Book Title: Nyaya Dipika Author(s): Dharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya Publisher: Veer Seva Mandir Trust Catalog link: https://jainqq.org/explore/009648/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिर - ग्रन्थमालाका चतुर्थ पुष्प श्रीमदभिनव - धर्मभूषरण-यति-विरचिता न्याय - दीपिका 238. [१ण्डित दरबारीलालनिर्मितप्रकाशाख्यटिप्पणादिसहिका । जैन म.प्र मन ज्ञान सम्पादक और अनुवादक शास्त्राचार्य पण्डित दरबारीलाल जैन "कोठिया" न्यायाचार्य एम० ए० द्वितीयावृत्ति १००० प्रति [ सम्पादक - अनुवादक - श्राप्तपरीक्षा, स्याद्वादसिद्धि, प्रमाणप्रमेयकलिका, श्रध्यात्मकमलमार्त्तण्ड आदि ] प्राध्यापक – जैन दर्शन, काशी हिन्दू विश्व विद्यालय, वाराणसी । प्रकाशक वीर - सेवा - मन्दिर २१, दरियागंज, दिल्ली । श्रावण, वीरनिर्वाण सं० २४९४ विक्रम संवत् २०२५ जुलाई १६६८ 'सजिल्द मूल्य सात रुपया Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ग्रन्थानुक्रम १. समर्पण पृष्ठ ३ २. प्रकाशकीय वक्तव्य . (प्रथम संस्करण) (श्री जुगलकिशोर मुख्तार)४-६ ३. , (द्वितीय संस्करण) ४. ग्रन्थसंकेतसूची ८-१२ ५. प्राक्कथन (पं० वंशीधरजी व्याकरणाचार्य) १-१० ६. सम्पादकीय ११-१७ ७. , (द्वितीय संस्करण) १८-१६ ८. प्रस्तावनागत विषयावली २०-२२ ६. प्रस्तावना १०. न्यायदीपिका की विषय-सूची ११. न्यायदीपिका (मूलसटिप्पण) १-१३२ १२. न्यायदीपिका का हिन्दी अनुवाद १३५-२३० १३. परिशिष्ट २३१-२४८ १. न्यायदीपिका में आए हुए अवतरणवाक्योंकी सूची २. न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थों की सूची ३. न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थकारों की सूची ४. न्यायदीपिका में आये हुए न्यायवाक्य ५. न्यायदीपिकागत विशेष नामों तथा शब्दों की सूची २३४ ६. न्यायदीपिकागत दार्शनिक एवं लाक्षणिक शब्दोंकी सूची २३५ ७. 'असाधारणधर्मवचन' लक्षण' ८. न्यायदीपिका के तुलनात्मक टिप्पण २३६-२४७ rrrrr mr momPage #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २०४ { समर्पण : SONG दशम प्रतिमाधारी विद्वद्वरेण्य गुरुवर्य पूज्य न्यायाचार्य पण्डित गणेश प्रसाद जी वर्णी के पवित्र कर-कमलों में स प्र मो द समर्पित। दरबारीलाल Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय वक्तव्य (प्रथम संस्करण) आजसे कोई ४६ वर्ष पहले सन् १८६६ में 'न्यायदीपिका का मूलरूपमें प्रथम प्रकाशन पं0 कल्लाप्पा भरमाप्पा निटवे (कोल्हापुर) के द्वारा हुआ था । उसी वक्त इस सुन्दर ग्रंथका मुझे प्रथम-परिचय मिला था और इसके सहारे ही मैंने न्यायशास्त्र में प्रवेश किया था। इसके बाद 'परीक्षामुख' आदि बीसियों न्यायग्रंथोंको पढ़ने-देखनेका अवसर मिला और वे बड़े ही महत्वके भी मालूम हुए, परन्तु सरलता और सहजबोध गम्यताकी दृष्टिसे हृदयमें 'न्यायदीपिका' को प्रथम स्थान प्राप्त रहा और यह जान पड़ा कि न्यायशास्त्रका अभ्यास प्रारम्भ करनेवाले जैनोंके लिये यह प्रथम-पठनीय और अच्छे कामकी चीज है। और इसलिये ग्रंथकारमहोदयने ग्रंथकी आदिमें 'बाल-प्रबुद्धये' पदके द्वारा ग्रंथका जो लक्ष्य 'बालकोंको न्यायशास्त्रमें प्रवीण करना' व्यक्त किया है वह यथार्थ है और उसे पूरा करनेमें वे सफल हुए हैं । न्याय वास्तवमें एक विद्या है, विज्ञान है – साइंस है—अथवा यों कहिये कि एक कसौटी है जिससे वस्तु-तत्त्वको जाना जाता है, परखा जाता है और खरे-खोटेके मिश्रण को पहचाना जाता है। विद्या यदि दूषित होजाय, विज्ञान में भ्रम छा जाय और कसौटी पर मैल चढ़ जाय तो जिस प्रकार ये चीजें अपना ठीक काम नहीं दे सकतीं उसी प्रकार न्याय भी दूषित भ्रम-पूर्ण तथा मलिन होने पर वस्तुतत्त्वके यथार्थनिर्णय में सहायक नहीं हो सकता । श्रीप्रकलङ्कदेवसे पहले अन्धकार (अज्ञान) के माहात्म्य और कलियुगके प्रतापसे कुछ ऐसे तार्किक विद्वानों द्वारा जो प्रायः गुण-द्वेषी थे, न्यायशास्त्र बहुत कुछ मलिन किया जा चुका था, अकलङ्कदेवने सम्यग्-ज्ञानरूप-वचन जलोंसे (न्यायविनिश्चयादि ग्रन्थों द्वारा) जैसे तैसे धो-धाकर उसे निर्मल किया था; जैसाकि न्यायविनिश्चय के निम्न वाक्यसे प्रकट है Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बालानां हितकामिनामतिमहापापैः पुरोपाजितैः माहात्म्यात्तमस: स्वयं कलिबलात्प्रायः गुण-द्वेषिभिः । न्यायोऽयं मलिनीकृतः कथमपि प्रक्षाल्य नेनीयते सम्यग्ज्ञानजलैर्वचोभिरमलं तत्रानुकम्पापरैः ॥२॥ अकलङ्कदेव द्वारा पुन: प्रतिष्ठित इस निर्मल न्यायको विद्यानन्द, माणिक्यनन्दी, अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र जैसे महान् आचार्योंने अपनी अपनी कृतियों तथा टीका ग्रन्थों द्वारा प्रोत्तेजन दिया था और उसके प्रचारको बढ़ाया था; परन्तु दुर्भाग्य अथवा दुर्दैवसे देशमें कुछ ऐसा समय उपस्थित हुआ कि इन गूढ़ तथा गंभीर ग्रन्थोंका पठन-पाठन ही उठ गया, ग्रन्थप्रतियोंका मिलना दुर्लभ हो गया और न्यायशास्त्रके विषयमें एक प्रकारका अन्धकार सा छा गया। अभिनव धर्मभूषणजीने अपने समय (विक्रमकी १५वीं शताब्दी) में इसे महसूस किया और इसलिये उस अन्धकारको कुछ अंशोंमें दूर करनेकी शुभ भावनासे प्रेरित होकर ही वे इस दीपशाखा अथवा टोर्च (torch) की सृष्टि करनेमें प्रवृत्त हुए हैं और इसलिये इसका 'न्यायदीपिका' यह नाम बहुत ही सार्थक जान पड़ता है । ____ ग्रन्थके इस वर्तमान प्रकाशनसे पहले चार संस्करण और निकल चुके हैं, जिनमेंसे प्रथम संस्करण वही है जिसका ऊपर उल्लेख किया जा चुका है । सम्पादकीय कथनानुसार यह प्रथम संस्करण दूसरे संस्करणोंकी अपेक्षा शुद्ध है; जबकि होना यह चाहिये था कि पूर्व संस्करणोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर संस्करण अधिक शुद्ध प्रकाशित होते । परन्तु मामला उलटा रहा । अस्तु; मुद्रित प्रतियोंकी ये अशुद्धियाँ अक्सर खटका करती थीं और एक अच्छे शुद्ध तथा उपयोगी संस्करणकी जरूरत बराबर बनी हुई थी। 1 अप्रेल सन् १९४२ में, जिसे तीन वर्ष हो चुके, न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठियाकी योजना वीरसेवामन्दिरमें हुई और उससे कोई १।। वर्ष बाद मुझे यह बतलाया गया कि आप न्यायदीपिका ग्रंथ पर अच्छा परिश्रम कर रहे हैं, उसके कितने ही अशुद्ध पाठोंका आपने संशोधन किया है, शेषका संशोधन करना चाहते हैं, विषयके स्पष्टीकरणार्थ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संस्कृत टिप्पण लिख रहे हैं जो समाप्तिके करीब है और साथमें हिन्दी अनुवाद भी लिख रहे हैं । अतः ऐसे उपयोगी ग्रन्थको वीरसेवामन्दिरग्रन्थमालामें प्रकाशित करनेका विचार स्थिर हुआ । उस समय इस ग्रन्थ का कुल तखमीना १२ फार्म (१६२ पेज) के लगभग था और आज यह २४ फार्म (३८४ पेज) के रूपमें पाठकोंके सामने उपस्थित है। इत तरह धारणासे ग्रन्थका आकार प्रायः दुगना हो गया है। इसका प्रधान कारण तय्यार ग्रन्थमें बादको कितना ही संशोधन, परिवर्तन तथा परिवर्धन किया जाना, तुलनात्मक टिप्पण-जैसे कुछ विशिष्ट परिशिष्टोंका साथमें लगाया जाना और प्रस्तावनाका आशासे अधिक लम्बा हो जाना है इन सबसे जहाँ ग्रन्थका विस्तार बढ़ा है वहाँ उसकी उपयोगितामें भी वृद्धि हुई है। इस ग्रन्थकी तैयारीमें कोठियाजीको बहुत कुछ परिश्रम उठाना पड़ा है, छपाईका काम अपनी देखरेख में इच्छानुकूल शुद्धतापूर्वक शीघ्र करानेके लिये देहली रहना पड़ा है और प्रूफरीडिंगका सारा भार अकेले ही वहन करना पड़ा है। इस सब काममें वीरसेवा-मन्दिर-सम्बन्धी प्रायः ८-६ महीनेका अधिकांश समय ही उनका नहीं लगा बल्कि बहुतसा निजी समय भी खर्च हुआ है और तब कहीं जाकर यह ग्रन्थ इस रूपमें प्रस्तुत हो सका है । मुझे यह देखकर सन्तोष है कि कोठियाजीको इस ग्रन्थरत्नके प्रति जैसा कुछ सहज अनुराग और आकर्षण था उसके अनुरूप ही वे ग्रन्थ के इस संस्करणको प्रस्तुत करने में समर्थ होसके हैं, और इसपर उन्होंने स्वयं ही अपने 'सम्पादकीय' में बड़ी प्रसन्नता व्यक्त की है। अपनी इस कृतिके लिये आप अवश्य समाजके धन्यवादपात्र हैं। _ अन्तमें कुछ अनिवार्य कारणवश ग्रन्थके प्रकाशन में जो बिलम्ब हुआ है उसके लिये मैं पाठकोंसे क्षमा चाहता हूँ । आशा है वे प्रस्तुत संस्करण की उपयोगिताको देखते हुए उसे क्षमा करेंगे। देहली जुगलकिशोर मुख्तार १८ मई १९४५ । संस्थापक 'वीरसेवामन्दिर' Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय संस्करण वीर सेवामन्दिर से प्रकाशित 'न्यायदीपिका' का प्रथम संस्करण समाप्त हो गया था। और कई स्थानों से उसकी मांग आ रही थी। बम्बई परीक्षालय के पठनक्रम में होने से उसका अभाव विशेष खटक रहा था। इस कारण उसका पुनः प्रकाशन करना पड़ा। प्रथम संस्करण कितना लोकप्रिय हुआ और समाज में उसकी क्या कुछ मांग बढ़ी, इससे उसकी लोकप्रियता का सबूत मिल जाता है। सम्पादनसंशोधन उसका अनुवाद, प्रस्तावना, संस्कृत टिप्पण और शब्दकोष वगैरह के उपयोगी परिशिष्टों से वह केवल छात्रों के ही उपयोग की वस्तु नहीं रही किन्तुं विद्वानों के भी उपयोग में आने वाली कृति है । वीरसेवामन्दिर के विद्वान् पं० बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री और परमानन्द शास्त्री दोनों ने मिलकर प्रूफ आदि का संशोधन कर इस संस्करण को शुद्ध और सुन्दर बनाने का प्रयत्न किया है, इसके लिए दोनों ही विद्वान् धन्यवाद के पात्र हैं। आशा है पाठकगण इसे अपनाएँगे । प्रेमचन्द जैन सं० मंत्री, वीरसेवामन्दिर Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मालामा संकेत-सूची अष्टस० अकलंकन अकलंकग्रन्थत्रय (सिंधी ग्रन्थमाला, कलकत्ता) अकलंक० अध्यात्मक अध्यात्मकमलमार्तण्ड (वीरसेवामन्दिर, सरसावा) अमरको अमरकोष (निर्णयसागर, वम्बई) अष्टश० अष्टशती अष्टसहस्री प्रा०प० आराप्रति पत्र (जैनसिद्धान्त भवन, आरा) आप्तप० । प्राप्तपरीक्षा (जैनसिद्धान्त० कलकत्ता) प्राप्तपरी०। आप्तमी० प्राप्तमीमांसा आप्तमी० वृ० आप्तमीमांसावृत्ति काव्यमी० काव्यमीमांसा चरकसं० चरकसंहिता (निर्णयसागर, बम्बई) जैनतर्कभा० जैनतर्कभाषा (सिंधी ग्रन्थमाला, कलकत्ता) जैनशिलालेखसं० जैनशिलालेखसंग्रह (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) जैमिनि० जैमिनिसूत्र (निर्णयसागर, बम्बई) जैनेन्द्रव्या० जैनेन्द्रव्याकरण तर्कदी० तर्कदीपिका (छन्नूलाल ज्ञानचन्द, बनारस) तर्कसं० तर्कसंग्रह तर्कसंग्रहपदकृ० . तर्कसंग्रहपदकृत्य तत्त्ववैशा० तत्त्ववैशारदी (चौखम्बा, काशी) तत्त्वसं० तत्त्वसंग्रह (गायकवाड़, बड़ौदा) १ जिन ग्रन्थों या पत्रादिकोंके प्रस्तावनादिमें पूरे नाम दे दिये गये हैं उनको यहाँ संकेतसूचीमें छोड़ दिया है । -सम्पादक Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थवा० तत्त्वार्थवात्तिक (जैनसिद्धान्त, कलकत्ता) तत्त्वार्थवृ०श्रु० तत्त्वार्थवृत्ति श्रुतसागरी (लिखित, वीरसेवामन्दिर) तत्त्वार्थश्लो० तत्त्वार्थश्लोकवा तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक (निर्णयसागर, वम्बई) त० श्लो तत्त्वार्थश्लो०भा० तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकभाष्य तत्त्वार्थसू० तत्त्वार्थसूत्र (प्रथमगुच्छक, काशी) त० सू० ) तत्त्वार्थाधि० भा० तत्त्वार्थाधिगमभाष्य (अर्हतप्रभाकर, पूना) तात्पर्यपरिशु० तात्पर्यपरिशुद्धि तिलो० प० तिलोयपण्णत्ति (जीवराजनन्थ०, शोलापुर) दिनकरी सिद्धान्तमुक्तावलीटीका (निर्णयसागर, बम्बई) द्रव्यसं० द्रव्यसंग्रह न्यायकलि० न्यायकलिका (गङ्गानाथ झा) न्यायकू० । न्यायकुमुदचन्द्र (माणिकचन्द्रग्रन्थमाला, बम्बई) न्यायकुमु० न्यायकुसु०॥ न्यायकुसुमाञ्जलि (चौखम्बा, काशी) न्याकु० न्यायकुसु. प्रकाश० न्यायकुसुमाञ्जलिप्र० टीका , न्यायदी० न्यायदीपिका (प्रस्तुत संस्करण) न्यायप्र० न्यायप्रवेश (गायकवाड़, बड़ौदा) न्याबि० न्यायबिन्दु (चौखम्बा काशी) न्याबि०टी० न्यायबिन्दु टीका न्यायमं० न्यायमंजरी न्यायवा० न्यायवात्तिक न्यायवा०तात्प० ) न्यायवा.तात्प. टी. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका न्यायवा० ता० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) न्यायवि० न्याविनिश्चय (अकलङ्कग्रन्थत्रय) न्यायवि. वि. लि. न्यायविनिश्चयविवरण (वीरसेवामग्दिर, सरसावा) न्यायवि. वि. लि. लिखित न्यायसू० न्यायसूत्र (चौखम्बा, काशी) न्यायाव०टी०टि० न्यायावतारटीकाटिप्पणी (श्वेताम्बरकान्फ्रेंस, बम्बई) पत्रपरी० पत्रपरीक्षा (जैनसिद्धान्त०, कलकत्ता) परीक्षामु० परीक्षामु० (पं० घनश्यामदासजी का) पात० महाभा० पातञ्जलिमहाभाष्य (चौखम्बा, काशी) प्रमाणनय० प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार (यशोविजयग्न०, काशी) प्रमाणनि० प्रमाणनिर्णय (माणिकचन्द ग्रन्थ०, बम्बई) प्रनाणमी० प्रमाणमीमांसा (सिंधीग्रन्थमाला, कलकत्ता) प्रमाणमी० भा० प्रमाणमीमांसाभाषाटिप्पण प्रमाणसं० प्रमाणसंग्रह (अकलऋग्रन्थत्रय) प्रमाणसं० स्वो० प्रमाणसंग्रह स्वोपज्ञवृत्ति प्रमाल प्रमालक्षण प्रमालक्ष० । प्रमेयक० प्रमेयकमलमार्तण्ड (पं० महेन्द्रकुमारजी, काशी) प्रमेयर प्रमेयरत्नमाला (पं० फूलचन्दजी, काशी) प्रवचनसा० प्रवचनसार (रायचन्द्रशास्त्रमाला, बम्बई) प्रशस्तपादभा० प्रशस्तपादभाष्य (चौखम्बा, काशी) प्रकरणपं० । प्रकरणपञ्जिका (चौखम्बा, काशी) प्रकरणपजि० ॥ प्रमाणप० प्रमाणपरी० प्रमाणपरीक्षा . (जैनसिद्धान्तप्र०, कलकत्ता) प्र० प० प्रमाणमं० प्रमाणमंजरी प्रमाणवा० प्रमाणवात्तिक (राहुलजी सम्पादित) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगसू० ( ११ ) प्रमाणसं प्रमाणसमुच्चय (मैसूर यूनिवर्सिटी) मनोरथन० मनोरथनन्दिनी (प्रमाणमीमांसामें उपयुक्त) सी० श्लो० मीमांसाश्लोकवात्तिक (चौखम्बा, काशी) युक्त्यनुशा० टी० युक्त्यनुशासनटीका (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) योगसूत्र (चौखम्बा, काशी) राजवा० राजवात्तिक (जैनसिद्धान्त०, कलकत्ता) लघीय० लघीयस्त्रय (अकलंकग्रन्थत्रय) लघी० लघीय० तात्पर्य० लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्ति (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) लघी०स्वो. वि. लघीयस्त्रय स्वोपज्ञविवृति (अकलंकग्रन्थत्रय) लघुसर्वज्ञ० लघुसर्वज्ञसिद्धि (मा० ग्रन्थमाला, बम्बई) वाक्यप० वाक्यपदीय (चौखम्बा, काशी) वैशेषिक. सूत्रोप.) वैशेषि. उप. वैशेषिक सूत्रोपस्कार वैशे. सूत्रोप. वैशेषिकसू० वैशेषिकसूत्र शब्दश० शब्दशक्तिप्रकाशिका शाबरभा० शाबरभाष्य (आनन्दाश्रम, पूना) शास्त्रदी० शास्त्रदीपिका (विद्याविलास प्रेस, काशी) षड्दर्शनसमुच्चय (चौखम्बा, काशी) सर्वदर्श० सर्वदर्शनसंग्रह (भाण्डारकर०, पूना) सर्वार्थ० सर्वार्थसिद्धि (सोलापुर) सर्वार्थसि० साहि०६० साहित्यदर्पण सांख्य. माठरवृ. सांख्यकारिका माठरवृत्ति (चौखम्बा, काशी) सिद्धिविनि. टी. सिद्धिविनिश्चयटीका (सरसावा) सिद्धान्तमु० 1 सिद्धान्तमुक्तावली (निर्णयसागर, बम्बई) सि० मु० षड्दर्श० Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) स्याद्वादर० । स्याद्वादरत्नाकर (आर्हतप्रभाकर., पूना) स्या. रत्ना. स्वयम्भू० स्वयम्भूस्तोत्र (प्रथमगुच्छक, काशी) हेतुबि० हेतुबिन्दु (बड़ौदा संस्करण) प्रा. A पारा पंक्ति कारिका प्र० प्रति गाथा Хо Чо प्रथमभाग प्रस्तावना प्रस्ता० प्रस्तावना टिप्पण बनारस पत्र शिo शिलालेख पृष्ठ सम्पा० सम्पादक अपनी ओर से निक्षिप्त पाठ पृ. १२० पं० १० [यथा], पृ. ६७ पं. ५ [शिशपा] देहली Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूना शी) प्राक-कथन व्याकरणके अनुसार दर्शन शब्द 'दृश्यते निर्णीयते वस्तुतत्त्वमनेना ति दर्शनम् अथवा 'दृश्यते निर्णायत इदं वस्तुतत्त्वमिति दर्शनम्' न दोनों व्युत्पत्तियोंके आधारपर दृश् धातुसे निष्पन्न होता है । पहली त्पत्तिके आधारपर दर्शन शब्द तर्क-वितर्क, मन्थन या परीक्षास्वरूप उस चारधाराका नाम है जो तत्त्वोंके निर्णयमें प्रयोजक हुआ करती है। री व्युत्पत्तिके आधारपर दर्शन शब्दका अर्थ उल्लिखित विचारधाराके रा निर्णीत तत्त्वोंकी स्वीकारता होता है। इस प्रकार दर्शन शब्द निक जगत्में इन दोनों प्रकारके अर्थों में व्यवहृत हुआ है अर्थात् न-भिन्न मतोंकी जो तत्त्वसम्बन्धी मान्यतायें हैं उनको और जिन ताकिंक के आधारपर उन मान्यताओंका समर्थन होता है उन तार्किक को दर्शनशास्त्रके अन्तर्गत स्वीकार किया गया है। सबसे पहिले दर्शनोंको दो भागोंमें विभक्त किया जा सकता हैतीय दर्शन और अभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन । जिनका प्रादुर्भाव तवर्ष में हुआ है वे भारतीय और जिनका प्रादुर्भाव भारतवर्ष के बाहर तात्य देशोंमें हुआ है वे अभारतीय (पाश्चात्य) दर्शन माने गये हैं। तीय दर्शन भी दो भागोंमें विभक्त हो जाते हैं---वैदिक दर्शन और क दर्शन । वैदिक परम्पराके अन्दर जिनका प्रादुर्भाव हुआ है तथा दपरम्पराके पोषक दर्शन हैं वे वैदिक दर्शन माने जाते हैं और परम्परासे भिन्न जिनकी स्वतन्त्र परम्परा है तथा जो वैदिक राके विरोधी दर्शन हैं उनका समावेश अवैदिक दर्शनोंमें होता है । मान्य नियमके आधारपर वैदिक दर्शनोंमें मुख्यतः सांख्य, वेदान्त, सा, योग, न्याय तथा वैशेषिक दर्शन पाते हैं और जैन, बौद्ध तथा के दर्शन, अवैदिक दर्शन ठहरते हैं । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका वैदिक और अवैदिक दर्शनोंको दार्शनिक मध्यकालीन युगमें क्रमसे आस्तिक और नास्तिक नामोंसे भी पुकारा जाने लगा था, परन्तु मालूम पड़ता है कि इनका यह नामकरण साम्प्रायिक व्यामोहके कारण वेदपरम्पराके समर्थन और विरोधके आधारपर प्रशंसा और निन्दाके रूपमें किया गया है । कारण, यदि प्राणियोंके जन्मान्तररूप परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिके न माननेरूप अर्थ में नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो जैन और बौद्ध दोनों अवैदिक दर्शन नास्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकल कर आस्तिक दर्शनोंकी कोटिमें आ जायेंगे क्योंकि ये दोनों दर्शन परलोक, स्वर्ग और नरक तथा मुक्तिकी मान्यताको स्वीकार करते हैं । और यदि जगत्का कर्ता अनादिनिधन ईश्वरको न माननेरूप अर्थमें नास्तिक शब्दका प्रयोग किया जाय तो सांख्य और मीमांसा दर्शनोंकों भी आस्तिक दर्शनोंकी कोटिसे निकालकर नास्तिक दर्शनोकी कोटिमें पटक देना पड़ेगा; क्योंकि ये दोनों दर्शन अनादिनिधन ईश्वरको जगत्का कर्ता माननेसे इन्कार करते हैं । 'नास्तिको वेदनिन्दकः' इत्यादि वाक्य भी हमें यह बतलाते हैं कि वेदपरम्पराको न माननेवालों या उसका विरोध करनेबालोंके बारेमें ही नास्तिक शब्दका प्रयोग किया गया है । प्रायः सभी सम्प्रदायोंमें अपनी परम्पराके माननेवालोंको आस्तिक और अपनेसे भिन्न दूसरे सम्प्रदायकी परम्पराके माननेवालोंको नास्तिक कहा गया है। जैनसम्प्रदायमें जैनपरम्पराके माननेवालोंको सम्यग्दृष्टि और जैनेतर परम्पराके माननेवालोंको मिथ्यादृष्टि कहनेका रिवाज प्रचलित है। इस कथनका तात्पर्य यह है कि भारतीय दर्शनोंका जो आस्तिक और नास्तिक दर्शनोंके रूपमें विभाग किया जाता है वह निरर्थक एवं अनुचित है।' उल्लिखित सभी भारतीय दर्शनोंमेंसे एक दो दर्शनोंको छोड़कर प्रायः सभी दर्शनोंका साहित्य काफी विशालताको लिये हुए पाया जाता है । जैनदर्शनका साहित्य भी काफी विशाल और महान है। दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों दर्शनकारोंने समानरूपसे जैनदर्शनके साहित्यकी समृद्धिमें Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन में कफी हाथ बढ़ाया है । दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें परस्पर न्तु मालमतभेद पाया जाता है वह दार्शनिक नहीं, आगमिक है । इसलिये इन रण के दर्शन साहित्यकी समृद्धिके धारावाहिक प्रयासमें कोई अन्तर नहीं दाके का है। स्वग दर्शनशास्त्रका मुख्य उद्देश्य वस्तु-स्वरूप व्यवस्थापन ही माना गया रोग विजनदर्शनमें वस्तुका स्वरूप अनेकान्तात्मक (अनेकधर्मात्मक) निर्णीत की को गया है। इसलिये जैनदर्शनका मुख्य सिद्धान्त अनेकान्तवाद दोनों कान्तकी मान्यता) है । अनेकान्तका अर्थ है-परस्पर विरोधी दो : करते का एकत्र समन्वय । तात्पर्य यह है कि जहाँ दूसरे दर्शनोंमें वस्तुको रूप असत् या असत्, सिर्फ सामान्य या विशेष, सिर्फ नित्य या अनित्य, र्शनोंकों एक या अनेक और सिर्फ भिन्न या अभिन्न स्वीकार किया गया है मोटिमें जैन दर्शनमें वस्तुको सत् और असत्, सामान्य और विशेष, नित्य गत्का अनित्य, एक और अनेक तथा भिन्न और अभिन्न स्वीकार किया क्य भी है और जैनदर्शनकी यह सत्-असत्, सामान्य विशेष, नित्य-अनित्य, वरोध कानेक और भिन्न-अभिन्नरूप वस्तुविषयक मान्यता परस्पर विरोधी प्रायः त्वोंका एकत्र समन्वय को सूचित करती है । और अवस्तुकी इस अनेक धर्मात्मकताके निर्णयमें साधक प्रमाण होता है। हा पाये दूसरे दर्शनोंकी तरह जैनदर्शन में भी प्रमाण-मान्यताको स्थान आर "गया है। लेकिन दूसरे दर्शनोंमें जहाँ कारकसाकल्यादिको प्रमाण ९ गया है वहाँ जैनदर्शनमें सम्यग्ज्ञान (अपने और अपूर्व अर्थके क ज्ञान) को ही प्रमाण माना गया है क्योंकि ज्ञप्ति-क्रियाके प्रति 3 रण हो उसीका जैनदर्शनमें प्रमाण नामसे उल्लेख किया गया है । गेको छक्कयाके प्रति करण उक्त प्रकारका ज्ञान ही हो सकता है, कारकसाकए पाया नहीं, कारण कि क्रियाके प्रति अत्यन्त अर्थात् अव्यवहितरूपसे दिगम्बर कारणको ही व्याकरणशास्त्रमें करणसंज्ञा दी गयी है और हत्यका साधकतमं कारणम् ।'