानार्थमत्युपयुक्तं न हितद्वृत्तं विना तद्भेदज्ञानं संभवति ॥ ३ ॥
भा० टी०-ग्राह्यग्राहक पिम्बमानांगुलीका योगाईपरिमित व्यासार्द्ध लेकर द्वितीय वृत्त (सभासवृत्त) और ग्राह्यग्रहमानार्द्ध लेकर तीसरा वृत्त बनाव ॥ ३ ॥ अथ तवृत्तेषु दिक्साधनातिदेशं स्पर्शमोक्षबलनदानार्थ स्पर्शमोक्षदिनियमं चाह
याम्योत्तराप्राच्यपरासाधनं पूर्ववदिशाम् ॥
प्रागिन्दोहणं पश्चान्मोक्षोऽर्कस्य विपर्ययात् ॥ ४ ॥ दिशामष्टदिशां मध्ये याम्योत्तराप्राच्यपरासाधनं पूर्ववत् । 'शिलातलेऽम्बुसंशुद्धे इत्यादित्रिप्रश्नाधिकारोक्तरीत्या कार्यम् । तथाहि । द्वादशांगुलशकोंमध्यकेन्द्रस्थापितस्याद्यवृत्ते पूर्वाह्ने छायाप्रदेशोऽपराह्ने छायानिर्गमस्तचिह्नाभ्यां मत्स्यमुत्पाद्य रेखायाम्योत्तरा सा वृत्तबाह्येऽधिका सम्मानीया । तदितरभागे वृत्तमध्यपूरणी या वृत्ते याम्यो तरा रेखा भवति । तदग्रमत्स्यात्पूर्वापरारेखा सोभयतो वृत्तबाह्ये सम्माजनीया । सा वृत्ते पूर्वापरा रेखा भवतीति । चन्द्रस्य पूर्वदिशि ग्रहणं ग्रहणारंभः स्पर्श इति यावत् । पश्चिमदिशि मोक्षो ग्रहणान्तः। अकस्य विपर्ययात्स्पर्शमुक्ती ज्ञेयम् । ग्रहणादिरूपस्पर्शः पश्चिमायां ग्रहणान्तरूपमोक्षः प्राच्यामित्यर्थः। अत्रोपपत्तिः । वृत्ते दिक्साधनेन दिशः सममण्डलीयाङ्किताः । एतचिह्नादलनान्तरेण क्रान्तिवृत्तदिशां सत्त्वात् । तत्र स्पर्श मोक्षदिनियमार्थ क्रांतिवृत्तप्राच्यपरानुसारेण चन्द्रसूर्ययोः स्पर्शमोक्षौ निर्णेयौ । ग्रहभोगस्य तदृत्तानुसारित्वात् । शीघ्रगचन्द्रः सूर्यषड्भान्तरितभूच्छायां सूर्यगत्यनुरुद्ध गमनां प्रति पश्चादागत्य मेलनारम्भं करोत्यतश्चन्दबिम्बस्य पूर्वभागे स्पर्शः । भूभा. मतिक्रम्याग्रे चन्द्रो यदा गच्छति तदा चन्द्रस्य पश्चाद्भागे भूभावियोगोऽतः पश्चान्मोक्षः । सूर्य चन्द्रः पश्चादात्याच्छादयत्यतः सूर्यस्य पश्चिमभागे स्पर्शः पूर्वभागे मोक्ष. इति ॥ ४ ॥ __ भा० टी०- पूर्ववत् दक्षिण उत्तर पूर्व पश्चिम चारों दिशामें गई रेखाको साधन करे। चन्द्रग्रहण पूर्वमें स्पर्श और पश्चिममें मोक्ष होता है । परन्तु सूर्यग्रहणमैं इससे विपरीत होता है ॥ ४॥ अथ वलनवृत्ते बलनदानमाह
ययादिशं प्राग्रहणं वलनं हिमदीधितेः॥ मौक्षिकं तु विपर्यस्तं विपरीतमिदं खेः॥५॥
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(१२४) सूर्यसिद्धान्तः।
[ षष्टो:चंद्रस्य ग्राह्यस्य स्पार्शिकं वलनं पूर्वचिह्नायथादिशं दक्षिणं चेद्दक्षिणाभिमुखमुत्तरं चेदुत्तराभिमुखं पूर्वापरसूत्रादर्धज्यावद्वलनाश्रितवृत्ते देयम् । अतएव तदृत्तं वलनाश्रितसञ्ज्ञम् । मौक्षिकं मोक्षकालिकं तुकाराचन्द्रस्य वलनम् । विपर्यस्तं विपरीतं पश्चिमचिह्नात्पूर्वापरसूत्रादर्धज्यावद्दक्षिणं चेदुत्तरदिगभिमुखमुत्तरं चेदक्षिणदिगाभिमुखं, देय. मित्यर्थः । सूर्यग्रहणे विशेषमाह । विपरीतमिति । सूर्यस्य ग्राह्यस्येदं स्पार्शिकं मौक्षिकं वलनं विपरीतं व्यस्तम् । मौक्षिकं वलनं पूर्वचिह्नात्पूर्वापरसूत्रादर्धज्यावद्दक्षिणं चेद्दक्षिणदिगभिमुखमुत्तरं चेदुत्तरदिगभिमुखं स्पार्शिकं वलनं पश्चिमचिह्नात्पूर्वापरसूत्रादर्ध ज्यावद्दक्षिणं चेदुत्तरदिगभिमुखमुत्तरं चेदक्षिणदिगभिमुखं देयमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । चन्द्रस्य पूर्वभागे स्पर्श इति सममण्डलपूर्वचिह्नाद्वलनान्तरेण स्पर्श इति तवृत्ते यथाशं स्पार्शिक वलनं देयम् । पश्चिमोत्तराभिमुखस्य दक्षिणत्वादक्षिणाभिमुखस्योत्तरत्वान्मौक्षिकं वलनं पश्चिमचिह्नाद्विपरीतं देयम् । सूर्यस्य तु पश्चिमभागे स्पर्शात्पश्चिमचिह्नात्स्पार्शिकं वलनं व्यस्त देयम् । पूर्वभागे मोक्ष इति मौक्षिकं वलनं पूर्वचिह्नाद्यथाशं देयमिति ॥ ५ ॥ __ भा० टी०-वलनाश्रयवृत्तके पूर्वभागमें चन्द्रग्रहणके स्थळमें स्पर्श वलनादिकके अनुसार ज्यारूपमें वल नकी रचना करे । परन्तु मोक्षकालमें बसनादेशाकी विपरीत दिशामें वृत्तके पश्चिमाईमें ज्याकी रचना करे । सूर्यग्रहणम इससे उलटा होगा ॥५॥ अथ द्वितीयवृत्ते स्पार्शिकमौक्षिकविक्षेपयोदानमाह
वलनापानयेन्मध्यं सूत्रं यद्यत्र संस्पृशेत् ॥
तत्समासे ततो देयो विक्षेपो ग्रासमौक्षिको ॥ ६॥ प्रथमवृत्ते यत्र स्पार्शिकवलनाग्रं यत्र च मौक्षिकवलनाग्रं ज्ञातं तस्माद्यत्प्रत्येकं सूत्रं रेखामित्यर्थः । मध्यं वृत्तमध्यबिन्दु केन्द्ररूपं प्रति नयेत् । तदेवात्मकं' सूत्रं समासे समासाख्यद्वितीयवृत्तपरिधौ यत्र यस्मिन्प्रदेशे संस्पृशेत् स्पर्श कुर्यात्ततस्तत्सूत्रादवधिरूपात्समासवृत्तेऽर्धज्यावद्यथादिशं स्पाशिकमौक्षिको विक्षेपौ यथायोग्यं देयौ । अत्रोपपत्तिः । वलनाग्रसूत्रं मानक्यखण्डवृत्ते' यत्र लग्नं तत्रक्रान्तिवृत्तप्राच्यपरा वा ततः सूर्याच्चन्द्रस्य विक्षेपान्तरेण सत्त्वात्समासवृत्ते वलनाग्रसूत्राद्विक्षेपो देयो. ग्राहकविम्वकेन्द्रज्ञानार्थम् । परं सूर्यग्रहणे । चन्द्रग्रहणे तु चन्द्रस्य विक्षेपवृत्तत्वात्तदा नतिवलनदानादवगतवलनापरेखामानैक्यखण्डवृत्तं यत्र लग्नात्तत्र क्रान्तिवृत्तानुसृतप्राच्यपराविक्षेपमण्डले तत्स्थाने छाद्याचन्द्राच्छादकः सूर्यो विक्षेपान्तरेण विक्षेपदिग्विपरीत दिशि भवतीति वलनाग्रसूत्रात्समासवृत्तेऽधज्यावच्छरो व्यस्तो देय इति सिद्धम् ॥ अत एवं विपरीताः शशाङ्कस्यत्यग्र उक्तम् ॥ ६॥
भा० टी०-वलनाग्रसे मध्यविन्दुतक सूत्र रचना करे। इस सूत्रने समास-वृत्तको जहाँपर स्पर्श किया है उसी सूत्रके ऊपर• समास · वृत्तम स्पर्श और मोक्ष विक्षपके परीमाणकी न्यानिमाण करे ॥ ६॥
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घ्यायः ६. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
व्यय ग्राह्यवृत्ते स्पर्शमोक्षस्थानज्ञानमाहविक्षेपायात्पुनः सूत्रं मध्यबिन्दुं प्रवेशयेत् ॥ तद्राह्यविन्दुसंस्पर्शाद्रिमोक्षौ विनिर्दिशेत् ॥ ॥ ७ ॥
विक्षेपाग्रसमावृत्ते यत्र लग्नं तस्मात्सूत्रं रेखामित्यर्थः । अत्र रेखा सरला नायातीति शङ्कया प्रथमतोsवधिद्वयान्तं सूत्रं धृत्वा तदनुसारेण रेखा कार्येति सूचनार्थ सूत्रोक्तिः सर्वत्रेति ध्येयम् । पुनर्द्वितीयवारं पूर्ववलनाग्राद्रेखाया मध्यकेन्द्रावधिकायाः कृतत्वात्तथैव विक्षेपाप्राद्रे खामित्यर्थः । वृत्तमध्यरूपकेन्द्रबिन्दु प्रति गणकः प्रवेशयेत्प्रविष्टं कुर्या दित्यर्थः । तद्रेखाग्राह्यबिम्बवृत्तपरिध्योः संयोगाद्रासमोक्षौ स्पर्शमोक्षौ' गणको विनिदिशेत्कथयेत् । स्पाशिकशराग्रसूत्रं ग्राह्यवृत्ते यत्र लग्नं तत्र स्पर्शः । मौक्षिकशराग्रसूत्रं ग्राह्यवृत्ते यत्र लग्नं तत्र मोक्ष इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । मानैकखण्डवृत्ते यत्र raatara मा |हकार्धेन वृत्तं ग्राहकवृत्तं ग्राह्यवृत्ते यत्र लग्नं तत्र स्पर्शमौक्षी भवतः । तत्र वृत्ताकरणलाघवाद्धाह केकेन्द्राद्भाह्यकेन्द्रं यावत्सूत्रं मानैक्यखण्डमितं ग्राह्यवृत्ते यत्र लग्नं तत्र परिध्योः स्पर्शमोक्षौ स्वस्वव्यासार्धयोगात् ॥ ७ ॥
भा० टी० – समासवृत्तवाले विक्षेपायते मध्यविन्दुगत सूत्रमें जहां पर ग्राह्यवृत्तको स्पर्श किया है, वही दोनों स्थान स्पर्श और मोक्षके स्थान हैं ॥ ७ ॥
अथ ग्रहणे विक्षेपस्य दिग्व्यवस्थां मध्यग्रहणज्ञानाथै मध्यकालिक्वलनदान व श्लोकाभ्यामाह
नित्यशोऽर्कस्य विक्षेपाः परिलेखे यथादिशम् || विपरीताः शशांकस्य तद्वशादथ मध्यमम् ॥ ८ ॥ वनं प्राङ्मुखं देयं तद्विक्षेपकता यदि ॥ भेदे पश्चान्मुखं देयमिन्दोर्भानोर्विपर्ययात् ॥ ९ ॥
( १२५. )
अर्कस्य ग्रहणे चन्द्रविक्षेपाः परिलेखे ग्रहणभेददर्शनप्रकारेण यथादिशं यथास्थितदिशं नित्यशो नित्यं ज्ञेयाः । चन्द्रस्य ग्रहणे चन्द्रविक्षेपा विपरीता दक्षिणादुत्तरा उत्तराश्चेदक्षिणा । एतदनुरोधेनैव स्पाशिकमौक्षिकविक्षेपौ देयौ । न यथागत दिशा विति ज्ञेयम् । अथानन्तरं तद्वशान्मध्यग्रहणकालिक विक्षेपदिशः सकाशात्सूर्यग्रहणे मध्यग्रहणकालिकस्पष्टविक्षेपादिविचह्नाच्चन्द्रग्रहणे मध्यकालिकविक्षेप दिग्विपरीतदिक्विादित्यर्थः । यदि यहत्यिर्थः । तद्विक्षेपैकता तद्वलनं विक्षेपो मध्यग्रहणकालिक विक्षेपः । अनयोरकतैक्यं दिक्सम्बन्धेनेति शेषः । एकदिशीत्यर्थः । अत्र चन्द्रविक्षेपदिग्य या स्थितैव च विपरीतदिगिति ध्येयम् । प्राङ्मुखं पूर्वचि - द्वितं मुखम् । वलनाश्रितवृत्तेऽर्धज्यावच्चन्द्रस्य मध्यमं वलनं मध्यग्रहणकालिकं
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(१२६) सूर्यसिद्धांत:
[ षष्टोऽस्फुटं वलनं देयम् । भेदे वलनविक्षेपे दिशोभिन्नत्वे पश्चान्मुखम् । वलनाश्रित वृत्तेऽर्धज्यावन्मध्यग्रहणकालिकं चन्द्रस्य वलनं पश्चिमचिह्नसम्मुखं देयम् । सूर्यग्रहणे विशेषमाह -भानोरिति । सूर्यग्रहणे सूर्यस्य वलनं विपर्ययादुक्तवैपरीत्यात् । एकदिशि पश्चिमचिह्नसम्मुखं भिन्नदिशि पूर्वचिह्नसम्मुखं देयमित्यर्थः । फलितार्थस्तु चन्द्रग्रहणे मध्यकालवलनदिक्तत्कालविक्षेपयथागतदिशोंदक्षिणत्वे. उत्तरचिबादलनाश्रित वृत्तेऽर्धज्यावन्मध्यवलनं पूर्वचिह्नाभिमुखं देयम् । तयोरुत्तरत्वे दक्षिणचिह्नात्पूर्वाभिमुखं वलनं देयम् । यदि दक्षिणवलनमुत्तरविक्षेपस्तदा दक्षिणदिक्चिह्नादर्धज्यावत्पाश्चमंचिह्नाभिमुखं वलनं देयम् । यद्युत्तरं वलनं दक्षिणविक्षेपस्तदा वलनाश्रितवृत्तउत्तरचिह्नात्पश्चिमचिह्नामिमुखं वलनमर्धज्यावद्देयम् । सूर्यग्रहणेतु द्वयोर्दक्षिणत्वे वलनाश्रितवृत्ते दक्षिणचिह्नात्पश्चिमचिह्नाभिमुखं वलनं देयम् । उत्तरत्वे उत्तरचिह्नात्पाश्चमाभिमुख देयम् । यदि दक्षिणं वलनमुत्तरविक्षेपस्तदोत्तरचिह्नात्पूर्वाभिमुखम् । यद्युत्तरं वलनं दक्षिणविक्षेपस्तदा दक्षिणचिह्नात्पूर्वाभिमुखं देयमिति । भास्कराचार्यस्त्वेतदुक्तफलितं लाघवेन दक्षिणोत्तरवलनं क्रमण सव्यापसव्यं देयमित्युक्तम् । अत्रोपपत्तिः। प्रथमश्लोकोपपत्तिः स्पार्शिकमौक्षिकशरदानोपपत्तावुक्ता । ग्राह्यबिम्बकेन्द्राद्विक्षपान्त. रेण ग्राहकबिंबकेन्द्रं भवति । शरस्य कदम्बाभिमुखत्वेन केन्द्रात्कदम्बाभिमुखशर दानार्थ कदम्बज्ञानं वलनाश्रितवृत्तआवश्यकमतो वलनान्तरण स्वादिग्भ्यः क्रान्तिवृत्तदिशां सत्त्वादुत्तरदक्षिणदिग्भ्यां मध्यवलनान्तरेण क्रांतिवृत्तयाम्योत्तररूपकदंबौ दक्षिणोत्तरत इति पूर्वपश्चिमानुरोधेनैतद्दानं युक्ततरम् । यद्यपि चन्द्रग्रहणे शरस्य विपरीतदिक्त्वात्तच्छरदिग्ग्रहणेन सूर्यचन्द्रयोर्मध्यवलनदानमेकदिक्त्वे पश्चिमचिह्नाभिमुखं भिन्नदिक्त्वे पूर्वाभिमुखमित्यकोक्तिलाघवम् । तथापि सूर्यचन्द्रयोर्ग्रहणभेदादेकोक्तौ मन्दबुद्धीनां भ्रमसम्भवस्तद्वारणार्थ पृथगिवोक्तिः कृता । स्वतन्त्रेच्छस्य नियोगानहत्वाच ॥८॥९॥
माल्टा०-सूर्यग्रहणमेंभी ऐसाही करे कि उन दोनों मत्स्योंके मुखसे व पूंछसे निकली हुई दो रेखाओंको फैलाकर जो चन्द्रविक्षेप यथायोग्य दिशामें होगा। चन्द्रग्रहणके लिये विप रीत दिशामे ग्रहण करना चाहिये । मध्यग्रहणमेंभी विक्षेपका ऐसाही व्यवहार होता है | मध्य चन्द्रग्रहण वलन और विक्षेप एक दिशामें हो तो वलनका पूर्वमुखमें होना और दिशाभेद होनेसे पश्चिममुखमें होना कहा जायगा । विक्षेपके अनुसार उत्तर या दक्षिणमें होगा । परन्तु सूर्यग्रहणमें अदल बदल होजाताहै ॥ ८॥ ९ ॥ अथ मध्यग्रहणं श्लोकाभ्यां परिलेख दर्शयति
वलनापात्पुनः सूत्र मध्यबिन्दुं प्रवेशयेत् ॥ मध्यसूत्रेण विक्षेपं वलनाभिमुखं नयेत् ॥ १० ॥
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ध्यायः ६. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
विक्षेपायालिखेद्वृत्तं ग्राहकार्धेन तेन यत् ॥ ग्राह्यवृत्तं समाकान्तं तद्गस्तं तमसा भवेत् ॥ ११ ॥ वलनाग्रान्मध्यकालिकवलनाग्रात्पूर्वश्लोकोक्तात्सूत्रं रेखां मध्यबिन्दु वृत्तमध्यचिह्न प्रति पुनर्वारान्तरं पूर्वं स्पार्शिक मौक्षिकवलनाग्राभ्यां सूत्ररचना तथैवेत्यर्थः । प्रवेश येत् गणकाः प्रतिष्ठां कुर्यात् । मध्यसूत्रेणानेन मध्यकालिक विक्षेपं मध्यवलनाग्राभिमुखं नयेत् । वृत्तमध्यबिन्दारित्यर्थसिद्धम् । तथाच वृत्तमध्यान्मध्यवलनाग्रसूत्रे विक्षपांगुलानि गणयित्वा तदग्रे विक्षेपाये चिह्नं कुर्यादित्यर्थः । अस्मादिक्षेपायाग्राहकबिम्बमानार्धेन वृत्तं गणको लिखेत् । तेन वृत्तेन यद्यन्मितं ग्राह्यवृत्तं समाकान्तं व्याप्तम् । यद्भाह्यवृत्तविभागरूपं तमसान्धकाररूपेण च्छादकेन ग्रस्तमाच्छादितं स्यात्त न्मितं विभागं मण्यादिना लिप्तं कुर्यादित्यर्थः । अत्रोपपतिः । वृत्ते मध्यसूत्रं कदंबाभिमुखं तत्र ग्राह्यकेन्द्र।च्छरान्तरेण ग्राहककेन्द्रं तस्माद्र/हकार्धेन वृत्तं ग्राहकबिम्बवृत्तं तेन ग्राह्यवृत्तं यावदाक्रान्तं तावन्मध्यकाले ग्रस्तमिति तद्भागस्य कृत्स्रत्वेनाकाशे दर्शनात्तमसा ग्रस्तमित्युक्तम् ॥ १० ॥ ११ ॥
मा० ट ० - वलनायसे मध्यबिन्दुतक सूत्र करे । इस सूत्र में मध्यबिन्दुले वढनाभिमुखमें विक्षेपका चिह्न ( निशान) करे ग्राहक मानाईपरिमित व्यासार्द्धके साथ विक्षेपाय के चारों ओर वृत्तकल्पना करने से जो वृत्त होगा वह वृत्त ग्राह्यवृत्त में जितना व्याप्तहो वहीं अन्वकारावृत है ॥ १० ॥ ११ ॥
( १२७
ननु पूर्व कपाले ग्रहणयोः सम्भवे सर्वमुक्तमुपपन्नम् । पश्चिमकपाले ग्रहणसम्भवे परिलेखाक्तं वैपरीत्येन भवति । तथाहि । यस्यां दिशि परिलेखे स्पर्शो मोक्षो वा परकपाले तस्य पश्चिमाभिमुखत्वेन दर्शने दिग्वैपरीत्यं प्रत्यक्षमित्यत आहछेद्यकं लिखता भूमौ फलके वा विपश्चिता ॥ विपर्ययो दिशां कार्यः पूर्वापरकपालयोः ॥ १२ ॥
भूमौ फलके काष्ठपट्टिकायामित्यर्थः । वा विकल्पे । भूमौ लिखितस्यतस्ततोनयनासम्भवात्फलक इत्युक्तिः । छेद्यकं प्रागुक्तं लिखता गणकेन विपश्चिता, तत्त्वज्ञेन दिशां पूर्वादिदिशां पूर्वापरकपालयोर्विपर्ययोर्व्यत्यासः कार्यः । यथा पूर्वकपाले सव्यक्रमेण पूर्वादिलेखनं तथापरकपाले सव्यक्रमेण पूर्वादिलेखनं न कार्यम् । किन्तु पश्चिमस्थाने पूर्वा पूर्वस्थाने पश्चिमा । उत्तरदक्षिणदिग्भागे क्रमेणोत्तरदक्षिणे लेख्ये इत्यर्थः । तेन पश्चिमकपाले ग्रहणसम्भवेऽपि परिलेखोक्तं सम्भवत्येवेति भावः । अत्रोपपत्तिः । दिग्वैपरीत्यं भवतीति पूर्वमेव वैपरीत्येन दिशालेखने परिलेखा यथा स्थितो भवतीत्यु क्तम् । भास्कराचार्यैस्तु नैतदुक्तम् । परिलेखनामुक्यां दिश्यमुकं भवतीति ज्ञानस्यावश्यकत्वेन तस्य तत्राबाधात् । नहि यथाकाशे तथा दर्शनमपेक्षितम् । भूमौ
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(१२८) । सूर्यसिद्धान्तः
[ षष्ठोऽफलके वाकाशादीनां वस्तिवानामभावात् । अतएव किञ्चिन्यूनसादृश्येनादृष्टान्तत्वमिति ध्ययम् ॥ १२ ॥
भा०टी०-समतलभूमिमें या फलको छेदक लिखकर पूर्यापर कपालको वृत्तका (अर्द्धाश) अदल बदल करे ॥ १२ ॥ अथानादेश्यग्रहणमाह
स्वच्छत्वाद्वादशांशोऽपि ग्रस्तश्चन्द्रस्य दृश्यते ॥
लिप्तात्रयमपि ग्रस्तं तीक्ष्णत्वान्न विवस्वतः ॥१३॥ चन्द्रबिंबस्य द्वादशांशो ग्रस्त आच्छादितः। अपिशब्दादाच्छादनेन तजोहानतया दृश्यतासंभावनायामित्यर्यः । न दृश्यते । हेतुमाह-स्वच्छत्वादिति । तदतिरिक्तसंपूर्ण दृश्यभागस्य स्वच्छत्वाज्ज्योत्स्नावत्त्वात् । तथा च तज्ज्योत्स्नाधिक्येन प्रस्तोऽप्यल्पों ऽशः स्वाकारेण न दृश्यते ज्योत्स्नावत्त्वेन दूरतया भासते । सूर्यस्य लिप्तात्रयं ग्रस्तमपि न दृश्यते । अत्र हेतुमाह-तीक्ष्णत्वादिति । सूर्यस्य तेजस्तैक्ष्ण्यालोकनयनप्रतिघाताहत्वाचेत्यर्थः । वृद्धवसिष्ठेन तु "ग्रस्तं शशांकस्य कलाद्वयं चेत्कलात्रयं भानुमतो न लक्ष्यम् । तत्किश्चिदुनं ह्युदयास्तकाले लक्ष्यं यतस्तौ करगुल्फहीनौ ॥" इत्युक्तम् । अत उदयास्तकाले उत्तमदृश्यं दृश्यमिति ध्ययम् ॥ १३ ॥
मा०टी०-चंद्रमाकी स्वच्छताईके कारण द्वादशभागग्रहणभी दीख जाता । सूर्यविस गोंकी तेजीके मारे तीनं कलाका ग्रहणभी नहीं दिखाई देता ॥ १३ ॥ अथेष्टयासपीरलेखाथै ग्राहकमार्गज्ञानं श्लोकत्रयेणाह
स्वसज्ञितास्त्रयः कार्या विक्षेपाग्रेषु बिन्दवः ॥ तत्र प्राइमध्ययोर्मध्ये तथा मोक्षिकमध्ययोः ॥ १४ ॥ लिखेन्मत्स्यौ तयोर्मध्यान्मुखपुच्छविनिःसृतम् ॥ प्रसार्य सूत्रद्वितयं तयोर्यत्र युतिर्भवेत् ॥ १५ ॥ तंत्र सूत्रेण विलिखेच्चापं बिन्दुवयस्पृशा ।
स पन्या ग्राहकस्योक्तो येनासौ सम्प्रयास्यति ॥ १६ ॥ विक्षेपारेषु स्पाशिकमौक्षिकमाध्यविक्षेपाणां पूर्व स्वस्वस्थाने स्पर्शमोक्षमध्यग्रहणज्ञानार्थ दत्तानामग्रिमभागेषु स्वसंज्ञया सङ्केतिता बिन्दवस्त्रयः कार्याः स्पर्शशराग्रे स्प
साहितो बिन्दुर्मोक्षशराने मोक्षचिह्नांकितो बिन्दुमध्यशराये मध्यचिह्नांक्तिो बिन्दुतत्रयो बिन्दवो गणकन स्थाप्याः। तत्रोपस्थितबिन्दुत्रयमध्ये प्राङ्मध्ययोः स्पर्श तनात पाठान्त'म् ।
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ध्यायः ६.] संस्कृतटीका-भाषा कासमेतः ।
(१२९) मध्यबिन्द्वोर्मध्येऽन्तराले मौक्षिकमध्ययोस्तत्संज्ञयोविन्द्वोस्तथान्तराले प्रत्येकं मत्स्य लिखेदित्यन्यतरद्वये गणको मत्स्यौ लिखेत् । तयोर्मत्स्ययोर्मध्यागभन्मुखपुच्छाभ्यां विनिःसृतं निष्कासितं प्रत्येकं सूत्रमिति सूत्रद्वितयम् । प्रसार्याग्रेऽपि स्वमार्गणः निःसार्य तयोः स्वस्वमार्गप्रसारितसूत्रयोर्यत्र प्रदेशे युतिर्योगः स्यात्तत्र प्रदेशे। केंद्रं प्रकल्य सूत्रेण बिन्दुत्रयस्य स्पृशा प्रकल्पितकेंद्रबिन्दुत्रयान्यतमबिंदतरसूत्रेण व्यासार्धरूपेणेत्यर्थः । चापं वृत्तैकदेशरूपं धनुर्विदुत्रयस्पृष्टं लिखेत् । गणकः कुर्यादित्यर्थः । स चापात्मको वृत्तैकदेशो ग्राहकस्य पंथा मार्गः कथितः । येन मार्गेणासौ ग्राहकः सम्प्रयास्यति ग्रास्यबिंबच्छादनार्थ गमिष्यति ।, परिलेखस्य ग्रहणकालपूर्वकालावश्यम्भावित्वात् । अत्रोपपत्तिः । इष्टेऽह्नि मध्ये प्राक्पश्चादिति त्रिप्रश्नाधिकारांतर्गतश्लोकोपपत्तिः प्राक्प्रतिपादिता ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥
भा० टी०-स्पर्श मध्य और मे क्षगतविक्षेपाग्रमें ( शराग्रमे) तीन चिह्नित बिन्दु लिखेस्पर्श और मध्यबिंदुके द्वारा और मोक्ष व मध्यविन्दुके द्वारा दो मत्स्य अंकित बिन्दुमें संयुत होंगे तिसको केंद्र करके पहले कडे हुए तीन विन्दुको छूता हुआ एक धनुष बनाने । वह धनुही ग्राहकका मार्ग है; तिसको अवलंप करके गमन करता है ॥ १४ ॥ १५ ॥ १६ ॥ अथेष्टग्रासपरिलेखं श्लोकत्रयेणाह
ग्राहग्राहकयोगार्धात् प्रोज्येष्टयासमागतम् ॥ अपशिष्टांगुलसमां शलाको मध्यबिन्दुतः ॥ १७ ॥ तयोर्मार्गोन्मुखो दद्याद्रासतः प्राग्ग्रहाश्रिताम् ॥ विमुञ्चतो मोक्षदिशि ग्राहकाध्यानमेव सा ॥ १८॥ स्पृशेयत्र ततो वृत्तं ग्राहकान संलिखेत् ॥
तेन ग्राह्याद्यदाक्रान्तं तत्तमो ग्रस्तमादिशेत् ॥ १९॥ मानक्यखण्डादिष्टकालिकाभीष्टयासमागतं चंद्रग्रहणाधिकारोक्तप्रकारावगतं त्यक्त्वा अवशिष्टे यान्यंगुलानि तत्प्रमाणां शलाकां यष्टिं मध्यबिंदुतो वृत्तत्रयमध्यकेंद्रबिंदोः सकाशात्तयोः स्पर्शमोक्षविक्षेपारयोर्मार्गोन्मुखीसम्बद्धमार्गचापरेखाभिमुखी मार्गरेखासक्तां दद्यात् । कथमित्यत आह । ग्रासत इति । मध्यग्रासतः प्राक्पूर्वकाले ग्रहाश्रितां ग्रहस्पर्शस्तच्छराग्रसंबन्धिमार्गचापरेखासक्तां शलाकाम् । विमुञ्चतो' मुच्यमानान्तर्गताभी. ग्रासस्य शलाकाम् । मोक्षदिशि । मोक्षविक्षेपाग्रसंबंधिमार्गचापरेखायां सक्तां दद्य त् । सा शलका ग्राहकाध्वाजां ग्राहकमार्गचापरेखां यत्र यस्मिन्भागे स्पृशेत्संलग्ना स्यात् । ततः स्थानात् । एक्कारस्तदतिरिक्तव्यवच्छेदार्थः । ग्राहकमानार्धन व्यासार्धन वृत्त १ तदा इति पाठान्तरम् ।
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( १३० )
सूर्यसिद्धान्तः
1
संलिखेत् । सम्यक्प्रकारेण कुर्यात् । तेन वृत्तेन ग्राह्यग्राह्यवृत्ताद्यन्मितमेकदेशरूपं वृत्तमाक्रान्तं व्याप्तम् । तत्तन्मितग्राह्यवृत्तांशं तमोग्रस्तं छादकाच्छादितमभीष्टकाल आदिशेत्कथयेत् । अत्रोपपत्तिः । इष्टग्रासोनं मानैक्यखण्डं कर्णः । स तु ग्राह्यग्राहककेन्द्रान्तररूपः । अतोऽयं ग्राह्यकेन्द्रात्पूर्वज्ञातग्राहकमार्गररेवायां यत्र' लग्नस्तत्राभीहंसमये ग्राहककेन्द्रम् । तस्माद्राहकवृत्तेन ग्राह्यवृत्तं यदाक्रान्तं तत्काले ग्रास इति सुगमा ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥
मा०टी० - ग्राह्य और ग्राहकमान के योगार्द्धसे इष्टग्रास वियोग करके जो बच्चे उस पार - माणमध्यबिन्दुसे रेखा उसी मार्ग के सामनेको खँचे । मध्यग्रहण के पूर्व होनेपर स्पर्शदिशा में मौर पर होने पर मोक्षाभिमुख में रेखा को उतारले । रेखान्त बिन्दुकेन्द्र करके ग्राहकमानार्द्ध अनुसार वृत्तरचना करे | वह वृत्त और ग्राह्यवृत्त दोनों के अधिकृत अंशही तात्कालीन आच्छादित अंश ॥ १७ ॥ १८ ॥ १९ ॥
अथ श्लोकाभ्यां निर्मीलन परिलेखमाह
[ षष्ठा
मानांतरार्धेन मितां शलाकां ग्रासदिङ्मुखीम् । निमीलनाख्यां दद्यात्सा तन्मार्गे यत्र संस्पृशेत् ॥ २० ततो ग्राहकखण्डेन प्राग्वन्मण्डलमालिखेत् ॥ तद्राह्ममण्डलतियंत्र तत्र निमीलनम् ॥ २१ ॥
ग्राह्य प्रहिकबिम्बमानयोरन्तरस्यार्धं तेन परिमितां शलाकां निमीलनसंज्ञां ग्रासदि-मुखीं स्पार्शिकशराग्रविभागाभिमुखीं मध्यबिन्दोः सकाशाद्दद्यात् । सा निमीलनसंज्ञा शलाका तन्मार्ग स्पार्शिकग्राहकमार्ग चापरेखाकारं यस्मिन्प्रदेशे संलग्ना स्यात्तत्स्थानाग्राहकमानार्धेन प्राग्वन्मध्याभीष्टग्रासज्ञानार्थ यथा तद्वृत्तं कृतं तथेत्यर्थः । वृत्तं कुर्यात् । तद्ग्राह्यमण्डल युतिर्लिखित वृत्तग्राह्यवृत्तयोः संयोगो यत्र यस्यां दिशि तत्र तस्यां दिशि निमीलनं ग्राह्याबम्बस्य निमज्जनं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । सम्मीलनकाले ग्राह्यग्राहककेन्द्रान्तरं मानाधन्तरमितकर्णः । अन्यथा तदनुपपत्तेः । स ग्राह्यकेन्द्रात्स्पर्शमार्गे यत्र लग्नस्तत्र ग्राहककेन्द्रम् तस्माद्ग्राहक वृत्तं ग्राह्यमण्डलं यत्र स्पृशति तत्र निमीलनं स्पष्टम् ॥ २० ॥ २१ ॥
भा०टी०-ग्राह्यग्राहकमानद्वयान्तरार्द्ध परिमित शलाका ग्रासदिशा में उप्त मार्गपर स्थापन करे और तिसके अग्रभागको केन्द्र करके ग्राहक मानके अनुसार मंडल लिखनेते जहां पर वह मण्डलको स्पर्श करे तिसी दिशा में निमीलन आरम्भ होगा ॥ २० ॥ ११ ॥
अयोन्मीलनपरिलेखमाह
एवमुन्मीलने मोक्षादिङ्मुखीं सम्प्रसारयेत् ॥ विलिखेन्मण्डलं प्राग्वदुन्मीलननथेोक्तवत् ॥ २२ ॥
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ध्यायः ६ ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
( १३१ )
उन्मीलने उन्मीलनज्ञानार्थमित्यर्थः । एवं बिंबमानान्तरार्धमितां शलाकां मोक्षदिङ्मुख मौक्षिकशराग्रविभागाभिमुखीं मध्यबिन्दोः सकाशात्संप्रसारयेद्दद्यादित्यर्थः । प्राग्वत्संमीलनार्थ दत्तशलाकास्पार्शिकमार्ग योगस्थानाद्वाहकार्धेन वृत्तं कृतं तथेत्यर्थः । मौक्षिकमार्गदत्तशलाकायोगस्थाना ग्राहकवृत्तं कुर्यात् । अथानन्तरमुक्तवद्राहकग्राह्यवृत्तयोगो यस्यां तस्यां दिशीत्यर्थः । उन्मीलनं ग्राह्यबिम्बस्योन्मज्जनं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । उन्मीलनेऽपि ग्राह्यग्राहक केन्द्रान्तरं मानार्धान्तमितं कर्णः । परमपरमोक्षदिशीति युक्तिस्तुल्या ॥ २२ ॥
मा०टी० - इस प्रकार से मोक्षदिशा में शलाका स्थापन करके जहाँपर पूर्ववत् मण्डल स्पर्श करे सोही उन्मीलनदिकू होगी ॥ २२ ॥ अथ ग्रहणे चन्द्रस्य वर्णानाह
अर्धादूने सधू स्यात्कृष्णमर्धाधिकं भवेत् ॥ विमुञ्चतः कृष्ण ताम्रं कपिलं सकलय || २३ ||
अर्धादर्धबिम्बादूने, न्यूने ग्रस्ते सति स धूम्र ग्रातीयविम्बं धूम्रवर्णं स्यात् । अर्धाधिकं ग्रस्त विम्बं कृष्णं स्यात् । विमुञ्चत एतदनन्तरं ग्रस्तमधिकमपि मुक्तत्युन्मुखमिति मोक्षारंभोन्मुखस्य पादोनबिम्बाधिकग्रस्तस्यासम्पूर्णस्येत्यर्थः । कृष्णताम्रं श्यामरक्तमिश्रवर्णः संपूर्णग्रहणे कपिलं पिशङ्गवर्णबिंबं स्यात् । अत्र भूभायास्तेजोऽभावतया चन्द्राच्छादकत्वादेते वर्णाः संभवन्ति सूर्यस्य तु चन्द्रो जलगोलरूप आच्छादकः स दर्शान्तदिवसेस्मदृश्यार्धे सदा कृष्ण एवति कृष्ण एव सूर्यस्य ग्रस्वोंऽशः सर्वदा । मतएवाविकृतत्वाद्भगवता वर्णो नोक्तः ॥ २३ ॥
भा०टी० - चन्द्रग्रहण आधे से कम होनेपर धूम्रवर्ण, अधिक होनेसे कृष्ण वर्ण है । पादोनाई होनेपर ताम्र, कृष्ण और संपूर्ण होनेसे कपिल रंगका होता है ( सूर्यका ग्रस्तांश सदा काळे रंगका रहता है ) || २३ |
अयोच्छेद्यकस्य गोप्यत्वमाह
रहस्यमेतद्देवानां न देयं यस्य कस्यचित् ॥ सुपरीक्षित शिष्यायं देयं वत्सरवासिने ॥ २४ ॥
एतद्रहणच्छेयकं देवतानां गोप्यं वस्तु । यस्य कस्यचियस्कमा वेदपरीक्षिताय न देयम् । कस्मैचिद्देयमित्यर्थगतं विवृणोति- सुपरीक्षितशिष्यायेति । सुपरीक्षित मित्यत्र हेतुगर्भविशेषणमाह-वत्सरवासिन इति । वर्षपर्यन्तं तत्संगत्या तस्य तत्त्व तया ज्ञानं भवत्येवेति भावः ॥ २४ ॥
भा० टी०-यह तत्व देवताओंके लियेभी रहस्य है । जिस तिस हो यह नहीं देना चाहि १ दातव्यं ज्ञानमुत्तमम् इति पाठान्तरम् ।
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(१३२) सूर्यसिद्धान्त:
[ षष्टोऽ-- एक वर्षतक भली भांतिसे जिसकी परीक्षा ली है, उस शिष्यकोही केवल यह बताना चाहिये ॥ २४ ॥
अथाग्रिमग्रन्थस्यासंगतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्तिं फक्कियाह-ग्रहणभेदज्ञापकपरिलेखप्रतिपादनं परिपूर्तिमाप्तमित्यर्थः । इदं दशभेदग्रहगणितमित्युक्त्या गणितक्रिया भावाद्रहणाधिकारान्तर्गतं नाऽधिकारान्तरम् । अत एवाधिकार इत्युपेक्षाध्याय इत्युक्तम् ॥ रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे ॥ छेद्यकं ग्रहणान्तं तु पूर्ण गृढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरङ्गनाथगणकविरचिते गूढार्थ-- प्रकाशके छेदकाध्यायः सम्पूर्णः ॥
इतिच्छेदकाध्यायः॥
छठवाँ अध्याय समाप्त ।
अथ सप्तमोऽध्यायः। अथ युत्याभासग्रहणनिरूपणेन संस्मृततयारब्धो ग्रहयुत्यधिकारो व्याख्यायते । तत्र युतिभेदानाह
ताराग्रहाणामन्योन्यं स्याता युद्धसमागमौ ॥
समागमः शशांकन सूर्यणास्तमनं सह ॥ १॥ ताराग्रहाणां भौमादिपञ्चग्रहाणां परस्परं योगे युद्धसमागमौ वक्ष्यमाणलक्षणभिन्नौ स्तः । चंद्रेण सह पञ्चतारान्यतमस्य योगः समागमसंज्ञः । सूर्येण सह पंचताराणामन्यतमस्य चंद्रस्य वा योगस्तदस्तमनं पूर्णास्तंगतत्वम् । न त्वस्तमात्रम् । युत्यभावे प्रागपरकाले तस्य सत्त्वात् ॥ १॥
भा० टी०-ग्रहोंके परस्पर योगका नाम युद्ध या समागन हैं । चंद्रमाके सहित ग्रहों के योगका नाम समागम है । सूर्य के साथ योगका नाम मस्तमन है ॥ १ ॥ अथ युतेर्गतैष्यत्वं सार्धश्लोकेनाह--
शीघ्र मन्दाधिकेऽतीतः संयोगो भविता यथा ॥ द्वयोः प्राग्यायिनोरेवं वक्रिणोस्तु विपर्ययात् ॥
प्राग्यायिन्यधिकेत्तीतो वक्रिण्येष्यः समागमः ॥२॥ ययोर्ग्रहयोर्योगोऽभिमतस्तयोर्गहयोर्मध्ये यः शीघ्रगतिम्रहस्तस्मिन्मन्दाधिके मन्दगतिग्रहादधिके सति तयोः संयोगो युतिसंज्ञो गतः । पूर्व जात इत्यर्थः । अन्यथा मन्दगतिग्रहे शीघ्रगतिग्रहादधिके सतीत्यर्थः । तयोर्योगो भविता एष्यः । एवमुक्तं गतैष्यस्वम् । द्वयोर्ग्रहयोः प्राग्यायिनोः पूर्वगतिकयोभवति ।' वक्रिणोर्वक्रगतिग्रहयोर्विपर्ययादु.
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ध्यायः ७.]. संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१३३), क्तवैपरीत्यात् । तुकाराद्गतैष्यो योगो भवति । शीघ्रगतिग्रहे मन्दगतिग्रंहादधिक एण्यः संयोगो मन्दगतिग्रहे शीघ्रगतिग्रहादधिके गतः संयोग इत्यर्थः । अथैकस्य वक्रत्व आह-प्राग्यायिनीति । द्वयोमध्ये एकतरस्मिन्वक्रिणि सति तदा वक्रगतिग्रहात्पूर्व गतिग्रहेऽधिके सति गतो योगः । यदा तु पूर्वगतिग्रहाद्वक्रगतिग्रहेऽधिके सति समागमो योग एष्यः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । पूर्वगत्योहयोमध्ये शीघ्रगत्याधिकत्वेऽग्रे योगास म्भवात्पूर्वयोगो जातः । मन्दगस्याधिकत्वे शीघ्रगस्य न्यूनत्वादने योगो भविष्यति । वक्रिणोस्तु शीघ्रगत्याधिकत्वेऽग्रे तन्यूनत्वेन योगसम्भवादेष्यो योगो मन्दगस्याधिकत्वे शीघ्रगस्योसरोत्तरं न्यूनत्वसम्भवेनाग्रे योगासंभवागतो योगः । अथ वक्रगतिग्रहात्पूर्वगतिग्रहेऽधिक उत्तरोचरं योगासम्भवाद्गतो योगः । पूर्वगतिग्रहाइक्रगतिग्रहेऽ. पिके वक्रगतिग्रहस्य न्यूनत्वेनाग्रे योगसम्भवादेष्यः संयोग इति ॥२॥ __ भा० टी०-शीघ्रगामी ग्रहस्पष्ट मन्दगामीकी अपेक्षा अधिक होनेपर समागमै भतीतं हो गया है अन्यथा भाव्य होता है। दोनोंके वक्री होनेसे विपर्यय होता है एककी. वक्रगति होनेसे, सरलगगि ग्रहस्पष्ट अधिक होनेपर योगगत और वक्रगति ग्रहस्पष्ट अधिक होनेसे योग पीछे होगा ॥ २॥ __ अथ युतिकाले तुल्यग्रहयोरानयनं युतिकालस्य गतैष्यदिनाद्यानयनं च सर्धिश्लोकत्रयेणाह
ग्रहांतरकलाः सत्वभुक्तिलिप्तासमाहताः ॥३॥ भत्त्युत्तरेण विभन्नुलोमविलोमयोः॥ द्वयोर्वक्रिण्यथैकस्मिन भुक्तियोगेन भाजयेत् ॥ ४ लब्धं लिप्तादिकं शोध्यं गते देयं भविष्यति ॥ विपर्ययाक्रगत्योरेकस्मिस्तु धनव्ययौ ॥५॥ समलिप्तौ भवतां तौ ग्रहो भगणसंस्थितौ ॥
विवरं तद्वदुद्धत्य दिनादिफलमिष्यते ॥ ६ ॥ युतिसम्बन्धिनोर्ग्रहयोरभीष्टेककालिकयोरेन्तरस्य कलाः पृथक्स्वस्वगतिकलाभिर्गुणिताः कर्मद्वयोर्ग्रहयोरनुलोमविलोमयोर्मोगंगयोर्वक्रगयोर्वेत्यर्थः ।स्फुटगत्यन्तरेण गणको भजेत् ।। विशेषमाह-वकिणीति । अथानन्तरं द्वयोर्मध्ये एकतरे वक्रिणि सति ,तयोगतियोगेने भजेत् । फलं कलादि स्वं स्वं गते योगे सति ग्रहयोर्मार्गगयोः शोध्यं भविष्यति । एष्ये योगे सति तयोर्दयं योज्यम् । द्वयोर्वक्रगत्योः वं स्वं फलं विपर्ययादुक्तपरीत्यात्कार्यम् । गते योगे योज्यंम् । एष्ययोगे हीनमित्यर्थः । योमध्ये एकतरे तुकाराक्रिणि सति तयोर्ग्रहयोर्वक्रमार्गगयोः स्वस्वकलात्मकंफलाको धनव्यया
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( १३४) सूर्यसिद्धान्तः
[ सप्तमोरयुतहीनौ कार्यो । यथाहि । गतयोगे: मार्गगग्रहे स्वफलं हीनं वकिणि ग्रहे योज्यम् । एष्ययोगे वक्रग्रहे शोध्यम् । मार्गगग्रहे योज्यमिति । एवंकृते तौ युतिसम्बन्धिनी ग्रहौ भगणसंस्थौ भगणे राश्याधिष्ठितचके संस्थितिर्ययोस्तौ राश्याद्यात्मको समलिप्तौ समकलौ स्तः लिप्तापदस्य भगणावयवोपलक्षणत्वेन समौ स्त इत्यर्थः। अथ युतिकालज्ञानमाह-विवरामिति । अभीष्टकालिकयोर्युतिसम्बन्धिनोर्ग्रहयोरन्तरं कलात्मकं तत्समकलोपयुक्तफलज्ञानार्थं यथा गतिगुणितमन्तरं गतियोगेन गत्यन्तरेण भक्तं तथेत्यर्थः । तेन हरेण भक्त्वा फलं दिनादिकं गतैष्ययुतिवशादभीष्टकलाद्गतैष्यमुच्यते । तत्समये तद्युतिकाले तौ ग्रहौ समौ स्त इत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । गत्यन्तरेण गतिकलास्तदा ग्रहान्तरकलाभिः का इति फले गतयुतौ ग्रहयोः शोध्ये । एष्ययुतौ योज्ये । द्वयोर्वक्रत्वे गत्यन्तरभक्तफले गतयुतौ ग्रहयोर्योज्ये । एष्ययुती शोध्ये । वक्रग्रहस्योत्तरोत्तरं न्यूनत्वात् । अथैको वक्री तदा तयोरन्तरं प्रत्यहं गतियोगेनोप चितम् । अतो गतियोगहरेणागतं फलं गतयोगे मार्गगग्रहे हीनं पूर्व तस्य न्यूनत्वात् वक्रग्रहे योज्यम् । पूर्व तस्याधिकत्वात् । एष्ययोगमार्गगग्रहे योज्यम् उत्तरोत्तरमधिकत्वात् । वक्रग्रहे शोध्यम् तस्याग्रे न्यूनत्वात् । गतियोगेन गत्यन्तरेण वा दिनमकं लभ्यते तदान्तरकलाभिः किमित्यनुपातेन गतैष्यदिनाथम् ॥३॥४॥५॥ ६ ॥
भा० टी०-दो ग्रहके अन्तरकी कला करके अलग २ तिन २ की गतिसे गुणकरके दो नौके सरल या वक्री होनेपर गतियोगसे माग करनेपर जो कलादिहो वह समागममें हो तो ग्रहसे दोनोंका समगति वियोग, और वक्र में योग करे | मावी होनेसे वह स्पष्ट योग या वियोग करे । एकही वक्रगति हो तो गतमें पत्र योग भौर गम्यमें पियोग करना चाहिये । तो दोनों ग्रहकी भगणस्थित समकला होगी, समय जाननाहो तो मन्तरफलाको पूर्वोक्त हारकद्वारा भागकरनेसे जो दिनादि होंगे वही समकलाकालसे इष्ट समयके मन्तई दिनादि है ॥ ३ ॥ ४ ॥५॥६॥ अथ दृक्कमर्थिमुपकरणानि साध्यानीत्याह
कृत्वा दिनक्षपामानं तथाविशेपलिप्तिकाः।
नतोत्रतं साधायित्वा स्वकालमवशात्तयोः ॥ ७ ॥ तयोः समयोहयोदिनक्षपामानं प्रत्येकं दिनमानं रात्रिमानं प्रसाध्य विक्षेपकलाः। तथा प्रसाध्येत्यर्थः । अत्र भगवता विक्षेपकलाः प्रसाध्येत्यस्य दिनरात्रिमानं प्रसाध्येस्येतदनन्तरमुक्तर्दिनरात्रिमानं स्पष्टक्रान्तिजचरेण साध्यम् ।। किन्तु समग्रहीयशरासंस्कृतकेवलक्रान्तिमचरेण, साध्यमिति सचितम् । समग्रहयोः प्रत्येकं नतकालमुन्नतकालं प्रसाध्य । अत्र समुच्चयाथकं तथेत्यन्चति । एतदर्थमेव दिनरात्रिमानं प्रसाध्येति पूर्वमुक्तम्। समनन्तरोक्तं । कर्मकार्यमिति वाक्यशेषः । ननु नतोनतं कथं सायं
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ध्यायः ७ ] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१३५) ग्रहोदयाज्ञानात्तदवधिकालमानज्ञानाभावात् । नहि. ग्रहस्य दिनरात्रिगतकालज्ञानं विनापि केवलदिनरात्रिमानाभ्यां तत्सिद्धिरत आह-स्वकालग्नवशादिति । यस्मिन्काले समी ग्रहो जाती तात्कालिकलग्नं पूर्वोक्तप्रकारावगतं तद्वशात्तद्रहणादित्यर्थः । स्वकात्समाहात्प्रत्येकमुन्नतनतकालौ साध्यावित्यर्थः । एतदुक्तं भवति । युतिकालिकलग्नमधिकसझं प्रकल्प्य समग्रह न्यूनसऱ्या प्रकल्प्य । “भोग्यासूनूनकस्याथ भुक्तासूनधिकस्य च । सम्पीड्यान्तरलग्नासू नेवं स्यात्कालसाधनम् ॥” इति त्रिप्रश्नाधिकारोत्तया ग्रहस्य दिनगतं रात्रिगतं प्रसाध्य दिने दिनगतशेषयो रात्रौ रात्रिगतशेषयोर्यदल्पं तदुन्नतम् । तेनोनं दिनार्धे राज्य वा ग्रहस्य नतम् । दिनक्षपामानं नतोन्नतमित्येकवचनेन समग्रहयोरभिन्नंदिनमानं रात्रिमानं नतमुन्नतं चेति सूचनादपि नोदयलग्नलग्नाभ्यामन्तरकालः प्रत्येकं भिन्नः साध्यः । नवास्पष्टक्रान्तिजचरेण दिनरात्रिमाने प्रत्येकं पूर्वमुदयलग्नस्यैवासिद्धेरिति स्फुटीकृतम् । अत्रोपपत्तिः । तात्कालिकार्कलग्नाभ्यां यथा सूर्यस्योदयगतकालस्तथा तात्कालिकग्रहलग्नाभ्यां ग्रहोदयगतकालः सिद्भयति यद्यपि सूर्यस्य क्रान्तिवृत्तस्थत्वात्सूर्यस्य युक्तः कालः । ग्रहस्य तु क्रान्तिवृत्तस्थत्वानियमादुक्तरीत्यागतकालस्य क्रांतिवृत्तस्थग्रहचिह्नीयत्वेऽपि ग्रहबिम्बीयत्वाभावादयुक्तत्वम् । अतएव वक्ष्यमाणकर्मसंस्कृतगृहादानीतकालो ग्रहबिम्बीयस्तथापि वक्ष्यमाणकर्मार्थ ग्रहचिह्नीयस्यैवापेक्षितत्वान्न क्षतिः ॥ ७॥
भान्टी-समकलाकालीन तिनका दिनरात्रिमान साधन करे । तितकी तात्कालिक विक्षपकला निर्णय करके ग्रहस्थानगत लग्नसे नतोन्नत साधन करे ॥ ७ ॥ अयाक्षटक्कर्मतत्संस्कारं च ग्रहस्य श्लोकाभ्यामाहविषुवच्छापयाभ्यस्ताद्विक्षेपाद्वादशोद्धृतात् ॥ फलं स्वनतनाडीघ्नं स्वदिनाविभाजितम् ॥ ८॥ लब्धं प्राच्यामृणं सोम्यादिक्षेपात्पश्चिमे धनम् ॥
दक्षिणे प्राकपाले स्वं पश्चिमे तु तथा क्षयः ॥ ९॥ - अक्षमया गुणिताहविक्षेपादानीताद्वादशभक्ताचल्लब्धं तत्स्वनतनाडीनं विक्षेपसम्बधिग्रहस्य नतघटीभिर्गुणितं तस्यैव दिनार्धन भक्तं रात्रौ राव्यर्धनत्यर्थसिद्धम् ।अत्र समग्रहयोः पूर्वोकप्रकारेण दिनमाननतयोरभिन्नत्वात्स्वशब्द । उभयत्रानावश्यकोपि युतिव्यतिरिक्तदृग्ग्रहाणां प्रयोजनतया साधनवैयधिकरण्यावृत्त्यर्थं स्वपदं भगवता दत्तम् । वस्तुतस्तु दृग्ग्रहयोस्तुल्यत्वे भगवताने युतेरुक्तत्वात्तात्कालिकयोः स्पष्ट
जिस अंशमै ग्रह स्थित है, तिरुके उदय ( लम ) का समय स्थिर करके तिससे ग्रहका मध्योदय कालग्रहका दिनार्द्धमान मिलातेही प्राप्त होजाताहै। मध्यादयकाल लियत होजाने पर इष्टदण्डकी पृथकताके द्वारा नतोत्रत सहजसे जाना जाता है।
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सूर्यसिद्धान्तः
[ सप्तमोऽयोस्तुल्यत्वेन डकर्मसाधनाथै नतदिनमानयोस्तयोभिन्नत्वेन स्वपदं युक्तं प्रयुक्तम् । नतु स्पष्टक्रांतिजचरोत्पन्नदिनमानयोर्भेदान्नतभेदाच्च स्वमित्युक्तम् । तत्साधनस्य वैय. धिकरण्येनाप्रसक्तरिति ध्येयम् । उक्तरीत्योत्तराद्विक्षेपालब्धतत्कलात्मक प्राच्यां प्राक पाले ग्रहस्य हीनम् । पश्चिमकपाले योज्यम् । दक्षिण तथा विक्षेपे । तुकारात्तदुत्पन्न फलं प्राकपाले योज्यं पश्चिमकपाले हीनं कार्यम् ॥ ८॥९॥
भा०टी०-विक्षेपको विषुवच्छायासे गुणकरके १२ से भाग करनेपर जो हो तिसको स्वीय. नतदण्डसे गुणकरके स्वीयदिनार्द्धसे भाग करनेपर मक्षदृक् कर्म होती है। उत्तर विक्षेप होनेसे मध्योदयके पूर्व में अक्षा ग्रहस्पष्टसे वियोग और परे योगं करना चाहिये । विक्षेप दक्षिणमें हो तो मध्योदयके पूर्वमें योग और पीछे वियोगं करना पडत' है ॥ ९॥ अथायनकर्माह
सत्रिभग्रहजकान्तिभागनाः क्षेपलिप्तिकाः ॥
विकलाः स्वमृणं क्रान्तिक्षेपयोर्भिन्नतुल्पयोः ॥ १० ॥ विक्षेपकलाः पूर्वसाधिता राशित्रययुतग्रहोत्पन्नक्रांत्यशैर्गुणिता' विकला भवन्ति ताः अक्षटकर्मसंस्कृतग्रहे विकलास्थाने क्रांतिक्षेपयोः सत्रिभग्रहस्य क्रांन्तिर्ग्रहस्य विक्षेपः । अनयोभिन्नतुल्ययोभिन्नैकदिक्कयोः सतोः क्रमेण स्वमृणं कार्ये । अत्रोपपत्तिः । विक्षेप. हास्य ग्रहबिम्बोपरि ध्रुवप्रोतश्लथवृत्तं स्पृष्ट्वा क्रान्तिवृत्ते ग्रहासन्ने यत्र लगति तस्य ग्रहचिह्नस्यान्तरे याः क्रान्तिवृत्ते कलास्ता आयनकलास्तदानयनार्थ क्षेत्रं ग्रहशरः कदम्बाभिमुखः कर्णः। तत्सम्बारात्रवृत्तप्रदेशध्रुवप्रोतश्लथवृत्तसम्पातयोरन्तरे दुरात्र. वृत्ते भुजः । ध्रुवप्रोतवृत्ते स्पष्टशरो ग्रहबिम्बतत्संपातान्तरे कोटिः । अतस्त्रिज्याकर्णेऽ यनवलनज्याभुजस्तदा शरकणे कइत्यनुपातेन छुरात्रवृत्ते |ज्याप्रमाणेन भुजकलाः । मतु ग्रहचिह्नतदृत्तसम्पातान्तरे क्रान्तिवृत्ते भुजकलाः क्रान्तिवृत्तस्य तिर्यक्त्वेन तादृश क्रान्तिवृत्तप्रदेशस्य तिर्यक्त्वादुजत्वासम्भवात् । अयनवलनज्याभुजत्रिज्याकर्णो यष्टिः कोटिस्तान्तरपदरूपति क्षेत्र गोले प्रत्यक्षम् । अतोऽनुपाते न क्षतिः । तत्र भगवता लोकानुकम्पया गणितसुखार्थ दुरात्रवृत्तस्य भुजकला क्रान्तिवृत्तस्था अंगीकृता स्वल्पान्तरत्वात् । अतोऽयनवलनज्याशरकलाभिर्गुण्यात्रिज्यया भाज्येति प्राप्ते भगवतायनवलनस्य सत्रिभग्रहक्रान्तिभागत्वेनांगीकारात्तद्भागा अष्टपत्ताशता गुणनीया ज्या भवति । यतः परमाश्चतुर्विंशत्यंशा अष्टपश्चाशता गुणिताः पंचोना परमकान्तिज्या जाता । इयं शरगुणात्रिज्याभक्तायनकलास्तत्र विकलात्मकफलार्थ षष्टिगुण इति सत्रिभग्रहकारितभागगुणितो ग्रहविक्षेपोऽष्टपञ्चाशत्पष्टिघातेन विंशत्यूनेन पञ्चत्रिंशच्छतेन गुण्य त्रिज्याभक्त इति सिद्धम् । अत्रापि लाघवाद्गुणस्य त्रिज्यामितत्वेन स्वल्पान्तरत्वाद.