-जैनेन्द्रव्याकरण १।२।११३। और ना" Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका अव्यवहितरूपमें ज्ञप्तिक्रियाका साधक उक्त प्रकारका ज्ञान ही है । कारकसाकल्यादि ज्ञप्तिक्रियाके साधक होते हुए भी उसके अव्यवहितरूपसे साधक नहीं हैं इसलिए उन्हें प्रमाण कहना अनुचित है। प्रमाण-मान्यताको स्थान देनेवाले दर्शनोंमें कोई दर्शन सिर्फ प्रत्यक्षप्रमाणको, कोई प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम इन तीन प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम और उपमान चार प्रमाणोंको, कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान और अर्थापत्ति पाँच प्रमाणोंको और कोई प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम, उपमान, अर्थापत्ति और अभाव इन छह प्रमाणोंको मानते हैं। कोई दर्शन एक सम्भव नामके प्रमाणको भी अपनी प्रमाणमान्यतामें स्थान देते हैं। परन्तु जैनदर्शनमें प्रमाणकी इन भिन्न-भिन्न संख्याओंको यथायोग्य निरर्थक, पुनरुक्त और अपूर्ण बतलाते हुए मूलमें प्रत्यक्ष और परोक्ष ये दो ही भेद प्रमाणके स्वीकार किये गये हैं। प्रत्यक्षके अतीन्द्रिय और इन्द्रियजन्य ये दो भेद मानकर अतीन्द्रिय प्रत्यक्षमें अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञानका समावेश किया गया है तथा इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षसे स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों और मनका साहाय्य होनेके कारण स्पर्शनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, रसनेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, घ्राणेन्द्रिय-प्रत्यक्ष, चक्षुइन्द्रिय-प्रत्यक्ष, कर्णेन्द्रिय-प्रत्यक्ष. और मानस प्रत्यक्ष ये छह भेद स्वीकार किये गये हैं । अतीन्द्रिय प्रत्यक्षके भेद अवधिज्ञान और मनःपर्ययज्ञानको जैनदर्शनमें देशप्रत्यक्ष संज्ञा दी गई है। कारण कि इन दोनों ज्ञानोंका विषय सीमित माना गया है और केवलज्ञानको सकलप्रत्यक्ष नाम दिया गया है क्योंकि इसका विषय असीमित माना गया है अर्थात् जगत्के सम्पूर्ण पदार्थ अपने अपने त्रिकालवर्ती विवर्ती सहित इसकी विषयकोटिमें एक साथ समा जाते हैं। सर्वज्ञमें केवलज्ञान नामक इसी सकलप्रत्यक्षका सद्भाव स्वीकार किया गया है। अतीन्द्रिय प्रत्यक्षको परमार्थ-प्रत्यक्ष और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष भी कहा Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन जाता है । इसका सबब यह है कि सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान यद्यपि आत्मोत्थ हैं क्योंकि ज्ञानको आत्माका स्वभाव वा गुण माना गया है । परन्तु अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही स्वतन्त्ररूपसे आत्मामें उद्भूत हुआ करते हैं इसलिये इन्हें परमार्थ संज्ञा दी गई है और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष आत्मोत्थ होते हुए भी उत्पत्तिमें इन्द्रियाधीन हैं इसलिये वास्तवमें इन्हें प्रत्यक्ष कहना अनुचित ही है । अतः लोकव्यवहारकी दृष्टिसे ही इनको प्रत्यक्ष कहा जाता है। वास्तवमें तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंको भी परोक्ष ही कहना उचित है । फिर जब कि ये प्रत्यक्ष पराधीन हैं तो इन्हें परोक्ष प्रमाणोंमें ही अन्तर्भत क्यों नहीं किया गया है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान हो उस ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें अन्तर्भूत किया गया है और जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान न हो । परम्परया सम्बन्ध कायम होता हो उस ज्ञानको परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया है। उक्त छहों इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षों (सांव्यवहारिक प्रत्यक्षों) में प्रत्येककी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार अवस्थाएँ स्वीकार की गयी हैं। अवग्रह-ज्ञानकी उस दुर्बल अवस्थाका नाम है जो अनन्तरकालमें निमित्त मिलनेपर विरुद्ध नानाकोटि विषयक संशयका रूप धारण कर लेती है और जिसमें एक अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि भी शामिल रहती है। संशयके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक अनिर्णीत भावनारूप ज्ञानका नाम ईहा माना गया है। और ईहाके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक निणीत ज्ञानका नाम अवाय है । यही ज्ञान यदि कालान्तरमें होनेवाली स्मृतिका कारण बन जाता है तो इसे धारणा नाम दे दिया जाता है। जैसे कहीं जाते हुए हमारा दूर स्थित पुरुषको सामने पाकर उसके बारेमें “यह पुरुष है" इस प्रकारका ज्ञान अवग्रह है । इस ज्ञानकी दुर्बलता इसीसे जानी जा सकती है कि यही ज्ञान अनन्तरकाल में निमित्त मिल जानेपर Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका "वह पुरुष है या ठूठ" इस प्रकारके संशयका रूप धारण कर लिया करता है । यह संशय अपने अनन्तरकालमें निमित्त विशेषके आधारपर 'मालूम पड़ता है कि यह पुरुष ही है' अथवा 'उसे पुरुष ही होना चाहिये' इत्यादि प्रकारसे ईहा ज्ञानका रूप धारण कर लिया करता है और यह ईहाज्ञान ही अपने अनन्तर समयमें निमित्तविशेषके बलपर 'वह पुरुष ही है' इस प्रकारके अवायज्ञानरूप परिणत हो जाया करता है। यही ज्ञान नष्ट होनेसे पहले कालान्तरमें होनेवाली 'अमुक समय स्थानपर मैंने पुरुषको देखा था' इस प्रकारकी स्मृतिमें कारणभूत जो अपना संस्कार मस्तिष्कपर छोड़ जाता है उसीका नाम धारणाज्ञान जैनदर्शनमें माना गया है। इस प्रकार एक ही इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष (सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष) भिन्न २ समयमें भिन्न २ निमित्तोंके आधारपर अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा इन चार रूपोंको धारण कर लिया करता है और ये चार रूप प्रत्येक इन्द्रिय और मनसे होनेवाले प्रत्यक्षज्ञानमें सम्भव हुआ करते हैं। जैनदर्शनमें प्रत्यक्ष प्रमाणका स्पष्टीकरण इसी ढंगसे किया गया है। __ जैनदर्शनमें परोक्षप्रमाणके पाँच भेद स्वीकार किये गये हैं—स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । इनमेंसे धारणामूलक स्वतन्त्र ज्ञानविशेषका नाम स्मृति है। स्मृति और प्रत्यक्षमूलक वर्तमान और भूत पदार्थों के एकत्व अथवा सादृश्यको ग्रहण करनेवाला प्रत्यभिज्ञान कहलाता है, प्रत्यभिज्ञानमूलक दो पदार्थों के अविनाभाव सम्बन्धरूप व्याप्तिका ग्राहक तर्क होता है और तर्कमूलक साधनसे साध्यका ज्ञान अनुमान माना गया है। इसी तरह आगमज्ञान भी अनुमानमूलक ही होता है अर्थात् 'अमुक शब्दका अमुक अर्थ होता है' ऐसा निर्णय हो जानेके बाद ही श्रोता किसी शब्द को सुनकर उसके अर्थका ज्ञान कर सकता है। इस कथनसे यह निष्कर्ष निकला कि सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रियजन्य है और परोक्ष प्रमाण सांव्यवहारिक प्रत्यक्षजन्य है। बस, सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणमें इतना ही अन्तर है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन जैनदर्शनमें शब्दजन्य अर्थज्ञानको आगम प्रमाण माननेके साथ-साथ उस शब्दको भी आगम प्रमाणमें संग्रहीत किया गया है और इस प्रकार जैनदर्शनमें आगम प्रमाणके दो भेद मान लिये गये हैं । एक स्वार्थप्रमाण और दूसरा परार्थप्रमाण । पूर्वोक्त सभी प्रमाण ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप ही हैं । परन्तु एक पागम प्रमाण ही ऐसा है जिसे स्वार्थप्रमाण और परार्थप्रमाण उभयरूप स्वीकार किया गया है। शब्दजन्य अर्थज्ञान ज्ञानरूप होनेके कारण स्वार्थप्रमाणरूप है । लेकिन शब्दमें चूंकि ज्ञानरूपताका अभाव है इसलिये वह परार्थप्रमाणरूप माना गया है । ____ यह परार्थप्रमाणरूप शब्द वाक्य और महावाक्यके भेदसे दो प्रकारका है। इनमें से दो या दोसे अधिक पदोंके समूहको वाक्य कहते हैं और दो या दो से अधिक वाक्योंके समूहको महावाक्य कहते हैं, दो या दो से अधिक महावाक्योंके समूहको भी महावाक्यके ही अन्तर्गत समझना चाहिये । इससे यह सिद्ध होता है कि परार्थप्रमाण एक सखण्ड वस्तु है और वाक्य तथा महावाक्यरूप परार्थप्रमाणके जो खण्ड हैं उन्हें जैनदर्शनमें नयसंज्ञा प्रदान की गई है। इस प्रकार जैनदर्शनमें वस्तुस्वरूपके व्यवस्थापनमें प्रमाणकी तरह नयोंको भी महत्वपूर्ण स्थान दिया गया है। परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नयोंका लक्षण निम्न प्रकार समझना चाहिए _“वक्ताके उद्दिष्ट अर्थका पूर्णरूपेण प्रतिपादक वाक्य और महावाक्य प्रमाण कहा जाता है और वक्ताके उद्दिष्ट अर्थके अंशका प्रतिपादक पद, वाक्य और महावाक्यको नयसंज्ञा दी गयी है।" इस प्रकार ये दोनों परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय वचनरूप हैं और चूंकि वस्तुनिष्ठ सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष, नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि परस्पर विरोधी दो तत्त्व अथवा तद्विशिष्ट वस्तु ही इनका वाच्य है इसलिए इसके आधारपर जैन दर्शनका सप्तभंगीवाद कायम होता है। अर्थात् Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका उक्त सत्व और असत्व, सामान्य और विशेष, नित्यत्व और अनित्यत्व, एकत्व और अनेकत्व, भिन्नत्व और अभिन्नत्व इत्यादि युगलधर्मों और एतद्धर्मविशिष्ट वस्तुके प्रतिपादनमें उक्त परार्थप्रमाण और उसके अंशभूत नय सातरूप धारण कर लिया करते हैं। प्रमाणवचनके सातरूप निम्न प्रकार हैं-सत्व और असत्व इन दो धर्मोमेंसे सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका पहलारूप है । असत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका दूसरा रूप हैं । सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन करना प्रमाणवचनका तीसरा रूप है । सत्व और असत्व उभयधर्ममुखेन युगपत् (एकसाथ) वस्तुका प्रतिपादन करना असम्भव है इसलिये अवक्तव्य नामका चौथा रूप प्रमाणवचनका निष्पन्न होता है। उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ सत्वमुखेन वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका पाँचवाँ रूप निष्पन्न होता है। इसीप्रकार उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ असत्वमुखेन भी वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरससे प्रमाणवचनका छठा रूप बन जाता है । और उभयधर्ममुखेन युगपत् वस्तुके प्रतिपादनकी असम्भवताके साथ-साथ उभयधर्ममुखेन क्रमशः वस्तुका प्रतिपादन हो सकता है इस तरहसे प्रमाणवचनका सातवाँ रूप वन जाता हैं । जैनदर्शनमें इसको प्रमाणसप्तभंगी नाम दिया गया है। नयवचनके सात रूप निम्न प्रकार हैं-वस्तुके सत्व और असत्व इन तो धर्मोमेंसे सत्व धर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका पहला रूप है । असत्व धर्मका प्रतिपादन करना नयवचनका दूसरा रूप है। उभय धर्मोंका क्रमशः प्रतिपादन करना नयवचनका तीसरा रूप है और चूंकि उभयधर्मोंका युगपत् प्रतिपादन करना असम्भव है इसलिये इस तरहसे अवक्तव्य नामका चौथा रूप नयवचनका निष्पन्न होता है। नयवचनके पांचवें, छठे और सातवें रूपोंको प्रमाणवचनके पांचवें, छठे और सातवें Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राक्कथन e रूपोंके समान समझ लेना चाहिए। जैनदर्शनमें नयवचनके इन सात रूपों को नयसप्तभंगी नाम दिया गया है । इन दोनों प्रकारकी सप्तभंगियोंमें इतना ध्यान रखनेकी जरूरत है कि जब सत्व - धर्मसुखेन वस्तुका अथवा वस्तुके सत्वधर्मका प्रतिपादन किया जाता है तो उस समय वस्तुकी ग्रसत्वधर्मविशिष्टताको अथवा वस्तुके असत्वधर्मको प्रविविक्षित मान लिया जाता है और यही बात सत्वधर्ममुखेन वस्तुका अथवा वस्तु के असत्यधर्मका प्रतिपादन करते समय वस्तुकी सत्वधर्मविशिष्टता अथवा वस्तु के सत्वधर्मके बारेमें समझना चाहिए । इस प्रकार उभयधर्मोकी विवक्षा ( मुख्यता) और अविवक्षा ( गोणता ) के स्पष्टीकरणके लिए स्याद्वाद अर्थात् स्यात्की मान्यताको भी जैनदर्शन में स्थान दिया गया है। स्याद्वादका अर्थ है - किसी भी धर्मके द्वारा वस्तुका अथवा वस्तुके किसी भी धर्मका प्रतिपादन करते वक्त उसके अनुकूल किसीभी निमित्त, किसीभी दृष्टिकोण या किसी भी उद्देश्य को लक्ष्य में रखना । और इस तरह से वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टता अथवा वस्तु में विरुद्ध धर्मका अस्तित्व अक्षुण्य रक्खा जा सकता है। यदि उक्त प्रकारके स्याद्वादको नहीं अपनाया जायगा तो वस्तुकी विरुद्धधर्मविशिष्टताका अथवा वस्तुमें विरोधी धर्मका प्रभाव मानना अनिवार्य हो जायगा और इस तरहसे अनेकान्तवादका भी जीवन समाप्त हो जायगा । इस प्रकार अनेकान्तवाद, प्रमाणवाद, नयवाद, सप्तभंगीवाद और स्याद्वाद ये जैनदर्शन के अनुठे सिद्धान्त हैं । इनमेंसे एक प्रमाणवादको छोड़कर बाकीके चार सिद्धान्तोंको तो जैनदर्शनकी अपनी ही निधि कहा जा सकता है और ये चारों सिद्धान्त जैनदर्शन की अपूर्वता एवं महत्ताके अतीव परिचायक हैं। प्रमाणवादको यद्यपि दूसरे दर्शनोंमें स्थान प्राप्त है परन्तु जिस व्यवस्थित ढंग और पूर्णता के साथ जैनदर्शनमें प्रमाणका विवेचन पाया जाता है वह दूसरे दर्शनोंमें नहीं मिल सकता है । मेरे इस कथनकी स्वाभाविकताको जैनदर्शन के प्रमाणविवेचनके साथ दूसरे दर्शनों Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका के प्रमाणविवेचनका तुलनात्मक अध्ययन करनेवाले विद्वान् सहज ही में समझ सकते हैं। एक बात जो जैनदर्शनकी यहाँ पर कहनेके लिए रह गई है वह है सर्वज्ञतावादकी, अर्थात् जैनदर्शनमें सर्वज्ञतावादको भी स्थान दिया गया है और इसका सबब यह है कि आगमप्रमाणका भेद जो परार्थप्रमाण अर्थात् वचन है उसकी प्रमाणता बिना सर्वज्ञताके संभव नहीं है। कारण कि प्रत्येक दर्शनमें प्राप्तका वचन ही प्रमाण माना गया है तथा प्राप्त अवंचक पुरुष ही हो सकता है और पूर्ण अवंचकताकी प्राप्तिके लिए व्यक्तिमें सर्वज्ञताका सद्भाव अत्यन्त आवश्यक माना गया है। जैनदर्शनमें इन अनेकान्त, प्रमाण, नय, सप्तभंगी, स्यात् और सर्वज्ञताकी मान्यताओंको गंभीर और विस्तृत विवेचनके द्वारा एक निष्कर्षपर पहुँचा दिया गया है। न्यायदीपिकामें श्रीमदभिनव धर्मभूषणयतिने इन्हीं विषयोंका सरल और संक्षिप्त ढंगसे विवेचन किया है और श्री पं० दरबारीलाल कोठिया ने इसे टिप्पणी और हिन्दी अनुवादसे सुसंस्कृत बनाकर सर्वसाधारणके लिए उपादेय बना दिया है । प्रस्तावना, परिशिष्ट आदि प्रकरणों द्वारा इसकी उपादेयता और भी बढ़ गई है। आपने न्यायदीपिका के कठिन स्थलों का भी परिश्रमके साथ स्पष्टीकरण किया है। हम आशा करते हैं कि श्री पं० दरबारीलाल कोठिया की इस कृति का विद्वत्समाजमें समादर होगा । इत्यलम् । ता० ३१-३-४५ ) वंशीधर जैन (व्याकरणाचार्य, न्यायतीर्थ, न्यायशास्त्री साहित्यशास्त्री) वीना-इटावा Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय सम्पादन का विचार और प्रवृत्ति सन् १९३७की बात है। मैं उस समय वीरविद्यालय पपौरा (टीकमगढ़ C.I.) में अध्यापनकार्य में प्रवृत्त हुआ था। वहाँ मुझे न्यायदीपिका को अपनी दृष्टि से पढ़ानेका प्रथम अवसर मिला । जो छात्र उसे पढ़ चुके थे उन्होंने भी पुनः पढ़ी । यद्यपि मैं न्यायदीपिका की सरलता, विशदता आदि विशेषताओं से पहलेसे ही प्रभावित एवं आकृष्ट था। इसीसे मैंने एक बार उसके एक प्रधान विषय 'असाधारणधर्मवचन' लक्षण पर 'लक्षण का लक्षण' शीर्षक के साथ 'जैनदर्शन' में लेख लिखा था। पर पपौरा में उसका सूक्ष्मता से पठन-पाठनका विशेष अवसर मिलनेसे मेरी इच्छा उसे शद्ध और छात्रोपयोगी बनाने की ओर भी बढ़ी। पढ़ाते समय ऐसी सुन्दर कृतिमें अशुद्धियाँ बहुत खटकती थीं। मैंने उस समय उन्हें यथासम्भव दूर करनेका प्रयत्न किया । साथ में अपने विद्यार्थियोंके लिए न्यायदीपिका की एक 'प्रश्नोत्तरावली' भी तैयार की। जब मैं सन् १९४० के जुलाईमें वहाँ से ऋषभब्रह्मचर्याश्रम चौरासी मथुरा में आया और वहाँ दो वर्ष रहा उस समय भी मेरी न्यायदीपिका विषयक प्रवृत्ति कुछ चलती रही। यहाँ मुझे आश्रमके सरस्वती भवनमें एक लिखित प्रतिभी मिल गई जो मेरी प्रवृत्तिमें सहायक हुई । मैंने सोचा कि न्यायदीपिका का संशोधन तो अपेक्षित है ही, साथ में तर्कसंग्रह पर न्यायबोधिनी या तर्कदीपिका जैसी व्याख्या-संस्कृतका टिप्पण और हिन्दी अनुवाद भी कई दृष्टियोंसे अपेक्षित है। इस विचारके अनुसार उसका संस्कृत टिप्पण और अनुवाद लिखना प्रारम्भ किया और कुछ लिखा भी गया। किन्तु संशोधनमें सहायक अनेक प्रतियोंका होना आदि साधनाभावसे वह कार्य आगे नहीं बढ़ सका । और अरसे तक बन्द पड़ा रहा। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका इधर जब मैं सन् १९४३ के अप्रेल में वीरसेवामन्दिर में आया तो दूसरे साहित्यिक कार्योंमें प्रवृत्त रहनेसे एक वर्ष तक तो उसमें कुछ भी योग नहीं दे पाया । इसके बाद उसे पुनः प्रारम्भ किया और संस्थाके कार्यसे बचे समयमें उसे बढ़ाता गया । मान्यवर मुख्तार सा० ने इसे मालूम करके प्रसन्नता प्रकट करते हुए उसे वीरसेवामन्दिर ग्रन्थमालासे प्रकाशित करनेका विचार प्रदर्शित किया। मैंने उन्हें अपनी सहमति दे दी । और तबसे ( लगभग ८, 8 माह से ) अधिकांशतः इसी में अपना पूरा योग दिया। कई रात्रियोंके तो एक-एक दो-दो भी बज गये । इस तरह जिस महत्त्वपूर्ण एवं सुन्दर कृति के प्रति मेरा श्रारम्भसे सहज अनुराग और आकर्षण रहा है उसे उसके अनुरूपमें प्रस्तुत करते हुए मुझे बड़ी प्रसन्नता होती है । संशोधन को कठिनाइयां १२ साहित्यिक एवं ग्रन्थसम्पादक जानते हैं कि मुद्रित और मुद्रित दोनों ही तरहकी प्रतियोंमें कैसी और कितनी अशुद्धियाँ रहती हैं । और उनके संशोधनमें उन्हें कितना श्रम और शक्ति लगानी पड़ती है । कितने ही ऐसे स्थल प्राते हैं जहाँ पाठ त्रुटित रहते हैं और जिनके मिलाने में दिमाग थककर हैरान हो जाता है। इसी बातका कुछ अनुभव मुझे भी प्रस्तुत न्यायदीपिकाके सम्पादनमें हुआ है । यद्यपि न्यायदीपिकाके अनेक संस्करण हो चुके और एक लम्बे अरसेसे उसका पठन-पाठन है पर उसमें जो त्रुटित पाठ और अशुद्धियाँ चली आ रही हैं उनका सुधार नहीं हो सका । यहाँ मैं सिर्फ कुछ त्रुटित पाठों को बता देना चाहता हूँ जिससे पाठकों को मेरा कथन असत्य प्रतीत नहीं होगा मुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ 'सर्वतो वैशद्यात्पारमार्थिकं प्रत्यक्ष' (का०प्र०) अग्न्यभावे च धूमानुपलम्भे' (सभी प्रतियों में ) पृ० ३६ पं० ४ पृ० ६३ पं० ४ पृ० ६४ पं० ५ 'सर्वोपसंहारवतीमपि ' 11 Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय पृ० ७० पं० १ 'अनभिप्रेतस्य साध्यत्वेऽतिप्रसङ्गात्' (सभी प्रतियोंमें) पृ० १०८ पं० ७ 'अदृष्टान्तवचनं तु' अमुद्रित प्रतियों के छूटे हुए पाठ पारा प्र० प० १४ 'अनिश्चितप्रामाण्याप्रामाण्यप्रत्ययगोचरत्वं विकल्पप्रसिद्धत्वं । तद्द्वयविषयत्वं प्रमाणविकल्पप्रसिद्धत्वम् ।' प० प्रति प० ६ 'सहकृताञ्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमवधिज्ञानं । मनःपर्ययज्ञानावरणवीर्यान्तरायक्षयोपशमः ।।' स्थूल एवं सूक्ष्म अशुद्धियाँ तो बहुत हैं जो दूसरे संस्करणोंको प्रस्तुत संस्करणके साथ मिलाकर पढ़नेसे ज्ञात हो सकती हैं। हमने इन अशुद्वियोंको दूर करने तथा छूटे हुए पाठों को दूसरी ज्यादा शुद्ध प्रतियोंके आधार से संयोजित करनेका यथासाध्य पूरा यत्न किया है। फिर भी सम्भव है कि दृष्टिदोष या प्रमादजन्य कुछ अशुद्धियाँ अभी भी रही हो । संशोधनमें उपयुक्त प्रतियों का परिचय प्रस्तुत संस्करणमें हमने जिन मुद्रित और अमुद्रित प्रतियोंका उपयोग किया है उनका यहाँ क्रमशः परिचय दिया जाता है : प्रथम संस्करण-आजसे कोई ४६ वर्ष पूर्व सन् १८९६ में कलापा भरमापा निटवेने मुद्रित कराया था । यह संस्करण अब प्रायः अलभ्य है। इसकी एक प्रति मुख्तारसाहबके पुस्तकभण्डारमें सुरक्षित है। दूसरे मुद्रितोंकी अपेक्षा यह शुद्ध है। द्वितीय संस्करण-वीर निर्वाण सं. २४३६ में पं. खूबचन्दजी शास्त्री द्वारा सम्पादित और उनकी हिन्दीटीका सहित जैनग्रन्थरत्नाकरकार्यालय द्वारा बम्बईमें प्रकट हुआ है । इसके मूल और टीका दोनोंमें स्खलन है। तृतीय संस्करण-बीर निर्वाण सं० २४४१, ई० सन् १९५५ में भारतीय जैनसिद्धान्तप्रकाशिनी संस्था काशीकी सनातनी जैनग्रन्थमालाकी अोरसे प्रकाशित हुआ है। इसमें भी अशुद्धियाँ पाई जाती हैं। Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका ___चतुर्थ संस्करण-वीर निर्वाण सं० २४६४, ई० सन् १९३८ में श्रीकंकुबाई पाठ्य-पुस्तकमाला कारंजाकी अोरसे मुद्रित हुआ। इसमें अशुद्धियाँ कुछ ज्यादा पाई जाती हैं । यही चार संस्करण अब तक मुद्रित हुए हैं। इनकी मुद्रितार्थ मुसंज्ञा रक्खी है। शेष अमुद्रित-हस्तलिखित-प्रतियोंका परिचय इस प्रकार है द-यह देहलीके नये मन्दिरकी प्रति है। इसमें २३ पत्र हैं और प्रत्येक पत्रमें प्रायः २६-२६ पंक्ति हैं। उपयुक्त प्रतियोंमें सबसे अधिक प्राचीन और शुद्ध प्रति यही है। यह वि० सं० १७४६ के आश्विनमासके कृष्णपक्षकी नवमी तिथिमें पं० जीतसागरके द्वारा लिखी गई है। इस प्रतिमें वह अन्तिम श्लोकभी है । जो आरा प्रतिके अलावा दूसरी प्रतियोंमें नहीं पाया जाता है। ग्रन्थकी श्लोकसंख्या सूचक 'ग्रंथसं० १०००हजार१' यह शब्दभी लिखे हैं । इस प्रतिकी हमने देहली अर्थसूचक द संज्ञा रक्खी है। यह प्रति हमें बाबू पन्नालालजी अग्रवालकी कृपासे प्राप्त हुई। आ—यह पाराके जैनसिद्धांत भवनकी प्रति है जो वहाँ नं० २२/२ पर दर्ज है। इसमें २७॥ पत्र हैं। प्रतिमें लेखनादिका काल नहीं है । 'मद्गुरो' इत्यादि अन्तिम श्लोकभी इस प्रतिमें मौजूद हैं। पृ० २ और पृ० २ पर कुछ टिप्पणके वाक्य भी दिये हुए हैं। यह प्रति मित्रवर पं० नेमीचन्द्रजी शास्त्री ज्योतिषाचार्य द्वारा प्राप्त हुई। इसकी आरा अर्थमूचक पा संज्ञा रक्खी है। ___ म—यह मथुराके ऋषभब्रह्मचर्याश्रम चौरासीकी प्रति है। इसमें १३॥ पत्र हैं । वि० सं० १६५२ में जयपुर निवासी मुन्नालाल अग्रवाल के द्वारा लिखी गई है। इसमें प्रारम्भके दो तीन पत्रोंपर कुछ टिप्पण भी हैं । आगे नहीं हैं । यह प्रति मेरे मित्र पं० राजधरलालजी व्याकरणाचार्य द्वारा प्राप्त हुई । इस प्रतिका नाम मथुराबोधक म रक्खा है। १ 'संबत् १७४६ वर्षे आश्विनमासे कृष्णपक्षे नवम्यां तिथौ बुधवासरे लिखितं श्रीकुसुमपुरे पं० श्री जीतसागरेण ।'-पत्र २३ । Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १५ प-यह पं. परमानन्दजीकी प्रति है । जो १६।। पत्रों में समाप्त है। वि. सं. १६५७ में सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है। इसकी प संज्ञा रक्खी है। ये चारों प्रतियाँ प्रायः पुष्ट कागज़ पर हैं और अच्छी दशामें हैं । प्रस्तुत संस्करणको आवश्यकता और विशेषताएँ . पहिले संस्करण अधिकांश स्खलित और अशुद्ध थे तथा न्यायदीपिका की लोकप्रियता उत्तरोत्तर वढ़ती जा रही थी। बंगाल संस्कृत एसोसिएशन कलकत्ताकी जैनन्यायप्रथमा परीक्षामें वह बहत समयसे निहित है। इधर माणिकचन्द परीक्षालय और महासभाके परीक्षालयमें भी विशारदपरीक्षा में सन्निविष्ट है । ऐसी हालतमें न्यायदीपिका जैसी सुन्दर रचनाके अनुरूप उसका शुद्ध एवं सर्वोपयोगो संस्करण निकालनेकी अतीव आवश्यकता थी। उसीकी पूर्तिका यह प्रस्तुत प्रयत्न है। मैं नहीं कह सकता कि कहाँ तक इसमें सफल हुअा हूँ फिर भी मुझे इतना विश्वास है कि इसमें अनेकोंको लाभ पहुँचेगा और जैन पाठशालाओंके अध्यापकोंके लिये बड़ी सहायक होगी। क्योंकि इसमें कई विशेषताएँ हैं। पहली विशेषता तो यह है कि मूलग्रन्थको शुद्ध किया गया है। प्राप्त सभी प्रतियोंके आधारसे अशुद्धियोंको दूर करके सबसे अधिक शुद्ध पाठको मूलमें रखा है और दूसरी प्रतियों के पाठान्तरोंको नीचे द्वितीय फुटनोटमें जहाँ आवश्यक मालूम हुआ दे दिया है। जिससे पाठकोंको शुद्धि अशुद्धि ज्ञात हो सके। देहलीकी प्रतिको हमने सबसे ज्यादा प्रमाणभूत और शुद्ध समझा है। इसलिये उसे आदर्श मानकर मुख्यतया उसके ही पाठोंको प्रथम स्थान दिया है । इसलिये मूलग्रन्थको अधिकसे अधिक शुद्ध बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया गया है । अवतरण वाक्योंके स्थानको भी ढूंढ़कर [ ] ऐसे ब्रैकेटमें दे दिया है अथवा खाली छोड़ दिया है। दूसरी विशेषता यह है कि न्यायदीपिकाके कठिन स्थलोंका खुलासा करनेवाले विवरणात्मक एवं संकलनात्मक 'प्रकाशाख्य' संस्कृतटिप्पणीकी साथमें योजना की गई है जो विद्वानों और छात्रों के लिये खास उपयोगी सिद्ध होगा : Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका तीसरी विशेषता अनुवादकी है । अनुवाद को मूलानुगामी और सुन्दर बनानेकी पूरी चेष्टा की है । इससे न्यायदीपिकाके विषयको हिन्दीभाषाभाषी भी समझ सकेंगे और उससे यथेष्ट लाभ उठा सकेंगे। ___ चौथी विशेषता परिशिष्टोंकी है जो तुलनात्मक अध्ययन करनेवालों के लिये और सर्वके लिये उपयोगी है । सब कुल परिशिष्ट हैं जिनमें न्यायदीपिकागत अवतरणवाक्यों,ग्रन्थों,ग्रन्थकारों आदिका संकलन किया गया पाँचवीं विशेशता प्रस्तावना की है जो इस संस्करण की महत्वपूर्ण और सबसे बड़ी विशेषता कही जा सकती है । इसमें ग्रन्थकार २२ विषयोंका तुलनात्मक एवं विकासक्रमसे विवेचन करने तथा फुटनोटोंमें ग्रन्थान्तरोंके प्रमाणोंको देनेके साथ ग्रन्थमें उल्लिखित ग्रन्थों और ग्रन्थकारों तथा अभिनय धर्मभूषणका ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक परिचय विस्तृतरूपसे कराया गया है । जो सभी के लिये विशेष उपयोगी है । प्राक्कथन आदि की भी इसमें सुन्दर योजना हो गई है । इस तरह यह संस्करण कई विशेषताओंसे पूर्ण हुआ है। प्राभार अन्तमें मुझे अपने विशिष्ट कर्त्तव्यका पालन करना और शेष है। वह है आभार प्रकाशनका । मुझे इसमें जिन महानुभावोंसे कुछ भी सहायता मिली है मैं कृतज्ञतापूर्वक उन सबका नामोल्लेख सहित आभार प्रकट करता हूँ ___ गुरुवर्य श्रीमान् पं० कैलाशचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने मेरे पत्रादिका उत्तर देकर पाठान्तर लेने आदिके विषय में अपना मूल्यवान् परामर्श दिया । गुरुवर्य और सहाध्यायी माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने प्रश्नोंका उत्तर देकर मुझे अनुगृहीत किया। गुरुवर्य श्रद्धेय पं० सुखलालजी प्रज्ञानयनका मैं पहलेसे ही अनुगृहीत था और अब उनकी सम्पादनदिशा तथा विचारणा से मैंने बहुत लाभ लिया । माननीय पं० Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वंशीधरजी व्याकरणाचार्यने संस्कृत टिप्पणको सुनकर आवश्यक सुझाव देने तथा मेरी प्रार्थना एवं लगातार प्रेरणासे प्राक्कथन लिख देनेकी कृपा की और जिन अनेकान्तादि विषयोंपर मैं प्रकाश डालनेसे रह गया था उनपर आपने संक्षेपमें प्रकाश डालकर मुझे सहायता पहुँचाई है। मान्यवर मुख्तारसा०. की धीर प्रेरणा और सत्परामर्श तो मुझे मिलते ही रहे । प्रियमित्र पं० अमृतलालजी जैनदर्शनाचार्यने भी मुझे सुझाव दिये । सहयोगी मित्र पं० परमान्दजी शास्त्रीने अभिनवों और धर्मभूषणोंका संकलन करके मुझे दिया । बा० पन्नालालजी अग्रवालने हिन्दीकी विषय-सूची बनानेमें सहायता की बा० मोतीलालजी और ला० जुगलकिशोरजीने 'मिडियावल जैनिज्म'के अंग्रेजी लेखका हिन्दीभाव समझाया । उपान्तमें मैं अपनी पत्नी सौ० चमेलीदेवीका भी नामोल्लेख कर देना उचित समझता हूँ जिसने प्रारम्भमें ही परिशिष्टादि तैयार करके मुझे सहायता की । मैं इन सभी सहायकों तथा पूर्बोल्लिखित प्रतिदाताओंका आभार मानता हूँ। यदि इनकी मूल्यवान् सहायताएँ न मिली होतीं तो प्रस्तुत संस्करणमें जो विशेषताएँ आई है वे शायद न आ पातीं। भविष्य में मी उनसे इसी प्रकारकी सहायता देते रहनेकी आशा करता हूँ। अन्तमें जिन अपने सहायकोंका नाम भूल रहा हूँ उनका और जिन ग्रंथकारों, सम्पादकों, लेखकों आदिके ग्रंथों आदिसे सहायता ली गई है, उनका भी आभार प्रकाशित करता हूँ। इति शम् । ता०६-४-४५ वीर सेवामन्दिर, सरसावा हाल देहली। सम्पादक दरबारीलाल जैन, कोठिया न्यायाचार्य, न्यायतीर्थ, जैनदर्शनशास्त्री Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय (द्वितीय संस्करण) सन् १९४५ में वीर सेवामन्दिर में न्यायदीपिका का प्रथम संस्करण प्रकाशित हुआ था और अब तेईस वर्ष बाद उसका दूसरा संस्करण उसके द्वारा ही प्रकट हो रहा है, यह प्रसन्नता की बात है प्रथम संस्करण कई वर्ष पूर्व ही अप्राप्य हो गया था और उसके पुन: प्रकाशन की प्रेरणा हो रही थी। अतः इस द्वितीयसंस्करण के प्रकाशन से अभ्यासियों और जिज्ञासुओं की ग्रन्थ की अनुपलब्धि के कारण उत्पन्न कठिनाई एवं ज्ञान-बाधा निश्चय ही दूर हो जायेगी। वीर सेवामन्दिर का यह प्रकाशन अधिक लोकप्रिय क्यों हुआ, यह तो इस ग्रन्थ के अध्येता स्वयं जान सकते हैं। किन्तु यहाँ जो उल्लेखनीय है वह यह कि इसकी प्रस्तावना, संशोधन, टिप्पण और परिशिष्टों से उन्हें भी लाभ हुअा है जो कालेजों और विश्वविद्यालयों में दर्शनविभाग के अध्यक्ष या प्राध्यापक हैं और जिन्हें जैन तर्कशास्त्र पर लेक्चर (व्याख्यान) देने पड़ते हैं। जयपुर में सन् १९३५ में अखिल भारतीय दर्शन परिषद् का अधिवेशन हुआ था। इसमें मैं भी हिन्दूविश्वविद्यालय की ओर से सम्मिलित हुना था। एक गोष्ठी के अध्यक्ष थे डा० राजेन्द्रप्रसाद कानपुर । सभी के परिचय के साथ मेरा भी परिचय दिया गया । गोष्ठी के बाद डा० राजेन्द्रप्रसाद बोले-'न्यायदीपिका का सम्पादन आपने ही किया है ?' मेरे 'हाँ' कहने पर उसकी प्रशंसा करने लगे और सम्पादन के सम्बन्ध में जो कल्पनाएं कर रखी थी उन्हें भी प्रकट किया। इस उल्लेख से इतना ही अभिधेय है कि वीरसेवामन्दिर का यह संस्करण जैनाभ्यासियों के अतिरिक्त जैनेतर Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्येताओं को भी उपयोगी और लाभप्रद सिद्ध हुआ है। इस दृष्टि से ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण आवश्यक था। ___ इसके पुनः प्रकाशन से पूर्व वीरसेवामन्दिर के विद्वान् पण्डित परमानन्द जी शास्त्री ने इसे मेरे पास पुनरावलोकन के लिए भेज दिया था, पर मैं अपने शोध-कार्यमें व्यस्त रहनेसे उसे आपाततः न देख सका । परन्तु हाँ, वीरसेवामन्दिर के ही वरिष्ठ विद्वान् पण्डित बालचन्द जी सिद्धान्त शास्त्री ने अवश्य उसे परिश्रम पूर्वक देखा है और मूल तथा अनुवाद के प्रूफ-शोधन भी करने की कृपा की है । इसके लिए मैं उनका आभारी हूँ। साथ ही वीरसेवामन्दिर के संचालकों तथा पण्डित परमानन्द जी शास्त्री का भी धन्यवाद करता हूँ जिन्होंने इसको पुनः प्रकाशन करके और प्रस्तावना आदि का प्रूफरीडिंग करके अध्येताओं को लाभान्वित किया है। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय दरबारीलाल जैन, कोठिया वाराणसी (न्यायाचार्य, शास्त्राचार्य एम. ए.) २६ जून १६६८. Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावनागत विषयावलो विषय له له له م م पृष्ठ १ न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषण १ न्यायदीपिका (क) जैनन्यायसाहित्य में न्यायदीपिकाका स्थान और महत्व १ . (ख) नामकरण (ग) भाषा (घ) रचना-शैली (ङ) विषय-परिचय १ मङ्गलाचरण २ शास्त्रकी त्रिविध प्रवृत्ति ३ लक्षण का लक्षण ४ प्रमाण का सामान्य लक्षण ५ धारावाहिक ज्ञान ६ प्रामाण्य-विचार ७ प्रमाण के भेद ८ प्रत्यक्ष का लक्षण ६ अर्थ और आलोक की कारणता १० सन्निकर्ष ११ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष १२ मुख्य प्रत्यक्ष ه ه ه ه ه ه ه ه ع سه Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) विषय १३ सर्वज्ञता १४ परोक्ष १५ स्मृति १६ प्रत्यभिज्ञान १७ तर्क १८ अनुमान १६ अवयवमान्यता २० हेतुलक्षण २१ हेतु-भेद २२ हेत्वाभास न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकार १ न्यायबिन्दु २ दिग्नाग ३ शालिकानाथ ४ 'उदयन ५ वामन ६ तत्त्वार्थसूत्र ७ आप्तमीमांसा ८ महाभाष्य ह जैनेन्द्रव्याकरण १० आप्तमीमांसाविवरण ११ राजवात्तिक और भाष्य १२ न्यायविनिश्चय १३ परीक्षामुख Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १४ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक और भाष्य १५ प्रमाणपरीक्षा १६ पत्र परीक्षा १७ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ९८ प्रमाणनिर्णय १६ कारुण्यकलिका २० स्वामी समन्तभद्र २१ भट्टाकलङ्कदेव २२ कुमारनन्दि भट्टारक २३ माणिक्यनन्दि २४ स्याद्वादविद्यापति ( २२ ) अभिनव धर्म भूषण १ प्रासङ्गिक २ ग्रन्थकार और उनके अभिनव तथा यति विशेषण ३ धर्मभूषण नामके दूसरे विद्वान् ४ ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनकी गुरुपरम्परा ५ समय- विचार ६ व्यक्तित्व और कार्य ७ उपसंहार पृष्ठ ८१ ८२ ८३ ८३ ८४ ८४ ७४ ८६ ८७ ८७ ८८ ८६ ८६ ६१ ६२ ६ १०० १०१ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषण किसी ग्रन्थ की प्रस्तावना या भूमिका लिखनेका उद्देश्य यह होता है कि उस ग्रन्थ और ग्रन्थकार एवं प्रासङ्गिक अन्याय विषयोंके सम्बन्धमें ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डाला जाय, जिससे दूसरे अनेक सम्भ्रान्त पाठकों को उस विषय की यथेष्ट जानकारी सहज में प्राप्त हो सके । आज हम जिस ग्रन्थरत्नकी प्रस्तावना प्रस्तुत कर रहे हैं वह 'न्यायदीपिका' है । यद्यपि न्यायदीपिका के कई संस्करण निकल चुके हैं और प्रायः सभी जैन शिक्षा संस्थानों में उसका अरसे से पठन-पाठन के रूप में विशेष समादर हैं । किन्तु अभी तक हम ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामादि सामान्य परिचय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते हैं-उनका ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक अविकल परिचय अब तक सुप्राप्त नहीं है । अतः न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषणका यथासम्भव सप्रमाण पूरा परिचय कराना ही प्रस्तुत प्रस्तावनाका मुख्य लक्ष्य है । पहले न्यायदीपिका के विषय में विचार किया जाता है । १. न्याय - दीपिका (क) जैन न्यायसाहित्य में न्यायदीपिका का स्थान और महत्त्वश्री अभिनव धर्म भूषण यतिकी प्रस्तुत 'न्यायदीपिका' संक्षिप्त एवं अत्यन्त सुविशद और महत्वपूर्ण कृति है । इसे जैनन्यायकी प्रथमकोटिकी भी रचना कही जाय तो अनुपयुक्त न होगा; क्योंकि जैनन्यायके अभ्या Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका सियोंके लिए संस्कृत भाषामें निबद्ध सुबोध और सम्बद्ध न्यायतत्त्वका सरलता से विशद विवेचन करनेवाली प्रायः यह अकेली रचना है, जो पाठकके हृदयपर अपना सहज प्रभाव अङ्कित करती है । ईसाकी सतरहवीं शताब्दिमें हुए और 'जैनतर्कभाषा' आदि प्रौढ रचनाओं के रचयिता श्वे - ताम्बरीय विद्वान् उपाध्याय यशोविजय जैसे बहुश्रुत भी इसके प्रभावसे प्रभावित हुए हैं । उन्होंने अपनी दार्शनिक रचना जैनतर्कभाषामें न्यायदीपिकाके अनेक स्थलोंको ज्योंका त्यों आनुपूर्वीके साथ अपना लिया है' । स्तुतः न्यायदीपिकामें जिस खूबी के साथ संक्षेपमें प्रमाण और नयका स्पष्ट वर्णन किया गया है वह अपनी खास विशेषता रखता है । और लिए यह संक्षिप्त कृति भी न्यायस्वरूप जिज्ञासुनोंके लिये बड़े महत्व र ग्राकर्षणकी प्रिय वस्तु बन गई है । अतः न्यायदीपिका के सम्बन्ध में नाही कहना पर्याप्त है कि वह जैनन्यायके प्रथम श्रेणी में रखे जाने वाले ोंमें स्थान पाने के सर्वथा योग्य है । नामकरण पलब्ध ऐतिह्यसामग्री और चिन्तनपरसे मालूम होता है कि दर्शन। रचनायुगमें दार्शनिक ग्रन्थ, चाहे वे जनेतर हों या जैन हों, प्रायः शब्दके साथ रचे जाते थे । जैसे न्यायदर्शनमें न्यायसूत्र न्याय न्यायमंजरी, न्यायकलिका, न्यायसार, न्यायकुसुमाञ्जलि और नावती आदि, बौद्धदर्शनमें न्याय-प्रवेश, न्याय-मुख, न्याय-बिन्दु र जैनदर्शनमें न्यायावतार, न्यायविनिश्चय, न्याय कुमुदचन्द्र आदि हैं। पार्थसारथिकी शास्त्रदीपिका जैसे दीपिकान्त ग्रन्थोंके भी र समय पद्धति रही है । सम्भवतः अभिनव धर्मभूषणने इन ष्टमें रखकर ही अपनी प्रस्तुत कृतिका नाम' न्यायदीपिका रक्खा उस े, जैनतर्कभाषा पृ० १३, १४-१६, १७ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-कापिका भाषामें ा है, क्योंकि इसमें प्रमाणनयात्मक करने । अतः न्यायदीपिकाका नामकरण भी "और वह उसके अनुरूप है। सियोंके लिए संस्कृत भाषामें नि अतः सरलता से विशद विवेचन करनेवाले और वह पाठकके हृदयपर अपना सहज प्रभाव शताब्दिमें हुए और 'जैनतर्कभाषा' श्रा ताम्बरीय विद्वान् उपाध्याय यशोविज भावित हुए हैं। उन्होंने अपनी दार्शनि पेकाके अनेक स्थलोंको ज्योंका त्यों और : न्यायदीपिकामें जिस खूबी के साथात — वर्णन किया गया है वह अपनी खत यह संक्षिप्त कृति भी न्यायस्वरूप र्षणकी प्रिय वस्तु बन गई है। इना पर्याप्त है कि वह जैनन्यायया' पाने के सर्वथा योग्य है। पानि अधिकांशतः दुरूह और गम्भीर होती है, या श्रारणबुद्धियोंका प्रवेश सम्भव नहीं होता । साति न दुरूह है और न गम्भीर एवं जटिल मी खन्त प्रसन्न, सरल और बिना किसी कठिनाई रूप यह बात भी नहीं कि ग्रन्थकार वैसी रचना है। उनका विशुद्ध लक्ष्य अकलङ्कादि रचित उन न्यायस्यविनिश्चय आदि न्याय-ग्रन्थों में मन्दजनोंकोंभी बातको स्वयं धर्मभूषणजीने ही बड़े स्पष्ट और चरण पद्य तथा प्रकरणारम्भके प्रस्तावना वाक्यों औष्ठक्से समूचे ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य 'सामग्री और चिन्तनपरसे म पछनिक ग्रन्थ, चाहे वे जैनेत - एचे जाते थे। जैसे न्यायदर गयकलिका, न्यायसार, न दर्शनमें न्याय-प्रवेश, न्या प्रतार, न्यायविनिश्चय, स्त्रदीपिका जैसे दीपिका है । सम्भवतः अभिन 'स्तुत कृतिका नाम सार, --ग्रन्थोंकी ओर जब हम दृष्टिपत्त करते हैं तो उनकी पश, न्यारकी उपलब्ध होती है:-१सूत्रात्मक,२व्याख्यात्मक और रचय. जो ग्रन्थ संक्षेपमें गूढ़ अल्पाक्षर और सिद्धान्ततः मूलके दीपिकत्रात्मक हैं । जैसे-वैशेषिकदर्शनसूत्र,न्यायसूत्र, परीक्षा अभि और जो किसी गद्य पद्य या दोंनोंरूप मूलका व्याख्यान "नामा, वृत्ति) रूप हैं वे व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रशस्त १४-१६, १७ । १७। न्यायदीपिका पृ० १, ४, ५। .. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) विषय १४ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक और भाष्य १५ प्रमाणपरीक्षा १६ पत्र - परीक्षा १७ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड ९८ प्रमाणनिर्णय १६ कारुण्यकलिका २० स्वामी समन्तभद्र २१ भट्टाकलङ्कदेव २२ कुमारनन्दि भट्टारक २३ माणिक्यनन्दि २४ स्याद्वादविद्यापति अभिनव धर्मभूषरण १ प्रासङ्गिक २ ग्रन्थकार और उनके अभिनव तथा यति विशेषण ३ धर्मभूषण नामके दूसरे विद्वान् ४ ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनकी गुरुपरम्परा ५ समय- विचार ६ व्यक्तित्व और कार्य ७ उपसंहार पृष्ठ ८१ ८२ ८३ ८३ ८४ ८४ ७४ ८६ ८७ ८७ ८८ ८६ ८६ १ ६२ ६६ w १०० १०१ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना -:* : न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषण किसी ग्रन्थ की प्रस्तावना या भूमिका लिखनेका उद्देश्य यह होता है कि उस ग्रन्थ और ग्रन्थकार एवं प्रासङ्गिक अन्याय विषयोंके सम्बन्धमें ज्ञातव्य बातों पर प्रकाश डाला जाय, जिससे दूसरे अनेक सम्भ्रान्त पाठकों को उस विषय की यथेष्ट जानकारी सहजमें प्राप्त हो सके। आज हम जिस ग्रन्थरत्नकी प्रस्तावना प्रस्तुत कर रहे हैं वह न्यायदीपिका' है । यद्यपि न्यायदीपिका के कई संस्करण निकल चुके हैं और प्रायः सभी जैन शिक्षा-संस्थाओं में उसका अरसे से पठन-पाठन के रूप में विशेष समादर हैं । किन्तु अभी तक हम ग्रन्थ और ग्रन्थकार के नामादि सामान्य परिचय के अतिरिक्त कुछ भी नहीं जानते हैं उनका ऐतिहासिक एवं प्रामाणिक अविकल परिचय अब तक सुप्राप्त नहीं है। अतः न्यायदीपिका और अभिनव धर्मभूषणका यथासम्भव सप्रमाण पूरा परिचय कराना ही प्रस्तुत प्रस्तावनाका मुख्य लक्ष्य है । पहले न्यायदीपिका के विषयमें विचार किया जाता है। १. न्याय-दीपिका (क) जैन न्यायसाहित्य में न्यायदीपिका का स्थान और महत्त्व- श्री अभिनव धर्मभूषण यतिकी प्रस्तुत 'न्यायदीपिका' संक्षिप्त एवं अत्यन्त सुविशद और महत्वपूर्ण कृति है । इसे जैनन्यायकी प्रथमकोटिकी भी रचना कही जाय तो अनुपयुक्त न होगा; क्योंकि जैनन्यायके अभ्या Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका सियोंके लिए संस्कृत भाषामें निवद्ध सुवोध और सम्बद्ध न्यायतत्त्वका सरलता से विशद विवेचन करनेवाली प्रायः यह अकेली रचना है, जो पाठकके हृदयपर अपना सहज प्रभाव अङ्कित करती है । ईसाकी सतरहवीं शताब्दिमें हुए और ‘जैनतर्कभाषा' आदि प्रौढ रचनाओंके रचयिता श्वेताम्बरीय विद्वान् उपाध्याय यशोविजय जैसे बहुश्रुत भी इसके प्रभावसे प्रभावित हुए हैं। उन्होंने अपनी दार्शनिक रचना जैनतर्कभाषामें न्यायदीपिकाके अनेक स्थलोंको ज्योंका त्यों आनुपूर्वीके साथ अपना लिया है। वस्तुतः न्यायदीपिकामें जिस खूबी के साथ संक्षेपमें प्रमाण और नयका सुस्पष्ट वर्णन किया गया है वह अपनी खास विशेषता रखता है। और इसलिए यह संक्षिप्त कृति भी न्यायस्वरूप जिज्ञासुओंके लिये बड़े महत्व और आकर्षणकी प्रिय वस्तु बन गई है । अतः न्यायदीपिकाके सम्बन्ध में इतना ही कहना पर्याप्त है कि वह जैनन्यायके प्रथमश्रेणी में रखे जानेवाले ग्रन्थों में स्थान पाने के सर्वथा योग्य है । (ख) नामकरण उपलब्ध ऐतिह्यसामग्री और चिन्तनपरसे मालूम होता है कि दर्शनशास्त्रके रचनायुगमें दार्शनिक ग्रन्थ, चाहे वे जैनेतर हों या जैन हों, प्रायः 'न्याय' शब्दके साथ रचे जाते थे । जैसे न्यायदर्शनमें न्यायसूत्र न्यायवार्तिक, न्यायमंजरी, न्यायकलिका, न्यायसार, न्यायकुसुमाञ्जलि और न्यायलीलावती आदि, बौद्धदर्शनमें न्याय-प्रवेश, न्याय-मुख, न्याय-बिन्दु आदि और जैनदर्शनमें न्यायावतार, न्यायविनिश्चय, न्यायकुमुदचन्द्र आदि पाये जाते हैं । पार्थसारथिकी शास्त्रदीपिका जैसे दीपिकान्त ग्रन्थोंके भी रचे जानेकी उस समय पद्धति रही है । सम्भवतः अभिनव धर्मभूषणने इन ग्रन्थोंको दृष्टिमें रखकर ही अपनी प्रस्तुत कृतिका नाम'न्यायदीपिका रक्खा १ देखो, जैनतर्कभाषा पृ० १३, १४-१६, १७ । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका जान पड़ता है। और यह अन्वर्थ भी है, क्योंकि इसमें प्रमाणनयात्मक न्याय का प्रकाशन किया गया है । अतः न्यायदीपिकाका नामकरण भी अपना वैशिष्ठ्य स्थापित करता है और वह उसके अनुरूप है । (ग) भाषा यद्यपि न्यायग्रन्थोंकी भाषा अधिकांशतः दुरूह और गम्भीर होती है, जटिलताके कारण उनमें साधारणबुद्धियोंका प्रवेश सम्भव नहीं होता। पर न्यायदीपिकाकारकी यह कृति न दुरूह है और न गम्भीर एवं जटिल है। प्रत्युत इसकी भाषा अत्यन्त प्रसन्न, सरल और बिना किसी कठिनाई के अर्थबोध करानेवाली है । यह बात भी नहीं कि ग्रन्थकार वैसी रचना कर नहीं सकते थे, किन्तु उनका विशुद्ध लक्ष्य अकलङ्कादि रचित उन गम्भीर और दुरवगाह न्यायविनिश्चय आदि न्याय-ग्रन्थोंमें मन्दजनोंकोंभी प्रवेश करानेका था। इस बातको स्वयं धर्मभूषणजीने ही बड़े स्पष्ट और प्राञ्जल शब्दोंमें-मङ्गलाचरण पद्य तथा प्रकरणारम्भके प्रस्तावना वाक्यों में कहा है । भाषाके सौष्ठक्से समूचे ग्रन्थकी रचना भी प्रशस्त एवं हृद्य हो गई है। (घ) रचना-शैली भारतीय न्याय-ग्रन्थोंकी ओर जब हम दृष्टिपात करते हैं तो उनकी रचना हमें तीन प्रकारकी उपलब्ध होती है:-१सूत्रात्मक,२व्याख्यात्मक और ३ प्रकरणात्मक । जो ग्रन्थ संक्षेपमें गूढ़ अल्पाक्षर और सिद्धान्ततः मूलके प्रतिपादक हैं वे सूत्रात्मक हैं। जैसे-वैशेषिकदर्शनसूत्र,न्यायसूत्र, परीक्षामुखसूत्र आदि । और जो किसी गद्य पद्य या दोंनोंरूप मूलका व्याख्यान (विवरण, टीका, वृत्ति) रूप हैं वे व्याख्यात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे—प्रशस्त १ देखो, न्यायदीपिका पृ० १, ४, ५ । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका पादभाष्य, न्यायभाष्य,प्रमेयकमलमार्तण्ड आदि। तथा जो किसी मूलके व्याख्या-ग्रन्थ न होकर अपने स्वीकृत प्रतिपाद्य विषय का स्वतंत्रभावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गानुसार दूसरे विषयों का भी कथन करते हैं वे प्रकरणात्मक ग्रन्थ हैं । जैसे -प्रमाण-समुच्चय, न्यायबिन्दु, प्रमाणसंग्रह, आप्तपरीक्षा आदि । ईश्वरकृष्णकी सांख्यकारिका और विश्वनाथ पञ्चाननकी कारिकावली आदि कारिकात्मक ग्रन्थ भी दिग्नाग के प्रमाणसमुच्चय, सिद्धसेनके न्यायावतार और अकलङ्कदेवके लघीयस्त्रय आदिकी तरह प्रायः प्रकरण ग्रन्थ ही हैं, क्योंकि वे भी अपने स्वीकृत प्रतिपाद्य विषयका स्वतंत्रभावसे वर्णन करते हैं और प्रसङ्गोपात्त दूसरे विषयोंका भी कथन करते हैं । अभिनव धर्मभूषणकी प्रस्तुत न्यायदीपिका' प्रकरणात्मक रचना है। इसमें ग्रन्थकर्ता ने अपने अंगीकृत वर्णनीय विषय प्रमाण और नयका स्वतन्त्रतासे वर्णन किया है, वह किसी गद्य या पद्यरूप मूलकी व्याख्या नहीं है। ग्रन्थकार ने इसे स्वयं भी प्रकरणात्मक ग्रन्थ माना है। इस प्रकार के ग्रन्थ रचनेकी प्रेरणा उन्हें विद्यानन्दकी 'प्रमाण-परीक्षा', वादिराजके 'प्रमाण-निर्णय' आदि प्रकरण-ग्रन्थोंसे मिली जान पड़ती है। ग्रन्थके प्रमाण-लक्षण-प्रकाश, प्रत्यक्ष-प्रकाश और परोक्ष-प्रकाश ये तीन प्रकाश करके उनमें विषय-विभाजन उसी प्रकारका किया गया है जिस प्रकार प्रमाण-निर्णयके तीन निर्णयों (प्रमाण-लक्षण-निर्णय, प्रत्यक्ष-निर्णय और परोक्ष-निर्णय) में है । प्रमाणनिर्णयसे प्रस्तुत ग्रन्थ में इतनी विशेषता है कि आगमके विवेचन का इसमें अलग प्रकाश नहीं रक्खा गया है जब कि प्रमाणनिर्णयमें आगमनिर्णय भी है। इसका कारण यह है कि वादिराजाचार्यने परोक्षके अनुमान और आगम ये दो भेद किये हैं तथा अनुमानके भी गौण और मुख्य अनुमान ये दो भेद करके स्मृति,प्रत्यभिज्ञान एवं तर्कको गौण अनुमान प्रतिपादित किया है और इन तीनों के वर्णन को तो १ 'प्रकरणमिदमारभ्यते'-न्यायदा० पृ० ५। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका परोक्ष-निर्णय तथा परोक्षके ही दूसरे भेद आगमके वर्णन को आगमनिर्णय नाम दिया है । आ० धर्मभूषणने आगम जब परोक्ष है तब उसे परोक्षप्रकाश में ही सम्मिलित कर लिया है-उसके वर्णन को उन्होंने स्वतन्त्र प्रकाश का रूप नहीं दिया । तीनों प्रकाशोंमें स्थूलरूपसे विषय-वर्णन इस प्रकार है: पहले प्रमाणसामान्यलक्षण-प्रकाशमें, प्रथमतः उद्देशादि तीनके द्वारा ग्रन्थ-प्रवृत्तिका निर्देश, उन तीनों के लक्षण, प्रमाणसामान्य का लक्षण, संशय, विपर्यय, अनध्यवसायका लक्षण, इन्द्रियादिकों को प्रमाण न हो सकनेका वर्णन, स्वतः परतः प्रामाण्यका निरूपण और बौद्ध,भाद्र, प्राभाकर तथा नैयायिकोंके प्रमाण सामान्यलक्षणोंकी आलोचना करके जैनमतसम्मत सविकल्पक अगृहीतग्राही 'सम्यग्ज्ञानत्व' को ही प्रमाणसामान्य का निर्दोष लक्षण स्थिर किया गया है। दूसरे प्रत्यक्ष-प्रकाशमें स्वकीय प्रत्यक्षकालक्षण, बौद्ध और नैयायिकोंके निर्विकल्पक तथा सन्निकर्ष प्रत्यक्षलक्षणों की समालोचना, अर्थ और आलोकमें ज्ञानके प्रति कारणताका निराश,विषयकी प्रतिनियामिका योग्यताका उपादान, तदुत्पत्ति और तदाकारता का निराकरण, प्रत्यक्षके भेदप्रभेदोंका निरूपण, अतीन्द्रिय प्रत्यक्षका समर्थन और सर्वज्ञसिद्धि आदिका विवेचन किया गया है। तीसरे परोक्ष-प्रकाशमें, परोक्षका लक्षण, उसके स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और पागम इन पाँच भेदोंका विशद वर्णन, प्रत्यभिज्ञानके एकत्वप्रत्यभिज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदिका प्रमाणान्तररूपसे उपपादन करके उनका प्रत्यभिज्ञानमें ही अन्तर्भाव होनेका सयुक्तिक समर्थन, साध्यका लक्षण, साधनका अन्यथानुपपन्नत्व' लक्षण,नरूप्य और पाञ्चरूप्यका निराकरण, अनुमानके स्वार्थ और परार्थ दो भेदोंका कथन, हेतु-भेदों के १ देखो प्रमाणनिर्णय पृ० ३३ : Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका उदाहरण, हेत्वाभासोंका वर्णन, उदाहरण,उदाहरणाभास,उपनय, उपनयाभास, निगमन, निगमनाभास आदि अनुमान के परिवार का अच्छा कथन किया गया है। अन्तमें आगम और नयका वर्णन करते हुए अनेकान्त तथा सप्तभंगीका भी संक्षेप में प्रतिपादन किया गया है। इस तरह यह न्यायदीमिकामें वर्णित विषयोंका स्थूल एवं बाह्य परिचय है । अब उसके आभ्यन्तर प्रमेय-भागपर भी थोड़ासा तुलनात्मक विवेचन कर देना हम उपयुक्त समझते हैं। ताकि न्यायदीपिका के पाठकों के लिए उसमें चर्चित ज्ञातव्य विषयों का एकत्र यथासम्भव परिचय मिल सके। (घ) विषय-परिचय१ मङ्गलाचरण मंगलाचरणके सम्बन्ध में कुछ वक्तव्य अंश तो हिन्दी अनुवाद के प्रारम्भ में कहा जा चुका है। यहाँ उसके शेष भाग पर कुछ विचार किया जाता है। __यद्यपि भारतीय वाङ्मयमें प्रायः सभी दर्शनकारोंने मंगलाचरणको अपनाया है और अपने अपने दृष्टिकोणसे उसका प्रयोजन एवं हेतु बताते हुए समर्थन किया है। पर जैनदर्शनमें जितना विस्तृत, विशद और सूक्ष्म चिन्तन किया गया है उतना प्रायः अन्यत्र नहीं मिलता। तिलोयपण्णत्ति' में यतिवृषभाचार्यने और 'धवला' में श्री वीरनसस्वामी ने मंगलका बहुत ही सांगोपांग और व्यापक वर्णन किया है। उन्होंने धातु, निक्षेप, नय, एकार्थ, निरुक्ति और अनुयोग के द्वारा मंगल का निरूपण करनेका निर्देश करके उक्त छहों के द्वारा उसका व्याख्यान किया है । 'मगि' धातुसे 'अलच्' प्रत्यय करनेपर मंगल शब्द निष्पन्न होता है। निक्षेपकी अपेक्षा कथन करते हुए लिखा है कि तद्व्यतिरिक्त द्रव्य मंगलके दो १ तिलो० प० गा० १-८ से १-३१, २ धवला १-१ । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भेद हैं--कर्मतद्व्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल और नोकर्मतद्व्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल । उनमें पुण्यप्रकृति-तीर्थंकर नामकर्म कर्मतद्व्यतिरिक्तद्रव्यमङ्गल है; क्योंकि वह लोककल्याणरूप माङ्गल्यका कारण है। नोकर्मतद्व्यतिरिक्त द्रव्यमङ्गल-के दो भेद हैं-लौकिक और लोकोत्तर । उनमें लौकिकलोक प्रसिद्ध मङ्गल तीन प्रकारका है:--सचित्त, अचित्त और मिश्र । इनमें सिद्धार्थ' अर्थात् पीले सरसों, जलसे भरा हुआ पूर्ण कलश, वन्दनमाला, छत्र, श्वेतवर्ण और दर्पण आदि अचित्त मङ्गल हैं। और बालकन्या तथा श्रेष्ठ जातिका घोड़ा आदि सचित्त मङ्गब हैं । अलङ्कार सहित कन्या आदि मिश्र मङ्गल हैं। लोकोत्तर-अलौकिक मङ्गलके भी तीन भेद हैं:-सचित्त, अचित्त और मिश्र । अरहन्त आदिका अनादि अनन्त स्वरूप जीव-द्रव्य सचित्त लोकोत्तर मङ्गल है। कृत्रिम, अकृत्रिम चैत्यालय आदि अचित्त लोकोत्तर मङ्गल हैं । उक्त दोनों सचित्त और अचित्त मंगलोंकों मिश्र मङ्गल कहा है। आगे मङ्गलके प्रतिबोधक पर्यायनामोंको' बतलाकर मङ्गलकी निरुक्ति बताई गई है । जो पापरूप मलको गलावे-विनाश करे और पुण्य-सुखको लावे प्राप्त करावे उसे मङ्गल कहते हैं। आगे चलकर मङ्गलका प्रयोजन बतलाते हुए कहा १ सिद्धत्थ-पुण्ण-कुंभो वंदणमाला य मंगलं छत्तं । सेदो वण्णो श्रादसणो य कण्णा य जच्चस्सो ॥-धवला १-१-१पृ.२७ २ देखो धवला १-१-१, पृ. ३१ । तिलो० प० गा० १-८ । ३ 'मलं गालयति विनाशयति दहति हन्ति विशोधयति विध्वंसयति इति मंगलम् ।' . . . . . . 'अथवा, मंगं सुखं तल्लाति आदत्त इति वा मङ्गलम् ।' धवला० १-१-१, पृ० ३२-३३ । 'गालयदि विणासयदे घादेदि दहेहि हंति सोधयदे । विद्धंसेदि मलाइं जम्हा तम्हा य मंगलं भणिदं ।'-तिलो०प०१-६ । 'अहवा मंगं सोक्खं लादि हु गेण्हेदि मंगलं तम्हा । एदेण कज्जसिद्धि मंगइ गच्छेदि गंथकत्तारो ॥-तिलो० ५० १-१५ । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका गया है कि शास्त्रके आदि, मध्य और अन्तमें जिनेन्द्रका गुणस्तवनरूप मङ्गलका कथन करनेसे समस्त विध्न उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सूर्योदयसे समस्त अन्धकार । इनके साथ ही तीनों स्थानोंमें मङ्गल करनेका पृथक् पृथक् फल भी निर्दिष्ट किया है और लिखा है कि शास्त्र के आदिमें मङ्गल करनेसे शिष्य सरलतासे शास्त्रके पारगामी बनते हैं। मध्यमें मङ्गल करनेसे निर्विघ्न विद्या प्राप्ति होती है और अन्तमें मङ्गल करनेसे विद्या-फलकी प्राप्ति होती हैं । इस प्रकार जैनपरम्पराके दिगम्बर साहित्यमें शास्त्रमें मङ्गल करनेका सुस्पष्ट उपदेश मिलता है । श्वेताम्बर आगम साहित्यमें भी मङ्गलका विधान पाया जाता है । दशवैकालिकनियुक्ति ( गा० २ ) में त्रिविध मंगल करनेका निर्देश है। विशेषावश्यकभाष्य ( गा० १२-१४ ) में मंगलके प्रयोजनोंमें विघ्नविनाश और महाविद्याकी प्राप्तको बतलाते हुए आदि मंगलका निर्विघ्नरूपसे शास्त्रका पारंगत होना, मध्यमंगलका निर्विघ्नतया शास्त्र-समाप्ति की कामना और अन्त्यमंगलका शिष्य-प्रशिष्यों-में शास्त्र-परम्पराका चालू रहना प्रयोजन बतलाया गया है। बृहत्कल्प-भाष्य (गा०२० ) में मंगलके विघ्नविनाशके साथ शिष्यमें शास्त्रके प्रति श्रद्धाका होना आदि अनेक प्रयोजन गिनाये गये हैं। हिन्दी अनुवादके प्रारम्भमें यह कहा ही १ 'सत्यादि-मज्झ अवसाणएसु जिणतोत्तमंगलुच्चारो। णासइ णिस्सेसाई विग्घाई रवि व्व तिमिराई ॥'-ति०५० १-३१ । २ 'पढ़मे मंगलवयणे सिस्सा सत्थस्स पारगा होति । मज्झिम्मे णीविग्घं विज्जा विज्जा फलं चरिमे ।। -तिलो० ५० १-२६ । धवला १-१-१, पृ० ४० । ३ यद्यपि 'कषायपाहुड' और 'चूणिसूत्र' के प्रारम्भमें मंगल नहीं किया है तथाहि वहाँ मंगल न करने का कारण यह है कि उन्हें स्वयं मंगल रूप मान लिया गया है । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जा चुका है कि हरिभद्र और विद्यानन्द आदि ताकिकोंने अपने तर्क-ग्रन्थों में भी मंगल करने का समर्थन और उसके विविध प्रयोजन बतलाये हैं। उपर्युक्त यह मंगल मानसिक, वाचिक और कायिकके भेद से तीन प्रकार का है। वाचिक मंगल भी निबद्ध और अनिबद्ध रूप से दो तरह का है । जो ग्रन्थके आदिमें ग्रन्थकारके द्वारा श्लोकादिककी रचनारूपसे इष्ट-देवता-नमस्कार निबद्ध कर दिया जाता है वह वाचिक निबद्ध मंगल है और जो श्लोकादिककी रचना के बिना ही जिनेन्द्र-गुण-स्तवन किया जाता है वह अनिबद्ध मंगल है ! प्रकृत न्यायदीपिकामें अभिनव धर्मभूषणने भी अपनी पूर्व परम्पराका अनुसरण किया है और मंगलाचरणको निबद्ध किया है । २. शास्त्रको त्रिविध प्रवृत्ति शास्त्रकी त्रिविध ( उद्देश, लक्षण-निर्देश और परीक्षारूप ) प्रवृत्तिका कथन सबसे पहले वात्स्यायनके 'न्याय भाष्य' में दृष्टिगोचर होता है। प्रशस्तपादभाष्यकी टीका 'कन्दली' में श्रीधरने उस त्रिविध प्रवृत्तिमें उद्देश और लक्षणरूप द्विविध प्रवृत्तिको माना है और परीक्षाको अनियत कहकर निकाल दिया है । इसका कारण यह है कि श्रीधरने जिस प्रशस्तपाद भाष्यपर अपनी कंदली टीका लिखी है वह भाष्य और उस भाष्यका आधारभूत वैशेषिकर्शनसूत्र पदार्थों के उद्देश और लक्षणरूप हैं, उनमें परीक्षा नहीं है। पर वात्स्यायनने जिस न्यायसूत्रपर अपना न्यायभाष्य लिखा है उसके सभी सूत्र उद्देश, लक्षण और परीक्षात्मक हैं । इसलिये वात्स्या १ देखो, धवला १-१-१, पृ० ४१ और प्राप्तपरीक्षा पृ० ३ । २ न्यायभाष्य पृ० १७, न्यायदीपिका परिशिष्ट पृ० २३६ । ‘पदार्थव्युत्पादनप्रवृत्तस्य शास्त्रस्य उभयथा प्रवृत्ति:-उद्देशो लक्षणञ्च । परीक्षायास्तु न नियमः । -कन्दली पृ० २६ । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका यनने त्रिविध प्रवृत्ति और श्रीधर ने द्विविध प्रवृत्ति को स्थान दिया है। शास्त्र-प्रवृत्ति के चौथे भेदरू पसे विभाग को भी माननेका एक पक्ष रहा है जिसका उल्लेख सर्वप्रथम उद्योतकर और जयन्तभट्टने किया है और उसे उद्देशमें ही शामिल कर लेनेका विधान किया है। प्रा० प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र भी यही कहते हैं । इस तरह वात्स्यायनके द्वारा प्रदर्शित विविध प्रवृत्ति का ही पक्ष स्थिर रहता है । न्यायदीपिकामें प्रभाचन्द्र और हेमचन्द्र के द्वारा अनुसृत यही विविध प्रवृत्ति का पक्ष अपनाया गया है । ३. लक्षणका लक्षण दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रथम स्पष्ट तौरपर वात्स्यायनने लक्षणका लक्षण निर्दिष्ट किया है और कहा है कि जो वस्तु का स्वरूप-व्यवच्छेदक धर्म है वह लक्षण है। न्यायवात्तिकके कर्ता उद्मोतकरका भी यही मत है। न्यायमंजरीकार जयन्तभट्ट सिर्फ 'व्यवच्छेदक' के स्थान में 'व्यवस्था १ 'उद्दिष्टविभागश्च न त्रिविधायां शास्त्रप्रवृत्तावन्तर्भवतीति । तस्मादुद्दिष्टविभागो युक्तः; न ; उद्दिष्टविभागस्योद्देश एवान्तर्भावात् ।' न्यायवा० पृ० २७, २८ । २ ननु च विभागलक्षणा चतुर्थ्यपि प्रवृत्तिरस्त्येव... उद्देशरूपानपायात्तु उद्देश एव असौ । सामान्यसंज्ञया कीर्तनमुद्देशः, प्रकारभेदसंज्ञया कीर्तनं विभाग इति'-न्यायमं० पृ० १२ । ३ देखो, न्यायकुमुद पृ. २१ । ४ प्रमाणमी० पृ. २। ५ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम्-न्यायभा० पृ. १७ । ६ लक्षणस्येतरव्यवच्छेदहेतुत्वात् । लक्षणं खलु लक्ष्यं समानासमानजातीयेभ्यो व्यवच्छिनत्ति'-न्यायवा० पृ० २८, 'पर्यायशब्दाः कथं लक्षणम् ? व्यवच्छेदहेतुत्वात् । सर्वं हि लक्षणमितरव्यवच्छेदकमेतैश्च पर्यायशब्दैर्नान्यः पदार्थोऽभिधीयत इत्यसाधारणत्वाल्लक्षणम्-न्यायवा० पृ० ७६, 'इतरेतरविशेषकं लक्षणमुच्यते'न्यायवा० पृ० १०८ । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ११ पक' शब्दको रखकर वात्स्यायनका ही अनुसरण करते हैं । कन्दलीकार श्रीधर भी वात्स्यायनके 'तत्त्व' शब्दके स्थानमें 'स्वपरजातीय' और 'व्यवच्छेदक' की जगह 'व्यावर्त्तक' शब्दका प्रयोग करके करीब करीब उन्हींके लक्षणके लक्षणको मान्य रखते हैं । तर्कदीपिकाकार उक्त कथनोंसे फलित हुये असाधारण धर्मको लक्षणका लक्षण मानते हैं अकलङ्कदेव स्वतन्त्र ही लक्षणका लक्षण प्रणयन करते हैं और वे उसमें 'धर्म' या 'असाधारण धर्म' शब्दका निवेश नहीं करते । पर व्यावृत्तिपरक लक्षण मानना उन्हें इष्ट है । इससे लक्षणके लक्षणकी मान्यतायें दो फलित होती हैं। एक तो लक्षणके लक्षण में असाधारण धर्म का प्रवेश स्वीकार करनेवाली और दूसरी स्वीकार न करनेवाली । पहली मान्यता मुख्यतया न्याय वैशेषिकोंकी है और जिसे जैन-परम्परामें भी क्वचित् स्वीकार किया गया है। दूसरी मान्यता अकलङ्क-प्रतिष्ठित है और उसे प्राचार्य विद्यानन्द तथा न्यायदीपिकाकार आदिने अपनाई है। न्यायदीपिकाकारने तो सप्रमाण इसे ही पुष्ट किया है और पहली मान्यताकी आलोचना करके उसमें दूषण भी दिखाये हैं। ग्रन्थकारका कहना है कि यद्यपि किसी वस्तुका असाधारण—विशेष धर्म उस वस्तुका इतर पदार्थोंसे व्यावर्तक होता है, परन्तु उसे लक्षणकोटिमें प्रविष्ट नहीं किया जा सकता ; क्योंकि दण्डादि जो कि असाधारणधर्म नहीं हैं फिर भी पुरुष के व्यावर्त्तक होते हैं और 'शावलेयत्व' आदि गवादिकों के असाधारणधर्म तो हैं, पर व्यार्त्तक नहीं १ 'उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवस्थापको धर्मों लक्षणम्'–न्यायमं० पृ० ११ २ 'उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मों लक्षणम्'-कन्दली० पृ० २६ । । ३ 'एतद्रूषणत्रयरहितो धर्मों लक्षणम्। यथा गोः सास्नादिमत्वम् । स एवासाधारणधर्म इत्युच्यते'-तर्कदीपिका पृ० १४। ४ 'परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्'-तत्त्वार्थवा० पृ० ८२। ५ देखो, परिशिष्ट पृ० २४० । ६ देखो, परिशिष्ट पृ० २४० । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका हैं। इसलिए इतना मात्रही लक्षण करना ठीक है कि जो व्यावर्त्तक हैमिली हुई वस्तुओंमेंसे किसी एकको जुदा कराता है वह लक्षण है। चाहे वह साधारण धर्म हो या चाहे असाधारण धर्म हो या धर्म भी न हो । यदि वह लक्ष्यकी लक्ष्यतरोंसे व्यावृत्ति कराता है तो लक्षण है और यदि नहीं कराता है तो वह लक्षण नहीं है इस तरह अकलङ्क-प्रतिष्ठित लक्षणके लक्षण को ही न्यायदीपिका में अनुप्राणित किया गया है : प्रमाणका सामान्यलक्षण दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रथम कणादने प्रमाणका सामान्य लक्षण निर्दिष्ट किया है । उन्होंने निर्दोष ज्ञानको विद्या प्रमाण कहा है ! न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमके न्यायसूत्रमें तो प्रमाणसामान्यका लक्षण उपलब्ध नहीं होता। पर उनके टीकाकार वात्स्यायनने अवश्य 'प्रमाण' शब्दसे फलित होनेवाले उपलब्धिसाधन (प्रमाकरण) को प्रमाणसामान्यका लक्षण पूचित किया है । उद्योतकर, जयन्तभट्ट आदि नैयायिकों ने वात्स्यायन है द्वारा सूचित किये इस उपलब्धिसाधनरूप प्रमाकरणको ही प्रमाण का सामान्य लक्षण स्वीकृत किया है। यद्यपि न्यायकुसुमाञ्जलिकार उदयनने थार्थानुभवको प्रमाण कहा है तथापि वह उन्हें प्रमाकरणरूपही इष्ट है । तना जरूर जान पड़ता है कि उनपर अनुभूतिको प्रमाण मानने वाले भाकर और उनके अनुयायी विद्वानोंका प्रभाव है। क्योंकि उदयनके १ ‘अदुष्टं विद्या' वैशेषिकसू० ६-२-१२ । २ 'उपलब्धिसाधनानि माणानि समाख्यानिर्वचनसामर्थ्यात् बोधव्यम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणाभिधानो हि प्रमाणशब्दः ।' न्यायभा० पृ० १८ । ३ 'उपलब्धिहेतु: नाणं. . . . . ' यदुपलब्धिनिमित्तं तत्प्रमाणं ।'– न्यायवा० पृ० ५। ४ मीयते येन तत्प्रमाणमिति करणार्थाभिधायिन: प्रमाणशब्दात् प्रमारणं प्रमाणमवगम्यते । न्यायमं० पृ० २५ । ५ 'यथार्थानुभवो मान'पेक्षतयेष्यते ।'-न्यायकु० ४-१ । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३ पहले न्याय वैशेषिक परम्परामें प्रमाणसामान्यलक्षणमें 'अनुभव पदका प्रवेश प्रायः उपलब्ध नहीं होता । उनके बादमें तो अनुभव ही प्रमाणसामान्यका लक्षण बतलाया है । अनेक नैयायिकोंने ' प्रस्तावना मीमांसक परम्परामें मुख्यतया दो सम्प्रदाय पाये जाते हैं - १ भाट्ट और २ प्रभाकर । कुमारिल भट्टके अनुगामी भाट्ट और प्रभाकर गुरुके मतका अनुसरण करनेवाले प्राभाकर कहे जाते हैं । कुमारिलने प्रमाणके सामान्यलक्षण में पाँच विशेषण दिये है । १ अपूर्वार्थविषयत्व २ निश्चितत्व ३ बाधवर्जितत्व ४ प्रदुष्टकारणारब्धत्व और ५ लोकसम्मतत्व कुमारिल का वह लक्षण इस प्रकार है : तत्रापूर्वार्थविज्ञानं निश्चितं बाधवजितम् । अदुष्टकारणारब्धं प्रमाणं लोकसम्मतम् ॥ पिछले सभी भाट्टमीमांसकोंने इसी कुमारिल क क लक्षणको माना है और उसका समर्थन किया है। दूसरे दार्शनिकोंकी आलोचनाका विषय भी यही लक्षण हुआ है । प्रभाकरने अनुभूति को प्रमाण सामान्यका लक्षण कहा है । सांख्यदर्शन में श्रोत्रादि- इन्द्रियोंकी वृत्ति ( व्यापार ) को प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया गया है । बौद्धदर्शनमें अज्ञातार्थके प्रकाशक ज्ञानको प्रमाणका सामान्य लक्षण बतलाया है। दिग्नागने विषयाकार अर्थनिश्चय और स्वसंवित्तिको प्रमाण१ 'बुद्धिस्तु द्विविधा मता अनुभूतिः स्मृतिश्चि स्यादनुभूश्चतुर्विधा ।' - सिद्धान्तमु० का० ५१ । 'तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवोयथार्थः । ... सैवप्रमा ।' तर्कसं० पृ० ६८,६६ २ 'अनुभूतिश्च नः प्रमाणम् ।' बृहती १-१-५ । ३ ' अज्ञातार्थज्ञापकं प्रमाणमिति प्रमाणसामान्यलक्षणम् " - प्रमाणसमु० टी० पृ० ११ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका का फल कह कर उन्हें ही प्रमाण माना है । क्योंकि बौद्धदर्शनमें प्रमाण और फल भी भिन्न नहीं हैं और जो अज्ञातार्थप्रकाश रूप ही हैं। धर्मकीत्तिने अविसंवादि' पद और लगाकर दिग्नाग के ही लक्षण को प्रायः परिष्कृत किया है। तत्त्वसंग्रहकार शान्तरक्षितने सारूप्य और योग्यताको प्रमाण वर्णित किया है' जो एक प्रकारसे दिग्नाग और धर्मकीतिके प्रमाणसामान्यलक्षणका ही पर्यवसितार्थ है । इस तरह बौद्धोंके यहाँ स्वसंवेदो अज्ञातार्थज्ञापक अविसंवादि ज्ञानको प्रमाण कहा गया है । जैन परम्परामें सर्व प्रथम स्वामी समन्तभद्र और प्रा० सिद्धसेनने प्रमाणका सामान्यलक्षण निर्दिष्ट किया है और उसमें स्वपरावभासक, ज्ञान तथा बाधविवर्जित ये तीन विशेषण दिये हैं । भारतीय दार्शिनिकोंमें समन्तभद्र ही प्रथम दार्शनिक हैं जिन्होंने स्पष्टतया प्रमाणके सामान्यलक्षणमें 'स्वपरावभासक' पद रखा है यद्यपि विज्ञानवादी बौद्धोंने भी ज्ञानको ‘स्वरूपस्य स्वतो गते: कहकर स्वसंवेदी प्रकट किया है परन्तु ताकिक रूप देकर विशेषरूपसे प्रमाणके लक्षणमें 'स्व' पदका निवेश समन्तभद्रका ही स्वोपज्ञ जान पड़ता है । क्योंकि उनके पहले वैसा प्रमाणलक्षण देखनेमें नहीं आता । समन्तभद्रने प्रमाणसामान्यका लक्षण 'युगपत्सर्वभासितत्त्वज्ञान' भी किया है जो उपर्युक्त लक्षणमें ही पर्यवसित है दर्शनशास्रोंके अध्ययनसे ऐसा मालूम होता है 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणम्' अर्थात् जिसके द्वारा प्रमिति ( परिच्छित्तिविशेष ) हो वह प्रमाण है' इस अर्थमें १ "स्वसंवित्तिः फल चात्र तद्रूपादर्थनिश्चयः । विषयाकार एवास्य प्रमाण तेन मीयते ॥"-प्रमाणसमु० १-१० । २ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानम्..."प्रमाणवा० २-१ । ३ “विषयाधिगतिश्चात्र प्रमाणफलमिष्यते । स्ववित्तिर्वा प्रमाणं तु सारूप्यं योग्यतापि वा ।।"- तत्त्वसं० का १३४४ । ४ "स्वपरावभासकं यथा प्रमाणं भुवि बुद्धिलक्षणम्”–स्वयम्भू० का० ६३ । ५ प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितम्।"-न्यायवा० का० १ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना प्रायः सभी दर्शनकारोंने प्रमाणको स्वीकार किया है। परन्तु वह प्रमिति किसके द्वारा होती है अर्थात् प्रमितिका करण कौन है ? इसे सबने अलग अलग बतलाया है । नैयायिक और वैशेषिकोंका कहना है कि अर्थज्ञप्ति इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षसे होती है इसलिए सन्निकर्ष प्रमितिका करण है। मीमांसक सामान्यतया इन्द्रियको,सांख्य इन्द्रियवृत्तिको और बौद्ध सारूप्य एवं योग्यताको प्रमितिकरण बतलाते हैं । समन्तभद्र ने 'स्वपरावभासक' ज्ञानको प्रमितिका अव्यवहितकरण प्रतिपादन किया है। समन्तभद्र के उत्तरवर्ती पूज्यपादने भी स्वपरावभासक ज्ञानको ही प्रमितिकरण (प्रमाण) होनेका समर्थन किया है और सन्निकर्ष,इन्द्रिय तथा मात्र ज्ञानको प्रमिति करण (प्रमाण) माननेमें दोषोद्भावन भी किया है। वास्तवमें प्रमितिप्रमाणफल जब अज्ञाननिवृत्ति है तब उसका करण अज्ञानविरोधी स्व और परका अवभास करनेवाला ज्ञान ही होना चाहिए । समन्तभद्रके द्वारा प्रतिष्ठित इस प्रमाणलक्षण 'स्वपरावभासक' को आर्थिकरूपसे अपनाते हुए भी शाब्दिकरूपसे अकलङ्कदेवने अपना. आत्मार्थग्राहक व्यवसायात्मक ज्ञानको प्रमाणलक्षण निर्मित किया है । तात्पर्य यह कि समन्तभद्र के 'स्व' पदकी जगह 'आत्मा' और 'पर' पदके स्थान में 'अर्थ' पद एवं 'अवभासक' पदकी जगह 'व्यवसायात्मक' पदको निविष्ट किया है। तथा 'अर्थ' के विशेषणरूपसे कहीं "अनधिगत' कहीं अनिश्चित और कहीं 'अनिर्णीत"" पदको दिया है । कहीं ज्ञान के विशेषणरूप से १ देखो, सर्वार्थसि० १-१०। २ "व्यवसायात्मकं ज्ञानमात्मार्थग्राहकं मतम् ।" - लघीय० का०६० ३ "प्रमाणमविसंवादि ज्ञानं अनधिगतार्थाधिगमलक्षणत्वात् ।" –अष्टश० का० ३६ । ४ 'लिंगलिङ्गसम्बन्धज्ञानं प्रमाणं अनिश्चितनिश्चयात् ।'अष्टश० १०१ ५ “प्रकृतस्यापि न वै प्रामाण्यं प्रतिषेध्यं-अनिर्णीतनिर्णायकत्वात् ।" अष्टश० का० १०१। Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ न्याय-दीपिका 'अविसंवादि' पदको भी रखा है। ये पद कुमारिल तथा धर्मकीर्ति से आये हुए मालूम होते हैं; क्योंकि उनके प्रमाणलक्षणोंमें वे पहलेसे ही विहित हैं । अकलङ्कदेवके उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दिने अकलङ्कदेवके 'अनधिगत' पदके स्थानमें कुमारिलोक्त 'अपूर्वार्थ' और आत्मा' पदके स्थानमें समन्तभद्रोक्त 'स्व' पदका निवेश करके 'स्वापूर्वार्थ' जैसा एक पद बना लिया है और 'व्यवसायात्मक' पदको ज्योंका त्यों अपनाकर स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं' यह प्रमाणसामान्यका लक्षण प्रकट किया है। विद्यानन्दने यद्यपि संक्षेपमें 'सम्यग्ज्ञान' को प्रमाण कहा है और पीछे उसे 'स्वार्थव्यवसायात्मक' सिद्ध किया है, अकलङ्क तथा माणिक्यनन्दिको तरह स्पष्ट तौर पर 'अनधिगत' या 'अपूर्व' विशेषण उन्होंने नहीं दिया, तथापि सम्यग्ज्ञानको अनधिगतार्थविषयक या अपूर्वार्थविषयक मानना उन्हें अनिष्ट नहीं है उन्होंने जो अपूर्वार्थका खण्डन किया है। वह कुमारिलके सर्वथा 'अपूर्वार्थ' का खण्डन हैं । कथंचिद् अपूर्वार्थ तो उन्हें अभिप्रेत है । अकलङ्कदेवकी तरह स्मृत्यादि प्रमाणोंमें अपूर्वार्थता १ "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" अष्टश० का० ३६ । २ "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।'–परीक्षामु० १-१ । ३ “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्"-प्रमाणपरी० पृष्ट ५१ । ४ "किं पुनः सम्यग्ज्ञानं ? अभिधीयते-स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानत्वात्..." -प्रमाणप० पृ० ५३ । ५ 'तत्स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानं मानमितीयुता लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४ । ६ "सकलदेशकालव्याप्तसाध्यासाधनसम्बद्धोहापोहलक्षणो हि तर्कः प्रमाणयितव्यः, तस्य कथाञ्चिपूर्वार्थत्वात् ।” “नचैतद् गृहीतग्रहणादप्रमाणमिति शङ्कनीयम्, तस्य कथाञ्चिदपूर्वार्थत्वात् । न हि तद्विषयभूत मेकं द्रव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्य येन तत्र प्रवर्त्तमानं प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि ... मन्येत तद्गृहीतातीतवर्तमानविवर्त्ततादात्म्यात् द्रव्यस्य कथञ्चिदपूर्वार्थ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १७ का उन्होंने स्पष्टतया समर्थन किया है। सामान्यतया प्रमाणलक्षण में अपूर्व पदको न रखनेका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष तो अपुर्वार्थग्राही होता ही है और अनुमानादि प्रत्यक्ष से अगृहीत धर्माशोंमें प्रवृत्त होनेसे अपूर्वार्थग्राहक सिद्ध हो जाते हैं । यदि विद्यानन्द को स्मृत्यादिक अपूर्वार्थविषयक इष्ट न होते तो उनकी प्रमाणता में प्रयोजक अपूर्वार्थताको वे कदापि न बतलाते । इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्द भी प्रमाणको अपूर्वार्थग्राही मानते हैं। इस तरह समन्तभद्र और अकलङ्कदेव का प्रमाणसामान्यलक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकोंके लिए आधार हुआ है । प्रा० धर्मभूषणने न्यायदीपिकामें विद्यानन्दके द्वारा स्वीकृत 'सम्यग्ज्ञानत्व' रूप प्रमाणके सामान्यलक्षणको ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक अगृहीतग्राही एवं स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीर्ति प्रभाकर, भाट्ट और नैयायिकौंके प्रमाणसामान्यलक्षणों की आलोचना की है। ५. धारावाहिक ज्ञान दार्शनिक ग्रन्थों में धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य और अप्रमाण्यकी विस्तृत चर्चा पायी जाती है। न्याय-वैशेषिक और मीमांसक उन्हें प्रमाण मानते हैं। पर उनकी प्रमाणताका समर्थन वे अलग-अलग ढंगसे करते हैं। न्याय-वैशेषिकोंका' कहना है कि उनसे परिच्छित्ति होती है और लोकमें वे प्रमाण भी माने जाते हैं। अतः वे गृहीतग्राही होने पर भी त्वेऽपि प्रत्यभिज्ञातस्य तद्विषयस्य नाप्रमाणत्वं लैंगिकादेरप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् । तस्यापि सर्वथैवापूर्वार्थत्वासिद्धेः ।”—प्रमाणप० पृ० ७० । "स्मृतिः प्रमाणान्तरमुक्तं नचासावप्रमाणमेव सवादकत्वात् कथञ्चिदएकत्र हित्वात् ..."-प्रमाणप० पृ० ६७ । “गृहीतग्रहणात्तर्कोऽप्रमाणमिति चेन्न वै । तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोगविशेषतः ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६५ । १ "अनधिगतार्थगन्तृत्व च धारावाहिकज्ञानानामधिगतगोचराणां Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्रमाण ही हैं । भाट्टोंका मत है कि उनमें सूक्ष्म काल-भेद है। अतएव वे अनधिगत सूक्ष्म काल-भेदको ग्रहण करनेसे प्रमाण हैं । प्रभाकर मतवाले कहते हैं कि कालभेदका भान होना तो शक्य नहीं है क्योंकि वह अत्यन्त सूक्ष्म है। परन्तु हाँ, पूर्वज्ञान से उत्तरज्ञानों में कुछ अतिशय (वैशिष्ठ्य ) देखने में नहीं आता। जिस प्रकार पहले ज्ञानका अनुभव होता है उसी प्रकार उत्तर ज्ञानोंका भी अनुभव होता है। इसलिए धारावाहिक ज्ञानोंमें प्रथम ज्ञानसे न तो उत्पत्तिकी अपेक्षा कोई विशेषता है और न प्रतीतिकी अपेक्षासे है । अतः वे भी प्रथम जानकी ही तरह प्रमाण हैं । ___ बौद्धदर्शनमें यद्यपि अनधिगतार्थक ज्ञानको ही प्रमाण माना है और इसलिए अधिगतार्थक धारावाहिक ज्ञानोंमें स्वतः अप्रामाण्य ख्यापित हो जाता है तथापि धर्मकीर्तिके टीकाकार अर्चटने पुरुषभेदकी अपेक्षासे लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे ।....."तस्मादर्थप्रदर्शनमात्रव्यापारमेव ज्ञानं प्रवर्तकं प्रापकं च । प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।"न्यायवा० तात्पर्य० पृ० २१ । १ "धारावाहिककेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः। तदाधिक्याच्च सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम् ।”- शास्त्रदी० पृ० १२४-१२६ । २ “सन्नपि कालभेदोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृष्यत इति चेत् ; अहो सूक्ष्मदर्शी देवानांप्रियः !"- (शास्त्रदी० पृ० १२५) [अत्र पूर्वपक्षेणोल्लेख:] "व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरते इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता ।"-प्रकरणपं० पृ० ४३ । ३ “यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीतीन्द्रियज्ञानान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिन्नयोगक्षेमत्वात उत्तरेषामिन्द्रियज्ञानानामप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् अतोऽनेकान्त Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १६ उनमें प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वीकार किया है। क्षणभेददष्टा (योगी) की अपेक्षासे प्रमाणता और क्षणभेद अदृष्टा व्यावहारिक पुरुषों की अपेक्षासे अप्रमाणता वणित की है। * जैनपरम्पराके श्वेताम्बर ताकिकोंने धारावाहिक ज्ञानोंको प्रायः प्रमाण ही माना है उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। किन्तु अकलङ्क और उनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर आचार्योंने अप्रमाण बतलाया है। और इसीलिए प्रमाणके लक्षणमें अनधिगत या अपूर्वार्थ विशेषण दिया है । विद्यानन्दका कुछ झुकाव अवश्य उन्हें प्रमाण कहनेका प्रतीत होता है। परन्तु जब वे सर्वथा अपूर्वार्थत्वका विरोध करके कथंचित् अपूर्वार्थ स्वीकार कर लेते हैं तब यही मालूम होता है कि उन्हेंभी धारावाहिक ज्ञानोंमें अप्रामाण्य इष्ट है । दूसरे, उन्होंने परिच्छत्तिविशेषके अभावमें जिस प्रकार प्रमाणसम्प्लव स्वीकार नहीं किया है, उसी प्रकार प्रमितिविशेषके अभावमें धारावाहिक ज्ञानोंको अप्रमाण माननेकाभी उनका अभिप्राय स्पस्ट मालूम होता है। अतः धारावाहिक ज्ञानोंसे यदि प्रमितिविशेष उत्पन्न नहीं होती है इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षेण इत्यादि । एतत् परिहरति -तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदशिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नोपयोगितया प्रथक प्रामाण्यात् नानेकान्तः । अथ सर्वपदार्थष्वेकत्वाध्यवसायिनः सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्योच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकमर्थं स्थिररूपं तत्साध्यां चार्थक्रियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्पुत्तरेबामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः ?" हेतुबिन्दुटी० लि० पृ० ३६ BI १ "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४ । २ “उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसम्प्लवस्यानभ्युपगमात् । सति हि प्रतिपत्तुरुपयोगविशेषे देशादिविशेषसमवधानादागमात्प्रतिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरुतुमानाप्रतिपित्सते ।”—अष्टस० पृ० ४ । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका तो उन्हें अप्रमाण (प्रमाण नहीं) कहना अयुक्त नहीं है । न्यायदीपिकाकारने भी प्रथम घटादिज्ञानके अलावा उत्तरवर्ती अवशिष्ट घटादिज्ञानोको अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमितिको उत्पन्न न करनेके कारण अप्रमाण ही स्पष्टतया प्रतिपादन किया है और इस तरह उन्होंने अकलङ्कमार्गका ही समर्थन किया है। . ६. प्रामाण्यविचार ऐसा कोईभी तर्क ग्रन्थ न होगा जिसमें प्रमाणके प्रामाण्याप्रामाण्यका विचार प्रस्फुटित न हुआ हो। ऐसा मालूम होता है कि प्रारम्भमें प्रामाण्यका विचार वेदोंकी प्रामाणता स्थापित करनेके लिए हुआ था। जब उसका तर्कके क्षेत्रमें प्रवेशमें हुआ तब प्रत्यक्षादि ज्ञानोंकी प्रामाणता और अप्रमाणताका विचार होने लगा। प्रत्येक दार्शनिकोंको अपने तर्क ग्रन्थमें प्रामाण्य और अप्रमाण्य तथा उसके स्वतः और परतः होनेका कथन करना अनिवार्य सा हो गया और यही कारण है कि प्रायः छोटेसे छोटे तर्कग्रन्थमें भी वह चर्चा आज देखने को मिलती है । १ "प्रत्याक्षादिषु दृष्टार्थेषु प्रमाणेषु प्रामाण्यनिश्चयमन्तरेणैव व्यवहारसिद्धेस्तत्र किं स्वतः प्रामाण्यमुत परत इति विचारेण न नः प्रयोजनम्, अनिर्णय एव तत्र श्रेयान्, अदृष्टे तु विषये वैदिकेष्वगणितद्रविणवितरणादिक्लेशसाध्येषु कर्मसु तत्प्रामाण्यावधारणमन्तरेण प्रेक्षावतां प्रवर्तनमनुचितमिति तस्य प्रामाण्यनिश्चयोऽवश्यकर्त्तव्यः, तत्र परत एव वेदस्य प्रामाण्यमिति वक्ष्यामः ।'–न्यायमं० पृ० १५५ । २ “सर्वविज्ञानविषयमिदं तावत्प्रतीक्ष्यताम् । प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः किं परतोऽथवा ॥"-मी० श्लो० चो० श्लो० ३३ । “प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा सर्वविज्ञानगोचरम् । स्वतो वा परतो वेति प्रथमं प्रविविच्यताम् ।"न्यायमं० पृ० १४६ । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना न्याय-वैशेषिक दोनोंको परतः, सांख्य दोनोंको स्वतः, मीमांसक' प्रामाण्यको तो स्वत: और अप्रामाण्यको परतः तथा बौद्ध दोनोंको किंचित् स्वतः और दोनोंको ही किंचित् परतः वर्णित करते हैं। जैनदर्शनमें अभ्यास और अनभ्यासदशामें उत्पत्ति तो दोनोंकी परतः और ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः तथा अनभ्यासदशामें परत: मानी गई है। धर्मभूषणने भी प्रमाणताकी उत्पत्ति परसे ही और निश्चय (ज्ञप्ति) अभ्यस्तविषयमें स्वतः एवं अनभ्यस्त विषयमें परतः बतलाया है। ७. प्रमाणके भेद दार्शनिकरूपसे प्रमाणके भेदोंको गिनानेवाली सबसे पुरानी परम्परा कौन है ? और किसकी है ? इसका स्पष्ट निर्देश तो उपलब्ध दार्शनिक साहित्यमें नहीं मिलता है; किन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रमाण के स्पष्टतया चार भेद गिनानेवाले न्यायसूत्रकार गौतमसे भी पहले प्रमाणके अनेक भेदोंकी मान्यता रही है। क्योंकि उन्होंने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इन चारका स्पष्टतया उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणताका निरसन किया है तथा शब्दमें ऐतिह्यका और । १ "द्वमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान्'–न्यायमं० पृ० १६० । कन्दली० पृ० २२० । २ “प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।" -सर्वदर्श० पृ० २७६ । ३ "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ॥"-मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४७ । ४ "उभयमपि एतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति..."तत्त्वसं० पं० का० ३१२३ । ५ ' तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च"-परीक्षामु०१-१३ । “प्रामाण्यं तु स्वत: सिद्धमभ्यासात परतोऽन्यथा ॥"प्रमाणप० पृ० ६३ । ६ “प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि ।"न्यायसू०१-१-३ । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका अनुमानमें शेष तीनको अन्तर्भाव हो जानेका कथन किया है। प्रशस्तपादने भी अपने वैशेषिकदर्शनानुसार प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो ही प्रमाणोंका समर्थन करते हुए उल्लिखित प्रमाणोंका इन्हींमें अन्तर्भाव प्रदर्शित किया है। प्रसिद्धिके आधार पर इतना और कहा जा सकता है कि आठ प्रमाणकी मान्यतः सम्भवतः पौराणिकोंकी है। कुछ भी हो, प्रमाणको अनेकभेदरूप प्रारम्भसे ही माना जा रहा है और प्रत्येक दर्शनकारने कमसे कम प्रमाण माननेका प्रयत्न किया है तथा शेष प्रमाणोंको उसी अपनी स्वीकृत प्रमाणसंख्यामें ही अन्तर्भाव करनेका समर्थन किया है। यही कारण है कि सात, छह, पांच, चार, तीन, दो और एक प्रमाणवादी दार्शनिक जगतमें आविर्भूत हुए हैं। एक ऐसाभी मत रहा जो सात प्रमाण मानता था। छह प्रमाण माननेवाले जैमिनी अथवा भाट्ट, पांच प्रमाण माननेवाले प्राभाकर, चार प्रमाण कहनेवाले नैयायिक, तीन प्रमाण माननेवाले सांख्य, दो प्रमाण स्वीकृत करनेवाले वैशेषिक और बौद्ध तथा एक प्रमाण माननेवाले चार्वाक तो आज भी दर्शन शास्त्रकी चर्चाके विषय बने हुए हैं। जैनदर्शनके सामने भी यह प्रश्न था कि वह कितने प्रमाण मानता है ? यद्यपि मत्यादि पाँच ज्ञानोंको सम्यग्ज्ञान या,प्रमाण माननेकी परंपरा अति सुप्राचीनकालसे ही आगमोंमें निबद्ध और मौखिक रूपसे सुरक्षित चली आ रही थी, पर जैनेतरोंके लिए वह अलौकिक जैसी प्रतीत होती थी- उसका दर्शनान्तरीय प्रमाणनिरुपण से मेल नहीं खाता था। इस १ "न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात् ।"-न्यायसू० २-२-१ । “शब्द ऐतिह्यानर्थान्तरभावादनुमानाऽर्थापत्तिसम्भवाभावानान्तरभावाच्चाप्रतिषेधः ।"-न्यायसू० २-२-२। २ देखो, प्रशस्तपादभाष्य पृ० १०६-१११ । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पठन का उत्तर सर्वप्रथम' दार्शनिकरूपसे सम्भवतः प्रथम शताब्दिमें हए तत्त्वार्थसूत्रकार प्रा० उमास्वातिने दिया है। उन्होंने कहा कि सम्यज्ञान प्रमाण है और वह मूलमें दो ही भेदरूप है :-१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । आ० उमास्वातिका यह मौलिक प्रमाणद्वय विभाग इतना सुविचारपूर्वक और कौशल्यपूर्ण हुअा है कि प्रमाणोंका आनन्त्य भी इन्हीं दोमें समा जाता है। इनसे अतिरिक्त पृथक् तृतीय प्रमाण माननेकी बिल्कुल आवश्यकता नहीं रहती है। जबकि वैशेषिक और बौद्धोंके प्रत्यक्ष तथा अनुमानरूप द्विविध प्रमाणविभागमें अनेक कटिनाइयाँ आती हैं । उन्होंने अति संक्षेपमें, मति, स्मृति, संज्ञा (प्रत्यभिज्ञान), चिन्ता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमान) इनको भी प्रमाणान्तर होनेका संकेत करके और उन्हें मतिज्ञान कह कर 'नाद्ये परोक्षम्' सूत्रके द्वारा परोक्षप्रमाणमें ही अन्तर्भूत कर लिया है। प्रा० उमास्वातिने इस प्रकार प्रमाणद्वयका विभाग करके उत्तरवर्ती जैनताकिकोंके लिए प्रशस्त और १ यद्यपि श्वेताम्बरीय स्थानाङ्ग और भगवतीमें भी प्रत्यक्ष-परोक्षरूप प्रमाणद्वयका विभाग निर्दिष्ट है, पर उसे श्रद्धेय पं० सुखलालजी नियुक्तिकार भद्रबाहुके बादका मानते हैं, जिनका समय विक्रमकी छठी शताब्दि है। देखो, प्रमाणमी० भा० टि० पृ० २० । और भद्रबाहुके समयके लिये देखो, श्वे० मुनि विद्वान् श्रीचतुरविजयजीका 'श्रीभद्रबाहु' शीर्षक लेख 'अनेकान्त' वर्ष ३ कि० १२ तथा 'क्या नियुक्तिकार भद्रवाहु और स्वामी समन्तभद्र एक हैं?' शीर्षक मेरा लेख, 'अनेकान्त' वर्ष ६ कि० १०-११ पृ० ३३८ । २ "तत्प्रमाणे” “अाद्ये परोक्षम्"-"प्रत्यक्षमन्यत्' -तत्त्वार्थसू० १-१०, ११, १२ । ३ “मतिः स्मृतिः संज्ञाचिन्ताभिनिबोध इत्यनर्थान्तरम्”–तत्त्वार्थसू० १-१४ । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाण प्रत्यक्ष परोक्ष सांव्यवहारिक १ । २ १ पारमार्थिक । २ स्मृति प्रत्यभि. तर्क अनुमान आगम १ २ ३ २ । १ इन्द्रियप्रत्यक्ष अनिन्द्रियप्रत्यक्ष सकल विकल एक. सादृ. वैसाद.