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ध्यायः७] - संस्कृतटकिा-भाषाटीकासषेतः । (१३७) ङ्गीकाराद्गुणहरयो श इत्युपपन्नं सत्रिभेत्यादि विकला इत्यन्तम् । भास्कराचार्यैस्तु"आयनं वलनमस्फुटेषुणा संगुणं झुगुणभाजितं हतम् ॥ पूर्णपूर्णधृतिभिर्ग्रहाश्रितव्यसभोदयहृदायनाः कलाः ॥"इति सूक्ष्ममस्मादुक्तम् । धनोपपत्तिस्तु मकरायुः त्तरायणे दक्षिणध्रुवादक्षिणकदम्बोधः । उत्तरध्रुवादुत्तरकदम्ब ऊर्ध्वम् । तत्र शरो यदा तृत्तरस्तदा ग्रहबिम्बस्योत्तरकदम्बोन्मुखत्वनोत्तरध्रुवादुन्नतत्वात्क्रान्तिवृत्तस्य ग्रहचिह्नात्का न्तिवृत्तध्रुवप्रोतश्लथवृत्तसम्पात आयनग्रहचिह्नरूपः क्रान्तिवृत्त पश्चाद्भवत्यत आयनषिकलाः स्पष्टग्रह ऋणं कृताश्चेदायनग्रहभोगो ज्ञातः स्यात् । एवं दक्षिणशरे ग्रहाबम्बस्य दक्षिणकदम्बोन्मुखत्वेन ध्रुवोन्नतत्वात्क्रान्तिवृत्ते ग्रहचिह्नादायनग्रहचिह्नमग्र एव भवतीति धनमायनविकलाः । कर्कादिदक्षिणायने तु दक्षिणध्रुवादक्षिणकदम्बऊर्ध्वमुत्तरध्रुवादुत्तरकदम्बोधः । तत्र यदि ग्रहशरो दक्षिणस्तथा ग्रहबिम्बस्य दक्षिणध्रुवादुन्नतत्वात्कांन्तिवृत्ते ग्रहचिह्नादायनग्रहचिद्रं पश्चादत ऋणमायनम् । यद्युत्तरशरस्तदा ग्रहबिम्बस्योत्तरंध्रुवान्नतत्वादहचिह्नादायनग्रहचिह्नमग्रे क्रान्तिवृत्ते भवतीत्यायनं धनामति गोलस्थित्यायनशरदिगैक्य ऋणमयनशरदिग्भेदे धनमिति सिद्धम् ।। तत्र ग्रहायनदिशः सत्रिभग्रहगोलदिक्तुल्यत्वात्सात्रिभग्रहक्रान्तिग्रहशरयोरेकदिक्त्वे ऋणं भिन्नदिक्त्वे धनमित्युपपन्नम् । अथाक्षकर्मोपपत्तिः।' भूगर्भक्षितिजयाम्योत्तरवृत्तसम्पातरूपसमप्रोत. चलवृत्ते ग्रहबिम्बसक्ते क्रान्तिमण्डलस्य ग्रहासन्नो यत्र सम्पातस्तत्राक्षकलासंस्कृतो ग्रहस्तस्यायनग्रहस्य चान्तरे क्रान्तिवृत्तप्रदेश आक्षकलास्ताः। क्षितिजस्थग्रहबिम्बोपरमान्तरत्वात्परमा याम्योत्तरवृत्तस्थे ग्रहेऽयनग्रहचिह्नमेवाक्षकलासंस्कृतग्रहचिह्न भवतीति तदभावः । अतः क्षितिजस्थे ग्रहबिम्बे चलवृत्तं याम्योत्तरंक्षितिजसम्पातप्रोतक्षितिजवृत्ताद्भिन्नं तत्र ग्रहबिम्बसक्तं ध्रुवप्रोतचलवृत्तकान्तिवृत्तसम्पातोऽयनग्रहचिह्नरूपः क्षितिजस्थकान्तिवृत्तप्रदेशादूर्ध्वमधो वा याभिः कलाभिरन्तरितस्ता अक्षदृक्कलाः । आसां ज्ञानार्थ तदन्तरप्रदेशीयद्यरात्रवृत्तखण्डप्रदेशस्थासवोऽक्षजाः साधिताः । तथाहि । ध्रुवद्वयप्रोतग्रहबिम्बगतचलवृत्ते विषुववृत्तग्रहबिम्बान्तरे स्फुटा क्रान्तिः । विषुववृत्तकान्तिवृत्तस्यायनग्रहचिह्नान्तरे मध्यमाक्रान्तिरयनग्रहस्यायनग्रहचिग्रहबिम्बान्तरे स्फुटशरः । द्वयोः क्रान्त्योरेकदिक्त्वे स्फुटक्रान्तिराधिका । तत्रोत्तरगोलेऽयनग्रहचिह्नक्षितिजादधः स्वधुरात्रवृत्ते क्रान्त्योश्चरान्तरासुभिभवति । यतोऽयनग्रहाचह्नधुरात्रवृतस्थोन्मण्डलक्षितिजान्तररूपचरा ग्रहबिम्बीयचरस्याधिकत्वेन मध्यमैचरसम्बद्धाक्षतिजवृत्तप्रदेशाध्रुवाभिमुखसूत्रं ग्रहबिम्बीयचरसम्बद्धधुरात्रवृत्तप्रदेशेयत्रलग्रं तत्क्षितिजान्तराले चरान्तरस्य सत्त्वेन स्पष्टशरचरान्तराभ्यां । कोटिभुजाभ्यामांयतचतुरस्रक्षेत्रस्य तद्द्यरात्रवृत्तद्वयमध्ये स्फुटदर्शनम् । एवं दक्षिणगोलेऽयनग्रहचिगस्वारात्रवृत्ते क्षितिजादूर्ध्व क्रान्त्योश्चरान्तरासुभिारीत । क्रान्त्योभिन्नदिक्त्वे तु क्षितिजादयं
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( १३८ )
सूर्य्यसिद्धान्तः
[ सप्तमोऽ
नग्रहचिह्नखद्युरात्रवृत्ते क्रांत्याश्वरतोस्तुल्या सुभिरध ऊर्ध्वम् । मध्यक्रांतिसुरात्रवृत्तमुन्मण्डलात्स्पष्टक्रांतिचरतुल्यांतरण दक्षिणोत्तरगोलयोरध ऊर्ध्वमयनग्रह चिह्नस्य सत्त्वात् । क्षितिजाचरांतरेणोद्वृत्तस्य तत्त्वाच्चति । भास्कराचार्यैः “स्फुटास्फुटक्रांतिजयोश्वरार्धयोः सामान्य दिक्त्वेऽन्तर योगजासवः । पलोद्भवाख्याभनभः सदाम्” इति सूक्ष्ममाक्षं दृगसुज्ञानमुक्तम् । भगवता तु पूर्वोक्तरीत्या स्फुटास्फुटक्रांतिसंस्कारोत्पन्नस्फुटशररूपक्रांतिखण्डस्य स्वल्पांतरेण यथागतशरतुल्यस्य चरमाक्षदृगसव इत्यंगीकृत्य द्वादशकोटौ पलभाभुजस्तदा विक्षेपरूपक्रांतिकोट क इत्यनुपाताद्विक्षेपज्याफलधनुषोरत्यागात् स्वल्प तरेण कुज्याच रज्ययोरभिन्नत्वेनांगीकाराच्चरासव अक्षासव एता एव कला धृताः स्वल्पां तरत्वात् । क्षितिजातिरिक्तस्थग्रहबिम्बे त्वेताः कला अभीष्टनतकालपरिणता भवतीति विषुवच्छाययेत्यादिस्वदिनाधविभाजितमित्यंतम् । अत्र ग्रहे आयनं दृक्कर्म संस्कार्य तस्माद्दिन रात्रिमानादिनतं साधयित्वा दृक्कर्म क्रियते तदा किञ्चित्सूक्ष्ममिति सत्रिभग्रहज्येत्यादिश्लोकः सप्तमो यत्पुस्तके तत्र तूक्तं स्वतः सिद्धम् । नतानुपाते स्वपदव्यर्थ प्रयोगशंकानवकाशश्च समग्रहयोरायनदृक्कर्म संस्कारेण भिन्नत्वसम्भवात्तयदिनमाननतयोरपि भिन्नत्वसिद्धेरित्यवधेयम् । धनर्णोपपत्तिस्तु समप्रोत चलवृत्तं ग्रहविम्वोपरिगं यत्र क्रांतिवृत्ते लगति स राश्यादिभोग आक्षदृक्कर्म संस्कृत इति प्रागुक्तम् । तत्र पूर्व - कपाले तस्माद्ब्रहादायनग्रह चिह्नं क्रांतिवृत्त उत्तरशरेऽग्रिमभागे भवति दक्षिणशरे पश्चा द्भवतीतिक्रमेणर्णधनमुक्तम् । पश्चिमकपालेतूत्तरशरे पश्चाद्दक्षिणशरेऽग्रिमभाग इति क्रमेणायन ग्रहे धन दृक्कर्मद्वय संस्कृतो ग्रहसिद्धो भवतीत्युपपन्नं सर्वम् ॥ १० ॥
भा०टी० - त्रिराशियुत ग्रहस्पष्ट के अनुसार लाये हुये क्रांत्यंश करके विक्षेपकलाको गुणा करनेसे अयनदृक्कर्मविकला होगी । पूर्वोक्त क्रान्ति और विक्षेप मिन्नदिवस्थ होनेपर ग्रहमें योग और नहीं तो वियोग करे ॥ १० ॥
अथ प्रसंगादृक्कर्म संस्कारस्थलान्याह
नक्षत्र ग्रहयोगेषु ग्रहास्तोदयसाधने ॥
गोत्र तु चन्द्रस्य कर्मादाविदं स्मृतम् ॥ ११ ॥
अत्र निमित्तसप्तमी । ग्रहनक्षत्राणां बहुत्वाद्बहुवचनम् । नक्षत्रग्रहयोर्युत्यर्थ नक्षत्र • ग्रहयोरिदं द्वयं दृक्कर्मस्मृतं प्रागुक्तम् आदौ प्रथमं कार्यम् । ताभ्यामनन्तरं क्रिया कायेत्यर्थः । अत्र नक्षत्रध्रुवकाणामायनदृक्कर्म संस्कृतानामेवोक्तत्वादायनं दृक्कर्म न कार्यमिति ध्येयम् । ग्रहाणामस्तोदयौ नित्यास्तोदयौ सूर्यसान्निध्यजनितास्तोदयौ च । ग्रहाणामुपलक्षणत्वान्नक्षत्राणामपि । तयोः साधननिमित्तं ग्रहस्य नक्षत्रस्य वा देयम् । अत्राक्षकर्मार्थ केवलं शरः साध्यः । नतु दिनमानरात्रिमाननतो ते साध्ये | क्षितिजसंबन्धेन ग्रह रूपोदयास्त लग्नस्यावश्यकत्वेन क्षितिजातिरिक्तनतपरिणामस्य व्यर्थत्वात ।
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ध्यायः ७० ]
संस्कृतीका - भाषाका समेतः ।
( १३९ )
युतौ तु समप्रोत चलवृत्ते युगपद्दर्शनार्थ तत्परिणामस्यावश्यकत्वात् । शृंगोन्नतिनिमित्तं चंद्रस्य । तुकारः समुच्चयार्थकचकारपरः । अत्रापि श्लोके पूर्वार्धोक्तमासह कुकर्म संस्कारमिति ध्येयम् ॥ ११ ॥
भा० टी० - नक्षत्र ग्रहयोग में ग्रह के उदयास्त निरूपण में, चंद्रमात्री श्रृंगोन्नति में पहले ही ऐसा टक्कर्म साधन करे ॥ ११ ॥
अथ दृक्कर्म संस्कृतग्रहयोर्युतिकालं तात्कालिकत द्विक्षेपाभ्यां ग्रहयोर्याम्योत्त रान्तरं वाह
तात्कालिकौ पुनः कार्यों विक्षेपौ च तयोस्ततः ॥
दिक्तुल्ये त्वन्तरं भेदे योगः शिष्टं ग्रहान्तरम् ॥ १२ ॥
पुनर्द्वितीयवारं तादृशग्रहाभ्यां शीघ्रे मन्दाधिकेऽतीत इत्यादिना युतेर्गतष्यत्वं ज्ञात्वा ग्रहान्तरकला इत्यादिना कर्मसंस्कृतौ समौ स्वयुतिसमये भवतः । विवरं तद्वदुडत्येत्यादिना समस्पष्टग्रह कालादृक्कर्मसंस्कृत समग्रहकालो युत्याख्यो ज्ञेयः । तस्मिन् काले साधितौ तौ ग्रह स्फुटावसमौ तात्कालिको मध्यस्पष्टादिक्रियया कार्यौ । तयोः साधितग्रहयेोर्विक्षेषौ । चः समुच्चये । कार्यों एतौ ग्रहौ दृक्कर्म संस्कृतौ समौ भवत इतेि प्रतीतिः । नोचेत्तस्मादप्युक्तरीत्या मुहुः कालं स्थिरं कृत्वा प्रतीतिर्द्रष्टव्यां । ततः सूक्ष्मयुतिसमये ग्रहयोर्विक्षेपसाधनानन्तरम् । दिक्तुल्य एकदिक्त्वे तुकाराद्विक्षेपयोरन्तरं कार्यम् । भेदे भिन्नदिक्तत्वे विक्षेपयोर्योगः । शिष्टं संस्कारोत्पन्नं ग्रहान्तरम् । युति संबंधिनोर्ग्रह बिम्बकेंद्रयोरन्तरालं याम्योत्तरं भवति । अत्रोपपत्तिः । दृक्कर्मसंस्कृतग्रहयोः पूर्वापरान्तराभावः समप्रोतचलवृत्त इति तयोः समत्वम् । विक्षेपाये ग्रहबिम्ब केन्द्रत्वादेकदिशि' विक्षेपयोरन्तरं ग्रहविम्बकेन्द्रयोर्याम्योत्तरमन्तरं समप्रोतचलवृत्ते भिन्नदिशि शग्योर्योग एव ग्रहाबिम्ब केन्द्रयोर्याम्योत्तरमन्तरं तद्वृत्ते भास्कराचायैस्तु " " एवं लब्धैहयुतिदिनैश्चालितौ तौ समौ स्तस्ताभ्यां सूर्यग्रहणवदिषू संस्कृतौ स्वस्वनत्या । तौ च स्पष्टौ तदनु विशिखौ पूर्ववत्संविधेयौ दिक्साम्ये या वियुतिरनयोः संयुतिर्भिन्नक्तिवे ॥ " इत्यनेन सूक्ष्ममुक्तम् । भगवता कृपालुना तदुपेक्षितम् । स्वल्पान्तरत्वात् ॥ १२ ॥
मा० टी० - तिसखे फिर समकला और कालनिर्णय करे । और जबतक समकला स्थिर न होवे तबतक वारम्वार साधन करे, स्थिर हो जानेपर दोनों ग्रहोंका विशेष निर्णय करे। एक दिशा में होने से वियोग और भित्रविशामें होने से योग करने पर ग्रहांन्तर सिद्ध होगा ॥ १२ ॥
अथ पञ्चताराणां बिम्बमानकलानयनं, श्लोकाभ्यामाह - कुजा किंज्ञामरेज्यान । त्रिंशदधर्धवार्धिताः ॥ विष्कंभाश्वन्द्रकशाया भृगोः षष्टिरुदाहृताः || १३ |
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(१४०) सूर्यासद्धान्तः
[ सप्तमोऽत्रिचतुष्कर्णयुक्त्याप्तास्ते द्विघ्रास्त्रिज्यया हताः॥
रफुटाः स्वकर्णास्तिथ्याप्ता भवेयुनिलिप्तिकाः ॥ १४॥ त्रिंशदर्धार्धवर्धितास्त्रिंशतोऽध पंचदश तदर्ध सार्धसप्ततैरुत्तरोत्तरं युक्तास्त्रिंशत्क्रमेण भौमशनिबुधबृहस्पतीनां चन्द्रकक्षायां चन्द्राकाशगोले चन्द्रकक्षाप्रमाणेन स्वकक्षाप्रमाणेनेत्यर्थः । विष्कम्भा बिम्बव्यासायोजनात्मका उक्ताः । भौमस्य त्रिंशत् । शनेः सार्धसप्तत्रिंशत् । बुधस्य पञ्चचत्वारिंशत् । गुरोः सार्द्धद्विपञ्चाशत् । अनेनैव क्रमेण शुक्रस्य षष्टिः । भृगोः षष्टिरित्यनेनार्धाधैत्यस्य प्रत्येकमर्धयुक्ता इत्यो निरस्तः स्वा. भिमतार्थो व्यक्तीकृतश्च । ते उक्ता विष्कंभा द्विगुणास्त्रिज्यया गुणितास्त्रिचतुष्कर्ण' युक्त्याप्ताः । तृतीयकर्मणि चतुर्थकर्माण च यौ कौँ मन्दकर्णशीघ्रको तयोर्योगे न भक्ता इतिसांप्रदायिकव्याख्यानम् । नव्यास्तु तृतीयकर्मणि कर्णानुपातानुक्तेस्तृती. यकर्णस्य मन्दकर्णस्याप्रसिद्धरुपपत्तिविरोधाच्च पूर्वव्याख्यामुपेक्ष्य त्रिशब्देन त्रिज्याच नुष्कर्णश्चतुर्थकमणि शीघ्रकर्णस्तयोर्योगेन भक्ता इत्यर्थ कुर्वन्ति । स्पष्टाः स्वकर्णाः स्वबिम्बव्यासा भवन्ति । पञ्चदशभक्ता बिम्बमानकला भवेयुः। अत्रोपपत्तिः । स्वस्वकक्षायां स्थिताः पञ्चताराग्रहा दूरत्वाल्लोकैश्चन्द्राकाशस्थिता इव दृश्यन्ते । अत. स्तेषां वास्तवबिम्बव्यासयोजनानि स्वयं ज्ञातानि यथा सूर्यबिम्बव्यासयोजनान्युक्तानि चन्द्रग्रहणाधिकारे वः स्वभगणाभ्यस्त इत्यादिना चन्द्रकक्षायां साधितानि तथा स्वभगणानुसारेणोक्तप्रकारेण चन्द्रकक्षायां साधितानि । तथा च शाकल्यसहितायामू-“अन्तरुन्नतवृक्षाश्च वनप्रांते स्थिता इव । दूरत्वाचन्द्रकक्षायां दृश्यन्ते सकल ग्रहाः ॥ व्यर्धाष्टवर्धितास्त्रिंशद्विष्कम्भाः शास्त्रदृष्टतः ॥” इत्येतानि त्रिज्यातुल्यशीघ्रकर्ण उक्तानि । अतः शीघ्रकर्णेऽधिके न्यून बिम्बग्रहस्योच्चासन्नत्वादल्पे तु नीचासन्नत्वादधिकं बिम्बामतित्रिज्ययोक्तानि बिम्बानि तदेष्टशीघ्रकर्णेन कानीति व्यस्तानुपातेन युक्तमपि भगवतोपलब्धा त्रिज्यातोऽधिकन्यूनकर्णयोः क्रमेण व्यस्तानुपातागतादधिकं न्यूनं च बिम्बं दृष्टमतः कर्ण एव त्रिज्याशीघ्रकर्णयोगामितः क्रमेण न्यूना धिको गृहीतः । अत्र च्छेदं लवं च परिवर्त्य हरस्येत्यादिना दिनास्त्रिज्यागुणिता विष्कंभास्त्रिज्याशीघ्रकर्णयोगभक्ता इत्युपपन्नम् ॥ "त्रिचतुष्कर्णयोगार्ध स्फुटकर्णोऽयमस्तके। त्रिज्यानाः स्फुटकर्णाप्ता विष्कम्भास्ते स्फुटाः स्मृताः ॥” इति शाकल्योक्तेश्च । अत एव विम्बस्य द्राीचोच्चमण्डलस्थत्वेन शीघ्रकर्णस्यैव भूगर्भाद्रिंबे सम्बन्धान्मन्दकर्णसम्बन्धस्त्वयुक्तः । नहि छेद्यके मन्दकर्णार्धाच्छीघ्रकर्णीधै ग्रहबिम्बमस्तीति प्रतिपादितम् । येन मन्दशीघ्रकर्णयोर्योगार्धं कर्णः सूपपन्नः । शीघ्रफलानयने तथाङ्गीकांगपत्तेः । भास्कराचार्यैस्तु-व्यङ्ग्रीषवः सचरणा ऋतवास्त्रिभागयुक्ताद्रयो नव च सत्रिलवेषवश्च । स्युमेध्यमास्तनुकलाः क्षितिजादिकानां त्रिज्या सुकविवरण पृथ
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ध्यायः ७.] संस्कृतटीका-भाषाटाकासमेतः। (१४१) ग्विनिनाः ॥ त्रिघ्न्यानि जान्त्यफलमौकिया विभक्ताः लब्धेर्न युक्तरहिताः क्रमशः पृथक्स्थाः । ऊनाधिके त्रिभगुणाच्यणे स्फुटाः स्युः ॥ " इत्युपलब्ध्योक्तम् । भास्करानुवर्तिनस्तु त्रिचतुष्कर्णयुक्त्याप्ता इत्यस्य त्रिज्याशीघ्रकर्णयोर्योगार्धन भक्ता इत्यर्थं वदति ॥ १३ ॥ १४ ॥
भा० टी०-चन्द्रकक्षामें मंगलके ३०, शान ३७१, बुध ४५, बृहस्पति ५२ शुक्रके ६० बिम्ब व्यास हैं। इन बिम्बव्यासोको द्विगुणित त्रिज्यासे गुणकरके त्रिज्या और चतुर्थकर्मगत (स्पष्टानयनमें ) कर्णके योगफल से भाग करनेपा स्पष्ट बिम्बव्यास होगा। स्पष्टव्यासको १५ से भाग करनेपर कलादिमान होगा ॥ १३ ॥ १४ ॥ अथ युतिसंबन्धिनौ ग्रहौ युतिसमये दर्शनीयावित्याह
छायाभूमो विपर्यस्ते स्वच्छायाग्रे तु दर्शयेत् ॥
ग्रहः स्वदर्पणान्तस्थः शंकय सम्प्रदृश्यते ॥ १५ ॥ छायाभूमौ छायादानार्थ योग्यायां जलवत्समीकृतायां पृथिव्याम् । विपर्यस्ते वैपरीत्येन दत्ते स्वच्छाया ग्रहच्छायाग्रस्थाने । तुकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदाथैवकारपरः । स्वदर्पणान्तस्थः स्वस्य यो दर्पण आदर्शस्तत्र स्थापितस्तन्मध्यस्थितो; ग्रहो ग्रहप्रतिबिम्बः स्यात् । तद्गणकः शिष्याय दर्शयेत् । एतदुक्तं भवति । समभूमौ दिक्साधनं कृत्वा दिक्सम्पातस्थानाद्युतिकालिकच्छायांगुलानि पूर्वापरसूत्राटुजविपरीतदिशि भुजान्तरेण ग्रहाधिष्ठितपूर्वापरे कपालदिशि दत्त्वा तत्रादशः स्थाप्यस्तत्र प्रतिबिम्ब ग्रहस्प दिक्संपातस्थो गणकः शिष्याय दर्शयोदति । अत्रोपपत्तिः । ग्रहबिम्बादवलम्बसूत्रं महाशङ्करूपं यत्र भूमौ पतति तत्र ग्रहबिम्बप्रतिबिम्बो भवति । तज्ज्ञानं तु समध्याद्रहबिम्बपर्यन्तं नताशा आकाशे तथा भूमौ दिक्सम्पातस्थानान्महाशङ्क: कोटौ दृग्ज्याभुजस्तदा द्वादशाङ्गुलशङ्ककोटौ को भुज इत्यनुपातानीतच्छायामितान्तरे ग्रहाधिष्ठितकपाले भवति । यथा हकसम्पातस्थद्वादशांगुलशङ्कोश्छाया ग्रहाधिष्ठितकपाले भवति । तथा ग्रहप्रतिबिम्बस्थानस्थद्वादशांगुलशकोश्छायादिक्सम्पाते भवति। अतो दिक्सम्पातस्थानाच्छाया ग्रहाधिष्ठितकपाले दत्ता तदने ग्रहप्रतिबिम्बस्थानं ज्ञातं भवतीत्युपपन्नं छायाभूमावित्यादि स्वदर्पणान्तस्थ इत्यन्तम् । अथ ग्रहाधिष्ठितकपालान्यकपाले छायासद्भावनियमाद्रहाधिष्ठितकपाले कथं छायादानं युक्तं व्याघातादिति मन्दाशङ्का स्वरसादाह-शङ्कय इति । दिक्सम्पातस्थापितशङ्कोरग्रे मस्तक आकाशे ग्रहो दृश्यते गणकेनोति शेषेः ॥ १५॥
भा०टी०-वराबा करी हुई भूमिमें शंकु स्थापन करके दूसरी दिशामें ग्रहकी दृग्रासे छायाग्र निर्देश करे । छायाग्रमें दर्पणरखनेसे . दर्पणान्तरस्थितग्रह और शवग्र समसूत्रमें दिखाई देगा ॥ १५॥
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(१४२) सूर्यसिद्धान्तः
[सप्तमोऽननु कथं दृश्यत इत्यतः' प्रकृतग्रहयोयुतिसंग्बन्धिनोदर्शनप्रकारं साई श्लोकाच्या
-माह
पञ्चहस्तोच्छितो शंकू यथा दिग्भ्रमसंस्थितौ ॥ ग्रहान्तरेण विक्षिप्तावधो हस्तनिखातगो ॥ १६ ॥ छायाकौँ ततो दद्याच्छायायाच्छंकुमूर्धगौ॥ छायाकर्णाग्रसंयोगे संस्थितस्य प्रदर्शयेत ॥
स्वशंकुमूर्धगो व्योग्नि ग्रहो दृतुल्यतामितौ ॥ १७॥ गायतिसम्बधिनोहयोरायनहक्कलाश्लोकपूर्वार्धोक्ताक्षकलाभ्यां संस्कृतयोस्तुल्ये. ल्पान्तरणासन्ने वोदयलग्ने स्तः । षड्भयुतयोर्ग्रहयोरायनाक्षहक्कलामंस्कृतयोंस्तुल्ये
पान्तरेणासन्ने वास्तलग्ने भवतः । यस्मिन् काले, ग्रहौ द्रष्टुमभिमती तात्कालिकबाटात्रौ यदुदयास्तलग्ने क्रमेण न्यूनाधिके यदि भवतस्तौ सूर्यसान्निध्यजनितास्ताभादर्शनयोग्यौ । तदा पञ्चहस्तोच्छ्रितौ । चतुर्विंशत्यङ्गुलो हस्तः । एवं पञ्चहस्तप्रमा णदी! शकू काष्ठघटितसरलदण्डौ यथादिग्भ्रमसंस्थितौ युतिकाले ग्रहयोर्याशं दिग्भ्रमणम् । ग्रही प्रवहभ्रमेण पूर्वकपाले पश्चिमकपाले वा यत्र संस्थितौ स्वाधिष्ठि. तस्थानावहाधिष्ठितकपालदिशि स्थाप्यौ न ग्रहानधिष्ठितकपालदिशि । ग्रहान्तरेण
ये त्वन्तरं भेदे योग इत्यादिना ज्ञातयाम्योत्तरग्रहान्तरेण कलात्मकेन विक्षिप्तौ योत्तरान्तरितौ स्थाप्यौ। अत्र सोन्नतमित्यादिना ग्रहविक्षेपावमुलात्मकौ कृत्वा दिक्तल्ये त्वन्तरमित्यादिना ग्रहान्तरं ज्ञेयम् । अधो भूमेरन्तः । हस्तनिखातगौ हस्त
माणा या गर्ता तत्र स्थितौ भूम्यां शङ्कोर्हस्तमात्रं रोपयित्वा भूमरूध्र्वशङ्क् चतु. माणदी! स्यातामित्यर्थः । ततः शंकुमूलाभ्यां प्रत्येकं यच्छायाग्रं ग्रहानधिष्ठिपालदिशि तस्मात्प्रत्येकमित्ययः । छायाकी। स्वकीयौ शंकुमूर्धगो निजशंक्य
मस्तकप्रापिणी गणको दद्यात् । एतदुक्तं भवति । युतिसमये लग्नं कृत्वा तात्का. लिकोटयलग्नेष्टलग्राम्यां पूर्ववदन्तरकालो ग्रहोदयाद्गतकालः सावनः। एवं ग्रहयोति. ममये स्वदिनगतात्रिप्रश्नाधिकारोक्तविधिना स्पष्टक्रान्त्या छाया साध्या । ततो यो ग्रहो दक्षिणोत्तरयोर्मध्ये यदिशि तच्छाया तद्दिकूस्था शङ्कोर्मूलाग्रहानाधिष्ठितकपालदिशि पर्वापरसूत्राट जान्तरेण भुजदिशि देया । परमानीतच्छाया द्वादशाङ्गुलशङ्कोरिति चतु.
स्तशंकुप्रमाणेन प्रसाध्य रेखा तन्मिता समशंकुमूलात्कार्या। रेखाग्र छायाग्रे ज्ञापकं सिंह कार्यम् । तत्र कीलादिना सूत्रं बध्वा शडूकासक्तं प्रसार्यमिति । छायाकर्णाग्र
गोगे छायाग्रं कर्णस्य मूलरूपमग्रं तयोः सम्पाते संस्थितस्य छायाग्रस्थानकृतगर्ता पविष्टशिष्यस्य गणको ग्रहावाकाशे स्वशकुमुधगी निजशङ्कयरूपमस्तकसमसूत्र.
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घ्यायः ७.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१४३) स्थितौ ल्यतां दृष्टिगोचरतामितौ प्राप्तौ प्रदर्शयेत्सन्दर्शयेत् । अत्रोपपत्तिः । उच्चतया दर्शनार्थ पञ्चहस्तप्रमाणौ शकू कृतौ । तत्रैकहस्तस्य भूमिगुप्तत्वं शङ्कुदृढत्वाथै कृतम्। बहिः पुरुषप्रमाणौ चतुर्मितहस्तावशिष्टौ शङ्कोः पुरुषपर्यायेणाभिधानाच्च । शंकुसूत्रस्य ग्रहबिम्बसक्तत्वाद्यथा दिग्भ्रमसंस्थितावित्युक्तम् । शडक्वग्रसमसूत्रेण ग्रहबिम्बावस्थाननियमाद्रहान्तरेण याम्योत्तरान्तरितौ स्थापितौ। अत्र यद्यपि स्वस्वस्पष्टकान्त्ययां प्रसाध्य ततः कर्णायां प्रसाध्योक्तदिशा पलभासंस्कारण) स्वस्वभुजं प्रसाध्य ताभ्याम् "दि ल्ये त्वन्तरं भेदे योगः शिष्टं ग्रहान्तरम्" इत्युक्तरीत्या ग्रहान्तरं शङकोरन्तर युक्तम्। तथापि भगवता स्वल्पांतरेण गणितश्रमापनोपदार्थमाकाशस्थितदृष्टान्तरमेव धृतम्। शकोश्छायामाच्छायाकर्णसूत्रं ग्रहबिम्बदर्शनसूत्रमनः कर्णमूलदृशा पुरुषेण ग्रहबिम्ब द्रष्टव्यमेवति दिक् ॥ १६ ॥ १७ ॥
भा०टी०-पांच हाथके परिमाणवाले यथादिक दो शंकु याम्योत्तर रेखामें मंगुलात्मक मन्त रमें स्थापन करके एक हाथके परिमाणमें प्रोथित करे । छायाग्रासे शंकु उर्खाग्रतक दो. छायाकर्णनिर्णय करे । छायाकाय रेखामें स्थित मनुष्यको ग्रहदर्शन करावे, वहमी शंकुके मागेमें ग्रह देखेगा ॥ १६ ॥ १७ ॥ अथ श्लोकाभ्यां पञ्चताराणां प्राक्प्रतिज्ञातौ युद्धसमागमावाह
उल्लेखं तारकास्पर्शाद्भेदभेदः प्रकीर्त्यते ॥ १८॥ युद्धमंशुविमाख्यमंशुयोगे परस्परम् ॥ अंशादूनेऽपसव्याख्यं युद्धमेकोच चेदणुः ॥
समागमोऽशादधिके भवतश्चेदलान्वितौ ॥ १९॥ भौमादिपञ्चताराणां मध्ये द्वयोर्युतौ तारकास्पर्शादिम्बनेम्योः स्पर्शमात्रादुल्लेखसंज्ञं युद्धं वदति यतिभेदज्ञाः । इदं तु द्वयोनिक्यखण्डतुल्ययाम्योत्तरान्तरे भेदे मण्डलभेदे भेदो भेदसंज्ञो युद्धावान्तरभेदो युद्धभेदतत्त्वज्ञैः कथ्यते । अयं भेदो मानक्यखण्डादूने द्वयोर्याम्योत्तरान्तरे । अत्र भास्कराचार्यैस्तु “ मानक्यार्धायुचरविवरेऽल्पे भवेद्भेदयोगः कार्य सूर्यग्रहवदखिलं लम्बनायं स्फुटार्थम् । कल्प्योऽधःस्थः सुधांशु स्तदुपरिंग इनो लंबमानाप्रसिद्धय किं त्वौदेव लग्नं ग्रहयुतिसमये काल्पताकन्नि साध्य म्॥ संप्राबलंबतेन ग्रहयुतिसमयः संस्कृतः प्रस्फुटः स्गत् खेटो तो दृष्टियोग्यौ ग्रहयप्तिस मये कार्यमेवं तदैव । याम्योदस्थावरविवरं भेदयोगे स बाणो ज्ञेयः सूर्याद्भवति च यतः शीतगुः सा शराशा ॥ मंदाक्रान्तोऽनृजुरपि तदाधास्थितः स्यात्तदेन्यां स्पर्टी मोक्षोऽपरादीश तदापरिलख्येऽवगम्यः॥" इति विशेषोऽभिहितः। भगवता तु सूक्ष्मबिम्ब योराकाशे दूरतो विविक्तदर्शनासम्भवाद्यर्थप्रयासादुपेक्षितमिति ध्येयम् । युतावन्योन्यं किरणयोगे सत्यंशुमाख्यं किरणसंघटनसंज्ञं युद्धं स्यात् । योर्याम्योत्तरान्तरेंड
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(१४४) सूर्यासिद्धान्त:
[सप्तमोऽशात पष्टिकलात्मकैकभागादूनेऽनधिके सत्यपसव्यसंज्ञं युद्धं भवति । अत्र विशेषमाहएक इंति । अत्रापसव्ययुद्ध एको द्वयोरन्यतरोऽणुरणुबिम्बश्चेत्स्यात्तदाऽपसव्यं युद्ध व्यक्तं स्यादन्यथा त्वव्यक्तं युद्धं स्यात् । एषां चतुणी फलम् । “अपसव्ये विग्रहं
यात्संग्रामं रश्मिसंकुले । लेखनेऽमात्यपीडा स्याद्भेदने तु धनक्षयः ॥” इति भार्गवीयोक्तं ज्ञेयस् । युद्धभेदानुक्त्वा समागममाह-समागम इति । द्वयोर्याम्योत्तरान्तरे षष्टिकलात्मकैकभागादभ्यधिके सति समागमो योगो भवति । अत्रापि विशेषमाह । भवत इति । यतिविषयको ग्रहो बलान्वितौ बलेन । “स्थानादिबलचिन्तात्र व्यर्था केनापि न स्मृता ॥ प्रश्नत्रयेऽथवाप्यस्मिन् स्थौल्यसौम्यबले स्मृतम् ॥” इति ब्रह्मसिद्धान्तवचनात् । स्थूलमण्डलतयान्वितौ युक्तौ स्थूलबिम्बौ समावित्यर्थः ।चेत्स्तस्तदा समागमस्तयोर्व्यक्तः स्यात् । अन्यथा त्वव्यक्तः समागमः "दावपि मयूखयुक्तौ विपुलौ स्निग्धौ समागमे भवतः । अत्रान्योऽन्यं प्रीतिविपरीतावात्मपक्षनौ ॥ युद्धं समागमो वा यद्यव्यक्तौ तु लक्षणैर्भवतः । भुवि भूभृतामाप तथा फलमव्यक्तं विनिर्दिप्रम ॥” इत्युक्तेः । “भेदोल्लेखांशुसम्मर्दा अपसव्यस्तथापरः । ततो योगो भवेदेषामेकांशकसमापनात् ॥” इति काश्यपोक्तेश्च सर्व निरवद्यम् ॥ १८ ॥ १९ ॥
भाटी-ताराओंके परस्पर स्पर्शको उल्लेख कहते हैं, विम्बभेद होजाय तो भेद युद्ध कहते हैं। परस्परकी किरण मिल जानेसे मंशुविमर्द नाम होता है। एक अंशका अनधिक पार्थक्य हो तो अपसव्य युद्ध होताहै, तिनमें एकतारा छोटा हो तो प्रकाश युद्ध होता है, ऐसा नहो अर्थात् दोनों एकसे हों तो अप्रकाश युद्ध होताहै । एकांशमें अधिक पृथक्ता होनेसे दोनों ग्रहोंके बलवान् होनेपर समागम कहा जाता है ॥ १८ ॥ १९ ॥ अथ युद्धे पराजितस्य ग्रहस्य लक्षणमाह
अपसव्ये जितो युद्धो पिहितोऽणुरदीप्तिमान् ॥
रुक्षो विवर्णो विध्वस्तो विजितो दाक्षिणाश्रितः ॥२०॥ द्वयोमध्ये यस्तदितरण विध्वस्तो हतः स विजितः पराजितो ज्ञेयः । हतस्य लक्षएमाह-अपसव्य इति । अपसव्ये युद्धे योऽजितो जयलक्षणविवर्जितः । एतेनोलखा दिवये संज्ञाफलं न पराजितस्य फलमिति सूचितम् । पिहित आच्छादितोऽव्यक्त इति यावत् । अणुरितरग्रहबिम्बादल्पविम्बः । अदीप्तिमान् प्रभारहितः । सोऽस्निग्धः । विवर्णः वर्णन स्ववर्णन स्वाभाविकेन रहित इत्यर्थः । दक्षिणाश्रित इतरग्रहापेक्षया दक्षिणदिशि स्थितः । “श्यामो वा व्यपगतरश्मिमंण्डलो वा रुसो वा व्यपगतरश्मिवान् कृशो वा । आक्रान्तो विनिपतितः कृतापसव्यो विज्ञेयो हा इति स हो ग्रहण ॥” इति भार्गवीयक्तेः ॥२०॥
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ध्यायः ७.] संस्कृतटीका-भाषाटोकासमेतः । (१४५)
माटी०-अपसव्य युद्ध में थोडी प्रभावाला ढका हुआ छोटे विम्बबाला ग्रहही हार जाता है । यह रूखा, विरूप और दक्षिणस्य होता है |॥ २० ॥ अथ श्लोकार्धेन जयिनो ग्रहस्य लक्षणमाह
उदक्स्थो दीप्तिमान स्थूलो जयी याम्येऽपि यो बली ॥२१ ।। इतरग्रहापेक्षयोत्तरदिकस्थः । दीप्तिमान् प्रभायुक्तः स्थूल, इतरग्रहबिम्बापेक्ष या पृथुविम्बः। जयी जययुक्तः स्यात् । अथोत्तरदक्षिणदिक्स्थत्वक्रमेण 'जयपराजयौ न स्त इत्याह-याम्य इति । दक्षिणदिशि यो ग्रहो बली दीप्तमान् पृथुबिम्बो, भवति स जयो। अपिशब्द उत्तरदिशा समुच्चयार्थकः । तथा च जयपराजयलक्षणयोदिग्दा. नमनुपयुक्तमिति भावः ॥ २१ ॥
भाटी०-दीप्तिमान् ग्रह उत्तर दिशा में स्थित, स्थूल बिम्ब और नयी होता है। दक्षिण में रहारभो बली होनेसे जया होता है ॥ २१ ॥ अथ युद्धे विशेषमाह
आसनावप्युभी दीप्ता भवतश्चेत्समागमः॥
स्वल्पो द्वावपि विध्वस्तो भवेतां कूटविग्रहो ॥ २२ ॥ उभौ द्वौ । आसन्नावेकभागान्तरगतान्तरितौ । अपिशब्दायुद्धलक्षणात्रान्तौ । दीप्तौ प्रभायुक्तौ चेत्स्यातां तदा बलान्विताविति समागमलक्षणैकदेशसद्भावात्समाग माख्यं युद्धम् । द्वावपि ग्रहौ स्वल्पो सूक्ष्मबिम्बौ विध्वस्तौ ।' द्वावपि पराजयलक्षणाक्रान्तौ स्यातां तदा क्रमेण कूटविग्रहसंज्ञको युद्धभेदौ स्याताम् ॥ २२ ॥ __भा. टी०-दोनोंही ग्रह दीप्तिमान होकर निकट आजाय तो समागम होता है। जो दोनों ही स्वल्पदीप्ति और विध्वस्त हों तो कूटविग्रह कहा जाता है ॥ २२ ॥
अथोत्सर्गतः शुक्रस्य जयलक्षणाक्रान्तत्वमस्तीति वदन् समागमः शशांकेनोतिप्राक् प्रतिज्ञानसमागम उक्तप्रकारमातदिशति
उदस्थो दक्षिणस्थो वा भार्गवःप्रायशो जयी ॥
शशाङ्केनैवमेतेषां कुर्यात्संयोगसाधनम् ॥२३॥ इतरग्रहापेक्षयोदक्स्थो दक्षिणदिस्थो वोभयदिशीत्यर्थः । शुक्रः प्रायश उत्सगैतो जयलक्षणाक्रान्तत्वेन जयी । कदाचित्पराजयलक्षणाक्रान्तो भवतीति तात्पर्यार्थः । एतेषां भौमादिपश्चताराणां चन्द्रेण सह संयोगसाधनं युतिसाधनमेषामुक्तरीत्या गणकः कुर्यात् । अत्र विशेषार्थकम् ॥ “अवनत्या स्फुटो ज्ञेयो विक्षेपः शीतगोर्युतौ । इत्यर्धे क्वचित्पुस्तके दृश्यते न सर्वत्रति क्षिप्तं मत्त्वोपेक्षितम् । अधिकारस्यापूर्णश्लोकत्वापत्तेश्च । एतदुक्त्यान्ययोगे नतिसंस्कारनिषेधस्य सिद्धस्त.
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(१४६ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ अष्टमोऽ
स्यायुक्तत्वमिति तदनुक्तौ सूर्यग्रहणोक्तरीत्या साधारण्येन सर्वत्र तद्विशेषोक्तिरस - द्वेोरिति ध्येयम् ॥ २३ ॥
भा०टी० - उत्तर में हो या दक्षिण में हो बहुधा शुक्र जयही पाता है । पूर्वनियम के द्वारा ग्रहो के साथ चंद्रमात्रा संयोगकाल निर्णयकरे ॥ २३ ॥
नन्येषां ग्रहाणां दूरान्तरेण सदोर्ध्वाधरान्तरसद्भावात्परस्परं योगासम्भवेन कथं युतिः संगतेत्यत आह
भावाभावाय लोकानां कल्पनेयं प्रदर्शिता ॥ स्वमागंगाः प्रयान्त्येते दूरमन्योन्यमाश्रिताः ॥ २४ ॥
एते ग्रहाः स्वमार्गगाः स्वस्वऋक्षास्था अन्योन्यमाश्रिता युतिकाल ऊर्ध्वाधरान्तराभावेन संयुक्ताः सन्तः प्रयांति गच्छति । इति दूरं दूरान्तरेण दर्शनादियं ग्रहयुतिकल्पनाकल्पनात्मिका वास्तवा प्रदर्शिता पूर्वोक्तग्रन्थेन कथिता । नन्ववस्तुभूता किमर्थ - मुक्ते यतः प्रयोजनमाह । भावाभावायेति । लोकानां भूस्यप्राणिनां भावः शुभफलमभाशुभफलं तस्मै शुभाशुभफलादेश व्यावस्तुभृतापि युतिरुक्तेति भावः ॥ २४ ॥ मा०टी०-ग्रहगण परस्पर, दूरस्थित अपनी २ कक्षा में चलते हैं । इकट्टे दिखाई देनेके कारण मनुष्य के शुभाशुभ फल के लिये युम्यादि कहा जाता है || २४ ॥
अथाग्रिमंग्रन्थस्यासंगतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्ति फक्किकयाह - स्पष्टम् । रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । ग्रहयुत्यधिकारोऽयं पूर्णो गूढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौम बल्लालदेवज्ञात्म जरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके ग्रह - युत्यधिकारः सम्पूर्णः ।
इति ग्रहयुत्यधिकारः ।
सातवां अध्याय समाप्त ।
अष्टमोऽध्यायः ।
अथ प्रसंगारदारब्धो नक्षत्रग्रहयुत्यधिकारो व्याख्यायते । तत्र प्रथमं नक्षत्राणां ध्रुवज्ञानमाह
प्रोच्यन्ते लिप्तिका भानां स्वभोगोऽथ दशाहतः ॥ भवन्त्यतितिधिष्ण्यानां भोगलिप्तायुता ध्रुवाः ॥ १ ॥
भानामश्विन्यादिनक्षत्राणामुत्तराषाढा भिजिच्छ्रवणधनिष्ठावर्जितानां लिप्तिका भोगसंज्ञाः कलाः प्रोच्यन्ते समनन्तरमेव कथ्यन्ते । अथानन्तरं स्वभोगः स्वाभीष्टनक्षत्रमोगः कलात्मको वक्ष्यमाणो दशभिर्गुणितः कार्यः । तत्र स्वाभीष्टनक्षत्रगत नक्षत्राणाम
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ध्यायः ८.] संस्कृतटीका-भाषार्टीकासमेतः । (१४७) विन्यादीनां भोगलिप्ताः । भभोगोऽष्टशतीलिप्ता इत्युक्ताष्टशतकलाः प्रत्येक युताः । अश्विन्यायतीतनक्षत्रसङ्ख्यागुणितकलाष्टशतं युतमित्यर्थः । ध्रुवा नक्षत्राणा भवन्ति ॥१॥
भा०टी०-नक्षत्रोंके स्वभोगको १० से गुणकरके गतनक्षत्रकी भोगकला.( प्रत्येककी ८०० करके ) योग करनेसे नक्षत्रोंका ध्रुव होगा ॥ १॥
अथ प्रतिज्ञाता नक्षत्रभोगलिप्ता उत्तराषाढाभिजिच्छ्रवणधनिष्ठाव्यतिरिक्तानां तेशं ध्रुवकान्नक्षत्रशरांश्चाष्टश्लोकराह
अष्टार्णवाः शून्यकृताः पञ्चषष्टिनगेषवः ॥ अष्टार्थी अब्धयाऽष्टांगा अङ्गागा मनवस्तथा ॥ २ ॥ कृतेषवो युगरसाः शून्यबाणा वियद्रसाः ॥ खवेदाः सागरनगा गजागाः सागरर्तवः ॥३॥ मनवोऽथ रसा वेदा वेशमाप्याभोगगम् ॥
आप्यस्यैवाभिजित्प्रान्ते वैश्वान्ते श्रवणस्थितिः ॥ ४॥ विचतुःपादयोः सन्धौ श्रविष्ठा श्रवणस्य तु ॥ स्वभोगतो वियन्नागाः षट्कृतिर्यमलाविनः ॥५॥ रंध्रादयः क्रमादेषां विक्षेपाः स्वापदकमात् ॥ दिङ्मासविषयाः सौम्ये याभ्ये पञ्चदिशो नव ॥ ६॥ सौम्ये रसाः खं याम्ये गाः सौम्ये खास्त्रियोदश । दक्षिणे रुद्रयमलाः सप्तत्रिंशदथोत्तरे ॥७॥ याम्येऽध्यधत्रिककृता नवसार्धशरेषवः ॥ उत्तरस्यां तथा षष्टिस्त्रिंशत्पत्रिंशदेव हि ॥ ८ ॥ दक्षिणे त्वर्धभागस्तु चतुर्विंशतिरुत्तरे ।।
भागाः षडविंशतिः खं च दस्रादीनां यथाक्रमम् ॥ ९ ॥ अश्विन्यादिनक्षत्राणां क्रमाद्भोगा एते । तत्राश्विन्याम् अष्टचत्वारिंशत्कलाः मर. ण्याश्चत्वारिंशत् । कृत्तिकायाः कलाः पञ्चषाष्टः । गाहण्याः सप्तपञ्चाशत्कलाः । मृगशिरसोऽष्टपञ्चाशत् । आायाश्चत्वारः । अत्राब्धय इत्यत्र गोऽब्धयोगोमय इदि
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(१४८) सूर्यसिद्धांत:
[ अष्टमोऽवा पाठस्त्वयुक्तः । शाकल्यसंहिताविरोधात् । एतेन सौरोक्तरुद्रमस्यांशास्यद्रयोगान्धयः कला इति नार्मदोक्तं दशकलोनपञ्चदशभागा मिथुने सर्वजनाभिमतध्रुवको दशकलायुतत्रयोदशभागाः पर्वताभिमतध्रुवकश्च निरस्तः। पुनर्वसोरष्टसप्ततिः। पुष्यस्य षट्सप्ततिः । आश्लेषायाश्चतुर्दश । तथेति छन्दःपूरणार्थम् । मघायाश्चतुःपञ्चाशत् । पूर्वाफाल्गुन्याश्चतुःषष्टिः । उत्तराफाल्गुन्याः पञ्चाशत् । हस्तस्य षष्टिः । चित्रायाश्चत्वारिंशत् । स्वात्याश्च चतुःसप्ततिः । विशाखाया अष्टसप्ततिः । अनुराधायाश्चतुःषष्टिः । ज्येष्ठायाश्चतुर्दश । अनन्तर मूलस्य षट् । पूर्वाषाढायाश्चत्वारः । उत्तराषाढाया ध्रुवकमाह-वैश्वामिति । उत्तराषाढा योगतारानक्षत्रम् । आप्याभोगगम् आप्यस्य पूर्वापाढानक्षत्रस्यार्धभोगः । धनराशेविंशतिभागस्तत्रस्थितं ज्ञेयम् । अष्टौ राशयो विंशतिमागा उत्तराषाढाया ध्रुव इत्यर्थः । एतेन पूर्वाषाढायोगतारायाः सकाशादुत्तराषाहायोगताराविंशतिकलोनसप्तभागान्तारता। तेन पूर्वाषाढाध्रुवकोऽष्टराशयश्चतुर्दशभागा विंशतिक्लोनसप्तमागैर्युत उत्तराषाढाया- ध्रुवश्चत्वारिंशत्कलाधिकोक्त ध्रुव इति पर्वतोक्तमपास्तम् । ब्रह्मसिद्धांतविरोधात् । अभिजिद्धृवकमाह-आप्यस्येति । पूर्वाषढाया अवसाने धनुराशेविंशतिकलोनसप्तविंशतिभागेऽभिजिद्योगतारा ज्ञेया । चत्वारिंशत्कलाधिकषाविंशतिभागाधिका अष्टौ राशयोऽभिजितो ध्रुव इत्यर्थः । एक्कारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः । ते संहितासम्मतं श्रवणपञ्चदशांशस्थानं विंशतिविकलायुतत्रयोदशकलायुतश्चतुर्दशभागादिकनवराशयो 'निरस्तम् । श्रवणस्य ध्रुवकमाह-वैश्वान्त इति । उत्तराषाढाया अवसाने श्रवणयोगतारायाः स्थानं ज्ञेयम् । नवराशयो दश भागाः श्रवणध्रुवक इत्यर्थः । धनिष्ठाया ध्रुवकमाह-त्रिचतुःपादयोरिति । श्रवणस्य तृतीयचतुर्थचरणयोः क्रमेणान्तादिसन्धौ मकरराशेविंशतिभागे अविष्ठाधनिष्ठा ज्ञेया । नवराशयो विंशतिभागा धनिष्ठाध्रुव इत्यर्थः । तुकारात्क्षेत्रान्तर्गतधनिष्ठास्थानं कुम्भस्य विंशतिकलोनसप्तभागानिरस्तम् । शतताराया भोगमाह-वभोगत इति । धनिष्ठाभोगात्कुंभस्य विंशतिकलोनसप्तभागावधेरित्यर्थः । शतताराया अशीतिर्भोगः । अतः प्राग्वधवा इति ज्ञापनार्थे स्वभोगत इत्युक्तम् । शततारायाः स्थानं शततारकाधुव इतिपर्यवसन्नम् । अवशिष्टनक्षत्राणां भोगानाह । षट्कृतिरिति । पूर्वाभाद्रपदायाः चत्रिंशत्फलाभोगः । उत्तराभाद्रपदाया द्वाविंशतिः । खेत्या एकोनाशीतिः । अथ शवकानयनं यथा । अश्विन्या भोगः । ४८ । दशगुणितः । ४८० । अतीतनक्षत्राभावाद्भोगयोजनामावः । अतोऽश्विन्याः कलात्मको ध्रुवः । ४८० । राश्यावस्तु ।। भरण्याभोगः । ४० । दशा हतः ।४००। अतीतनक्षत्रस्यैकत्वादष्टशतयुतो मरण्याः। परिभाषया राश्याद्यो ध्रुवः। ।२०। एवमाद्रोभोगः । ४। दशहतः । ४० ।
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ध्यायः ८. ] सस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः । अतीतनक्षत्राणां पञ्चतया पश्चगुणिताष्टशतेन । ४००० । चतुःसहस्रात्मकेन युतः कलायो ध्रुवः । ४०४० । राश्याद्यस्तु । २ । ७ । २० । एवं पूर्वाषाढाया दशगुणतो भोगः । ४० । एकोनविंशतिगुणिताष्टशतेन । १५२०० । युतः परिभाषया राश्याद्यो ध्रुवः । ८ । १४ । शतताराया दशगुणितो भोगः । ८०० । त्रयोविंशतिगुणिताष्टशतेन । १८४०० । युतश्चतुर्विंशतिगुणिताष्टशतरूपो। १९ । २०० । जातो ध्रुवो राश्याद्यः । १० । २० । पूर्वाभाद्रपदाया दशगुणितो भोगः । ३६० । चतुर्विशतिगुणिताष्टशतेन । १९२०० । युतो । १९५६० । जातो ध्रुवो राश्याद्यः । १० । २६ । उत्तराषाढाभिजिच्छ्रवणधनिष्ठानां स्वभोगस्थानात्पश्चात्स्थितत्वेनोक्तरीत्यसम्मवाद्भिनरीत्या ध्रुवका उक्ताः स्वादिस्थानाद्योगतारा यदन्तरकलाभिस्थितास्ता लाघवाद्दशापवर्तिता भोगसंज्ञा उक्ताः । तथाच ब्रह्मसिद्धान्ते । “अष्टौ विंशतिरों नगजाग्निर्व्यर्धखेषवः । त्रिताः सत्रिभागादिरसाख्यङ्काश्च षट्शतम् ॥ नवांशा नवसूर्याश्च वेदेन्द्राः शरबाणभूः । खात्यष्टिः खधृतिर्गोऽतिधृतिर्विश्वाश्विनस्तथा ॥ वेदाकृतिौडग्घस्ताः क्वब्धिहस्ता युगार्थदृक् ॥ खोत्कृतित्यंशहीनाश्वरसहस्ताः खहस्तिदृक् ॥ खगोऽश्विनः खदन्ताः षड्दन्ताः शैलगुणाग्नयः । मेषाद्यश्व्यादिमध्यांशाः षडंशोनाः खषड्गुणाः ॥” इति । अथ नक्षत्राणां विक्षेपभागानाह-एषामिति । उक्तधुवकसम्बन्धिनामश्विन्यादिनक्षत्राणां यथाक्रम क्रमादित्यर्थः । स्वात्स्वकीयापक्रमाकान्त्यग्राकान्तिवृत्तस्थध्रुवकस्थानादित्यर्थः । विक्षेपाविक्षेपभागा दक्षिणा उत्तरा वा भवन्ति तत्रोत्तरदिश्याश्विन्यादित्रयाणां दिङ्मासविषयाः क्रमेण दशद्वादशपञ्चेत्यर्थः। दक्षिणदिशि रोहिण्यादित्रयाणां पञ्चदश नव उत्तरस्यां पुनर्वसोः ष.भागाः । पुष्यस्य खं विक्षेपाभावः । अत्र पञ्चमाक्षरस्य गुरुत्वेन छन्दोभङ्ग आर्षत्वान्न दोषः । दक्षिण स्यामाश्लेषायाः सप्त । उत्तरस्यां मंघादित्रयाणां शून्यं द्वादश त्रयोदश । दक्षिणस्यां हस्तचित्रयोरेकादश द्वौ । अनन्तरं स्वात्या उत्तरादीश सप्तत्रिंशत् । दक्षिणस्यां विशा खादीनां षण्णां साधैकः त्रयं चत्वारः । नवसाईपञ्चपञ्च क्रमेण उत्तरदिशि तथा विक्षपभागा अभिजितः षष्टिः । श्रवणस्य त्रिंशत् । धनिष्ठायाः षट्त्रिंशत् । एक्कारो न्यून धिकव्यवच्छेदार्थः । चकारः र णार्थः । दक्षिणस्यां तुकारस्तथा । अर्धभागः शततारायाः। तुकारस्तथा । उत्तरस्यां पूर्वाभाद्रपदायाश्चतुर्विंशतिः । तस्यामेव दिशि भागा विक्षेपभागा उत्तराभाद्रपदाया भाः षडिशतिः । खेत्या विक्षेपाभावः । चकार: पूरणार्थः ॥ २ ॥ ३॥ ४ ॥५॥६॥७॥ ८ ॥ ९ ॥
भा०टी०-दूसरे श्लोकसे लकर नवे श्लोक तकका मर्थ सारिणीको भांति लिखा गय ॥२॥३॥४॥५॥६॥७॥८॥९॥
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ध्रुव
१२३
२१३
*EXExkas REATER •s. sixeET
५२०
चित्रा
(१५०) सूर्यसिद्धान्तः
[अष्टमोऽनक्षत्र सभोग
विक्षेपांश अश्विनी
이디 भरणी
०२० कृत्तिका
१७३० रोहिणी
१।१९।३० मृगशिरा आद्रा
२७/२० पुनर्वसु पुष्य
३।१६ आश्लेषा
३२१९ मघा
४९ पूर्वाफल्गुनी
४॥२४ उत्तराफल्गुनी
५१५ हस्त
११६
६० स्वाती
६।१९ विशाखा
७३ भनुराधा
७१४ ज्येष्ठा
.८१ पूर्वाषाढा
८।१४ उत्तराषाढा पू-आमध्य
८/२० अभिजित् पू-आशेष- ६।२६।४० श्रवणा ३ आशेष ९।२०10 धनिष्ठा श्रवणकी त्रिचतुष्पदसन्धि ९।२० शतभिषा
१०२० पूर्व माद्रपद
१०।२६ उत्तर भाद्रपद २२ ११७ रेवती
७२ ११।२९।५० अथागस्त्यलुब्धकवहिब्रह्महृदयताराणां ध्रुवकविक्षेपास्तदुपपत्ति श्लोकत्रयेणाह
अशीतिभागेर्याम्यायामगस्त्यो मिथुनान्तगः ॥ विशे च मिथुनस्यांशे मृगव्याधो व्यवस्थितः ।। १०॥ विक्षेपो दक्षिणे भागेः खार्णवैः स्वादपक्रमात् ॥ हुतभुब्रह्महृदयो वृषे द्वाविंशभागनौ ॥ ११॥
२६ ३७३ १३६
७।१९
Urm m.
३०६
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ध्यायः ८.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
अष्टाभिस्त्रिंशता चैव विक्षिप्तावुत्तरण तो ॥
गोलं बध्वा परीक्षेत विक्षेपं ध्रुवकं स्फुटम् ॥ १२ ।। स्वकीयात्क्रान्तिविभागस्थानादक्षिणस्यामशीत्यशैस्तारात्मकोऽगस्त्यो मिथुनान्तगः कर्कादिभागे स्थितः । अगस्त्यनक्षत्रस्य राशिवयं ध्रुवकाः । दक्षिणविक्षेपोऽशीतिरित्यर्थः । मृगव्याधो लुब्धको मिथुनराशेविंशतिभागे स्थितः । चकारः समुच्चये । लुब्धकनक्षत्रस्य राशिद्वयं विंशतिभागा ध्रुवक इत्यर्थः । दक्षिणस्यां चत्वारिंशता भागैः परिमितस्तस्य च क्रान्तिवृत्तस्थानाद्विक्षेपः । वृषराशौ वहिब्रह्महदयौ द्वाविंशभागास्थिता वह्निब्रह्महदयनक्षत्रयोविंशतिभागाधिकैकराशिध्रुवकः । तौ वहिब्रह्महृदयौ । अष्टाभिस्त्रिंशता । चकारः क्रमार्थे । एवकारो न्यूनाधिकव्यवच्छेदार्थः । उत्तरेणोत्तरस्यामि. त्यर्थः । विक्षिप्तौ विक्षेपवन्तौ । वह्नर्विक्षेपोऽष्टभाग उत्तरः । ब्रह्महदयस्योत्तरो विक्षेपस्त्रिंशदित्यर्थः । नन्वते ध्रुवा विक्षेपाश्च कालक्रमण नियता अनियता वेत्यत आहगोलमिति । मोलं वक्ष्यमाणं वध्वा वंशशलाकादिभिर्निवध्य स्फुटं विक्षेपं क्रांतिसं. स्कारयोग्यं ध्रुवाभिमुख ध्रुवकं स्फुटमायनकर्मसंस्कृतं परीक्षेत । स्वस्वकाले दृग्गोचरसिद्धमंगोकुरुत । तथा च क्रांतिसंस्कारयोग्यविक्षेपायनसंस्कृतध्रुवक्योरयनांशवशाद.. स्थिरत्वादपि मयेदानीन्तनसमयानुरोधेन लाघवार्थमायनकर्मसंस्कृता ध्रुवाः क्रांतिसं स्कारयाग्यविक्षेपाश्च नियता उक्ताः । कालान्तरे गोलयन्त्रेण वेधसिद्धा ज्ञेयाः। नैत इति भावः । गोलयन्त्रेण वेधस्तु गोलबन्धोक्तावधिना गोलयन्त्रं कार्यम् । तत्र खगो. लस्योपारे भगोलमाधारवृत्तस्योपरि विषुववृत्तम् । तत्र यथोक्तं क्रान्तिवृतं भगणांशाङ्कितं च बध्वा ध्वयष्टिकीलयोः प्रोतमन्यञ्चलं भवेधवलयम् । तच्च भगणांशाङ्कितं कार्यम् । ततस्तद्गोलयन्त्रं सम्यग्ध्रुशभिमुखयष्टिकं जलसमक्षितिजवलयं च यथा भवति तथा स्थिरं कृत्वा रात्रौ गोलमध्यच्छिद्रगतया दृष्टया वतीतारां विलोक्य क्रांतिवृत्ते मीनान्ताद्दशकलान्तरितपश्चाद्भागं रेवतीतारायां निवेश्य मध्यगतयैव दृष्टयाश्विन्यादेनक्षत्रस्य योगतारां विलोक्य तस्या उपरि तवेधवलयं निवेश्यम् । एवं कृते सति वेधवलयस्य क्रांतिवृत्तस्य च यः सम्पातः स मीनान्तादग्रतो यावद्भिरंशैस्तावन्तस्तस्य नक्षत्रस्य ध्रुवांशा ज्ञेयाः । वेधवलये तस्यैव सम्पातस्य योगतारायाश्च यावन्तोऽन्तरेऽशास्तावन्तस्तस्य विक्षेपांशा दक्षिणा उत्तराः वा वेद्याः । अथ कदम्बप्रोतवेधवलयेन वेधे तु सदा स्थिरा ध्रुवका आयनहक्कासंस्कृताः । परन्तु कदम्बतारयोरभावादशक्यमिति यथोक्तवेधनवायनकर्म संस्कृता ध्रुवाः शराच ध्रुवाभिमुखाः स्फुटाः सिद्धा भवन्तीति दिक्॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥
भाटा -अगस्त्यका ध्रुव ३० विक्षेपांश ८०६ । मृगव्याध ध्रुव २ । २० वि ४०।६ आग्ने ध्रुव १ | २२ वि० ८३ ब्रह्महदय ध्रुव १ . | २२ वि ३०३ | गोल बनाने में स्पष्ट वक्षेप मोर समस्त ध्रुवोंकी परीक्षा करे ॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥
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सूर्यसिद्धान्तः
( १५२ )
अथ रोहिणीशक्टभेदमाह
वृषे सप्तदशे भागे यस्य याम्योंऽशकद्वयात् ॥ विक्षेपोऽभ्यधिको भिन्द्याद्रोहिण्याः शकटं तु सः ॥ १३ ॥
[ अष्टमी
वृषराशौ सप्तदशेऽशे यस्य ग्रहस्य भागद्वयाधिको विक्षेपो दक्षिणः स ग्रहो रोहियः शवटं शकटाकारसन्निवेशं भिन्द्यात् । तन्मध्यगतो भवेदित्यर्थः । तुकाराहविक्षेपो रोहिणीविक्षेपादल्प इति विशेषार्थकः । विक्षेपस्य दक्षिणस्य रोहिणीविक्षपादधिकत्वे शकट | वहिर्दाक्षिणभागे ग्रहस्य स्थितत्वेन तद्भेदकत्वाभावात् । अत्र शकटामिनक्षत्रस्य ध्रुव एकराशिः सप्तदशांशाः । दक्षिणः शरो भागद्वयमिति वेधसिद्धा स्पष्टा युक्तिः ॥ १३ ॥
भा०टी० - रोहिणी का शकटभेदकारी ग्रह वृषके १७ अंशम, और दो अंश दक्षिण विक्षेप स्थित हैं ॥ १३॥
अथ भग्रहयोगसाधनार्थं योगसाधनरीतिमाहग्रहनिशेभानां कुर्यादृक्कर्म पूर्ववत् ॥ ग्रहमेल कवच्छेषं ग्रहभुक्त्या दिनानि च ॥ १४ ॥
ग्रहवद्युनिशे ग्रहाणां यथा दिनरात्रिमाने आक्षरक्कमर्थं कृते तथा दिनमान - - त्रिमाने भानां नक्षत्रध्रुवकाणामाक्षदृक्कर्माथ गणकः कुर्यात् । तदनन्तरं पूर्ववन्नक्षेत्रनित्योदयास्तौ साधयित्वाऽभीष्टकाले दिनगतशेषाभ्यां नतं कृत्वा विषुवच्छाययाभ्यस्तावित्यादिनत्यर्थः । दृक्कर्म कुर्यात् । अत्र नक्षत्रध्रुव के पर्वतेनायनदृक्कर्माप्यु`दाहरणे कृतम् तदयुक्तम् । तस्य ध्रुवके स्वतः सिद्धत्वात् । तदनन्तरं शेषं नक्षत्रग्रहयुतिसाधनं ग्रहध्रुवतुल्यतां रूपं ग्रहमेलकवद्भहयोग साधनरीत्या ग्रहानन्तर कला इत्या - दिना कार्यम् । ननु तत्र “ ग्रहान्तरकलाः स्वस्वभुक्तिलिप्तासमाहताः । भुक्त्यन्तरेण विभजेत्" इत्युक्तेर्नक्षत्रस्य का गतिग्रह्येत्यत आह- ग्रहभुक्तयति । केवलया ग्रहगत्या ग्रहस्य फलं ग्रहवान्तररूपग्रहे संस्कार्य ध्रुवसमा ग्रहो भवति । नक्षत्रस्य पूर्वगत्यभावाद्धुवो यथास्थित इत्यर्थः । तनुतयापि ग्रहनक्षत्रयुतिकालसाधनं भुक्त्यन्तरासम्भवात्कथं कार्यमिति मन्दाशङ्केत्यत आह- दिनानीति । अभीष्टसमय द्विवरमित्यादिना केवया ग्रहगत्या ग्रहनक्षत्रयुतिदिनानि साध्यानि । चः समुच्चये । नक्षत्राणां गत्यभाषात् ॥ १४ ॥
भा०टी० - ग्रहकी समान नक्षत्रोंके दिवारात्रिमान नुयायी टक्कर्म साधन करे | और समस्तग्रह युति समान करे । भुक्त्यन्तर के स्थान में ग्रहभुक्ति के ग्रहण करनेसे सब ठीक दो
जायगा || १४ ||
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संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
अथाभीष्टकालाग्रहनक्षत्रयुतिकालस्य गतैष्यत्वमसम्भ्रमार्थे पुनराह - एष्यो हीने ग्रहे योगो ध्रुवकाधिक गतः ॥ विपर्ययागते हे ज्ञेयः समागमः ॥ १५ ॥
घ्यायः ८. ]
( १५३ )
नक्षत्रध्रुवादुक्ताग्रह आयनदृक्कर्म संस्कृतग्रह आक्षटकर्म संस्कृतनक्षत्रध्रुवकात् । दृक्कर्मदयसंस्कृत ग्रह इति विवेकार्थः । न्यूने सति योगो नक्षत्रग्रहयोगः स्वाभीष्टसमयाद्भावी । अधिके सति पूर्वं जातः वकगते ग्रहे विपर्ययादुक्तवैपरीत्यात्समागमो नक्षत्रग्रहयोगो ज्ञेयः । हीने ग्रहे गतोऽधिके ग्रह एष्यो योगः । अत्रोपपत्तिर्नक्षत्रस्य गत्यभावेन सदास्थिरत्वाग्रहगमनेनैव योगसम्भवादिति सुगमतरा ॥ १५ ॥
भा०टी० - नक्षत्र ध्रुवसे संस्कृत ग्रहन्यून होनेसे योग पीछे होगा, अधिक दानसे पहले होगया है । वक्रगति ग्रहका यह समागम विपरीत होता है ॥ १५ ॥
अथाश्विन्या दिनक्षत्रस्य बहुतारात्मकत्वात्कस्यास्ताराया एते ध्रुवका इत्यस्य योगताराया ध्रुवं किमित्युत्तरं मनसि धृत्वाऽश्विन्यादिनक्षत्राणां योगतारां विवक्षुः प्रथममेषां नक्षत्राणां योगतारामाह
फाल्गुन्योर्भाद्रपदयोस्तथैवाषाढयोर्द्वयोः ||
विशाखाश्विनिसौम्यानां योगतारोत्तरा स्मृता ॥ १६ ॥
एषामुक्तनक्षत्राणां प्रत्येकं स्वतारासु योत्तरदिवस्था तारा सा योगतारा गोलतत्त्वज्ञैरुक्ता ॥ १६ ॥
मा० ट ० - दोनों फाल्गुनी, दोना भाद्रपद, और पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, विशाखा, अश्विनी और मृगशिर, इनके उत्तर स्थित ताराओंको योगतारा कहते हैं ॥ १६ ॥
अथान्ययोरनयोराह
पश्चिमोत्तरतारा या द्वितीया पश्चिमे स्थिता ॥
हस्तस्य योगतारा सा श्रविष्ठायाश्च पश्चिमा ।। १७ ॥
हस्तनक्षत्रं पञ्चतारात्मकं हस्तपञ्चाङ्गुलिसन्निवेशाकारम् । तत्र नैर्ऋत्यदिगाश्रितपश्चिमावस्थितताराया उत्तरदिगवस्थितताराया द्वितीया पूर्वोक्तातिरिक्ता पश्चिमे वायव्याश्रिते स्थिता सा हस्तस्य योगतारा ज्ञेया । उत्तरतारासन्ना पश्चिमाश्रिता तारा हस्तस्य योगतारेति फलितार्थः । धनिष्ठाया योगतारामाह - श्रविष्ठाया इति । धनिष्ठायास्तारासु या पश्चिमदिकस्था सा तस्या योगतारा । चः समुच्चये ॥ १७ ॥
भी० टी० - पंचतारात्मक हस्तनक्षत्र के पश्चिमोत्तर तारेके पश्चिम में स्थित हुआ तारा हस्तका योग तारा है और घनिष्ठा के पश्चिम स्थिततास घनिष्ठाका योगतारा है ॥ १७ ॥
१ विपर्ययात इति वा पाठः ।
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(१५४) सूर्यसिद्धान्तः
[अष्टम:अयान्येषामेषामाह
ज्येष्ठाश्रवणमैत्राणां बार्हस्पत्यस्य मध्यमा ।
भरण्यानेयपित्र्याणां खत्याश्चैव दक्षिणा ॥ १८ ॥ ज्येष्ठाश्रवणानुराधानां पुष्यस्य च, प्रत्येकं तारात्रयात्मकत्वान्मध्यतारा योगतारा स्यात् । भरणीकृत्तिकामघानां खेत्याः । चः समुच्चये । प्रत्येकं स्वतारासु या दक्षिणदिक्स्था सा योगतारा ॥ १८ ॥
भा. टी.-ज्येष्ठा, श्रवण, म राधा, और पुष्यका मध्यतारा, भरणी, कृत्तिका. मघा मौर रेवती के दक्षिणस्थित तारेही योगतारे हैं ॥ १८ ॥ अथान्येषामेषामवशिष्टानां चाह
रोहिण्यादित्यमूलानां प्राची सार्पस्य चैव हि ॥
यथा प्रत्यवशेषाणां स्थूला स्याद्योगतारका ॥ १९॥ रोहिणीपुनर्वसुमूलानामाश्लेषायाश्च प्रत्येकं स्वतारासु पूर्वादिक्स्था मैव योगतारेत्येवहोरर्थः । प्रत्यवशेषाणामवशिष्टनक्षत्राणामााचित्रास्वात्याभेजिच्छतताराणां स्वतारासु याऽत्यन्तं स्थूला महती सा योगतारा स्यात् ॥ १९ ॥
भा० टी०-गहिणी, पुनर्व, मूल व श्लेषाके पूर्वस्थिततारे भौर बाकी नक्षत्रोंके स्थूल (उज्ज्वल )ताराही योगतारा है॥ १९॥ अथ ब्रह्मसंज्ञकनक्षत्रावस्थानमाह
पूर्वस्या ब्रह्महृदयादेशकः पञ्चभिः स्थितः ।।
प्रजापतिवृषान्तेऽसो सौंग्येऽष्टत्रिंशदशकः ॥ २० ॥ ब्रह्महदयस्थानात्पूर्वभागे पञ्चभिरंशैः प्रजापतिस्तारात्मको ब्रह्माक्रान्तिवृत्ते स्थितः। कुत्रेत्यत आह-वृषान्त इति । वुषान्तनिकटे । एकरााशः सप्तविंशत्यंशा ब्रह्मनुवक इत्यर्थः । अस्य विक्षेपमाह-असाविति । ब्रह्मा उत्तरस्यामष्टत्रिंशद्भागैः स्थितः। अष्टत्रिंशद्भागा अस्य विक्षेप इत्यर्थः ॥ २० ॥
भा० टी०-प्रजापति ब्रह्महृदय के ५ अंश पूर्व में स्थित हैं। इसका ध्रुव वृषान्तमें अर्थात् १।२७ और विक्षेप ३ | ८३ ॥ २० ॥ अथापांवत्सापयोस्तारयोरवस्थानमाह
अपवित्सस्तु चित्रायामुत्तरेऽशस्तु पञ्चभिः ॥
बृहत् किञ्चिदतो भागेरापः षभिस्तथोत्तरे ॥ २१ ॥ चित्रायाः सकाशादपांवत्ससंज्ञकस्तारात्मकः पञ्चभिर्भागैरुत्तरस्यां स्थितः । प्रथ मतुकारश्चित्रात्रुवतुल्यध्रुवकार्थकः । द्वितीयतुकारश्चित्राविक्षेपस्य दक्षिणभागद्यात्मक
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अव्यायः ९.] संस्कृतटीका-भाषाटोकासमेतः। (१५५) त्वादपांवत्सविक्षेप उत्तरास्त्रिभाग इति स्फुटार्थकः । अतोऽपांवत्सात् किश्चिदल्पान्तरेण बृहत्स्थूलतारात्मक आपसंज्ञकः । तथापांवत्सात्षभिरशरुत्तरस्यां स्थितश्चित्राध्रुवक एवापस्य ध्रुवको विक्षेप उत्तरो नवांशा इत्यर्थः ॥ २१॥
भा० टी०-चित्राके १ मंश उत्तरमें भपांवत्स भवस्थित, भप तिसकी अपेक्षा कुछ बडा है. सो अपांत्मके ६ अंश उत्तर में स्थित हैं ॥ २१ ॥
अथानिमग्रन्थस्यासंगतित्वनिरासार्थमाधिकारसमाप्तिं फक्कियाह-स्पष्टम् । रंगनाथेन राचते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । ग्रहःक्याधिकारोऽयं पूर्णी गूढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके नक्षत्रग्रहयुत्यधिकारः संपूर्णः ॥
इति नक्षत्रग्रहयुत्याधिकारः॥
आठवां अध्याय समाप्त ॥
नवमोऽध्यायः। अथोदयास्ताधिकारो व्याख्यायते । ननु सूर्येणास्तमनं सहति प्रागुक्ग्रहयुत्यधिकारानन्तरं नक्षत्रग्रहयुत्यधिकारात्मागेवोदयास्ताधिकारो निरूपणीय इत्यतोऽत्र तत्संगतिप्रदर्शनार्थमादौ तदधिकार प्रातिजानीते
अयोदयास्तमययोः परिज्ञानं प्रकीर्त्यते ॥
दिवाकरकराकान्तमूर्तीनामल्पतेजसाम् ॥ १॥ अथ नक्षत्रग्रहयुत्यधिकारान्तरं सूर्यकिरणाभिभूता मूर्तिर्बिवं येषां तेषां चन्द्रादिषइग्रहाणां नक्षत्राणां च । अत एवाल्पतेजसां न्यूनप्रभावतामुदयास्तमययोः । अग्रिमकाले मर्यादधिकासन्निहितसन्निहितत्वसम्भावनया क्रमेणोदयास्तयोः सूर्यानिस्सृतस्य यस्मिन्काले यदन्तरण प्रथमदर्शनं सम्भावितं स उदयः । सूर्यादूरस्थितस्य यस्मिन् काले यदन्तरेण प्रयमादर्शनं सम्भावितं सोऽस्तः । अनेन नित्योदयास्तव्यवच्छेदस्तयोरित्यर्थः। परिज्ञानं सूक्ष्मज्ञानप्रकारः प्रकीर्त्यते । अतिसूक्ष्मत्वेन मयोच्यत इत्यर्थः । तथाच ग्रहइत्युद्देशेऽस्तमनमुद्दिष्टमापि तस्य पूर्वमेव सूर्यासमत्व एव सम्भवात्तद्विलक्षणतया ग्रहयुतिप्रसंगेनोक्तम् । नक्षत्रग्रहयुतिस्तु ग्रहयुतिवादति तदनन्तरमुक्ता । अतः प्रतिबन्धकजिज्ञासापगमेऽवश्यवक्तव्यत्वादस्यावसरसंगतित्वात् । तत्संगत्या नक्षत्रग्रहयुत्याधिकारानन्तरं प्रागुद्दिष्टमस्तमनं तत्प्रसंगादुदयश्च प्रतिपाद्यत इति भावः ॥१॥
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(१५६)
सूर्यसिद्धान्तः
[नवमोऽ
मा०टी०-मब उदयास्तपरिज्ञान कहा जाता है। अल्प (थोडे ) तेजवाले ग्रह सूर्यकी किरणोंसे आक्रान्त होकर आस्तमन होजाते हैं ॥ १ ॥ तत्र प्रथमं पञ्चताराणां पश्चिमास्तपूर्वोदयावाह
सूर्यादभ्याधिकाः पश्चादस्तं जीवकुजार्कजाः॥
उनाः प्रागुदयं यान्ति शुक्रज्ञो वक्रिणों तथा ॥२॥ वक्रगती शुक्रबुधौ तथा सूर्यादधिको पश्चिमास्तं गच्छतः सूर्यादल्पो पूषादयं प्राप्नुतः । शेषं स्पष्टम् ॥ २॥
__ भा०टी०-सूर्य स्पष्ट की बनिस्बत ग्रहस्पष्ट अधिक होनेसे बृहस्पति, मंगल और शनि पश्चिममें अस्त होते हैं । तिनके स्फुट सूर्यको अपेक्षा कम होनेसे पूर्वमें उदय होते हैं। पक्री शुक्र और बुधभी तैसाही है ॥ २॥ अथ चंद्रबुधशुक्राणां पूर्वास्तपश्चिमोदयवाह
ऊना विवस्वतः प्राच्यामस्तं चन्द्रज्ञभार्गवाः ॥
वजन्त्यभ्याधिकाः पश्चादुदयं शीघ्रयायिनः ॥३॥ शीघ्रयायिनः सूर्यगत्यधिकगतयः इत्यर्थः । एते बुधशुक्रावर्कगत्यल्पगती सूर्याद. ल्पो पूर्वास्तमधिकौ च पश्चिमोदयं न प्रामुत इत्युक्तम् । शेषं स्पष्टम् । अत्रोपपत्तिः । रविगतितोऽल्पगतिम्रहोऽर्कादूनश्चेत्याच्या दर्शनयोग्यो भवितुमर्हति । यतः सूर्यस्याधिकत्वेन बहुगतित्वाचोत्तरोत्तरमधिकविप्रकर्षात्प्रवहवशेन न्यूनस्य : पूर्वमुदयादधिकस्यानन्तरमुदयनियमाद्रहविम्बस्य प्राक् क्षितिजसंलग्नताकालानन्तरं यावत्सूर्यस्य तादृशः कालस्तावत्पर्यन्तं विप्रकर्षे दर्शनसम्भवात् । एवं यदाल्पगतिः सूर्यादधिकस्तदा प्रवहवशेनार्कस्य पूर्वमुदयादनन्तरमुदितग्रहस्य दर्शनासम्भवात्प्रवहवशेनादौ न्यूनार्कस्यास्तसम्भवादनन्तरमधिकग्रहस्यास्तसम्भवात्सूर्यास्तानन्तरं पश्चिमभागे ग्रहदर्शनसम्भवे. प्यधिकगतिसूर्यस्य पृष्टस्थितत्वेनोत्तरोत्तरमधिकसन्निकर्षात्पश्चिमायामदर्शनं सम्भवत्येव । ते तु भौमगुरुशनयः । वक्रत्वे न्यूनगतित्वावुधशुक्रौ चेति । अथार्कगतितोऽधिकगतिग्रहः सूर्यादूनस्तदोक्तरीत्योत्तरोत्तरमधिकसन्निकर्षत् पूर्वस्मिन्नदर्शनं याति यदा सूर्यादधिकस्तदोक्तरीत्योत्तरोत्तरमधिकविप्रकर्षात् पश्चिमायामुदयः । ते तु शीघ्राश्चन्द्रबुध-शुक्रा इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ ३ ॥
मा०टी०-चन्द, वुध और शुक्र यह शीघ्रयायी तीन ग्रह सूर्यकी अपेक्षा कम स्थानमें स्थित हो तो पूर्वमें अस्त भार अधिक होनेसे पश्चिममें उदय होता है ॥ ३ ॥
अथाभीष्टदिन आसन्ने सूर्योदयास्तकालिको सूर्यदृग्ग्रहौ तत्कालज्ञानार्थ कार्यावित्याह
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संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
सूर्यास्तका लिको पश्चात्प्राच्यामुदयकालिकौ ॥ दिवाचार्क हौ कुर्यादृक्कर्माथि ग्रहस्य तु ॥ ९ ॥
पश्चात् पश्चिमास्तोदयसाधनेऽभीष्टदिने आसने सूर्यग्रहो सूर्यास्तकालिकौ कुर्याद्रणकः । पूर्वास्तोदयसाधने सूर्योदयकालिकौ कुर्यात् । दिनेऽभीष्टकाले कुर्यात् । चकारो विकल्पार्थकः । अनन्तरं ग्रहस्य दृक्कर्म । आयनाक्षटकर्म दयं कुर्यात् । तुकार आक्षदृक्कर्मश्लोक पूर्वार्धोक्तमिति विशेषार्थकः । यत्रोपपत्तिः । पश्चादस्तोदय साधने पश्चि मायां तद्दर्शनमिति सूर्यास्तकालिकौ सूर्यग्रहाविष्टकालांशसाधनार्थ सूक्ष्मौ । पूर्वोदयास्तसाधने पूर्वदिशि तद्दर्शनमिति सूर्योदयकालिकौ । सूर्यग्रहाविष्टकालांश साधनार्थं सूक्ष्मावन्यकाले तु किञ्चित्स्थूलावपि कृतौ दृकर्मसंस्कृतग्रहस्य सूर्यवत् क्षितिजसंलग्नतायोग्यत्वाद्यकर्म संस्कृतो ग्रहः कार्य इति ॥ ४ ॥
ध्यायः ९. ]
Ga
(१५७)
मा०टा० - पश्चिम में होने से सूर्यास्तकालका और पूर्व में होनेसे सूर्योदयकालका ग्रह और सूर्य स्पष्ट निर्णय करना चाहिये । तदुपरान्त ग्रहका टक्कर्म साधन करे ॥ ४ ॥
अथेष्टकालांशानयनमाह
ततो लग्नान्तरप्राणाः काठांशाः षष्टिभाजिताः ॥ ·
प्रतीच्यां षड्भयुतयोस्तद्वलग्नान्तरासवः ॥ ५ ॥ .