यादि । अंगबा. अंगप्र. न्याय-दीपिका स्प. रास. घ्रा. चा.श्रा. अवन४ केवल अवधि मनःपर्यय स्वार्थ परार्थ अ.४ अ.४ अ.४ अ.४.४ बहु.१२ । । । । । ४४१२=४८ ब.१२ब.१२ब.१२ब.१२ब.१२ ४८-+४+४+४+४८ =२४०+४८ (व्यंजनावग्रहके)=२८८ इन्द्रियप्र० ४८ अनि० प्र० ३३६ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना'. ८. प्रत्यक्ष का लक्षण दार्शनिक जगतमें प्रत्यक्षका लक्षण अनेक प्रकारका उपलब्ध होता है । नैयायिक और वैशेषिक सामान्यतया इन्द्रिय और अर्थके सन्निकर्षको प्रत्यक्ष कहते हैं। सांख्य श्रोत्रादि इन्द्रियों की वृत्तिको और मीमांसक इन्द्रियोंका आत्माके साथ सम्बन्ध होनेपर उत्पन्न होनेवाली बुद्धि (ज्ञान) को प्रत्यक्ष मानते हैं । बौद्ध दर्शनमें तीन मान्यतायें हैं :-१ वसुबन्धुकी, २ दिग्नागकी और ३ धर्मकीति की। वसुबन्धुने अर्थजन्य निर्विकल्पक बाधको, दिग्नागने नामजात्यादिरूप कल्पनासे रहित निर्विकल्प ज्ञानको और धर्मकीत्तिने निर्विकल्पक तथा अभ्रान्त ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। सामान्यतया निर्विकल्पकको सभी बौद्ध ताकिकोंने प्रत्यक्ष स्वीकार किया है। दर्शनान्तरों में और भी कितने ही प्रत्यक्ष-लक्षण किये गये हैं। पर वे सब इस संक्षिप्त स्थानपर प्रस्तुत नहीं किये जा सकते हैं । जैनदर्शनमें सबसे पहले सिद्धसेन (न्यायावतारकार) ने प्रत्यक्षका लक्षण किया है। उन्होंने अपरोक्षरूपसे अर्थको ग्रहण करनेवाले ज्ञानको प्रत्यक्ष कहा है। इस लक्षणमें अन्योन्याश्रय नामका दोष होता है । क्योंकि प्रत्यक्ष का लक्षण परोक्षघटित है और परोक्षका लक्षण १ "इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्”–न्यायसूत्र० १-१-४ । २ "तत्सम्प्रयोगे पुरुषस्येन्द्रियाणां बुद्धिजन्म तत् प्रत्यक्षम्"-जैमिनि० १-१-४। ३ "अर्थादिज्ञानं प्रत्यक्षम्"-प्रमाणस० पृ० ३२। ४ "प्रत्यक्ष कल्पनापोढं नामजात्याद्यसंयुत्तम् ।” प्रमाणसमु० १-३। ५ "कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम्" -न्यायविन्दु० पृ० ११ । ६ "अपरोक्षतयाऽर्थस्य ग्राहक ज्ञानमीदृशम् । प्रत्यक्षमितरद् ज्ञेयं परोक्षं गृहणेक्षया।" न्यायाव० का० ४ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ न्याय-दीपिका (प्रत्यक्षभिन्नत्व) प्रत्यक्षघटित है। अकलङ्कदेवने प्रत्यक्षका ऐसा लक्षण बनाया जिससे वह दोष नहीं रहा। उन्होंने कहा कि ज्ञान विशद हैस्पष्ट है वह प्रत्यक्ष है। यह लक्षण अपने आपमें स्पष्ट तो है ही, साथमें बहुत ही संक्षिप्त और अव्याप्ति, अतिव्याप्ति आदि दोषोंसे पूर्णतः रहित भी है। सूक्ष्मप्रज्ञ अकलङ्कका यह अकलङ्क लक्षण जैनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित और व्यापक हुआ कि दोनों ही सम्प्रदायोंके श्वेताम्बर और दिगम्बर विद्वानोंने बड़े आदरभावसे अपनाया है। जहाँ तक मालूम है फिर दूसरे किसी जैनतार्किकको प्रत्यक्षका अन्य लक्षण बनाना आवश्यक नहीं हुआ और यदि किसीने बनाया भी हो तो उसकी उतनी न तो प्रतिष्ठा हुई है और न उसे उतना अपनाया ही गया है। अकलङ्कदेवने अपने प्रत्यक्ष लक्षणमें उपात्त वैशद्यका' भी खुलासा कर दिया है । उन्होंने अनुमादिककी अपेक्षा विशेष प्रतिभास होनेको वैशद्य कहा है। आ० धर्मभूषणने भी अकलङ्कप्रतिष्ठित इन प्रत्यक्ष और वैशद्यके लक्षणोंको अपनाया है और उनके सूत्रात्मक कथनको और अधिक स्फुटित किया है। ६. अर्थ और आलोककी कारणता बौद्ध ज्ञानके प्रति अर्थ और आलोकको कारण मानते हैं। उन्होंने चार प्रत्ययों (कारणों) से सम्पूर्ण ज्ञानों (स्वसंवेदनादि) की उत्पत्ति वणित की है। वे प्रत्यय ये हैं :-१ समनन्तरप्रत्यय, २ आधिपत्यप्रत्यय, ३ आलम्बनप्रत्यय और ४ सहकारिप्रत्यय । पूर्वज्ञान उत्तरज्ञानकी १ “प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानम्" -लघीय० का० ३। प्रत्यलक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा।"-न्यायवि० का० ३ । २ "अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशचं मतं बुद्धेरवैशद्य मतः परम् ।।"-लघीय० का०४ । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उत्पत्तिमें कारण होता है इसलिए वह समनन्तर प्रत्यय कहलाता है । चक्षुरादिक इन्द्रियां आधिपत्य प्रत्यय कही जाती हैं। अर्थ (विषय) आलम्वन प्रत्यय कहा जाता है और आलोक आदि सहकारि प्रत्यय हैं । इस तरह बौद्धोंने इन्द्रियोंके अलावा अर्थ और आलोकको भी कारण स्वीकार किया है । अर्थकी कारणता पर तो यहाँ तक जोर दिया है कि ज्ञान यदि अर्थसे उत्पन्न न हो तो वह अर्थको विषयभी नहीं कर सकता है । यद्यपि नैयायिक आदिने भी अर्थको ज्ञानका कारण माना है पर उन्होंने उतना जोर नहीं दिया। इसका कारण यह है कि नैयायिक आदि ज्ञानके प्रति सीधा कारण सन्निकर्षको मानते हैं । अर्थ तो सन्निकर्ष द्वारा कारण होता है। अतएव जैन तार्किकोंने नैयायिक आदिके अर्थकारणतावाद पर उतना विचार नहीं किया जितना कि बौद्धोंके अर्थालोककारणतावाद पर किया है। एक बात और है, बौद्धोंने अर्थजन्यत्व, अर्थाकारता और अर्थाध्यवसाय इन तीनको ज्ञानप्रामाण्यके प्रति प्रयोजक बतलाया है और प्रतिकर्मव्यवस्था भी ज्ञानके अर्थजन्य होनेमें ही की है। अतः आवरणक्षयोपशमको ही प्रत्येक ज्ञानके प्रति कारण मानने वाले जैनोंके लिए यह उचित और आवश्यक था कि वे बौद्धोंके इस मन्तव्य पर पूर्ण विचार करें और उनके अर्थालोककारणत्वफ्र सबलताके साथ चर्चा चलाएं तथा जैनदृष्टिसे विषय-विषयीके प्रतिनियमनकी व्यवस्थाका प्रयोजक कारण स्थिर करें। कहा जा सकता है कि इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम सूक्ष्म दृष्टि अकलङ्कदेवने अपनी सफल लेखनी चलाई है और अर्थालोककारणताका सयुक्तिक निरसन किया है। तथा स्वावरण क्षयोपशमको विषय-विषयीका प्रतिनियामक बता कर ज्ञानप्रामाण्यका प्रयोजक संवाद (अर्थाव्यभिचार) को बताया है। उन्होंने १ "नाकरणं विषयः" इति वचनात् । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३० न्याय - दीपिका संक्षेप में कह दिया कि 'ज्ञान अर्थसे उत्पन्न नहीं होता; क्योंकि ज्ञान तो 'यह अर्थ है' यही जानता है 'अर्थसे मैं उत्पन्न हुआ इस बातको वह नहीं जानता । यदि जानता होता तो किसीको विवाद नहीं होना चाहिए था। जैसे घट और कुम्हारको कार्यकारणभावमें किसीको विवाद नहीं है । दूसरी बात यह है कि अर्थ तो विषय (ज्ञेय) है वह कारण कैसे हो सकता है ? कारण तो इन्द्रिय और मन हैं। तीसरे, अर्थके रहने पर भी विपरीत ज्ञान देखा जाता है और अर्थाभाव में भी केशोण्डुकादि ज्ञान हो जाता है । इसी प्रकार आलोकभी ज्ञानके प्रति कारण नहीं है, क्योंकि आलोकाभावमें उल्लू प्रादिको ज्ञान होता है और आलोकसद्भावमें संशयादि ज्ञान देखे जाते हैं । अतः अर्थादिक ज्ञानके कारण नहीं हैं । किन्तु ग्रावरणक्षयोपशमापेक्ष इन्द्रिय और मन ही ज्ञानके कारण है ।' इसके साथ ही उन्होंने अर्थजन्यत्व आदिको ज्ञानकी प्रमातामें अप्रयोजक बतलाते हुए कहा है कि ' तदुत्पत्ति, ताद्रूप्य और १ " प्रयमर्थ इति ज्ञानं विद्यान्नोत्पत्तिमर्थतः । अन्यथा न विवादः स्यात् कुलालादिघटादिवत् ।। " - लघी० ५३ । “अर्थस्य तदकारणत्वात् । तस्य इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तत्वात् ग्रर्थस्य विषयत्वात् । " - लघी० स्वी० का० ५२ । "यथास्वं कर्मक्षयोपशमापेक्षिणी करणमनसी निमित्तं विज्ञानस्य न बहिरर्थादयः । नाननुकृतान्वयव्यतिरेक कारणं नाकारणं विषयः' इति बालिशगीतम् तामसखगकुलानां तमसि सति रूपदर्शनमावरण विच्छेदात्, तदविच्छेदात् ग्रालोके सत्यपि संशयादिज्ञानसम्भवात् । काचाद्युपहतेन्द्रि याणां शंखादौ पीताद्याकारज्ञानोत्पत्तेः मुमूर्षाणां यथासम्भवमर्थे सत्यपि विपरीतप्रतिपत्तिसद्भावात् नार्थादयः कारणं ज्ञानस्येति । " - लघी० ५७ । १ “ न तज्जन्म न ताद्रूप्यं न तद्व्यवसितिः सह । प्रत्येकं वा भजन्तीह प्रामाण्यं प्रति हेतुनाम् ।। नार्थः कारणं विज्ञानस्य कार्यकालमप्राप्य निवृत्तेः श्रतीततमवत् : न ज्ञानं Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना तदध्यवसाय ये तीनों मिलकर अथवा प्रत्येक भी प्रमाणतामें कारण नहीं हैं। क्योंकि अर्थ ज्ञानक्षणको प्राप्त न होकर पहले ही नष्ट हो जाता है और ज्ञान अर्थक अभावमें ही होता है, उसके रहते हुए नहीं होता, इसलिए तदुत्पत्ति ज्ञान-प्रामाण्य में प्रयोजक नहीं है। ज्ञान अमूर्त है, इसलिए उसमें प्राकार सम्भव नहीं है । मूर्तिक दर्पणादिमें ही आकार देखा जाता है । अत: तदाकारता भी नहीं बनती है। ज्ञान में अर्थ नहीं और न अर्थ ज्ञानात्मक है जिससे ज्ञानके प्रतिभासमान होने पर अर्थका भी प्रतिभास हो जाय । अतः तदध्यवसायभी उत्पन्न नहीं होता । जब ये तीनों बनते ही नहीं तब वे प्रामाण्यके प्रति कारण कैसे हो सकते हैं ? अर्थात् नहीं हो सकते हैं। अतएव जिस प्रकार अर्थ अपने कारणोंसे होता है उसी प्रकार ज्ञान भी अपने (इन्द्रिय-क्षयोपशमादि) कारणों से होता है । इसलिए संवाद (अर्थव्यभिचार) को ही ज्ञानप्रामाण्यका कारण मानना सङ्गत और उचित है ।' अकलङ्कदेवका यह सयुक्तिक निरूपण ही उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दि, विद्यानन्द, प्रभाचन्द आदि सभी जैन नैयायिकोंके लिए आधार हुआ है। धर्मभूषणने भी इसी पूर्वपरम्पराका अनुसरण करके बौद्धोंके अर्थालोककारण वादकी सुन्दर समालोचना की है। तत्कार्यं तदभाव एव भावात्, तद्भावे चाऽभावात् भविष्य नार्थसारूप्यभृद्विज्ञानम्, अमूर्त्तत्वात् । मूर्ती एव हि दर्पणादयः मूर्तमुखादिप्रतिबिम्बधारिणो दृष्टाः, नामूर्तं मूर्तप्रतिबिम्बभृत्, अमूतं च ज्ञानम्, मूर्तिधर्माभावात् । न हि ज्ञानेऽर्थोऽस्ति तदात्मको वा येन तस्मिन् प्रतिभासमाने प्रतिभासेत शब्दवत् । ततः तदध्यवसायो न स्यात । कथमेतदविद्यमानं त्रितयं ज्ञानप्रामाण्यं प्रत्युपकारकं स्यात् अलक्षण त्वेन ?" लघीय० स्वो० का० ५८ । १ "स्वहेतुजनितोऽप्यर्थः परिच्छेद्यः स्वतो यथा । तथा ज्ञानं स्वहेतूत्थं परिच्छेदात्मकं स्वतः ।।-लघीय०का० ५६ । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ न्याय - दीपिका १०. सन्निकर्ष जैसा कि पहले कहा जा चुका है कि नैयायिक और वैशेषिक सग्निकर्षको प्रत्यक्षका स्वरूप मानते हैं। पर वह निर्दोष नहीं है। प्रथम तो, वह अज्ञानरूप है और इसलिए वह अज्ञाननिवृत्तिरूप प्रमिति के प्रति करणप्रमाण ही नही बन सकता है तब वह प्रत्यक्षका स्वरूप कैसे हो सकता हैं ? दूसरे, सन्निकर्षको प्रत्यक्षका लक्षण माननेमें अव्याप्ति नामका दोष आता है; क्योंकि चक्षुरिन्द्रिय विना सन्नकर्ष के ही रूपादिका ज्ञान कराती है । यहाँ यह कहना भी ठीक नहीं है कि चक्षुरिन्द्रिय अर्थको प्राप्त करके रूपज्ञान कराती है । कारण, चक्षुरिन्द्रिय दूर स्थित होकर ही पदार्थज्ञान कराती हुई प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे प्रतीत होती है । तीसरे प्राप्तमें प्रत्यक्षज्ञान के प्रभावका प्रसङ्ग आता है, क्योंकि प्राप्तके इन्द्रिय या इन्द्रियार्थ - सन्निकर्षपूर्वक ज्ञान नहीं होता । अन्यथा सर्वज्ञता नहीं बन सकती है । कारण, सूक्ष्मादि पदार्थोंमें इन्द्रियार्थसन्निकर्ष सम्भव नहीं है । अतः सन्निकर्ष व्याप्त होने तथा अज्ञानात्मक होनेसे प्रत्यक्षका लक्षण नहीं हो सकता है । ११. सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और अनिन्द्रिय जन्य ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष माना गया है । सांव्यवहारिक उसे इसलिए कहते हैं कि लोकमें दूसरे दर्शनकार इन्द्रिय और मन सापेक्ष ज्ञानको प्रत्यक्ष कहते हैं। बास्तवमें तो जो ज्ञान परनिरपेक्ष एवं आत्ममात्र सापेक्ष तथा पूर्ण निर्मल है वही ज्ञान प्रत्यक्ष है | अतः लोकव्यवहारको समन्वय करने की दृष्टिसे अक्षजन्य ज्ञानको भी प्रत्यक्ष कहने में कोई अनौचित्य नहीं है । सिद्धान्तकी भाषामें तो उसे १ सर्वार्थसि० १ २ । तथा न्यायविनश्चय का० १६७ । २ "सांव्यवहारिकं इन्द्रियानिन्द्रियप्रत्यक्षम् - लघी० स्वो० का ० ४ । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना .३३ परोक्ष ही कहा गया है। जैनदर्शन में संव्याहारिक प्रत्यक्षके जो मतिज्ञानरूप है, भेद और प्रभेद सब मिलकर ३३६ बताये गए हैं । जिन्हें एक नक्शेके द्वारा पहले बता दिया गया है । १२. मुख्य प्रत्यक्ष - दार्शनिक जगतमें प्रायः सभीने एक ऐसे प्रत्यक्षको स्वीकार किया है, जो लौकिक प्रत्यक्षसे भिन्न है और जिसे अलौकिक प्रत्यक्ष', योगिप्रत्यक्ष' या योगिज्ञानके नामसे कहा गया है । यद्यपि किसी किसीने इस प्रत्यक्षमें मनकी अपेक्षा भी वर्णित की है तथापि योगजधर्मका प्रामुख्य होनेके कारण उसे ग्रलौकिक ही कहा गया है। कुछ ही हो, यह अवश्य है कि आत्मामें एक अतीन्द्रिय ज्ञान भी सम्भव है । जैनदर्शन में ऐसे ही आत्ममात्र सापेक्ष साक्षात्मक प्रतीन्द्रिय ज्ञानको मुख्य प्रत्यक्ष या पारमार्थिक प्रत्यक्ष माना गया है और जिस प्रकार दूसरे दर्शनोंमें अलौकिक प्रत्यक्षके भी परिचित्तज्ञान, तारक, कैवल्य या युक्त, युञ्जान आदिरूपसे भेद पाये जाते हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें भी विकल, सकल अथवा अवधि, मनः पर्वय और केवलज्ञान रूपसे मुख्यप्रत्यक्षके भी भेद वर्णित किये गये हैं । विशेष यह कि नैयायिक और वैशेषिक प्रत्यक्षज्ञानको अतीन्द्रिय मानकर भी उसका अस्तित्व केवल नित्यज्ञानाधिकरण ईश्वरमें ही बतलाते हैं। पर जैनदर्शन प्रत्येक आत्मामें उसका सम्भव प्रतिपादन करता है और उसे विशिष्ट ग्रात्मशुद्धिसे पैदा होनेवाला बतलाता है । ग्रा० धर्मभूषणने भी अनेक युक्तियों के साथ ऐसे ज्ञानका उपपादन एवं समर्थन किया है । १२. सर्वज्ञता भारतीय दर्शनशास्त्रोंमें सर्वज्ञतापर बहुत ही व्यापक और विस्तृत १ “एवं प्रत्यक्षं लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधम् ।"- सिद्धान्तमु० पृ० ४७ । २ “भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिप्रत्यक्षम् ।" - न्यायविन्दु पृ० २० | Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका विचार किया गया है । चार्वाक और मीमांसक ये दो ही दर्शन ऐसे है जो सर्वज्ञता का निषेध करते हैं। शेष सभी न्याय-वैशेषिक, योग-सांख्य, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन सर्वज्ञताका स्पष्ट विधान करते हैं । चार्वाक इन्द्रियगोचर, भौतिक पदार्थोंका ही अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उनके मतमें परलोक, पुण्यपाप आदि अतीन्द्रिय पदार्थ नहीं हैं। भूतचैतन्यके अलावा कोई नित्य अतीन्द्रिय आत्मा भी नहीं है । अत: चार्वाक दर्शनमें अतीन्द्रियार्थदर्शी सर्वज्ञ आत्माका सम्भव नहीं है। मीमांसक परलोक, पुण्य-पाप, नित्य आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंको मानते अवश्य हैं पर उनका कहना है कि धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थो का ज्ञान वेदके द्वारा ही हो सकता है । पुरुष तो रागादिदोषोंसे युक्त हैं । चूकि रागादिदोष स्वाभाविक हैं और इसलिए वे आत्मा से कभी नहीं छूट सकते हैं । अतएव रागादि दोषोंके सर्वदा बने रहनेके कारण प्रत्यक्षसे धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है। न्याय-वैशेषिक ईश्वरमें सर्वज्ञत्व माननेके अतिरिक्त दूसरे योगी आत्माओं में भी स्वीकार करते हैं । परन्तु उनका वह सर्वज्ञत्व मोक्ष-प्राप्तिके बाद नष्ट हो जाता है । क्योंकि वह योगजन्य होनेसे अनित्य है । हाँ, ईश्वरका सर्वज्ञत्व नित्य एवं शाश्वत है। प्रायः यही मान्यता सांख्य, योग और वेदान्तकी है। इतनी विशेषता है कि वे अात्मामें सर्वज्ञत्व न मानकर बुद्धितत्त्वमें ही सर्वज्ञत्व मानते हैं जो मुक्त अवस्था में छूट जाता है । १ "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम्, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।"-शावरभा० १-१-२ । २ “अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनः...।"-प्रशस्तपा० भा० पृ० १८७ । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३५ मीमांसक दर्शन' जहाँ केवल धर्मज्ञताका निषेध करता है और सर्वज्ञताके मानमें इष्टापत्ति प्रकट करता है वहाँ बौद्धदर्शनमें सर्वज्ञताको अनपयोगी बतलाकर धर्मज्ञता को प्रश्रय दिया गया है । यद्यपि शान्तरक्षित प्रभृति बौद्ध ताकिकों ने सर्वज्ञताका भी साधन किया है। पर वह गौण है । मुख्यतया बौद्धदर्शन धर्मज्ञवादी ही प्रतीत होता है। जैनदर्शनमें आगमग्रन्थों और तर्क ग्रन्थोंमें सर्वत्र धर्मज्ञ और सर्वज्ञ दोनोंका ही प्रारम्भसे प्रतिपादन एवं प्रबल समर्थन किया गया है । षट्खण्डागमसूत्रोंमें" सर्वज्ञत्व और धर्मज्ञत्वका स्पष्टतः समर्थन मिलता है। आ० कुन्दकुन्दने प्रवचनसारमें विस्तृतरूपसे सर्वज्ञताकी सिद्धि की है। उत्तरवर्ती समन्तभद्र, सिद्धसेन, अकलङ्क, हरिभद्र, विद्यानन्द प्रभृति जैन तार्किकोंने धर्मज्ञत्वको सर्वज्ञत्वके भीतरही गभित करके सर्वज्ञत्व पर महत्वपूर्ण प्रकरण लिखे हैं। समन्तभद्र की प्राप्तमीमांसाको तो अकलङ्कदेवने" 'सर्वज्ञविशेषपरीक्षा' कहा है। कुछ भी हो, सर्वज्ञताके १ "धर्मज्ञत्वनिषेधस्तु केवलोऽत्रोपयुज्यते सर्वमन्यद्विजानंस्तु पुरुषः केन वार्यते ।।"-तत्त्वसं० का० ३१२८ । तत्त्वसंग्रहमें यह श्लोक कुमारिलके नामसे उद्धृत हुआ है। २ "तस्मादनुष्ठानगतं ज्ञानमस्य विचार्यताम् । कीटसंख्यापरिज्ञाने तस्य नः क्वोपयुज्यते ॥ हेयोपादेयतत्त्वस्य साभ्युपायस्य वेदकः । यः प्रमाणमसाविष्ठो न तु सर्वस्य वेदकः ॥"प्रमाणवा० २-३१, ३२ । ३ "स्वर्गापवर्गसम्प्राप्तिहेतुज्ञोऽस्तीति गम्यते । साक्षान्न केवलं किन्तु सर्वज्ञोऽपि प्रतीयते ।"-तत्त्वसं० का ३३०६ । ४ “मुख्यं हि तावत् स्वर्गमोक्षसम्प्रापकहेतुज्ञत्वसाधनं भगवतोऽस्माभिः क्रियते । यत्पुनः अशेषार्थपरिज्ञातृत्वसाधनमस्य तत् प्रासङ्गिकम् ।” तत्त्वसं० पं० पृ० ८३३ । ५ “सव्वलोए सव्वजीवे सव्व भागे सव्वं समं जाणदि पस्सदि...''- खट्खं० पयडिअणु० सू० ७८ । ६ देखो, प्रवचन-- सार, ज्ञानमीमीमांसा । ७ देखो, अष्टश० का० ११४ । Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका सम्बन्धमें जितना अधिक चिन्तन जैनदर्शनने किया है और भारतीयदर्शनशास्त्रको तत्सम्बन्धी विपुल साहित्यसे समृद्ध बनाया है उतना अन्य दूसरे दर्शनने शायद ही किया हो। अकलङ्कदेवने सर्वज्ञत्वके साधनमें अनेक युक्तियोंके साथ एक युक्ति बड़े मार्केकी कही है वह यह कि सर्वज्ञके सद्भावमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है इसलिए उसका अस्तित्व होना ही चाहिए। उन्होंने जो भी बाधक हो सकते हैं उन सबका सुन्दर ढङ्गसे निराकरण भी किया है । एक दूसरी महत्वपूर्ण युक्ति उन्होंने यह दी है कि 'आत्मा 'ज्ञ'—ज्ञाता है और उसके ज्ञानस्वभावको ढकनेवाले आवरण दूर होते हैं। अतः प्रावरणोंके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फ़िर ज्ञेय—जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछभी नहीं । अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकलार्थपरिज्ञान होना अवश्यम्भावी है ? इन्द्रियाँ और मन सकलार्थपरिज्ञानमें साधक न होकर बाधक हैं वे जहाँ नहीं हैं और आवरणोंका पूर्णतः अभाव है वहाँ त्रैकालिक और त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थोंका साक्षात् ज्ञान होनेमें कोई बाधा नहीं है। वीरसेनस्वामी और प्राचार्य विद्यानन्दने भी इसी आशयके एक महत्त्वपूर्ण श्लोकको उद्धृत करके ज्ञस्वभाव आत्मामें सर्वज्ञताका उपपादन किया है जो वस्तुतः अकेला ही सर्वज्ञताको सिद्ध करनेमें समर्थ एवं पर्याप्त है। इस तरह हम देखते हैं कि जैनपरम्परामें १ देखो, अष्टश० का० ३ । २ "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थावलोकनम् ॥"-न्यायवि० का० ४६५। तथा देखो, का० ३६१, ३६२ । ३ देखो, जयधवला प्र० भा० पृ० ६६ । ४ देखो, अष्टस० पृ० ५० । ५ ‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाह्य ऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥" Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना व्य और निरुपाधिक एवं निरवधि सर्वज्ञता मानी गई है । वह सांख्यमोगादिकी तरह जीवन्मुक्त अवस्था तक ही सीमित नहीं रहती, मुक्त अवस्थामें भी अन्तकाल तक बनी रहती है । क्योंकि ज्ञान प्रात्माका मूलभूत निजी स्वभाव है और सर्वज्ञता आवरणाभावमें उसीका विकसित पूर्णरूप है। इतरदर्शनोंकी तरह वह न तो मात्र प्रात्ममनः सयोगादि जन्य है और न योगजविभूति ही है। आ०धर्मभूषणने स्वामी समन्तभद्रकी सरणिसे सर्वजताका साधन किया है और उन्हींकी सर्वज्ञत्वसाधिका कारिकाओंका स्फुट विवरण किया है। प्रथम तो सामान्य सर्वज्ञका समर्थन किया है। पीछे 'निर्दोषत्व' हेतुके द्वारा अरहन्त जिनको ही सर्वज्ञ सिद्ध किया है। १४. परोक्ष जैनदर्शनमें प्रमाणका दूसरा भेद परोक्ष है। यद्यपि बौद्धोंने' परोक्ष शब्दका प्रयोग अनुमानके विषयभूत अर्थमें किया है। क्योंकि उन्होंने दो प्रकारका अर्थ माना है.