ततस्ताभ्यां सूर्यग्रहाभ्यां लग्नान्तरप्राणाः भोग्यासूनूनकस्याथेत्युक्तप्रकारेणान्तरकालासवः षष्टिभक्ता इष्टाः कालांशा भवन्ति । प्रागुदयास्तसाधने प्रतीच्यां पश्चिमो दयास्तसाधने षड्भयुतयोः षड्राशियुतयोः सूर्यदृग्ग्रहयोर्लग्नान्तरासवः । अन्तरासवस्तद्वत् षष्टिभक्ता इष्टकालांशा भवन्तीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । दृग्ग्रह सूर्याभ्यामन्तरंकालो ग्रहत्य सूर्योदयकाले दिनगतं पूर्वोदयास्तनिमित्तमुपयुक्तम् । एवं पश्चिमोदयास्तनिमित्तं सूर्यदृग्ग्रहाभ्यामस्तकाला सुंभिरन्तर कालः सूर्यास्तकाले ग्रहस्य दिनशेषकाल उपयुक्तः तत्रास्तकालानामनुक्तेरुदयासुभिः साधनार्थ सषड्भौ सूर्यग्रहौ कृतो स कालोsस्वात्मकः। अहोरात्रासुभिश्चक्रकलातुल्यैश्चक्रांशा लभ्यन्ते तदेष्टासुभिः कइत्यनुपाते प्रमाफलयोः फलापवर्तनेन हरस्थाने षष्टिः । अतोऽस्वात्मकान्तरकालः षष्टिभक्त इष्टकालांशा इत्युपपन्नमुक्तम् । अत्रेदमवधेषम् । सूर्योदयकालिकाभ्यामर्कटग्ग्रहाभ्यामानीतेन दिनगतेन पूर्व चाल्यो दृरग्रहः । सूर्यास्त कालिकाभ्यां सपड्भाभ्यामर्कटरग्रहाभ्यामानीतेन दिनशेषेणाग्रे चाल्यः सपड़भो दृग्रहः । क्रमेण ग्रहोदयास्तकाले प्रारूपश्चिमदृग्ग्रहै। भवतः । ताभ्यां सूर्यसषड्भसूर्याभ्यां च क्रमेण पूर्वरीत्यान्तरकालो ग्रहस्य सूर्योदयास्तका क्रमेण दिनगतशेषौ नाक्षत्रों षष्टिभक्तौ कालांशाविष्टो सूक्ष्मौ अथेष्टका
१ द्वयोर्लमान्तरप्राणाः इति वा पाठः ।
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सूर्य्यसिद्धान्तः
( १५८ )
[ नवमोऽ
'लिकायामा नतिकालेन पूर्ववच्चालिताभ्यां प्राक्पश्चिमदृरग्रहाभ्यां सूर्यसषडभसूर्याभ्यां चानतिकालो नाक्षत्रोऽपि सूक्ष्मासन्नः । सूर्योदयास्तसम्बन्धाभावात्तदुत्पन्नाः कालांशा अपि तथा । अथ सूर्योदयास्तका लिकाभ्यामानीतैकवारं कालात्कालांशाः स्थूला इष्टकालिकाभ्यामानीतैकवारकालात्कालांशा अतिस्थूला उभयत्र कालस्य सावनत्वात् । नहि सावनषष्टिधटोभिश्वकपरिपूर्तिर्येन सूक्ष्माः सिध्यन्तीति ॥ ५ ॥
मा० टी० - प्राक्काळ में सूर्य और ग्रहके स्फुटसे लग्नान्तर प्राण निर्णय करके ६० से भाग करनेपर काढांश हेगा | पश्चिमकाल में ६ राशियुक्त दो स्पष्ट के लग्नान्तरं प्राणनिर्णय
करे ॥ ५ ॥
अथ यैः कालांशेरुदयोsस्तो वा भवति तान् विवक्षुः प्रथमं गुरुशनिभौमानां कालां
शानाह-
एकादशामरेज्यस्य तिथिसंख्यार्कजस्य च ॥ अस्तांशा भूमिपुत्रस्य दश सप्ताधिकास्ततः ॥ ६ ॥
ततं इष्टकालांशावगमानन्तरमस्तांशाः । अस्तो यैरंशैर्भवति तेंऽशा अस्तोपलक्षणादुदयांशा ज्ञेयाः । अमरेज्यस्य गुरोरेकादश कालांशाः । शनेः चद्शसंख्याः कालांशाः । चः समुच्चये । भौमस्य सप्ताधिका दश सप्तदश कालांशा इत्यर्थः ॥ ६ ॥
मा० टी० - वृहस्पति ११ शनि १५ मंगल १७, यही तिनकें अस्तोश ( कालांश ) हैं ॥ ६ ॥
अथ शुक्रस्याह-
पश्चादस्तमयोऽष्टाभिरुदयः प्राइमहत्तया ॥
प्रागस्तमुदयः पश्चादल्पत्वाद्दशभिर्मृगोः ॥ ७ ॥
शुक्रस्य महत्तया वक्रत्वेन नीचासन्नत्वात्स्थूलविम्बतया पश्चिमायामस्तोऽष्टाभिः कालांशैः प्राच्यामुदयश्च तैः । नाधिकैः । प्राध्यां शुक्रस्याल्पत्वादणुबिम्बत्वाद्दशमिः कालांशैरस्तं गणकः कुर्यात् । नाल्पैः । पश्चिमायामुदयस्तस्याणुबिम्बस्य दशभिः कालांशैव ज्ञेयः ॥ ७ ॥
भा० टी० - स्थूलताक हेतुले शुक्रका पश्वादस्त ८ कालांश में होता है और पूर्वोदय होता है | किन्तु प्रागस्त और पश्चादयमें बिम्बके छोटे होने से १० अंश लेने पडते है ॥ ७ ॥
अथ बुधस्याह-
एवं बुधो द्वादशभिश्चतुर्दशभिरंशकैः || वक्की शीघ्रगतिश्वार्कात्करोत्यस्तमयोदयो ॥ ८ ॥
• वक्रशधिगतिश्वः कति इति वा गठान्तरम् ।
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ध्यायः ९.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
वक्री शीघ्रगतिः । चः समुच्चये । बुधः सूर्यावादशभिश्चतुर्दशभिश्च कालांशैरस्तोदयौ । एवं शुक्ररीत्या करोति । पश्चादस्तं प्रागुदयं च द्वादशभिः कालांशैर्महाविम्वतया बुधः करोति । प्रागस्तं पश्चादुदयं च चतुर्दशभिः कालांशैरणुबिम्बत्वाद्बुधः करोतीत्यर्थः ।। ८॥
मा० टी०-इस प्रकारसे बुध वक्री होनेपर सूर्य से १२ अंश और शीघ्रगति होनेपर १४ कालांशमें उदयास्त लाभ करता हे || ८ ॥ अथ प्रोक्तेष्टकालांशाभ्यामस्तस्योदयस्य वा गतैष्यत्वज्ञानमाह
एभ्योऽधिकैः कालभागेश्या न्यूनैरदर्शनाः ॥
भवन्ति लोके खचरा भानुभाग्रस्तमूर्तयः ॥९॥ एभ्य एकादशामरेज्यस्येति श्लोकत्रयोक्तेभ्योऽधिकैरिष्टकालांशैश्या दर्शनयोग्या अभीष्टकाले ग्रहा भवन्ति । तथा चास्तसाधने दृश्यत्वे अस्त एण्यः । उदयसाधने दृश्यत्व उदयो गत इति भावः । अल्पैरिष्टकालांशैर्ग्रहा लोके भूलोके अदर्शना न विद्यते दर्शनं दृष्टिगोचरता येषां ते । अदृश्या अभीष्टकाले भवन्ति । नन्वदृश्याः कुतो भवन्तीत्यत आह-भानुभाग्रस्तमूर्तय इति । सूर्यासन्नत्वेन सूर्यकिरणदीप्त्या ग्रस्ता अभिभूता सूर्यकिरणप्रतिहतलोकनयनाविषया मूर्तिविम्बस्वरूपं येषां त इत्यर्थः । तया चास्तसाधन अदृश्यत्वेऽस्ता गतः । उदयसाधनेऽदृश्यत्व उदय एष्य इति भावः । अत एव “उक्तेभ्य ऊनाभ्याधका यदीष्टाः खेटोदयो गम्यगतस्तदा स्यात् । अतोऽन्यथा चास्तमयोऽनगम्यः" इति भास्कराचार्योक्तं संगच्छते । अत्रोपपत्तिः । उक्तकालांशे यत्काले ग्रहो साधितौ तत्काल एव ग्रहस्योदयोऽस्तो वार्ककृतः । उक्तकालां शानां सूर्यसान्निध्यजनिताद्यन्तग्रहादर्शने हेतुत्वप्रतिपादनात् । तथा चेष्टकालांशा उक्तभ्योऽल्पास्तदा ग्रहस्यास्तंगतत्वमेवेत्युदयसाधनइष्टकालांशा उक्तेभ्योऽल्पास्तदेष्टकालादो ग्रहस्योदयः । यदीष्टकालांशा उक्तेभ्योऽधिकास्तदेष्टकालाद्ग्रहस्योदयः पूर्व जातः। एवमस्तसाधन इष्टकालांशा अधिकास्तदेष्टकालादने ग्रहास्तः । यदीष्टकालांशा न्यूनास्तदेष्टकालात्पूर्व ग्रहास्तो जात इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ ९ ॥
मा० ये०-सूर्य से उत्तर कहे हुए कालांशकी अपेक्षा अधिकतर में स्थित होनेपर दृश्य होता हैं, काम होनेपर जब सूर्यके तेजसे बिम्ब विरजाता है सब लोगोंको ग्रह दिखाई नहीं देते ॥९॥ अयोदयास्तयोर्गतैष्यदिनाद्यानयनमाह
तत्कालांशान्तरकला भुत्त्यन्तरविभाजिताः॥ दिनादितत्फलं लब्धभुक्तियागेन वक्रिणः ॥ १० ॥
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(१६० ) सूर्यासद्धान्तः
[ नवमो:उक्तेष्टकालांशयोरन्तरस्य कलाः सूर्यग्रहयोर्गत्योः कलात्मकान्तरेण भक्ताः । दिनादिकमुदयास्तयोः फलमुदयास्तयांर्गतैष्यादिनाद्यं भवतीत्यर्थः । वक्रगतिग्रहस्य विशेषमाह । लब्धमिति । वक्रिणो वक्रग्रहस्य भुक्तियोगेन सूर्यग्रहयोः कलात्मगतियोगेन मक्ताः फलं गतैष्यदिनाचं ज्ञेयम् । अत्रोपपात्तः । सूर्यग्रहयोर्गत्यन्तरकलाभिरेकं दिन तदेष्टप्रोक्तकलांशयोरन्तरकलाभिः किमित्यनुपातेनोदयास्तयोरभीष्टकालाद्गतैष्यादनाद्य. वगमः । वक्रग्रहे तु सूर्यग्रहयोगतियोगेन प्रत्यहमन्तरवृद्धतियोगादनुपात उपपन्न इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ १० ॥
भा०टी०-अपने २ कालांशसे इष्टकालांश अलग करके कला बनाय भुक्त्यन्तरसे मागक रनेपर दिनादि फल होंगे वक्री होनेपर भुक्तियोग ग्रहण करना चाहिये ॥ १० ॥
अथ ग्रहगतिकलयोः क्रांतिवृत्तस्थत्वाकालांशान्तरस्याहोरात्रवृत्तस्थत्वाच्चानुपातः प्रमाणेच्छयोवैजात्येनायुक्त इति मनसि धृत्वा तयोरेकजातित्वसम्पादनाथै ग्रहगत्योरिच्छाजातीयत्वं वदंस्तदन्तरेणानुपातस्तु युक्त एवेत्याह
तल्लनासुहते मुक्ती अष्टादशशतोद्धृते ॥
स्यातां कालगती ताभ्यां दिनादिगतगम्ययोः ॥ ११॥ भुक्ती रविग्रहयोर्गती कलात्मके तल्लग्नासुहते कालसाधनाथ ग्रहस्य यो राश्युदयो ग्रहीतस्तेनास्गात्मकोदयेन गुणित अष्टादशशतेन भक्ते फले सूर्यग्रहयोः कालांशवत्काल गती स्याताम् । ताभ्यां गतिभ्यां गतगम्ययोरुदयास्तयादिनादिपूर्वोक्तप्रकारेण साध्यम् । नतुः पूर्वोक्तप्रकारेण यथास्थितगतिभ्यां स्थूलत्वापत्तेः । अत्रोपपत्तिः । एकराशिकलाभी राश्युदयासवस्तदा गतिकलाभिः कइत्यनुपातेनाहोरात्रवृत्ते गत्यसवः कलासमा इत्युपपन्नमुक्तम् ॥ ११ ॥
भा०टी०-दो भुक्तियों को उस लनप्राणसे गुणकरके १८०० से माग करनेपर काल गति होगी । तिसस ( १० श्लोकोक्त ) गत और गम्यदिनादिनिर्णय करे ॥ ११ ॥
अथ नक्षत्राणां सूर्यसान्निध्यवशादस्तोदयज्ञानार्थ कालांशान् विवक्षुः प्रथममे षामाह
स्वात्यगस्त्यमृगव्याधचित्राज्येष्ठाः पुनर्वसुः ॥
अभिजिद्ब्रह्महृदयं त्रयोदशभिरंशकैः ॥ १२ ॥ मृगव्याधो लुब्धकः । त्रयोदशभिः कालांशेर्दृश्यानि नक्षत्राणि भवन्ति । शेष स्पष्टम् ॥ १२ ॥
भा० टी०-स्वाती, अगस्त्य, मृगव्याध, चित्रा, ज्येष्ठा, पुनर्वसु, अभिजित, ब्रह्महृदय इनका वालांश १३ अंश हैं॥ ११
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अथान्येषामेषामाह
ध्यायः ९. ]
अथान्येषामेषामाह
हस्त श्रवणफाल्गुन्यः श्रविष्ठारोहिणीमघाः ॥ चतुर्दशांश कश्या विशाखाश्विनिदैवतम् ॥ १३ ॥
फाल्गुनी पूर्वोत्तराफाल्गुनीद्वयम् । अश्वितिदैवतमश्विनीकुमारो दैवतं स्वामी यस् त्यश्विनी नक्षत्रम् । दृश्या उपलक्षणाददृश्या अपि । लिंगपरिणामश्च यथायोग्यं बोध्यः शेषं स्पदृम् ॥ १३ ॥
मा० टी० - हस्त, श्रवण, उत्तराफाल्गुनी, पूर्वाफाल्गुनी, धनिष्ठा, रोहिणी, मधा, विशाखा और अश्विनी, इनका काळांश १४ अंश हैं ॥ १३ ॥
संस्कृत टीका-मापाटीका समेतः ।
कृत्तिका मूलानि सा रौद्रर्क्षमेव च ॥
दृश्यन्ते पञ्चदशभिराषाढाद्वितयं तथा ॥ १४ ॥
कृत्तिकानुराधामूलनक्षत्राणि पञ्चदशभिः कालांशैर्दृश्यन्ते । उपलक्षणान्न दृश्यन्तेऽपि । एवकारो न्यूनाधिकव्यवच्छेदार्थः । आश्लेषार्द्रा । चः समुच्चये । आषाढद्वितयं पूर्वोत्तराषाढाद्वयं तथा पञ्चदशकालांशैर्दृश्यन्त इत्यर्थः ॥ १४ ॥
भा०टा० - कृत्तिका, अनुराधा, मूल, आश्लेषा, आद्री, और पूर्वाषाढ व उत्तराषाढ इनके १५ अंश हैं ॥ १४ ॥
अथान्येषामवशिष्टानां चाह
( १६१
भरणीतिष्य सौम्यानि सौक्ष्म्यात्रिः सप्तकांशकैः ॥
शेषाणि सप्तदशभिर्दृश्यादृश्यानि भानि तु ॥ १५ ॥
तिष्यः पुष्यः सोमदैवतं मृगशिरोनक्षत्रमेतानि नक्षत्राणि सौक्ष्म्यादणुविम्बत्वात् त्रिःसप्तकांश कैरेकविंशतिकालांशैर्दृश्यादृश्यानि । उदितान्यस्तंगतानि च भवन्तीत्यर्थः । शेषाणि पूर्वाधिकारोक्तनक्षत्रेषूक्तातिरिक्तानि शततारा पूर्वोत्तराभाद्रपदारेवतीसंज्ञानि । वह्निब्रह्मापांवत्साप सञ्ज्ञानि च सप्तदशभिः कालांशैर्दृश्यादृश्यानि भवन्ति तुकारो दृश्यादृश्यानीत्यत्र समुच्चयार्थकः ॥ १५ ॥
मा०टी० - भरणी, पुष्य, और मृगशिरा इनके सूक्ष्म होने से २१ अंश में, व अरे सब नक्षत्र १७ अंश में दिखाई देते है || १५ ||
अथ दिनाद्यानयनार्थमिच्छाया एव प्रमाणजातीयकरणत्वमाह
११
अष्टादशशताभ्यस्ता दृश्यांशाः स्वोदयातुभिः ॥ विभज्य लब्धाः क्षेत्रांशास्तर्दृश्यादृश्यताथवा ॥ १६ ॥ दृश्यांशाः कालांशा अष्टादशशतगुणितास्तान्स्वोदयासुभिर्ग्रह राश्युदयाभिभवत्वा रुन्धाः क्षेत्रांशाः क्रान्तिवृत्तस्थांशास्तैरंशैर्दृश्यादृश्यता । उदयास्तौ प्रकारान्तरेण.
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१६२) सूर्यसिद्धान्तः
[ नवमःतर्गत्या ज्ञेयौ । कलांशाभ्यां क्षेत्रांशावानीय तदन्तरकला यथ स्थितगत्योरंतरण चोगेन वा भक्ताः फलमुदयास्तयोर्गतैष्यदिनायं पूर्वागतमेव स्यादित्यर्थः । अत्रोपपात्तः । राश्युदयासुभिरेकराशिकलास्तदा कालांशकलातुल्यासुभिः का इाते क्रांति वृत्ते कालास्ताः षष्टिभक्ता अंशा इति पूर्वमेवेच्छ स्थाने कलांशा एव धृता लाघवात् । इत्युक्तमुपपन्नम् ॥ १६ ॥
भा० टी०-कालांशको १८०० से गुणकरके लग्नमाणसे भागकरनेपर क्रांतिवृत्तका क्षेत्रांश होता है । तिससे उदयास्तनिर्णय करे ॥ १६ ॥
ननु ग्रहाणाममुकदिश्यस्तोऽमुकदिश्युदय इत्युक्तम् । तथा नक्षत्राणां नोक्तम् । प्रत्यभावाद्वियोगयोगासम्भवेन गतैष्यदिनाद्यानयनासम्भवश्चेत्यत आह
प्रागेपामुदयः पश्चादुस्ता हकर्मपूर्ववत् ॥
गतेष्यदिवसप्राप्तिर्मानुभुक्त्या सदैव हि ॥ १७ ॥ एषां नक्षत्राणां प्राच्यामुदयः प्रतीच्यामस्तो गत्यभावादल्पगतिग्रहवत् । एषां नक्षत्राणां कर्माक्षकर्म पूर्ववत्पूर्वप्रकारेण कार्यम् । परन्तु श्लोकपूर्वाधाक्तमिति ध्येयम् । सदा नित्यम् । एक्कारात्कदाचिदप्यन्यथा नेत्यर्थः । हि निश्च येन । रविगत्या गतैष्यदिवसानां लब्धिः स्यात् । नक्षत्रगत्यसम्भवात् । योगे ग्रहगतिवत् ॥ १७ ॥
मा० टी०- नक्षत्रों का उदय पूर्वदिशामें और अस्त पश्चिममें होता है । पूर्व नुमार मक्षहकर्मसंस्कार करके सदा रविगते ( १० श्लोइमें ) से दिवमादिनिर्णय करे॥ १७ ॥ अथ कतिपयानां नक्षत्राणां सूर्यसान्निध्यवशादस्तो नास्तीत्याह
अभिजिह्महयं स्वातीवैष्णववासवाः ॥
आहबुध्यमुदस्थत्वान्न लुप्यन्तेऽकरश्मिभिः ॥ १८ ॥ अभिजित् । ब्रह्महदयम् । अनेनैकदेशस्य ब्रह्मगोऽपि ग्रहणम् । स्वातीश्रवणघ. निष्टाः । आहबुध्न्यमुत्तगभाद्रपदा । एतानि नक्षत्राण्युत्तरदिक्स्थत्वादुत्तरविक्षेपाविक्यादित्यर्थः । सूर्यकिरणैन लुप्यन्ते । अस्तं न यांतीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः। “य. स्योदयार्कादधिकोऽस्तभानुः प्रजायते सौम्यशरातिदैयात् । तिग्मांशुसानिध्यवशेन नास्ति धिष्ण्यस्यं तम्यास्तमयः कथश्त् ि ॥” इति भास्कराचायोक्ता । परमिदमुक्तमष्टाक्षमायाम् । अन्यथा पूर्वाभाद्रपदाया आप तथात्वापत्तेरिति दिक् ॥ १८ ॥
मा० टी. - आभाजन ब्रह्महृदय, साता, श्रवण, धनिष्ठा: उत्ताभाद्रपदा, यह अधिक पत्तरमें स्थिति होनेके कारण सूर्यकिरणसे कमा लुप्त नहीं हो ॥ १८ ॥
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अध्यायः १०.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१६३)
अयाग्रिमग्रन्थस्यासङ्गतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्तिं फक्कियाह-नक्षत्रग्रहयोर स्तोदयनिरूपणात्सांधारण्येनोदयास्ताधिकार इत्युक्तम् । रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । उदयास्ताधिकारोयं पूर्णो गूढप्रकाशके ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदैवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके उदयास्ताधिकारः पूर्णः ॥ १९ ॥
इत्युदयास्ताधिकारः ॥
नवम अध्याय समाप्त ॥
दशमोऽध्यायः। अय भौमादीनां सूर्यसान्निध्योदयास्तासन्ने दीप्त्या सकलबिम्बदर्शनं तथा चन्द्रस्य स्वोदयास्तकाले सकलबिम्बदर्शनं शुक्लत्वेन न भवति । किन्तु बिम्बैकदेश एव शुक्लत्वेन न दृश्यत इति भौमादिविसदृशत्वं चन्द्रस्य कुत इत्याशङ्कायाः। पूर्वाधिकारे समु. पस्थितेस्तदुत्तरभूतशृंगोन्नमनाधिकारोऽवश्यमुपस्थित आरब्धो व्याख्यायते । तत्र शृङ्गोन्नतेरुदयकालात्पूर्वकालेऽस्तकालानन्तरकाले चासन्नकतिपयदिवसेषु दर्शनात्पूर्वाधिकारे चन्द्रस्य कालांशानुक्त्या तदुदयास्तानुक्तैश्च प्रथममुपस्थितचन्द्रोदयास्तयोः साधनमतिदिशति.
उदयास्तविधिः प्राग्यकर्त्तव्यः शीतगोपि ॥
भागीदशभिः पश्चादृश्यः प्राग्यात्यदृश्यताम् ॥ १ ॥ चन्द्रस्य अपिशब्दः पूर्वाधिकारोक्तैर्ग्रहनक्षत्रैः समुच्चयार्थकः । उदयास्तविधिरुदयास्तयोः साधनप्रकारः प्राग्वत्पूर्वाधिकारोक्तरीत्या गणकेन कार्यः। ननु कालांशानां पूर्वमनुक्तेः कथं तत्सिद्धिः । अत आह-भागैरिति । द्वादशभिरंशैश्चंद्रः पश्चिमायां दृश्य उदितो भवाते । प्राच्यामदृश्यतामस्तं पाप्नोति । अत्र पश्चात्मागिति पुनरुक्तमपि पूर्व बुधशुक्रयोः साहचर्येण चन्द्रोदयास्तदिगुक्त्या तत्साहचर्येण चन्द्रस्य पश्चिमास्तपूर्वोदयो वर्तते इति कस्यचिन्मन्दबुद्धिर्धमस्य वारणायेति ध्येयम् ॥ १॥
भा० टी०-चन्द्रमाकाभो पहले कही रीतिके अनुसार उदयास्तसाधन करना चाहिये १२ अंश दूर होने से पश्चिममें दिखाताहै और पूर्व में १२ अंश होनेपर अदृश्य होता है ॥ १॥
अथोदयास्तप्रसङ्गेन स्मृतयोश्चन्द्रनित्यास्तोदययोः साधनं विवक्षुः प्रथमं श्लोकत्रये णेन्दोनित्यास्तसाधनमाह--
रवीन्द्राः षड्युतयोः प्राग्वलनान्तरातवः ॥ एकराशौ रवीन्द्रोश्च कार्या शिवलिप्तिकाः ॥ २ ॥ तन्नाडिकाहते भुक्ती खीन्द्रोः षष्टिभाजिते ॥
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सूर्यसिद्धान्तः
तत्फलान्वितयोर्भूयः कर्त्तव्या विवरासवः ॥ ३ ॥ एवं यावत्स्थिरीभूता खन्द्विोरन्तरासवः ॥ नैः प्राणैरस्तमेतीन्दुः शुक्केऽर्कास्तमयात्परम् ॥ ४ ॥
( १६४ )
[ दशमोs
शुक्ले शुक्लपक्षाभीष्टदिने सूर्यास्तकाले स्पष्टौ सूर्यचन्द्रौ साध्यौ । चन्द्रस्य दृक्कर्मद्वयं संस्कार्यम् । तत्राक्षदृक्कर्म श्लोकपूर्वार्धोक्तमेव । तयोः सूर्यचंद्रयोः षड्राशियुतयोलग्नान्तरासवोऽन्तरकालासवः प्राग्वद्भोग्यासुनूनकस्येत्यादिना साध्याः । तौ सषड्भा
चन्द्र। वे कराशावभिन्नराशौ चेत्स्तस्तदा सषड्भयोस्तयोः सूर्यचन्द्रयोरन्तर कलाः कार्याः चकारो विषयव्यवस्थार्थकः । तयोरसुकलयोर्घटिकाभिरसवः षष्ट्यधिकशतत्रयेण माज्याः । घटिकाः कला उदयासुगुणिता एकराशिकलाभिर्भक्ता असवस्ते षष्ट्यधिकशतत्रयेण भाज्याः । घटिकाः । अभिः सूर्येन्द्वोर्गतीकलात्मके गुण्ये षष्टिभक्ते तत्फलान्वितयोः स्वस्वफलयुक्तयोः सपड्भसूर्यचन्द्रयोर्भूयः पुनर्विवरासवोऽन्तरप्राणाः पूर्वरौत्या कर्त्तव्याः । एवं तद्घटिकाभिः सूर्यास्तकालिकौ सषड्भसूर्यदृक्कर्मसंस्कृतचन्द्रौ प्रचाल्य तयोर्विवरासव इति यावत्स्थिरीभूता अभिन्नास्तावत्साध्याः । तैरभिन्नैरसुभिः सूर्यास्तादनन्तरं चन्द्रोऽस्तं प्राप्नोति । अत्रोपपत्तिः । सूर्यास्तकाले सषड्भार्को लग्नं दृक्कर्मसंस्कृतश्चन्द्रः षड्भयुतश्चन्द्रास्तकाले लग्नम् | परन्तु सूर्यास्तकालिकं न स्वास्तकालिकम् । पश्चिमदृग्ग्रहः सूर्यास्तकालिक इति तत्त्वम् । तदन्तरासवः: सावनाश्चन्द्रस्य सूक्ष्मा दिनशेषाः । परन्तु परिभाषया नाक्षत्रज्ञानसम्भवान्नाक्षत्राः साध्या इति चन्द्रस्ताभिश्चाल्यः स्वास्तकाले सषडो लग्नमस्मात्सूर्यास्तका लिकसषडू सूर्याच्चान्तरासवो नाक्षत्राः सूक्ष्मा अपि भगवतैकरीतिप्रदर्शनार्थं भिन्नकालिकाभ्यां सूर्यचन्द्राभ्यां कथं सूक्ष्मसमयसिद्धिरिति मन्दाशङ्कापनोदार्थं च सषड्भः सूर्योऽपि साधितश्चन्द्रास्तकाले । ताभ्यामन्तरासवो नाक्षत्रा अपि सूर्यास्तकालिकलग्ना ग्रहादसूक्ष्मा इत्यसकृत्सूक्ष्मा इत्युक्तमुपपन्नम् । वस्तुतस्तु सावनाभ्युपगमे “ रवीन्द्वोः षड्मयुतयोः प्राग्वलग्नान्तरासवः । तैः प्राणैरस्तमेतीन्दुः शुक्लेर्कास्तमनात्परम् ॥ " इत्येक एव सूर्यसि - द्धांत श्लोकः । श्लोकमध्य एकराशावित्यादिरवीन्द्वोरित्यन्तरासव इत्यन्तं श्लोकद्वयं केन चिन्मन्दमतिना समयोऽसकृदेव साध्य इति शिष्यधीवृद्धिदतन्त्रोक्तं सुबुद्धिमन्येनांयुक्तमपि युक्तियुक्तं मत्वा निक्षिप्तम् । कथमन्यथा भगवतः सर्वज्ञस्य शुद्धसावनघटीज्ञानानन्तरमसकृत्साधनोक्तिः सङ्गच्छते । किंच ' एकराशौ रवीन्द्वोश्व कार्या faaरलिप्तिकाः' इत्यर्धस्य त्रिप्रनाधिकारे भोग्यासूनूनकस्येत्यादिश्लोकाभिपेक्षितत्वेनात्रानपेक्षितत्वम् । प्राग्वलग्नान्तरासव इत्यनेनैवात्र तत्सिद्धेरिति । अथ नाक्षत्राभ्युपगमे तु चन्द्रस्य सावनघटीमिश्चालनं स्वास्तका लिकसिद्ध्यर्थमावश्यकं नतु सूर्यस्य प्रयोजना
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ध्याय: १०. ]
संस्कृतटीका-मापाटीका समेतः ।
( १६५ )
I
भावात् । नहि चन्द्रास्त कालसाधित सषड्भसूर्यः सूर्यास्तकालिकं लग्नं येन सूर्यचालनं युक्तम् । अपिच एकस्य चन्द्रस्य चालनेन पुनरेकवारेणैव सूक्ष्मनाक्षत्रकालसिद्धौ द्वयोश्वानोक्त्या नाक्षत्रास्यासकृत्क्रियानयनमतत्त्वं गौरवं सर्वज्ञेन कथमुक्तम् । व्यसकृत्साधनेन सूक्ष्मनाक्षत्रसिद्धौ युक्त्यभावश्च । अत एव " ज्ञातुं यदाभाभिमता ग्रहस्य तत्कालखेटोदयलग्न लग्ने । साध्येनयोरन्तरनाडिकायास्ताः सावनाः स्युर्युगता ग्रहस्य |" • इति भास्कराचार्योक्तं सङ्गच्छत इति तत्त्वम् ॥ २ ॥ ३ ॥ ४ ॥
मा० टी० - शुक्लपक्ष में सन्ध्याकालको दृक्कर्म संस्कृत चन्द्र में और सूर्य में ६ राशि मिलाकर पूर्वानुसार लग्नान्तर प्राणस्थिर करे । सूर्यास्त के पीछे उक्त - प्राणसंख्यक कालके गत होनेपर चंद्रमा अस्त होगा ॥ २ ॥ रविस्पष्ट में ६ राशि मिल कर चन्द्र से अन्तरप्रमाणको निर्णय करे। वही सूर्यास्त के पीछे कृष्णपक्ष में ६ चन्द्रोदय का काल है | ३ || एकदिशा में होनेपर सूर्य और चन्द्रमाकी क्रान्तिज्या मनन्तर (दूर) करके अन्यथा योग करे | प्राप्तफल सूर्यसे चंद्र- माकी संस्थानादिकके अनुसार दक्षिण और उत्तरा संज्ञा होगी ॥ ४ ॥
अथोदयसाधनमाह
भगणा खेर्दत्त्वा कार्यास्तद्विवरासवः ॥
तैः प्राणैः कृष्णपक्षे तु शीतांशुरुदयं व्रजेत् ॥ ५ ॥
कृष्णपक्षे भगणार्धं सषड्गशीन् सूर्यस्य दत्त्वा संयोज्य । तुकाराच्चन्द्रस्यादत्त्वेत्यर्थः । तद्विवरासवस्तयोर्दृक्कर्म संस्कृतचन्द्रसषड्भसूर्ययोरन्तर सवः । प्रागुक्तप्रकारेण साध्याः । तैः साधितैरसुभिश्चन्द्रः सूर्यास्तानन्तरमुदयं गच्छेत् । अत्रोपपत्तिः । सूर्यास्तकाले सषड्भार्कस्य लग्नत्वात्सूर्ये षड्रराशियोजनमुदयसाधनार्थम् । प्राग्हम्ग्रहस्यापेक्षितत्वाच्चन्द्रो दृक्कर्मसंस्कृतो यथास्थितो न षड्ाशियुक्तः । तद्विवरासुभिश्चन्द्रस्य सूर्यास्तानन्तरमुदयः सावनैस्तच्चालितचन्द्रात्सूर्यास्तकालिकसषड्भार्काच्च विवरासवो नाक्षत्र। इति । शृङ्गोन्नतिसाधनार्थ दृश्यकाले सूर्यचन्द्रौ साध्याविति ज्ञापनार्थं चन्द्रस्य नित्योदयास्तावुक्तावन्येषां ग्रहनक्षत्रादीनां प्रयोजनाभावादनुक्तौ चंद्रोपलक्षणादुक्तौ * वा तत्र शुक्लकृष्णपक्षविवेको नेति ध्येयम् ॥ ५ ॥
मा० टी०-तितकालकी स्वमत्स्यरेखागत- चन्द्रच्छाया कर्णको ऊपर कहेहुए फलते गुणाकरे | गुणनफल दक्षिण होनेपर द्वादशगुणित अक्षज्या में योग और उत्तर होनेपर वियोग करना चाहिये ॥ ५ ॥
अथ प्रकृतं विवक्षुः प्रथमं तदुपयुक्तभुजकोटिकर्णात्मकं क्षेत्र श्लोकत्रयेणाह - अकेन्द्रोः कान्तिविश्लेषो दिक्प्ताम्ये युतिरन्यथा तज्ज्येन्दुर कांद्यास विज्ञेया दक्षिणोत्तरा ॥ ६ मध्याह्ने दुप्रभाकर्णसंगुणा यदि सोत्तरा ॥
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(१६६) सूर्यासद्धान्तः
[ दशमोऽतदानाक्षजीवायां शोध्या योज्या च दक्षिणा ॥ ७॥ शेष लम्बज्यया भक्तं लन्धो बाहुः स्वदिङ्मुखः॥
कोटिः शंकुस्तयोवंर्गयुतेर्मूलं श्रुतिभवेत् ॥ ८॥ सूर्यचन्द्रयोः स्पष्टकान्त्योदिंगैक्येऽन्तरम् । अन्यथा दिग्भेदे योगः । अत्र क्रान्तिशब्दः क्रांतिज्यापरो ज्ञेयः । उपपत्त्यविरोधात् । तज्ज्या साचासौ ज्या च संस्कारसिद्धाङ्कमिता ज्येत्यर्थः । अर्काचन्द्रो यत्र यस्यां दिशि तद्दिक्का दक्षिणोत्तरावासौ ज्या ज्ञेया । एकदिशि रविक्रांन्तितश्चन्द्रकान्तेरधिकत्वे सूर्याचन्द्रस्य क्रांन्तिदिक्स्थ. खेन ज्याक्रान्तिदिक् । उनत्वेऽर्काक्रांतिदिग्विपरीतदिक्स्थत्वेन क्रांतिभिन्नदिक् । भिन्नदिशि चन्द्रकांतिदिग्ज्या ज्ञेयेत्यर्थः । सा ज्या मध्याह्नेन्दुप्रभाकर्णसंगुणा यत्काले चन्द्रशृंगोन्नत्यर्थ साधितस्तत्काले मध्याह्नच्छायाकर्णवच्छायाकर्णश्चन्द्रस्य साध्यः । सत्वक्षांशचन्द्रस्पष्टक्रान्त्योरुत्तरदिशि वियोगो दक्षिणदिशि योगस्तदूननवत्यंशज्यया भक्ता द्वादशगुणितत्रिज्येति । उपपत्त्यनुरोधेन तु मध्याह्नपदं तत्कालपरम् । यत्काले चन्द्रस्तत्काले चन्द्रस्य ागतं दिनशेष वा प्रसाध्य त्रिप्रश्नाधिकारविधिना शंकुं प्रसाध्य च्छायाकर्णः साध्यः । अहोऽहोरात्रस्य मध्यं सूर्यास्तस्तत्कालिकः चन्द्रस्य च्छायाकर्णो वाऽयमेव भगवदभिप्रेतः । कथमन्यथा चन्द्रस्य शृंगोन्नती दृकर्मद्वयसंस्कारः शृंगोन्नती शशाङ्कस्यति प्रागुक्तः संगच्छते । दिनार्धातिरिक्तच्छाया साधनार्थमेव दृकमणोरुपयोगादन्यत्र शृंगोन्नतिगणित उपयोगाभावात् । स्पष्टकान्त्यैव च्छायाकर्णसिद्धेः । अत्रापि श्लोकपूर्वार्धोक्तमेवाक्षटकर्मसंस्कार्यम् । । तेन च्छायाकर्णेन गुणितेत्यर्थः । सा तादृशी ज्या यद्युत्तरा तदा द्वादशगुणितायामक्षज्यायां शोध्यान्तरिता । तेन द्वादशगुणिताक्षज्याधिका तादृशी ज्या । तदापि विपरीतशोधने न क्षतिः । यदि दक्षिणा तदा तस्यामेव युक्ता कार्या । चो व्यवस्थार्थकः । शेषे संस्कार स्वदेशलम्बज्यया भक्तं फलं भुजः प्राप्तः । स्वदिङ्मुखः स्वशब्देन संस्कारस्तस्य दिक्तस्यां मुखमग्रं यस्यासौ । संस्कारादिक इत्यर्थः । भुजस्य कोटिकर्णसोपेक्षत्वात्तावाह-कोटिरति । शंकुर्दादशांगुलः कोटिः । तयोर्भुजकोटयोर्गयोर्योगात्पदं कर्णः स्यात् । अत्रोपपत्तिः । “स्वानास्वशंकुतलयोः समभिन्नदिक्त्वे योगोन्तरं भवति दोरिनचन्द्रदोष्णोः । तुल्यांशयोविवरमन्यदिशोस्तु योगः स्पष्टो भुजो भवति चन्द्रभुजांश इन्दोः ॥ शुद्धे भुजे रविभुजाविपरीतदिक्कः ॥” इति सूक्ष्मभुजसाधनं भास्कराचार्येण सिद्धान्तशिरोमणा. वुक्तम् । तदुपपत्तिस्तु तट्टीकायां व्यक्ता । अनया रीत्या भुजसाधनाथ क्रांतिज्ययोरगे साध्ये । लम्बज्याकोटौ त्रिज्याकर्णस्तदाक्रांतिज्याकोटौ कः कर्ण इत्यनुपातेन । तत्स्वरूपं तु प्रत्येकं सूर्यचन्द्रयोः सूर्यक्रांतिज्यात्रिज्यागुणालम्बज्याभक्ता सू.कां.ज्या त्रि११
लं
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ध्यायः १० J
( १६७)
संस्कृत का भाषाकासमेतः । चन्द्रस्पष्टक्रांतिज्यात्रिज्यागुणालबया भक्ता ) चं. कां. ज्या. त्रि. १ ) अनयोः स्वं स्वी लं. १ ।
शंकुतलं संस्कार्यम् । तत्र शृंगोन्नत्यर्थं सूर्येण भगवता सूर्योदयास्तकालिकगणितस्योंवाभ्युपगमात् । तत्र सूर्यशंकोरभावात्तच्छंकुतलाभावाच्च सूर्यायैव सूर्यभुजः सिद्धः चन्द्रस्य तु तदा शंकोः सद्भावाच्छंकुतलमुत्पद्यते तत्तु लम्बज्याकोटावक्षज्याभुजस्तद शंकुकोटीको भुज इत्यनुपातेन तात्कालिकचन्द्रोन्नतोन्नतकाल साधितत्रिप्रश्नाधिकारोक्तचन्द्रमहाशं कुगुणिताक्षज्यालम्बज्याभति दक्षिणमेव शंकुतलस्वरूपम् अक्षज्या. चं. शं. १ ( इदं चन्द्रदक्षिणाग्रायां योज्यम् । चन्द्रस्य दक्षिणो भुजः लं. १
चन्द्रेोत्तरायायां तु हीनचन्द्रस्योत्तरो भुजः । चन्द्रोत्तरात्रया हीनमिदं चन्द्रस्य दक्षिण भुजः । यथा दक्षिणो भुजः ) चं. कां. ज्या त्रि. अक्षज्या. चं. शं. १ ( वा ) चं. कां. ज्यालं १ ऽ ।
{चं
{चं-क
त्रि. १ अक्षज्या. नं. शं १ ( उत्तरोभुजः चं. कां. ज्या नत्र. १ अक्षज्या. चं. शं. १ ( अ लं १९ लं १९ चन्द्रभुजः सूर्यायैकदिश्यंतरितो भिन्नदिशि युक्तः स्पष्टः शृंगोन्नत्युपयुक्तो भुजः ॥ यथा सूर्यस्य दक्षिणगोले ) सू.कां. ज्य. त्रि• १ चं. कां. ज्या. त्रि. १ अक्षज्या. चं. श. १८ ३. १८५
{{
{
सू. कां. ज्या• त्रि. १चं. कां. ज्या. त्रि. १ अक्षज्या. चं. शं. १ ( इदं भुजद्वयं स्पष्टये लं. १९
भुजो भवति चन्द्रभुजांश इत्युक्तेर्दक्षिणम् । सूर्यभुजस्य न्यूनत्वेन शोधयात् । सूर्यभुजस्याधिकत्वे तु ) सू- क्रां。ज्या. त्रि.१चं. क्रां. ज्या. त्रि१ अक्षज्या. चं. शं. १ ( ) सू. क्रां. ज्या लं. १९ । त्रि.१चं.क्रां。ज्या.त्रि.१अक्षज्या. चं. शं १ ( इदं भुजद्रयमुत्तरम् । इन्दोः शुद्धे भुजे रविलं १९
{
जाद्विपरीतदिक्क इत्युक्तेः । योगेतूत्तरो भुजः ) सू. कां. ज्या. त्रि.१ चं. क्रां. ज्या. त्रि. १. अक्ष
ज्या. च.शं१ (सूर्योत्तरगोलेऽपि (सु. क्रां. ज्या. त्रि. ९चं. कां. ज्या. त्रि१ अक्षज्या, चं. शं१ १ लं १६
लं१
{स-क्रां॰ज्या.
सू.कां. ज्या. त्रि. १चं. कां ज्या. त्रि १ अक्षज्या. चं. शं १ ( इदं भुजद्वयं दक्षिणम्। अन्तरे तु सुलं १९
यभुजस्य न्यूनत्व उत्तरो भुजः)सू. क्रां. ज्या. त्रि.१चं. कां. ज्या त्रि. १ अक्षज्या. चं. शं १
लं १९
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(१६८) सूर्यसिद्धान्तः
[ दशमोऽसूर्यभुजस्याधिकत्वे तु सूर्यक्रां-ज्या-त्रि १.चं.कां. ज्या. त्रि. १ अक्षज्या. चं. शं. ११
दक्षिणोऽयं भुजः । इन्दोः शुद्धे भुज इत्युक्तत्वात् । अत्र नवसु पक्षेषु प्रथमपक्ष सूर्यचन्द्रक्रान्तिज्ययोरेकदिशयोरन्तरं त्रिज्यागुणितंः तत्सूर्यक्रान्तिसम्बद्धं चेत्तेनोनाक्षज्येन्दुशंकुघातो लम्बज्यामक्त इति । चंद्रक्रान्तिसम्बद्धं चेत्तेन युतस्तद्घातो लम्बज्याभक्त इति सिद्धम् । तत्राक्षांशानां दक्षिणत्वेनैकदिाश योगार्थ चन्द्रशेषे दक्षिणत्वं सूर्यशेषे उत्तरत्वं भिन्नादिशि वियोगाथै कल्पितम् । युक्तं चैतत् । सूर्यकान्त्यधिकत्वे सूर्याचान्द्रस्योत्तरत्वात् । शृंगोन्नतौ चन्द्रस्येव प्राधान्याच्च । द्वितीयपक्षे क्रान्तिज्ययोमि नादिशयोोंगेन तादृशेन तद्धातमूनं कृत्वा लम्बयया भजदित्यत्रापि योगस्याग्रऽ. न्तरार्थमुत्तरदिक्त्वं चन्द्रकान्तरुत्तरत्वेन दक्षिणस्थसूर्याचन्द्रस्य सुतरामुत्तरत्वाच्च । तृती. यपक्षे क्रान्तिज्ययोरेकदिशयोरन्तरे सूर्यसंबद्ध एव तादृशे तदध उन इति वियोगार्थमन्तरस्योत्तरदिक्त्वम् । द्वयोदक्षिणगोलस्थत्वेऽप्यधिकसूर्यान्यूनचन्द्रस्योत्तरत्वात् । चतुर्थपक्षे भिन्नदिशयोः क्रान्तिज्ययोर्योगे तादृशे तद्ध उन इति वियोगार्थ योगस्योत्तरदिक्त्वम् । चन्द्रस्योत्तरदिक्स्थत्वात् । पञ्चमपक्षे तु चतुर्थपक्षोक्तं तुल्यत्वात् । षष्ठपक्षे कान्तिज्ययोभिन्नदिशयोोगो दक्षिणस्तधे योगार्थ चन्द्रस्य दक्षिणगोलस्थत्वात् । सप्तमपक्षे क्रान्तिज्ययोरेकदिशयोरन्तरं सूर्यसम्बद्धं तदा तद्वधे योज्यमित्यन्तर दक्षिणम । द्वयोरुत्तरगोलस्थत्वेऽपि चन्द्रस्य न्यूनत्वेनार्काद्दक्षिणस्थत्वात् । अधिकत्वे तूत्तरं तद्वधे हीनमिति । अष्टमपक्षे क्रान्तिज्ययोरेकदिशयारेन्तरे चन्द्रसम्बद्ध उत्तरे तद्वध ऊनः । चन्द्रस्याधिकत्वेनोत्तरस्थत्वात् । अन्त्यपक्षे तु समदिशयोः क्रांति. ज्ययोरन्तरं सूर्यसम्बद्धं तद्वधे योज्यमिति दक्षिणम् । चन्द्रस्य न्यूनत्वेन दक्षिणस्थवादित्युपपन्नं प्रथमश्लोकोक्तम् । अत्र केनचित् कान्तिशब्देन चापात्मकक्रान्ती गृहीत्वा तत्संस्कारः कृतस्तस्य ज्या कार्येति व्याख्यातम् । तदुपपत्तिविरुद्धम् । नहि भुजसाथने चापात्मकक्रान्ती प्रयोजकत्वेनोपपन्ने । येन व्याख्योक्ता युक्ता । नवा क्रांतिज्यायोगवियोगाभ्यां. चापात्मकक्रान्तियोगवियोगयोये तुल्ये येनोक्तं संगतं स्यात् । अन्यथाक्षांशकान्त्यंशसंस्कारांशज्यां विनापि क्रान्तिज्याक्षज्ययोः संस्कारण नतांशज्यायाः साधनापत्तरिति दिक् । अथायं भुजस्त्रिज्यावृत्त इति लाघवात्तात्कालिके चन्द्रच्छायाकर्णमितवृत्ते स्वेच्छया साधितस्त्रिज्यावृनेऽयं भुजस्तदा चन्द्रच्छायाकर्णवृत्ते कइत्यनुपाते तेन क्रान्तिज्ययोः संस्कारमितमायं खण्डं चन्द्रच्छायाकर्णगुणामति सिद्धम् । त्रिज्यामितपूर्वगुणस्येदानीन्तनत्रिज्यामितहरस्य तुल्यत्वेन यो शाच । अथापरखण्डं चन्द्रशवक्षज्याघातात्मकं चन्द्रच्छायाकर्णगुणं त्रिज्याभक्तं कार्यम् । तत्र त्रिज्याद्वादशवातस्य चन्द्रशंकुभक्तस्य छायाकर्णत्वाच्छङ्कत्रिज्यामितयोगुणहरयोः प्रत्यकें नाशादक्षज्याद्वादशगुणेत्यपरं खण्डं सिद्धम् । द्वयारेकादीश योगो भिन्न
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ध्यायः १०.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१६९) दिश्यन्तरमिति संस्कारो लम्बज्याभक्तो भुजः संस्कारदिकः सिद्धः । शंकुः कोटिरिति चन्द्रच्छाया कर्णवृत्ते भुजसाधनात् । तदृत्ते कोटिरपि साध्या । सातु नियता द्वादश । नियतकोटयर्थमेव भुजश्चन्द्रच्छायाकर्णवृत्ते साधितः सूर्योदयास्तयोः मूर्यशंकारभावात्सूर्यशंकुसंस्काराभावः । तदितरकाल उक्तक्रियया न निर्वाहः । कोटिभुजयोर्वर्गयोगान्मूलं कर्ण इत्युपपन्नं मध्याह्नत्यादि श्लोकद्धयोक्तम् ॥ ६ ॥७॥८॥
भा० टी०-यह शेषलब्धफल लंबज्यासे भाग करनेपर स्वदिग्सूचक बाहु होगा ! चंद्रमाके शंकुको कोटिज्ञानकरके दोनका वर्गयोग करके मूल करनेसे कर्ण होगा ॥६॥७॥८॥ अथ शुक्लानयनमाह
सूर्योनशीतगोर्लिप्ताः शुकुं नवशतादृताः॥
चन्द्रबिम्बाङ्गुलाभ्यस्तहृतं द्वादशभिः स्फुटम् ॥९॥ सूर्यानितचन्द्रस्य कला नवशतभक्ताः फलं शुक्लम् । तच्चन्द्रग्रहणाधिकारोक्तमका रेणागतचन्द्रबिम्बाङ्गुलैगुणित द्वादशभिर्भक्तं फलं स्फुटं शुक्लं स्यात् । अत्रोपपत्तिः । दान्ते सूर्यचन्द्रयोरन्तराभावादस्मदृश्यार्धे चन्द्रगोले सूर्यकिरणप्रतिफलनामावाच्छौ. क्ल्याभावः । ततो यथायथाकच्चिन्द्रः पूर्वतोऽन्तरितस्तथातथा चन्द्रगालास्मदृश्याध चन्द्रपश्चिमभागकमेण शौक्ल्यवृद्धिः । एवं षडाश्यन्तरे पौर्णमास्यन्ते चन्द्रगोलास्मह. श्याधं सम्पूर्ण श्वेतं भवति । इतः षड्राशिकलाभिः खखाष्टादम्भिादशाङ्गुलव्यासबिम्बं श्वेतं तदेष्टेन सूर्योनचन्द्रकलागणेन किमित्यनुपाते प्रमाणफलयोः फलापवत्ते. नंन प्रमाणस्थान नवशतम् । अतः सूर्योनचन्द्रस्य कला नवशतभक्ताः शक्लियामद द्वादशांगुलव्यासप्रमाणेन सिद्धम् । अतो द्वादशांगुलप्रमाणेनेदं तदाभिमतचन्द्रबिम्बागुलव्यासप्रमाणेन किमित्यनुपातेनोक्तमुपपन्नम् । अनेन प्रकारेण त्रिभान्तर चन्द्रगालास्मदृश्यार्धमधै श्वेतं भवतीति सिद्धम् । भास्कराचार्यैस्तु “कक्षाचतुर्थस्तरणहिँ चन्द्रः कर्णान्तरे तिर्यगिनो यतोऽब्जात् । पादोनषटकाष्टलवान्तरेऽतो दलं नृदृश्य दलमस्य शुक्लम् ॥” इति शृंगोन्नतिवासनायामुक्तम् । शृंगोन्नत्यधिकारे । “ चन्द्रस्य यो. जनमयश्रवणेन निघ्रो व्यन्दुदोर्गुण इनश्रवणेन भकः। तत्कार्मुकेण सहितः खल्लु शुक्लपक्षे कृष्णोऽमुना विरहितः शशभृद्विधेयः ॥” इति तदभिप्रेतश्वेतानयनोपयुक्त श्चन्द्रः साधित इत्यलम् ॥ ९ ॥
भाटी-चंद्रमासे सूर्यको अलग करके कला करता हुआ ९०० से भाग करनेपर शुक्लांश होगा। चन्द्रविम्बांगुलीसे गुणकरके १२ से भाग करनेपर स्फुट शुक्ल होगा ॥ ९॥ अथ श्लोकचतुष्टयेन शृंगोन्नतिपरिलेखमाह
दत्त्वार्कसंज्ञितं बिन्दु ततो बाहुं स्वादिङ्मुखम् ॥ ततः पश्चान्मुखी काटि कर्ण कोटयग्रमध्यगम् ॥ १०॥
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( १७०) सूय्यसिद्धान्तः
[ दशमोऽकोटिकर्णयुताद्विन्दोबिम्ब तात्कालिकं लिखेत् ॥ कर्णसूत्रण दिसिद्धिं प्रथमं परिकल्पयेत् ॥ १३ ॥ शुक्ले कर्णेन तादम्बयोगादन्तर्मुखं नयेत् ॥ शुक्लाग्रयाम्योत्तरयामध्ये मत्स्यौ प्रसाधयेत् ॥ १२॥ तन्मध्यसूत्रसंयोगाद्विन्दुत्रिस्पृग्लिखेद्धनुः ॥
प्राग्निम्बं याहगेव स्यात्ताहक्तत्र दिने शशी ॥ १३ ॥ समभूमावभीष्टस्थाने दिक्साधनं कृत्वा पूर्वापरा दक्षिणोत्तरा च रेखा कार्याः । तत्र दिक्सम्पातेऽर्कसज्ञितमर्कसञ्ज्ञा सञ्जाता यस्येत्येतादृशमर्कसझं बिन्दु चिह्नं दत्त्वा कृत्वेत्यर्थः । ततो बिन्दोः सकाशाद्ध पूर्वसाधितं स्वादेङ्मुखं स्वदिशा दक्षिणोत्तग़न्यतरातदभिमुखं दत्त्वा भुजांगुलानि गणयित्वा चिह्नं कृत्वा ततो भुजाग्रचिह्नात्पश्चान्मुखी पश्चिमदिक्समसूत्राभिमुखाग्रां कोटि द्वादशांगुलात्मिकां दत्त्वा कर्ण पूर्वसाधितं कोट्यामध्यगकोट्यग्रचित्रं मध्यं सूर्यसचिह्न तयोर्गतं स्पृष्टम् । तदन्तगले कर्णागुलानि दत्त्वेत्यर्थः । कोटिकर्णरेखासंयोग मध्यं प्रकल्प्य तात्कालिकं सूर्यास्तोदयकालिकं चन्द्रस्य साधितं मण्डलं लिखेत् । तत्र लिखितचन्द्रोवम्बे कर्णसूत्रेण कर्णरेखया प्रथममादौ दिक्सिद्धिं दिशानिष्पत्तिं परिकल्पयेत् कुर्यात् । चन्द्रमण्डलं कर्णरेखायां यत्र लग्नं वत्र चन्द्रवृत्ते पूर्वा । कर्णरेखां स्वमार्गेणाग्रे निःसार्य चन्द्रवृत्तपरिधौ यत्र कर्णरेखापरमागे लग्ना तत्र पश्चिमा। तन्मास्याभ्यां रेखा दक्षिणोत्तरा चन्द्रवृत्ते यत्र लग्ना तत्र दक्षिणोत्तरोत फलितार्थः । शुक्ल पूर्वसाधितं कर्णेन कर्णरेखामार्गेण तद्विम्बयोगात्कर्णरेख चन्द्रमण्डलपरिध्योः सम्पातादपूर्वात् । अन्तर्मुखं चन्द्रवृत्तकेन्द्राभिमु नयेत् शुक्लाग्रचिह्नं कुर्यात् । चन्द्रवृत्तान्तः कर्णरखायां पश्चिमचिह्नाच्छुक्लांगुलानि गणयित्वा कुर्यदित्यर्थः । शुक्लाग्रयाम्योत्तरयोश्चन्द्रवृत्तान्तर्यत्र शुक्लाग्रीचनं यत्र च चन्द्रवृत्तपरिधी दक्षिणोत्तरयोश्चिद्रं त्योरित्यर्थः । मध्येऽन्तराले मत्स्यौ प्रत्येकं साधयेत् । शुक्लाग्रदक्षिणचिह्नाभ्यां मत्स्यशुक्लायोत्तचिह्नाम्यां मत्स्यश्चेति पूर्णोक्तरीत्या मत्स्यौ कुर्यादित्यर्थः । तन्मध्यसूत्रसंयोगात् । तयोर्मत्स्ययामध्यसूत्रं मुखपुच्छस्पृग्गर्भसूत्रं प्रत्येकं तयोर्यत्र च. न्द्रमण्डलान्तस्तद्वहिर्वा कद्रशुक्लाग्रस्य पश्चिमत्वे पूर्वभागे संयोगः । पूर्वत्वे पश्चिमभागे संयोगः । स्वस्वमार्गेण प्रसारितयोस्तयोः सम्पातस्तस्मात्स्थानात् । बिन्दुत्रिस्पृक् शुक्लायविन्दुर्याम्योत्तरयोश्चिह्नवि दुरिति विन्दुत्रितयस्पर्शिधनुर्वृत्तैकदेशात्मकं लिखेत् । मुत्रसम्पातशुक्लाबन्दन्तरालांगुलव्यासाधेन सम्पातस्थानाद्धिन्दुत्रयस्पष्टवृत्तपरिध्येव देशात्मक. चन्द्रमण्डल.न्तश्चापं कुर्यादित्यर्थः । प्राक्पूर्वकाले लिखितं चन्द्रबिम्बम् । याक् । लिखितचापच्छदेन यादृशं पश्चिमभागे भवति तादृशः। एवकारस्तदि
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ध्यायः १० ]
संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः ।'
( १७१ ) न्ननिरासार्थकः । तस्मिन् दिने । शृंगोन्नतिगणिताश्रयीभूतसन्ध्यासमये चन्द्र आकाशस्थो भवति । अत्रोपपत्तिः । भुजस्तु सूर्याच्चन्द्रे यावतान्तरेण तद्रूप इति सूर्यस्थानं प्रकल्प्य तस्माद्यथादिग्भुजो देयस्तस्माच्छुक्लपक्षे पश्चिमदिक्स्थस्य चन्द्रस्य शृंगोनतिर्भवतीति सूर्यचन्द्रयोरुदीधरान्तरं कोटिर्दत्ता । सूर्यचन्द्रयोरन्तरं तियकर्ण इति कोटयप्रसूर्यबिम्बान्तराले कणी दत्तः । कर्णदानं कोटे: सरलत्वसिद्धयर्थम् । तत्र कोटिकर्णयोगे चन्द्रावस्थानाच्चन्द्रवृत्तं तन्मध्यत्वेन लिखितम् । कर्णमार्गेण शुक्लदर्शनाचन्द्रबिम्बे कर्णसूत्रानुरुद्धा पूर्वापरा तदनुरुद्धा दक्षिणोत्तरा च । शुक्लपक्षे चन्द्रपश्चिमभागेऽर्काभिमुखत्वेन शौक्यात्पश्चिमस्थानात्कर्णरेखा यां चन्द्रट्टत्तान्तः श्वेतं दत्तम् । तत्र चन्द्रमण्डले याम्योत्तरचिह्नावधिकवृत्तैकदेशरूपं धनुः शुक्लाग्रविन्दुस्पृष्टं चन्द्राकृ तिदर्शनार्थं कार्यम् । अतो बिन्दुत्रयस्पृग्वृत्तस्य केन्द्रज्ञानार्थं प्रागुक्तरीत्या बिन्दुत्रये - भ्यो मत्स्यौ प्रसाध्य तत्सूत्रयुतिः केन्द्रमस्माच्चापं तथैव भवतीति चन्द्राकृतिः प्रत्यक्षा॥ ॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥
मा०टी० - अर्कसंज्ञक बिन्दु अंकित करके अपनी दिशा के अनुसार बाहुपरिमाणकी रेखा खँचे । रेखा के अग्रभाग में पश्चिम मुखगामी कोटो के परिमाणस रेखा खँचे । कोटिके असे मध्यविन्दुककी रेखाही कर्ण होगी । जिस बिन्दुमें कोटि और कर्ष लगा है तिसके चारों ओर बिम्ब के अनुसार वृत्तखच । कर्णसूत्र जिस दिशा में हो, वह दिशाही पूर्व समझले । जहाँ बिम्बवृत्त और कर्णरेखाका संयोग है, उस स्थान से बिम्बमध्याभिमुख में कर्णरेखा के ऊपर शुक्ल परिमित दूरपर बिन्दुस्थापन करे । वह बिन्दु और बिम्बोत्तर बिन्दु और वह बिंदु और बिंब दक्षिण बिन्दुमध्य में दो मत्स्य बनाकर तिनके मुख व पूछसे निकली हुई रेखा के संयोगको केंद्र करता हुआ त्रिबिन्दु स्पृकध रचना करे । पूर्वकाल में चन्द्रबिंब जैसाही उस दिन वैसाही चंद्रमा दिखाई देगा ॥ १० ॥ ११ ॥ १२ ॥ १३ ॥ ननु यदर्थमयमुद्योगस्तस्याः शृङ्गोन्नतेर्ज्ञानं नोक्तमत आहकोट्या दिसाधनात्तिर्यक्त्रान्ते शृङ्गमुन्नतम् ॥ दर्शयेदुन्नतां कोटिं कृत्वा चन्द्रस्य सा कृतिः ॥ १४ ॥
कोया कोटिररेखया चन्द्रवृत्ते कर्णरेखावदिक साधनात्पारिलेखे शुक्लधनुषः कोटिम + प्रभागात्मिकमुन्नतमुच्चां कृत्वा दृष्ट्ा । तिर्यक्सूत्रान्ते दक्षिणोत्तररखाया अन्ते व्यवसाने | उन्नतमुच्चं शृङ्ग दर्शयेत् । सा परिलेखसिद्धा । आकृतिः स्वरूपम् । चन्दम्य आकाशस्थचन्द्रस्य भवति परिलेख सिद्धरूपमाकाशस्थचन्द्रप्रत्यक्षमि त्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । यथा चन्द्रवृत्ते कर्णरेखया चन्द्रादिशस्तथा कोटिरेखया चन्द्रवृत्ते सूर्यदिशस्तयोरन्तरं भुजचन्द्रवृत्तपरिणतः । अथ चन्द्रदक्षिणोत्तर योर्धनुष्यकोट्योः संलग्नत्वात्सूर्यदाक्षिणोत्तराभ्यां कोटिरूपशृङ्गेण नतोन्नते भवतस्तत्र भुजदिक्कं
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( १७२ )
सूय्यासद्धान्तः-
[ दशमोऽध्यायः ]
शृङ्गं नतम् । तदितरदिकं शृङ्गमुन्नतम् | area भास्कराचार्यैरुक्तम् 'स्यात्तुङ्गभृंगं “वलनान्यदिक्स्थम् ' इति ॥ १४ ॥
भा० टी० - कोटी से दिसाधन करके दक्षिणोत्तर तिर्यक सूत्र के शेषभाग में चन्द्रमाका ऊंचा रंग दिखाने । सोही आकाशके चन्द्रमाका आकार है ॥ १४ ॥ - ननु सूर्योनचन्द्रस्य षड्भादिकत्व उक्तप्रकारेण चन्द्रविम्बाभ्यधिकं शुक्लमायाति तत्कथं युक्तं व्याघातादित्यतस्तदुत्तरं विशेषं चाह --
कृष्णे षड्भयुतं सूर्य विशोध्येन्दोस्तथासितम् ॥ दद्याद्वामं भुजं तत्र पश्चिमं मण्डलं विधोः ॥ १५ ॥
कृष्णपक्षे षड्ाशिभिः सहितमर्के चन्द्राद्विशोध्य । तथा लिप्ता नवशतभक्ता इति पूर्वप्रकारेण असितं श्याममानयम् । तथा च पूर्वोक्तं शुक्लानयनं शुक्लपक्ष एव चन्द्रशौ क्ल्यवृद्धिज्ञानार्थम् । कृष्णपक्षे तु शौक्ल्यह्रासात्कृष्णतावृद्धेः कृष्णानयनं युक्तं न शुक्लानयनम् । अतएव दर्शान्तमासस्य शुक्लकृष्णौ द्वौ पक्षाविति भावः । अथ कृष्णपरिलेखार्थ पूर्वोक्ते विशेषमाह - दद्यादिति । तत्र कृष्णपरिलेखाविषये वाम विपरतिं भुजं प्रागुक्तं दद्यात् । अर्कचिह्नादुत्तरं भुजं दक्षिणतो दक्षिणं भुजमुत्तरतो गणको दद्यात् । चन्द्रस्य मण्डलं पश्चिम दर्शयेत् । यथा शुक्लपक्षे चन्द्रमण्डलस्य पश्चिमभागे शौक्लयं तथा कृष्णपक्षे चन्द्रमण्डलस्य पश्चिमभागे कृष्णा भिवृद्धिं दर्शयेोदित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । कृष्णपक्षारम्भे सूर्यचन्द्रयोः षड्ाश्यन्तरम् । ततः षड्ाशिपर्यन्तं कृष्णाभिवृद्धिः । अतः पड्ाशियुतसूर्येण वर्जितचन्द्रात्पूर्वप्रकारेण कृष्णानयनं युक्तम् । अथ शुक्लशृङ्गं यत्र नतं तत्र कृष्णशृंगमुन्नतं यत्र चोन्नतं तत्र नतम् । अतः कृष्णपरिलेखार्थ भुजो विपरीतो देयः । तदपि कृष्णं पश्चिमभागादेवाभिवृद्धम् । अतः कणर खायां चन्द्रबिम्बान्तः पश्चिमस्थानाद्देयम् । ततः प्राग्वत्कृष्णशृङ्गोन्नतिरिति ॥ १५॥
मा० टी०-कृष्णपक्ष में चन्द्रस्पष्टसे ६ राशियुक्त सूर्य अलग करके : शुककी नाई अमित निर्णय करे राहुकी दिशा को बदलकर चन्द्रमण्डलको पश्चिम और असित दिखावे ॥ १५ ॥ अथाग्रिमग्रन्थस्यासंतित्वनिरासार्थमधिकारसमाप्तिं फक्किक्कयाह – चन्द्रोदयास्तयोः शृंगोन्नतिविषयत्वेनोक्तत्वादस्यामेवान्तर्भावो न स्वतन्त्राधिकारत्वमन्यथा ग्रहोदयास्ताधिकारे तदुक्त्यापत्तेः । एतेन चन्द्रोदयास्तयोः पौर्णमास्यधिकारत्वं पर्वतात निरस्तम् । तत्संज्ञायां प्रमाणाभावादन्यथामावास्याधिकारत्वस्यैव सुवचत्वापत्तेोरिति ध्येयम् ॥ रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धांतापणे ॥ शृङ्गेोन्नत्याधिकारोऽयं पूर्णो गूढप्रकाश ॥ इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबला लंदैवज्ञात्मजरंगनाथगणकावरचिते गूढार्थ - प्रकाशके शृङ्गेोन्नत्यधिकारः संपूर्णः ॥ १० ॥
इति शृङ्गोन्नत्यधिकारः ॥
दशवां अध्याय समाप्त 1
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अन्यायः ९१. ] संस्कृतटीका - भाषाकासमेत: 1
एकादशोऽध्यायः ।
अथ पाताध्यायो व्याख्यायते । तत्र भेदद्वयात्मक पातस्य सम्भवं विवक्षुः प्रथमः वैधृतसंज्ञापातस्य सम्भवमाह
( १७३ )
एकायनगतौ स्यातां सूर्याचन्द्रमसौ यदा ॥ तद्युतो मण्डले क्रान्त्योस्तुल्यत्वे वैधृताभिधः ॥ १ ॥
सूर्यचन्द्र "सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्" इतिश्रुत्युक्तप्रयोगः । एकायनगतौ । अभिन्नदक्षिणोत्तरान्यतरायनस्थौ भवतस्तत्र यदा यस्मिन् काले तद्युतौ सूर्यचन्द्रयोर्भाद्योयोगे मण्डले द्वादशराशिमिते सति तदा तयोः क्रान्त्योः समत्वे महापातरूपे वैधृतसंज्ञः पातो भवति ॥ १ ॥
आ०टी० - सूर्य और चन्द्रमा जब एक अयनमें होते हैं और दोनोंका स्पष्ट योग १२ राशिके प्रमाणका होता है और क्रान्तिकी समता होती है, तब वैधृतिपात होता है ॥ १ ॥ अथ व्यतीपातसंज्ञपातस्य सम्भवमाह
वीपरीतायनगतौ चन्द्रार्कौ क्रान्तिलिप्तिकाः ॥ समास्तद्वा व्यतीपातो भगणार्धे तयोर्युतौ ॥ २ ॥
चन्द्रार्कौ विपरीतायनगतौ भिन्नायनस्थौ भवतस्तत्र यदा तयोः सूर्यचन्द्रयोर्भाद्योयोगे भगणार्धे राशिषट्के सति तयोः क्रान्तिकलास्तुल्या भवन्ति तदा तस्मिन् काले व्यतीपातसंज्ञकः पातो भवति । अत्रोपपत्तिः । समक्रान्तिकालो महापातकालः । तत्र स्पष्टकान्त्योरतिवैलक्षण्योपचयापचय योर्नियमाभावाच्च समकालो दुर्लक्ष्य इति मध्यमक्रान्त्योः समत्वकालात्पूर्वमपरत्र वा शरवशेन शरसंस्कृतक्रान्तिसमत्वं भवतीति निश्चित्य वस्तु भूततत्कालज्ञानार्थैप्रथमं तदासन्नकालस्थमध्यमक्रांतितुल्यस्य ज्ञानमावश्यकं तत्तु सूर्यचन्द्रयोः क्रांतिसमत्वं भुजतुल्यत्वे सम्भवति भुजात्पन्नत्वात् । भुजसमत्वं सूर्यचन्द्रयोः षडराशिमितियोगे द्वादशराशिमितयोगे वा षड्राशिमितान्तरेऽन्तराभावे वा कुत एवमितिचेच्छृणु । तत्रान्तराभावे द्वयोस्तुल्यत्वेन भुजसाम्ये विवादाभावः । एवं षड्-. भान्तरेऽपीतरयोर्विषमपदस्थयोः समपदस्थयोर्वा क्रमेण पदगतैष्ययोस्तुल्ययोर्भुजत्वामित्यविवादः । षड्द्वादशराशियोगे तु तयोर्विषमसमपदस्थत्वात् क्रमेण तुल्यगतैष्यत्वेन भुजतुल्यत्वम् । रविगोलायनसन्धिस्ययोस्तु क्रांतिपरमभावत्व इति तत्रापि तदन्तरयोगयोः षडद्वादश श्योर्यथायोग्यसत्त्वात्क्रांतिसाम्यं सहजत एव । अत एकायनस्थयोभिन्नगोलस्थयोर्द्वादशराशियोग एकगोलायनस्थयोरन्तराभावे क्रांतिसाम्यम् । एवं भिन्नायनस्थयोरेकगोलस्थयोः षड्राशियोगे गोलभेदस्थयोः पराश्यन्तरे क्रांतिसाम्यमिति युतावित्युपलक्षणादन्तर इत्यपि ज्ञेयम् । नतु तद्युतौ मण्डले भगणार्धे तयोर्युता
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(१७४) सूर्यसिद्धान्तः
[एकादशोऽवित्युक्तेन क्रमेण गोलभेदैक्ययोरेन्तरनिरासार्थकोक्तिस्तत्रापि क्रांतिसाम्यत्वेनानिवार्य त्वात् । अत्रैकायनगताविति विपरीतायनगताविति च स्वरूपोक्तिरनावश्यकीति ध्येयम्। वस्तुतस्तु सूर्यचन्द्रयोदशमिते योगेऽन्तरे वा वैधृताख्यक्रांतिसाम्यम् । षड्ाशिमिते तयोर्योगेऽन्तरे वा व्यतीपाताख्यं क्रान्तिसाम्यमिति तात्पर्योक्तिः । अत एवाग्रे भास्करेन्दोरित्यायुक्तं युक्तमिति तत्त्वम् ॥ २॥ __ भाल्टी-विपरीत मयनमें गईहुई चन्द्रमा और सूर्यकी क्रांतिकला समान होनेपर और तिनका स्पष्ट योग ६ राशिके प्रमाणका होने पर व्यतीपात पात होता है ॥ २ ॥ ननु क्रांत्योः साम्ये कथं पातो भवतीत्यत आह
तुल्यांशुजालसंपर्कात्तयोस्तु प्रवहावृतः ॥
तहकूक्रोधभवो वह्निलोकाभावाय जायते ॥३॥ तयोश्चन्द्रसूर्ययोः। तुकारात्क्रांतिसाम्यकालिकयोः तुल्यांशुजालसम्पत्सिमकिरणानां जालं समूहस्तयोरन्योन्याभिमुखयोः सम्पर्कात् । एकीभावापन्नत्वात् । तादृक्क्रोधभवः सूर्यचन्द्रयोरन्योन्याभिमुखयोडेक्क्रोधो बिम्बकेन्द्रयोईग्रूपयोः क्रोधः परस्पराभिमुखेन दीयाधिक्यं तदुत्पन्नोऽग्निः प्रवहावृतः प्रवहवायुप्रज्वलितः । लोकाभावाय जनानामशुभफलाय जायते ॥ ३ ॥
भा०टी०-दोनोंकी किरणों मिलने से ग्रूप क्रोघसे उत्पन्न अग्नि प्रवह वायुद्वारा प्रज्वलित होकर मनुष्योंको अशुभ फल देता है ॥ ३ ॥ अथायं वहिर्व्यतीपाताख्यो वैधृताख्यो वेत्यत आह
विनाशयति पातोऽस्मिल्लोकानामस्कृयतः ॥
व्यतीपातःप्रसिद्धोऽयं संज्ञाभेदेन वैधृतिः ॥४॥ अस्मिन्क्रांतिसाम्यकाले । प्रसिद्धः पूर्वश्लोकोक्तस्वरूपः । पातो वह्निः । यतः कारणात् । असकृत्स्वसम्भवेन वारंदारम् । लोकानां विनाशयात नाशं करोति । अतः कारणादयं वद्भिर्व्यतीपात.संज्ञाऽयमेवाग्निः संज्ञामदेन नामान्तरेण वैधृतिसंज्ञः तथा चो. भयत्र पाताख्यो वह्निर्भवतीति भावः ॥ ४॥
भा० टी०-क्र न्ति साम्यकालमें सदा पातपति (अग्नि) लोगोंका नाश करती है इस कारण तिसको व्यतीपात कहते हैं, अथवा वैधृति संज्ञा होती है ॥ ४॥ अथ तत्स्वरूपमाह
स कृष्णो दाणवपुलोहितासो महोदरः॥
सर्वानिष्टकरा रौद्रा भूयाभूयः प्रजायते ॥ ५॥ स क्रांतिसाम्यकालोत्पन्न उभयसंज्ञकः पाताख्योऽमिपुरुषः कृष्णः श्यामः । दारुणवपुः कठिनगरीरः लोहिताक्षः आरत्त नेत्रः । महोदरः पृथूदरः । अतएव सर्वानिष्टकरः
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ध्यायः ११.] संस्कृतटकिा-भाषाटीकासषेतः। (१७५) सर्वलोकानामशुभकारकः । रौद्रः क्षयकारवः । भूयोभूयोऽनेकवारम् । प्रजायते प्रत्येक क्रांतिसाम्यकालः उत्पन्नो भवतीत्यर्थः ॥५॥ ___ भा० टी०-पीत, कृष्ण वर्ण, काठन शरीर, हाल नेत्र महोदर, सब लोगोंका भशुभ फरनेवाला, क्षयकारी और अनेकवार होता है ॥ ५॥
अथ स्पष्टकालज्ञानं विवक्षुः प्रथमं तादृशयोः सूर्यचन्द्रयोः सायनांशयोः क्रांतिसाध्ये इत्याह--
भास्करेन्द्रो चकान्तश्चाक्राविधिसंस्थयोः ॥
हतुल्यसाधितांशादियुक्तयोः स्वावपक्रमौ ॥ ६॥ सूर्यचन्द्रयोक्तुल्यसाधितांशादियुक्तयोः 'प्राश्चक्रं चलितं हीने छाया/त्करणागते' इत्यादिना दृग्गोवरीभूतं साधितमंशादिकं तेन संस्कृतयोरित्यर्थः । एतेन पूर्वसाधारणोक्तिराप स्पष्टीकृता क्रांत्योः सायनोत्पन्नत्वात् । भचक्रांतर्भचक्र द्वादशराशयस्तन्मध्ये संस्थयोः स्थितयोः ययोर्योगो द्वादशराशयस्तयोरित्यर्थः । चक्रावधिसंस्थयोः । चक्राधे राशिषदं तदवधि तदन्तः स्थितयोयय योगो गशिष, तयोरित्यर्थः। स्वौ स्वकीयौ । अपक्रमौ साध्यौ । सूर्यस्य क्रांतिः साध्या चंद्रस्य विक्षेपसंस्कृता क्रांतिः साध्येत्यर्थः ॥ ६॥ __ भा. टी-दृक् तुल्य साधित अंशादि-संस्कृत (अयनांश-संस्कृत ) चंद्रसूर्यका स्पष्ट योग जिस समयमें १२ में या ६ राशिके निकट होगा, तित समयके अपक्रम ( क्रान्ति) को निर्णय करना चाहिये ॥ ६ ॥
अथ साधितक्रान्तिभ्यां स्वकालात्स्पष्टपातकालरय गतैष्यत्वं विशेषं च श्लोकाभ्यामाह
अथोजपदगस्येन्दोः क्रान्तिविपसंस्कृना ॥ यदि स्यादधिका भानोः कान्तः पातो गतस्तदा ॥ ७॥ ऊआ चेत्स्यात्तदा भावी वाम युग्मपदस्य च ।। पदान्यत्वं विधाः क्रान्तिर्विक्षेपाच्चे द्रशुद्धयति ॥ ८॥ अथ सूर्यचन्द्रयोः कान्तिसाधनानन्तरम् । चद्रस्य विपमपदस्थस्य । विक्षेपसंस्कृत ता क्रान्तिः । स्पष्टक्रान्तिरित्यर्थ । यदि यहि । सूर्यस्य विषमसमान्यतरपदस्थस्य साधितकान्तेः सकाशादधिका स्यात् । तदा त है । पातः स्पष्टक्रान्तिसाग्यात्मकः । गतः । साधितक्रान्तिकालात्पूर्वकाले जात इत्यर्थः । चेद्यर्हि । सूर्यकान्तर्विषमपदस्थचन्द्रस्पष्टक्रान्तिदूंना भवति तदा तर्हि स्पष्टक्रान्तिसाम्यरूपपातः । भावी । साधितक्रान्तिकालादुत्तरकाले भवतीत्यर्थः । ननु विषमपदे चन्द्रो न भवति तदा गतैष्यत्वज्ञानं कथं स्यादतआह-वाममिति । युग्मपदस्य । समपदस्यचन्द्रस्येत्यर्थः ।
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( १७६ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ एकादशोऽचकारात्स्पष्टक्रान्तिः सुर्यक्रांतेः सकाशादधिकोना वा स्यात्तहत्यर्थः । वामम् । उक्त गतष्यक्रमेण वैपरीत्यम् । एष्यगतत्वं पातस्य भवतीत्यर्थः । अथ चन्द्रस्य विशेषमाह । पदान्यवमिति । चन्द्रस्य स्पष्टक्रांतिक्रियायाम् । चेद्या है | चंद्रस्य विक्षेपसंस्कृतकेवलक्रांतिर्विक्षेपाद्भिन्नदिक्काद्विशुध्यति हीना भवति । क्रान्तिवर्जितविक्षेपरूपास्पष्टक्रान्तिर्यदि स्यात्तदत्यर्थः । पदान्यत्वं राश्यादिचंद्रा धिष्ठितपदभिन्नपदस्थत्वं चन्द्रस्य ज्ञेयम् । सायनराश्यादिना समपदस्थस्य चन्द्रस्य विषमपदस्थत्वम् | साय नराश्या दिना विषमपदस्थस्य चन्द्रस्य समपदस्थत्वं तत्पदसम्बधात्स्पष्ट क्रान्तिर्ज्ञेयेत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । विषमपदे क्रांतिरुपचिता समपदेऽपचिता । अतः सूर्यकांतर्विषमपदस्थेंदुकान्तिरधिका तदाग्रे सुतरामधिकत्वाद्रविक्रान्त्युपचयस्याल्पत्वाच्च न्यूनया रविक्रान्त्या चंद्रकांतेः समत्वमग्रिमकाले न भवति । अतः पूर्वकाले चंद्रकांत न्यूनत्वाद्रविक्रांत्यपचयस्यान्यत्वाच्च तत्क्रांतिसाम्यं जातमित्यनुमितम् । एवं समपदस्थेन्दुक्रांतिरूना तदा सूर्यकांतेन्यूना तदाग्रे सुतरां न्यूनत्वात्तत्साम्याभावः । पूर्वं त्वधिकत्वात्तत्समत्वं जातमिति ज्ञातम् । यदा तु सूर्यकांतेर्विषमपदस्थे दुकान्त्याधिकत्वेन तत्क्रांतिसाध्यं भवति पूर्व न्यूनत्वे तदभावात् । एवं सूर्यकांतेः समपदस्येंदुकांतिरधिका तदा न्यूनत्वेन तत्साम्यं भवति । अतएव तत्तुल्यत्वे वर्तमान इति । मत्र चंद्रस्य विक्षेपवृत्तं विषुवद्वृत्ते लग्नं यत्र तत्र स्पष्टक्रांतरभावाद्गोलसन्धिः । तस्मात् त्रिमांतरे विक्षेपवृत्तेऽयनसंधिः । स्पष्टक्रांतिस्तदंतराल उपचितापचितायनसंधिस्थक्रांत्यनधिका । यदा चंद्रक्रांतिमध्यमा शरभिन्नदिक्का शरादल्पा तदा शराच्छोधनेन स्पष्टक्रांतिर्मध्यमक्रांतिसम्बंधपदभिन्नपदसंबधा भवति । अतः “ पदान्यत्वं विधोः क्रांतिविक्षेपाच्चेद्विशुध्यति ” इति सम्यगुक्तम् । भास्कराचार्योक्तं च "चक्रे चक्रार्धे च व्ययनशेऽर्कस्य गोलसंधिः स्यात् । एवं त्रिभे च नवभेऽयनसंधिर्व्ययनतभागेऽस्य ॥ अयनांशोनितपाताद्दोः कोटिज्ये लघुज्यकोत्थेये । ते गुणसूर्यैरश्वैर्गुणिते भक्ते कृतैः सूर्यैः अयनांशोनितपाते मृगकक्यादिस्थिते हि षड्रामैः । कोटिफलयुतविहीन बहुफलं मक्तमाप्तांशैः ॥ मेषादिस्थे गोलायनसंधी भास्करस्योनौ । तौ चंद्रस्य स्यातां तुलादिषट्कस्थिते तु संयुक्तौ ॥ गोलायनसंध्यन्तं पदं विधोरत्र धीमता ज्ञेयम् । रविगोल वदस्पष्टस्पष्टाक्रांतिः स्वगोलदिक्छशिनः ॥” इति पदज्ञानम् । अनेनैव प्रकारेण चंद्ररूपटक्रांतेः पदं ज्ञेयं विक्षेपवृत्तसम्बंधत्वात् । न साधारणपदज्ञानेन स्पष्टक्रांतेः क्रां तिवृत्तसंबंधाभावात् अन्यथा पदज्ञानासम्भवापत्तेः । एतदङ्गीकारे पदान्यत्वमित्याद्यर्ध व्यर्थमपि भगवता तदर्धेनैतादृशं पदं ज्ञापितमन्यथा तदनुक्त्यापत्तेरिति दिक् ॥७॥८॥
भा०टी० - अनपद में स्थित चंद्रमाकी विक्षेप-संस्कृत क्रान्ति रविक्रान्तिले जधिक होनेपर पात गत हुआ है | अल्प होने पर भागी है । युग्मपद में तिससे विपरीत है । जो विक्षेपसे क्रांत अलग करनी हो चंद्रमा और पदको प्राप्त करता है ॥ ७ ॥ ८ ॥
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ध्यायः १९ ।
संस्कृतटोका - भाषाटीकासमेतः ।
( १७७ )
अथ गतैष्यकालानयनं विवक्षुः प्रथमं स्पष्टक्रांतिसा म्यानयनप्रकारं श्लोकत्रयेणाह -- कान्त्योज्य त्रिज्या भिन्ने परक्रान्तिज्ययोद्धृते ॥ तच्चापान्तरम वा योज्यं भाविनि शीतगौ ॥ ९ ॥ शोध्यं चन्द्राद्वते पाते तत्सूर्यगतिताडितम् ॥ चन्द्रभुक्त्याहृतं भानौ लिप्तादि शशिवत्फलम् ॥ १० ॥ तद्वच्छशाङ्कपातस्य फलं देयं विपर्ययात् ॥ कर्मैतदसकृत्तावद्यावत्कान्ती समेतयोः ॥ ११ ॥ सूर्यचन्द्रयोः साधितक्रांत्यो कार्ये ते त्रिज्यया गुणिते । परक्रांतिज्यया परंमा परमज्या तु सप्तरंध्रगुणेंदवः इति पूर्वोक्तपरमक्रांतिज्ययेत्यर्थः । भक्ते । तयोः फलयोधनुषी कार्ये । चंद्रस्य यदा त्रिज्याधिकं फलं तदोक्तप्रकारेणाधनुषोऽसंभवात्रिज्यया नवत्यंशास्तदेष्टज्यया कइत्यनुपातेन धनुः कार्यम् अथवा त्रिज्यातो यदधिकं तदुक्तकमधनुषा युक्ताश्चतुःपञ्चाशच्छतकला धनुः स्यादिति ध्येयम्: । तयोरन्तरमर्धम् अन्तरार्धम् । वा विकल्पार्थकः । अथवा विषयव्यवस्थार्थकः । सा तु यदान्तरमल्पं तदान्तरम् । यदा तु बह्नन्तरं तदान्तरार्धं ग्राह्यमिति । भाविनि भविष्य - त्पाते । चन्द्रे राश्यात्मके । तत्कलात्मकं युक्त कार्यम् । गते पाते सति चन्द्रादीनं कार्य चन्द्रः स्यात् । सूर्यसाधनमाह - तदिति । चन्द्रसम्बन्धिसंस्कृतफलम् । स्पष्टसूर्यगत्या गुणितं स्पष्टचन्द्रगत्या भक्तं फलं कलादिकं चन्द्रवत् । चन्द्रयुतहीनक्रमेण सूर्ये युतहीनं कार्य सूर्यः स्यात् । चन्द्रपातसाधनमाह - तद्वदिति । चन्द्रपातस्य फलं कला - दिकम् । तद्वत् । चन्द्रफलं पातगत्या गुणितं स्पष्टचन्द्रगत्या भक्तं विपर्ययात् व्यत्या सात् । देयं संस्कार्यम् । चन्द्रयुतहीनक्रमेण चन्द्रपाते हीनयुतं कार्यम् । चन्द्रपातः स्यात् । उक्तक्रियातिदेशमाह- कर्मेति । एतत् उक्तं कर्म गणितक्रियारूपम् । असकृत् अनेकवारम् । साधितसूर्यात् । सूर्यकान्ति प्रसाध्य साधितचन्द्रपाताभ्यां चन्द्रस्पष्टकान्ति प्रसाध्य ताभ्यां क्रान्तिभ्यां क्रान्त्योज्ये इत्यादिना चापान्तरं तदर्धे वा तत्क्रान्तिभ्यामवगतगतैष्यपातलक्षणवशात् द्वितीयचन्द्रे हीनयुतं तृतीयचन्द्रः स्यात् । आद्य सूर्य चन्द्रगतिभ्यामवगतसूर्यपातफलं द्वितीयसूर्यपातयोर्यथोक्तं संस्कृतं तृतीयसूर्यपातौ । एभ्यः सूर्यचन्द्रपातेभ्यः सूर्यचन्द्रक्रांतिभ्यां साधिताभ्यां चापान्तरं तदर्धे वा तृतीयचन्द्रे तत्क्रान्त्यवगतगतैष्यपातवशात्संस्कृतं चतुर्थचन्द्रः स्यात् । आद्यसूर्यचन्द्रगत्यव - गतस्वफलं संस्कृतौ तृतीय सूर्यपातौ चतुर्थसूर्यपातौ स्तः । एवमेभ्यः पंचमाश्चन्द्रसूर्य: पाता उक्तरीत्या साध्या इत्युत्तरोत्तरं मुहुः साध्या इत्यर्थः । अवधिमाह - तावदिति । यावद्यदवधि तयोः सूर्यचन्द्रयोः क्रान्ती स्पष्टक्रान्तितुल्ये स्तस्तावत्तदवधि क्रिया कार्य
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(१७८) सूर्यसिद्धान्तः
[एकादशोऽत्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । मध्यमक्रान्तिसाम्यरूपपातकालिक्स्पष्टक्रान्तिभ्यां स्पष्टक्रान्तिसाम्यरूपं वस्तुभूतपातकालो गतैष्यत्वंन ज्ञातोऽपि विशेषतस्तत्कालज्ञानार्थ सूर्यचन्द्रयोः क्रान्तीसमे स्पष्टे उपपन्ने कार्य। तत्र मध्यपातकालाद्गतैष्यपातवशादभीष्टकाले चन्द्रसर्यपातान्प्रसाध्य तयोः क्रान्ती साध्ये । एवं साधितक्रान्त्योर्यदेवातुल्यत्वं तदैव स्पष्टपातः । अथानियमात्प्रथमं पूर्वाग्रिमकाले चन्द्रसाधनार्थ चन्द्रस्येष्टांशाहीना यो ज्याश्चति नियता मागा उक्तमकारानीता एवेष्टाः कल्पिताः। तथाहि । सूर्यक्रान्तिज्यातः परक्रान्तिज्यया न्यूनया चतुर्दशशतमितया त्रिज्यातुल्या दाया तदेष्टक्रान्तिज्यायाः केत्यभीष्टदोयायाश्चापं सायनसूर्यभुज एव । एवं चंद्रस्पष्टाक्रान्तिज्यातश्चापं सायनसूर्य जान्न्यूनमाधकं भवति । क्रांतेिसमत्वाभावात् । यद्यपि न्यूनचतुर्दशशताशिकस्पष्टक्रान्तरुक्तरीत्या भुजज्यायास्त्रज्याधिकवेन चापाकरणमशक्यं तथापि “ त्रिज्याधिकस्य क्रमचापलिप्ताः खखाब्धिवाणा धनुरुत्क्रमात्स्यात् " इति सिद्धान्त. शिरोमण्युक्तीपरीत्येन त्रिज्यातो यदधिकं तदुत्क्रमवापयुक्ताश्चतुःपञ्चाशच्छतकला इत्यनेन चापोत्पत्तौ न क्षतिः । एतेन चापासम्भवशङ्कया सार्धाष्टविंशत्यंशानां ज्यापरमकान्तिज्योते । स्वायनसन्धिस्थस्पष्टकान्तिज्या चेति च निरस्तम् । ग्रन्थे ययोः परमक्रान्तिज्यात्वानुक्तेः ।' स्पष्टक्रान्तिसाम्यानन्तरमप्युक्तर्गत्या कर्मान्तरनिवारणानुपपत्तश्च । क्रान्त्योस्तुल्यत्वेऽपि हरभेदात्तापान्तरसद्भावन क्रियाकुण्ठनासम्भवात् । नासकृत्कर्मणि स्वाभीष्टसिद्धयनन्तरं कर्मातरं सम्भवति । अप्रसिद्धः स्वरूपव्याघा. ताच्च । तच्चापयोरन्तरमिष्टांशाश्चन्द्रस्य गतैष्यपातवशाधीनयुता अभीष्टचन्द्रो भवति । तदिष्टांशानां बहुन्चे बहुपरिवतैरभीष्टसिद्धिरतोऽल्पपरिवरभीष्टसिद्धयर्थं तदर्धमिधांशा इति । अथते चन्द्रस्पष्टांशा इत्येभ्यश्चन्द्रगतिप्रमाणे त तदा सूर्यपातगतिभ्यां क इत्यनुपातेन तयोश्चन्द्रकालिकत्वसिद्धयमिष्टांशा एते सूर्यस्य संस्कृताश्चन्द्रवदीष्टसूर्यो भवति । पातस्य तुचक्रशुद्धत्वेन विपरीतत्वात्पातेष्टांशाः पातस्य व्यस्तं संस्कार्या अभीटपातो भवति । एभ्यः सूर्यचन्द्रयोः स्पष्टकान्ती साध्ये । तयोरसमत्व उक्तरीत्या चन्द्र स्पेष्टांशा एतत्साधिनचन्द्रे संस्कार्याः । न प्रथमचन्द्रे । तत्क्रान्तिजत्वाभावात् । अन्यथा समक्रान्त्यनन्तरमपि तयोरिष्टांशाभावे प्रथमचन्द्रसूर्यपातानां तत्संस्कृतेऽप्यविकाराचक्रांत्योदितीयपरिवर्तकान्तिसमत्वेन कर्मान्तरसम्भवात् क्रियाकुण्ठनत्वानुपपत्तेः । अव्यवहितपूर्वग्रहयोजने त्वन्यकर्मण एव सिद्धेः । कर्मान्तरासम्भवाच्च । सूर्यपातयो. रिष्टांशास्तु पूर्वचन्द्रसूर्यस्पष्टगतिभ्यामेव स्वल्पान्तरात्कार्याः । अव्यवहितपूर्वकाले स्पष्टमत्यज्ञानात् । एवमसकृत्करणेन क्रान्त्योः साम्यमुत्तरोत्तरपरिवर्तान्तरे भवत्येवेत्युपपन्नं क्रान्त्यो]त्यादिश्लोकत्रयम् ॥ ९ ॥ १० ॥ ११ ॥
मा० टी०-दानों की क्रांतिज्या, त्रिज्यासे गुणव.रके परमक्रान्तिज्यासे भाग करनेपर जो को ज्या हो तिनके घनका अन्तर तिससे भाषापात भावी होनेपर घंटमा योगकरे। पातगत
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ध्यायः ११.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः।
(१७९) होनेपर सो चन्द्रमासे वियोगकरे । ऊपर कहा हुआ फल सूर्यगतिसे- भागकरके जो होगा तिसको चन्दमाकी नाई सूर्यमें संस्कार करे सूर्यको रीतिके अनुसार पातस्पष्ट में विपरीतकपसे संस्कार करे । इस प्रकार संस्कार क्रान्तिको समता न होनेतक. मसकृत् साधन करे ॥ ९॥ १०॥ ११ ॥
अथ क्रान्तिसाम्यं पात इति स्पष्टं कथयस्तत्कालज्ञानार्थ साधितक्रान्तिसाम्यसम्बन्धिचन्द्रासन्नार्धरात्रात्पातकालस्य गतगम्यत्वमाह
क्रान्त्योः समतो पातोऽथ प्रक्षिप्तांशोनिते विधौ ॥
हीनेऽर्धरात्रिकाबातो भावी तत्कालिकेऽधिके ।। १२ ॥ सूर्यचन्द्रयोः स्पष्टकान्त्योः साम्ये स्पष्टः पातः स्यात् । अथानन्तरम् । स्पष्टपातसम्बन्धी साधितचन्द्रः पूर्गनुसन्धानेनापाततो यद्दिनीयो भवति तदासन्नार्धरात्रकाल स्पष्टचन्द्रो मध्यस्पष्टाधिकरोक्तप्रकारेण साध्यः। तस्मादर्धरात्रकालिकाचन्द्रासंक्षिप्तांशोनिते क्रान्तिचापान्तरेण तदर्धेन वा युतोनिते चन्द्रे स्पष्टक्रान्तिसाम्यसम्बसाधितचन्द्रे न्यूने सति तदर्धरात्रकालात्पातकालो गतः। तात्कालिके क्रांतिसाम्यकालिकसाधितचन्द्रेऽर्धरात्रकालिकचन्द्रादधिके सति तदर्धरात्रकालापातकाल एष्य इत्यर्थः। अत्रोपपत्तिः । यद्याप स्पष्टक्रान्तिसाम्यसम्बद्धचन्द्रमध्यक्रांतिसाम्यकालिकचन्द्राभ्यां वक्ष्यमाणप्रकारेण पातकालस्य मध्यक्रांतिसाम्यकालाद्गतैष्यघट्यादिज्ञानं भवतीति निकटार्धरात्रिकचन्द्रात्सत्साधनं पुनस्तद्गतैष्यकथनं च गौरवम् । आर्धरात्रिकस्पष्टचन्द्रसाधनाक्रयाधिक्यात् । तथापि चन्द्रगतरतिमहत्त्वेन प्रतिक्षणं गतेबैद्वन्तरेणान्यादृशत्वादहुकालान्तरे बहुकालान्तरितस्पष्टगत्यानीतधथ्यात्मकस्यातिस्थूलत्वादासनकाले स्वल्पान्तराच्चासन्नार्धरात्रिकः स्पष्टचन्द्रो ग्रंथोक्तः स स्पष्टगतिकोऽवश्यमपक्षितः । अतस्तस्माचन्द्रात्स्पष्टक्रांतिसाम्यप्तस्बद्धचन्द्रस्य न्यूनाधिकवे क्रमेण तदर्धरात्रात्सष्टपातो गतैष्य इति सम्यगुक्तम् । अतएव “ समीपतिथ्यन्तसमीपचालन विधोस्तु तत्कालजयैव युज्यत" इति भास्कराचार्योक्तं संगच्छते ॥ १२ ॥
भा० टी०-सूर्य और चन्द्रमाके क्रांतियोंकी समताही पात है प्रक्षिप्तांश संस्कृत चन्द्र भध्यरात्रिक चन्द्रप्स हीन होनेपर मध्यरात्र में पातगत और तिस कालका चन्द्रमा अधिक होनेसे पातमावी होता है ॥ १२ ॥ अथ स्पष्टपातकालज्ञानमाहस्थिरीकृताधरात्रेन्द्रोयोविवरलिप्तिकाः॥
षष्टिनाश्चन्द्रभुत्याप्ताः पातकालस्य नाडिकाः ॥ १३ ॥ स्थिरीकृतार्धरात्रेन्दोः स्पष्टक्रांतिसाम्यसम्बद्धसाधिता सकृत्क्रिया नियतचन्द्रस्तदासन्नाधरात्रिकस्पष्टचन्द्रः। तयोरुभयोः। अत्र द्वयोरिति पूर्वपदार्थव्यक्तीकरणाय ।
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(१८०) सूर्यसिद्धान्तः
[ एकादशोऽ अन्यथकवचनप्रमादाद्याकुलतापत्तेः । अन्तरकलाः षष्टया गुणिता अर्धरात्रिकचन्द्रस्पष्टकलात्मकगत्या भक्ताः फलम् । पातकालस्याधरात्राद्गतैष्यस्पष्टक्रांतिसाम्यस्य घाटका भवंति । अर्धरात्राद्गतैष्यक्रमेण फलघटीभिः पूर्वमुत्तरत्र स्पष्टक्रांतिसाम्यरूपपातः स्यादित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । चंद्रस्पष्टगत्या षष्टिसावनघटिकास्तदा स्वाभीष्टार्धरात्रकालिकक्रान्तिसाम्यकालिकस्पष्टचन्द्रयोरंतरकलाभिः काइत्युपपन्नमुक्तम् । साधितसूर्यस्य प्राथमिकचन्द्रगतिग्रहणेन स्थूलत्वादर्धरात्रिकस्पष्टसूर्यादुक्तरीत्या पातकालानयनं स्थूलं नोक्तमिति ध्येयम् ॥ १३ ॥
भा० टी०-क्रांतिसाम्यगत चन्द्रमा मौर मध्यरात्र चन्द्रमाकी अन्तरकला ६० से गुणकरके चन्दभुक्तिद्वारा भागकरनेपर मध्यरात्रसे पातकालके स्पष्टक अन्तर होगा ॥ १३ ॥ अथ पातकालस्य स्थित्यर्धानयनमाह
रवीन्दुमानयोगाध षष्टया सद्गुण्य भाजयेत् ॥
तयोर्भुक्त्यन्तरेणाप्तं स्थित्यद्ध नाडिकादि तत् ॥ १४ ॥ सूर्यचन्द्रयोश्चन्द्रग्रहण धिकारोक्तप्रकारेण ये विम्बमानकले । स्वस्वगतिकलोत्पन्ने तयोरेक्यस्यार्धं षष्टया गुणयित्वा सूर्यचन्द्रयोः कलात्मकस्पष्टगत्योरन्तरेण भजेत् । यल्लब्धं तद्घटिकादिकं स्थित्यधैं पातकालात्पूर्वमपरत्र च स्थित्यर्धकालपर्यन्तं पातस्या. वस्थानमित्यर्थः । अत्रोपपत्तिः । सूर्यचन्द्रबिम्बकेन्द्रयोरेकारात्रवृत्तस्थत्वे विषुवद्वत्तादुभयतम्तुल्यान्तरत्वे वा पातमध्यं केन्द्रसाम्याद्विषुववृत्तात्क्रान्तिसूत्रस्थो मण्डलपरि. विप्रदेशो य आसन्नः स बिम्बपृष्ठप्रान्तः । दूरस्थस्तु विम्बाग्रप्रांतः । याम्योत्तरगमनेन पातस्योक्तेः । तत्र शीघ्रबिम्बाग्रप्रान्तमन्दपृष्ठविम्वप्रान्तयोस्तथात्वे पातारम्भः । सूयोवम्बाग्रप्रांतचन्द्रांबम्बपृष्ठप्रांतयांस्तथात्वे पातान्तः। अत आयंतकालाभ्यां क्रमेण पूर्वोत्तरकालयाश्चन्द्रार्कविम्वांतर्गतप्रदेशानां केषामप्युक्तरूपस्थितित्वाभावेनः सूर्यचन्द्र. योत्तथाभावात्पाताभाव इत्यादिकालमारभ्यांतकालपर्यंतं. सूर्यचन्द्रयोस्तथात्वात्पातस्थितिः पातमध्यकाले क्रान्त्यन्तराभावः पाताद्यन्तकालयोनिक्यातुल्यं क्रांत्यन्तरम् । तेन तत्तुल्यांतरस्यापचयकाल उपचयकालश्चाद्यतस्थित्यः । तत्र तत्कालानयनं. सूर्यचन्द्रगत्यन्तरेण षष्टिघटिकास्तदा मानक्यखण्डकलाभिः का इत्यनुपातेनोक्तमुपपन्नम् । यद्या प्रमाणेच्छयोः समजातित्वाभावादनुपातोऽसंगतः क्रांतर्दक्षिणोत्तरांतरस्योपचयापचययोः सूर्यचन्द्रगत्यन्तरस्य पूर्वापरांतरस्योपचयापचयाभ्यामतिविलक्षणत्वात् । तथापि गणितलाघवार्थ भगवता स्वल्पांतरत्वेनानुपातो लोकानुकम्पयांगीकृत इत्यदोषः। भास्कराचार्यैस्तु-"मानक्याध गुणितं स्पष्टघटीभिविभक्तमायन । लब्धघटाभिमध्यादादिः प्रागग्रतश्च पातान्तः ॥” इति युक्तमुक्तम् । केचित्तु षष्टिघटिकाभिर्ग्रहान्प्रचाल्य क्रांतिः स्पष्टा साध्या । प्रत्येकं ययोरंतरं योगो वा गत्यन्तरामिति भस्माभिमतमाहुः ॥ १४ ॥
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ध्यायः ११. ]
संस्कृत टीका- भापाटीकासमेतः ।
( १८१ )
मा० टी० - सूर्य और चन्द्रमा के मान योगार्द्धको ६० से गुणकरके जिसके मुक्तयन्तरसे भाग करनेपर स्थित्यर्द्ध दण्ड होगा ॥ १४ ॥ अथ पातस्यादिमध्यांत कालानाह
पातकालः स्फुटो मध्यः सोऽपि स्थित्यर्धवर्जितः || तस्य सम्भवकालः स्यात्तत्संयुक्तोऽन्त्यसंज्ञितः ॥ १९ ॥ स्थिरीकृतार्धरात्रेत्यादिना स्पष्टः पातकाल: क्रांतिसाम्यस्य काल आनीतो म ध्यसञ्ज्ञो ज्ञेयः । स मध्यकाल आनीतस्थित्यर्धेन हीनस्तस्य पातस्य सम्भवकाल आरम्भकालः । अपिः समुच्चये । तत्संयुक्तः स्थित्यर्धयुक्तो मध्यकालो ऽन्त्यसञ्जितः पातो भवति । पातस्यान्तकालो भवतीत्यर्थः । अत्रोपपत्तिश्चन्द्रग्रहणस्पर्शमोक्षवत्स्पष्टा । स्वरूपं तु प्राग्व्यक्तीकृतम् ॥ १५ ॥
मा०टी० - पातकाळी मध्य है । तिससे स्थित्यई त्रियोग करनेपर पातका सम्वतकाल और स्थित्यर्द्ध योग करने से अन्त्यकाल होता है ॥ १५ ॥
अर्थतज्ज्ञानस्य प्रयोजन किमित्यतः पातस्थितिकालो मंगलकृत्ये निषिद्ध इत्याहआद्यन्तकालपा मध्यः कालो ज्ञेयोऽतिदारुणः ॥ प्रज्वलज्ज्वलनाकारः सर्वकर्मसु गर्हितः ॥ १६ ॥
पातस्यारम्भसमाप्तिसमय योरन्तरालवर्ती समयः अत्यन्तं कठिनः । सर्वषु मंगलकृत्येषु निन्दितो ज्ञेयः । अन तुगर्भविशेषणमाह-प्रज्वलज्ज्वलनाकार इति । देहोप्य -- मानाग्निस्वरूपः । तथाच का मंगलकृत्यं भस्मावशेषं स्यादिति भावः ॥ १६ ॥
भा० टो०- सम्भवका से अन्त्यतक काल अतिदारुण है; सो देदीप्यमान अग्निस्वरूप और समस्त शुभकर्मोंमें निइिन है || १६ ॥
ननु पातस्य क्रांतिसाम्पत्येन सूक्ष्मकालरूपत्वादागतमध्यकाल एव सूक्ष्मः शुभकः सुनिन्दितो न पातस्थिनात्मकस्थलकालः क्रान्तिसाम्याभावादित्यत आहएकायनगतं यदकेंन्द्रोर्मण्डलान्तरम् ॥
सम्भवस्ता वदेवस्य सर्वकर्मविनाशकृत् ॥ १७ ॥
सूर्यचन्द्रयोर्मण्डलान्तरं प्रत्येकं बिम्बैकदेशरूपं यावद्यत्कालपर्यंतमेकायनगतं तुल्यमार्गस्थितं भवति । तावत्तत्कालपर्यंतम् । एवकारो न्यूनाधिकव्यवच्छेदार्थकः । अस्य पातस्य । सकलशुभकर्मणामाचरितानां नाशकारी । सम्भव उत्पत्तिः । स्थितिरिति याचत् । न क्रान्तिसाम्यमात्रं स्थितिरलक्ष्यत्वात् । तथा च विषुवद्वृत्तादुभयत एकत! वा चंद्रार्कविम्बेकदेशयोः कयोरपि तुल्यान्तरेण यावदवस्थानं केन्द्रावस्थानाभावेऽपि बिम्बसम्बन्धात्पातस्थितिः । अतएव " तावत्समत्वमेव क्रांत्योर्विवरं भवेद्यावत् । मनिक्यार्धादूनं साम्याद्विम्बैकदेशजकांत्योः ॥” इति भास्कराचार्योक्तं युक्ततरमिति भावः ॥ १७ १ एककाष्ठागतम् इति पाठान्तरम् ।
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( १८२) सूर्यसिद्धान्तः
[ एकादशीमा०टी०-जितनी देरतक सूर्य और चंद्रमण्डलका कोई अंश एकस्थान में हो तो सर्व कर्म विनाशकारी इस पातका सम्मव होता है ॥ १७ ॥ नन्वयं केवलं मंगलनाशको न शुभकारक इत्यत आहस्नानदानजपश्राद्धव्रतहोमादिकभिः ॥
प्राप्यते सुमहच्छ्रेयस्तत्कालज्ञानतस्तथा ॥ १८॥ व्रतं स्वाभिमतदेवताराधनम् । आदिपदाधर्मातरम् ।। इत्यादि पुण्यक्रियाभिस्तत्कालकृताभिः। सुतरामुत्कृष्टं कल्याण मनुष्यैलभ्यते । तस्य पातस्य स्थित्यादिकालज्ञानात् । तथा समुच्चये । तेन महच्छ्यः प्राप्यत इत्यर्थः ॥ १० ॥
भा०टी०-पातकालको जानकर स्नान, दान, जप, श्राद्ध, व्रत होमादि कार्य करनेसे महान् श्रेष्ठफळ प्राप्त होता है ।। १८॥ अथ पातविशेषमाह
खीन्दोस्तुल्यता कान्त्योर्विषुवत्सन्निधौ यदा ॥ द्विवेद्विस्तदा पातः स्यादभावो विपर्ययात् ॥१९॥ यदा यस्मिन्काले विषुवन्निकटे क्रान्त्यभाषामन्ने। अत्र चन्द्रस्य स्पष्टनात्यभावासनत्वं ध्येयम् । सूर्यचन्द्रयोः क्रांत्योः समता भवति । तदा तस्मिंस्तदासनकाले स्थूलरूपे क्रांत्यभावादुभयत्र द्विवैधृतव्यतीपातमेदवयात्मकः पातः । द्विः प्रत्येकं द्विधा वार. दयं भवेत् । विपर्ययादुक्तव्यत्यासात् । चांद्रायणसन्निधिनिक्टे तयोः क्रांत्योस्तुल्यत्व इत्यर्थः । अत्रातुल्यत्वं सूर्यक्रांतितश्चन्द्रस्पष्टक्रांतेन्यूनत्वमेव नाधिकत्वमिति ध्येयम् । अमावः क्रांतिसाम्यरूपपातस्य तस्मिन् स्थूलकाले किञ्चिन्मितेऽनुत्पत्तिः स्यात् । एतेन ‘स्वायनसन्धाविन्दोः क्रांतिस्तत्कालभास्करक्रांतेः। ऊना यावत्तावक्रांत्योः साम्यं तयोर्नास्ति ॥” इतिभास्कराचायक्ति संगच्छते । तत्साधनं तु प्रथमागतचापान्तरादिष्टांशाअन्द्र युता हीना इति प्रत्येकमसकृत्क्रियया द्विधापातकालस्य ज्ञेयम् ।। अत्रोपपत्तिः । व्यतीपाते विषुववृत्तादुभयस्तुल्यान्तरेण सूर्यचंद्रयोवस्थितिकालेऽपि पातत्वम् । क्रांतिसाम्यादेव वैधृतेऽप्येकाहोरात्रवृत्तस्थत्वकाले पातत्वम् । एवमेव वियोगव्यतीपातधृतयोरप्येकाहोरात्रवृत्तस्थत्वे विषुववृत्तादुभयतस्तुल्यान्तरावस्थितौ च, पातत्वम् । क्रांतिसाम्यादियुक्तगोलसिद्धं चन्द्रगोलसन्धिनिकटे प्रत्यक्षम् । अभावोपपत्तिस्तु । चन्द्रस्य स्वायनसन्धौ तत्स्पष्टक्रांतितुल्यं परमं विषुववृत्तादक्षिणोत्तरं गमनं भवत्यस्मादने पृष्ठे वा विक्षेपवृत्तेभ्रंमतश्चन्द्रस्य क्रांतिन्यूनैव सम्भवत्यतः स्वायनसन्धिस्थचन्द्रकालिक सर्यक्रांतिः स्वायनसंधिस्थचन्द्रस्पष्टकान्तरधिका तदेष्टचन्द्रकान्तेन्यूनत्वेनाधिकसूर्येष्टका- . त्या समत्वानुत्पत्तिः । सूर्यस्य चन्द्राल्पगमनत्वात् क्रांत्यपचयस्यापि चन्द्रकांत्यपच
कर्मसु दातवापाठः।
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ध्यायः ११.] संस्कृतीका-भाषाटीकासमेतः । (१८३) याल्पत्वसम्मवात् । सूर्यकांत्युपचये तु सुतरां तदसम्भवः । एवं तत्रत्यसूर्यक्रांतिन्यूना तदापचयाधिक्याचन्द्रस्पष्टकांतिस्तत्समा तदुत्तरपूर्वकाले सम्भवति । सूर्यक्रांत्युपचये तु सुतराम् । तथाच द्वितीयरविगोलसन्ध्यासन्ने चंद्रपाते स्वायनसंव्यासन्ने सूर्य च तदसम्भवः कियंति चिदिनानीति यावत्तावदुक्तमन्यत्र सत्सम्भावना भवतीति गोलयुत्या फलितम् । अथासम्भवलक्षणेऽपि क्रांत्यंतरस्य मानक्यखण्डादल्पत्वे " एकायनगतं यावदर्केन्दोमण्डलांतरम्” इति पूर्वोक्तेन पातसम्भवः । तत्र पातमध्यं तस्मिन्नवे काले स्थित्यर्ध तु "रवींदुमानयोगार्धम्" इत्युक्तरीत्या मानयोगाधीमतिस्थाने क्रांत्यंतरमानैक्यखण्डयोरंतरं गृहीत्वा साध्यमिति ध्येयम् ॥ १९ ॥ ___ भा. टी.-विषुवत् निकटके चंद्रमा सूर्यको क्रान्तिकी तुल्यता होनेपर दो पात दो बार होते हैं, नहीं तो दोनों व ही अभाव होता है ॥ १९ ॥
अथ शुभकार्ये महापातस्य निषिद्धत्वोक्तिप्रसंगात्पञ्चांगांतर्गतयोगांतर्गतव्यतीपातस्येव ज्ञानमाह
शशांकार्कयुतेलिप्ता भभोगेन विभाजिताः ॥
लब्धं सप्तदशान्तोऽन्यो व्यतीपातस्तृतीयकः ॥ २० ॥ अयनांशसंस्कृतयोश्चंद्रसूर्ययोर्योगस्य राश्यादेः कला अष्टशतेन भक्ताः फलं सप्तदशांतः । सप्तदशमध्ये षोडशानंतरं सप्तदशपर्यंतमित्यर्थः । तदपि व्यतीपातः । अन्य एतदधिकारपूर्वोक्तातिरिक्तः। तृतीय एव तृतीयकः । सूर्यचंद्रयोगांतराभ्यां व्यतीपात?. विध्यात् । एवमुपलक्षणादुक्तरीत्या फलं षड्विंशत्यनंतरं सप्तविंशतिस्तदा तृतीयो वैधृतिः । तत्सद्भपातस्यापि योगांतराभ्यां वैविध्यादिति । अत्रोपपत्तिः। विष्कम्भा. दिय॑तीपातः सप्तदशो योग इति ॥२०॥
भा० टी०-चंद्रमा और सूर्यकी कला मिलाकर ८०० से भाग करनेपर भागफल १७ भन्तमें (निकट ) होनेपर व्यतीपात नामक तीसरा पात होता है ॥ २० ॥ अथ प्रसंगादेतत्तल्यनिषिद्धे गण्डांतभसन्धी विवक्षुस्तयोः स्वरूपज्ञानमाह
सापन्द्रपोष्णधिष्ण्यानामन्त्याः पादा भसन्धयः ॥
तदनभेष्वाद्यपादो गण्डान्तं नाम कीर्त्यते ॥ २१ ॥ आश्लेषाज्येष्ठारेवतीनक्षत्राणामंत्याश्चतुर्थाश्चरणाः नक्षत्रसंधयो भवंति । तदअभेषु तेषामाश्लेषाज्येष्ठारेवतीनक्षत्राणामग्रिमनक्षत्रेषु मघामूलाश्विनीनक्षत्रेष्वित्यर्थः । प्रथमचरणो गण्डांतं नाम प्रसिद्धमुच्यते । यद्यप्याश्लेषाज्येष्ठारेवतीनक्षत्राणामतिमं घटिकाइयं मघामूलाश्विनीनक्षत्राणामादिमं घाटिकाद्वयामिति चतस्रोतरघटिका गंडांतम् । एत. दतिरिक्तो नक्षत्रसंधिः पूर्वनक्षत्रांतरघटिकोत्तरनक्षत्रादिमवटिकत्यंतरालघटिकाइयं चंद्रमण्डलसंबंधन घटिकाः साईद्वयामिति संहिताविरुद्धं तथापि सूर्योक्तस्य स्वतः
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(१८४) सूर्यसिद्धान्तः
[एकादशोऽप्रामाण्यान्न क्षतिः । अथवैकवाक्यताथपादशब्दः करनेत्रादिव हिसंख्यावाचकः । घटिका इत्यध्याहारश्च । तथा च द्विसंख्यामिता अंत्यघाटका नक्षत्रसंधयः । प्रथमद्विघटिकामितः कालो गण्डांतमित्यर्थः । अत्रापि गण्डांतत्वाद्भसंधिकथनमयुक्तं गण्डांतस्य तदंतरालरूपत्वात्तथापि तत्कालस्य निषिद्धत्वोक्तितात्पर्याविभागद्वयेनोक्तावपि तदंत्तरालकाला उत्तरोत्तरं कालस्यातिनिषिद्धत्वसूचनान्न श्रातः ॥२१॥
भा० टी०-आश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवतीकाचौथा चरण भसन्धि और मश्विनी मघा और मूलक आदेपाद गण्डान्त है ॥ २१ ॥ अथैतदधिकारोक्तानां तुल्यनिषिद्धत्वमाह
व्यतीपातत्रयं घोरं गण्डान्तत्रितयं तथा ॥
एतद्भसन्धित्रितयं सर्वकर्मसु वर्जयेत् ॥२२॥ व्यतीपातानां त्रयं योगवियोगात्मकौ क्रांतिसाम्यरूपौ द्वौ व्यतीपातौ । विषुवत्स. निधौ क्रांतिसाम्यांतरेण व्यतीपातस्तयोखे भेदः । न पृथक् । पञ्चांगांतर्गतयोगान्तर्ग तव्यतीपातश्चेति त्रयं स्पष्टम् । उपलक्षगावैधृतित्रयमपि । योगवियोगात्मको क्रांति साम्यरूपौ द्वौ वैधृतिसञौ । विषुवत्सन्निधौ क्रांतिसाम्यांतरेण । वैधृतिसञस्तु नयोरंतर्गतः । न पृथक् । पञ्चांगांतर्गतयोगांतर्गतवैधृतियोगश्चोत स्पष्टं त्रयम् । केचित्तु व्यतीपातवैधृतिसझं व्यतीपातद्वयं संज्ञाभेदेन वैधृतिरिति पूर्वमुक्तेः पञ्चांगातर्गतयोगी तर्गतव्यतीपातश्चति व्यतीपातत्रयमिति यथाश्रुतमाहुः । घोरं दुष्टं गण्डांतत्रयम् । तथा घोर नक्षत्रसन्धित्रयम् । एतत्पूर्वोक्तघोरम् । अतः कारणात्मर्वमांगल्यकर्मसु शुभेच्छरे तदुष्टं जह्यादित्यर्थः ॥ २२ ॥
भा० टी०-तीन, व्यतीपात तीन गण्डान्त, और तीन सन्धिगतकाल अतिदूषित हैं। इन्हैं सब काम त्यागै ॥ २२ ॥ अथाकीशपुरुषः शिष्टावशिष्टं स्ववाक्यमुपसंहरति
इत्येतत्परमं पुण्यं ज्योतिषां चरितं हितम् ॥
रहस्यं महदाख्यातं किमन्यच्छतुमिच्छसि ॥२३॥ हे मय तुभ्यमिति । एवमेतत् । शृणुष्वैकमना इत्यादिसर्वकर्मसु वर्जयेदित्यंत ज्योतिपां ग्रहनक्षत्रादीना चरितं माहात्म्यं गणितादिज्ञानामति यावत् हितमिह लोके कीर्तिकरं । परम पुण्यं परत्र लोक उत्कृष्टं धर्म्यम् । अतएव महद्रहस्यम् । अति. गोप्यमाख्यातं मया कथितम् । अथ स्वोक्तं युक्त्यप्रतिपादितमेतस्य मनसि निश्चि. तार्थ नागतमिति तदधरोष्ठस्फुरणदर्शनादनुमितं चास्मै मत्संकोचेन स्वाशंकोद्घाटनाशक्तायतं प्रश्नप्रतक्षिावसाने मया युक्त्यापि वक्तव्यमित्याशयेनाह-किमिति । अतःपरं त्वमन्यदुक्तातिरिक्तं किं कतरत् श्रोतुं ज्ञातुमिच्छसि । तथा च मया तुभ्यं पूर्वमुक्तं
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अध्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१८५) तत्र यत्रयत्र तव संशयस्तत्रतत्र मत्सङ्कोचमुपेक्ष्य मां प्रति प्रश्नस्त्वया कार्यः । तव समाधानं करिष्यामीति भावः ॥ २३ ॥
भा० टी०-इस समय परमपवित्र ज्योतिष्क वर्गका महान जोर हितकर रहस्य कहा । अव क्या श्रवण करना चाहते हो ॥ २३ ॥
अथाग्रिमग्रन्थस्य प्रतिपादिताधिकारासंगतित्वपारहारायारब्धाधिकारसमाप्तिं फाकि कयाह-इति स्पष्टम् । दशभेदं ग्रहगणितामति दशाधिकारात्मकग्रन्थपूर्वार्धं पाताधिकारसमाप्त्यासमाप्तमिति तु पाताधिकारान्तस्थेनत्येतत्परमं पुण्यमित्यादिश्लोकेनैव सूचितम् । रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धांतटिप्पणे । पाताधिकारः पूर्णोऽयं तद्गूढा' र्थप्रकाशके ॥ सूर्यसिद्धांतगूढार्थप्रकाशकमिदं दलम् ।रंगनाथकृतं दृष्ट्वा लभन्तां गणकाः सुखम् ॥ .. इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथगणकविरचिते गूढार्थप्रकाशके पूर्वखण्डं परिपूर्तिमगमत् ।
इति सूर्यसिद्धान्ते पाताधिकारः। एकादश अध्याय समाप्त ।
इति पूर्वखण्डम् । अथोत्तरखण्डे द्वादशोऽध्यायः। महादेवं वक्रतुण्डं वाणी सूर्य प्रणम्य च । कृष्णं गुरुं रङ्गनाथो व्याख्याम्युत्तरखण्डकम् ॥ अथमुनीन्प्रति सूर्यांशपुरुषवचनमनुवाद्यानन्तरं मयासुरेण सूर्यांशपुरुषः पृष्ट इत्याह
अथाकोशसमुद्भूतं प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ॥
भक्त्या परमयाभ्यर्च्य पप्रच्छेदं मयासुरः॥१॥ यथ सूर्याशपुरुषवचनश्रवणानन्तरं मयासुरो मयनामा श्रोता दैत्यः कृताञ्जलिः रचितहस्ताग्राञ्जलिपुटः । अर्काशसमुद्भूतं सूर्याशोत्पन्नं पुरुषं स्वाध्यापकं गुरुं परमयो. स्कृष्टया भक्त्या । आराध्यत्वेन ज्ञानरूपया । अभ्यर्च्य सम्पूज्य । प्राणपत्य नमस्कृत्य । समुच्चयार्थश्चकारोऽत्रानुसन्धेयः । इदं वक्ष्यमाणं पप्रच्छ पृष्टवान् ॥ १ ॥
मा० टी०-इसके उपरांत मयासुरने सूर्यके अंशसे उत्पन्न हुए पुरुषको हाथ जोड परमभक्तिसहित प्रणाम करके यह पूछा ।। १ ।। अथ किं पप्रच्छेत्यतस्तत्प्रश्नानुवादे प्रथमं तत्कृतं भूप्रश्नमाह
भगवन् किम्प्रमाणा भूः किमाकारा किमाश्रया ॥ किंविभामा कथं चात्र सप्त पातालभूमयः ॥२॥
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( १८६ )
सूर्यासद्धान्तः
[ द्वादशोऽहे भगवन् भूभूमिः किम्प्रमाणा कियत्प्रमाणं यस्याः सा । किमाकारा कथमाकारः स्वरूपं यस्याः सा । किमाश्रया के आश्रयो यस्याः सा । किंविभागा कथं विभागा विभक्तांशा यस्याः सा । अत्र भूम्यां पातालभूमयः पातालविभागरूपा आश्रयाः सप्तसंख्याकाः कथं तिष्ठन्ति । चः समुच्चयार्थः । किमाकारेत्यादौ प्रत्येकमन्वेति । अयमभिप्रायः। 'योजनानि शतान्यष्टौ ' इत्यादिना वगत भूमानं पञ्चाशत्कोटिविस्तीर्णेति सर्वजनावगत भूमानाद्विन्नमिति त्वदुक्तभूमाने संशयात्किम्प्रमाणेति प्रश्नः । अन्यथा पूर्वं भूमानकथनात् । प्रश्नवैयर्थ्यापत्तेः उक्तश्रुतत्वापत्तेश्च । एवं लम्बज्याघ्न इत्यादिना स्पष्टपरिध्यन्तरसम्भवात्सर्वजनावग तादर्शाकारतायां भूमौ तदसम्भवेन मवदमिमतत्वाकारस्तदतिरिक्त इति किमाकारेति प्रश्नः । एवं तेन देशान्तराभ्यस्तेत्यादिना ग्रtri भूम्यभित भ्रमण सूचनादाधारे शेषादौ तेषामभितो भ्रमणासम्भवेनाधारे संशयात्किमाश्रयेति प्रश्नः । निराधाराया अवस्थानासम्भवात्। एतेन सर्वजनावगत भूस्वरू• पातिरिक्त भूस्वरूपेणोत्तरार्धप्रश्नावपि प्रसङ्गादुक्तौ सङ्गताविति ॥ २ ॥
मा०टी०-हे भगवन् ! इस पृथ्वीका परिमाण क्या है? आकार कैसा है ? किसके अ'अयले टिकी है ? क्या २ विभाग है । और किस प्रकार से इसमें सप्तपाताल और भूमि है ॥२॥ अथ किमाश्रयेतिप्रश्नकारणे भूम्यभितो ग्रहभ्रमणे सूर्यस्योपलक्षणत्वेन प्रश्नावाहअहोरात्रव्यवस्थां च विदधाति कथं रविः ॥
कथ पर्येति वसुधां भुवनानि विभावयन् ॥ ३ ॥
सूर्यः । अहोरात्रव्यवस्थां दिनरात्र्योर्विवेकं कथं केन प्रकारेण विदधाति करोति । व्ययं भावः । आदर्शाकारभूम्या मध्ये मेरुस्तदभितो भूम्युपरि प्रदक्षिणतया सूर्यभ्रमणेन स्वदृश्यविभागे सूर्ये दिनं स्वादृश्य विभागे रात्रिरिति सर्वजनावगताद्भवदभिप्रेतं सूर्यभ्रमणं भिन्नम् तर्हि त्वन्मते सूर्यो दिनं रात्रिं च व्यंवधायकाव्यवधायकौ विना कथं करोति । अन्ये ग्रहा अपि कथं स्वदिनं स्वरात्रिं च कुर्वीत । सूर्योपलक्षणत्वादिति । अथ भूम्यभिमतो भ्रमणांगीकारे भूरेव व्यवधायिकेत्यहोरात्रव्यवस्था युक्तैवेत्यतः प्रश्नान्त रमाह- कथमिति । सूर्यो भवनानि वक्ष्यमाणस्वरूपाणि विभावयन् प्रकाशयन् सन्वसुधां पृथ्वीं कथं केन प्रकारेण पर्येति प्रदक्षिणतया भ्रमति । भूमोनराधारावस्थानासम्भवेन साधारत्वे भूम्यभितो ग्रहण भ्रमणमाधारे बाधितमितिभावः ॥ ३ ॥
भा०टी०--और सूर्यनारायण किस प्रकारले दिनरातकी व्यवस्था करते हैं ? भुवनगणत्रकाश करके पृथ्वीपर कैसे पर्यटन करते हैं ? ॥ ३ ॥
प्रश्नावाह
देवासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ॥ किमर्थं तत्कथं वा स्याद्भानोर्भगणपूरणात् ॥ ४ ॥
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ध्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (१८७ )
पूर्वार्ध पूर्वार्धे व्याख्यातम । किमर्थं कोऽर्थोऽभिप्रायो यस्य तदित्यहोरात्रविशेषणम् । देवासुरयोईिनं रात्रिश्चाभिन्ना कथं नोक्ता व्यत्यासे नियामकाभावादिति भावः । तद्देवासुरयोरहोरात्रं सूर्यस्य द्वादशराशिभोगादित्यर्थः । कथं कुतः । वाकारः समुच्चये भवति । उभयत्र नियामकाभावादुभयत्र मम सन्देहः । दिनराव्योः सूर्यदर्शनादर्शननियामकत्वाद्यत्र सूर्य षण्मासावधि देवाः पश्यति तत्रासुरा न पश्यति । यत्र देवाः षण्मासावधि न पश्यन्ति तत्रासुराः पश्यंतीत्यह भगवता बोधनीय इति भावः ॥ ४ ॥
भाल्टी० -देवता व मसुरोंके दिनरात परस्पर विपरीत क्यों है ? और यह क्यों सूयकी १२ राशियोंके भ्रमणकी समान हैं ।। ४॥ अथ प्रश्नांतरे पूर्वोक्तश्लोकद्धयस्य तात्पर्य प्रश्नं चाह
पित्र्यं मासेन भवति नाडीषष्टया तु मानुषम् ॥
तदेव किल सर्वत्र न भवेत्केन हेतुना ॥५॥ पितृणामिदमहोरात्रं मासेन वर्षादधिकचांद्रमासेन केन हेतुनेत्यस्य प्रत्येकं समन्वयात् । केन कारणेन भवति । अन्यथा प्रश्नानुपपत्तेः । सावनघटीषष्ट्या मानुषं मनुष्याणामहोरात्रं केन कारणेन भवतीत्यर्थः । न च यथा दिव्य तदहरुच्यते इत्युक्तं तथा पूर्वोक्ते पित्र्यमानुषाहोरात्रयोरनुक्तेः प्रश्नावसंगताविति वाच्यम् । 'दिव्यं तदहरुच्यते' इत्यनेनैव पूर्वोक्तसावनाहारोबचान्द्रमासयोस्तदहोरात्रसूधनात् । दिव्यमित्यत्र पितृणामनुक्तेः सूर्यसावनाहोरात्रस्य मानुषाहोरात्रत्वेन तेषामपि प्रत्यक्षत्वाच्च परिशेषान्मासस्यैव पित्र्याहोरात्रत्वसिद्धेः । ननु तथापि प्रत्यक्षतिद्धमानुषाहोरात्रे प्रश्नोऽनुपपन्न एवेत्यतस्तात्पर्यप्रश्नमाह-तदेवति । तन्मानुषाहोरात्रम् । एवकारस्तदन्यनिरासार्थकः । सर्वत्र सर्वलोके किल निश्चयेन केन कारणेन न स्यात् । पितृदेवदैत्यानामप्रत्यक्षमहोरात्रं कथमंगीकृतम् । कथं च मानुषाहोरात्रं प्रत्यक्षसिद्धं तेषामपि नोक्तामत्यर्थः ॥५॥ __ भा०टी०-पितृदिन एकमासका, और मनुष्योंका ६० घडीका दिन होता है, दिनरात सबके लिये एकसे क्यों नहीं होते ? दिन, अब्द, मास मोर. होराके अधिपति एकप्रकारके क्यों नहीं होते ॥ ५॥ __ अथाहर्गणादवगतदिनमासवर्षेश्वरेषु तत्प्रसंगादोरेश्वरे प्रश्नं पश्चाद्वजन्तोऽतिजवात्' इत्यत्र प्रश्नद्वयं चाह
दिनान्दमासहोराणामधिपा न समाः कुतः ।।
कथं पयति भगणः स ग्रहोऽयं किमाश्रयः ।। ६ ।। दिनवर्षमासहोराणां स्वामिनोऽभिन्नाः कुतः कस्मान्न भवति । यथा दिनाधिपतित्वं सर्यादीनां क्रमेण तथा प्रथमादिमासवर्षक्रमेण सूर्यादीनां क्रमेण मासवर्षाधिपत्वं यु
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(१८८) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽक्तम् । आनयने युक्त्यप्रतिपादनादिति भावः । यद्यपि पूर्व होरेश्वरानयनं नोक्तमिति तत्पश्नोऽसंगतस्तथापि लोके प्रसिद्धतरो होरेश्वरस्त्वया किमर्थं नोक्त इति तत्प्रश्नतात्पमिति ध्येयम् । ग्रुगणो नक्षत्रसमूहसग्रहो ग्रहसहितः कथं केन प्रकारेण पर्येति भ्रमति । नक्षत्राणि ग्रहाश्च केन प्रयुक्ताः सन्तो भूम्यभितो भ्रमन्तीत्यर्थः । अथैषामन्तरिक्षावस्थानोप प्रश्नमाह-अयमिति । सग्रहो भगणो दृशमानः किमाश्रयः क आधारो यस्येति । विनाधारमन्तरिक्षावस्थानं न सम्भवतीत्यर्थः ॥ ६॥
मा०टी०-भगण किस प्रकारसे ग्रहादिके साथ प्रदाक्षणा करते हैं और उनका आश्रय क्या है ? ॥६॥ ननु कक्षा एवाधाराः पूर्वं तत्रैव स्वमार्गगा इत्युक्तेरित्यतः कक्षाणां प्रश्नचतुष्टः
यमाह
भूमेरुपर्युपऍाः किमुत्सेधाः किमन्तराः ॥
ग्रहक्षकक्षाः किम्मात्राः स्थिताः केन क्रमेण ताः ॥ ७॥ भूमेः सकाशादूर्ध्वमुच्चाग्रहक्षकक्षाग्रहनक्षत्राणामाकाशे मार्गाः किमुत्सेधाः किया नुत्सेध उच्चता यासां ताः । भूमेः सकाशाद्रहनक्षत्रमार्गकक्षाः कियदन्तरेण सती त्यर्थः। किमन्तराः कियदन्तरालं यासां ताः । उत्तरोत्तरमुच्चा अपि परस्परं तासा कियदन्तरालमित्यर्थः । किम्मात्राः किमात्मिकाः । किंस्वरूपाः किंप्रमाणा वा । ता ग्रहनक्षत्रकक्षाः केन क्रमेणाधिष्ठिताः सन्ति । पूर्व कस्तदुत्तरं के इत्यादिक्रमो न ज्ञात इत्यर्थः ॥७॥ . __ भा०टी०-पृथिवीसे ग्रहोंकी कक्षा कितनी ऊंची है ? परस्परमें अन्तर कितना है ? परिमाण क्या है ? और वह किस प्रकारसे स्थित है ? ॥ ७ ॥ अथानुभवप्रश्न तत्प्रसंगात्सूर्यकिरणप्रचारप्रश्नं च पूर्वोक्तमानानां प्रश्नद्वयं चाह
ग्रीष्मे तीव्रकरो भानुर्न हेनन्ते तथाविधः ॥ .
कियती तत्करप्राप्तिर्मानानि कति किंच तेः ॥ ८॥ ग्रीष्मौ सूर्यो यथा तीक्ष्णकिरण उष्णकिरणस्तथाविधस्तादृशो हेमन्ते न भव तीति किम् । सूर्यस्य किरणानां प्राप्तिर्गमनपद्धतिः कियती कियत्प्रमाणा । मानानि नाक्षत्रसावनचान्द्रसौरादीनि पूर्वोक्तानि कति कियति । उपक्रम एव संक्षेपेण मानान्यु. क्तानीति तत्तत्त्वं सम्यड्न ज्ञातमित्यर्थः । तैर्मानैः किं प्रयोजनम् । चः समुच्चयार्थः । प्रत्येकमन्वेति ॥ ८॥ - माल्टी०-ग्रीष्ममें सूर्यकी किरणे तीव्र होती है, और हेमन्त में तैसी नहीं होती, तिनकी करप्राप्तिका नियम क्या है ? कितने प्रकारके मान हैं ? मोर तिनका प्रयोजन क्या है? ||८||
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संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
ध्यायः ९२. ]
अथास्य प्रश्नमुपसंहरति
एतं मे संशयं छिन्धि भगवन् भूतभावन ॥ अन्यो न त्वामृते छेत्ता विद्यते सर्वदर्शिवान् ॥ ९ ॥
हे भगवन् षड्गुणैश्वर्यसम्पन्न । सर्वबोधकेति तात्पर्यार्थः । भूतभावन भूतस्याdiaकालस्य भावना विचारो यस्य । भूतस्योपलक्षणाद्वर्तमान भविष्यतोरपि कालज्ञेति सिद्धोऽर्थः । त्वं मे मम । एतमुक्तं संशयम् । जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । तेन मत्कृतान् प्रश्नानित्यर्थः । छिंधि छेदय । नन्वहमिदानीमेतदुक्त्यै वक्तुं न शक्नोम्यन्यस्मात्संशयान् दूरीकुर्वित्यत आह- अन्य इति । त्वामृते विना । अन्यः सर्वदर्शिवान् सर्वद्रष्टा । सर्वज्ञ इत्यर्थः । छेत्ता संशयापनोदकः । न विद्यते नास्ति । तथा चैतावत्कालपर्यंतं यथोक्त तथान्यदपि कृपया वक्तव्यमिति भावः ॥ ९॥
(१८९
भा० टी० - हे भूतभावन भगवन् ! मेरे यह समस्त सन्देह दूर कीजिये आपके सिवाय सर्वदर्शी और संशयका छेदन करनेवाला कोई भी नहीं है ॥ ९ ॥
अथ मुनीन्प्रति मुनिर्मयासुरोक्त प्रश्नानुवादं कृत्वा सूर्यांशपुरुषो मयासुरं प्रति पुनर्वद: ति स्मेत्याह
इति भक्तोदितं श्रुत्वा मयोक्तं वाक्यमस्य हि ॥
रहस्यं परमध्यायं ततः प्राह पुनः स तम् ॥ १० ॥
स सूर्याशपुरुषः । इति पूर्वोक्तम् भक्त्याराध्यज्ञानेन । उदितमुत्पन्नम् । मयेन कथितं वचनं श्रुत्वाऽऽकर्ण्य । पुनर्द्वितीयवारं ततः पूर्वार्धोक्त्यनन्तरं तं मयासुरं प्रति परं द्वितीयमध्यायं ग्रंथम् । ग्रन्थस्योत्तरखण्डमित्यर्थः । अस्य ग्रन्थपूर्वखण्डस्य हि निश्वयेन रहस्यं गोप्यत्वेन तत्त्वभूतं प्राह । प्रकर्षेणावददित्यर्थः ॥ १० ॥
मा०टी०-भक्तिभावले कहे हुए मयके वचन सुनकर सूर्यांश पुरुष फिर परमध्यायर हस्थ कहते हुए || १० ॥
अथ सूर्यांश पुरुषवचनानुवादे सूर्याशपुरुषो मयासुरं प्रति मदुक्तं सावधानतया श्रोतव्यमित्याह-
शृणुष्वैकमना भूत्वा गुह्यमध्यात्मसञ्ज्ञतम् ॥
प्रवक्ष्याम्यतिभक्तानां नादेयं विद्यते मम ॥ ११ ॥
यतः कारणात् । अतिभक्तानामत्यन्तमद्भजनकारकाणां भवादृशां मम सूर्यस्य पुरुघस्य । अदेयमंदातव्यं वस्तु न विद्यते । अतः कारणादहं त्वां प्रति गुह्यं गोप्यमध्यात्मसंज्ञितमध्यात्मज्ञानसञ्ज्ञं यत्प्रवक्ष्यामि कथयिष्यामि तत्वमेकमना एकस्मिन्मदुक्ते मनो विद्यते यस्यासौ भूत्वा शृणुष्व श्रोत्रद्वारात्मनः संयोगेन प्रत्यक्षं कुर्वित्यर्थः ॥ ११ ॥
A
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(१९०) ससिद्धान्तः
[ द्वादशोऽभा०टी०-मच्छा तो गुप्त अध्यात्मतत्त्वको कहता हूं तुम एकान्तचित्तसे श्रवण करो। ऐसी कोई वस्तु नहीं है जो हम अतिमक्तों को न देसकें ॥ ११ ॥ गुह्यं वक्ष्यामीति यदुक्तं तदाह
वासुदेवः परं ब्रह्म तन्मूर्तिः पुरुषः परः ॥
अव्यक्तो निर्गुणः शान्तः पञ्चविंशात्परोऽव्ययः ॥ १२ ॥ वसत्यस्मिञ्जगत्समस्तमसो वा जगति समस्ते वसतीति वसतेरुणि वासुः । देव. नादासनाद्देवः । वासुश्चासौ देवश्चेति वासुदेवः । तथाचोक्तम् “सर्वत्रासौ समस्तं च वसत्यत्रति वै यतः । अतोऽसौ वासुदेवाल्यो विद्वद्भिः परिगीयते ।।" इति । नतु वसुदेवस्यापत्यमिति विग्रहः । तस्य जगत्कारणतानिरूपणावसरेऽनुपयोगात् । अस्मत्पक्षे पुनरुपादाने कार्यस्याधारतया कार्येवोपादानस्यानुस्यूततया वा स उपयुक्त एव तथाचोक्तं श्रुतौ ईशावास्यमिदं सर्वम्' इत्यादि । भागवते च । “अजनि च यन्मयं तदविमुच्यामयं नृभवेत् " इति । जीवानामापे ब्रह्मात्मकतया तद्वारणाय परनिति सर्वोतममित्यर्थकम् । “यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः । अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥ ॥ इति स्मृतेः । तन्मूर्तिस्तस्य वासुदेवस्य मृतिरंशः । इदं विशेषणं संवक्ष्यमाणस्य सङ्कर्षणस्य । विन्मूर्तिरिति पाठस्तु प्रामादिकः । वासुदेवः सङ्कर्षण इत्यस्माद्वासुदेवात्सङ्कर्षण इत्यस्यार्थस्य विवक्षितस्याप्रतीतेः । अव्यक्त इत्यतीन्द्रिय इत्यर्थः । तथा च श्रुतिः। “न तं विदाय य इमा जजाना-याष्माकमन्तरं बभूव । नाहारण प्रावृता जल्प्या चासुतृप उक्थशासश्चरन्ति ॥ न संदृशे तिष्ठति रूपमस्य न चक्षुषा पश्यति कश्चनैनम् " इति । अव्यक्तत्वे हेतुर्निर्गुण इति । शान्तः पडूमिरहितत्वात । पंचविंशात्परः। षोडशविकृतयः सप्त प्रकृतिविकृतयो मूलप्रकृतिश्चेति चतुर्विशतितत्त्वानि पञ्चविंशस्तु जीवस्तस्मात्पर इत्यर्थः । पञ्चविंशात्मक इतिपाठे जगदात्मक इति ॥ १२ ॥
माल्टो -वासुदेव, परब्रह्म, तन्मूर्ति परमपुरुष, अव्यक्त, निर्गुण, शान्त, मन्यय और पच्चीसवां वस्तुओंसे पर है ॥ १२ ॥ शुद्धस्य ब्रह्मणो जगत्कारणत्वासम्भवादाह
प्रकृत्यन्तर्गतो देवो बहिरन्तश्च सर्वगः ॥
सङ्कर्षणोऽयं सृष्ट्वादा तासु वीर्यमवासृजत् ॥ १३ ॥ प्रकृत्यन्तर्गतो मायोपहितो बहिरन्तश्च सर्वगो जगदुपादानत्वात् । एतानि सर्वाणि विशेषणानि संकर्षणस्य वासुदेवांशस्यापि वासुदेवात्मकतावसानेन बोध्यानि । वासुदेवांशात्मकः सङ्कपणः प्रथमं जलानि निर्माय । तास्वप्सु वोर्य शक्तिविशेषम् । अवासजविक्षेप ॥ १३ ॥
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ध्यायः १२ ]
संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः
( १९१ )
मा०टी०-जगत के उपादानरूपसे प्रकृति के अन्तर्गत हैं, सङ्कषण बहि आर अन्तस्थ सर्व गत हैं, यह सृष्टिकी आदि के समय एकार्णवादिम अपन वीर्यको निक्षेप करते हैं ॥ १३ ॥ ततः किमत आह
तदण्डमभवद्धैमं सर्वत्र तमसा वृतम् ॥
तत्रानिरुद्धः प्रथमं व्यक्तीभूतः सनातनः ॥ १४ ॥
तत्तच्छक्तिमिलितं जलं हैमं सौवर्णमण्डं गोलाकार सर्वत्र बहिरन्तश्चान्धकारेणावृतममत्रत् । अन्धकारसहिताकाशे सुवर्णाण्डमजनीत्यर्थः । तत्र सुवर्णाण्डे मादावनिरुद्धः सनातनो नित्यो वासुदेवांशसंकर्षणोंऽश रूपत्वाद्व्यक्ती भूतोऽभिव्यक्तः । नतूत्पन्नः । सत्कार्यवादाभ्युपगमात् । यथा तिलेभ्यस्तैलं सदैवाभिव्यक्तं न तत्पनम् ॥ १४ ॥
मा० टी०-वह जल अन्धकार से छाये हुए सुवर्णका अंडरूप बनगया । तिसमें प्रथम सनातन अनिरुद्ध व्यक्त हुए । १४ ॥ यथास्याभिधान्तराणि लोकसुज्ञानार्थमाह
हिरण्यगर्भो भगवानेष च्छन्दास पठ्यते ॥ आदित्यो ह्यादिभूतत्वात्सूत्या सूर्य उच्यते ॥
ए संकर्षणांशोऽनिरुद्ध भगवान् षड्गुणैश्वर्यसम्पन्नश्छन्दासे वेदे हिरण्यगर्भः सुवः र्णाण्डमध्यरूपगर्भे स्थितत्वात्पठ्यते निरूप्यते । वेदेऽस्य हिरण्यगर्भ इति प्रसिद्धमभिधान्तरमित्यर्थः । हि निश्वयेनादित्यः प्रथममभिव्यक्तत्वादुच्यते । प्रसृत्या अस्माजगतोऽभिव्यक्तनयाय निरुद्धः सूर्य उच्यते । " हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत् ” इति श्रुतिः ॥ १५ ॥
P
मा० टी० - दमें इनको हिरण्यगर्भ कहते हैं, आदिमें थे इसलिये आदित्य, और सृष्टिके अर्थकारण सूर्य कहते हैं ॥ १५ ॥
यस्य रूपं स्थितिं चाह
१५ ॥
परं ज्योतिस्तमःपारे सूर्योऽयं सवितति च ॥
पति भुवनान्येव भावयन्भूतभावनः ॥ १६ ॥
अयमनिरुद्धः सूर्यनामकः सविता । इति नाम्ना । चः समुच्चये । प्रसिद्धः तमःपारेऽन्धकारस्य विरामे परमुत्कृष्टं ज्योतिस्तेजोरूपम् । अन्धकारनाशक इति तात्पर्यार्थः । " आदित्यवर्णं तमसस्तु पारे" इतिश्रुतिः । एष सविता भूतभावनः प्राण्युत्पत्तिस्थितिसंहारकारको भुवनानि वक्ष्यमाणानि भावयन्प्रकाशयन्पयेति । सुवर्गाण्डमध्ये सदा भ्रमति ॥ १६ ॥
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( १९२) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽभाटी-यह अनिरुद्धही परम ज्योतिष्मान् सविता हैं। अन्धकारस्थानको लांघकर भूतभावन सूर्यकिरणसे समस्त भुवनों में घूमते हैं ॥ १६ ॥ अथ परं ज्योतिरिति पादं विवृण्वन्नन्यदप्येतत्स्वरूपं श्लोकाभ्यामाह
प्रकाशात्मा तमोहन्ता महानित्येष विश्रुतः ॥ ऋचोऽस्य मण्डलं सामान्युना मूर्तिर्यजूंषि च ॥ १७ ॥ त्रयीमयोऽयं भगवान्कालात्मा कालकृद्विभुः ॥
सर्वात्मा सर्वगः सूक्ष्मः सर्वमस्मिन्प्रतिष्ठितम् ॥ १८॥ प्रकाशरूपोऽन्धकारनाशकोऽत एवैष अनिरुद्धाख्यः सूर्यो महान्महत्तत्त्वमिति । एवं विश्रुतो वेदपुराणादौ निरुक्तोऽस्य निरुक्तस्य सूर्यस्य । ऋचः ऋग्वेदमन्त्रा मण्डलं सामानि सामवेदमंत्रा उस्राः किरणाः यजूंषि यजुर्वेदमंत्रा. मूर्तिः स्वरूपम् । चः समुच्चये। अतएवायं निरुक्तो भगवान् षाड्गुण्यैश्वर्यतम्पन्नः । त्रयीमयो वेदत्रयात्मकः । कालरूपः कालस्य कारणम् । विभुर्जगदुत्पत्तिस्थितिनाशाय समर्थः । अतएव सर्वात्मा जगत्स्वरूपः सर्वगः सर्वत्र स्थितो व्यापकः सूक्ष्मोऽव्यापकमूर्तिधारी। अस्मिनिरुक्तसूर्ये सर्व जगत्प्रतिष्ठितम् । एतेन व्यापकाव्यापकत्वयोरत्राविरोधः ॥ १७ ॥ १८॥
भा०टा०-प्रकाशरूप, तमोनाशक, मौर महान् शब्दसे सुर्य ख्यात हैं । ऋग्वेद इनका मण्डल, सामवेद किरण, और यजुर्वेद तिनकी मूर्ति हैं। वेदत्रयात्मक यह भगवान् कालात्मा, कालकर्ता, मणिमादिगुणयुक्त, सर्वात्मा सर्वग, सूक्ष्म हैं और इनमेंही समस्त प्रतिष्टित हैं ॥ १७ ॥ १८ ॥ अथ पर्येति भुवनान्येषेत्यर्धं विवृणोति
रथे विश्वमये चक्रं कृत्वा संवत्सरात्मकम् ॥
छन्दस्यिश्वाः सप्त युक्ताः पर्यटत्येष सर्वदा ॥१९॥ त्रिलोक्यात्मके रथे संवत्सरात्मकं द्वादशमासात्मकं वर्षचक्र नियोज्य सप्तच्छन्दांसि गायत्र्युष्णिगनुष्टुब्बृहतीपंक्तित्रिष्टुब्जगत्योऽश्वाः युक्ताः संयोजिताः कृत्वा । छन्दांस्यश्वास्तत्र युक्तति पाठे सप्ताश्वान् रथे नियोज्येत्यर्थः । सर्वदा नित्यमेषोऽनिरुद्धनामा पर्यटति भ्रमति ॥ १९ ॥
मा०टी०-विश्वमय स्थपर संवत्सर चक्रके द्वारा छंदोंको सात घोडे बनाकर यह सदा भ्रमण करते हैं ॥ १९॥ अथास्य स्वरूपं ब्रह्मण उत्पत्तिं चाहत्रिपादममृतं गुह्यं पादोऽयं प्रकटोऽभवत् ॥ सोऽहंकारं जगत्सृष्टये ब्रह्माणमसृजत्प्रभुः ॥ २० ॥
, पयत्येषवशी सदा इति पाठान्तरम् ।
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ध्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (१९३)
अस्य वेदात्मनस्त्रिपादं चरणत्रयममृतं दिवि ज्ञेयम् । अत एव गुह्यमगम्यमिदम् । पादश्चतुर्थचरणः । अयं स्थावरजंगमात्मकजगदूपः प्रकटः प्रत्यक्षोऽभवत् । “त्रिपादूर्ध्व उदैत्पुरुषः पादोस्येहाभवत्पुनः" इति श्रुतिरपि व्यक्ता । सोऽनिरुद्धनामा प्रभुरुत्पत्तिसमर्थः । अहंकारतत्त्वरूपं ब्रह्माणं पुरुषं जगत्सृष्टयै जगत्सर्जननिमित्तमसृजदुत्पादयामास ॥ २० ॥
भा० टी०-अमृतकी समान उनके तीन पाद छिपे रहते हैं। चतुर्थपादमेंही प्रगट जगत है। उस प्रभाने अहंकाररूप ब्रह्माको संसारकी मष्टिके लिये उत्पन्न किया ॥ २० ॥ अथोत्पादितब्रह्मपुरुषं जगत्सर्जनार्थं नियुज्य स्वयं भ्रमन्नवतिष्ठत इत्याह
तस्मै वेदान्वरान्दत्त्वा सर्वलोकपितामहम् ।।
प्रतिष्ठाप्याण्डमध्येऽथ स्वयं पयति भावयन् ॥ २१ ॥ अथ ब्रह्मोत्पादनानन्तरं स्वयमनिरुद्धनामा । तस्मै उत्पादितब्रह्मपुरुषाय । वरानुकान्वेदान्दत्त्वा वेदोक्तमार्गेण सृष्टिसजेनाथ सवेलोकानां पितामहरूपं तं ब्रह्माणं सवर्णाण्डमध्ये प्रतिष्ठाप्य 'निधाय । चात्रानुसन्धयः । भावयवन्प्रकाशयन् सन्पयेति भ्रमति ॥२१॥
दी-तिस ब्रह्मको सर्वोत्तम वेद देकर सर्वलोकके पितामहरूपसे अण्ड में स्थापित करके स्वयंप्रकाशित होकर भ्रमण करते हैं ॥ २१ ॥ अथ जातसृष्टीच्छो ब्रह्मा चन्द्रसूर्यावस्मत्प्रत्यक्षावुत्पादयामासेत्याह
अथ सृष्टयां मनश्चक्रे ब्रह्माहंकारमार्तभृत् ॥
मनसश्चन्द्रमा जज्ञे सूर्योऽक्षणोस्तेजसां निधिः ॥ २२ ॥ अथाधिकारप्राप्त्यनन्तरम् । अहङ्कारतत्त्वमूर्तिधारको ब्रह्मा सृष्टयां मनोन्तःकरणं बोकगोति स्म । ब्रह्मणोऽहं सृष्टि करांमांतीच्छा जातेत्यर्थः । अनन्तरं तस्य मनसः सकाशाचन्द्रमा जज्ञ उत्पन्नः । चन्द्रो भवत्विति मनसा चन्द्रो जात इत्यर्थः । अक्ष्णो. नेत्राभ्यां सकाशात्तेजसां निधिराकरभूतः सूये उत्पन्नः । चक्षुरिन्द्रियस्य तैजसत्वात ॥ २२ ॥ भाटी-तिसके उपरान्त अहंकारमूर्तिधारी ब्रह्माने जब सृष्टिकरनेका मन किया तब
चंदमा, भौर नेत्रों के तेजसे तेज निधानरूप सूर्य उत्पन्न हुए ॥ २२॥ अथ महाभूतोत्पत्तिमाह
मनसः खं ततो वायुरनिरापो धरा क्रमात् ॥
गणेकवृद्ध्या पञ्चैव महाभूतानि जज्ञिरे ॥ २३॥ मनस आकाशो भवत्वितीच्छयात्मनः खमाकाशं तत आकाशाक्रमाबथोत्तरं वायुर
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(१९४) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽनिर्जलं पृथिवी । “आकाशाद्वायुयोरग्निरनेरापोऽयः पृथिवी" इति गुणैकवृद्धया गुण स्यैकोपचयेन महाभूतानि पञ्चसङ्ख्याकानि । एवकारान्यूनाधिकव्यवच्छेदः । जज्ञिरे उत्पन्नानि । शब्दगुणसहितमाकाशं शब्दस्पर्शगुणद्वयसमेतो वायुः शब्दस्पर्शरूपा. त्मकगुणत्रयसमेतोऽग्निः शब्दस्पर्शरूपरसात्मकगुणचतुष्टयसमेतं जलं शब्दस्पर्शरूपरसगन्धात्मकगुणपञ्चकसमेता पृथिवीति स्फुटार्थाः ॥ २३ ॥
मा०टी०-मनसे प्रयम शून्य, फिर वायु, अग्नि, जल और धरती, एकगुणकी वृद्धिके द्वारा 'पांच महाभूतको उत्पन्न करते हुए ॥ २३ ॥ अथ चन्द्रसूर्ययोः स्वरूपं वदन्पञ्चताराणामुत्पत्तिमाह
अग्नीषोमो भानुचन्द्रौ ततस्त्वङ्गारकादयः॥
तेजोभूखाम्बुबातेभ्यःक्रमशः पञ्च जज्ञिरे ॥ २४ ॥ सूर्यचन्द्रौ प्रागुदितोत्पत्ती अग्निपोमो सूर्योऽमिस्वरूपस्तेजोगोलकाश्चाक्षुषत्वात् । चन्द्र स्तु सोमस्वरूपः । मद्यस्य सामवाच्यत्वाजलगोलरूपः । अग्नीषोमाविति प्रयोगच्छान्दसिकः । ततोऽनन्तरमंगारकादयो भौमादयः पञ्चताराग्रहास्तेजोभूखाम्बुवातेभ्यः क्रमादुत्पन्नाः । तुकारादुक्तभूतस्य भागाधिक्यमन्यभूतानां च भागसाम्यमित्यर्थः । मंगल. स्तेजस उत्पन्नोऽत एवायमङ्गारक उच्यते । बुधो भूमितः । बृहस्पतिराकाशात् । शुक्रो जलात् । शनिर्वायोः ॥ २४ ॥
मा०टी०-अग्निसे मरवरूप, रवि, चन्द्र, आदिमें तोपरान्त मंगलादि ग्रहगण तेन, पृथ्वी भामाश जल वायुसे क्रमानुसार पांच उत्पन्न हुए ॥ २४॥ अथ राशीन्नक्षत्राणि चाह
पुनशधात्मानं व्यभजद्राशिसञ्ज्ञकम् ॥
नक्षत्ररूपिणं भूयः सप्तविंशात्मकं वशी ॥ २५ ॥ पुनरनन्तरमात्मानं द्वादशधा द्वादशस्थानेषु राशिसञ्जकं व्यभजत् । मनःकल्पितं वृत्तं द्वादशविभागं राशिवृत्तमकरोदित्यर्थः । भूयो द्वितीयारमात्मानं नक्षत्ररूपिणं सप्तविशात्मकं व्यभजत् । मनःकल्पितं तदेव वृत्तं सप्तविंशतिविभागं चाकरोदित्यर्थः । ननु न्यूनाधिकविभागाः कथं न कृता उक्तसङ्ख्यायां नियामकाभावादित्यत आहवशीति । इच्छाविषयं वशं विद्यते यस्येति वशी स्वतन्त्रेच्छस्य नियोगानहत्वात् । खेच्छया सत्संङ्ख्याका विभागाः कृता इति भावः । सप्तविंशतिविभागव्यञ्जकानि नक्षत्राणि तारात्मकानि निमितानीत्यर्थसिद्धम् ॥ २५ ॥
भा०टी०-वशी ब्रह्माने फिर मनसे कल्पित वृत्तको १२ भागमें राशिरूपसे और फिर २७ भागमें नक्षत्ररूपसे विमाग किया ॥ २५ ॥
भूतावकारकादयः इति वा पाठः।
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घ्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटोकासमेतः। अथ चराचरं जगदकरोदित्याह
ततश्चराचरं विश्व निर्ममे देवपूर्वकम् ॥
ऊर्ध्वमध्याधरेभ्योऽथ स्रोतोभ्यः प्रकृतीः सृजन् ॥ २६ ॥ ततः स चक्रग्रहसर्जनानन्तरमूर्ध्वमध्याधरेभ्यः श्रेष्ठमध्याधमेभ्यः स्रोतोभ्यो व्यक्तिभ्यः प्रकृतीः सत्त्वरजस्तमोविभेदात्मकप्रकृतीः सृजन्निमार्यन् देवपूर्वकं देवमनुष्यासुरादिकं विश्वं जगचराचरं चेतनाचेतनात्मकं निर्ममे कृतवान् ॥ २६ ॥
मा० टी०-तदोपरान्त श्रेष्ठ, अधम, अनुयायी, प्रकृति सृजन करके देव मानवादि चराचर विश्वको निर्माण किया ॥ २६ ॥ अथ रचितपदार्थानामवस्थानं कृतवानित्याह
गुणकर्मविभागेन मृष्ट्वा प्राग्वदनुक्रमात् ॥ विभागं कल्पयामास यथास्वं वेददर्शनात् ॥२७॥ गुणाः सत्त्वरजस्तमोरूपाः कर्म पूर्वजन्मार्जितं सदसत्कर्म । अनयोविभागेनकीकरणात्मकेन प्राग्वञ्चन्द्रसूर्यादिपायुक्तसृष्टिरित्यनुक्रमात्सृष्ट्वा देवमनुष्यासुरभूमिपर्वतादिकचराचरसर्जनं कृत्वा वेददर्शनाद्वेदोक्तप्रकारायथास्वं यथादेशं यथाकालं विभागमवस्थानविभागं कल्पयामास कृतवान् ॥ २७ ॥
मा० टी०-गुण और कर्मके विभागसे पूर्वक्रमरूपसे सृष्टिकरके वेदमें कही रीतिके मन सार विभागादि किये ॥ २७ ॥ केषामित्यत आह
ग्रहनक्षत्रताराणां भूमेर्विश्वस्य वा विभुः ॥
देवासुरमनुष्याणां सिद्धानां च यथाक्रमम् ॥२८॥ विभुर्नियोजनसमर्थो ब्रह्मा ग्रहनक्षत्रयोबिम्बानां पृथिव्यास्त्रलोक्यस्य । वाकारः समु. चये । आकाशेऽवस्थानं कृतवान् । तत्र ग्रहनक्षत्राणां यथाकालमनियतावस्थानम् । पृथिव्यास्तु नियतावस्थानम् । पृथिव्यां तु त्रैलोक्यस्य यथादेशमवस्थानम् । तत्र यथाक्रमं यथायोग्यं देवासुरमनुष्याणां सिद्धानाम् । चः समुच्चये । अवस्थानं यथादेशं कृतवान् ॥ २८॥ __ भा० टी०-अणिमादिगुणसम्पन्न ब्रह्माजीने ग्रह नक्षत्र ताराओंको, पृथ्वीको और विश्वको तथा देवासुर सिद्धादिको तिन २ के वियोजित क्रमसे स्थित कराया ॥ २८ ॥ .. ननु सर्वत्राकाशस्य सत्त्वाब्रह्माण्डमध्यस्थेन ब्रह्मणा ग्रहनक्षत्राणां भूमेश्यावस्थानं ब्रह्माण्डबहिराकाशे कृतमथवा ब्रह्माण्डान्तराकाशे कृतमित्यत आह
ब्रह्माण्डमेतत्सुषिरं तत्रेदं भूर्भुवादिकम् ॥ कटाहद्वितयस्यैव सम्पुटं गोलकाकृतिः ॥२९॥
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(१९६) सूर्यसिद्धान्तः
[द्वादशोऽएतत्मागुक्तं ब्रह्मणाधिष्ठितं सुवर्णाण्डं सुषिरमपकाशात्मकं तबावकाशे इदं जगत् भूर्भुवःस्वर्गात्मकमवस्थितं न बहिः । नन्वण्डमगोलाकारत्वेनान्तरावकाशात्मकत्वमसम्भवतीत्यत आह- कटाहद्वितयस्येति । कटाहोऽर्धगोलाकरं सावकाशं पात्रं तस्य द्वितयं द्वयं समं तस्य । एक्कारो न्यूनाधिकव्यवच्छेदकार्थः । सम्पुटमाभिमुख्येन मिलितं गोलकाकृतिर्गोलाकारः स्यात् । तथाच न क्षतिः ॥ २९ ॥ __ भाल्टो०-अवकाशयुक्त ब्रह्माण्ड में भूर्भुवादि स्थित हैं । दो कटाहके सम्पुट जातिकी समान गोलाकार है ॥ २९ ॥
अथ ब्रह्माण्डान्तःपरिधिं वदस्तदंतर्भग्रहादिकमाकाशे यथास्थानं परिभ्रमतीति श्लोकाभ्यामाह
ब्रह्माण्डमध्ये परिधिव्योमकक्षाभिधीयते ॥ तन्मध्ये भ्रमणं भानामधोऽधः क्रमशस्तथा॥ ३० ॥ मन्दामरेज्यभूपुत्रमूर्यशुक्रन्दुजेन्दवः !!
परिभ्रमन्त्यधोऽधस्थाः सिद्धविद्याधरा घनाः ॥३१॥ ब्रह्माण्डान्तः परिधिस्तुल्यवृत्तमानं व्योमकक्षा वक्ष्यमाणाकाशकक्षोच्यते । तन्मध्ये ब्रह्माण्डमध्य आकाशे भानां नक्षत्राणां सर्वेषां सर्वतस्तुल्योवान्तरितानां भ्रमणं भ. वति । तथा तुल्योर्धान्तरेणाधो नक्षत्रेभ्योऽधोऽधःक्रमाच्छनिबृहस्पतिभौमार्कशुकवुधचन्द्रा अधस्तात्परिभ्रमन्ति । सिद्धा विद्याधराश्वाधस्थाश्चन्द्रादधस्थिता अधोध: क्रमेणाकाशे स्थिताः । एषां प्रवहवायाववस्थानाभावाञ्चन्द्रवन्न परिभ्रमः ॥ ३० ॥३१॥ ___ भा०टी०-ब्रह्माण्डमें परिधिका नाम व्योमकक्षा हे तिसमें नक्षत्रोंका भ्रमण है तिसके नोच क्रमानुसार शनि, बृहस्पति, मंगल, शुक्र, सूर्य, बुध चन्द्रमा भ्रमण करते हैं । तिसके. नीचे सिद्ध विद्याधर गण, मोर सबसे नीचे समस्त भेघ स्थित हैं ॥ ३० ॥ ३१॥ अथ भूम्यवस्थानमाह
मध्ये समन्तादण्डस्य भूगोलो व्योनितिष्ठति ॥
बिभ्राणः परमां शक्तिं ब्रह्मणो धारणालिकाम् ॥ ३२॥ . अण्डस्य ब्रह्माण्डस्य समन्तात्सर्वप्रदेशान्मध्ये मध्यस्यान केन्द्ररूप आकाशे भूगोलस्तिष्ठति । नन्वाकाशे निराधारवस्तुनोऽवस्थानासम्भवास्थमवस्थितो भूमिगोल इ. त्यतो भूगोलविशेषणमाह-बिभ्राण इति । ब्रह्मणः परमां शक्तिं धारणात्मिकां निराधारावस्थानरूपां बिभ्राणो धारयन । तथा च न क्षतिः । एतेन भूः किमाकारा किमाश्रयति प्रश्नदयमुत्तरितम् ॥ ३२ ॥
भा०टी०-ब्रह्माकी धारणारिमका परमाशक्तिके बलसे अण्डके सर्व प्रदेशके मध्यदेशमें योमके बीच भूगोल स्थित है ।। ३२॥
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ध्यायः १२. ] संस्कृतीका भाषाटीकासषेतः ।
अथ कथंचात्र सप्तपातालभूमय इति प्रश्नस्योत्तरमाहतदन्तरपुटाः सप्त नागासुरसमाश्रयाः ॥ दिव्यौषधिरसोपेता रम्याः पातालभूमयः ॥ ३३ ॥
तस्य भूगोलस्यान्तरपुटा मध्यस्थपुटा गुहारूपाः सप्तातलवितलसुतलादिकाः पातालभूमयः पातालप्रदेशा रम्या मनोहराः सन्ति । ननु भूगोले मनुष्यादिकमस्ति तथा तत्र के सन्तीत्यतस्तद्विशेषणमाह - नागासुरसमाश्रया इति । वासुकिप्रमुखादयः सर्पा दैत्या एषामाश्रयभूताः । ननु तत्र सूर्यसञ्चाराभावात्तमोमयत्वेन तत्स्थितलोकानां व्यवहारः कथं भवतीत्यतो द्वितीयं विशेषणमाह - दिव्यौषधिरसोपेता इति । दिव्या या औष धयः स्वप्रकाशास्तासां रसैर्युक्ताः । तथा च तत्प्रकाशेन व्यवहारो भवति तद्वशेन तल्लोकानां जीवनं च भवतीति भावः ॥ ३३ ॥
( १९७)
भा० टी०-भूगोल के अन्त में स्थित नागासुराश्रित पातालादि ७ भूमियें स्वप्रकाश वृक्षों से • युक्त और रमणीक हैं ॥ ३३ ॥ .
अथ भूगोलमुक्त्वा दक्षिणेत्तर भूव्यासाधिकप्रमाणमेरोरवस्थानमाहअनेकरत्ननिचयो जाम्बूनदमयो गिरिः || भूगोलमध्यगो नेरुरुभयत्र विनिर्गतः ॥ ३४ ॥
भूगोलमध्यगतः पर्वतो मेल्याने करत्ननिचयोऽनेकानि नानाविधानि पाणिक्यवज्रादीनि तेषां निचयः समूहा त्रासौ । जाम्बूनदमयो जाम्बूनदं । "जम्बूफलामल गल्सतः प्रवृत्ता जम्बूनदी रतदुता मृदभूत्सुवर्णम् । जाम्बूनदं हि तदतः सुरसिद्धसङ्घाः शश्वत्पिबन्त्यमृतपानानुभावाः ॥” इति भास्कराचार्योक्तेश्च सुवर्ण तन्मयः स्वर्णघटित उभयत्र व्यासारित भूपृष्ठप्रदेशाभ्यां विनिर्गतो बहिः स्थितदण्डाकारस्वर्णाद्रिमध्ये भूगोलः प्रोतोऽस्ति । अतएव भूभृदित्यन्वर्थसंज्ञ इति तात्पर्यार्थः ॥ ३४ ॥ भा० टी० - भूगोल के मध्यगा और उभय मेरुसे निकली हुई जम्बूनदीसे शोभित विविध रत्नका बना हुआ मेरु है ॥ ३४ ॥
अथ मेरोरूर्ध्वाधः प्रदेशयोर्देवादयोऽसुराश्च वसन्तीत्याहउपरिष्टात्स्थितास्तस्य सेन्द्रा देवा महर्षयः ॥ अधस्तादसुरास्तद्वद्दिषन्तोऽन्योन्यमाश्रिताः ॥ ३५ ॥
उपरिष्टात्स्थितास्तस्य सेन्द्रा इंद्रसहिता देवा इन्द्रादयो देवा महर्षयः । चः समुच्चयार्थोऽनुसन्धेयः । स्थिताः । अधस्तान्मेरोरधः प्रदेशे । असुरा दैत्याः । तद्वत् । यथोर्ध्वभागे देवास्तद्वदित्यर्थः । आश्रिता आस्थिताः । ननु देवासुरराचैकत्र कथं न स्थिता इत्यत आह- द्विषन्त इति । अन्योन्यं परस्परं द्वेषं कुर्वन्तः । तथा च देवासुरोः पर
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( १९८ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ दशमा
स्परं द्वेषसद्भावादेकत्रावस्थानासंभवेनोत्तमा देवास्तदूर्ध्वभागे स्थिता महर्षयश्च दैत्यभीवास्तंत्रैव स्थितास्तदधोभागे तन्निकृष्टा दैत्याः स्थिता इति भावः ॥ ३५ ॥
मा० टी० - ऊपर ( उत्तर दिशा ) में इन्द्रादि देवता और महर्षिगण स्थित हैं | नीचे ( दक्षिण में ) असुरोंका वास है । परस्पर में विद्वेष होनेके कारण दूसरी दिशा में आश्रय किया है ॥ ३५ ॥
अथ भूगोले समुद्रावस्थानमाह
ततः समन्तात्पारीधः क्रमेणायं महार्णवः ॥
मेखलेव स्थितो धात्र्या देवासुरविभागकृत् ॥ ३६ ॥
दण्डाकारमेगेः सकाशादभितोऽयं प्रत्यक्षो महार्णवो महासमुद्रः क्रमेण निरन्तरालक्रमेण परिधिरूपो भूम्या मेखलेव काञ्चीरूपो देवासुरविभागकृत् देवदैत्ययोर्भूमिगोले विभागयोरवधिरेखारूप इत्यर्थः । तेन समुद्रादुत्तरं भूगोलस्यार्धं जम्बूद्वीपं देवानां समुद्रा दक्षिणं समुद्रातिरिक्तं भूमिगोलस्यार्धं षड्वीपषट् समुद्रोभयात्मकं दैत्यानामिति सिद्धम् । मेरुदण्डानुरुद्ध भूगोलमध्ये परिधिरूपो लवणसमुद्रोऽस्ति । उत्तरगोलार्धं दक्षि णभूगोलार्धार्न्तगतसमुद्रस्य प्रान्तपरिधिस्पृष्टमिति मरेखेलायाः कटयधः स्थितत्वेन तात्पर्यार्थः ॥ ३६ ॥
मा०टी०-तिसमें महासमुद्र घेरे के आकार से मेखलाको समान स्थित है । समुद्रने भूगोळ को देवार भूमि विभाग किया है || ३६ ||
अथ समुद्रोत्तरतटे परिधिरूपे जम्बूद्वीपारम्भे चतुर्विभागे चत्वारि नगरा सन्तीत्याह
समन्तान्मरुमध्यात्त तुल्यभागेषु तोयधेः ॥
द्वीपेषु दिक्षु पूर्वादि नगर्यो देवनिर्मिताः ॥ ३७ ॥
मेरुमध्याद्दण्डाकारमेरोर्मध्यप्रदेशाद्भूगोलगर्भात्मकादिति त्वर्थः । समन्तादभितो भूगोलपृष्ठे तोयधेः परिधिरूपसमुद्रस्य तुल्यभागेषु समभागेषु डीपेषु जम्बूद्वीपारम्भेषु दिक्षु चतुर्विभागेषु चतुर्दिक्षु पूर्वादिनगर्यो मेरोः पूर्वदक्षिणपश्चिमोत्तरदिक् क्रमेण चतुःपुर्यो देवनिर्मिता देवैः कृताः सन्तीति शेषः । समुद्रोत्तरतटे जम्बूद्वीपस्यादिभागरूपे तुल्यान्तरेण चत्वारि नगराणि भूगोलस्य कल्पितपूर्वादिदिशासु सन्तीति तात्पर्यार्थः
३७ ॥
माटी- मेरुमध्यप्रदेशमै घेरारूप समुद्रकी पूर्वादि चारों दिशाओं में देवताओंकी बनाई हुई चार हैं ॥ ३७ ॥
यथासां नामानि द्वीपोत्थितस्य जम्बूद्रीपादिभागस्थितवर्षाख्यपारिभाषिकविभागेष्वित्यर्थे च श्लोकत्रयेण विशदयति
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ध्यायः १२] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः ।
भूवृत्तपादे पूर्वस्यां समकोटीति विश्रुता॥ भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा ॥ ३८॥ याम्यायां भारत वर्षे लंका तन्महापुरी ॥ पश्चिमे केतुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता ॥३९॥ उदक्सिद्धपुरी नाम कुरुवर्षे प्रकीर्तिता ॥
तस्यां सिद्धा महात्मानो निवसन्ति गतव्यथाः॥४०॥ भूगोल उभयत्र दण्डाकारो मेरुर्यत्र निर्गतस्तत्स्थानाभ्याम् । वृत्ताकारसूत्रेणोर्ध्वाध. रेण भूगोलस्य खण्डद्वयं पूर्वापरं तिर्यग्वृत्ताकारं सूत्रेणोवधिोभूमेः खण्डद्वयं तेन भू. गोलेव प्राकाराश्चत्वारो भूम्यंशास्तत्रोर्ध्वस्थपूर्ववप्रे भूम्यां यः समुद्रपरिधिस्तस्य चतुर्थाशे भद्राश्वसंज्ञकवर्षे पूर्वस्मिन्नूवधिःशकलसन्धौ सुवर्णघटिताः प्रासादास्तोणानि च यस्यामेतादृशी पुरी यमकोटोति संज्ञया विश्रुता विख्याता याम्यायामूर्ध्वशकलद्वयसंधौ मेरुस्तस्य दाक्षिणत्वाद्भारतसञ्ज्ञवर्षे लंकासज्ञा महानगरी तद्वत स्वर्णप्राकारतोरणा विश्रुतेत्यर्थः । पश्चिमे पश्चिमशकलाधःस्थशकलसन्धौ के. तुमालसंज्ञे वर्षे रोमकसंज्ञा नगरी उक्ता । उदक् । अधाशकलयसन्धौ कुरुसज्ञकवर्षे सिद्धपुरीनाम नगरी प्रोक्ता । अस्याः पुर्याः सिद्धपुरीत्वमन्वमित्याहतस्यामिति । सिद्धपुर्या सिद्धा योगाभ्यासका अस्मदादिभ्यो महानुत्कृष्ट आत्मा येषां ते गतव्यथा दुःखरहिता निरन्तरा वसन्ति ॥ ३८ ॥ ३९ ॥ ४० ॥
भा०टी०-भूवृत्तके चतुर्थीशसे पूर्वदेशमें भद्राश्व वर्ष है, तिसमें यमकोटि पुरी है कहते हैं कि या सुवर्षकी भीत और तोरणोंसे वेष्टित है । दक्षिणदिशामें भारतवर्ष है; तिसके मध्यमें लंका महापुरी है । पश्चिमके बीच केतुमाळवर्षमें रोमक नगरी है। उत्तरमें कुरुवर्ष पुरीके बीच सिद्धपुरी स्थित है, तहां सिद्ध महात्मालोग सब कष्टोंसे छुटे हुए वास करते हैं।॥ ३८ ॥ ३९ ॥ ४० अथोक्तानां चतुर्णी पुराणां परस्परमन्तरालमव्यवहितं मेरोरासामन्तरं चाह
भृवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिताः॥ .
ताभ्यश्चोत्तरगो मेरुस्तावानेव सुराश्रयः ॥४१॥ ता उक्तनगर्योऽन्योन्यं परस्परं भूवृत्तपादविवरा भूगोलवृत्तपरिधिचतुर्थांशान्तरालाः प्रतिष्ठिताः सन्तीत्यर्थः । चकारः पूर्वोक्तेन समुच्चयार्थकः । ताभ्य उक्तपुरीभ्यः सकाशादुत्तरदिक्स्थो मेरुः पूर्वोक्तः सुराश्रयः देवैरधिष्ठितस्तावान्भूपरिधिचतु१ ताभ्यश्चोत्तरतो मेरुरिति वा पाठः।
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( २०० )
सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽ
थंशान्तरण स्थितः । एवकारो न्यूनाधिकव्यवच्छेदार्थः । चकारः श्लाकपूवाधन समुच्चयार्थः ॥ ४१ ॥
मा० टी० - नगरियें भूवृत्तके चनुर्थांश परस्पर के अन्तर में स्थित हैं । तिनसे तिनकी बार बर उत्तरदेशमें वह मेरुपर्वत है जिसपर देवता लोग रहते हैं ॥ ४१ ॥ अथ तेषां पुराणां निरक्षत्वमस्तीत्याह
तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः ॥
न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते ॥ ४२ ॥ तासामुक्तनगरीणां विषुवत्थो विषुववृत्तस्थो यद्दिने समरात्रिन्दिवं तद्दिने यन्मार्गे भ्रमति तद्विषुवद्वृत्तं तत्रस्थ इत्यर्थः । सूर्य उपरिंगः सन्याति भ्रमति । अतः कारणातासु नगरीषु विषुवच्छायाक्षभा न भवति तन्नगराणां विषुवद्वत्ताभिन्नपूवापरवृत्तसद्भावात् । तत्रस्थसूर्यमध्याह्ने छायाभावोपलम्भात् । अतएव तेषु नगरेषु अक्षध्रुवस्योनतिमुच्चताक्षांशरूपा नेष्यते नांगीक्रियते । अक्षांशाभावान्निरक्षदेशत्वं तेषां सिद्धमिति भावः ॥ ४२ ॥
मा० टी० - विषुवतस्थित सूर्य तिनसे ऊपरको गमन करते हैं। इस कारण तहां पर न विषुत्र च्छाया है न अक्षोन्नति है ॥ ४२ ॥
अथ मेरायुक्तपुरीषु च क्रमेण लम्बांशाक्षांशाभावावुपपत्त्या प्रतिपादयिषुस्तयोः प्रथमं ध्रुवस्थितिमाह -
मेरोरुभयतो मध्ये ध्रुवतारे नभः स्थिते ॥
निरक्षदेश संस्थानामुभये क्षितिजाश्रये ॥ ४३ ॥
मेरोरुभयतो दक्षिणोत्तराप्रयोराकाशस्थिते ध्रुवतारे दक्षिणोत्तरे क्रमेण मध्य आकाशमध्ये भवतः । निरक्षदेशसंस्थानां प्रागुक्तनगरस्थितमनुष्याणामुभये दक्षिणोत्तरे ध्रुवतारे क्षितिजाश्रये तद्भूगर्भक्षितिजवृत्तस्थे भवत इत्यर्थः ॥ ४३ ॥
मा० टी० - दोनों मेरु मध्य आकाश में दक्षिण और उत्तर में दो: धवतारे स्थित हैं । निर क्षदेशमें स्थित होने के कारण दोनों क्षितिज रेखामें स्थित हैं ॥ ४३ ॥
अथात एव तेष्वक्षांशाभावलम्बांशपरमत्वमिति वदन्मेरावक्षांशपरमत्वमित्याहअतो नासोच्छ्रयस्तासु ध्रुवयोः क्षितिजस्थयोः ॥ नवतिलंम्बक शास्तु मेरावक्षांशकास्तथा ॥ ४४ ॥
तासूक्तनगरीषु । अत उभये क्षितिजाश्रये इतिकारणात् । यक्षोच्छ्रयो ध्रुवौच्च्यं न । तथा च क्षितिजादुधुवौच्च्यमक्षांशा इति तदभावात्तदभाव इति भावः । तुका रातन्नगरीषु ध्रुवयोः क्षितिजस्थयोः । सतोलम्बांशा नवतिः शून्याक्षांशोननवतेलम्वांशत्वात् । खमध्याद्ध्रुवयोः क्षितिजस्य लम्बांशस्वरूपत्वाच्च मेरावक्षांशास्तथा
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घ्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । नवतिः । ध्रुवस्य परमोचत्वात् । यथा निरक्षदेशेऽक्षांशाभावालम्बांशाः परमास्त. था मेरावक्षांशपरमत्वालम्बांशाभाव। इत्यसिद्धम् । एतेन “ पुरान्तरं चदिदमु. त्तरं स्यात्तदक्षविश्लेषलवैस्तदा किम् । चक्रांशकैरित्यनुपातयुक्त्या युक्तं निरुक्तं परि. धेः प्रमाणम् ॥” इति भास्कराचार्योक्तं प्रथमप्रश्नस्योत्तरं सूचितम् । स्पष्टपरिधि. साधनं च कल्पितैकमध्यस्थानानुरोधेनापचीयमानं मेरावभावात्मकं नानुपपन्नमिति च सूचितम् ॥ ४४ ॥
भा०टी०-तिसके लिये तहापर वौच्च्य नहीं है। दो ध्रुव क्षितिज गोलमें स्थित हैं इसकारण तहांके लम्बकांश ९० और मेरुके भक्षांश नम्चे हैं ॥ ४४ ॥ अथाहोरात्रव्यवस्थां चेत्यादिप्रश्नोत्तरं विवक्षुर्देवासुरयोदिनारम्भं प्रथममाह
मेषादौ देवभागस्थे देवानां याति दर्शनम् ॥
असुराणां तुलादौ तु सूर्यस्तद्भागसंचरः॥ ४५ ॥ जम्बूद्वीपलक्षणसमुद्रसन्धौ परिधिवृत्तं भूगोलमध्ये तत्समसूत्रेणाकाशे वृत्तं विषुववृत्तं तत्र क्रान्तिवृत्तं षड्भान्तरेण स्थानद्वये लग्नं तन्मेषतुलास्थानं प्रवहवायुना विषुववृत्तमार्गे भ्रमति मेषस्थानात्कर्कादिस्थानं विषुववृत्ताच्चतुर्विंशत्यंशान्त उत्तरतः । मकरादिस्थानं विषुवद्वत्ताचतुर्विंशत्यंशान्तरे दक्षिणतः । तत्स्वस्थाने प्रवहवायुना भ्रमति । एवं क्रांतिवृत्तप्रदेशाः स्वस्वस्थाने प्रवहवायुना भवन्ति । तत्र मेषादौ देवभागस्थो जम्बूद्वीपं देवासुरविभागकृदिति पूर्वोक्तेः। तत्सम्बद्धा मेषादिकन्यांता राशय उत्तरगोलः । तत्रस्थः सूर्यो मेषादौ मेषादिप्रदेशे देवानां मेरोरुत्तराग्रवर्तिनां दर्शनं षण्मासानंतरप्रथमदर्शनं याति गच्छति । प्रामोतीत्यर्थः । विषुवद्वत्तस्य तक्षितिजत्वात् । एवं दैत्यानां मेरोदक्षिणायवर्तिनामित्यसुराणामित्युक्तेनैवोक्तम् । तद्भागसञ्चगे दैत्यभागे समुद्रादिदक्षिणविभागस्थास्तुलादिमीनान्ता राशयो दाक्षिणगोलस्तत्र सञ्चरो गमनं यस्येत्येतादृशसूर्यस्तुलादिप्रदेशे तुकाराददर्शनानन्तरं प्रथमदर्शनं प्रामोतीत्यर्थः । तेषामपि विषुवद्वत्ताक्षातजत्वात् ॥ ४५ ॥
भा० टी०-सूर्यमेषादि देवभागमें स्थित होनेपर देवतामाका दृश्य होता है । तुलादि असुर मागमें स्थितहो तो असुरोंका दृश्य होता है ॥ ४५ ॥ अथ प्रसङ्गाग्रीष्मे तीव्रकर इत्याद्य|क्तप्रश्नस्योत्तरमाह
अत्यासनतया तेन ग्रीष्मे तीबकरा खेः॥
देवभागे सुराणां तु हेमन्ते मन्दतान्यथा ॥ ४६॥ तेन । उत्तरदक्षिणगोलयोः सूर्यस्योत्तरदक्षिणसंचाररूपकारणेनेत्यर्थः । देवभागे जम्बूद्वीपे । अत्यासन्नतया सूर्यस्यात्यन्तनिकटस्थत्वेन ग्रीष्मे ग्रीष्मौ सूर्यस्य तेजोगोलकस्य किरणास्तीक्ष्णा अत्युष्णा असुराणां देवभाग इत्यस्यासन्नतया भाग इत्यस्य
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(२०२) सूर्यसिद्धान्तः--
[ द्वादशोसमन्वयादैत्यानां भागे समुद्रादिदक्षिणप्रदेशो हेमन्ते हेमन्तौ तुकारात्सूर्यस्यात्युष्णाः किरणाः सूर्यस्यात्यासन्नत्वात् । अन्यथा सूर्यस्य दूरस्थत्वेन मन्दता किरणाना. मत्युष्णताभावः । देवभागे हेमन्तौ कराणां मन्दता । अतएव तत्र शीताधिक्यं दैत्यमागे ग्रीष्मे कराणां मन्दता शीताधिक्यं च। तथाच । देवभागे दक्षिणगोले सूर्यस्य दूरस्थत्वमुत्तरगोले निकटस्थत्वं मध्याह्ननतांशानां क्रमणाधिकाल्पत्वादिति भावः ॥ ४६॥ __ भा० टी०-इसीकारण अस्यासनके वशसे देवभागमें देवताओं के पक्षमें सूर्यको किरण तीव्र होती हैं। अन्यथा हेमन्तमें मन्दताको प्राप्त करती हैं ॥ ४६ ॥ अथ मेषादौ देवभागस्य इत्युक्तं देवासुराहोरात्रकथनव्याजेन विशदयति
देवासुरा विषुवति क्षितिजस्थं दिवाकरम् ॥
पश्यन्त्यन्योन्यमेतेषां वामसव्ये दिनक्षपे ॥४७॥ विषुवात काले देवदैत्याः सूर्य क्षितिजस्थं पश्यन्ति । विषुववृत्तस्य तयोः स्वस्थाना गोलमध्यस्थत्वेन क्षितिजत्वात् । एतेष देिवदैत्यानामन्योन्यं परस्परं ये वामसव्ये अपसव्यसव्ये त क्रमण दिनक्षपे दिवसरात्री भवतः । अयं भावः । देवानां भूमेरुत्वरभागः स्वकीयत्वात्सव्यमतो दत्यानामपसव्यं स्वकीयत्वाभावात् । एवं दैत्यानां भूमेदशिणभागः स्वकीयत्वात्सव्यं देवानां स्वकीयत्वाभावादपसव्यमतो दैत्यानां वामसव्यभागावुत्तरदक्षिणगोली देवानां क्रमेण दिनरात्री । देवानां वामसव्यभागी दक्षिणोत्तरगोलो दैत्यानां दिनरात्री । अन्यथान्योन्यं वामसव्ये इत्यनयोः संगतार्थानुपपत्तेः । अतएव पूर्व मेषादावित्यायुक्तमिति ॥ ४७ ॥ ___ भा० टी०-विषुवदिनमें सूर्यको देवता और असुर क्षितिजोखामें देखते हैं। इस प्रकारसे उत्तर दक्षिण वशसे दिनरातका परस्पर उल्टा फेर होता है ॥ १७ ॥
अथ पूर्वश्लोकोत्तरार्धस्य सन्दिग्धत्वशङ्कया दिनपूर्वापरार्धकथनच्छलेन तदर्थश्लोकाभ्यां विशदयति
मेषादावुदितः सूर्यस्त्रीराशीनुदगुत्तरम् ॥ सञ्चरन्प्रागहमध्यं पूरयेन्मेरुवासिनाम् ॥ १८॥ कादीन सञ्चरंस्तद्वदतः पश्चार्धमेव सः॥
तुलादीस्त्रीन्मृगादीश्च तद्रदेव सुरद्विषाम् ॥ १९ ॥ मेषादौ विषुववृत्तस्थक्रांतिवृत्तभागे रेवत्यासन उदितो दर्शनतां प्राप्तः सूर्य उत्तरं यथोत्तरं क्रमेणेति यावत् । त्रीनराशीनुदगुत्तरभागस्थान्मेषवृषमिथुनान्सचरन्नतिक्रामन्सन्मेरुस्थानां देवानां प्रागहमध्यं प्रथमं दिनस्याधै पूरयेत्पूर्ण करोतीत्यर्थः । मिथुनान्ते
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ध्यायः १२. ]
संस्कृतटीका - भाषाटोकासमेतः ।
( २०३ )
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सूर्ये मेरुस्थानां मध्याह्नं स्यादिति फलितार्थः । कर्कादिींस्त्रीन्ाशीन्कर्क सिंहकन्यास्तइयर्थः । अतिक्रामन्सन्स सूर्यो दिवसस्य पश्चार्द्धमपरदलम् । एवकारोऽन्ययोगव्यवच्छेदार्थः । पूरयेत् । कन्यान्ते सूर्यमेरुस्थानां सूर्यास्तो भवतीति फलितार्थः । अथ दैत्यानामाह । तुलादीनिति । सुरद्विषां मेरोदक्षिणाग्रवर्तिनां दैत्यानामित्यर्थः । तुलादींस्त्रीन्राशींस्तुलावृश्विकधनुराख्यान् राशीन्मकरकुम्भमीनांस्तद्वत्क्रमेणातिक्रामन् सूर्यः । चकारस्तुलामृगादिक्रमेण पूर्वापरार्धमित्यर्थकः । एवकार उक्तातिरिक्तव्यवच्छेदार्थः । दिनं पूरयतीत्यर्थः । धनुरन्ते सूर्ये दैत्यानां मध्याह्नं मीनान्ते सूर्ये सूर्यास्तो भवतीति फलितार्थः ॥ ४८ ॥ ४९ ॥
भा० टी० - उत्तरमेवासियों के पक्ष में मेषादिमें सूर्य होनेपर सूर्योदय ३ राशितक क्रमसे उत्तरको होता है तब मेरुमें रहनेवाले देवोंके दिनका पूर्वार्द्ध होता है कर्कट आदि उत्तरराशिया म होनेसे परार्द्ध दिवा है | वैसेही तुलादि और मकरादिमें असुरों की पूर्वपरार्द्ध दिशा है || ४८ ॥ ४९ ॥ अथातो देवासुराणामिति प्रश्नस्योत्तरं सिद्धमित्याह
अतो दिनक्षपे तेषामन्योन्यं हि विपर्ययात् ॥ अहोरात्रप्रमाणं च भानोर्भगणपूरणात् ॥ ५० ॥
अत उक्तकारणात्तेषां देवदैत्यानामन्योन्यं परस्परं हि निश्चयेन विपर्ययाद्व्यत्यासादिनरात्री स्त इति फलितम् । एतत्फलितार्थस्तु पूर्वे बहुधोक्तः । अथ तत्कथं वा स्यात् । भानोर्भगणपूरणादिति प्रश्नस्याप्युत्तरं फलितमित्याह - अहोरात्रप्रमाणमिति । सूर्यस्य मेषादिद्वादशराशिभोगाद्देवदैत्यानामहोरात्रमानं भवति । चकारः पूर्वार्धेन समुश्च्चयार्थकस्तेन द्वयोः पूर्वोक्तमेकं कारणमिति स्पष्टम् ॥ ५० ॥
मा० टी० - इस लिये परस्पर उनके दिनरात अदलबदलते हैं । सूर्यकें भगणका पूरण कालही अहोरात्र है ॥ ५० ॥
अथ मेषादावुदित इत्यादिश्लोकद्वयस्य फलितार्थं तदुपपत्तिं चाहदिनक्षपार्धमेतेषामयनान्ते विपर्ययात् ॥
उपर्यात्मानमन्योन्यं कल्पयन्ति सुरासुराः ॥ ५१ ॥
एतेषां देवदैत्यानामयनान्तेऽयन सन्धौ विपर्ययाद्यत्यासाद्दिनक्षपार्धं दिनार्धं रात्र्यर्धे च भवति । यत्र देवानां मध्याह्नं रात्र्यर्धं तत्र दैत्यानां क्रमेण रात्र्यर्धमध्याह्ने यत्र च दैत्यानां मध्याह्नरात्र्यर्धे तत्र देवानां क्रमेण रात्र्यर्धमध्याह्ने इति फलितार्थः । अत्र हेतुमाह - उपरीति । देवदैत्या मेरोरुत्तरदक्षिणाग्रवर्तिनोऽन्योन्यमात्मानं स्वमुपरिभाग ऊर्ध्वभागे कल्पयन्त्यंगीकुर्वन्ति । वस्तुतो भूमेर्गोलकत्वेन सर्वत्र तुल्यत्वान्निरपेक्षोर्ध्वाधोभागयोरनुपपत्तेः । तथाच देवदैत्यापेक्षयोर्ध्वस्थत्वं मन्यमाना दैत्यानधःस्थानङ्गीकुर्वन्ति । दैत्याश्च देवस्थानापेक्षयोर्ध्वस्थं मन्यमाना देवानधः कुर्वन्तीति तात्पर्यार्थः ।
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(२०४) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽएवं च देवदैत्ययोर्विपरीतावस्थानादिनराज्योरीत्यं युक्तमेवेति भावः ॥५१॥
मा० टी०-दिवाई मौर राज्य याम्योत्तर अयनान्तमें होताहै। मुरासुरका विपरीत मावसे हुआ करताहै | और वे अपने २ स्थानको उपर समझते हैं ॥ ११ ॥ अथ देवदैत्ययोरूवाधोरीतिमन्यत्रापि सदृष्टान्तमतिदिशति
अन्येऽपि समसूत्रस्था मन्यन्तेऽधः परस्परम् ।।
भद्राश्वकेतुमालस्था लङ्कासिद्धपुराश्रिताः ॥५२॥ अन्ये देवदैत्यभिन्ना भूगोलस्थाः । अपिशब्दो देवदैत्ययोः समुच्चयार्थकः । समसूत्र' स्था भूव्यासान्तीरता नराः परस्परमधो मन्यन्ते । तत्रोदाहरति । भद्राश्वकेतुमालस्था इति । भद्राश्वकेतुमालशब्दौ स्वस्यान्तर्गतयमकोटिरोमकनगरविशेषाभिधायको स्पष्ट भूव्यासान्तरस्थत्वमंगीकरोतु यथाश्रुतं परस्परमधो मन्यन्ते तुर्यचरणस्तु ब्यक्त 'एव ॥ ५२॥
भा० टी०-वैसेही समसूत्रवाले गण परस्परको नीचे समझते हैं । जैसे भद्राश्च और केतुमाळ अथवा लंका और सिद्धपुरवासी समसूत्रवाले हैं ॥ ५२ ॥ अथोक्तं काल्पनिकमेत द्रढयन्नाह
सर्वत्रैव महीगोले स्वस्थानमुपर स्थितम् ।।
मन्यन्ते खे यतो गोलस्तस्य वाध्व क्वाप्यधः ॥ ५३॥ भूगोले सर्वत्र सर्वप्रदेशेषु मध्ये स्वस्थानं निजाधिष्ठितस्थानमूर्ध्वस्थितं तदधिष्ठिता मनुष्याः स्वाभिमानेनाङ्गोकुर्युः । अतः कारणाडूगोले सर्व एवोर्ध्वस्थाः । अधःस्थास्तु न भवन्त्येव । स्वापेक्षयोवधिःस्थत्वं न वस्तुत इति तत्त्वम् । अन्यथाधःस्थत्वेन पतनशङ्कया भूगोले मनुष्याद्यवस्थानानुपपत्तेः । अत्र कारणमाह-व इति । यतः कारणात् खे ब्रह्माण्डाकाशमध्यभागे भूगोलोऽस्ति । तथाच भूगोलादभितस्तुल्यत्वाद्भूगोले तत्त्वतयोध्वोंधोभागादेरसम्भव इति भावः । स्वाभिप्रायं स्पष्टयति-तस्येति । भूगोलस्याकाशमध्यस्थस्य समन्तादाकाशे क्व कस्मिन् भागे उर्ध्वमूर्ध्वत्वम् । कस्मिन् भागे । वा समुच्चये । अधोऽधस्त्वम् । अपिरूलत्वेन समुच्चयार्थकः । तथा च समन्तादाकाशस्य तुल्यत्वेन भूमेरू/धोभागौ निर्वचनीकर्तुमशक्यौ याभ्यामूर्ध्वाधोलोकानियताः स्युरिति भूमेरूर्वाधोभागाद्यसम्भवादिति भावः ॥ ५३ ॥
मा० टी०-पृथ्वीके गोल होनेसे सर्वत्र अपने २ स्थानको उपर स्थितहुआ समझते हैं' ान्य मध्यस्थित गोलमें नीचाही क्या है ? और उसमें ऊंचाईही कहां है ? ॥ ५३ ॥ नन्वियं भूः समादर्शाकारा प्रत्यक्षा कथं गोलाकारेत्यत आह
अल्पकायतया लोकाः स्वात्स्थानात्सर्वतो मुखम् ।। पश्यन्ति वृत्तामप्येतां चक्राकारां वसुन्धराम् ॥ ५४॥
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घ्यायः १२. ]
संस्कृतटीका - भाषाटीकासमेतः ।
( २०५ )
जनाः स्वाधिष्ठितप्रदेशात् सर्वतः सर्वदिक्षु । अभिमुखं वृत्तां गोलाकारामेतां प्रत्यक्षां पृथ्वीं चक्राकारां मण्डलाकारां समां पश्यन्ति । एवकारार्थेऽपिशब्दः । तेन भूमेर्वस्तुतो गोलाकारत्वेऽपि तदाकारेणादर्शनं मुकुराकारतया दर्शनं च न विरुद्धम् । अत्र हेतुमाह-अल्पकायतयेति । ह्रस्वशररित्वेनेत्यर्थः । तथाच महतीभस्तत्पृष्ठस्थस्य मनुष्यस्याति-ह्रस्वस्याल्पदृष्टिप्रचाराद्गोलाकारतया न भासते किन्तु सममण्डलतया भासते गोलवृत्तशतांशस्य समत्वेन भानात् । अन्यथा प्रथमज्यायाश्चापसमत्वानुपपत्तिरिति
भावः ॥ ५४ ॥
मा०टी०-छोटे शरीरवाले होनेसे लोग चारों ओर इस पृथ्वीको गोलाकाररूपसे देखते हैं ॥ ५४ ॥
अथ निरक्षादिदेशेषु मेरुव्यतिरिक्तान्यदेशेषु दिनरात्र्योर्मानं विवक्षुमेरोरग्रभागयोनिरक्षदेशेषु भचक्रभ्रमणमाह-
सव्यं भ्रमति देवानामपसव्यं सुरद्विषाम् ॥ उपरिष्टाद्भगोलोऽयं व्यक्षे पश्चान्मुखः सदा ॥ ५५ ॥
मयं प्रत्यक्षो भगोलो नक्षत्राधिष्ठित मूर्तगोलो देवानां मेरोरुत्तराग्रवर्तिनां सव्यम् । पूर्वादिक्रममार्गेणेत्यर्थः । भ्रमति भ्रमपरिवर्त करोतीत्यर्थः । दैत्यानां मेरोदक्षिणाग्रवर्तिनामपसव्यं पूर्वादिदिग्व्युत्क्रममार्गेण । पूर्वोत्तरपश्चिम दक्षिणक्रमेणेत्यर्थः । नक्षत्रा -- धिष्ठितगोले भ्रमति । व्यक्षे निरक्षदेशेषु । जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । उपरिष्टान्मस्तकोर्ध्वमध्यभागो भगोलः पश्चान्मुखः पश्चिमदिगभिमुखः सदा नित्यं परिभ्रमति । भगोलस्य ध्रुवमध्यस्थत्वेन भ्रमणात् । तयोस्तत्र क्षितिजवृत्तस्यत्वाच्च ॥ ५५ ॥
भा०टी० - यह भूगोल देवताओंके निकट सव्यादिमें ( दक्षिण से वाममें) और असुरोंके निकट अपसव्यादिमें और निरक्षमनुष्योंके निकट मस्तको मध्यभाग में पश्चिम दिशाम भ्रमण करता है ॥ ५५ ॥
अथ निरक्षे दिनरात्र्योर्मानं कथयन्नन्यत्रापि ततो न्यूनाधिकं मानं, भवतीत्याह - अतस्तत्र दिनं त्रिंशन्नाडिकं शर्वरी तथा ॥ हानिवृद्धी सदा वामं सुरासुरविभागयोः ॥ ५६ ॥
अतो निरक्षे मस्तकोर्ध्वभगोलो भ्रमतीति कारणात् तत्र निरक्षदेशे त्रिंशन्नाडिकं त्रिंशद्धीमितं दिनं स्यात् । शर्वरी रात्रिस्तथा त्रिंशद्वटीपरिमिता स्यात् । तत् क्षितिजवृत्तस्य ध्रुवद्वयसंलग्नतया गोलमध्यस्थत्वाद्दिनरात्र्योस्तुल्यत्वं युक्तमेवेति भावः । सुरासुरविभागयोर्जम्बूद्वीपसमुद्रादिदक्षिणदेशयोः सदा विषुवत्क्रमणातिरिक्तकाले क्षयवृद्धी दिनरात्र्योः प्रत्येकं वामं व्यस्तं यथा स्यात् तथा ज्ञेयम् । एतदुक्तं भवति जम्बूद्वीपे दिनहासे रात्रिवृद्धिस्तदा दक्षिणदेशे दिनरात्र्योः क्रमेण वृद्धिहानी । जम्बू
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(२०६) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशा-- द्वीपदिनवृद्धौ रात्रिहानिस्तदा दक्षिणदेशे दिनराग्योः क्रमेण हानिवृद्धी । एवं दक्षिणदेशे हानिवृद्धयोर्जम्बूद्वीपे वृद्धिहानी दिने रात्रौ वा यथायोग्यमिति । अत्रोपपत्तिः। तत् क्षितिजवृत्तस्य ध्रुवसम्बन्धभावेन गोलमध्यस्थत्वाभावादिनराग्योः सदा विषुवदिनव्य. तिरिक्तेन तुल्यत्वं किन्तु न्यूनाधिकत्वमहोरात्रस्य षष्टिघाटकात्मकत्वादिति ॥ ५६ ॥
भा० टी०- निरक्षदेशमें सदा तीस घडीका दिन और ३० हीकी रात होती है । सुरासुरविभागमें दिनगतके विपरीतरूपसे हानि वृद्धि होती है ॥ ५६ ।। अथैतत् श्लोकोत्तरार्थ श्लोकाभ्यां विशदयति
मेषादौ तु सदा वृद्धिरुदगुत्तरतोधिका ॥ देवांशे च क्षपाहानिर्विपरीतं तथा सुरे ॥ ५७॥ तुलादो युनिशामिं क्षयवृद्धी तयोरुभे॥
देशकान्तिवशान्नित्यं तद्विज्ञानं परोदितम् ॥१८॥ मेषादौ षड्भ उदगुत्तरगोले सूर्ये सति । उत्तरतो यथोत्रं सदा यावदुत्तरगोले देवांशे जम्बूद्वीपेऽधिका यथोत्तरमधिका वृद्धिर्निरक्षदेशीयदिने तुकारायथोत्तरं सूर्यस्योत्तरगमने यथोत्तरं दिने वृद्धिः परमोत्तरगमनात् परावर्तते । यथोत्तरं न्यूनावृद्धिरित्यर्थः । क्षपाहानी रात्रेरपचयः । चा समुच्चये । आसुरे ससुद्रादिदक्षिणभागे तथा दिनराज्योः क्षयवृद्धी विपरीतं व्यस्तम् । दिने हानी रात्रौ वृद्धिरित्यर्थः । तुलादौ षड्भे दक्षिणगोले सर्ये सति तयोर्जम्बूद्वीपसमुद्रादिदक्षिणभागयोदिनराम्योरुभे दे क्षयवृद्धी उपचयापचयौ वामं व्यस्तम् । अयमर्थः । जम्बूद्वीपे दिनरात्र्योरुत्तरगोलस्थवृद्धिक्षयक्रमेण क्षयवृदी स्तः। समुद्रादिदक्षिणभागे दिनरात्र्योवृद्धिक्षयौ स्त इति । ननु क्षयवृद्धयोः कियमितत्वमित्यतः पूर्वोक्तं स्मारयति-देशकान्तिवशादिति । तद्विज्ञानं तयोः क्षयवृद्धयो. ज्ञानं संख्याज्ञानं नित्यं प्रत्यहं देशकान्तिवशात् । देशपलभाक्रान्तिरेतदुभयानुरोधात्पु. रा पूर्वखण्डस्पष्टाधिकारे "क्रांतिज्या विषुवद्भानी क्षितिज्या द्वादशोदृत्ता । त्रिज्यागुणाहोरात्रार्धकर्णाप्ता चरजासवः । तत्कार्मुकम्” इत्यनेन दिनराव्योरर्धमुक्तम् । तद्दिगुणं दिनराज्योरित्यसिद्धम् । अत्रोपपत्तिः । निरक्षदेशे ध्रुवद्वयलग्नं क्षितिजवृत्तं तत उत्तरभागे स्वस्थानक्षितिजं स्वभूगोलमध्यस्थमुत्तरध्रुवादधो दक्षिणध्रुवाच्चोच्चमित्यत उत्तर गोले निरक्षाक्षितिजादधो दक्षिणगोल अर्ध्वमिति पंचदशघटिका निरक्षदशदिनार्धं क्षितिजान्तररूपचरेण गोलक्रमण युतहीनं दिनार्धं राज्यधै च विपरीतम् । एवं दक्षिणभागेs भीष्टदेशे क्षितिजमुत्तरसुवादुन्नतं दक्षिणधुवान्नतामति निरक्षक्षितिजान्निरक्षक्षितिजं गोलक्रमेणो/ध इत्युत्तरभागाव्यस्तम् ॥ ५७ ॥ ५८ ॥
१ मेषादी प्रत्यहम् इति वा पाठः ।
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ध्यायः १२. } संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (२०७)
मा० टी०-सूर्यमेषादिमें (कर्कतक) संचरण करनेसे देवांशमें क्रमानुसार दिनमान वृद्धि मौर रात्रिमामकी हानि होती है, किन्तु असुरांशम विपरीत होता है। तुलादिमें दिवानिशि मान भौर क्षय वृद्धि विपर्यय होता है । क्षय वृद्धि देशकी क्रान्तिके वशसे जैसा होता है वही सर्वोत्तम ज्ञान पूर्वमें ( २ अध्यायमें ) कह आयाहूं ।। ५७॥५८ ॥ अयोक्तस्यावधिदेशं विक्षुः प्रथमं तदुपयुक्तानि क्रान्त्यंशयोजनान्याह
भूवृत्तं कान्तिभागनं भगणांशविभाजितम् ॥
अवाप्तयोजनरको व्यक्षाद्यात्युपरि स्थितः ॥ ५९॥ मूवृत्तं भूपरिधियोजनमानं प्रागुक्तमष्टिक्रान्त्यशैणितं द्वादशराशिभागैः षष्ट्यधिकशतत्रयमितैर्भक्तं लब्धयोजनैः कृत्वा सूर्य उपरि आकाशे स्थितो वर्तमानो दाक्षिणत उत्तरतो वा याति गच्छति । कान्त्यभावे तु निरक्षदेशोपर्यव परिभ्रमति । अत्रोपपत्तिः । निरक्षदेशान्मरोरुत्तरदक्षिणाग्राभिमुखं सूर्यः क्रान्त्यशैर्गच्छति । तद्योजनज्ञानं तु भगणांशैर्मेर्वग्रदयनिरक्षदेशस्पृष्टभूपरिधियोजनानि तदा कान्त्यशैः कानीत्यनुपातेने. त्युपपन्नम् ॥ ५९॥
भा० टी०-भवृत्तको (५०५९) सूर्यक्रान्तिसे गुणकरके ३६० से भागकरनेपर जो योज. न संख्या होगी निरक्ष देशसे तितने योजन दूर स्थित स्थानमें सूर्य मध्याह्नके समय मस्तकपर होगा ॥ ५९॥ अथ दिनमानानयनगणितस्यावधिदेशज्ञानं श्लोकाभ्यामाह
परमापक्रमादेवं योजनानि विशोधयेत् । भूवृत्तपादाच्छेषाणि यानि स्युयोजनानि तेः॥६॥ अयनान्ते विलोमन देवासुरविभागयोः ॥
नाडीषष्टया सकृदहनिशाप्यास्मिन सकृत्तथा ॥ ६ ॥ परमक्रान्तिभागाच्चतुर्विशन्मितात् । एवं पूर्वोक्तरीत्या योजनानि जातानि । भूपरिघेः पूर्वोक्तस्य चतुर्थाशात्परिवर्जयेत् । अवाशिष्टान यानि यासंख्यामितानि योजनानि मवन्ति तैोजनैर्देवासुराविभागयोर्निरक्षदशादुनरदक्षिणप्रदेशयोn देशौ तयोरित्यर्थः । अयनान्त उत्तरदक्षिणायनसन्धौ कर्कादिस्थे सूर्य दक्षिणोत्तरायणसन्धौ मकरादिस्थे सूर्ये विलोमेन व्यत्यासेन सकृदेकवारं नाडीपष्टया घटीषष्ट्याह दिनमानं भवति । अस्मिन्नेतादृशे देशे तस्मिन्नेवायनसन्ध्यासन्ने सकृदेकवारं तथा पष्टिघटीमिता विलोमेन रात्रिर्भवति । अपिशब्दो दिनेन समुच्चयार्थः । एतदुक्तं भवति । कांदिस्थे सूर्ये निरक्षदशादुत्तरतद्योजनान्तारतदेशे षष्टिघटीमितदिनं तदैव निरक्षदेशादक्षिणतद्योजनान्तरितदेशे पष्टिघटीमिता रात्रिः । मकरादिस्थे सूर्य तादृशोत्तरभागे षष्टिघटीमिता
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(२०८) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽरात्रिदक्षिणभागे तादृशे षष्टिमितं दिनामति । अत्रोपपत्तिः । परमक्रान्तियोजनानि भूवृत्तचतुर्थाशयोजनभ्यो हीनानि। निरक्षदेशात्तन्मितयोजनान्तरितो यो दक्षिणो. त्तरदेशस्तस्मान्मेरोदक्षिणोत्तराग्रं क्रमेण परमक्रान्तियोजनान्तरितम् । अतस्तत्र लं. बांशाश्चतुर्विंशतिः पलांशाश्च षट्षष्टिरिति । तदेशे क्रांतिवृत्तानुकारं क्षितिजमित्यय. नान्ते पञ्चदशघटीमितमहोरात्रवृत्तचतुर्भागखण्डं निरक्षतद्देशक्षितिजयोरेन्तरालरूपं चरमत उक्तरीत्या दिनाथू राज्यधैं वोक्तरीत्या यथायोग्यं त्रिंशत्तद्विगुणं पाष्टघटमितत. न्मानं गणितरीत्योपपन्नम् "युक्तं चैतत् । अयनान्ताहोरात्रवृत्तस्यैकस्य तत्क्षितिजप्रदेश एकत्रैव संलग्नत्वादूद्विधा संलग्नत्वाभावात्मवहभ्रमितसूर्यपरिवर्तपूर्तिः षष्टिघटीभिर्दर्शन मदर्शन यथायोग्यं तद्गोलस्थित्या प्रत्यक्षसिद्धमेति ॥ ६० ॥ ६१ ॥
मा० टी०-सूर्यके परमापक्रमके अनुसार योजन, भूवृत्त योजन पादसे अलग करनेपर जो योजन रहते हैं निरक्ष देशसे तितने दूर मयनान्त दिनको देवासुर विभागमें विपरीतरूपसे दिनरात ६० धटीका होता है ॥ ६० ॥ ६१॥ अथोक्तदिनरात्रिमानगणितं तदवाधिदेशपर्यन्तं दक्षिणोत्तरभागयोर्नाग्र इत्याह
तदन्तरेऽपि षष्टयन्ते क्षयवृद्धी अहर्निशोः ॥
परतो विपरीतोऽयं भगोलः परिवर्तते ॥ ६२॥ तदन्तरे निरक्षदेशोक्तावधिदेशयोरन्तरालदक्षिणोत्तरविभागदेशे षष्टयन्ते षष्टिघटीमध्ये क्षयवृद्धी अपचयोपचयावुक्तरीत्या दिनरात्र्योर्यथायोग्यं भवतः । परतोऽवधिदेशादाग्रिमदेशे दक्षिणोत्तरे दैत्यदेवस्थाननिकटेऽयं प्रत्यक्षो भगोलो नक्षत्राधिष्ठितो मूर्तो गोलो विपरीतोऽवधिदेशान्तर्गतदेशसम्बन्धी गणितविरुद्धः परिवर्त्तते भ्रमति तत्रोक्तरीत्या दिनराज्योवृद्धिक्षयौ न भवत इत्यर्थः । त्रिज्याधिकाराचरानयनानुपपत्तेः । चरस्वरूपासम्भवाच ॥ ६२ ॥
मा० टी०-दोनों दिशामें उस दूरताके मध्य ६० दण्डके मध्यमें दिन या रात घटता बढता है । तिससे ऊपर दोनों स्थानमें विपरीत भावसे भूगोल पारभ्रमण करता है ॥ ६२ । अथ विपरीतगोलास्थिति श्लोकाभ्यां प्रदर्शयति
उने भूवृत्तपादे तु द्विज्यापक्रमयोजनः॥ धनुर्मूगस्थः सविता देवभागेन दृश्यते ॥ ६३ ॥ तथा च सुरभागे तु मिथुने कर्कटे स्थितः॥
नष्टच्छाया महीवृत्तपादे दर्शनमादिशेत् ॥ ६॥ इराशिज़्याया ये क्रान्त्यंशास्तेषां योजनैः पूर्वावगतैर्भूपरिधिचतुर्थाशे होने कृते सति । तुकारान्निरक्षेदेशाद्यद्योजनांतरिते देशे देवभाग उत्तरभागे धनुर्मकरराशिस्थो कस्तद्देशवासिभिर्न दृश्यते । धनुर्मकरस्थे । तेषां रात्रिः सदा स्यादित्यर्थः । असुर
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( २०९ )
ध्यायः १२. ] संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः । भागे निरक्षदेशाद्दक्षिणप्रदेशे । चः समुच्चयार्थः । तुकारात्तयोजनान्तरितप्रदेशे मिथुने कर्के कर्कराशौ स्थितोऽर्कस्तथा तद्देशवासिभिर्न दृश्यते । नष्टच्छाया महीवृत्तपादे | अभावं प्राप्ता छाया भूच्छाया यत्र तादृशे भूपरिधिचतुर्थांशे सूर्यस्य दर्शनं सदा कथयेत् । यत्र भूच्छायात्मिकरात्रिर्नास्ति तत्र दिनामित्यर्थः । तथा च निरक्षदेशातद्योजनान्तरितोत्तरप्रदेशे कर्कमिथुनस्थोऽर्को दृश्यते तद्योजनान्तरितदक्षिणप्रदेशे धनुर्स - करस्थोऽदृश्यत इति फलितार्थः । अत एव त्र्यंशयुङ्गनवरसाः पलांशका यत्र तत्र विषये कदाचन । दृश्यते न मकरोनकार्मुकं किञ्च कर्किमिथुनौ सदोदितौ ॥ इति भास्कराचार्योक्तं संगच्छते ॥ ६३ ॥ ६४ ॥
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भा०टी०-द्विराशिके अपक्रमागत योजन भूवृत्तपाद
वियोग करनेपर जो योजन होता ह, तिनात दूर देवभाग में धनु वा मृगस्थित सूर्य कभी दिखाई नहीं देता । असुर भाग में वैसेही दूरस्थान से मिथुन कर्क स्थित सूर्य कभी दिखता नहीं । जिस स्थान में पृथ्वीको छाया नहीं है तहांपर सूर्यका दर्शन होता है ! ६३ ॥ ६४ ॥ यथान्यत्रापि विपरीतस्थितिं श्लोकाभ्यां दर्शयतिएकज्यापकमानीतैर्योजनैः परिवर्जितः ॥ भूमिकक्षाचतुर्थांशे व्यक्षाच्छेषैस्तु योजनैः ॥ ६५ ॥ धनुर्मृगालिकुम्भेषु संस्थितोऽको न दृश्यते ॥ देवभागेऽसुराणां तु वृषाद्ये भचतुष्टये ॥ ६६ ॥
एकरात्रिज्यायाः क्रान्त्यंशेभ्यो भूपरिधिचतुर्थीशे होने कृते सति निरक्षदेशादवशिष्टैर्योजनैः । तुकारादन्तरिते देशे देवभाग उत्तरभागे धनुर्मकर वृश्चिककुंभराशिषु स्थितः सूर्यस्तद्देशवासिभिर्न दृश्यते । असुराणां दैत्यानां निरक्षदेशात्तद्योजनान्तरितदक्षिणभागे वृषादिके राशिचतुष्टये स्थितोऽर्कस्तद्देशवासिभिर्न दृश्यते । तुकारादुत्तरभागे वृषादिचतुष्टयास्थितोऽर्कस्तद्देशवासिभिर्दृश्यते वृश्चिकादिचतुष्टयस्थितोक दक्षिणभागे तद्देशवासिभिर्दृश्यत इत्यर्थः । अतएव " यत्र साङ्घ्रिगजवाजिसम्मितास्तत्र वृश्चि कचतुष्टयं न च । दृश्यते च वृषभाच्चतुष्टयं सर्वदा समुदितं हि लक्ष्यते ॥ इति मास्कराचार्योकं च संगच्छते ॥ ६५ ॥ ६६ ॥
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मा०टी०-एक राशिके अपक्रमगत योजन भूवृत्तपादसे घटालेनेपर जो योजन होता है तिस दूरके स्थानसे देवभाग में वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भके स्थित सूर्य नहीं दीखते तलाव स्थित असुरभागमें वृषादि चार राशिके सूर्य नहीं देखे जाते || ६५ ॥ ६६ ॥
अथ शून्यराशिकान्त्यानीत योजनेभ्यो ऽवगतमेर्वग्रभागयोरपि स्थितिवैलक्षण्यवादमेरो मेषादिचत्रा देवाः पश्यन्ति भास्करम् ॥ सकृदेवोदितं तद्वदसुराश्च तुलादिगम ॥ ६७ ॥
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(२१०) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽमेरावुत्तराग्रावस्थिता देवा मेषादिचक्रार्धे मेषादिराशिषट्केऽवस्थितमकै सकृदेकवारम् । एवकारादनेकवारनिरासनिश्चयः ।। उदितमदर्शनानन्तरं प्रथमदर्शनविषयं निरन्तरं पश्यन्ति । असुरा मेरुदक्षिणाग्रस्था दैत्याः । चः देवैः समुच्चयार्थः । तुलादिराशिषट्कस्थं तद्वत् सकृदुदितं निरंतरं पश्यन्ति ॥ ६७ ॥
मा० टी०-मरुस्थित देवतालोग मेषादिचक्रार्द्धगत सूर्यको सदा देखते हैं और असुरलोग जुलादिगत सूर्यको तैसाही देखते हैं ॥ ६७ ॥ अथ निरक्षदेशादयनसन्धौ कियद्भिर्योजनैरू_मर्को भवति तदाह
भूमण्डलात्पञ्चदशे भागे देवेऽयवासुरे ॥
उपरिष्टाजत्यर्कः सौम्ययाम्यायनान्तगः ॥ ६८॥ देव उत्तरभागे। अथवासुरे दक्षिणभागे । निरक्षदेशाद्भूपरिधेः पंचदशे भागे तत्फलयोजनांतरिते देशे क्रमेण सौम्ययाम्यायनान्तगउत्तरायणांतदक्षिणायनांतस्थितोऽर्क उपरिष्टादूर्ध्व व्रजति परिभ्रमति । यथा गोलसंधी निरक्षदेशे तथात्र भागद्वय इति फलितार्थः । अत्रोपपत्तिः । अयनांतस्थे परमकांतिश्चतुर्विंशत्यंशास्तद्योजनानि । 'भूवृत्तं क्रांतिभागघ्नं भगणांशविभाजितम् ' इत्यत्र चतुर्विंशतिमितगुणभगणांशमितहरौ गुणेनापवर्त्य हारस्थाने पंचदशेति भूमंडलात्पंचदशे भाग इत्युक्तमुपपन्नम् ॥ ६८ ॥ ___ भा० टी०-भूवृत्तके पंचदश भाग दूर उत्तर अयनमें देवभागमें भौर दक्षिणायनमें मसुरभागमें सूर्य मस्तकके ऊपर होकर भ्रमण करते हैं ॥ ६८ ॥
अथ निरक्षदेशाडूपरिधिपञ्चदशभागपर्यन्तं सूर्यस्य दक्षिणोत्तरतो गमनमुक्त्वा तच्छायागमनं प्रतिपादयति
तदन्तरालयोश्छाया याम्योदवसम्भवत्यपि ॥
मेरोरभिमुखं याति परतः स्वविभागयोः ।। ६९ ॥ तदन्तरालयोनिरक्षदेशात्पञ्चदशभागमध्यस्थितदक्षिणोत्तरदेशयोश्छाया द्वादशांगुलशंकोर्मध्याह्नच्छायाभीष्टकालिकच्छायाग्रं वा दक्षिणाप्रमुत्तराग्रं वा संभवति । एतदुक्तं भवति । निरक्षदेशात्पंचदशभागान्तरालोत्तरदेशे मध्याह्ननतांशानां दक्षिणत्वे छायाग्रमुत्तरम् । नतांशानामुत्तरत्वे छायाग्रं दक्षिणम् । एवं निरक्षदेशात्पञ्चदशभागान्तगलस्थितदक्षिणदेशे सूर्यस्योत्तरस्थत्वे छायाग्रं दक्षिणं दक्षिणस्थत्वे छायाग्रमुत्तरमिति । परतः पञ्चदशभागान्तरालदेशे स्वविभागयोदक्षिणोत्तरविभागयोमरोरभिमुखं मेर्वकयोः सम्मुखं क्रमेण दक्षिणायमुत्तराग्रं यथा स्यात्तथेत्यर्थः । छाया याति गच्छति । भवतीत्यर्थः ।आपशब्दः पूर्वार्धार्थेन समुच्चयार्थकः ॥ ६९ ॥
भाटी-इन दोनोंके मध्यस्थित स्थानमें छाया दक्षिण. या उत्तरमें स्थित होसकती इतने ऊग अपने २ भागमें छाया मेरुके सामने पतित होता है ॥ ६९ ।
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ध्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२११) अथ कथं पर्येति भुवनानि विभावयन्निति प्रश्नस्योत्तरं श्लोकाभ्यामाह
भद्राश्वोपरिगः कुर्याद्रारते तूदयं रविः॥ राज्यध केतुमाले तु कुरावस्तमयं तदा ॥ ७० ॥ भारतादिषु वर्षेषु तदेव परिभ्रमन् ॥
मध्योदयाराव्यस्तकालात्कुर्यात्प्रदक्षिणम् ॥ ७१॥ भद्राश्ववर्षोपरिगतः सूर्यो भरतवर्षे स्वोदयं कुर्यात् । तुकारात् भद्राश्चवर्षे मध्याहू कुर्यात् । तदा तस्मिन्काले केतुमालवर्षेऽर्धरात्रं कुरौ कुरुवर्षेऽस्तमयं स्वास्तं कुर्यात् । तुकारादुक्तवर्षयोरन्तरले दिनस्य गतं शेषं वा गत्रेश्च तद्यथायोग्यं कुर्यादित्यर्थः । अतिस्थूलदेशग्रहणे यथाश्रुतमिदं भव्यं किश्चित्सूक्ष्मदेशग्रहणे तु यमकोटिलङ्कारोमकसिद्ध रराण्यन्तर्गतानि तच्छन्दवाच्यानि ज्ञेयानि । “लङ्कापुरेऽस्य यदोदयः स्यात्तदा दिनार्धे यमकोटिपुर्याम् । अधस्तदा सिद्धपुरेऽस्तकालः स्याद्रोमके रात्रिपलं तदेव ॥" इतिभास्कराचार्योक्तभूगोल उक्तंनगराणां भूपरिधिचतुर्थीशान्तरत्वात्संगच्छते । अथ भारतादिषु त्रिषु वर्षसज्ञेषु भारतकेतुमालकुरुवर्षेषु तद्भद्राश्चवर्षोपरिगवत् । एक्कारातन्यूनाधिकव्यवच्छेदः। परिभ्रमन्परिभ्रमण स्वस्वाभिमतस्थानोपरि स्थिति कुर्वन् सूर्यः प्रदक्षिणं यथा स्यात्तथा सव्यक्रमेण स्वस्थानादिक्रमेणेति यावत् । उक्तचतुर्वर्षेषु मध्योदयार्धराज्यस्तकालान्मध्याह्नोदयार्धराज्यस्तसज्ञान्कालान्कुर्यात । एतदुक्तं भवति । भारतवर्षोपरिगतेऽर्के भारतकेतुमालकुरुभद्राश्ववर्षेषु क्रमेण मध्याह्नसूर्योदयार्धरात्रास्ताः स्युः । केतुमालवर्षोपरिगतेऽर्के केतुमालकुरुभद्राश्वभारतवर्षेषु क्रमेण मध्याह्नसूर्योदयात्ररात्रास्ताः । कुरुवर्षोपरि गतेऽर्के कुरुभद्राश्वभारतकेतुमालवर्षेषु क्रमेण मध्याह्नसूर्योदयार्धरात्रास्ता भवन्तीति ॥ ७० ॥७१॥
भा०टी०-जिस समय भद्राश्वमें मस्तकपर सूर्य होता है, तब भारतमें लंकोदयगत होता है, केतुमालमें राम्यई (आधीरात) और कुरुवर्षमें मस्त प्रायः होता है । भारतादिवर्षमें वैसेही सूर्य भ्रमणके द्वारा मध्य, उदय, आधीरात, मस्तकाल आदिकरके प्रदक्षिण करते ॥ ७० ॥ ७१ ॥ ननु ग्रहाणां गतिसद्भावात्प्रतिदेशं याम्योत्तरयोग्र्हगमनं प्रतिक्षणं च विलक्षणं भासताम् । परंतु नक्षत्राणां गत्यभावात्प्रतिक्षणभ्रमेणैकवावस्थानाभावेऽपि प्रतिदेशमेकरूपावस्थानं कुतो न । एवं ध्रुवयोः परिभ्रमस्याप्यभावात्सदा सर्वत्रैकरूपावस्थानदर्शनापत्तिश्चेत्यत आह
ध्रुवोन्नतिर्भचकस्य नतिमरुं प्रयास्यतः ॥ निरक्षाभिमुखं यातुर्विपरीते नतोन्नते ।। ७२ ॥
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(२१२) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽमेरुं मेरोरुत्तराग्रं दक्षिणाग्रं वा तदभिमुखं प्रयास्यतो गच्छतः पुरुषस्य ध्रुवोन्नतिः क्रमेणोत्तरदक्षिणयोर्भुवयोरौच्च्यं भवति । भचक्रस्य नक्षत्राधिष्ठितगोलमध्यभागवृत्तस्य नतिः क्रमेण दक्षिणोत्तरयोर्नतत्वं भवति । निरक्षदेशाभिमुखं गच्छतः पुरुषस्य नतोन्नते पूर्वोक्ते व्यस्ते भवतः । उत्तरभागस्थपुरुषस्य निरक्षाभिमुखं गच्छतः पूर्वोक्तस्थानापेक्षयोत्तरध्रुवस्य नतत्वं पूर्वस्थानापेक्षया भचक्रस्योन्नतत्वम् । एवं दक्षिणभागस्थपुरुषस्य निरक्षाभिमुखं गच्छतः पूर्वस्थानापेक्षया दक्षिणध्रुवस्य नतत्वं भचक्रस्योन्नतत्वमिति ७२
मा०टी०-मेरुके सामने गमन करनेसे क्रमानुसार ध्रुव की उन्नति भौर भचक्रकी नति दिखाई देती है और निरक्षके सामने गमन करनेसे विपरीत दिखाई देताहै अर्थात् वकी नति भोर मचक्रकी उन्नति दिखाई देती है ॥ ७२ ॥
अथ कुत एवमित्यतः कथं पर्येति भगणः सग्रहोऽयं किमाश्रयः' इति प्रश्नस्योचरं भचक्रभ्रमणवस्तुस्थितिमाह
भचकं ध्रुवयोर्बद्धमाक्षिप्तं प्रवहानिलः॥
पर्यत्यजस्रं तनदा ग्रहकक्षा यथाक्रमम् ।। ७३ ॥ भचक्र नक्षत्राधिष्ठितमूर्तगोलरूपं ध्रुवयोदक्षिणोत्तरस्थिरतारयोर्बद्धं ब्रह्मणा निबद्धं नियतवायुगतिना गोलाकारेण प्रतिबद्धं प्रवहानिलैः प्रवहवाय्वंशैः स्वस्वस्थानस्थैराक्षिप्तं स्वस्वस्थानाभिघातं प्राप्तं सदजस्रं निरन्तरं पर्येति । पश्चिमाभिमुखं भ्रमतीत्यर्थः । ननु नक्षत्रचक्र वायुना भ्रमति । ग्रहास्त्वधोऽधास्था सम्बन्धाभावात्कथं भ्रमन्तीत्यत आह-तन्नद्धा इति । ग्रहाणां शन्यादीनां कक्षा मार्गा वाय्वंशरूपा भचक्रान्तर्गता. काशस्था यथाक्रममधोऽधस्तन्नद्धा महाप्रवहवायुगोलस्थापितभचक्रे वायुसूत्रेण निबद्धाः अतो भचक्रेण सह भ्रमति । तत्रस्था ग्रहा अपि भ्रमन्तीति किं चित्रम् । तथा च प्रव. हवायुगोलमध्यस्थविषुववृत्तपूर्वापरनिरक्षदेशे ध्रुवयोः क्षितिजस्थत्वाद्भचक्रस्य मस्तको. परि भ्रमणाच मेर्वग्राभिमुखं प्रयातुर्भुव उच्चो भवति । तत आसन्नत्वाद्भचक्रं नतं भवति । ततो दूरत्वादिति सर्व युक्तम् ॥ ७३ ॥
मा० टी०-दो ध्रुवम धाहुआ भचक्र प्रवहवायुसे माक्षिप्त होकर सदा घूमता है और क्रमानुसार तिसमें बद्ध ग्रहकक्षा, मचक्रके साथ चलती रहती है ॥ ७३ ॥ अथ पित्र्यं मासेन भवतीति प्रश्नयोरुत्तरमाह
सकृदुद्तमन्दाध पश्यन्त्यकं सुरासुराः ॥ . पितरः शशिगाः पक्षं स्वदिनं च नरा भुवि ॥ ७४॥
यथा देवदैत्या एकवारमुदितं सूर्य सौरवर्षापर्यन्तं पश्यन्ति । तथा पितरश्चन्द्रबिम्बगोलास्थिताः । पक्षं पंचदशतिथिपर्यन्तं पश्यन्ति । नरा भूमौ स्वदिनपर्यन्तमर्क पश्यन्यतः 'पित्र्यं मासेन भवति नाडीषष्ट्या तु मानुषम् ' इति सर्व युक्तमतएव
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ध्यायः १२] संस्कृतटीका-भाषार्टीकासमेतः। (२१३) "विधूप्रभागे पितरो वसन्तः स्वाधः सुधादीधितिमामनन्ति । पश्यन्ति तेऽक निजमस्तकोर्चेदर्स यतोऽस्माद्यदलं तदेषाम् । भार्धान्तरत्वान्न विधोरधःस्थं तस्मानिशीथः खलु पौर्णमास्याम् । कृष्णे रविः पक्षदलेऽभ्युदेति शुक्लेऽस्तमेत्यर्थत एव सिद्धम् ॥" इतिभास्कराचार्येण विस्तार्योक्तं संगच्छते ॥ ७४ ॥ __ भा०टी०- देवता और असुरलोग जैसे एकवार उदय हुए सूर्यको ६ मासपर्यन्त देखते हैं। पितृगण चन्द्रस्थित होनेका कारण पक्षभरतक और पृथ्वीके आदमी सारे दिन सूर्यको देखते हैं ॥ ७४ ।।
अथ प्रसंगादूर्ध्वस्थस्याल्पभगणानामधः स्थस्याधिकभगणानां युक्त्या प्रतिपादनार्थ प्रथमं कक्षाया अर्ध्वाधाक्रमेण महदल्पत्वं तत्रस्थभागानां महदल्पप्रदेशत्वं चाह
उपरिस्थस्य महती कक्षाल्पाधःस्थितस्य च ॥
महत्या कक्षया भागा माहन्तोऽल्पास्तथाल्पया ॥ ७९ ॥ ऊर्ध्वस्थग्रहस्य कक्षा वायुवृत्तमार्गरूपा महती महापरिधिप्रमाणा । अधःस्थस्य ग्रहस्य कक्षाल्पाल्पपरिधिप्रमाणा । चो निश्चयार्थ । लघुकक्षाणां महाकक्षान्तर्गतत्वेन महाकक्षाणां चान्तर्गतलघुकक्षात्वेनोर्ध्वाधास्थयोर्महदल्पपरिधिके कक्षे । अन्यथोक्तस्वरूपानुपपत्तेः । एवं महति वृत्तपरिधौ द्वादशराशिभागानां समत्वेनाङ्कने भागा एकैकमागप्रदेशा महत्या कक्षया कृत्वा महान्तो बहुस्थलात्मका लघुनि वृत्ते तदङ्कने तथा भागा अल्पया कक्षया कृत्वाल्पा अल्पस्थलात्मकाः क्रमेणैकैकभागप्रमाणमाधिकाल्पं न समं चक्रांशपूर्त्यनुपपत्तेरिति तात्पर्यम् ॥ ७५ ॥
भा० टी०-उपर स्थित कक्षा बडी है नीचे स्थित हुई कक्षा अल्प है, तिसकारण से कक्षा गत अंश बृहत् और मल्प होते हैं ॥ ७५ ।। अथोर्ध्वाधः क्रमेण ग्रहभगणभोगकालयोर्महदल्पत्वमाह
कालेनाल्पेन भगणं भुङ्क्तेल्पभ्रमणाश्रितः ॥
ग्रहः कालेन महतामण्डले महति भ्रमन् ॥ ७६ ।। अल्पभ्रमणाश्रितः । अल्पभ्रमणं परिधिमानं यस्याः साल्पभ्रमणाधःस्थकक्षा तत्स्थो ग्रहोऽल्पेन समयेन भगणं द्वादशराश्यात्मकं भुङ्क्तेऽतिक्रमते । महति मण्डले । उर्ध्वस्थकक्षायामित्यर्थः । भ्रमन्गच्छन्महता बहुना समयेन द्वादशराशीन्भुंके । वक्ष्यमाणयोजनगतेरभिन्नत्वात् ॥ ७६ ॥
भा०टी०-अल्पकक्षाश्रित ग्रह अल्पकाठमें भगणको भोग करता है । मौर महत्कक्षास्थित ग्रह दीर्घकालमें भोग करता है ॥ ७६ ॥
अथात एवोर्ध्वाधः क्रमेण ग्रहयोर्भगणास्तुल्यकालेल्पा बहवो भवन्तीति सोदाहरणमाह
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(२१४) सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽस्वल्पयातो बहून्भुक्ते भगणाञ्छीतदीधितिः ॥
महत्या कक्षया गच्छंस्ततः स्वल्पं शनैश्वरः ॥ ७७॥ स्वल्पप्रमाणया कक्षया । तुकारादतिकामंश्चंद्रो वहुप्रमाणान्भगणान्वहुवारं द्वादश. राशीनित्यर्थः । भुंक्ते. । महाप्रमाणया कक्षया गच्छञ्छनिस्ततश्चन्द्रात्स्वल्पं भगणमल्पप्रमाणान्भगणान् । जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । अल्पवारं द्वादशराशीन्मुंक्ते । अतएव शनैश्चर इति ॥ ७७ ॥
भा० टी०-एक समयके मध्यमें स्वल्प कक्षागत चंद्रमा बहुतसे भगण भोगताहै; परन्तु शनिकी कक्षाके महत्त्ववासे भगण मल्प होते हैं ।। ७७ ।। अथ 'दिनाब्दमासहोराणामधिपा न समाः कुतः' इति प्रश्नस्योत्तरं श्लोकाभ्यामाह
मंदादधःक्रमेण स्युश्चतुर्था दिवसाधिपाः॥ वर्षाधिपतयस्तद्वत्तृतीयाश्च प्रकीर्तिताः ॥ ७८॥ ऊर्ध्वक्रमेण शशिनो मासानामधिपाः स्मृताः॥
होरेशाः सूर्यतनयादधोऽधःक्रमतस्तथा ॥ ७९ ॥ शनेः सकाशादधः कक्षाक्रमेण चतुर्थसङ्ख्याका ग्रहा दिनाधिपतयो वारेश्वरा भ. वन्ति । यथा शनिरविचन्द्रभौमबुधगुरुशुक्रा इति तत्क्रमः । वर्षस्य षष्टयधिकशतत्रयदिनात्मकस्य स्वामिनस्तद्वन्मन्दादधःक्रमेण तृतीयसंख्याका ग्रहा उक्ताः । चः समुच्चयार्थे । तत्क्रमश्च यथा शनिभौमशुक्रचन्द्रगुरुसूर्यवुधा इति । चन्द्रात्सकाशादूर्ध्वकक्षाक्रमेण ग्रहा मासानां त्रिंशदिनात्मकानां स्वामिनः कथिताः । तत्क्रमश्च चन्द्रवुधशुक्ररविं भौमगुरुशनय इति । शनेः सकाशादधः क्रमशः । अधः क्रमेण होरेशाः 'होरोति लग्नं भगणस्य चार्धम्' इति पञ्चदशभागात्मकहाराणां दिने द्वादशरात्रौ द्वादशेत्यहोरात्रे चतुविशतिहोराणामित्यर्थः । होरा सार्धा द्विनाडिका' इति षष्टिघटिकात्मकेऽहोरात्रे । चतुविशातिहोराणामित्यन्ये । स्वामिनस्तथा मासेश्वरखदव्यवहिताः कथिताः । यथा तत्क्रमः शनिगुरुभौमरविशुक्रबुधचन्द्रा इति । अत्र शनेः सर्वोर्ध्वस्थत्वाचन्द्रस्य सर्वाधः स्थत्वात्ताभ्यामध ऊर्यक्रमः ऋमेणोक्तः।अन्यग्रहस्यावधित्वाभ्युपगमे विनिगमनाविरहा. पत्तेः । नतु शनेराद्यावधित्वेन सृष्ट्यादौ दिनवर्षहोराणां स्वामित्वं नवा चन्द्रस्याद्यावधित्वेन सृष्टयादौ मासेशत्वं पूर्वखण्डोक्तानीततदीशैविरोधापत्तेः । अत्रोपपत्तिः । होरारूपलग्नानां क्रान्तिवृत्तेऽधःक्रमेण मेषादीनां सम्भवादू कक्षातोऽधःक्रमेण होरेशत्वं युक्तम् । एवमहोरात्रे चतुर्विंशतिहोराः । सप्ततष्टास्त्रयोहोरेशा गताः । चतुर्थो होरेशो द्वितीयदिनप्रारम्भे स एव प्रथमहोरेशत्वाद्भद्वितीयदिनेशः । एवमुत्तरत्रापि । एवमेतद्वारक्रमेण सावनवर्षे त्रयो वारा इति पूर्ववर्षशादग्रिमवर्षशोऽधः कक्षाक्रमेण तृतीय उत्तरो
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ध्यायः १२.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२१५) त्तरम् । एवं सावनमासे द्वौ वारौ वारक्रमेण मासेश्वरस्याधिकाविति कक्षोर्ध्वक्रमे वारकमेणैकांतरितत्वात्कक्षोलक्रमेण मासेश्वर उत्तरोत्तरमित्युपपन्नं मन्दादित्यादिश्लोकद्धयम् ॥ ७८ ॥ ७९ ॥
मा० टी०-शनिसे नीचेके वृत्तमें गयाहुआ क्रमशः चौथा ग्रह दिनका स्वामी भोर तीसरा ग्रह वर्षाधिपती है ।। ७८ ॥ चंद्रमासे क्रमानुसार ऊपर गयेहुए मासके स्वामी हैं । शानिसे क्रमानुसार नीचेको गयेहुए ग्रह होराधिपति हैं ।। (होरा =२दण्ड ) ॥ ७९ ॥ अथ ग्रहक्षकक्षाः किंमात्राः' इति प्रश्नस्योत्तरं विवक्षुः प्रथमं नक्षत्राणां कक्षामानमाह--
भवद्भकक्षा तिग्मांशोभ्रमणं षष्टिताडितम् ।। सर्वोपरिष्टाद्भवति योजनेस्तैर्भमण्डलम् ॥ ८० ॥ सूयस्य भ्रमणं कक्षापरिधिमानं योजनात्मकम् ‘खखार्थेकसुराणवाः' इति वक्ष्यमाणं षष्टया गुणितं सन्नक्षत्राणां कक्षा नक्षत्राधिष्ठितगोलस्य मध्यवृत्तं स्यात् । तैर्नक्षत्रकक्षामितेर्योजन मण्डलं नक्षत्राधिष्ठितगोलमध्यवृत्तं सर्वोपरिष्ट्वाचन्द्रादिसप्तग्रहेभ्यः उपरि दूरं भ्रमति भूगोलादभितः परिभ्रमति । अत्रोपपत्तिः । नक्षत्राणां गत्यभावाच्छनेरप्यत्यूर्व नक्षत्रमण्डलं तत्र सूर्यगत्या सूर्यकक्षा तदा नक्षत्रगत्यभावेऽप्येककलागतिकल्पनयानुपातान्यथानुपपत्तितया 'कल्प्यो हरो रूपमहारराशेः' इतीच्छाहासे फलवृद्धयपेक्षितत्वाव्यस्तानुपातो लाघवात्सूर्यगतिः पष्टिकलामिता च भगवता कृता । नक्षत्रगतेरभावाचेति षष्टिताडितमित्युपपन्नम् ॥ ८० ॥ __ भा०टी०-सूर्यकी कक्षाको ६० से गुणा करनेपर भकक्षा होती है । वह सबके उपर भ्रमण करती है ।। ८० ॥
अथ ग्रहकक्षाणां मानज्ञानार्थमाकाशकक्षामानम् । कियती तत्करप्राप्तिः' इति प्रश्न स्योत्तरमाह
कल्पोक्तचन्द्रभगणा गुणिताः शशिकक्षया ॥
आकाशकक्षा सा ज्ञेया करव्याप्तितया खेः ॥ ८१ ॥ कल्पोक्तचन्द्रभगणाः । “एते सहस्रगुणिताः कल्पे स्युर्भगणादयः " इत्युक्त्या युगचन्द्रभगणाः सहस्रगुणिताः कल्पचन्द्रभगणा इत्यर्थः । चन्द्रकक्षया 'खत्रयाब्धिद्विदहना' इति वक्ष्यमाणया गुणिता सा तन्मिताकाशकक्षा परिधिरूपा ज्ञेया। धीम तेतिशेषः । नन्वनन्ताकाशस्य कथं परिधिरित्यत आह-करव्याप्तिरिति । सूर्यस्य किरणप्रचारस्तथाकाशकक्षापरिमित इत्यर्थः । तथाच यद्देशावच्छेदेन सूर्यकिरणप्रचारस्तद्देशावछिन्नाकाशगोलस्य ब्रह्माण्डकटाहान्तर्गतस्य परिधिमानं सम्भवत्येवेति भावः । अत्रोपपत्तिः । समनंतरमेव यद्भगणभक्ता खकक्षा तस्य कक्षा स्यादित्युक्ते भगणकक्षाघात खकक्षा सिद्धा। अतश्चन्द्रभगणकक्षयो_तः खकक्षातुल्य एवेति दिक् ॥८॥
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(२१६)
सूर्यसिद्धान्तः
[ द्वादशोऽ
भा० टी० - एक कल्पमें चन्द्रमाके भगण चंद्रकक्षा से गुणा किये जाय तो आकाशऋक्षा होती है, तिनी दूरतक सूर्यकी किरणें व्याप्त हैं ॥ ८१ ॥ अथ ग्रहाणां कक्षानयनं योजनगत्यानयनं चाह - सैव यत्कल्पभगणैर्भक्ता तद्भ्रमणं भवेत् ॥ कुवासरौर्विभज्याह्नः सर्वेषां प्राग्गतिः स्मृता ॥ ८२ ॥
सार्ककरव्याप्तिरूपाकाशकक्षा यत्कल्पभगणैर्यस्य कल्पभगणैर्भक्ता फलं तस्य कक्षा भवेत् । एवकारो निश्चयार्थे । खकक्षाकल्पर विसावनैर्भक्ताप्राप्तं फलं सर्वेषामुक्तभगणसम्बन्धिनां ग्रहादीनामहो दिवसस्य दिनसम्बन्धिनीत्यर्थः । प्राग्गतिर्योजनात्मिका कथिता । अत्रोपपत्तिः । कल्पभगणकक्षाघातरूपाकाशकक्षा कल्पभगणभक्ता कक्षा - स्यादेव | कल्पे खकक्षामितयोजनानि ग्रहः कामतीति कल्पर विसावनादिनैराकाशकक्षामित योजनानि तदैकर विसावनदिनेन कानीत्यनुपातेन पूर्वगतियजनात्मिका प्रत्यहं तुल्येत्युपपन्नम् ॥ ८२ ॥
मा०टी० - उस कक्षाको ग्रहोंके कल्प भगणसे भाग कियाजाय तो स्वकक्षा होगी । कक्षाको कुदिन से भाग कियाजाय तो सबकी प्रात्यहिक प्राकूगति होगी ॥ ८२ ॥ अथ योजनात्मकगतेः कलात्मकगतिं स्वीयामाह -
भुक्तियोजनजा सङ्ख्या सेन्दोर्भ्रमणसगुणा ||
स्वकक्षाप्ता तु सा तस्य तिथ्याप्ता गतिलिप्तिकाः ॥ ८३ ॥ गतियोजनोत्पन्ना या संख्या सा संख्या चन्द्रस्य भ्रमणसगुणा कक्षया गुणिता स्वकक्षयाप्ताभिमतग्रहस्य कक्षया भक्ता सा फलरूपा तिथ्याप्ता पञ्चदशभक्ता । तुकारात् फलं तस्याभिमतग्रहस्य गतिकला भवन्ति । अत्रोपपत्तिः । कक्षायोजनैश्चककलास्तदा गतियोजनैः : का इत्यनुपातेन गतिकलाः । तत्रापि ' चन्द्रकक्षा पंचदशमक्ताश्चक्रकला:' इति चत्रकलास्वरूपं धृतमित्युपपन्नम् ॥ ८३ ॥
भा०टी० - मुक्ति योजन चन्द्र कक्षा से गुणकरके स्वकक्षासे मागकरने पर गतिकला होगी ॥ ८३ ॥
अथ किमुत्सेधा इति प्रश्नस्योत्तरमाह
कक्षा भूकर्णगुणिता महीमण्डलभाजिता ॥
तत्कर्णा भूमिकणोंना ग्रहौच्च्यं स्वं दलीकृताः ॥ ८४ ॥
ग्रहाणां योजनात्मिका कक्षा भूकर्णे प्रयोजनानि शतान्यष्टौ भूकर्णो द्विगुणानीत्युक्तभूव्यासेन षोडशशतेन गुणिता भूपरिधिना तदवगतेन भक्ता फलं तस्याः कक्षायाः कर्णाव्यासा भवन्ति । एते भूव्यासेन हीना अधिताः सन्तः स्वगृहीतव्यास सम्बन्धिग्रहौच्च्यं ग्रहस्योच्चता भूमेः सकाशाद्भवति । अत्रोपपत्तिः । भूपरिधिना भूव्यासस्तदा
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ध्यायः १२.] संस्कृतटोका-भाषाटोकासमेतः। (२१७) कक्षायोजनैः क इत्यनुपातेन कक्षाध्यासास्तेऽर्धिताः कक्षाव्यासाधं भूगर्भकक्षापरिधिप्रदेशान्तरालरूपं भूपृष्ठात् तदन्तरज्ञानार्थ भूव्यासार्धन हीनं भूपृष्ठात् कक्षौच्च्यं तत्र कक्षाव्यासाभव्यासोना अर्धिताः कृताः । उभयथा समत्वात् । कक्षौच्च्यमेव ग्रहीच्च्यं ग्रहस्य तत्राधिष्ठानादिति । एतेन सिद्धग्रहोंच्च्यभ्यः परस्परान्तरगतज्ञानं सुगममिति । किमन्तरा इति प्रश्नस्योत्तरं स्वतःसिद्धमेवोत दिक् ॥ ८४ ॥
भा०टी०-स्वकक्षाको भूकर्णले गुणकरके भवत्तद्वारा भागकरनेपर स्वकक्षाकर्ण होगा तिससे भूकर्णको वियोग करके दोसे भाग करनेपर पृथ्वीसे दूरताका निर्णय हो जायगा ।। ८४॥ अथोर्ध्वक्रमेण सिद्धाः कक्षा विवक्षुः प्रथमं चन्द्रस्य कक्षां बुधशीघ्रोच्चकक्षां चाह
खत्रयान्धिद्विदहनाः कक्षा तु हिमदीधितः ।।
ज्ञशीघ्रस्याङ्कखदित्रिकृतशून्येन्दवस्ततः ।। ८५॥ चन्द्रस्य कक्षा सहस्रगुणितसिद्धरामाः । तुकारादागमप्रामाण्येनांगीकार्या । अन्यथान्योन्याश्रयापत्तेस्ततश्चंद्रादूर्ध्व बुधशीघोच्चस्य कक्षा नखदन्तवेददिशः । यद्यपि बुधशीघ्रोचमाकाशे प्रत्यक्षं नेति तत्कक्षोक्तिरयुक्ता तथापि बुधशीघ्रोच्चभगणानीतकक्षायां गत्यनुरोधेन चन्द्रोर्ध्वगायां बुधो भ्रमति 'पूर्व सूर्यशुक्रन्दुजेन्दवः' इति क्रमोक्तेः । अन्यथा भगणैक्यादेककक्षायां रविबुधशुक्राणामवास्थितौ मण्डलभंगापत्तेरिति सूचनार्थमुक्ता ॥ ८५॥ भा०टी०-चं० ३२४०००, बु० शी० चन्द्रसे १०४३२०९, ।। ८५ ॥ अथ शुक्रशीघ्रोचस्य कक्षां सूर्यबुधशुक्राणामभिन्नां कक्षां चाह
शुकशीघ्रस्य सप्तागिरसाब्धिरसषड्यमाः॥
ततोऽर्कबुधशुक्राणां खखार्थकसुराणवाः॥८६॥ तदू_ शुक्रशीघ्रोचस्य कक्षाद्रिव्यंगवेदषड्रसपक्षाः शुक्रावस्थानसूचनार्थमुक्ताः । ततस्तदूर्व सूर्यबुधशुक्राणां भगणैक्यादभिन्ना कक्षा खखपञ्चभूदेवाब्धयः । यद्यपि बुधशुक्रयोः सूर्याधःस्थत्वात्केवलं सूर्यकक्षैव वक्तुमुचिता तथापि कक्षयैको भगणस्तदा कल्परविसावनदिनैः खकक्षामितयोजनानि तदाहर्गणेन कानीत्यनुपातागतयोजनैः कइत्यनुपातेन सूर्यबुधशुक्राणामभिन्नत्वसिद्धयर्थ बुधशुक्रयोरप्युक्ता । अन्यथा समत्वा' नुपपत्तारीत ॥८६॥ भा०टी०-शु०-शी०बुशी से २६६४६३७, | सूर्य, बु, शु, मध्य ४३३१५०० ।।८।। अथ भौमस्य कक्षां चन्द्रमंदोच्चस्य कक्षां चाह
कुजस्याप्यंकशून्याङ्कपड्वदेकभुजंगमाः ॥ चन्द्रोचस्य कृताष्टान्धिवसुदिपष्टवह्नयः॥ ८७॥
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( २१८ )
सूर्य्यसिद्धान्तः
[ द्वादशो० ]यः
भौमस्य । अपिशब्दात्सूर्यादूर्ध्वकक्षा नवखनवपडिन्द्रसर्पाः । चंद्रमंदोच्चस्य कक्षा वेदाविद सर्पपक्षराम नागरामाः । इयमप्याकाशे न दृश्या तथापि गतयोजनैश्चन्द्रोच्चज्ञानायोक्ता ॥ ८७ ॥
,
भा०टी० - मं ८ = १४६९०९ | चन्द्रोच्च ३८ = ३२८ = ४८४ ॥ ८७ ॥ अथ गुरुराहोः कक्षे आह
कृतर्तुमुनिपञ्चाद्विगुणेन्दुविषया गुरोः ॥ स्वर्भानादित कष्टाद्विशेलार्थखकुञ्जराः ॥ ८८ ॥
बृहस्पतेर्भीमाच्चंद्राचादोर्ध्वं कक्षा वेदाङ्गमुनिपञ्च स्वररामचंद्रशराः । राहोः । कक्षा वेदानगजयमसप्तपञ्चाशतियः । इयमदृश्यापि राहोर्गतियो जनैर्ज्ञानार्थमुक्ता । अत्रापि पातस्य चक्रशुद्धत्वमवधेयम् ॥ ८८ ॥
मा० टी० - बृह० ५१ =, ३७५ =, ७६४ | राहु ८०, ५७२, ८६४ ॥ ८८ ॥ अथ शनेः कक्षां नक्षत्राधिष्टितमूर्तगोलमध्यकक्षां चाहपञ्चवाणाक्षिना गर्नु रसायर्काः शनैस्ततः ॥ भानां रविखशून्यांक वसुरन्धशराश्विनः ॥ ८९ ॥
ततो बृहस्पते राहोर्वोर्ध्व शनेः कक्षा पञ्चपञ्चव्यष्टषड्रससप्तार्काः । नक्षत्राणां गोलमध्ये कक्षा शनेरूर्ध्वं द्वादशनवशताष्टनवतितत्त्वानि । यद्यपि भवेद्भकक्षा तीक्ष्णांशोर्भमणं षष्टिताडितम्' इत्यनेन भकक्षाया द्वादशांतरितत्वादयुक्तत्वं तथापि सैव यत्कल्प भगणैरित्यनेन सूर्यकक्षाया उक्त्या द्वादशाधोऽवयवस्य निवन्धने त्यागेऽपि भकक्षार्थ भगवता गृहीतत्वाददोषः । एतेनाधोऽवयवस्यार्धन्यूनत्वेन त्यागोऽभ्यधिकत्वेनोर्ध्वमेकाधिकग्रहणं कक्षानिबन्धेन कृतमिति सूचितम् ॥ ८९ ॥
भा० टी० शनि १२७ ६६८ २२५ | भक्क्षा २५९८९००१२ ।। ८९ ॥ ननु चंद्रकक्षाया आगमनप्रामाण्येनांगीकारे सर्वकक्षाणामागमप्रामाण्या पत्त्या 'सेव यत्कल्पभगणैर्भक्ता तद्भ्रमणं भवेत्' इति कक्षानयनं व्यर्थम् । अन्यथाकाशकक्षाज्ञानासम्भवापत्तेरित्यत आकाशकक्षैवागमप्रामाण्येनांगीकार्येति वसन्ततिलकयाहखव्योमखत्रयखसागरपट्कनागव्योमाष्टशून्ययमरूपनगा
ष्टचन्द्राः ॥ ब्रह्माण्डसम्पुटपरिभ्रमणं समन्तादभ्यन्तरे दिनकरस्य करंप्रसारः ॥ ९० ॥
वेदाङ्गाष्टाशीतिनखभूस प्तधृतयः प्रयुतगुणितायोजनानि पूर्वाधांक्तानि । ब्रह्माण्डसम्पुट परिभ्रमणं ब्रह्माण्डगोलस्य पारीधः । कल्पभगणकक्षाहतित्वेनाकाशकक्षायाः पूर्व
· करप्रचारः इति वाः पाठः ।
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अध्यायः १३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । स्वरूपोक्तेरिति न पौनरुत्त्यम् । अभ्यन्तरे ब्रह्मांडगोलान्तः सूर्यस्याभितः किग्णानां प्रसारः सूर्यकिरणप्रचारदेशस्य परिधिस्तत्तुल्यः। एतेन ब्रह्मांडगोलान्तः परिधिन बाह्य इति सूचितम् ॥ ९० ॥
भा० टी•-ब्रह्माण्डकी कक्षा १८७१२०८०८६४०००००० योजन इसके मध्यमें सूर्यको किरणोंका विस्तार है ।। ९० ॥ अथानिमग्रन्थस्यासङ्गतित्वपरिहारार्थमध्यायसमाप्तिं फक्कियाह
इति सूर्यसिद्धान्ते भूगोलाध्यायः ॥ १२॥ इति भिन्नच्छन्दसा प्रारब्धप्रसंगः समाप्त इत्यर्थः। पूर्वखंडे ग्रन्थैकदेशस्याधिकारसञ्ज्ञा कृता । उत्तरखंडे ग्रन्थैकदेशस्याध्यायसंज्ञा भिन्नप्रसंगवशात्कृतेति ध्येयम् ।
रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धांतटिप्पणे ॥
उत्तरार्धे समाप्तोऽयं भूगोलाध्यायसंज्ञकः । इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदैवज्ञात्मजरंगनाथविरचिते गूढार्थप्रकाशके उत्तरखंडे भूगोलाध्यायः पूर्णः ॥ १२ ॥
द्वादश अध्याय समाप्त ॥ १२ ॥
त्रयोदशोऽध्यायः। अथ पुनर्मुनीन् श्रोतन्प्रतिश्लोकाम्यामाह
अय गुप्ते शुचौ देशे स्त्रातः शुचिरलंकृतः॥ सम्पूज्य भास्करं भत्त्या ग्रहान् भान्यथ गुह्यकान् ॥१॥ पारम्पर्योपदेशेन ययाज्ञानं गुरोर्मुखात् ॥
आचार्यः शिष्यबोधार्थ सर्व प्रत्यक्षदर्शिवान् ॥२॥ अथशब्दो मङ्गलार्थः । द्वितीयोथशब्दः पूर्वोक्तानान्तर्यार्थकः । गुप्ते रहसि शुचौ पवित्रे देशे स्थान आचार्यः सूर्याशपुरुषो मयासुराध्यापकः । स्नातः कृतस्नानः शुचिः शुद्धमनाः । अलङ्कृतो हस्तकर्णकण्ठादिभूषणभूषितः । निश्चिन्तत्वद्योतकमिदं विशेषणम् । अन्यथा ग्रहादिव्यवहारादिव्याकुलतया मनस्थैर्यानुपपत्तेः । भास्कर श्रीसूर्य स्वोपजीव्यं भक्त्याराध्यत्वेन ज्ञानरूपया सम्पूज्य नमस्कारस्तुतिविषयं कृत्वा ग्रहान् चन्द्रादिग्रहान् । सूर्यस्य पृथगुद्देशः प्राधान्यज्ञानार्थम् । भानि नक्षत्राणि राशींश्च गुह्यकान्यक्षादीक्षुद्रदेवताः सम्पूज्य । समुच्चयार्थकश्चोत्रानुसन्धेयः । गुरोः सूर्यस्य मुखाददनारविन्दात् । पारम्पर्योपदेशेन सूर्येण मुनीन्प्रत्युक्तं मुनिभिः सूर्यांशपुरुषं प्रत्युक्तमिति परम्परया कथनेन । वस्तुतस्तु शिष्यस्याग्रहोत्पादनार्थं ज्ञानेतिगोप्य त्वसूचनमेतदुक्त्या कृतम् । कथमन्यथा सूर्याज्ञप्तांशपुरुषो मयामुरं प्रत्यवददूरस्थमुनीन्
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( २२०) सूर्यसिद्धान्तः
[त्रयोशोऽ-- प्रति कथन उद्यतोऽर्कः स्वांशपुरुषं प्रति कथनेऽनुद्यतः कुतः कारणाभावाच्च । यथा स्वशक्त्या यादृशं ज्ञानं पूर्वोक्तमवगतं शिष्यबोधार्थ मयासुरस्याभ्रमज्ञानोत्पादनार्थ सर्व प्रागध्यायोक्तं प्रत्यक्षदर्शिवान् प्रत्यक्षं दर्शितवानित्यर्थः ॥ १॥२॥ __ भा०टी०-गुप्त, पवित्रतायुक्त स्थानमें सजकर बैठा हुआ प्रत्यक्षदर्शी आचार्य रवि, ग्रह, नक्षत्र और गुह्यक लोगोंका पूजन करनक पाछ शिष्यपरम्पराकरके जो गुरुमुखसे सुनाथा वह सब शिष्यको समझानेके लिये ॥ १ ॥ २ ॥
कथं दर्शितवानिति मयासुर प्रत्युक्तसूर्याशपुरुषवचनस्यानुवादे सूर्याशपुरुषो मयासु । रं प्रति गोलबन्धोद्देशं तदुपक्रमं च श्लोकाभ्यामाह
भूभगोलस्य रचनां कुर्यादाश्चर्यकारिणीम् ॥ अभीष्टं पृथिवीगोलं कारयित्वा तु दारवम् ॥३॥ दण्डं तन्मध्यगं मेरोरुभयत्र विनिर्गतम् ॥
आधारकक्षाद्वितयं कक्षा वेषुवती तया ॥४॥ भगोलस्य भूगोलादभितः संस्थितस्य नक्षत्राधिष्ठितगोलस्य प्रागध्यायोक्तार्थस्य रचनां स्थितिज्ञानार्थ दृष्टान्तात्मकगोलस्य निर्मितं सुधीर्गणको गोलशिल्पज्ञः कुर्यात् । ननु त्वदुक्तेन सर्व ज्ञानं भवतीति दृष्टान्तगोलनिबन्धनं व्यर्थमेवेत्यत आह । आश्चर्यकारिणीमिति । उक्तप्रतीत्युदूताद्भुतबुद्धिजनयित्री तथाचोक्तेन स्वाधस्तिर्यग्भागयोर्लोकावस्थानस्य तद्भागस्थभगोलप्रदेशस्य च भूमेनिराधारत्वादेश्च ज्ञानं मनास सप्रतीतिकं न भवत्यतो दृष्टान्तगाले निश्चयसम्भवात्तन्निबन्धनमावश्यकमिति भावः। कथं रचनां कुर्यादित्यत आह-अभीष्टमिति । भुवो गोलमभीष्टं स्वेच्छाकल्पितपरिधिप्रमाणकं दारवं काष्ठघटितं सच्छिद्रं कारयित्वा काष्ठशिल्पज्ञद्वारा कृत्वेत्यर्थः । मेरोरनुकल्परूपं दण्डकाष्ठं तन्मध्यगं तस्य काष्ठघटितभगोलस्य मध्ये च्छिद्रमध्ये शिथिलतथा स्थितम् । उभयत्र भूगोलस्थव्यासप्रमाणच्छिद्रस्याग्राभ्यां बहिरित्यर्थः । विनिर्गतमेकानादन्यतरामावशिष्टदण्डप्रदेशतुल्यं निःसृतम् । उभयाग्राभ्यां तुल्यौ दण्डदिशौ यथा स्यातां तथा कुर्यादित्यर्थः । भगोलनिबन्धनार्थमाधारवृत्तरयमाह-आधारकक्षाद्वितयमिति । भगोलनिबन्धनार्थमादावाश्रयार्थ वृत्तयोर्द्धितय. मूधिस्तिर्यगवस्थानक्रमेणैकमेकमेवे द्वयमित्यर्थः । भूगोलादुभयतस्तुल्यान्तरेण दः ण्डप्रदेशयोः प्रोतमेकं वृत्तं कुर्यात् । तत्तुल्यं वृत्तमपरंतदर्धच्छेदेन दण्डप्रोतं कुर्यादिति सिद्धोऽर्थः । एतत्तद्वयव्यतिरेकेण भूगोलादभितो भगोलनिबन्धनानुपपत्तेः । भगोलनिवन्धनारंभमाह-कक्षेति । वैषुवती विषुवत्संबन्धिनी कक्षा वृत्तपरिधिर्विषुववृत्तमित्यर्थः । तथाधारवृत्तद्वयस्यार्धच्छेदेन भगोलमध्यवृत्तानुकल्पेन गणकेन निबदमित्यर्थः ॥ ३ ॥४॥
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ध्यायः १३] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः
(२२१) भा० टी०-काठका बना मभीष्ट (इच्छित) पृथ्वीगोल भागे करके माश्चर्यकारी भूगोल बनावै । उस गोलेके दोनों भोर निकला हुआ मेरुदण्ड, माधारकी दो कक्षा और विषुक्की कक्षा बनावै ॥ ३ ॥ ४ ॥ अथ मेषादिद्वादशराशीनामहोरात्रवृत्तनिबन्धनमन्यदपि श्लोकपंचकेनाह
भगांशाङ्गुले कार्या दलितस्तित्र एव ताः ॥ स्वाहोराबार्धकर्णैश्च तत्प्रमाणानुमानतः॥५॥ कान्तिविक्षेपभागेश्च दलितर्दक्षिणोत्तरः ॥ स्वः स्वैरपक्रमस्तिस्रो मेषादीनामपक्रमात् ॥ ६ ॥ कक्षाःप्रकल्पयेत्ताश्च कर्कादीनां विपर्ययात् ॥ तत्तिस्रस्तुलादीनां मृगादीनां विलोमतः ॥७॥ याम्यगोलाश्रिताः कार्याः कक्षाधारा द्वयोरपि ॥ याम्योदग्गोउसंस्थानां भानामभिजितस्तथा ॥ ८॥ सप्तर्षीणामगस्त्यस्य ब्रह्मादीनां च कल्पयेत् ॥
मध्ये वैषुवती कक्षा सर्वेषामेव संस्थिता ॥९॥ भगणशांगुलैः द्वादशराशिभागः षष्टयधिकशतत्रयपरिमितांगुलैः द. लितैः समविभागेन खण्डितैराङ्कितरित्यर्थः । ताः कक्षाः वंशशलाकावृत्तात्मिकास्तिस्त्रः त्रिसख्याकाः । एवकारात्तेदङ्कने वृत्ते च न्यूनाधिकव्यवच्छेदः । शिल्पज्ञेन गोलगणितज्ञेन कार्याः । एताः पूर्व वृत्तप्रमाणेन न कर्या इत्यभिप्रायेणाह-स्वाहोरात्रार्धकर्णैरिति । स्वशब्देन मेषादित्रिकं तस्य प्रतिराश्यहोरात्रवृत्तस्यार्ध. को व्यासाधं युजाताभिरित्यर्थः । चकारात्कार्याः । स्वस्वाज्यामितेन व्यासार्धन मेषादित्रयाणां वृत्तत्रयं कुर्यादित्यर्थः। ननु स्पष्टाधिकारोक्ताहोरात्रार्धकर्णानयने युक्त्यभावात्तैर्वृत्तिनिर्माणं कुतः कार्यमित्यत आह-तत्प्रमाणानुमानत इति । विषुवत्कशाप्रमाणानुमानादृत्तत्रयं कार्यम् । यथा विषुववृत्तं पूर्ववृत्तसमम् । तथा तदनुरोधेन मषान्त. वृत्तमल्पं तदनुरोधेन वृषान्तवृत्तमल्पं तदनुरोधेन मिथुनान्तमल्पमित्युत्तरोत्तरमल्पव्यासार्धवृत्तम् । तत्त्वहोरात्रवृत्तमिति युज्याव्यासार्द्धन वृत्तनिर्माणं युक्तियुक्तं क्रान्तिज्यावर्गोनात्रिज्यावर्गान्मूलस्वाहोरात्रवृत्तव्यासार्धत्वादिति भावः । वृत्तत्रयं सिद्धं कृत्वा दृष्टान्तगोले निवनाति-क्रांतिविक्षेपभागैरिति । क्रान्तिवृत्तस्य विषुववृत्तप्रदेशाद्विक्षिप्तप्रदेशा यैरंशैः चकारादाधारवृत्तस्थैदलितैः समविभागेन खण्डितैरङ्कितैः दक्षिणोत्तरैर्विषुववृत्तक्रान्तिवृत्तप्रदेशयोर्दक्षिणोत्तरान्तरात्मकैरुक्तलक्षणैः स्वकीयैः स्वकीयैः स्वराशितम्ब
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(२२२) सूर्यासद्धान्तः
[ यत्रोदशोऽद्वैरपक्रमैः स्पष्टाधिकारानीतक्रान्त्यशैमषादीनां मेषादिराशित्रयान्तानां मेषान्तवृषान्तमिथुनान्तानामित्यर्थः। तिस्रस्त्रिसंख्याकाः प्रागनिर्मितावृत्तरूपाः कक्षाः । अपक्रमात् अपशब्दस्योपसर्गत्वात्क्रमादित्यर्थः । प्रकल्पयेत् शिल्पज्ञगणको विषुववृत्तानुरोधेनाधारवृत्तद्वय उत्तरतो निबन्धयेदित्यर्थः । कर्कादीनामाह-ता इति । मेषादिकक्षानिवद्धाः कर्कादीनां कर्कसिंहकन्यानामादिप्रदेशानां विपर्ययावत्यासात् । चकारः समुच्चये। तेन प्रकल्पयोदित्यर्थः । मिथुनान्तवृत्तं कर्कीर्वृषान्तवृत्तं सिंहादेमपान्तवृत्तं कन्यादरिति फलितम् । तुलादीनामाहे- तद्वदिति । तुलादीनां तुलावृश्चिकधन्विनां तिस्रः । अन्यास्त्रिसंख्याकाः कक्षास्तवदेकद्वित्रिराशिकान्त्यशैस्तुलान्तवृश्चिकान्तधनुरन्तानां याम्यगोलाश्रिताः । विषुववृत्ताद्दक्षिणभाग आधारवृत्तद्वये निबद्धाः कार्याः । गणकेनेति शेषः । मकरादीनामाह-मृगादीनामिति । विलोमत उत्क्रमात्तलादिसम्बद्धाः कक्षा मकरादीनां भवन्ति । धनुरन्तवृत्तं मकरादेवृश्चिकान्तवृत्तं कुम्भादेस्तुलान्तवृत्तं मीनादेरिति फलितम् । ताराणां कक्षानिबन्धनमाह-कक्षाधारादिति । भानामश्विन्यादिसप्तविंशतिनक्षत्रबिम्बानां याम्योदग्गालसंस्थानां विषुववृत्तादक्षिणोत्तरभागयोर्यथायोग्यमवास्थ. तानां यन्नक्षत्रध्रुवकस्पष्टक्रान्तिरुत्तरा तन्नक्षत्राणामुत्तरभागावस्थितानां येषां स्पष्टक्रान्तिदक्षिणा तेषां दक्षिणभागावस्थितानामित्यर्थः। दयोदक्षिणोत्तरभागयोः । अपिशब्दो याम्योत्तरनक्षत्रक्रमेण व्यवस्थार्थकः । कक्षाधारात्कक्षाणामाधारवृत्तदयात्तयोरित्यर्थः । सप्तम्यर्थे पञ्चमी । कक्षाः स्वस्पष्टक्रान्तिज्योत्पत्राज्याव्यासाप्रमाणेन वृत्ताकाराः प्रकल्पयेत् । शिल्पज्ञो निवन्धयेत् । अन्येषामप्याह-अभिजित इति । अभिजिन्नक्षत्रविम्वस्य सप्तर्षिबिम्बानामगस्त्यनक्षत्रबिम्बस्य ब्रह्मसंज्ञकतारायुक्तलुब्धकापांवत्सादिनक्षत्रविम्बानां चकारोऽनुसन्धेयः । तथा कक्षा यथायोग्य प्रकल्पयेदित्यर्थः । निवन्धनप्रकारमुपसंहरति-मध्य इति । सर्वासामुक्तकक्षाणां मध्ये तुल्यभागेऽनाधारवृत्तमध्यप्रदेशे । एवकारादन्ययोगव्यवच्छेदः । वैषुवती कक्षा विषुवसम्बन्धिनी वृत्तरूपा संस्थितावस्थिता भवति । तथा शिल्पज्ञः कक्षां निबन्धयेदित्यर्थः । विषुववृत्तात्स्वस्पष्ट. क्रान्त्यन्तरेण स्वाज्याव्यासाप्रमाणेनाहोरात्रवृत्तमाधारवृत्तयोनिबन्धयोदति निष्कष्टोऽर्थः ॥५॥ ६ ॥ ७ ॥ ८॥९॥
भाटी०-स्वाहोरात्रार्द्धकर्णके परिमाणसे व्यासयुक्त तीन वृत्तोंको बनाकर प्रत्येकमें ३६० भाग अंकित करे । क्रांतिविक्षेपांश मंकित दक्षिण उत्तररेखामें मेषादिक भपक्रमके अनुसार, भपक्रमाशमें कहे हुए तीन वृत्त संयोग करे । वहीं विपरीतभावसे कर्कादिकी कक्षा है वैसेही दक्षिणीदशाम तुकादिकी तीन कक्षा संयुक्त को । वही विलोमके अनुसार मकरादिकी कक्षा होगी उत्तर दक्षिणमें साभिजित् (मभिजित् के सहित ) नक्षत्रोंकी कक्षाएँ आधार कक्षाके उपर संयुक्त करे। इसी प्रकारसे सप्तर्षि, अगस्त्य, ब्रह्महृदयादिकी कक्षा करे । सबके मध्य मागमें वैषुवती कक्षा स्थित रागी ॥ ५॥६॥७॥ ८॥९॥
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अध्यायः १३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमतः । (२२३ अथ गोले मेषादिराशिसन्निवेशं सार्धश्लोकेनाह
तदाधारयुतरू+मयने विषुवद्वयम् ॥ विषुवत्स्थानतो भागः स्पष्टै गणसञ्चरात् ।।
क्षेत्राण्येवमजादीनां तिर्यग्ज्याभिः प्रकल्पयेत् ॥१०॥ तदाधारयुतेस्तद्विषुववृत्तमाधारमाधारवृत्तं तयोयुतेः सम्पातादूर्ध्वमुपरि । अन्तिभाहोरात्राधारवृत्तयोः सम्पातेऽयने दक्षिणोत्तरायणसंधिस्थाने भवतः। अत्रोर्ध्वपदस श्वारादाधारवृत्तमूवाधिरं ग्राह्यं न तिर्यगुन्मण्डलाकारम् । तेनैतत्फलितम् । विषुवद्वत्तस्योधिराधारवृत्तऊर्ध्वमधश्च सम्पातस्तत्रो+सम्पातान्मकराद्यहोरात्रवृत्तं चतुर्विशत्यंशैस्तदाधारवृत्ते दक्षिणतो यत्र लग्नं तत्रोत्तरायणसन्धिस्थानम् । एवमधः सम्पातात्क कांद्यहोरात्रवृत्तं चतुर्विशत्यस्तिदाधारवृत्त उत्तरतो यत्र लग्नं तत्र दक्षिणायनसन्धिस्थानामति । अयनाद्विषुवस्य विपरीतस्थितत्त्वादूर्ध्वशब्दद्योतितविपरीताधःशब्दसम्बन्धा. द्विषुवयं भवति । तात्पयार्थस्तु तिर्यगुन्मण्डलाकाराधारवृत्तविषुवदत्तसम्पातौ पूर्वापरौ क्रमेण मेषादितुलादिरूपौ विषुवत्स्थाने भवत इति । अथ, राशिसाफल्यसन्निवेशमाहविषुवत्स्थानत इति । विषुवत्प्रदेशात्स्फुटै राशिसम्बन्धिभिस्त्रिंशन्मितैरैशैभंगणसञ्चरात् राशिसाकल्यसन्निवेशात्तिर्यग्ज्याभिरुक्तवृत्तानुकारातिरिक्तानुकारसूत्रवृत्तप्रदेशैः । अजादीनां, मेषादीनाम् । एवमयनविषुवत्कल्पनरीत्या तदन्तराले क्षेत्राणि स्थानानि सुधीगणकः प्रकल्पयेदयेत् । यद्यथा पूर्वदिक्स्थविषुवत्थानागोलवृत्तद्वादशांशखण्डप्रदेशेन मेषान्ताहोरात्रवृत्ते पूर्वभागे यत्र स्थानं तत्र मेषान्तस्थानं तस्मात्तद. न्तरेण वृषान्ताहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण वृषान्तस्थानमस्मादयनसन्धिस्थानं तत्प्रदेशान्त. रेण मिथुनान्तस्थानमस्मात्पश्चिमभागे कर्कान्ताहोरात्रवृत्ते तदन्तरण कान्तस्थानमस्मादपि सिंहान्ताहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण सिंहान्तस्थानमस्मादपि तदन्तरेण पश्चिमविषुवत्स्थानं कन्यान्तस्थानमस्मादपि पूर्वभागे तुलान्ताहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण तुलान्तस्थानमस्मादपि वृश्चिकान्ताहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण वृश्चिकान्तस्थानमस्मादपि तदन्तरेणायन सन्धिस्थानं धनुरन्तस्थानमस्मात्कुम्भायहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण मकरान्तस्थानमस्मादपि मीनाद्यहोरात्रवृत्ते तदन्तरेण कुम्भान्तस्थानं मीनादिस्थानं च । अस्मादपि पूर्वविषुवे मीनान्तस्थानं मेषादिस्थानं च तदन्तरेणति व्यक्तम् ॥ १० ॥
मा० टी०-विषुवती मोर आधारकक्षाके संयुत स्थानसे ऊपरकी मोर दो विषुध अंकितकरे । तदुपरान्त विषुवतीसे राशिअन्तरमें मेषादि १२ क्षेत्र तिरछे भावसे निर्णय करे ॥ १०॥
ननु गोले वृत्ते द्वादशराशीनां सत्त्वादन्यथा चक्रकलानुपपत्तेरित्यत्रैकवृत्ताभावात् कथं राश्यङ्कन राशिविभागानुपपत्तिश्च । अन्तरालभागस्याकाशात्मकत्वादित्यतो वृत्तकथनच्छलेन पूर्वोक्तं स्पष्टयन्सूर्यस्त दृत्ते भगणभोगं करोतीत्याह
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सूर्य्यसिद्धान्तः-
अयनादयनं चैव कक्षा तिर्यक्तथापरा ॥ क्रान्तिसंज्ञा तथा सूर्यः सदा पर्येति भासयन् ॥ ११ ॥
( २२४ )
अयनस्थानमारभ्य परिवर्तनतदयनस्थानपर्यन्तम् । चकार आरम्भसमाप्त्यार्भिन्नायन स्थाननिरासार्थकः । अपरा गोले आधारवृत्तसमा वृत्तरूपाकक्षा तथा राश्यङ्कमार्गेण । एवकारोऽन्यमार्गव्यवच्छेदार्थकः । तिर्यक् उक्तवृत्तानुकारविलक्षणानुकाग क्रान्तिसंज्ञाक्रमणं क्रान्तिः । ग्रहगमनभोगज्ञानार्थं वृत्तं तत्संज्ञमुपकल्पितम् । अयनविषुवद्दयसंसक्तं क्रान्तिवृत्तं द्वादशर स्यतिं गोले निबंधयेदिति तात्पर्यार्थः । भासयन् भुवनानि प्रकाशयन् सन् स सूर्यः । एतेन चन्द्रादीनां निरासः । सदा निरन्तरं तथा क्रान्तिसंज्ञया कक्षया पर्येत्ति स्वशक्त्या गच्छन् भगणपरिपूर्तिभागं करोति । सूर्यगत्यनुरोधेन नियतं क्रान्तिवृत्तं कल्पितमिति भावः ॥ ११ ॥
[ त्रयोदशो
भा० टी० - एक अयन से दूसरे अयन में गयी हुई तिरछो कक्षाको क्रांतिकक्षा कहते हैं तिसके ऊपर सूर्य प्रकाशकरके भ्रमण करते हैं ॥ ११ ॥
ननु चन्द्राद्याः क्रान्तिवृत्ते कुतो न गच्छन्तीत्यत आह
चन्द्राद्याश्च स्वकेः पातैरपमण्डलमाश्रितैः ॥
ततोऽप्रकृष्टा दृश्यन्ते विक्षेपान्तेष्वपक्रमात् ॥ १२ ॥
चन्द्रादयोऽर्कव्यतिरिक्ता ग्रहाः स्वकैः स्वीयैः पाँतैः पाताख्यदैवतैरपमण्डलं क्रान्तिवृत्तमाश्रितैः स्वस्वभोगस्थाने धिष्ठितैस्ततः क्रान्तिवृत्तान्तर्गतग्रहभोगस्थानादित्यर्थः । चकारद्विक्षेप्रान्तरेणापकृष्टा दक्षिण उत्तरतो वा कर्षिता भवन्ति । अतः कारणादपक्रमात्क्रान्तिवृत्तान्तर्गतस्वभोगस्थानादित्यर्थः । दक्षिण उत्तरतो वा विक्षेपान्तेषु गणितागतविक्षेपकलाग्रस्थानेषु भूस्थजनैर्दृश्यन्ते । तथाच क्रान्तिवृतं यथा विषुवन्मण्डलेऽवस्थितं तथा क्रान्तिवृत्ते पातस्थाने तत्षड्भान्तरस्थाने च लग्नमुक्तं परमविक्षेपकलाभिस्तत्रिभान्तरस्थानादूर्ध्वाधःक्रमेण दक्षिणोत्तरतो लग्नं च वृत्तं विक्षेपवृत्तं चंद्रादिगत्यनुरोधेन स्वं स्वं भिन्नं कल्पितं तत्र गच्छंतीति भावः ॥ १२ ॥
भा०टी०-चन्द्रादि अपने पातसे खिंचकर और वृत्तको आश्रित करते हैं। वैसेही आकृष्टहो कर अपने अपक्रमते विक्षेपान्तमें दिखाई देते हैं ॥ १२ ॥ अथ त्रिप्रश्नाधिकारोक्तलग्नमध्यलग्नयोः स्वरूपमाहउदयक्षितिजे लग्नमस्तं गच्छच्च तद्वशात् ॥ कोदयैर्यथासिद्धं खमध्यापरि मध्यमम् || १३ |
उदयक्षितिजे क्षितिजवृत्तस्य पूर्वदिग्देश इत्यर्थः । लग्नं क्रान्तिवृत्तं यत्प्रदेशे प्रवहवायुना संसक्तं तत् प्रदेशो मेषाद्यवधिभोगेनोदयलग्नमुच्यत इत्यर्थः । प्रसंगादरतलग्नस्क
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ध्यायः १३.] संस्कृतटीका-भाषाटोकासमेतः । (२२५) रूपमाह-अस्तमिति । तदशादुदयलग्नानुरोधादस्तमस्तक्षितिजं क्षितिजवृत्तस्य पश्चिमदि क्प्रदेशमित्यर्थः । क्रान्तिवृत्तं गच्छत् यत्प्रदेशेन प्रवहवायुना सँलग्नं तत्प्रदेशो मेषाद्यवधिभोगेनास्तलग्नं समुच्यत इत्यर्थः । तथा च क्षितिजोर्ध्वं सदाक्रान्तिवृत्तस्य सद्भावा. दुदयास्तलग्नयोः षड्राश्यन्तरं सिद्धं लङ्कोदयैर्निरक्षदेशीयराश्युदयासुभिः । यथात्रिय. इनाधिकारोक्तप्रकारेण तत्संख्यामितं सिद्धं निष्पन्नम् । मध्यमं मध्यलग्नं तत्समध्योपरि खस्य दृश्याकाशविभागस्य मध्यं मध्यगतदक्षिणोत्तरसूत्रवृत्तानुकारप्रदेशरूपं नतु खंमध्यं भास्कराचार्याभिमतं स्वस्वस्तिकं तल्लग्नस्य कदाचित्कत्वन सदानुत्पत्तेः । तस्योपरिस्थित क्रान्तिवृत्तं याम्योत्तरवृत्ते तत्प्रदेशेन लग्नं तत्प्रदेशो मेषाद्यवधिभोगेन मध्यलग्नमुच्यत इति तात्पर्यार्थः ॥ १३ ॥
भा०टी०-उदयक्षितिज वृत्तमें उसका अंशही लग्न है अस्तमें अस्त ( सातवा ) होता है । छंकोदयसे जो मध्यम सिद्ध होता है, वह अपनी मध्यरेखाके उपर है ॥ १३ ॥ अथ त्रिप्रश्नाधिकारोक्तान्त्यायाः स्वरूपं स्पष्टाधिकारोक्तचरज्यायाः स्वरूपं चाह
मध्यक्षितिजयोर्मध्ये या ज्या सान्त्याभिधीयते ।।
ज्ञेया चरदलज्या च विषुवक्षितिजान्तरम् ॥ १४ ॥ या उत्तरगोले त्रिज्याचरज्यायुतिरूपा दक्षिणगोले चरज्योनत्रिज्यारूपा त्रिप्रसाधिकारोक्ता । अन्त्या सा मध्यं याम्योत्तरवृत्तं क्षितिजं स्वाभिमतदेशक्षितिजवृत्तं तयोमध्येऽन्तरालेऽहोरात्रवृत्तस्यैकदेशे ज्या । उदयास्तसूत्रयाम्योत्तरसूत्रसम्पातादहोरात्रयाम्योत्तरवृत्तसम्पातावधि सूत्ररूपा ज्या सूत्रानुकारा न तु ज्या। अहोरात्रक्षितिजवृत्तसम्पातद्वयबद्धोदयास्तसूत्रस्याहोरात्रवृत्तव्याससूत्रत्वाभावात् । अतएवोत्तरगोलेऽन्त्या त्रिज्याधिका संगच्छते आभिधीयते गोलज्ञैः कथ्यते । नन्वन्त्योपजीव्यचरज्यैव विस्वरूपा यया तत्सिद्धिरित्यत आह-ज्ञेयोति । ' उन्मण्डलं च विषुवन्मण्डलं परिकीर्त्यते' इति त्रिप्रश्नाधिकारोक्तेन द्वयोः शब्दयोरेकार्थवाचकत्वात्तिर्यगाधारवृत्तानुकारं स्थिर निरक्षक्षितिजं वृत्तमुन्मण्डलं क्षितिजं स्वाभिमतदेशक्षितिजवृत्तमनयोरन्तरम् । चकारो विशेषार्थकस्तुकारपरस्तेन तदन्तरालस्थिताहोरात्रवृत्तैकदेशस्याधज्यारूपमृजुसूत्रमन्तविशेषात्मकम् । तथा च स्वनिरक्षदेशस्वदेशयोरुदयास्तसूत्रयोरन्तरमूर्ध्वाधरमिति फालतार्थः । चरदलज्या तदन्तरालस्थिताहोरात्रवृत्चैकदेशरूपचराख्यखण्डकस्य । नतु दलमर्धम् । ज्या चरज्येत्यर्थः । गोलज्ञैर्ज्ञातव्या ॥ १४ ॥
मा० टी०-मध्य और क्षितिजके मध्यमें जो ज्या है वही अन्त्य है । विषुवत् और शितिनके अन्तरको चरदल ज्या कहते हैं ॥ १४ ॥ ननु पूर्वश्लोकद्वयोक्तं क्षितिजस्याज्ञानादुर्बोधमित्यतः श्लोकार्धेन क्षिातेजस्वरूपमाहकृत्वोपरि स्वकं स्थानं मध्ये क्षितिजमण्डलम् ॥ १५॥
१५
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( २२६ )
सूर्यसिद्धान्तः
[ त्रयोदशोऽ
भूगोले स्वकं स्वीयं स्थानं भूप्रदेशका देशरूपमुपरि सर्वप्रदेशेभ्य ऊर्ध्वं कृत्वा प्रकप्य मध्ये तादृशभूगोल ऊर्ध्वाधःखण्डस-धौ यद्वृत्तं तत्क्षितिजवृत्तं तदनुरोधेन दृष्टान्तगोले क्षितिजवृत्तं स्थिरं संयुक्तं कार्यमिति भावः ॥ १५ ॥
मा०टी० - अपने स्थानको सबसे ऊपर करके मध्यम क्षितिजमण्डल स्थिर करे ॥ १५ ॥ अथैनं दृष्टान्तगोलं सिद्धं कृत्वास्य स्वत एव पश्चिमभ्रमो यथा भवति तथा प्रकामुमाह
वस्त्रच्छन्नं बहिश्चापि लोकालोकेन वेष्टितम् ॥ अमृतस्रावयोगेन कालभ्रमणसाधनम् ॥ १६ ॥
बहिः । गोलोपरीत्यर्थः । गोलाकारेण वस्त्रेण च्छन्न छादितं दृष्टान्तगोलम् । चकारात्रोपरि तत्तदृत्तानामङ्कनं कार्यम् । लोकालोकेन वेष्टितं दृश्यादृश्यसन्धिस्थवृत्तेन क्षितिजाख्येन संसक्तम् । अपिः समुच्चये । एतेन क्षितिजं वस्त्रच्छन्नं न कार्यं किंतु खोपरि क्षितिजं गोलसंसक्तं केनापि प्रकारेण स्थिरं यथा भवति तथा कार्यमिति तात्पर्यम् | अमृतस्रावयोगेनैतादृशं गोलं कृत्वा जलप्रवाहाधोघातेन कालभ्रमणसाधनं पष्टिनाक्षत्रं घटीभिर्दृष्टान्तगोलस्य भ्रमणं यथा भवति तथा साधनं कारणं कार्य स्वयंचद्दशेलयन्त्रं कार्यमित्यर्थः । एतदुक्तं भवति । दृष्टान्तगोलं वस्त्रच्छन्नं कृत्वा तदादक्षिणोत्तरमित्तिक्षिप्तनलिकयोः क्षेप्ये । यथा यष्ट्यग्रं ध्रुवाभिमुखं स्यात् । तो यष्ट्यर्जुमार्गगत जलप्रवाहेण पूर्वाभिमुखेन तस्याधः पश्चाद्भागे घातेोऽपि यथा स्या चथा स्यादर्शनार्थमेव वस्त्रच्छन्नमुक्तम्। अन्यथा गोलवृत्तान्तरवकाशमार्गेण जलाघातदशेरभ्रमेण चमत्कारानुत्पत्तेः । आकाशाकारता सम्पादनार्थमपि वस्त्रच्छन्नमुक्तम् । इदं खमा यथा भवति तथा चिक्कणवस्तुना मदनादिना लिप्तं कार्यम् । क्षितिजवृत्ताकारेष्णाधोगोलो दृश्यो यथा स्यात्तथा परिखारूपा भित्तिः कार्या । परन्तु दक्षिणयष्टिमागस्तत्र शिथिलो यथा भवति । अन्यथा भ्रमणानुपपत्तेः । पूर्वदिक्स्थपरिखाविभागाद्बहिर्जलप्रवाहोऽदृश्यः कार्य इत्यादिस्वबुद्धचैव ज्ञेयमिति ॥ १६ ॥
मा०टी० - क्षितिजके बाहिर वस्त्रसे टक्कर वारिसंघातस वालभ्रमण साघन करे ॥ १६ ॥ अथ यदि जलप्रवाहस्तत्र न सम्भवति तदा कथं स्वयंवहो दृष्टान्तगोलो भवतीत्यवस्वत्स्वयं दहार्यमुक्तं च गोप्यं कार्यमित्याह
तुङ्ग जिमायुक्तं गोलपत्रं प्रसाधयेत् ॥ गोप्यमेतत्प्रकाशोकं सर्वगम्यं भवेदिह ॥ १७ ॥
दृष्टान्तगोली यन्त्रं तुंगबाज समायुक्तं तुङ्गो महादेवस्तस्य बीजं वीर्यम् पारद इत्यर्थः । तेन योजितं सत्प्रसाधयेत् । गणकः शिल्पज्ञः । प्रकर्षेण यथा नाक्षत्रपाष्टे - मंगलभ्रमस्तथा पारदप्रयोगेण सिद्धं कुर्यादित्यर्थः । एतदुक्तं भवति । निबद्ध
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ध्यायः १३.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (२२७) गोलबहिर्भूतयष्टिमान्नयोर्ययेच्छया स्थानद्वये स्थानत्रये वा नेमि परिधिरूपामुत्कीर्य तां तालपत्रादिना विकणवस्तुलेपनाच्छाद्य तत्र छिद्रं कृत्वा तन्मार्गण पारदोऽर्धपरिधौ पूर्णो देयः इतरार्द्धपरिधी जलं च देयं ततो मुद्रितच्छिद्रं कृत्वा यष्टयग्रे भित्तिस्थनलिकयोः क्षेप्ये यथा गोलोऽन्तरिक्षो भवति । ततः पारदजलाकर्षितयष्टिः स्वयं भ्रमति । तदाश्रितो गोलश्च । एतत्पक्षे वस्त्रच्छन्नमाकाशाकारतासम्पादनार्थमेव चेत् क्रियत इति । नन्वियं स्वयंवहक्रिया व्यक्ता नोक्तेन्यत आह-गोप्यमिति । एतत्स्वयंवहकरणं गोप्यमप्रकाश्यम् कुत इत्यत आह-प्रकाशोक्तामति । अतिव्यक्ततयोक्तं स्वयंवह. करणमिह भूलोके सर्वगम्यं सर्वजनगम्यं भवेत् । तथाच सर्वज्ञेये वस्तुनि चमत्कारानुत्पत्तेश्चमत्कृयंथ सर्वत्र न प्रकाश्यमित्याशयेन तत्करणं व्यक्तं नोक्तमिति भावः ॥१७॥ ___ भा. टी०-परेके साथ गलयंत्रको सिद्ध करे, यह अतिगोपनीय प्रकाश करके कहनसे जाना जायगा ॥ १७ ॥
ननु त्वया गोप्यत्वेनोक्तं मया कथमगन्तव्यं मादृशैरन्यैश्च कथमवगन्तव्यमित्यतः मार्धश्लोकेनाह
तस्माद्गुरूपदेशेन रचयेगोलमुत्तमम् ॥ युगेयुगे समुच्छिना रचनेयं विवस्वतः ॥
प्रसादात्कस्यचिद्भयः प्रादुर्भवति कामतः ॥ १८॥ तस्मात्स्वयंवहकरणस्य गोप्यत्वाद्गुरूपदेशेन परम्पराप्राप्तगुरोनिर्व्याजकथनेन गोलं दृष्टान्तगोलमुत्तमं स्वयंवहात्मकं गणकः कुर्यात् । तथाच मया तुभ्यमुक्ता ग्रन्थे गोप्यत्वेनातिव्यक्ता नोक्तेति भावः । अन्यैः कथं ज्ञेयमिदमित्यत आह-युग इत्यादि । विवस्वतः सूर्यमंडलाधिष्ठातुर्जीवविशेषस्येयं स्वयंवहरूपा रचना क्रिया युगेयुगे बहुकाल इत्यर्थः । समुच्छिन्ना लोके लुमा कस्यचिन्मादृशस्य प्रसादादनुग्रहाद्भूयः वारंवारमिच्छया प्रादुर्भवति व्यक्ता भवतीत्यर्थः । तथाच यथा मत्तस्त्वयावगतं तथान्यस्मान्मादृशादन्यैरवगन्तव्यम् कालस्य निरवधित्वासृष्टेरनादित्वाचति भावः ॥ १८ ॥
मा० टी०-तिसके लिये गुरुके उपदेशसे उतम गोलको बनावै । यह युग २ में उच्छिन्न होता है, पान्नु सूर्य के प्रसाइसे किसी के लियेही फिर प्रगट होता है ॥ १८ ॥
अथोक्तस्वयंवहक्रियारीत्या स्वयंवहगोलातिरिक्तान्यस्वयंवहयंत्राणि कालज्ञानार्थ साध्यानि तत्साधनं रहास कार्यमिति चाह
कालसंसाधनार्थाय तथा यन्त्राणि साधयेत् ॥
एकाकी योजयेद्वीजं यन्त्रे विस्मयकारिणि ॥ १९ ॥ तथा यथा स्वयंवहंगोलयन्त्रं साधितं तद्वदित्यर्थः। कालसंसाधनार्थाय कालस्य दिनगतादेः सुक्ष्मज्ञाननिमित्तं यन्त्राणि म्वयेवहगोलातिरिक्तानि स्वयंवहतंत्राणि साधयेत् ।
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(२२८) सूर्यसिद्धान्तः
[त्रयोदशोऽगणक शिल्पादिस्वकौशल्येन कारयेत् । यन्त्रे कालसाधके विस्मयकारिण स्वयंवह रूपतया लोकानामुत्पन्नाश्चर्यस्य कारणभूते बीजं स्वयंवहतासम्पादकं कारणमेकाकी एकव्यक्तिकोऽद्वितीयः सन्योजयेत् । शिल्पज्ञतया स्वयमेव निष्पादयेदित्यर्थः । अन्यथा द्वितीयस्य तज्ज्ञानेन तन्मुखात्तद्यन्त्रहादस्य लोकश्रवणगोचरतायां कदाचित्सम्भावि. तायां विस्मयानुत्पत्तेः ॥ १९॥ ... भाल्टी०-कालसाधनके लिये यंत्रोंको बनावे; विस्मयकारी बीज मकेल'ही यंत्रमें मिलाये ११ अथैषां स्वयंवहयन्त्राणां दुर्घटत्वाच्छंक्वादियन्त्रैः कालज्ञानं ज्ञेयमित्याह
शंकुयधिधनुश्चक्रेश्छायायन्त्रैरनेकधा ।
गुरूपदेशाद्विज्ञेयं कालज्ञानमतंद्रितः ॥ २० ॥ । शङ्कुयष्टिधनुश्चकैः प्रसिद्धैश्छायायन्त्रैश्छायासाधकयन्त्रैरनेकधा नानाविधगणितप्रकारैर्गुरूपदेशात्स्वाध्यापकस्य नियाजक्थनादतन्द्रितैरभ्रमैः पुरुषः कालज्ञानं दिनगतादिज्ञानं विज्ञेयं सूक्ष्मत्वेनावगम्यम् । एतत्सर्वं सिद्धान्तशिरोमणी भास्कराचार्यैः स्पष्टीकृतम् । तत्र शङ्कस्वरूपम्-“समतलमस्तकपरिधिभ्रमसिद्धो दन्तिदन्तजः शङ्कः । तच्छायातः प्रोक्तं ज्ञानं दिनेशकालानाम् ॥” इति । यष्टियन्त्रं च-"त्रिज्याविष्का म्भार्थ वृत्तं कृत्वा दिगङ्कितं तत्र । दत्त्वागां प्राक्पश्चाद्यज्यावृत्तं च तन्मध्ये । तत्परिधौ षष्टयत यष्टिर्नष्टद्युतिस्ततः केन्द्रे । त्रिज्यांगुला निधेया यष्टयग्राग्रान्तरं यावत् ॥ यावत्या मौा यद्वितीयवृत्ते धनुर्भवेत्तत्र । दिनगतशेषा नाड्यः प्राक्पश्चात्स्युः क्रमे. णैवम् ॥” इति.। चक्रयन्त्रन्तु-"चक्रं चक्रांशाङ्क परिधौ श्लथशृंखलादिकाधारम् । धात्रीत्रिम आधारात्कल्प्याभार्धेत्र खार्धं च ॥ तन्मध्ये सूक्ष्माक्षं क्षिप्त्वार्काभिमुख. नेमिकं धायम् । भूमेरुन्नतभागास्तत्राक्षच्छायया भुक्ताः ॥ तत्वार्धान्तश्चरता उन्नतलवसंगुणं युदलम् । द्युदलोन्नतांशभक्तं नाड्यः स्थूलाः परैः प्रोक्ताः ॥” इति । धनुयन्त्रं तु-'दलीकृतं चक्रमुशन्ति चापम्' इति । अथ ग्रन्थविस्तरभयादेतेषां निरूपणविस्तरो गणितादिविचारश्चोपेक्षित इति मन्तव्यम् ॥ २० ॥
भा०टी०-विना भ्रमवला पुरुष गुरुके पदेशसे शंकु, यष्टि, धनु, चक्र, अनेक प्रकारक छायायंत्रसे कालको जाने ।। २० ॥
अथ घटीयंत्रादिभिश्चमत्कारियन्त्रैर्वा सर्वोपजीव्यं कालं सूक्ष्मं साधयदिति कालसाघनमुपसंहरति
तोययंत्रकपालाद्यैर्मयूरनरवानरैः ॥
ससूत्ररेणुगभैश्च सम्यकालं प्रसाधयेत् ॥ २१ ॥ ... जलयन्त्रं च तत्कपालं च कपालाख्यं जलयंत्रं वक्ष्यमाणं तदाद्यं प्रथमं येषां पर्यन्त्रैर्वालुकायन्त्रप्रभृतिभिः सापेक्षघटीयन्त्रमयूरनरवानरैः । मयूगरख्यं स्वयंवयन्त्रं
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घ्यायः १३.] संस्कृतटीका-भाषाटोकासमेतः । (२२९) निरपेक्ष नरयन्त्रं शंक्वाख्यं छायायन्त्रं पूर्वोद्दिष्टवानरयंत्र स्वयंवहं निरपेक्षमेतः ससूत्रे. रणुगर्भः सूत्रसहिता रेणवो धूलयो गर्भे मध्ये येषां तैः सूत्रप्रोता पष्टिसंख्याका मृदु. घटिकामयूरोदरस्थानमुखाटिकान्तरेण स्वतएव निःसरन्तीति लोकप्रसिद्ध्या ताटशैर्यन्त्ररित्यर्थः । यद्वा सूत्राकारेण रेणवः सिकतांशा मर्ने उदरे यस्यैतादृशं यन्त्रं वालुकायन्त्रं प्रसिद्धम् । तेन सहितैर्मयूरादियन्त्रैर्वालुकायन्त्रण चेति सिद्धार्थः । चकारस्तोययन्त्रकपालाद्यैरित्यनेकसमुच्चयार्थकः । कालं दिनगतादिरूपं सम्यक् सूक्ष्मं प्रसाधयेत् । प्रकपणे सूक्ष्मत्वेनातिसूक्ष्मत्वेनेत्यर्थः । जानीयादित्यर्थः ॥२१॥
भा० टी०-कपालादि जळयंत्र, मयूर, नर, वानराकार सूत्रयुत आदि रेणु गर्भसे भलीभाँति करके साधन करे ॥ २१ ॥
ननु मयूरादिस्वयंवहयन्त्राणि कथं साध्यानीत्यतस्तत्साधनप्रकारा बहवो दुर्गमाश्च सन्तीत्याह
पारदाराम्बुसूत्राणि शुल्बतैलजलानि च ॥
बीजानि पासवस्तेषु प्रयोगास्तेपि दुर्लभाः ॥ २२ ॥ तेषु मयूरादियन्त्रेषु स्वयवहार्थमेते प्रयोगाः प्रकर्पण योज्याः । प्रकर्षस्तु यावदमिमतसिद्धेः । एते क इत्यत आह-पारदाराम्बुसूत्राणीति । पारदयुक्ता आराः । यथा च सिद्धान्तशिरोभणौ "लघुकाष्ठजसमचके समसुषिराराः समान्तरा नेम्याम् । किंचिद्रका योज्या सुषिरस्यार्धे पृथक्तासाम् ॥ रसपूर्णे तचक्रं व्याधाराक्षस्थितं स्वयं भ्रमात ॥” इति । अम्बु जलस्य प्रयोगः । सूत्राणि सूत्रसाधनप्रयोगः । शुल्वं शिल्पनैपुण्यम् । तैलजलानि तैलयुक्तजलस्य प्रयोगः । चकारात् तयोः पृथक्प्रयोगोऽपि । यथा च सिद्धान्तशिरोमणौ "उत्कीर्य नेमिमथवा परितो' मदने न संलग्नम् । तदुपरि ताल इलाद्यं कृत्वा सुषिरे रसं क्षिपेत्तावत् ॥ यावद्रसकपार्श्व क्षिप्तजलं नान्यतो याति । पिहितच्छिद्रं तदतश्चक्रं भ्रमति स्वयं जलाकृष्टम् ॥ ताम्रादिमयस्यांकुशरूपनलस्याम्पूर्णस्य । एकं कुण्डजलान्तदितीयमग्रं त्वथोमुखं च बहिः ॥ युगपन्मुक्तं चेत्कं नलेन कुण्डाद्वहिः पतति । नेम्यां बडा घटिकाश्चक्रं जलयन्त्रवृत्तथा धार्यम् ॥ नलकप्रच्युतसलिलं पतति यथा तद्घटीमध्ये । भ्रमति ततस्तत्सततं पूर्णघटीभिः समाकृष्टम् ॥ चक्रच्युतं स्वमुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ॥” इति । बीजानि केवलं तुङ्गबीजप्रयोगः । पांसवो धूलिप्रयोगास्तैर्युक्ताः प्रयोगाः । अपिशब्दात्प्रयोगेषु सुगमतरा इत्यर्थः । दुर्लभाः साधारणत्वेन मनुष्यैः कर्तुमशक्या इत्यथः । अन्यथा प्रतिगृह स्वयंवहानां प्राचुर्यापत्तेः । इयं स्वयंवह विद्यासमुद्रान्तर्निवासिजनैः फिरंग्याख्यैः सम्यगभ्यस्तोते कुहकविद्यात्वादत्र विस्तारानुद्योग इति संक्षेपः ॥ २२ ॥
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(२३०) सूर्यसिद्धान्तः--
[त्रयोदशोमा०टी०-और सब पारेसे युक्त, जल, सूत्र, शिल्पकी निपुणता, तेलयुक्त जल, पारा, बालू सब यंत्रों का प्रयोग करना अत्यन्त दुर्लभ है ॥ २२ ॥ अय कपालाख्यं जलयन्त्रमाह
ताम्रपात्रमश्छिद्रं न्यस्तं कुण्डेऽमलाम्भसि ॥
षष्टिमज्जत्यहोरात्रे स्फुटं यन्त्र कपालकम् ॥ २३॥ यसम्रघटितं पात्रमश्छिद्रमधोभागे छिद्रं यस्य तत् । अमलाम्भसि निर्मलं जलं विद्यते यस्मिंस्तादृशे कुण्डे बृहद्भाण्डे न्यन्तं धारितं सदहोरात्रे नाक्षत्राहोरात्रे षष्टिः षष्टिवारमेव न न्यूनाधिक मजति । अधश्छिद्रमार्गेण जलागमनेन जलपूर्णतया निमग्न मपति । तत्कपालकं कपालमेव कपालकं घटखण्डानां कपालपदवाच्यत्वाद्धटाधस्तनार्धाकार यन्त्रं घटीयन्त्र स्फुटं सूक्ष्मं तद्घटनं तु “शुल्बस्य दिग्भिर्विहितं पलैर्यत्पडंगुलो झं द्विगुणायतास्यम् । तदम्भसा षष्टिपलैः प्रपूर्य पात्रं घटार्धप्रतिमं घटी स्यात् ॥ सत्र्यंशमाषत्रयनिर्मिताया हेनः शलाका चतुरमुला स्यात् । विद्धं तया प्राक्तनमत्र पात्रं प्रपूर्यते नाडिकयाम्बुभिस्तत् ॥” इति व्यक्तम् । भगवता तु सूक्ष्ममुक्तम् ॥ २३ ॥
भाण्टी-निर्मल जलभरे हुए कुम्भमें (नाद) नीचे जिसमें छेद है ऐसा ताबका पात्र रक्स (कटोरा) यह कपालक यंत्र दिनरातमें साटवार जलमें डूपैगा ॥ २३ ॥ अथ शड्डयन्त्र दिवैव कालज्ञानार्थ नान्यदेत्याह
नरयन्त्र तथा साधु दिवा च विमले रवौ ॥
छायासंसाधनः प्रोक्तं कालसाधनमुत्तमम् ॥ २४ ॥ विमले मेघादिव्यवधानरूपमलेन रहिते सूर्य एतद्रूपे दिने । चकार एवकारार्थस्तेन साभ्रदिनव्यवच्छेदः । नरयन्त्रं द्वादशांगुलशङ्कयन्त्रं तथा घटीयन्त्रवत्कालसाधकं साधु सक्ष्मं रात्रौ नेत्यर्थसिद्धम् । ननु शङ्कोश्छायासाधकत्वं न कालसाधकत्वं तेन तस्य कथं यन्त्रत्वं कालसाधकवस्तुनो यन्त्रत्वप्रतिपादनादित्यत आह-छायासंसाधनरिति । इदं शड्डरूपनरयन्त्र छायायाः सम्यक्सूक्ष्मत्वेन साधनैरवगमैः कृत्वा काल साधनं दिनगतादिकालस्य कारणमुत्तमम् । अन्ययन्त्रेभ्योऽस्मानिरन्तरतयातिश्रेष्ठम् । तथा च च्छायासाधकत्वेनैव च्छायाद्वाराशङ्कोः कालसाधकत्वामति न यन्त्रत्वव्याघातः । अतएव साभ्रदिने रात्री चानुपयुक्तः । नरस्य च्छायायन्त्रोपलक्षणत्वात् यष्टिधनुश्चकाज्यापि तथोते ध्येयम् ॥ २४ ॥
माल्टी०-दिनके समय जब निर्मळ सूर्य हो तब छायासंशोधनके लिये अत्युत्तम नरयंत्र (१२ अंगुल) समयको साधनके लिये कहाहे ॥ २४ ॥
अथादित एतदन्तग्रन्थज्ञानस्यैकफलकथनेन विभक्तमपि खण्डद्वयं कोडयति
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संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः
ग्रहनक्षत्र चरितं ज्ञात्वा गोलं च तत्त्वतः ॥ ग्रह लोकमवाप्नोति पर्यायेणात्मवान्नरः ।। २५ ।।
ग्रहनक्षत्राणां चरितं गणितविषयकं ज्ञानं ग्रन्थपूर्वखण्डरूपं गोलं भूगोलभगोलस्वरूपप्रतिपादकग्रन्थं ग्रन्थोत्तरार्धान्तर्गतम् । चकारः समुच्चये । तत्त्वतः वस्तुस्थितिसद्भावेन सार्वविभक्तिकस्तसिरित्येके । ज्ञात्वावगम्य नरः पुरुषः । ग्रहलोकं चन्द्रादिग्रहाणां लोकं तल्लोकाधिष्ठितस्थानं ग्रहोपलक्षणान्नक्षत्राधिष्ठित स्थानमपीति ध्ययम् । प्राप्नोति । ननु ग्रहलेोकप्राप्त्या कः पुरुषार्थ इत्यतो मोक्षरूपं पुरुषार्थफलमाह । पर्यायेणेति । जन्मान्तरेण पुरुष आत्मवानात्मज्ञानी भवति । तथा चात्मज्ञानान्मोक्षप्राप्तिरेवेति भावः ॥ २५ ॥
ध्यायः १३. ]
( २३१ )
भा० टी० -ग्रहनक्षत्र चरित और गोल इनको भलीभांति जानवर मनुष्य ग्रहको क प्राप्त होकर अंत में आत्मवान् होता है || २५ ||
अथाग्रिमग्रन्थस्यासङ्गतिपरिहारायारब्धाध्यायसमाप्ति फक्किक्कयाह
इति ज्योतिषोपनिषदध्यायः ॥ १३ ॥
इति यथा वेदे आत्मस्वरूपनिरूपणान्नारायणोपनिषदुच्यते तथा ज्योतिःशास्त्रे प्रदिपादितानां ग्रहनक्षत्राणामेतद्वन्यैकदेशे स्वरूपादिनिरूपणा ज्योतिःशाखसारं ज्योति यो पनिषदुच्यते । तत्संज्ञोऽध्यायो ग्रन्थैकदेशः सम्पूर्ण इत्यर्थः ।
रङ्गनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । ज्योतिषोपनिषत्सञ्ज्ञोध्यायः पूर्णोपरार्धके ॥
इति श्री सकलगण कसार्वभौम बल्लालदेवज्ञात्मजरंग नाथगणक विरचिते गूढार्थप्रकाशके उत्तरखण्डे ज्योतिषोपनिषदध्यायः पूर्णः ॥ १३ ॥
तेरहवां अध्याथ समाप्त ।
चतुर्दशोऽध्यायः ।
अथ मानानि कति किश्च तैरित्यवशिष्टप्रश्नस्योत्तरभूत आरब्धमानाध्यायो व्याख्यायते । तत्र प्रथमं मानानि कतीति प्रथमप्रश्नस्योत्तरमाह
ब्राह्मं दिव्यं तथा पित्र्यं प्राजापत्यं गुरोस्तथा ॥
सोरं च सावनं चान्द्रमार्श मानानि वै नव ॥ १ ॥
वै निश्वयेन । नवसंख्याकानि कालमानानि । तत्र प्रथमं ब्राह्ममानम् । 'कल्पा ब्राह्ममहः प्रोक्तम्' इत्यादि । 'परमायुः शतं तस्य तयाहोरात्रसंख्यया' इत्यन्तं मध्यमाधिकारे प्रतिपादितम् । द्वितीयं दिव्यं देवमानम् ' दिव्यं तदह उच्यते ' इत्यादि
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(२३२) सूर्यसिद्धान्तः
[ चतुर्दशोऽ'तत्षष्टिः सङ्गुणादिव्यं वर्षम् ' इत्यन्तं तत्रैव प्रतिपादितम् । तथा तृतीयमानं पित्र्यं पितणां मानं वक्ष्यमाणम् । प्राजापत्य मानं वक्ष्यमाणं चतुर्थम् । बृहस्पतेस्तथामानं पञ्चमं समुदीरितम् । सौरं चकारात्षष्ठं मानम् । सावनं सप्तमं मानम् । चन्द्रमानमष्टमम् । नाशनं मानं नवमम् । एतान्यपि तत्रैवोक्तानि ॥ १॥ ___भा०टी०-ब्राह्म, वैव, पिज्य, प्राजापत्य, बा:स्पत्य, सौर, सावन, चान्द्र और नाक्षत्र यह नो मान हैं ॥ १ ॥
अथ किंचित्तरिति द्वितीयप्रश्नस्योत्तरं विवक्षुः प्रथमं व्यवहारोपयुक्तमानानि दर्शयात
चतुर्भिर्यवहारोऽत्र सौरचान्द्रसावनः ॥
बार्हस्पत्येन षष्टयन्दं ज्ञेयं नान्यैस्तु नित्यशः ॥ २॥ अत्र मनुष्यलोके सौरचान्द्रनाक्षत्रसावनैश्चतुर्भिर्मानैर्व्यवहारः कर्मघटना । षष्टयब्द प्रभवादिषष्टिवर्ष जात्यभिप्रायेणैकवचनम् । बार्हस्पत्येन बृहस्पतिमानेन बृहस्पतिमध्यमराशिभोगात्मककालेन प्रत्येकं ज्ञेयम् । अन्यैरवशिष्टैाह्मादिव्यापत्र्यप्राजापत्यैः। नित्यशः सदेत्ययः । व्यवहारो नास्ति । तुकागत्कदाचित्कत्वेन तैर्व्यवहारः ॥२॥
भार्ट-इनमें चारका व्यवहार हुआ है । सौर, चान्द्र, नाक्षत्रिक और सावन, षष्टयन्द नानने के लिय बार्हस्पत्यमानको जानना चाहिये । शेष मानोंका नित्य प्रयोजन नहीं होता ॥ २ ॥ अथ मौरेण व्यवहारं प्रदर्शयति
सारेण युनिशोर्मानं षडशीतिमुखानि च ॥
अयनं विषुवच्चैव संक्रान्तेः पुण्यकालता ॥३॥ अहोरात्रयोर्मानं सौरेण ज्ञेयम् । प्रात्यहिकसूर्यगतिभोगादहोरात्रं भवतीत्यर्थः । षडशीतिमुखानि वक्ष्यमाणानि । चः समुच्चये । तेन सौरमानेन ज्ञेयानि । अयन विषुवत् । चः समुच्चये । संक्रान्तः पुण्यकालता सूर्यविम्बकलासम्बद्धा सौरमानेन ॥ ३ ॥
मा० टी०-दिनरात्रिका परिमाण षडशीति आदि अयन, विषुवत् संक्रान्ति आदि पुण्यकाल, यह सब खोरमानमें निर्णीत होते हैं ॥ ३ ॥ अथ षडशीतिमुखमाह
तुलादिषडशीत्यहां षडशीतिमुखं क्रमात ।। तच्चतुष्टयमेव स्याद्विस्वभावेषु राशिषु ॥४॥
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वायः १४. ] संस्कृत टीका - भाषाटीकासमेतः ।
( २३३ )
तुलारम्भात्षडशीतिदिवसानां सौराणां षडशीतिमुखं भवति । तच्चतुष्टयं षडशीति मुखस्य चतुःसंख्याद्विस्वभावेषु राशिषु चतुर्षु क्रमादेवं वक्ष्यमाणा भवति ॥ ४ ॥ मा० टी० - तुला के आरम्भते परस्पर सौर ८६ दिनमें षडशीति होता है । यह चार दिव भाव राशिमें स्थित हैं ॥ ४ ॥
तदेवाह -
पड़िशे धनुषो भागे द्वाविंशे निमिषस्य च ॥ मिथुनाष्टादशे भागे कन्यायास्तु चतुर्दश ॥ ५ ॥
धनुराशेः षडविंशतितमेंशे षडशीतिमुखं मीनराशेद्धविंशतितमेऽशे षडशीतिमुखम् । चकारः समुच्चयार्थकः प्रत्येकमन्वेति । मिथुनराशेरष्टादशेऽशे षडशीतिमुखं कन्यायाचतुर्दशे भागे षडशीतिमुखम् । अतएव तुलादितः षडशीत्यंशो गणनया येषु राशिषु भवति ते राशयो द्विस्वभावाः षडशीतिमुखसञ्ज्ञा संक्रांतिप्रकरणे सांहितिकैरुक्ताः ॥ ५ ॥
भा० टी० - प्रथम षडशीतिमुख धनुके २६ अंशमं । दूसरा मीन २२ अंशमें; तीसरा मिथुन के १८ अंशमें; चौथा कन्याके १४ अंशमें है ॥ ५ ॥
अथ षडशीत्यंशगणनया चत्वारिषडशीतिमुखान्युक्त्वा भगणांश पूर्त्यर्थमवशिटांशा षोडशातिपुण्या इत्याह
ततः शेषाणि कन्याया यान्यहानि तु षोडश ॥ ऋतुभिस्तानि तुल्यानि पितॄणां दत्तमक्षयम् ॥ ६ ॥
ततः कन्यादिचतुर्दश भागानन्तरं शेषाणि भगणभागेऽवशिष्टानि कन्याया यान्यहानिं सौरभागसमानि षोडश तानि । तुकारात्पूर्वदिनासमानि क्रतुभिर्यज्ञैः समानि । अति पुण्यानीत्यर्थः । तत्र पितणां दत्तं श्राद्धादिकृतमक्षयमनन्तफलदं भवति ॥ ६ ॥
भा० टी० - कन्याके पिछले १६ अंश यज्ञकार्यके लिये पुण्यदायी हैं । इस समय में पितृलोगों के लिये कियाहुआ दान अक्षय होता है | ६ ||
अथ राश्यधिष्ठित क्रान्तिवृत्ते चत्वारिस्थानानि पदसन्धिस्थाने विषुवायनाभ्यां प्रसिद्धानीत्याह
भचक्रनाभौ विषुवद्वितयं समसूत्रगम् ॥
अयनद्वितयं चैव चतस्रः प्रथितास्तु ताः ॥ ७ ॥
भचनाभौ भगोलस्य ध्रुवद्रयाभ्यां तुल्यान्तरेण मध्यभागे विषुवद्दितीयं विषुवद्वयं समसूत्रगं परस्परं व्याससूत्रान्तरितं ध्रुवमध्ये विषुवद्वत्तस्थानात्तद्वृत्ते क्रान्तिवृत्तमागौ यौ लग्नौ तौ क्रमेण पूर्वापरौ विषुवत्संज्ञौ मेषतुलाख्यौ चेत्यर्थः । अयनद्वितयमय नद्वयं
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(२३४) सूर्यसिद्धान्तः
। चतुर्दशोऽकर्कमकरादिरूपम् । चः समुच्चये । तेन समसूत्रमंता विषुवायनाख्याः क्रान्तिवृत्त
देशरूपा भूमयश्चतस्रश्चतुःसंख्याकाः प्रथिता गणितादौ पदादित्वेन प्रसिद्धाः । एव. कारादन्यराशीनां निरासः । तुकारात्तासां समसूत्रस्थत्वेऽपि विषुवायनत्वाभावात्पदादित्वेनाप्रसिद्धिरित्यर्थः ॥७॥
भाटी नक्षत्रचक्रमें दो विषुवत् बिन्दु समसूत्रग हैं मोर दो मभयनभी तैसेही हैं । यह चारविन्नु पदा कहे जाते हैं ॥ ७ ॥ अथावशिष्टनामादिस्वरूपमन्यदप्याह
तदन्तरेषु संक्रन्तिद्वितयं द्वितयं पुनः॥
नैरन्तर्यात्तु संक्रान्तेयं विष्णुपदीद्वयम् ॥ ८॥ तदन्तरेषु विषुवायनान्तरालेषु । अत्रान्तरालानां चतुःस्थाने सद्भावाद्वहुवचनम् । संक्रान्तिद्वितय पुनाराश्यादिभागे ग्रहाणामाक्रमणं वारद्वयं भवति तदन्तराले राश्यादिभागौ द्वौ भवत इत्यर्थः । यथाहि भेषाख्यविषुवकाख्यायनयोरन्तराले वृषामिथुनयो. रादी । कर्कतुलयोरन्तराले सिंहकन्ययोरादी । तुलामकरयोरन्तराले वृश्चिकधनुषोरादी। मकरमेषयोरन्तराले कुंभमीनयोरादी इति एवं विषुवानन्तरं संक्रमणद्वयमन्तरमयनं तदनन्तरं संक्रान्तिद्वयं तदनन्तरं विषुवमनन्तरं संक्रांतिद्वयमनन्तरमयनमित्यादिपौन:पुन्येन ज्ञेयमित्यर्थः । संक्रांतिद्वयमध्ये प्रथमसंक्रान्तौ विशेषमाह-नैरन्तर्यादिति । निरन्तरतया सम्भूतायाः संक्रान्तः सकाशाद्विष्णुपदीद्वयं तदन्तराल इति त्वर्थः । अवगम्यं प्रथमसंक्रान्तिर्विष्णुपदसज्ञा तयोर्द्रयं दभ्यन्तरे प्रत्येकं भवतात तात्प यायः । षडशीतिसझं द्वितीयसंक्रमणं पूर्वसूचितं तयोरपि द्वयं तदन्तराले भवतीति ध्येयम् ॥ ८॥
भा०टी०-कहेहुए दो बिन्दुओंके मध्यमें दो संक्रान्ति होती हैं जो चार संक्रान्ति तिनके पीछे होती हैं तिनको विष्णुपदी कहते हैं । (मौरका नाम षडशीति है)॥ ८ ॥ अथायनद्वयमाह..
भानोर्मकरसंक्रान्ते षण्मासा उत्तरायणम् ॥
कांदेस्तु तथैव स्यात्षण्मासा दक्षिणायनम् ॥ ९॥ सूर्यस्य मकरसंक्रान्तेः सकाशात् षट्सौरमासा उत्तरायणं भवति । कर्कादेः कर्क. संक्रान्तेः सकाशात्तथा सूर्यभोगात् एवकारादन्यग्रहनिरासः । षण्मासाः । तुकारात्सौराः। दक्षिणायनं भवति ॥९॥
भान्टी०-सूर्यके मकरसंक्रमणके पीछे ६ मास उचरायम हैं। कपटसंक्रमणक पीछ ६ मास दक्षिणायन है ॥ ९॥
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ध्यायः १४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२३५) अथर्तुमासवर्षाण्याहद्विराशिनाथा ऋतवस्ततोऽपि शिशिरादयः ॥
मेषादयो द्वादशैते मासास्तैरेव वत्सरः ॥ १० ॥ ततो मकरसंक्रान्तेः सकाशात् । अपिशब्द उत्तरायणावधिना समुच्चयार्थकः । द्विराशिनाथा राशिदयस्वामिका राशिद्वयार्कभोगात्मका इत्यर्थः । शिशिरादयः शिशिवसन्तग्रीष्मवर्षाशरद्धेमन्ता ऋतकः कालविभागविशेषा भवन्ति । एते सूर्यभोगविष. यका मेषादयो राशयो द्वादशमासास्तैदशभिर्मासैः। एवकारान्न्यूनाधिकव्यवच्छेदः । वत्सरः सौरवर्ष भवति ॥ १०॥ ___ भा० टी०-वह समय ( मकरसंक्रमण ) से शिशिरादि सब ऋतुम द्विराशि करके भोग करता है । मेषादि १२ मासमें एकवर्ष होताहै ॥ १० ॥ अथ प्रसङ्गात्संक्रान्तौ पुण्यकालानयनमाह
अर्कमानकलाः षष्टया गुणिता भुक्तिभाजिताः ।
तदर्धनाड्यः संक्रांकि पुण्यं तथापरे ॥ ११ ॥ सूर्यस्य बिम्बप्रमाणकलाः षष्ट्या गुणिताः सूर्यगत्या भक्तास्तस्य फलस्या तत्सं. ख्याका घटिका इत्यर्थः । संक्रान्तेः सूर्यस्य राशिप्रवेशकालादित्यर्थः । अर्वा पूर्व पुण्यं स्नानादिधर्मकृत्ये पुण्यघटिकाः पुण्यवृद्धिकारिकाः । अपरे संक्रांत्युत्तरकाले तथा स्नानादिधर्मकृत्ये पुण्यवृद्धिदा इत्यर्थः । अत्रोपपनिः । सूर्यबिम्बकेन्द्रस्य राश्यादौ सश्चरणकालः सक्रमणकालस्तस्य सूक्ष्मत्वेन दुर्जेयत्वात्स्थूलकालः कोप्यभ्युपेयः स तु राश्यादौ बिम्बसञ्चरणरूपोऽङ्गीकृतो विम्बसम्बन्धात् । अतः सूर्यगत्या षष्टिसावनघ• टिकास्तदा सूर्य बिम्वकलाभिः का इत्यनुपातानाता बिम्बघटिकाः संक्रान्तिकालः स्थूलः प्राङ्नेमिसञ्चरणकालात्पश्चिमनोमिसञ्चरणकालपर्यत तदर्धघटिकाव्यासार्धघाटका इति संक्रान्तिकालात्ताभिः पूर्वमपरत्रकाले प्रागपरनेम्यो क्रमेण संचरणात्पूर्वोत्तरकाले पुण्या इति ॥ ११ ॥
मा० टी०-सूर्यमानकला ६० से गुण करके भुक्तिसे भाग करनेपर जो हो, तिसका आधासंक्रमणकालमें वियोग और योग करनेसे जो दो समय होते हैं तिनका अन्तर अतिपुण्यवाई होता है ॥ ११ ॥ अथ सौरमुक्त्वाक्रमप्राप्तं चान्द्रमानमाह
अर्कादिनिसृतः प्राची यद्यात्यहरहः शशी॥
तचान्द्रमानमंशस्तु ज्ञेया द्वादशभिस्तिथिः ॥ १२ ॥ सूर्यात्समागमं त्यक्त्वा विनिर्गतः पृथग्भूतः संश्चन्द्रोऽहरहः प्रतिदिनं यत् तत्संख्या मितं प्राची पूर्वी दिशं गच्छति तत्प्रतिदिने चान्द्रमानं तत्तु गत्यन्तरांशामतम् । ननु.
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( २३६ )
सूर्य्यसिद्धान्तः
[ चतुर्दशोऽसौरदिनं सूर्याशेन यथा भवति तथैतद्रूपैभागैः कयाः पूर्ण चान्द्रं दिनं भवतीत्यत बाह । अंशैरिति । भागैस्तु कारात्सूर्यचन्द्रान्तरोत्पन्नैस्तस्य तद्रूपत्वात् । द्वादशभिर्द्वादशसंख्याकैस्तिथिज्ञया । एकं चान्द्रदिनं ज्ञेयमित्यर्थः । एतदुक्तं भवति । सूर्यचन्द्रयो गाच्चान्द्र दिनप्रवृतेः पुनर्योगे मातसमाप्तेर्भगणान्तरेण चान्द्रो मासस्त्रिंशच्चान्द्रदिनात्मकः । अतस्त्रिंशद्दिनैभंगणांशान्तरं तदैकेन किमिति । द्वादशभागैरकं चान्द्रदिनम् । 'दर्शः सूर्ये न्दुसङ्गमः इत्यभिधानाद्दर्शावधिकमासस्य त्रिंशत्तिथ्यात्मकत्वात्तिथिश्वान्द्रदिनरू पेति ॥ १२ ॥
9
मा० टी० - सूर्य से निकलकर अहरह चन्द्रमा पूर्वदिशा में जाता है; तिसके लिये सूर्य से १२ अंशमें जानेको जितना समय लगता है, वह तिथि है ॥ १२ ॥
अथ चान्द्रव्यवहारमाह
तिथिः करणमुद्राहः क्षौरं सर्वक्रियास्तथा ॥ व्रतोपवासयात्राणां क्रियाचान्द्रेण गृह्यते ॥ १३ ॥
तिथिः प्रतिपदाद्या करणं ववादिकमुद्वाहो विवाहः क्षौरं चौलकर्म । एतदाद्याः सर्व क्रिया व्रतबन्धाद्युत्सवरूपा व्रतोपवासयात्राणां नियमोपवासगमनानां क्रिया करणम् । तथा समुच्चयार्थकः । चान्द्रमानेन गृह्यते । मङ्गीक्रियते ॥ १३ ॥
भा० टी० - तिथि, करण, विवाह क्षौरादि समस्तकर्म, व्रत, उपवास, यात्रा सबड़ी चान्द्र मान ग्रहण किये जाते हैं ॥ १३ ॥
अथ चान्द्रमासं प्रसङ्गात्पितृमानं चाह -
त्रिंशता तिथिभिर्मासान्द्रः पित्र्यमहः स्मृतम् ॥ निशा च मासपक्षान्तौ तयोर्मध्ये विभागतः ॥ १४ ॥
त्रिंशता त्रिंशमितैस्तिथिभिश्वान्द्रो मासः पित्र्यं पितृसंबन्धि अहर्दिनम् । निशा रात्रिः पितृसंबद्धा । चकारो व्यवस्थार्थकः । ते नोभयं नैकः प्रत्येकं किंतु मिलितं स्मृतमिति - लिंगानुरोधेनोभयत्रान्वेति । तथा च चान्द्रो मासः । पित्र्याहोरात्रमित्यर्थः । फलितः । मासपक्षान्तौ मासान्तो दर्शान्तः पक्षान्तः पूर्णिमान्तः । एतावित्यर्थः । विभागतः क्रमेणेत्यर्थः तयोः पित्र्याहोरात्रयोर्म ध्येऽर्धे भवतः । दर्शान्तः पितॄणां मध्य ह्निः । पूर्णिमान्तः पितॄणां मध्यरात्र इत्यर्थः । अर्थात्कृष्णाष्टम्ययै दिनप्रारंभः । शुक्लाष्टम्यर्धे दिनान्त इति सिद्धम् ॥ १४
भा० टो०-३० तिथिमें चान्द्रमास वा पितृदिन और पक्षान्त में निशा है इस प्रकार विमागर्ने एक माखका दिनरात होता है ॥ १४ ॥
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ध्यायः १४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२३७) अथ क्रमप्राप्तं नक्षत्रमानं प्रसंगान्माससंज्ञां चाह
भचक्रभ्रमणं नित्यं नाक्षत्रं दिनमुच्यते ॥
नक्षत्रनाम्ना मासास्तु ज्ञेयाः पर्वान्तयोगतः ॥ १५॥ नित्यं प्रत्यहं भचक्रभ्रमणं नक्षत्रसमूहस्य प्रवहवायुकृतपरिभ्रमः । नाक्षत्र नक्षत्रसम्बन्धि दिनं मानज्ञैः कथ्यते । नित्यमित्यनेन चन्द्रभोगनक्षत्रभोगो नाक्षत्रमित्यस्य निरासः । भचकभ्रमणानुपपत्तेः । माससंज्ञा भहानक्षत्रनाम्नेति । पर्वान्तयोगतः पवान्तपूर्णिमान्तः । तस्य योगात्तत्सम्बन्धात् । नक्षत्रसंज्ञया माताः । तुकाराच्चान्द्रा अवगम्याः पूर्णिमान्तस्थितचन्द्रनक्षत्रसंज्ञो मासो ज्ञेय इति तात्पर्याथः । यथाहि यह शान्तावधिकश्चान्द्रो मासस्तदभ्यंतरस्थितपूर्णिमान्तस्थितचन्द्रनक्षत्रसंज्ञः । चित्रासम्ब न्धाच्चैत्रः। विशाखासम्बन्धाद्वैशाखः । ज्येष्ठासम्बन्धाज्येष्ठः । आषाढासम्बन्धादाषाढः । श्रवणसम्बन्धाच्छावणः । भाद्रपदासम्बन्धाद्भाद्रपदः । अश्विनीसम्बन्धादाश्विनः । कृत्तिकासम्बन्धात्कार्तिकः । मृगशीर्षसम्बन्धान्मागेशीर्षः । पुष्यसम्बन्धा त्पौषः । मघासबन्धान्माघः । फाल्गुनीसम्बन्धात्फाल्गुन इति ॥ १५ ॥
भा०टी०-दैनिकभचक्रका भ्रमण करनाही नाक्षात्रकदिन है। पूर्णिमान्ताधिष्ठित नक्षत्रके नामसे मासका नाम जानना चाहिये ॥ १५ ॥ ननु पूर्णिमान्ते तत्तन्नक्षत्राभावे कथं सत्संज्ञा मासानुचिते आह
कार्तिक्यादिषु संयोगे कृत्तिकापि द्वयं द्वयम् ।।
अन्त्योपान्त्यो पञ्चमश्च विधा मासत्रयं स्मृतम् ॥ १६॥ नक्षत्रसंयोगार्थमिति निमित्तसप्तमी । कार्तिक्यादिषु कार्तिकमासादीनां पौर्णमासीवित्यर्थः । कृत्तिकादि यंद्वयं नक्षत्रं कथितं कृत्तिकारोहिणीभ्यां कार्तिकः मृगाभ्यां मार्गशीर्षः । पुनर्वसुपुष्याभ्यां पौषः । आश्लेषामघाभ्यां माघः । चित्रास्वातीभ्यां चैत्रः। विशाखानराधाभ्यां वैशाखः । ज्येष्ठामूलाभ्यां ज्येष्ठः । पूर्वोत्तराषाढाभ्यामाषाढः । श्रवणधनिष्ठाभ्यां श्रावण इति फलितम् । अवशिष्टमासानाह-अन्त्योपान्त्याविति । अत्र कार्तिकस्यादित्वेन ग्रहादन्त्य आश्विनः । उपान्त्यो भाद्रपदः । एतौ मासी । पंचमः फाल्गुनः । चकारः समुच्चय इति । मासत्रयं त्रिधा स्थानत्रय उक्तम् । रेवत्यश्विनीभरणीति नक्षत्रत्रयसम्बन्धादाश्विनः । शततारापूर्वोत्तराभाद्रपदेति नक्ष
त्रयसम्बन्धाद्भाद्रपदः । पूर्वोत्तराफाल्गुनीहस्तोत नक्षत्रत्रयसंबन्धात्फाल्गुनं इति सिद्धम् ॥ १६ ॥
मा० टी०-कार्तिक मासकी पूर्णिमासे दो दो नक्षत्र में एक एक मासका नाम वेषल आश्विन, भाद्र, और फाल्गुन मासका नाम तीन नक्षत्राम सिद्ध है ॥ १६ ॥
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(२३८ ) सूर्यासद्धान्तः
[ चतुर्दशोऽअथ प्रसंगात्कार्तिकादिबृहस्पतिवर्षाण्याह
वैशाखादिषु कृष्णे च योगः पञ्चदशे तिथों॥
कार्तिकादीनि वर्षाणि गुरोरस्तोदयात्तथा ॥ १७॥ यथा पौर्णमास्यां नक्षत्रसम्बन्धेन तत्संज्ञो मासो भवति । तयेति समुच्चयार्थकम् । बृहस्पतेः सूर्यसान्निध्य दूरत्वाभ्यामस्तादुदयावा वैशाखादिषु द्वादशसु मासेषु कृष्णपक्षे पञ्चदशे तिथौ । अमायामित्यथः । चकारः पौर्णमासीसम्बन्धात्समुच्चयार्थकः । योगो दिननक्षत्रसम्बन्धः । कार्तिकादीनि द्वादशवर्षाणि भवन्ति । वैशाखकृष्णपक्ष. पञ्चदश्याममारूपायां बृहस्पतेरस्त उदये वा जाते सति तदापि बृहस्पतिवर्ष कृत्ति. कादिनक्षत्रसम्बन्धात्कार्तिकसञ्ज्ञम् । एवं ज्येष्ठाषाढश्रावणभाद्रपदाश्विनकार्तिकमार्गशीर्षपौषमाधफाल्गुनचैत्रामासु मृगपुण्यमघापूर्वी . फाल्गुनीचित्राविशाखाज्येष्ठापूर्वापादश्रवणपूर्वाभाद्रपदाअश्विनीदिननक्षत्रसम्बन्धान्मार्गशीर्षादीनि भवन्ति । अत्रापि प्रोक्तनक्षत्रदयत्रयसम्बन्धः प्रागुक्तो बोध्यः । अनेनेत्युपलक्षणम् तेन यहिने बृहस्पकटयोऽस्तो वा तहिने यच्चन्द्राधिष्ठितनक्षत्रं तत्सझं वार्हस्पत्यं वर्ष भवतीति तात्पयम । संहिताग्रन्थेऽस्तोदयवशावर्षोक्तिः परमिदानीमुदयवर्षव्यवहारो गणकैर्गण्यते येनोदितज्य इत्युक्तरिति ॥ १७ ॥
भाटी०-जैसे वैशाखादिमें पूर्णिमाकी तिथिके नक्षत्रसे मासका नाम होता है तैसे ही बृहस्पतिके अस्तोदयसमय कृष्णापंचदशी तिथिके नक्षत्रानुसार वर्षका नाम होता है ॥ १७ ॥ अथ क्रमप्राप्तं सावनमाह
उदयादुदयं भानोः सावनं तत्प्रकीर्तितम् ॥
सावनानि स्युरेतेन यज्ञकालविधिस्तु तैः ॥ १८॥ सूर्यस्योदयादुदयकालमारभ्याव्यवाहतोदयकालपर्यन्तं यत्कालात्मकं तत्सावनं मानहरुक्तम् । एतेनोदयद्वयान्तरात्मककालस्य गणनया सावनानि वसुट्यष्टाद्रीत्यादिना मध्याधिकारोक्तानि भवन्ति । तद्व्यवहारमाह- यज्ञकालविधिरिति । यज्ञस्य यः कालस्तस्य गणना तैः. सानैः । तुकारोऽन्यमाननिरासार्थकैवकारपरः ॥ १८ ॥
मा० टी०-एक सूर्योदपसे लेकर तूपरे सूर्योदयतक काल का नाम सावन है । इससे ही पज्ञकालकी विधिका निर्णय होता है ॥ १८॥ अथ व्यवहारान्तरमाह
सूतकादिपरिच्छेदो दिनमासाब्दपास्तथा ॥ मध्यमा ग्रहभुतिस्तु सावनेनैव गृह्यते ॥ १९॥
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ध्यायः १४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२३९ )
सूतकं जन्ममरणसम्बन्धि । आदिपदग्राह्यं चिकित्सितचान्द्रायणादि तस्य परिच्छेदो निर्णयः । दिनाधिपमासेश्वरवर्षेश्वराः । तथा समुच्चये ग्रहाणां गतिर्मध्यमा । तुकारात्स्पष्टगतेर्निरासः तस्याः प्रतिक्षणं वैलक्षण्यादिनसम्बन्धस्याभावात् । एतेन स्पष्टगत्या स्पष्टग्रहस्य चालनं निरस्तं स्थूलत्वादिति मुचितम् । सावनमानेन एवकारादन्यमानानरासः । गृह्यते सुधीभिरंगीक्रियते । अत्र बहुवचनानुरोधेन गृह्यत इत्यत्र बहुवचनं ज्ञेयम् ॥ १९ ॥
मा० टी०-सूनकादि भाशौच दिन, मास और अब्दपति ग्रहकी मध्यभुक्ति सावनके मनुसार ग्रहण की जाती है ॥ १९ ॥ अथ दिव्यमानमाह--
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं विपर्ययात् ॥
यत्प्रोक्तं तद्भवेदिव्यं भानो गणपूरणात् ॥ २० ॥ पूर्वार्धे पूर्व व्याख्यातम् । यदहोरात्र पूर्वार्धोक्तं सूर्यस्य भगणभोगपूर्तः प्रोक्तं पूर्व मनेकधा निर्णीतं तदहोरात्रं दिव्यमानं स्यात् ॥ २० ॥
भा० टी०-सुर असुरोंके परस्पर विपरीतभावसे दिनरात होता है सूर्यके भगणपूरणक कालही दिव्य दिन है ॥ २० ॥ अथावशिष्टे प्राजापत्यब्राह्ममाने आह
मन्वन्तरव्यवस्था च प्राजापत्यमुदाहृतम् ॥
न तत्र युनिशोभदो ब्राह्मः कल्पः प्रकीर्तितम् ॥ २१ ॥ मन्वन्तरव्यवस्था मन्वन्तरावस्थितिः । 'युतानां सप्ततिः सैका' इत्यादिना मध्या धिकारोक्तेति चार्थः । प्राजापत्यं मानं मानहरुदाहृतमुक्तं मनूनां प्रजापतिपुत्रत्वात् । ननु देवपितृमानयोदिनरात्रिभेदो यथोक्तस्तयास्मिन्माने दिनरात्रिभेदपातपादनं कथं नोक्तमित्यत आह-नान । तत्र प्राजापत्यमाने युनिशोदिनराव्योमेंदे विवेको गुरुसौरचन्द्र मानवन्नास्त । ब्रह्ममानमाह-ब्राह्म इति । कल्पो युगसहस्रात्मकः प्रागुक्तः । ब्रह्ममानं मानहरुक्तम् । यद्यपि पूर्व पित्र्यवाहस्पत्यमानयोरनुक्तेरत्र तयोरेवे निरूपणमुक्तमन्येषां निरूपणं तु पूर्वोक्त्या पुनरुक्तं तथापि पूर्वगाणितानुपजीव्य परिभाषाकशनावश्यकतया गणितप्रवृत्त्यर्थं तेषाममानत्वने निरूपणादत्र तुविशेषकथनार्थ मानत्वेन पुनस्तेषां निलं. पणं प्रश्नोत्तरत्वनाक्षतिकरमन्यथा प्रश्नानुपपत्तेरिति दिक् ॥ २१ ॥
भाटी०-प्रजापति आदि मन्वन्तरकी व्यवस्था पहले कही है। इसमें दिनरातका भेद "नहा कल्पही ब्रह्ममान है ॥ २१ ॥
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(२४०) सूर्यसिद्धान्तः
[ चतुर्दशोऽअथ स्वोक्तमुपसंहरति
एतत्ते परमाख्यातं रहस्यं परमाद्भुतम् ॥
ब्रह्मेतत्परमं पुण्यं सर्वपापप्रणाशनम् ॥ २२ ॥ हे परम दैत्यश्रष्ठ सूर्यभक्तत्वात् । ते तुभ्यमेतदधुनोक्तं परं द्वितीयकथनमाख्या, निराकांक्षतया सम्पूर्ण कार्थतम् । पूर्व सावशेषमुक्तं स्थितमिति त्या प्रश्नाः कृता. स्तदुत्तररूपद्विनीयकथनमिदं निःसंदिग्धमस्तीति तव संशया नोद्भवन्तीति भावः । ननु माप्रश्नं विना पूर्वमेवेदं कथं नोक्तमित्यत आह-रहस्यमिति । कुंत इत्यत आह-अडु तामिति । आकाशस्थग्रहनक्षत्रादिस्थितिज्ञानसम्पादकत्वादाश्चर्यकरमित्यर्थः। तथा च मत्पूर्वोक्तं येन सावधानतया श्रुतं तेनैव त्वदुक्ताः प्रश्नाः कर्तुं शक्यास्तदुत्तरत्वेन द्वितीयं मदुक्तमिति त्वां परीक्ष्य त्वा प्रत्युक्तं रहस्यमिति भावः । नन्वन्यशास्त्राणां ज्ञानादब्रह्मानन्दावाप्तिरस्मान्नेत्यंत आह-ब्रह्मति । एतन्मदुक्तं ब्रह्म ब्रह्मसमं तथा चान्यशास्त्राणां ब्रह्मसमत्वाभावेऽपि तज्ज्ञानाद्ब्रह्मानन्दावाप्तिररमाद्ब्रह्मस्वरूपाद्रह्मानन्दावाप्त किंचित्रमिति भावः । कुत इदं ब्रह्मसममित्यत आह-परमिति । उत्कृष्टम् । अत्र हेतुभूतं विशेषणद्वयमाह । पुण्यं सर्वपापप्रणाशनामति । पुण्यजनकं सर्वपापनाशकम् ॥ २२ ॥ ___ भा० टी०-हे श्रेष्ठ ! यह परम सद्भुत रहस्य वहा । यह सर्वपापका नाश करनेवाला अति पवित्र है, वरन् ब्रह्मस्वरूप है ॥ २२ ॥
नन्वस्माद्ब्रह्मानन्दप्राप्तिरुक्ता पूर्व ग्रहलोकप्राप्तिश्चोक्ता तत्रानयोः किं फलं भवती त्यत आह--
दिव्यं चाक्षे ग्रहाणां च दर्शितं ज्ञानमुत्तमम् ॥
विज्ञयार्कादिलोकेषु स्थान प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ २३ ॥ आक्षे नक्षत्रसंबन्धि ज्ञानं ग्रहाणां ज्ञानम् । चः समुच्चये। उत्तमं सर्वशास्त्रेभ्य उत्कृष्टम् । अत्र हेतुभूतं विशेषणं दिव्यं स्वर्गलोकोत्पन्नं दर्शितं मया तुभ्यमुपदिष्टं विज्ञाय ज्ञात्वाकांदिलोकेषु सूर्यादिग्रहलोवेषु स्थानमाधिष्ठानं प्राप्नोति शाश्वतं नित्यं ब्रह्मसायु: ज्यरूपं स्थानम् । पूर्वाधस्थद्वितीयचकारः समुच्चयाकोऽत्रान्वेति । तथाचोभयं फलं क्रमेण भवतीति भावः । यत्तु एतत्ते परमाख्यातमित्यादिश्लोकः क्वचित्पुस्तकेऽस्मात् श्लोकात्पूर्व नास्ति किन्तु माननिरूपणान्तस्थदिव्यं चाक्षमित्यादिश्लोकान्ते मानाध्यायसमाप्तिं कृत्वाग्रे “ यथा शिखा मयूराणां नागानां मणयो यथा । तद्ववेदाङ्गशास्त्राणां गणितं मूर्धनि स्थितम् ॥ १॥ न देयं तत्कृतघ्नाय वेदविप्लावकाय च । अर्थलुब्धाय मूर्खय सहकाराय पापिने ॥२॥ एवंविधाय पुत्रायाप्यदेयं सहजाय च । दत्तेन बेद:
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ध्यायः १४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः । (२४१) मार्गस्य समुच्छेदः कृतो भवेत् ॥ ३ ॥ व्रजेतामन्धनामिस्रं गुरुशिष्यौ सुदारुणम् । ततः शान्ताय शुचये ब्राह्मणायैव दापयेत् ॥ ४ ॥ चक्रानुपातजो मध्यो मध्यवृत्तां. शजः स्फुटः । कालेन दृक्समो न स्यात्ततो वीजक्रियोच्यते ॥५॥ राश्यादिरिन्दुरइन्नो भक्तो नक्षत्रकक्षया । शेषं नक्षत्रकक्षायास्त्यजेच्छेषकयोस्तयोः ॥ ६॥ यदल्पं तद्भजेदानां कक्षया तिथिनिघ्नया । बीजं भागादिकं तत्स्यात्कारयेत्तद्धनं खौ ॥ ७॥ त्रिगुणं शोधयेदिन्दौ जिनघ्नं भूमिजे क्षिपेत् । दृग्यमध्नमृणं ज्ञोच्चे खरामघ्नं गुरा. वृणम् ॥ ८॥ ऋणं व्योमनवानं स्याद्दानवेज्यचलोचके ॥ धनं सप्ताहतं मन्दे परिधीनामथोच्यते ॥९॥ युग्मान्तोक्ताः परिधयो ये ते नित्यं परिस्फुटाः ॥ ओजास्तोक्तास्तु ते ज्ञेयाः परबोजेन संस्कृताः ॥ १० ॥ वच्मि निर्बीजकानोजपदान्ते वृत्तमांगकान् ॥ सूर्येन्दोर्यनवो दन्ता धृतितत्त्वकलोनिताः ॥ ११ ॥ वाणतर्का महीजस्य सौम्यस्याचलबाहवः ॥ वाक्पतरष्टनेत्राणि व्योमशीतांशवो भृगोः ॥ १२ ॥ सूर्यर्तवोऽर्कपुत्रस्य बीजमेतेन कारयेत् ॥ बीजं खाग्न्युट्टतं शोध्यं परिध्यंशेषु भास्वतः ॥ १३ ॥ इनाप्त, योजयेदिन्दोः कुजस्याश्वहतं क्षिपेत् । विदश्चन्द्रहतं योज्यं सुरिन्द्रहतं धनम् ॥ १४ ॥ धनं भृगोर्भुवान्निध्नं रविघ्नं शोधयेच्छनेः ॥ एवं मान्दाः परिभ्यंशाः स्फुटाः स्युर्वच्मि शीघ्रकान् ॥ १५ ॥ भौमस्याभ्रगुणाशीणि बुधस्याब्धिगुणेन्दवः ॥ बाणाक्षा देवपूज्यस्य भार्गवस्येन्दषड्यमाः ॥ १६ ॥ शनैश्चन्द्राब्धयः शीघ्राः ओजान्ते बीजवर्जिताः ॥ द्विघ्नं खं कुजभागेषु बीज विनमणं विदः ॥ १७ ॥ अन्त्यष्टिनं वनं सूरेरिन्दुघ्नं शोधये. स्कवेः ॥ चन्द्रघ्नमृणमार्कस्य स्युरेभिर्टक्समा ग्रहाः ॥ १८ ॥ एतद्रीजं मयाख्यातं प्रीत्या परमया तव ॥ गोपनीयमिदं नित्यं नोपदेश्यं यतस्ततः ॥ १९ ॥ परीक्षिताय शिष्याय गुरुभक्ताय साधये ॥ देयं विप्राय नान्यस्मै प्रतिकंचुककारिणे॥२०॥ बीजं निःशेषसिद्धान्तरहस्यं परमं स्फुटम् । यात्रापाणिग्रहादीनां कार्याणां शुभसिद्धिदम् ॥ २१ ॥” इत्यस्य क्वचित्पुस्तके लिखितस्य बीजोपनयनाध्यायस्यान्ते लिखितो दृश्यते तत्त न समञ्जसम् । उत्तरखण्डे ग्रहगणितनिरूपणाभावात्तनिरूपणप्रसङ्ग निरूपणीयस्याध्यायस्यालेखनानौचित्यात्स्पष्टाधिकारे 'तदन्ते वास्य लेखनस्य युक्तत्वाच । किश्च 'मानानि कति किञ्च तैः ' इति प्रश्नाग्रे प्रश्नानामभावात्प्रश्नोत्तरभू. तोत्तरखण्डेऽस्य लेखनमसंगतम् । अपिच उपदेशकाले बीजाभावादग्रेऽन्तरदर्शनमनियतं कथमुपदिष्टमन्यथान्तर्भूतत्वेनैवोक्तः स्यादित्यादि विचारेण केनचिदृष्टेन बीजस्यापमूलकत्वज्ञापनायान्तेऽत्र बीजोपनयनाध्यायः प्रक्षिप्त इत्यवगम्य न व्याख्यात इति मन्तव्यत् ॥ २३ ॥ __ भा०टी०-ग्रह और नक्षत्र सम्बन्धीय दिव्य उत्तम ज्ञान जो मैंने कहा तिसकमत करनो सूर्यादि कोकम नित्यस्थान मिलता है ॥ २३ ॥
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(२४२) सूर्यसिद्धान्त:
[ चतुर्दशोरअथ मुनीन्मति कथितसम्बादस्योपसंहारमाह
इत्युक्त्वा मयमामन्त्र्य सम्यक्तेनाभिपूजितः ॥
दिवमाचक्रमेकांशःप्रविवेश स्वमण्डलम् ॥ २४॥ सूर्याशपुरुषो मयासुरमामन्त्र्य मुम्यक्तत्त्वतो ग्रहादिचरितमुपदिश्य । इति । एत. से इत्यादिश्लोक्दयमुक्त्वा कथयित्वा । समुच्चयार्थकश्चोऽनुसन्धेयः । दिवं स्वर्गमा चक्रमे । आक्रमणविषयं चके । ननु सूर्याशपुरुषस्य तदुपदेशे को वा पुरुषार्थ इत्य. त आह-लेनोत । मयासुरेणामिपूजितः । गन्धधुपादिनैवेद्यवस्त्रालंकरणादिमिः पूजाविषयीकृतः । मयद्वारा मर्त्यलोके सिद्धिं सूर्यतुल्यत्वेन प्राप्त इति भावः ननु स्वर्गेऽपि कि स्थानं गत इत्यत आह-प्रविवेशोत । स्वमण्डलं सूर्यबिम्बं विशति स्माधिष्ठितवान् । अत्रापि समुचयार्थोऽनुसन्धेयश्चकारः ॥ २४ ॥
मा० टी०-इस प्रकार मयको भली भांति उपदेश देनेके पीछे तीससे पूजित होकर सोश पुरुष स्वर्गमें चढकर सूर्यमण्डल में प्रवेश करते हुए ॥ २४ ॥ अथ मयासुरावस्थां तात्कालिकीमाह
मयोऽथ दिव्यं तज्ज्ञानं ज्ञात्वा साक्षाद्विवस्वतः ॥
कृतकृत्यमिवात्मानं मेने निधूतकल्मषम् ॥ २५ ॥ अथ सूर्याशपुरुषाऽन्तर्धानानन्तरं मयासुरस्तज्ज्ञानं ग्रहःस्थित्यादिज्ञानं पूर्वोक्तं दिव्यं स्वर्गस्थं सूर्यात्साक्षादनन्यद्वारेत्यर्थः । सूर्यांशपुरुषस्य सूर्याभिन्नत्वं तदुत्पन्नत्वा. दत एव भेदेऽपि साक्षादुक्तं युक्तम् । ज्ञात्वात्मानं खं नितकल्मषं निवारितपापं कृतकृत्य सम्पादितकार्य मेने मन्यतेऽस्मः ॥ २५ ॥
म. 20-मयभी साक्षात् सूर्यनारायणसे दिव्यज्ञान प्राप्त करके कृतार्थ हो कलुषशून्य हुमा और ऐसाही मनमें समझने लगा ॥ २५ ॥
अथ त्वमिदं ज्ञानं कथं प्राप्तवानिति श्रोतमुनिभिः पृष्टो मुनिस्तान्प्रति तत्रत्या भस्मत्मभूतय ऋषयो मयं प्रत्येतज्ज्ञानं पृष्टवन्त झ्याह..
ज्ञात्वा तमृषयश्चाय सूयंलब्धवरं भयम् ॥
परिवत्रुरुपेत्याथो ज्ञानं पप्रच्छुरादरात् ॥ २३ ॥ अथ मयासुरस्य ज्ञानप्राप्त्यनन्तरमृषयः सूर्याशपुरुषमयासुरसम्वादाश्रितभूमिप्रदेशासनभूमि देशस्या अस्मत्प्रभृतयो मुनयस्तं कृतकृत्यं मयासुर सूर्यलब्धवरं सूर्यात्यामो वरो ज्ञानप्रसादो येनैतादृशं ज्ञात्वा । उप समीप एत्यागत्य । चः समुच्चये। परिवत्रुः बेष्टिवान्तः। अथो अनन्तरमादरादत्यन्तं साभिलाषितया तं ज्ञानं ग्रहादिचरित पप्रच्छुः पृष्टवन्तः ॥ २६ ॥
माटी-मको सूर्यभगवान से पर पाया है. ऐसा नानकर मुनियोने तिसके निकट माय आदरसहित पठाबा ॥ १६॥
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ध्यायः १४.] संस्कृतटीका-भाषाटीकासमेतः। (२४३) अथ मयासुरः स्वज्ञानं तत्प्रश्न कारकानस्मत्प्रभृतीन्मुनीन्प्रति कथयामासेत्याह..
स तेभ्यः प्रददौ प्रीतो ग्रहाणां चरितं महत् ॥
अत्यद्भुततम लोके रहस्यं ब्रह्मसम्मितम् ॥ २७॥ मयासुरः प्रीतः सन्तुष्ट सन् तेभ्योऽस्मत्प्रभृतिभ्य ऋषिभ्यो ग्रहाणांस्थित्यादिज्ञानं म. इदपरिमेयमत एव ब्रह्मसम्मितं ब्रह्मतुल्यं लोके भूलोकेऽत्यद्भुततममत्यन्तमाश्चर्यकारकं श्रेष्ठमत एवं प्रददौ प्रकर्षण निर्व्याजतया दत्तवान् कथयामासेत्यर्थः ॥ २७ ॥
मा०टी०-ग्रहों को चरित्ररूपमत्यन्त अद्भुत ब्रह्मसम्मित रहस्य मैंने प्रसन्न होकर ऋषियोंको दयाथा ॥ २७॥
अथ मानाध्यायसमात्या सूर्यसिद्धान्तसमाप्ति कस्यचित्प्रक्षिप्ताध्यायस्य निवारिका फक्कियाह
सूर्यसिद्धान्ते मानाध्यायः ॥ १४॥ रंगनाथेन रचिते सूर्यसिद्धान्तटिप्पणे । मानाध्यायोत्तरदले पूर्णी गूढप्रकाशके । भागीरथीतीरसंस्थे शम्भीर्वााराणसीपुरे । बल्लालगणको रुद्रजपासक्तोऽभवबुधः ॥१॥ तस्यात्मजाः पश्च गुणाभिरामा ज्येष्ठः स रामः सकलागमज्ञः । यनोपपत्तिः स्वधिया नितान्तं प्रकाशितानन्तसुधाकरस्य ॥२॥ ततः स कृष्णो जहंगीरसार्वभौमस्य सर्वा. धिगतप्रतिष्ठितः ॥ श्रीभास्करीयं निवृत्तं तु येन बीजं तथा श्रीपतिपद्धतिः सा ॥ ३॥ गोविन्दसज्ञस्तु ततस्तृतीयस्तस्यानुजोऽहं गुरुलन्धविद्यः ॥ विश्वेशपत्पननिविष्टचेताः काशीनिवासी सकलाभिमान्यः ॥ ४ ॥ श्रीरंगनाथोकमुखोत्थशास्त्रे गृढप्रकाशामिधटिप्पणं सः ॥ कृत्वा महादेववुधाग्रजोथ विश्वेश्वरायार्पितवान्सुवृद्धये ॥ ५ ॥ शके तत्त्वतिथ्युन्मिते चैत्रमासे सिते शम्भुतियां बुधेकोंदयान्मे । दलाढयदिना राचनाडीषु जाती मुनीशार्कसिद्धान्तगृढप्रकाशौ ॥ ६ ॥ गूढप्रकाशकं दृष्ट्वा रंगनाथभवं भुवि । मुनीश्वरस्य सहज लभन्तां गणकाः सुखम् ॥७॥
इति श्रीसकलगणकसार्वभौमबल्लालदेवज्ञात्मजरंगनाथविरचितः सूर्यसिद्धान्तगूढार्थ प्रकाशकः सम्पूर्णः ॥
समाप्तश्च सूर्यसिद्धान्तः ॥ चतुर्दशअध्यायसमाप्त ॥
उत्तरखण्ड पूर्णहुआ। सिद्धान्तरहस्यमते । कल्यब्दपिण्डात्रिसहनलब्धं भागादिबीजं धनमिन्दुकें । त्रिनं शनी वेदन सुघोच्चे द्वित्रिघ्नमिग्यास्फुजितोविंशोध्यम् ॥ जातकार्णवे-खबाणगिरिभर्बुधे घनमृणं बरोष्वन्दमिगुराखन मणं सित रविसुते धनं दिक्तेः । विधुस्तदविघूम्चये शतहता-वैश्वानरै ऋणं कलियुगाब्दती नयनमोधरा
सूर्यसिद्धान्तः समाप्तः।
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(२४४).
... उदाहरणम् ।"
उदाहरणम् । अहर्गणानयन (१ अ० ५१ श्लो०)। शाके १८१७ के प्रथमदिनका अहर्गण कृतयुगके शेषतक १९५३७२०००० त्रेता और द्वापरमान २१६०००० और कलियुगके बीतेहुए ४९९६ मिलानेसे १९५५८८४९९६ कल्पगताब्दवर्ष हुआ। इसको १२ से गुणा करनेपर २३४७०६१९९५२ मास हुए । इस संख्याका अधि. मास संख्या १५९३३३६ से गुणाकरनेपर ३७३९६५८३७११८३९८७२ 'हुए । इनको सौरमासकी संख्या ५१८४०००० से भाग करनेपर ७२१३८४७१६ हुए मागावशेष छोडे गये । यह संख्या माससंख्यामें मिलाकर २४१९२००४६६८ इस माससंख्याको ३० तीससे गुणाकरके मधुशुक्लादि तिथिसंख्या १८ मिलानेसे ७२५७६०१४००५८ दिन हुए । इस दिन संख्याको तिथि क्षय २५०८२२५२ से गुणा करनेपर १८२०३६९८७२४४९००५०६१६ हुए । इसको चान्द्र दिन १६०३००००८० से भाग करके भागावशेषको छोड देनेसे ११३५६०१८६०० ये लब्ध हुए यह सख्या दिनसंख्यासे घटानेपर ७१४४०४१२१४५८ शेष रही । शनिवार होनेसे ७१४४०४१२१४५९ अहर्गण हुआ।
मध्यानयन । (१ अ० ५३ श्लोक ) अहर्गणको सूर्यभगण ४३२०००० से गुणा करनेपर ३०८६२२५८०४७०२८८०००० ये हुए । इस संख्याको सौरदिन १५७७९१७८२८ से भाग करनेपर लब्ध १९५५८८४९९५ भगण हुए। शेष १५७४६८९१४० को १२ से गुणकरके सौरदिनसे भाग करनेपर ११ राशि हुई और अवशेषको ३० से गुण करके सौरदिनसे भाग करनेपर २९ अश हुए । बाकीकी कला विकलादि करके १५ कला ४८ विकला और ९ अनुकला हुई। शेष छोड दिये गऐ। भगण संख्याको छोड देनेसे रविमध्य ११ । २९ । १५ । ४८ । ९ हुआ।
देशान्तरानयन (१ अ० ६० श्लो०)। भूकर्ण १६०० योजनके वर्गको १० से गुणाकरनेपर २५६००००० हुए (इसका मूल निकालनेसे ५०६० योजन हुए। ५ अंगुल छायाके वर्ग करनेसे २५ और शंकुवर्ग १४४ मिलाकर मूल निकालनेसे १३ हुए । यह छायाकण है विषुवदिनके शंकु १२ से त्रिज्या (३४३८ ) को गुणाकरनेसे ४१२५६ हुए । इस संख्याको छायाकर्ण १३ से भाग करनेपर ३१७३ भाग फल लम्बज्या हुई इसको योजन संख्या ५०६० से गुणाकरनेपर १६०५५३८० हुए । इसको त्रिज्या ३४३८ से भाग करनेपर स्फुट भूपरिधि ४६६९ योजन हुई
कसी देशकी योजनसंख्या १५० है । सूर्यकी दैनिक भुक्ति कलासे गुणा करने . पर ८८.० हुए । इसको स्फुट भूपरिधिसे भाग करनेपर १। ५३ कलाविकला हुई।
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( २४५ )
उदाहरणम् ।
यह रविमध्य में स्वदेश की पूर्वदिशामें होनेसे वियोग करने से ११/२९ | १३/५५ / ९
ये हुए ।
मन्दोच्चानयन । ( १ अ० ५४ श्लो० ) कृतयुग के शेष में शनिका मन्दोच्च निरूपणकरना । १९५३७२०००० वर्ष संख्याको, शनिके मन्दोच्च कल्पभगण ३९ से गुणा करनेपर ७६१९५०८०००० हुए । इसको कल्पमान से भाग करनेपर १७ भगण राश्यादि ७ । १९ । ३५ । २४ हुई । गतिकी अल्पताके वशसे देशान्तरका संस्कार मध्यसाधन और चन्द्रमाके मन्दोच्च साधन विना निष्प्रयोजन है ।
४३२०००००००
पातमध्यानयन । शाके १८१७ के आरम्भ में शनिका पातानयन है १९५५८८४९९६ वर्षको भगण ६६२ से गुणकरके ४३२००००००० से भाग करनेपर २९९।२१ । ३८ । १६ भगणादि शनिके पातमध्य हुए ।
२८ से
मन्द
"2
रविस्फुटानयन । ( २ अ० ४६ श्लो० ) रविमन्दोच २ । १७ । १७ । रविमध्य ११ । २९ । १५ । ४८ अलग करने से २ । १८ । १ । ४० केन्द्र हुआ । केन्द्रविषमपादमें स्थित ( २ अ० ३४ श्लो० ) हुआ । एव गतकेन्द्रही भुज है । केन्द्रको कलाकरके २२५ से भाग करके २० भागफलके अनुसार ज्या करनेसे ३३२९ हुए । भानावशिष्टसे ज्यान्तर ५१ को गुणाकरके २२५ से भाग करनेपर लव्ध ४१ कला हुआ । यह ज्या ३३२९ के साथ मिलने से ३३६२ मन्दभुज्या हुई । सूर्य की दो मन्दपरिधि अन्तर २० कला है । इसको ज्या ३३६२ से गुणकरके त्रिज्या ३४३८ से भाग करनेपर १९ कला ३४ विकला हुआ। युग्मअन्तमें मन्दपाधि १४ | ० से १९ कला ३४ विकला अलग करदेनेसे १३।४०।२६ स्फुट परिधि हुई । इसको ज्यासे गुणकरके ३६० से भाग करनेपर २ । ७ । ३६ अंशादि हुए । यही मन्दभुजज्या फल है । इसके धनुकरनेसे अंश २ । ७ । ३६ वही हुए । मन्दकेन्द्र मेषादिकेन्द्र होनेके कारण रविमध्य में मिलानेसे ० । १ । २३ । २४ । राश्यादि रवि स्फुट हुआ । रविभुजमान्द्यफल १२८ कला रविस्पष्ट भुक्तिसे गुणकर के २१६०० से भाग करनेपर २ विकला हुई । सो रविस्फुटमें मान्यफलका योग होनेसे.. योग करनेपर ०।१।२३।२६ मध्यरात्रिक भुज संस्कृत रवि स्फुट हुआ ।
शनिस्फुटसाधन | शनिमध्य ५।२९।७।८ शनिशीघ्र ११ । २९ । १५ ४२ से वियोग करनेपर शेष ६ । ० । ८ । ३४ शीघ्रकेन्द्र हुआ । केन्द्रविषमपादमें स्थित है । गतकला ८ । ३४ भुज इसकी ज्या और कलादि ८ । ३४ । गम्यकला कोटीकला. तिसको २२५ से भाग करके भागफलके अनुसार ज्यानिर्देश करके शेष ज्यान्तर से गुणाकरके २२५ से भाग करनेपर लब्धज्यामें संस्कार करनेसे ३४३७ । ४९ ।, कोटीज्या हुई । भुजज्याको त्रिज्यासे भागकरनेपर ९ विकला हुई । स्फुट शीघ्र
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(२४१)
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सूर्यसिद्धान्त:
परिधि मंस्कार करनेसे ३९।०।९ अंशादि हुई । मुजज्याको शुद्ध स्फुट परिधिसे गुणा करके ३६० से मामकरनेपर ५६ विकला शीघ्रभुजफल हुआ। कोटी. ज्याको स्फुटपरिधिसे गुणा करके ३६० से भाग करनेवर कला विकलो ३७२। २२ । हुई । शीघ्रकेन्द्र कर्कादिमें होनेसे त्रिज्या ३४३८ से फल ३७२। २२ । अलग करनेपर ३०६५। ३८ शीघ्रकोटोफल हुआ । शीघ्रकोटीफलको विकला करके वर्ग करनेपर ३३८३३१८७८४४ हुए । भुजज्याविकलाको वर्ग करनेसे ३१३६ हुए शीघ्रकोटीफलवर्गके साथ भुजज्यावर्ग मिलाकर मूल निकालनेसे १८३९३८ विकला शीघ्रकर्ण हुआ। भुजफल ५६ विकलाको त्रिज्या, ३४३८ से गुणाकरके शीघ्रकर्णद्वारा माग करनेपर ६३ विकला हुई । कला १।३ शनिका प्रयम शीघ्रफल हुमा (यही प्रथमसंस्कार है ) इसका अर्द्ध शनिमध्यमें शीघ्रकेन्द्र तुलादि होनेसे वियोग करनेपर ५। २९ । ६ । ३७ । शीघ्रकला संस्कृतमध्यशनि हुआ । शनि मन्दोच्च ७ । २६ । ३७ । २४ से शोघ्रफलाईसंस्कृतमध्य वियोग करने पर १२२७ ३० । ४७ प्रथममन्दकेन्द्र हुआ । कलाकरके २२५ से भाग करने पर १५ संख्या तुल्य ज्याग्रहण करके ज्यान्तर ११९ से भागशेष ७५ को गुणाकरके २२५ से मागकरके कला ४० । ४ हुई । यह ज्या २८५९ इसमें भिलानेसे २८९९। ४ प्रथममन्द मुजज्या हुई । इस भुजज्याको युग्मायुग्म मन्दपरिधिके अन्तर १ अंशसे गुणकरके ३४३८ त्रिज्यासे भाग करनेपर कला ५० । ३६ हुई युग्मपरिधिके हीन करनेपर ४८ । ९ । २४ शुद्ध स्फुटपरिधि हुई भुजज्याको शुद्धस्फुट मन्दपरिधिसे गुणाकरके ३६० से भाग करनेपर कला ३८७ । ४९ हुई। इनके धनुकरनेसे ३८८। २८ मन्दफल हुआ ( यह दूसरा संस्कार है) यह प्रथममन्दफलाई शैघ्याई संस्कृत मध्यशनिमें मेषादिकेन्द्रमें मिलानेसे ६।२।२०। ५१ शीघ्रार्द्ध मन्दाई संस्कृतमध्य शनि हुआ।
फिर शनिमन्दोच्च ७ । २६ । ३७ । २४ से प्रथम मन्दफल संस्कृत मध्य ६।२।२०। ५१ वियोग करनेपर १ । २४ । १६ ३३ ये हुए इसकी कला करके २२५ से भाग करने पर भागफल १४ के अनुसार ज्या २७२८ और ज्यान्तर १३१ को अवशिष्ट १०६ से गुणाकरके २२५ से भाग करके लब्ध ६१ । ४४ को ज्या २७२८ इसमें मिलानेसे २७८९ । ४४ द्वितीय मन्दभुजज्या हुई इसको ३४३८ त्रिज्यासे भाग करनेपर फल ४८ । ४१ होताहै । सो ४९ अंशसे हीन कर. नेसे ४८ । ११ । १९ द्वितीय शुद्ध मन्द परिधि हुई । द्वितीय मन्दभुजज्या २७८९। ४४ को इससे गुणाकरके ३६० से भाग करनेपर कला ३७३ । २६ इसके धनु कर. नेसे ३७४ । ५ दूसरा मन्दफल हुआ । ( यही तीसरा संस्कार है) यह शनिमध्यमें
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उदाहरणम् ।
(२४७) ५। २० । ७ । ८ में मेषादि केन्द्रहेतु योग करनेसे ६।५।२१ । १३ यह द्वितीय मन्दस्पष्ट शनि हुआ। शनिशीघ्र ११ । २९ । १५ । ४२ से मन्द स्पष्ट शनि ६ । ५। २१ । १३ हीन करनेसे शेष ५ । २३ । ५४ । २९ शीघ्रकेन्द्र हुआ । इससे ३ राशिहोन करके कला बनाय २२५ से भाग करके मागफल २२ के अनुसार ज्या ३४०९ और ज्यान्तर २२ से अवशिष्ट ८४ । २९ का अनुपातद्वारा लब्ध ८।१५ ग्रहणकरके ज्या ३४०९ में युक्त करनेसे ३४१७ । १५ हुए । युग्म पात होनेसे गत ज्या कोटीज्या हुई । गम्य ३।६।५।२५ । भुजकी ज्या बनानेसे २६० । २३ भुजज्या हुई । इसको त्रिज्यासे भाग करने पर कला ६ । २१ हुई । शीघ्रपरिधिमें संस्कार करनेसे ३९ । ६ । २१ शुद्ध परिधि हुई । चतुर्थ शीघ्रभुजज्याको शुद्ध परिधिसे गुणकरके ३६० से भाग करनेपर लब्ध ३९ । ३५ कला विकला चतुर्थ शीघ्रभुजफल हुआ । कोटोज्याको शुद्ध परिधिसे गुणकरके ३६० से भाग करनेपर ३७१ । १३ हुए। कर्कादि केन्द्र होनेसे त्रिज्या ३४३८ से वियोग करनेपर ३०६६। ४७ चतुर्थ शीघ्रकोटी फल हुमा । शीघ्रभुजफल वर्ग और शीघ्रकोटी फल वर्गके पोग फलका मूल निकालनेसे ३०६८ कला शीघ्रकर्ण हुआ । शीघ्रभुज फलको त्रिज्यासे गुणकरके इस शीघ्रकर्णसे भाग करनेपर कलादि ४४ । २२ हुए, इसके धनु
और कला ४४ । २२ शीघ्रफल हुआ (यही चौथा संस्कार है ) शनिमन्दस्पष्टम मेषादि केन्द्र होनेसे युक्त करने पर ६ । ६ । ५ । ३५ शनिस्फुट हुआ। ___ ग्रहगति । (२ अ० ४७-५३ श्लो.) सर्यके मन्दसंस्कारमें ५१ कला दोतिर है। उसको रविभुक्ति मध्य ५९ । ८ से गुणाकरके २२५ से भाग करने पर कला १३ । २४ विकला हुई । इसको शुद्ध स्फुट परिधि १३ । ४० । २६ से गुणाकरक ३६० से भाग करने पर ३० विकला हुई। यह मकरादि केन्द्रके वशस मध्यभुक्ति ५९ । ८ से वियोग करने पर ५८ । ३८ सूर्यकी स्पष्ट गति हुई । चन्द्रग्रहण । (४ अ० १७ आदिश्लो० ) सूर्य व्यासयोजन ६५०० सूर्यकी स्पष्ट गति ६० कलासे गुणा करके सूर्यको मध्य भुक्ति ५९ । ८ से भाग करनेपर ६५९९ योजन रविस्पष्ट व्यास हुआ। चन्द्र व्यास योजन ४८० को चन्द्र स्पष्टगति ८६० कलासे गुणाकरके चन्द्र मध्य भुक्ति ७९० । ३८ से भाग करनेपर ५२२ योजन चन्द्रव्यास और १५ से भाग करनेपर ३५ कला चन्द्र स्पष्ट व्यास हुआ । महीव्यास १६०० को चन्द्र स्पष्टगति ८६० से गुणा करके चंद्र मध्य भुक्तिसे भाग करनेपर लब्ध १७४० सूची हुई । रवि स्पष्ट व्यास ६५९९ से मही व्यास १६०० अलग करके चन्द्रमध्य व्यास ४८० से गुणा करके सर्यमध्यव्यास ६५०० से भाग करने पर ३६९ हुआ। इसको सूचीसे वियोग करनेपर १३७१ छायाव्यास और १५ से भाग करनेपर ९१ छायाव्यासकला हुआ। चन्द्रस्पष्ट । २०१९ से राहुस्फुट ०।१५।६ अलग करनेपर ०।५।३ हुआ।
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(२४८)
सूर्यसिद्धान्तःइसकी भुजज्या ३०४ को परमविक्षेप २७० से गुणाकरके त्रिज्या ३४३८ से भाग करनेपर २४ चन्द्र स्पष्ट विक्षेप हुआ । छाया व्यासकला ९१ और चंद्र व्यासकला ३५ एकत्र करके आधे करनेसे ६३ हुए। इसके वर्ग ३९६९ से चन्द्र विक्षेपवर्ग ५७६ अलग करके मूल निकालनेसे ५८ हुए । इसको ६० से गुणाकरके सूर्यचन्द्रमाके गत्यन्तर८०० से भाग करनेपर दण्ड ४ । २२ हुई । यही मध्यस्थित्यर्द्ध है । इस समयके चन्द्रस्फुट ० । १९ । ८ से राहुस्फुट अलग करदेनेपर ०।४।२ हुआ इसकी भुजज्या २४२ है। इसको परमविक्षेप २७० से गुणाकरके ३४३८ त्रिज्यासे भाग करनेपर १९ यह हुआ सो. वग मान योगाई वर्गसे अलग करनेपर ३६०६ हुआ। इसके मूल ६० को ६० से गुणकरके गत्यंतरसे भाग करनेपर ४ । ३० स्फुट स्थित्यर्द्ध हुआ । पूर्णिमाके अन्त. में वियोग और योग करनेसे स्पर्श और मोक्ष स्थिर हुआ।
चरानयन । वृषका चर निरूपण करना । (२०६१ श्लो. ) राशि अर्थात् ३६०० कलाकी ज्या २९७८ है । इसको परम अपक्रम १३९७ से गुणा करके त्रिज्या ३४३८ से भाग करनेपर १२१५ क्रान्तिज्या हुई । १२१५ कान्तिज्याके अनुसार उत्क्रमज्याको ग्रहण करनेसे २२१ ये हुए । त्रिच्या ३४३८ से उत्क्रमज्या २२१ को अलग करनेपर ३२१७ दिन व्यास हुआ। क्रान्तिज्या १२१५ को विषुवच्छाया ५ से गुणकरके गुणन फलको १२ से भाग दे भागफलको त्रिज्या ३४३८ से गुणा करके ३२१७ दिन व्याससे भाग करनेपर ५३७ प्राण चर नियत हुआ । इससे मेषका चर प्राण अलग करनेपर वृषकी चर खण्डा होगी।
लम्बन (५ १०८ श्लो०) ५ । १२ दशम लग्न । ३ । ८ । रविस्पष्ट । दशम लग्नकी क्रान्तिज्या ४३० और धनु ४३० कला । हुआ अक्षांश (अं० २२ ॥३०) से वियोगकरनेपर ९२० कला नत हुई । इसको भुजच्या ९१० और कोटीज्या ३३१२ हुई । एक राशिके ज्या वर्ग २९२४९६१ कोटिज्यासे भाग करनेपर ८९२ छेद हुए । दशम लग्न और रविस्पष्टान्तरित ज्या ३०९० को छेदसे भाग करने पर दण्ड ३ । २८ लम्बन होताहै । ९१० भुजज्याको ७० से भागकरने पर १३ नति होती है।
भजज्याखण्ड। अंश ० राशिज्या १ राशिज्या २राशिज्या ०१७४५
५१५०४ ८७४६२ ०३४९०
५२९९२ ८८२९५ ०५२३४ ५४४६४ ::०९१०१.
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उदाहरणम् ।
(२४९) ०५९७६
८९८७९ ०८७१६ ८७३५८
९०६३१ १०४५३ ५८७७९
९१३५५ १२१८७ ६०१८२
९२०५० १३९१७
६१५६६ ९२७१८ १५६४३
९३३५८ १७३६५ ६४२७९
९३९६९ १९०८१ ६५६०६
९४५५२ २०७९१
९५१०६ २२४९५
६८२०० ९५६३० २४१९२ ६९४६३
९६१२६ २५८८२.
७०७११
९६५९३ २७५६४
७१९३४ ९७०३० २९२३७ ७३१३५ ९७४३७ ३०९०२ ७४३१४
९७८१५ ३२५५७ ७५४७१ .
९८१६३ ३४२०२ “७६६०४
९८४८१ ३५८३७ ७७७१५
९८७६९ ३७४६१
७८८०१ ९९०२७ ७९०७३ ७९८६४
९९२५५ ४०६७४
८०९०२ ९९४५२ ४२२६५ ८१९१५
९९६१९ ४३८३७ ८२९०४ ९९७५६ ४५३९९ ८३८६७ ९९०६३ ४६९४७ ८४८०५
९९९३९ ४१४८१ ८५७१७
९९९०५ ५०००० ०६६०३ उपरोक्त ज्याको ३४३७७४६७७ से गुणा करनेपर सिद्धान्तानुयायी ज्या होगी पृथ्वी ब्यासाई माइल विषुवस्थ है । वेसेल
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सूर्यसिद्धांतः ।
प्रश्नावली ।
१ सिद्धान्तरहस्यके बनानेवालेने लिखा है, कि कलिके बादिमें ७१४४०२२९६६२७ अहर्गणथे । उन्होंने १५१३ शाकेकी आदिमें रविवारमध्यरात्रमें ३० म० ११ । १७/५६।४१ चं० मं ५।१६।५३।५२, चं० के ११ १९ १४० २६, मं० म ७ १० । १३९ बु० शी० ७।११।५५ ३३ वृ० ६।२९।५०१४८, २० शी० | २५ |४० | २९ श० २८ । १ । ६ ०.८ । २६ । ३० । ४१ स्थिर करे है ।
"र मथुरानाथ दैवज्ञने लिखा है कि कलिके आदिमें चन्द्रोच्च २१७७७४८, मं० ४ -९१५८, बु० ७।१०।१९, बु० ५।२१ ० २।१९३९ श० ७ २६ । ३७।
३ चंद्रगतिको १७ से गुण करके ४२० से भाग करनेपर चन्द्रमान होता है । इस मानको १० से गुण करके ३ से भाग करनेपर तिससे ६० गुणित रविगति से ८७३ घटाकर १११ भागलब्ध बँकद्दीन करनेसे राहुमान होगा | ४ शुक्रक्रे १० अंश शीघ्रकेन्द्र में अंशादि २ । १२ फल हुआ ।
५ दिनचंद्रिका मतसे १५२१ शामें मध्यरेखा में बारादि ४ । ४४ । ८ । १३ समयके मध्य विषुवरेखायें सूर्य संक्रमण है ।
६ बाराहमिहिरने जातकार्णवमें ९ । ७ । २६ । ३४ । आदि २४ रविका खण्डाकी और केंद्रानुपातमें खण्डा लेकर फलनिर्णय करमेको कहाँ है ।
इति ।
"
पुस्तक मिलनेका ठिकाना -
गंगाविष्णु श्रीकृष्णदास,
"लक्ष्मीवेंकटेश्वर "स्टीम् प्रेस, कल्याण - मुंबई.
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खेमराज श्रीकृष्णदास, "श्रीवेंकटेश्वर" स्टीम् प्रेस, खेतवाडी-मुंबई
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ខ្ញុំទ
जाहिरात। नाम.
की. रु. आ. अयोध्याजातक-भाषाटीकासमेत .... अर्घप्रकाश-भाषाटीकासमेत । इसमें तेजी-मन्दी वस्तु · देखनेका विचार भलीभाँति लिखागयाहै. .... .... ०-५ भार्यमटीय-(ज्योतिषशास्त्र) संस्कृतटीका भाषाटीकासमेत १-०. कर्णकुतूहल-सटीक तथा उदाहरणसहित । ब्रह्मपक्षीय शास्त्र
प्रन्थ .... . .... ..... ... ०-१२ करणेन्दुशेखर-इसमें व्यादि ग्रहोंकी सारणी भलीभांति
गई है। तथा मिटान्तोक्त सब विषय संक्षेपसे इसमें __ आगये हैं. .... ... .... .... ०-४ कीर्तिपञ्चाङ्ग-संवत् १९७८ का पं० महीधरशर्माकृत ।
हिमालयादि देशोंमें यही पंचाग प्रचलित है .... ....-६ . केशवीजातक-सान्वय सोदाहरण जगदीशत्रिपाठीकृत भाषा
टीकासहित । इस ग्रन्थका गणित जन्मपत्रिका बनाने में 4 अप्रूव है । ग्लेज .... .... .... केतकीपञ्चाङ्ग-शके १८४३ का । इसमें पञ्चांगका गणित
बहुत ठीक है और ग्रहण इत्यादिक बराबर मिलते हैं .... खेटकौतुक-भाषाटीकासमेत । इसमें नवाब खानखानने ___ चमत्कारिक फलदेश कहाहै. ... गर्गमनोरमा-भाषाटीकासमेत .... ___ .... ०-२ ग्रहगोचर-माषाटीका
... ०-२॥ छादकनिर्णय-व्योतिषित सुधाकरद्विवोदे संशोधित
ទី 6ខែ
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पुस्तकें मिलनेका ठिकानागंगाविष्णु श्रीकृष्णदास, " लक्ष्मी वेंकटेश्वर " छापखाना,
कल्याण-मुंबई. Fessess8888888
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