-१ प्रत्यक्ष और परोक्ष । प्रत्यक्ष तो साक्षात्क्रियमाण है और परोक्ष उससे भिन्न है तथापि जैन परम्परामें 'परोक्ष' शब्दका प्रयोग प्राचीन समयसे परोक्ष ज्ञानमें ही होता चला आ रहा है। दूसरे प्रत्यक्षता और परोक्षता वस्तुतः ज्ञाननिष्ठ धर्म है । ज्ञानको प्रत्यक्ष एवं परोक्ष होने से अर्थभी उपचारसे प्रत्यक्ष और परोक्ष कहा जाता है। यह अवश्य है कि जैन दर्शनके इस 'परोक्ष' शब्द का व्यवहार और उसकी परिभाषा दूसरों को कुछ विलक्षण-सी मालूम होगी परन्तु १ "द्विविधो अर्थः प्रत्यक्ष: परोक्षश्च । तत्र प्रत्यक्षविषयः साक्षात्क्रियमाणः प्रत्यक्षः । परोक्षः पुनरसाक्षात्पररिच्छिद्यमानोऽनुमेयत्वादनुमानविषयः ।"-प्रमाणप० पृ० ६५ । न्यायवा० तात्प० पृ० १५८ । २ "जं परदो विण्णाणं तं तु परोक्ख त्ति भणिदमत्थेसु । जदि केवलेण णादं हवदि हि जीवेण पच्चक्खं ॥"-प्रवचनसागा० ५८ । Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ न्याय-दीपिका वह इतनी सुनिश्चित और वस्तुस्पर्शी है कि शब्द को तोड़े मरोड़े बिन ही सहज में आर्थिक बोध हो जाता है । परोक्षकी जैनदर्शनसम्मत परिभाष विलक्षण इसलिए मालूम होगी कि लोकमें इन्द्रियव्यापार रहित ज्ञानके परोक्ष कहा गया है । जबकि जैनदर्शनमें इन्द्रियादि परकी अपेक्षासे होने वाले ज्ञानको परोक्ष कहा है। वास्तवमें 'परोक्ष' शब्दसे भी यही अर्थ ध्वनित होता है। इस परिभाषाको ही केन्द्र बनाकर अकलङ्कदेवने परोक्ष की एक दूसरी परिभाषा रची है। उन्होंने अविशद ज्ञानको परोक्ष कहा है । जान पड़ता है कि अकलङ्कदेवका यह प्रयत्न सिद्धान्त मतका लोकके साथ समन्वय करनेकी दृष्टिसे हुआ है। बादमें तो अकलङ्कदेवकृत यह परोक्ष-लक्षण जैनपरम्परामें इतना प्रतिष्ठित हुआ है कि उत्तरवर्ती सभी जैन तार्किकोंने उसे अपनाया है। यद्यपि सबकी दृष्टि परोक्षको परापेक्ष मानने की ही रही है। आ. कुन्दकुन्दने परोक्षका लक्षण तो कर दिया था, परन्तु उसके भेदोंका कोई निर्देश नहीं किया था। उनके पश्चाद्वर्ती प्रा० उमास्वातिने परोक्षके भेदोंको भी स्पष्टतया सूचित कर दिया और मतिज्ञान तथा श्रुतज्ञान ये दो भेद बतलाये । मतिज्ञानके भी मति, स्मृति, संज्ञा, चिन्ता और अभिनिबोध ये पर्याय नाम कहे। चूंकि मति मतिज्ञान सामान्यरूप है । अतः मतिज्ञानके चार भेद हैं। इनमें श्रुतको और मिला देनेपर परोक्षके फलतः उन्होंने पाँचभी भेद सूचित कर दिए और पूज्यपादने उपमानादिक के प्रमाणान्तरत्वका निराकरण करते हुए उन्हें परोक्षमें ही अन्तर्भाव हो जानेका संकेत कर दिया। लेकिन परोक्षके पाँच भेदोंकी सिलसिलेवार १ देखो, सर्वार्थसि० १-१२ । २ सर्वार्थसि० १-११। ३ "ज्ञानस्यैव विशदनि सिनः प्रत्यक्षत्वम्, इतरस्य परोक्षता ।"-लघीय० स्वो० का० ३ । ४ परीक्षामु० २-१, प्रमाणपरी० पृ० ६६ । ५ प्रवचनसा०१-५८ । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३६ व्यवस्था सर्वप्रथम अकलङ्कदेवने की है । इसके बाद माणिक्यनन्दि आदि ने परोक्षके पाँच ही भेद वर्णित किये हैं । हाँ, आचार्य वादिराजने' अवश्य परोक्षके अनुमान और आगम ये दो भेद बतलाये हैं । पर इन दो भेदोंकी परम्परा उन्हीं तक सीमित रही है, आगे नहीं चली, क्योंकि उत्तरकालीन किसीभी ग्रन्थकारने उसे नहीं अपनाया। कुछ भी हो, स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम इन्हें सभीने निर्विवाद परोक्ष-प्रमाण स्वीकार किया है। अभिनव धर्मभूषणने भी इन्हीं पाँच भेदोंका कथन किया है। १५. स्मृति यद्यपि अनुभूतार्थविषयक ज्ञानके रूपमें स्मृतिको सभी दर्शनोंने स्वीकार किया है । पर जैनदर्शनके सिवाय उसे प्रमाण कोई नहीं मानते हैं। साधारणतया सबका कहना यही है कि स्मृति अनुभव के द्वारा गृहीत विषयमें ही प्रवृत्त होती है, इसलिए गृहीतग्राही होनेसे वह प्रमाण नहीं है। न्याय-वैशेषिक, मीमांसक और बौद्ध सबका प्रायः यही अभिप्राय है। जैनदार्शनिकोंका कहना है कि प्रामाण्यमें प्रयोजक अविसंवाद है। जिस प्रकार प्रत्यक्षसे जाने हुए अर्थमें विसंवाद न होनेसे वह प्रमाण माना जाता हैं उसी प्रकार स्मृति से जाने हुए अर्थमें भी कोई विसंवाद नहीं होता और जहाँ होता है वह स्मृत्याभास है । अतः स्मृति प्रमाणही होना १ लघीय० का० १० और प्रमाणसं० का २ । २ “तच्च (परोक्षं) द्विविधमनुमानमागमश्चेति । अनुमानमपि द्विविधं गौणमुख्यविकल्पात् । तत्र गौणमनुमानं त्रिविधम्, स्मरणम्, प्रत्यभिज्ञा, तर्कश्चेति.....।"-प्रमानि० पृ० ३३ । ३ “सर्वे प्रमाणादयोऽनधिगतमर्थं समान्यतः प्रकारतो वाऽधिगमयन्ति, स्मृतिः पुनर्न पूर्वानुभवमर्यादामतिकामति, तद्विषया तदूनविषया वा न तु तदधिकविषया, सोऽयं वृत्त्यन्तराद्विशेषः स्मृतेरिति विमृशति ।”—तत्त्ववंशा० १-११। ४ देखो, प्रमाणपरीक्षा पृ० ६६ । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका चाहिए । दूसरे, विस्मरणादिरूप समारोपका वह व्यवच्छेद करती है इसलिए भी वह प्रमाण है। तीसरे अनुभव तो वर्तमान अर्थको ही विषय करता है और स्मृति अतीत अर्थको विषय करती है। अतः स्मृति कथंचिद् अगृहीतग्राही होनेसे प्रमाण ही है। १६. प्रत्यभिज्ञान पूर्वोत्तरविवर्त्तवर्ती वस्तुको विषय करनेवाले प्रत्ययको प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। प्रत्यवमर्श, संज्ञा और प्रत्यभिज्ञा ये उसीके पर्याय नाम हैं। बौद्ध चूंकि क्षणिकवादी हैं इसलिए वे उसे प्रमाण नहीं मानते हैं । उनका कहना है कि पूर्व और उत्तर अवस्थाोंमें रहनेवाला जब कोई एकत्व है नहीं तब उसको विषय करनेवाला एक ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः 'यह वही है' यह ज्ञान सादृश्यविषयक है । अथवा प्रत्यक्ष और स्मरणरूप दो ज्ञानोंका समुच्चय है । 'यह' अंशको विषय करनेबाला ज्ञान तो प्रत्यक्ष हैं और 'वह' अंशको ग्रहण करनेवाला ज्ञानस्मरण है, इस तरह वे दो ज्ञान हैं । अतएव यदि एकत्वविषयक ज्ञान हो भी तो वह भ्रान्त हैअप्रमाण है। इसके विपरीत न्याय-वैशेषिक और मीमांसक जो कि स्थिरवादी हैं, एकत्व विषयक ज्ञानको प्रत्यभिज्ञानात्मक प्रमाण तो मानते हैं। पर वे उस ज्ञानको स्वतंत्र प्रमाण न मानकर प्रत्यक्ष ज्ञमाण स्वीकार करते हैं । जैनदर्शनका मन्तव्य है कि प्रत्यभिज्ञान न तो बौद्धोंकी तरह अप्रमाण १ "ननु च तदेवेत्यतीतप्रतिभासस्य स्मरणरूपत्वात्, इदमिति संवेदनस्य प्रत्यक्षरूपत्वात् संवेदनद्वितयमेवैतत् तादृशमेवेदमिति स्मरणप्रत्यक्षसंवेदनद्वितयवत् । ततो नैकंज्ञानं प्रत्यभिज्ञाख्यं प्रतिपद्यमानं सम्भवति ।" -प्रमाणप० पृ० ६६ । २ देखो, न्यायदी० पृ० ५८का फुटनोट। ३ “स्मरणप्रत्यक्षजन्यस्य पूर्वोत्तरविवर्त्तवत्यैकद्रव्यविषयस्य प्रत्यभिज्ञानस्यैकस्य सुप्रतीतत्वात् । न हि तदिति स्मरणं तथाविधद्रव्यव्यवसायात्मकं तस्यातीत Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४१ है और न न्याय-वैशेषिक आदिकी तरह प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। किन्तु वह प्रत्यक्ष और स्मरणके अनन्तर उत्पन्न होनेवाला और पूर्व तथा उत्तर पर्यायोंमें रहनेवाले वास्तविक एकत्व, सादृश्य आदिको विषय करनेवाला स्वतन्त्र ही परोक्ष-प्रमाणविशेष है। प्रत्यक्ष तो मात्र वर्तमान पर्यायको ही विषय करता है और स्मरण अतीत पर्यायको ग्रहण करता है। अतः उभयपर्यायवर्ती एकत्वादिकको जाननेवाला संकलनात्मक (जोड़रूप) प्रत्यभिज्ञान नामका जुदा ही प्रमाण है। यदि पूर्वोत्तरपर्यायव्यापी एकत्वका अपलाप किया जावेगा तो कहीं भी एकत्वका प्रत्यय न होनेसे एक सन्तानकी भी सिद्धि नहीं हो सकेगी। अतः प्रत्यभिज्ञानका विषय एकत्वादिक वास्तविक होनेसे वह प्रमाण ही है-अप्रमाण नहीं। और विराट् प्रतिभास न होनेसे उसे प्रत्यक्ष प्रमाण भी नहीं कहा जासकता है । किन्तु स्पष्ट प्रतीति होनेसे वह परोक्ष प्रमाणका प्रत्यभिज्ञान नामक भेदविशेष है । इसके एकत्वप्रत्यभिज्ञान, सादृश्यप्रत्यभिज्ञान, वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञान आदि अनेक भेद जैनदर्शनमें माने गये हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि आचार्य विद्यानन्दने' प्रत्यभिज्ञानके एकत्वप्रत्यभिज्ञान और सादृश्यप्रत्यभिज्ञान ये दो ही भेद बतलाये हैं। लेकिन दूसरे सभी जैनताकिकोंने उल्लिखित अनेक-दोसे अधिक भेद गिनाये हैं। इसे एक मान्यताभेद ही कहा जासकता है । धर्मभूषणने एकत्व, सादृश्य और वैसादृश्य विषयक तीन प्रत्यभिज्ञानोंको उदाहरणद्वारा कण्ठोक्त कहा है विवर्त्तमात्रगोचरत्वात् । नापीदमिति संवेदनं तस्य वर्तमानविवर्त्तमात्रविषयत्वात् । ताभ्यामुपजन्यं तु संकलनज्ञानं तदनुवादपुरस्सरं द्रव्यं प्रत्यवमृशत् ततोऽन्यदेव प्रत्यभिज्ञानमेकत्वविषयं तदपह्नवे क्वचिदेकान्वयाव्यवस्थानात् सन्तानकत्वसिद्धिरपि न स्यात् ।'-प्रमाणप० पृ० ६६, ७० । १ देखो, तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६०, अष्टस० पृ० २७६, प्रमाणपरी० पृ०६६। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका और यथाप्रतीति अन्य प्रत्यभिज्ञानोंको भी स्वयं जाननेकी सूचना की है। इससे यह मालूम होता है कि प्रत्यभिज्ञानोंकी दो या तीन आदि कोई निश्चित संख्या नहीं है। अकलङ्कदेव', माणिक्यनन्दि और लघु अनन्तवीर्यने प्रत्यभिज्ञानके बहुभेदोंकी अोर स्पष्टतया संकेत भी किया है । इस उपर्युक्त विवेचनसे यही फलित होता है कि दर्शन और स्मरणसे उत्पन्न होनेवाले जितने भी संकलनात्मक ज्ञान हों वे सब प्रत्यभिज्ञान प्रमाण समझना चाहिए। भले ही वे एकसे अधिक क्यों न हों, उन सबका प्रत्यभिज्ञानमें ही अन्तर्भाव हो जाता है। यही कारण है कि नैयायिक जिस सादृश्यविषयक ज्ञानको उपमान नामका अलग प्रमाण मानता है वह जैनदर्शनमें सादृश्यप्रत्यभिज्ञान है । उपमानको पृथक् प्रमाण माननेकी हालतमें वैसादृश्य, प्रतियोगित्व, दूरत्व आदि विषयक ज्ञानों को भी उसे पृथक् प्रमाण माननेका आपादन किया गया है । परन्तु जैनदर्शनमें इन सबको संकलनात्मक होनेसे प्रत्यभिज्ञानमें ही अन्तर्भाव कर लिया है । १७. तर्क सामान्यतया विचारविशेषका नाम तर्क है । उसे चिन्ता, ऊहा,ऊहापोह आदि भी कहते हैं । इसे प्रायः सभी दर्शनकारोंने माना है। न्यायदर्शनमें वह एक पदार्थान्तररूपसे स्वीकृत किया गया है। तर्कके प्रामाण्य और अप्रामाण्यके सम्बन्धमें न्यायदर्शनका' अभिमत है कि तर्क न तो प्रमाणचतु १ देखो, लघीय० का २१ । २ परीक्षामु० ३-५-१० । ३ प्रमेयर० ३-१० । ४ “उपमानं प्रसिद्धार्थसाधर्म्यात् साध्यसाधनम् । यदि किञ्चविशेषेण प्रमाणान्तरमिष्यते । प्रमितोऽर्थः प्रमाणानां बहुभेदः प्रसज्यते।”—न्यायवि० का० ४७२ । तथा का० १६,२० । ५ देखो न्यायसूत्र १-१-१ । ६ “तर्को न प्रमाणसंग्रहीतो न प्रमाणान्तरमपरिच्छेदकत्वात् ...... प्रमाणविषयविभागात्तु Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ष्टयके अन्तर्गत कोई प्रमाण है और न प्रमाणान्तर है क्योंकि वह अपरिच्छेदक है। किन्तु परिच्छेदकप्रमाणोंके विषयका विभाजक–युक्तायुक्त विचारक होनेसे उनका यह अनुग्राहक–सहकारी है। तात्पर्य यह कि प्रमाणसे जाना हुआ पदार्थ तर्कके द्वारा पुष्ट होता है। प्रमाण जहाँ पदार्थोंको जानते हैं वहाँ तर्क उनका पोषण करके उनकी प्रमाणताके स्थितीकारणमें सहायता पहुँचाता है। हम देखते हैं कि न्यायदर्शनमें तर्कको प्रारम्भमें सभी प्रमाणोंके सहायकरूपसे माना गया है। किन्तु पीछे उदयनाचार्य वर्द्धमानोपाध्याय आदि पिछले नैयायिकोंने विशेषतः अनुमान प्रमाणमें ही व्यभिचारशङ्काके निवर्त्तक और परम्परया व्याप्ति प्रमाणानामनुग्राहकः । यः प्रमाणानां विषयस्तं विभजते । कः पुनर्विभागः? युक्तायुक्तविचारः । इदं युक्तमिदमयुक्तिमिति । यत्तत्र युक्तं भवति तदनजानाति नत्ववधारयति । अनवधारणात् प्रमाणान्तरं न भवति ।"न्यायवा० पृ० १७ । का १ "तर्क: प्रमाणसहायो न प्रमाणमिति प्रत्यक्षसिद्धत्वात् ।”—न्यायवा० ता० परिशु०पृ० ३२७ । “तथापि तर्कस्यारोपिताव्यवस्थितसत्त्वौपाधिकसत्वविषयत्वेनानिश्चायकतया प्रमारूपत्वाभावात् । तथा च संशयात्प्रच्युतो निर्णयं चाप्राप्तः तर्क इत्याहुः अन्यत्राचार्याः । संशयो हि दोलायितानेककोटिकः । तर्कस्तु नियतां कोटिमालम्ब्यते ।" तात्पर्यपरिशु० पृ० ३२६ । २ "अनभिमतकोटावनिष्टप्रसंगेनानियतकोटिसंशयादिनिवृत्तिरूपोऽनुमितिविषयविभागस्तर्केण क्रियते ।" तात्पर्यपरिशु० पृ० ३२५ । "तर्कः शङ्कावधिर्मतः । . यावदाशङ्क तर्कप्रवृत्तेः । तेन हि वर्त्तमानेसोपाधिकोटौ तदायत्तव्यभिचारकौटौ वाऽनिष्टमुपनयतेक्छा विच्छिद्यते । विच्छिन्नविपक्षेच्छश्च प्रमाता भूयोदर्शनोपलब्धसाहचर्यं लिङ्गमनाकुलोऽधितिष्ठति ।”—न्यायकु० ३-७ । ३ “तर्कसहकृतभूयोदर्शनजसंस्कारसचिवप्रमाणेन व्याप्ति ह्यते ।"-न्यायकुसु० प्रकाश० ३-७ । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दोपिका ग्राहकरूपसे तर्कको स्वीकार किया है । तथा व्याप्तिमें ही तर्कका उपयोग बतलाया है। विश्वनाथ पञ्चाननका कहना है कि हेतुमें अप्रयोजकत्वादिकी शङ्काकी निवृत्तिके लिए तर्क अपेक्षित होता है। जहाँ हेतुमें अप्रयोजकत्वादिकी शङ्का नहीं होती है वहाँ तर्क अपेक्षित भी नहीं होता है। तर्कसंग्रहकार अन्नम्भट्टने तो तर्कको अयथार्थानुभव (अप्रमाण) ही बतलाया है । इस तरह न्यायदर्शनमें तर्ककी मान्यता अनेक तरह की है पर उसे प्रमाणरूपमें किसीने भी स्वीकार नहीं किया । बौद्ध तर्कको व्याप्तिग्राहक मानते तो हैं पर उसे प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्प कहकर अप्रमाण स्वीकार करते हैं । मीमांसक ऊहके नामसे तर्कको प्रमाण मानते हैं । जैनतार्किक प्रारम्भसे ही तर्कके प्रामाण्यको स्वीकार करते हैं और उसे सकलदेशकाल व्यापी अविनाभावरूप व्याप्तिका ग्राहक मानते आये हैं । व्याप्तिग्रहण न तो प्रत्यक्षसे हो सकता है; क्योंकि वह सम्बद्ध और वर्तमान अर्थको ही ग्रहण करता है और व्याप्ति सर्वदेशकालके उपसंहारपूर्वक होती है। अनुमानसे भी व्याप्तिका ग्रहण सम्भव नहीं है । कारण, प्रकृत अनुमानसे भी व्याप्तिका ग्रहण माननेपर अन्योन्याश्रय और अन्य अनुमानसे माननेपर अनवस्था दोष पाता है। अतः व्याप्तिके ग्रहण करनेके लिए तर्कको प्रमाण मानना आवश्यक एवं अनिवार्य है । धर्मभूषणने भी तर्कको पृथक् प्रमाण सयुक्तिक सिद्ध किया है । १८. अनुमान यद्यपि चार्वाकके सिबाय न्याय-वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक और बौद्ध सभी दर्शनोंने अनुमानको प्रमाण माना है और उसके स्वार्थानुमान १ “तत्र का व्याप्तिर्यत्र तर्कोपयोगः । न तावत् स्वाभाविकत्वम् ..।" -न्यायकुसु० प्रकाश० ३-७। २ देखो, न्यायसूत्रवृत्ति १-१-४० । ३ देखो, तर्कसं० पृ० १५६ । ४ “त्रिविधश्च ऊहः मंत्रसामसंस्कारविषयः।" - शावरभा० ६-१-१।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४५ तथा परार्थानुमान ये दो भेद भी प्राय: सभीने स्वीकार किये हैं । पर लक्षणके विषयमें सबकी एकवाक्यता नहीं है। नैयायिक' पाँचरूप देतसे अनुमेयके ज्ञानको अथवा अनुमितिकरण (लिङ्गपरामर्श ) को अनुमान मानते हैं। वैशेषिक, सांख्य' और बौद्ध त्रिरूप लिङ्गसे अनमेयार्थज्ञानको अनुमान कहते हैं। मीमांसक (प्रभाकरके अनुगामी) नियतसम्वन्धकदर्शनादि चतुष्टय कारणों (चतुर्लक्षण लिङ्ग) से साध्यज्ञान को अनुमान वर्णित करते हैं। जैन दार्शनिक अविनाभावरूप एकलक्षण साधनसे साध्य के ज्ञानको अनमान प्रतिपादन करते हैं। वास्तवमें जिस हेतुका साध्यके साथ अविनाभाव (विना–साध्यके अभावमें-अ-साधनका न-भाव-होना अर्थात् अन्यथानुपपत्ति निश्चित है उस साध्याविनाभावि हेतुसे जो साध्यका ज्ञान होता है वही अनुमान है । यदि हेतु साध्यके साथ अविनाभूत नहीं है १ देखो, न्यायवा० १-१-५। २ “लिङ्गदर्शनात् सञ्जायमानं लैङ्गिकम् । लिंगं पुन:—यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते तदभावे च नास्त्येव तल्लिगमनुमापकम् ॥.... यदनुमेयेनार्थेन देशविशेष कालविशेष वा सहचरितमनुमेयधर्मान्विते चान्यत्र सर्वस्मिन्नेकदेशे वा प्रसिद्धमनुमेयविपरीते च सर्वस्मिन् प्रमाणतोऽसदेव तदप्रसिद्धार्थस्यानुमापकं लिंङ्ग भवतीति ।”—प्रशस्तपा० भा० पृ० १०० । ३ माठवृ० का० ५। ४ "अनुमानं लिंगादर्थदर्शनम् लिङ्ग पुनस्त्रि रूपमुक्तम् । तस्माद्यदनुमेयेऽर्थे ज्ञानमुत्पद्यतेऽग्निरत्र अनित्यः शब्दः इति वा तदनुमानम् ।"न्यायप्र० पृ० ७ । ५ "ज्ञातसम्बन्धनियमस्यैकदेशस्य दर्शनात् । एक देशान्तरे बुद्धिरनुमानमबाधिते ॥ तस्मात्पूर्णमिदमनमानुकारणपरिगणनम्-नियतसम्बन्धैकदेशदर्शनं सम्बन्धनियमस्मरणं चाबाधकञ्चाबाधितविषयत्वं चेति ।”—प्रकरणपञ्जि० पृ० ६४, ७६ । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका तो वह साध्यका अनुमापक नहीं हो सकता है और यदि साध्यका अदि. नाभावी है तो नियमसे वह साध्यका ज्ञान करायेगा। अतएव जैन ताकिकोंने त्रिरूप या पञ्चरूप आदि लिंग से जनित ज्ञानको अनुमान ने कह कर अविनाभावी साधनसे साध्यके ज्ञानको अनुमानका लक्षण कहा है। प्राचार्य धर्मभूषणने भी अनुमानका यही लक्षण बतलाया है और उसका सयुक्तिक विशद व्याख्यान किया है। १६. अवयवमान्यता परार्थानुमान प्रयोगके अवयवोंके सम्बन्धमें उल्लेखयोग्य और महत्व की चर्चा है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे जानने योग्य है । दार्शनिक परम्परा में सबसे पहिले गौतमने' फरार्थानुमान प्रयोगके पाँच अवयवोंका निर्देश किया है और प्रत्येकका स्पष्ट कथन किया है। वे अवयय ये हैं-१ प्रतिज्ञा २ हेतु, ३ उदाहरण, ४ उपनय और निगमन । उनके टीकाकार वात्स्यायनने नैयायिकोंकी दशावयवमान्यताका भी उल्लेख किया है। इससे कम या और अधिक अवयवोंकी मान्यताका उन्होंने कोई संकेत नहीं किया। इससे मालूम होता है कि वात्स्यायनके सामने सिर्फ दो मान्यताएँ थीं, एक पञ्चावयवकी, जो स्वयं सूत्रकारकी है और दूसरी दशावयवोंकी, जो दूसरे १ “लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् । लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ।।"-लघीय० का० १२ । “साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानम् ..।"-न्यायवि० का० १७० । “साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् ।”—परीक्षामु० ३-१४ । प्रमाणपरी० पृ० ७० । २ "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः ।"-न्यायसुत्र १-१-३२ ३ "दशावयवानित्येके नैयायिका वाक्ये संचक्षते-जिज्ञासा संशयः शक्यप्राप्तिः प्रयोजनं संशयव्युदास इति।"-न्यायवात्स्या० भा० १-१-३२ । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ४७ किन्हीं नैयायिकोंकी है। आगे चलकर हमें उद्योतकरके न्यायवात्तिकमें खण्डन सहित तीन अवयवोंकी मान्यताका निर्देश मिलता है। यह मान्यता बौद्ध विद्वान् दिग्नागकी है। क्योंकि वात्स्यायनके बाद उद्योतकरके पहले दिग्नागने ही अधिकसे अधिक तीन अवयव स्वीकृत किये हैं। सांख्यविद्वान् माठर यदि दिग्ना गके पूर्ववर्ती हैं तो तीन अवयवोंकी मान्यता माठरकी समझना चाहिए। वाचस्पति मिश्रने दो अवयव (हेतु और दष्टान्त) की मान्यताका उल्लेख किया है और तीन अवयवनिषेधकी तरह उसका निषेध किया है। यह द्वयवयवकी मान्यता बौद्ध तार्किक धर्मकीत्तिकी है, क्योंकि हेतुरूप एक अवयवके अतिरिक्त हेतु और दृष्टान्त दो अवयवोंको भी धर्मकीत्तिने ही स्वीकार किया है तथा दिग्नागसम्मत पक्ष, हेतु और दृष्टान्तमें से पक्ष (प्रतिज्ञा) को निकाल दिया है। अतः वाचस्पति मिश्रने धर्मकीत्तिकी ही द्वयवयव मान्यताका उल्लेख किया है और उसे प्रतिज्ञाको माननेके लिए संकेत किया है। यद्यपि जैनविद्वा १ "अपरे त्र्यवयवमिति XXXव्यवयवमपि वाक्यं यथा न भवति तथोपनयनिगमनयोरर्थान्तरभावं वर्णयन्तो वक्ष्यामः ।"-न्यायवा० पृ.१०७, १०८ । २ “पक्षहेतुदृष्टान्तवचनैहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते इति........ एतान्येव त्रयोऽवयवा इत्येच्यन्ते ।"-न्यायप्र० पृ० १,२ । ३ “पक्षहेतुदृष्टान्ता इति त्र्यवयवम् ।”- माठरवृ० का० ५ । ४ "त्र्यवयवग्रहणमुपलक्षणार्थम्, द्वयवयवमपीत्यपि दृष्टव्यम् ... ... ...त्र्यवयवमपीत्यपिना द्वयवयवप्रतिषेध समुच्चिनोतिउपनयनिगमनयोरित्यत्र प्रतिज्ञाया अपीति दृष्टव्यम् ।”—न्यायवा० तत्प० पृ० २६६, २६७ । ५ "अथवा तस्यैव साधनस्य यन्नाङ्गं प्रतिज्ञोपनयनिगमनादि..।"-वादन्या० पृ० ६१ । “तद्भावहेतुभावौ हि दृष्टान्ते तदवेदिनः । ख्याप्येते विदुषां वाच्यो हेतुरेव हि केवल: ।"-प्रमाणवा० १-१२८ । Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ न्याय-दीपिका नोंने भी दो अवयवोंको माना है पर उनकी मान्यता उपर्युक्त मान्यतासे भिन्न है । ऊपरकी मान्यतामें तो हेतु और दृष्टान्त ये दो अवयव हैं। और जैन विद्वानों की मान्यतामें प्रतिज्ञा और हेतु ये दो अवयव हैं । जैन ताकिकोंने प्रतिज्ञाका समर्थन' और दृष्टान्तका निराकरण किया है। तीन अवयवोंकी मान्यता सांख्यों (माठर का० ५) और बौद्धोंके अलावा मीमांसकों (प्रकरणपं० पृ० ८३-८५) की भी है। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि लघु अनन्तवीर्य (प्रमेयर० ३-३६) और उनके अनुसः हेमचन्द्र (प्रमाणमी० २-१-८) मीमांसकोंकी चार अवयव मान्यताका भी उल्लेख करते हैं यदि इनका उल्लेख ठीक है तो कहना होगा कि चार अवयवोंकों मानने वाले भी कोई मीमांसक रहे हैं। इस तरह हम देखते हैं कि दशावयव और पञ्चावयवकी मान्यता नैयायिकों की है। चार और तीन अवयवोंकी मीमांसकों, तीन अवयवोंकी सांख्यों, तीन, दो और एक अवयवोंकी बौद्धों और दो अवयवोंकी मान्यता जैनोंकी है । वादिदेवसूरिने धर्मकीत्तिकी तरह विद्वान्के लिए अकेले हेतुका भी प्रयोग बतलाया है । पर अन्य सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर विद्वानोंने परार्थानुमानप्रयोग के कमसे कम दो अवयव अवश्य स्वीकृत किये हैं। प्रतिपाद्योंकेअनुरोधसे तो तीन, चार और पाँचभी अवयव माने हैं। प्रा० धर्मभूषणने पूर्व परम्परानुसार वादकथाकी अपेक्षा दो और वीतरागकथाकी अपेक्षा अधिक अवयवोंके भी प्रयोगका समर्थन किया हैं। १ “एतद्द्वयमेवानुमानांगं नोदाहरणम् ।”–परीक्षामु० ३-३७ । २ देखो, परीक्षामु० ३-३४ । ३ देखो, परीक्षामु ० ३-३८-४३ । ४ नियुक्तिकार भद्रबाहुने (दश० नि० गा० १३७) भी वशावयवोंका कथन किया है पर वे नैयायिकोंसे भिन्न हैं। ५ देखो, स्याद्वादरत्नाकर १० ५४८ । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ૪૨ २०. हेतुका लक्षण हेतुके लक्षण सम्बन्ध में दार्शनिकोंका भिन्न भिन्न मत है । वैशेषिक', सांख्य' और बौद्ध हेतुका त्रैरूप्य लक्षण मानते हैं । यद्यपि हेतुका त्रिरूप लक्षण अधिकांशतः बौद्धोंका ही प्रसिद्ध है, वैशेषिक और सांख्योंका नहीं । इसका कारण यह है कि त्रैरूप्यके विषय में जितना सूक्ष्म और विस्तृत विचार बौद्ध विद्वानोंने किया है तथा हेतुबिन्दु जैसे तद्विषयक स्वतन्त्र ग्रन्थों की रचना की है उतना वैशेषिक और सांख्य विद्वानोंने न तो विचार ही किया है और न कोई उस विषयके स्वतन्त्र ग्रंथ ही लिखे हैं। पर हेतुके त्रैरूप्यकी मान्यता वैशेषिक एवं सांख्योंकी भी है । और बोद्धों की अपेक्षा प्राचीन है । क्योंकि बौद्धोंकी वैरूप्यकी मान्यता तो वसुबन्धु और मुख्यतया दिग्नागसे ही प्रारम्भ हुई जान पड़ती है । किन्तु वैशेषिक और सांख्योंके त्रैरूप्यकी परम्परा बहुत पहलेसे चली आ रही है । प्रशस्तपादने' अपने प्रशस्तपादभाष्य ( पृ० १०० में काश्यप और ( कणाद ) कथित दो पद्योंको उद्धृत किया है, जिनमें पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और वह । १ देखो, प्रस्तावना पृ० ४५ का फुटनोट । २ सांख्यका० माठर वृ० ५ । ३ " हेतुस्त्रिरूपः । किं पुनस्त्रैरूप्यम् ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षे चासत्त्वमिति," - न्यायप्र० पृ० १ । यही वजह है कि तर्कग्रन्थोंमें बौद्धाभिमत ही त्रैरूप्य का विस्तृत खण्डन पाया जाता है और 'त्रिलक्षणकदर्थन' जैसे ग्रन्थ रचे गये हैं । ५ ये दिग्नाग (४२५A. D. ) के पूर्ववर्ती हैं और लगभग तीसरी चौथी शताब्दी इनका समय माना जाता है । ६ उद्योतकरने ‘काश्यपीयम्' शब्दों के साथ न्यायवार्तिक ( पृ० ६६ ) में कणादका संशयलक्षणवाला 'सामान्यप्रत्यक्षात्' आदि सूत्र उद्धृत किया है । इससे मालूम होता है कि काश्यप कणादका ही नामान्तर था, जो वैशेषिकदर्शनका प्रणेता एवं प्रवर्त्तक है । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० न्याय-दीपिका विपक्षव्यावृत्ति इन तीन रूपोंका स्पष्ट प्रतिपादन एवं समर्थन है और माठरने अपनी सांख्यकारिकावृत्तिमें उनका निर्देश किया है। कुछ भी हो, यह अवश्य है कि त्रिरूप लिङ्ग को वैशेषिक, सांख्य और बौद्ध तीनोंने स्वीकार किया है। नैयायिक पूर्वोक्त तीन रूपोंमें अबाधितविषयत्व और असत्प्रतिपक्षत्व इन दो रूपोंको और मिलाकर पाँचरूप हेतुका कथन करते हैं। यह त्रैरूप्य और पाँचरूप्यकी मान्यता अति प्रसिद्ध है और जिसका खण्डन मण्डन न्यायग्रन्थोंमें बहुलतया मिलता है। किन्तु इनके अलावा भी हेतुके द्विलक्षण, चतुर्लक्षण और षड्लक्षण एवं एकलक्षणकी मान्यताओंका उल्लेख तर्कग्रन्थों में पाया जाता है । इनमें चतुर्लक्षणकी मान्यता संभवतः मीमांसकोंकी मालूम होती है, जिसका निर्देश प्रसिद्ध मीमांसक विद्वान् प्रभाकरानुयायी शालिकानाथने किया है । उद्योतकर और वाचस्पति मिश्रके अभिप्रायानुसार पंचलक्षण की तरह द्विलक्षण, त्रिलक्षण और १ “गम्यतेऽनेनेति लिङ्गम् ; तच्च पञ्चलक्षणम्, कानि पुनः पञ्चलक्षणानि ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षधर्मत्वम्, विपक्षाद्व्यावृत्तिरवाधितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चेति ।..... एतैः पंचभिर्लक्षणैरुपपन्नं लिङ्गमनुमापकं भवति । -न्यायमं० पृ० १०१ । न्यायकलि० पृ० २ । न्यायवा० ता० पृ० १७१ । २ देखो, प्रस्तावना पृ० ४२ का फुटनोट । ३ “साध्ये व्यापकत्वम्, उदाहरणे चासम्भवः । एवं द्विलक्षणस्त्रिलक्षणश्च हेतुर्लभ्यते ।"-न्यायवा० पृ० ११६ । “च शब्दात् प्रत्यक्षागमाविरुद्धं चेत्येवं चतुर्लक्षणं पंचलक्षणमनुमानमिति ।”-न्यायवा० पृ० ४६ । ४ “एतदुक्तं भवति, अवाधितविषयमसत्प्रतिपक्षं पूर्ववदिति ध्रुव कृत्वा शेषवदित्येका विधा, सामान्यतोदृष्टमिति द्वितीया, शेषवत्सामान्यतोदृष्टमिति तृतीया, तदेवं त्रिविधमनुमानम् । तत्र चतुर्लक्षणं द्वयम् । एक पंचलक्षणमिति ।" -न्यायवा० ता० पृ० १७४ । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना बतलक्षणकी मान्यताएं नैयायिकोंकी ज्ञात होती हैं। यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि जयन्तभट्ट'ने पञ्चलक्षण हेतुका ही समर्थन किया है, उन्होंने अपञ्चलक्षणको हेतु नहीं माना। पिछले नैयायिक शङ्कर मिश्रने' देतकी गमकतामें जितने रूप प्रयोजक एवं उपयोगी हों उतने रूपोंको हेतुलक्षण स्वीकार किया है और इस तरह उन्होंने अन्वयव्यतिरेकी हेतुमें पांच और केक्लान्वयी तथा केवलव्यतिरेकी हेतुओंमें चार ही रूप गमकतोपयोगी बतलाये हैं। यहां एक खास बात और ध्यान देनेकी है वह यह कि जिस अविनाभावको जैनतार्किकोंने हेतुका लक्षण प्रतिपादन किया है, उसे जयन्तभट्ट और वाचस्पतिने पंच लक्षणोंमें समाप्त माना है। अर्थात् अविनाभावके द्वारा ही सर्व रूपोंके ग्रहण हो जाने पर जोर दिया है, पर वे अपनी पंचलक्षण या चार लक्षणवाली नैयायिक परम्पराके मोहका त्याग नहीं कर सके । इस तरह नैयायिकोंके यहाँ कोई एक निश्चित पक्ष १“केवलान्वयी हेतु स्त्येव अपञ्चलक्षणस्य हेतुत्वाभावात् । केवलव्यतिरेकी तु क्वचिद् विषयेऽन्वयव्यतिरेकमूलः प्रवर्तते नात्यन्तमन्वयबाह्यः।" -त्यायकलि० पृ० १० । २ “केवलान्वयिसाध्यको हेतुः केवलान्वयी । अस्य च पक्षसत्त्वसपक्षसत्वाबाधितासत्प्रतिपक्षितत्वानि चत्वारि रूपाणि गमकत्वौपयिकानि । अन्वयव्यतिरेकिणस्तु हेतोविपक्षासत्त्वेन सह पंच । केवलव्यतिरेकेणः सपक्षसत्वव्यतिरेकेण चत्वारि । तथा च यस्य हेतोर्यावन्ति रूपाणि गमकतौपयिकानि स हेतुः ।" -वैशेषि० उप० पृ० ६७ । ३ "एतेषु पंचलक्षणेषु अविनाभावः समाप्यते । अविनाभावो व्याप्तिनियमः प्रतिबन्धः साध्याविनाभावित्वमित्यर्थः ।"--न्यायकलि० पृ० २ । ४ “यद्यप्यविनाभावः पंचसु चतुर्पु वा रूपेषु लिङ्गस्य समाप्यते इत्यविनाभावेनैव सर्वाणि लिङ्गरूपाणि सगृह्यन्ते, तथापीह प्रसिद्धसच्छब्दाभ्यां द्वयोः सङ्ग्रहे गोवलीवर्दन्यायेन तत्परित्यज्य विपक्षव्यतिरेकासत्प्रतिक्षत्वाबाधितविषयत्वानि सङ्ग्रह्णाति ।”—न्यायवा० ता० पृ० १७८ । । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ न्याय-दीपिका रहा मालूम नहीं होता। हाँ, उनका पाँचरूप हेतुलक्षण अधिक एवं मुख्य प्रसिद्ध रहा और इसीलिये उसीका खण्डन दूसरे तार्किकोंने किया है। ___ बौद्ध विद्वान् धर्मकीर्तिने 'अपरे' शब्दोंके साथ, जिसका अर्चटने 'नैयायिक और मीमांसकों आदि' अर्थ किया है, हेतुकी पंचलक्षणोंके साथ ज्ञातत्त्वको मिलाकर षड्लक्षण मान्यता का भी उल्लेख किया है । यद्यपि यह षड्लक्षणवाली मान्यता न तो नैयायिकोंके यहाँ उपलब्ध होती है। और न मीमांसकों के यहाँ ही पाई जाती है फिर भी सम्भव है कि अर्च के सामने किसी नैयायिक या मीमांसक आदिका हेतुको षड्लक्षण माननेका पक्ष रहा हो और जिसका उल्लेख उन्होंने किया है। यह भी सम्भव है कि प्राचीन नैयायिकोंने जो ज्ञायमान लिङ्गको और भाट्टोंने ज्ञातिता। को अनुमितिमें कारण माना है और जिसकी आलोचना विश्वनाथ पंचा ननने की है उसीका उल्लेख अर्चटने किया हो । एकलक्षणकी मान्यता असन्दिग्धरूपसे जैन विद्वानोंकी है, जो अविनाभाव या अन्यथानुपपत्तिरूप है और अकलङ्कदेवके भी पहिलेसे चली आ रही है। उसका मूल सम्भवतः समन्तभद्रस्वामीके 'सधर्मेणैव साध्यस्य साधादविरोधितः' (आप्तमी० का० १०६) इस वाक्यके 'अविरोधत': १ "षड्लक्षणो हेतुरित्यपरे नैयायिकमीमांसकादयो मन्यन्ते । कानि पुनः षड्रूपाणि हेतोस्तैरिष्यन्ते इत्याह त्रीणि चैतानि पक्षधर्मान्वयव्यतिरेकाख्याणि, तथा अबाधितविषयत्वं चतुर्थ रूपम् तथा विवक्षितकसंख्यत्वं रूपान्तरं तथा ज्ञातत्वं च ज्ञानविषयत्वं च, नह्यज्ञातो हेतुः स्वसत्तामात्रेण गमको युक्त इति ।”– हेतुवि० पृ० ६८, हेतुवि० टी० पृ० २०५। २ "प्राचीनास्तु व्याप्यत्वेन ज्ञायमानं लिङ्गमनुमितिकरणमिति वदन्ति । तद्रूषयति अनुमायां ज्ञायमानं लिङ्ग तु करणं न हि ।" -सि० मु० पृ० ५० । “भाट्टानां मते ज्ञानमतीन्द्रियम् । ज्ञानजन्या ज्ञातता प्रत्यक्षा तया ज्ञानमनुमीयते ।"-सि० मु० पृ० ११६ । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पदमें सन्नहित है। अकलङ्कदेवने' उसका वैसा विवरण भी किया है । और विद्यानन्दने तो उसे स्पष्टतः हेतुलक्षणका ही प्रतिपादक कहा है। प्रकलङ्कके पहिले एक पात्रकेशरी या पात्रस्वामी नामके प्रसिद्ध जैनाचार्य भी हो गये हैं जिन्होंने त्रैरूप्यका कदर्थन करनेके लिए "त्रिलक्षणकदर्थन' नामक ग्रन्थ रचा है और हेतुका एकमात्र 'अन्यथानुपपन्नत्व' लक्षण स्थिर किया है। उनके उत्तरवर्ती सिद्धसेन' अकलङ्क, वीरसेन , कुमारनन्दि, विद्यानन्द, अनन्तवीर्य, प्रभाचन्द्र, वादिराज, वादिदेवसूरि और हेमचन्द्र आदि सभी जैनतार्किकोंने अन्यथानुपपन्नत्व (अविनाभाव) को ही हेतुका लक्षण होनेका सबलताके साथ समर्थन किया है । वस्तुतः अविनाभाव ही हेतुकी गमतामें प्रयोजक है । त्रैरूप्य या पाञ्चरूप्य तो गुरुभूत एवं अविनाभावका ही विस्तार हैं । इतना ही नहीं दोनों अव्यापक भी हैं। कृत्तिकोदयादि हेतु पक्षधर्म नहीं हैं फिर भी अविनाभाव रहनेसे गमक देखे जाते हैं। आ० धर्मभूषणने भी त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्यकी सोपपत्तिक पालोचना करके 'अन्यथानुपपन्नत्व' को ही हेतुलक्षण सिद्ध किया है और निम्न दो कारिकाओंके द्वारा अपने वक्तव्यको पुष्ट किया है : १ "सपक्षेणैव साध्यस्य साधादित्यनेन हेतोस्त्रलक्षण्यम्, अविरोधात् इत्यन्यथानुपपत्तिं च दर्शयता केवलस्य त्रिलक्षणस्यासाधनत्वमुक्तं तत्पुत्रत्वादिवत् । एकलक्षणस्य तु गमकत्वं “नित्यत्वैकान्तपक्षेऽपि विक्रिया नोपपद्यते” इति बहुलमन्यथानुपपत्तेरेव समाश्रयणात् । –अष्टश० आप्तमी० का० १०६ । २ "भगवन्तो हि हेतुलक्षणमेव प्रकाशयन्ति, स्याद्वादस्य प्रकाशितत्वात् ।”–अष्टस० पृ० २८६ । ३ सिद्धसेनने 'अन्यथानुपपन्नत्व' को 'अन्यथानुपपन्नत्वं हेतोर्लक्षणमीरितम्'-(न्यायवा०का० २१) शब्दों द्वारा दोहराया है और 'ईरितम्' शब्दका प्रयोग करके उसकी प्रसिद्धि एवं अनुसरण ख्यापित किया है । ४ देखो, धवला० पु० १३, पृ० २४६ । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।। अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः॥ इनमें पिछली कारिका आचार्य विद्यानन्दकी स्वोपज्ञ है और वह प्रमाणपरीक्षामें उपलब्ध है। परन्तु पहली कारिका किसकी है ? इस सम्बन्धमें यहाँ कुछ विचार किया जाता है। इसमें सन्देह नहीं कि यह कारिका त्रैरूप्य खण्डनके लिए रची गई है और वह बड़े महत्वकी है। विद्यानन्दने अपनी उपर्युक्त कारिका भी इसीके आधार पर पाँचरूप्यका खण्डन करनेके लिए बनाई है। इस कारिकाके कर्तृत्वसम्बन्धमें ग्रन्थकारोंका मतभेद है। सिद्धिविनिश्चयटीकाके कर्ता अनन्तवीर्यने उसका उद्गम सीमन्धरस्वामीसे बतलाया है। प्रभाचन्द्र और वादिराज' कहते हैं कि उक्त कारिका सीमन्धरस्वामीके समवशरणसे लाकर पद्मावतीदेवीने पात्रकेशरी अथवा पात्रस्वामीके लिए समर्पित की थी। विद्यानन्द उसे वात्तिककारकी कहते हैं । वादिदेवसूरि और शांतिरक्षित पात्रस्वामीकी प्रकट करते हैं । इस तरह इस कारिका के कर्तृत्वका अनिर्णय बहुत पुरातन है। देखना यह है कि उसका कर्ता है कौन ? उपर्युक्त सभी ग्रन्थकार ईसाकी आठवीं शताब्दीसे ११वीं शताब्दीके भीतर हैं और शान्तरक्षित (७०५-७६३. ई०) सबमें प्राचीन हैं। शान्तरक्षितने पात्रस्वामीके नामसे और भी कितनी ही कारिकाओं तथा पदवाक्यादिकोंका उल्लेख करके उनका आलोचन किया है। इससे वह निश्चितरूपसे मालूम हो १ सिद्धिविनि० टी० पृ० ३००० । २ देखो, गद्यकथाकोशगत पात्रकेशरीकी कथा । ३ न्यायवि० वि० २-१५४ पृ. १७७ । ४ तत्त्वार्थश्लो० पृ० २०४ । ५ स्या० रत्ना० पृ० ५२१ । ६ तत्त्वसं० पृ० ४०६ ।। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५५ 1 जाता है कि शान्तरक्षित के सामने पात्रस्वामीका कोई ग्रन्थ अवश्यही रहा है। जैनसाहित्यमें पात्रस्वामीकी दो रचनाएँ मानी जाती हैं-१ त्रिलक्षणकदर्थन और दूसरी पात्र केशरीस्तोत्र । इनमें दूसरी रचना तो उपलब्ध है, पर पहली रचना उपलब्ध नहीं है । केवल ग्रन्थान्तरों आदिमें उसके उल्लेख मिलते हैं । ' पात्र केशरीस्तोत्र' एक स्तोत्र ग्रन्थ है और उसमें प्राप्तस्तुतिके बहाने सिद्धान्तमतका प्रतिपादन है । इसमें पात्रस्वामीके नाम से शांतिरक्षितके द्वारा तत्त्वसंग्रहमें उद्धृत कारिकाएँ, पद, वाक्यादि कोई नहीं पाये जाते । अतः यही सम्भव है कि वे त्रिलक्षणकदर्थन के हों; क्योंकि प्रथम तो ग्रन्थका नाम ही यह बताता है कि उसमें त्रिलक्षणका कदर्थनखण्डन — किया गया है । दूसरे, पात्रस्वामीकी अन्य तीसरी आदि कोई रचना नहीं सूनी जाती, जिसके वे कारिकादि सम्भावनास्पद होते। तीसरे, अनन्तवीर्यकी चर्चासे मालूम होता है कि उस समय एक प्राचार्यपरम्परा ऐसी भी थी, जो 'अन्यथानुपपत्ति' वार्त्तिकको त्रिलक्षणकदर्थनका बतलाती थी । चौथे, वादिराजके' उल्लेख और श्रवणबेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्तिगत पात्र केशरी विषयक प्रशंसापद्य' से भी उक्त वार्तिकादि त्रिलक्षणकदर्थनके जान पड़ते हैं । यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि पात्रकेशरी मामके एक ही विद्वान् जैन साहित्यमें माने जाते हैं और जो दिग्नाग (४२५ ई०) के उत्तरवर्ती एवं अकलङ्कके पूर्वकालीन हैं । अकलङ्कने उक्त वार्त्तिकको न्यायविनिश्चय (का० २२३ के रूपमें ) में दिया है और सिद्धिविनिश्चयके 'हेतुलक्षणसिद्धि' नामके छठवें प्रस्तावके आरम्भमें उसे स्वामी का 'अमलालीढ' पद कहा है । अकलङ्कदेव शान्तरक्षितके समकालीन हैं । १ देखो, न्यायवि० वि० । २ " महिमा स पात्रकेशरिगुरोः परं भवति यस्य भक्त्यासीत् । पद्मावती सहाया त्रिलक्षणकदर्थनं कर्त्तुम् ॥” | ३ शान्तरक्षितका समय ७०५ से ७६२ और प्रकलङ्कदेवका समय ७२० से ७८० ई० माना जाता है । देखो, प्रकलङ्कग्र० की प्र० पृ० ३२ । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका और इसलिए यह कहा जा सकता है पात्रस्वामीकी जो रचना (त्रिलक्षा कदर्थन) शान्तरक्षितके सामने रही वह अकलङ्कदेवके भी सामने अवर रही होगी। अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि बौद्ध विद्वा शान्तरक्षितके लिए जो उक्त वात्तिकका कर्ता निन्तिरूपसे पात्रस्वाम विवक्षित हैं वही अकलङ्कदेवको 'स्वामी' पदसे अभिप्रेत हैं। इसलि स्वामी तथा 'अन्यथानुपपन्नत्व' पद (वात्तिक) का सहभाव और शान्ति रक्षितके सुपरिचित उल्लेख इस बातको माननेके लिए हमें सहायता कर हैं कि उपयुक्त पहली कारिका पात्रस्वामीकी ही होनी चाहिए। अकलब और शान्तरक्षितके उल्लेखोंके बाद विद्यानन्दका उल्लेख आता है । जिसके द्वारा उन्होंने उक्त वात्तिकको वात्र्तिकारका बतलाया है। यह वात्तिककार राजवात्तिककार अकलङ्कदेव मालूम नहीं होते'; क्योंकि उक्त वात्तिक (कारिका) राजवात्तिकमें नहीं है, न्यायविनिश्चयमें है। विद्यानन्दने राजवात्तिकके पदवाक्यादिको ही राजवात्तिककार (तत्त्वार्थवात्तिककार) के नामसे उद्धत किया है, न्यायविनिश्चय आदिके नहीं। अतः विद्यानन्द का 'वात्तिककार' पदसे अन्यथानुपपत्ति' वात्तिकके कर्ता वात्तिककारपात्रस्वामीही अभिप्रेत हैं। यद्यपि वात्तिककारसे न्यायविनिश्चयकार अकलङ्कदेवका ग्रहण किया जा सकता है, क्योंकि न्यायविनिश्चयमें वह वार्तिक मूलरूपमें उपलब्ध है, किन्तु विद्यानन्दने न्यायविनिश्चयके पदवाक्यादिको 'न्यायविनिश्चय' के नामसे अथवा 'तदुक्तमकलङ्कदेवैः' आदिरूपसे ही सर्वत्र उद्धृत किया है। अतः वात्तिककारसे पात्रस्वामी ही विद्यानन्दको विवक्षित जान पड़ते हैं। यह हो सकता है कि वे 'पात्रस्वामी' नामकी अपेक्षा वात्तिक और वात्तिककार नामसे अधिक परिचित होंगे, पर उनका अभिप्राय उसे राजवात्तिककारके कहनेका तो प्रतीत नहीं होता। १ कुछ विद्वान् वात्तिककारसे राजवात्तिककारका ग्रहण करते हैं। देखो, न्यायकुमु० प्र० प्र० पृ० ७६ और अकलङ्क० टि० पृ० १६४ । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना अब अनन्तवीर्य और प्रभाचन्द्र तथा वादिराजके उल्लेख पाते हैं । मो वे मान्यताभेद या प्राचार्यपरम्पराश्रुतिको लेकर हैं। उन्हें न तो मिथ्या जा सकता है और न विरुद्ध । हो सकता है कि पात्रस्वामीने अपने देव सीमन्धरस्वामीके स्मरणपूर्वक और पद्मावतीदेवीकी सहायतासे महत्त्वपूर्ण एवं विशिष्ट अमलालीढ–निर्दोषपद (वात्तिक) की रचना की होगी और इस तरहपर अनन्तवीर्य आदि प्राचार्योंने कर्तृत्व विषयक अपनी अपनी परिचितिके अनुसार उक्त उल्लेख किये हैं। यह कोई असम्बद्ध, काल्पनिक एवं अभिनव बात नहीं है । दिगम्बर परंपरा में ही नहीं श्वेताम्बर परम्परा, वैदिक और बौद्ध सभी भारतीय परम्पराओंमें है। समस्त द्वादशांग श्रुत, मनःपर्यय आदि ज्ञान, विभिन्न विभूतियां मंत्रसिद्धि, ग्रन्थसमाप्ति, सङ्कटनिवृत्ति आदि कार्य परमात्मस्मरण, आत्म-विशुद्धि, तपोविशेष, देवादिसाहाय्य आदि यथोचित कारणों से होते हुए माने गये हैं। अतः ऐसी बातोंके उल्लेखोंको बिना परीक्षाके एकदम अन्धभक्ति या काल्पनिक नहीं कहा जा सकता। श्वेताम्बर विद्वान् माननीय पं० सुखलालजीका यह लिखना कि “इसके (कारिकाके) प्रभाव के कायल अतार्किक भक्तोंने इसकी प्रतिष्ठा मनगढन्त ढङ्गसे बढ़ाई । और यहाँ तक वह बढ़ी कि खुद तर्कग्रन्थ लेखक आचार्यभी उस कल्पित ढङ्गके शिकार बने. इस कारिकाको सीमन्धरस्वामीके मुख में से अन्धभक्ति के कारण जन्म लेना पड़ा. 'इस कारिकाके सम्भवतः उद्भावक पात्रस्वामी दिगम्बर परम्पराके ही हैं; क्योंकि भक्तपूर्ण उन मनगढन्त कल्पनाओंकी सृष्टि केवल दिगम्बरीय परम्परा तकही सीमित है।” (प्रमाणमी० भा० पृ० ८४) केवल अपनी परम्पराका मोह और पक्षग्राहिता के अतिरिक्त कुछ नहीं है । उनकी इन पंक्तियों और विचारोंके सम्बन्धमें विशेष कर अन्तिम पंक्तिमें कुछ लिखा जा सकता है। इस संक्षिप्त स्थान पर हमें उनसे यही कहना है कि निष्पक्ष विचारके स्थान पर एक विद्वान्को निष्पक्ष विचार ही प्रकट करना चाहिए। दूसरोंको म्रममें डालना एवं Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका एवं स्वयं भ्रामक प्रवृत्ति करना ठीक नहीं है। २१ हेतु-भेद दार्शनिक परम्परामें सर्वप्रथम कणादने' हेतुके भेदोंको गिनाया है। उन्होंने हेतुके पाँच भेद प्रदर्शित किये हैं। किन्तु टीकाकार प्रशस्तपाद उन्हें निदर्शन मात्र मानते हैं 'पाँच ही हैं' ऐसा अवधारण नहीं बतलाते। इससे यह प्रतीत होता है कि वैशेषिक दर्शनमें हेतुके पाँचसे भी अधिक भेद स्वीकृत किये गये हैं। न्यायदर्शनके प्रवर्तक गौतमने और सांख्यकारिकाकार ईश्वरकृष्णने पूर्ववत्, शेषवत् तथा सामान्यतोदृष्ट ये तीन भेद कहे हैं । मीमांसक हेतुके कितने भेद मानते हैं, यह मालूम नहीं हों सका । बौद्ध दर्शनमें स्वभाव, कार्य और अनुपलब्धि ये तीन भेद हेतुके बतलाये हैं । तथा अनुपलब्धिके ग्यारह भेद किये हैं। इनमें प्रथमके दो हेतुअोंको विधिसाधक और अन्तिम अनुपलब्धि हेतुको निषेधसाधक ही वणित किये हैं। जैनदर्शनके उपलब्ध साहित्यमें हेतुओंके भेद सबसे पहले अकलङ्कदेव १ "अस्येदं कार्य कारणं संयोगि विरोधि समवायि चेति लैङ्गिकम् ।” -वैशेषि० सू० ६-२-१। २ "शास्त्रे कार्यादिग्रहणं निदर्शनार्थं कृतं नावधारणार्थम् । कस्मात् ? व्यतिरेकदर्शनात् । तद्यथा-अध्वर्युरोश्रावयन् व्यवहितस्य हेतुलिङ्गम् चन्द्रोदयः समुद्रवृद्धेः कुमुदविकाशस्य च जलप्रसादोऽगस्त्योदयस्येति । एवमादि तत्सर्वमस्येदमिति सम्बन्धमात्रवचनात् सिद्धम् ।"-प्रशस्तपा० पृ० १०४। ३ “अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च ।"--न्यायसू० १-१-५ । ४ "त्रीण्येव लिङ्गानि" "अनुपलब्धिः स्वभावकार्ये चेति ।"-न्यायबि० पृ० ३५ । ५ “सा च प्रयोगभेदादेकादशप्रकारा।"-न्यायबि० पृ० ४७ । ६ "अत्र द्वौ वस्तुसाधनौ” “एकः प्रतिषेधहेतुः”–न्यायबि०पृ० ३६ । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना के प्रमाणसंग्रहमें मिलते हैं । उन्होंने सद्भावसाधक ६ और सद्भावप्रतिषेधक ३ इस तरह नौ उपलब्धियों तथा असद्भावसाधक ६ अनुपलब्धियों का वर्णन करके इनके और भी अवान्तर भेदोंका संकेत करके इन्हीं में अन्तर्भाव हो जानेका निर्देश किया है। साथ ही उन्होंने धर्मकीतिके इस कथनका कि 'स्वभाव और कार्यहेतु भावसाधक ही हैं तथा अनुपलब्धि ही अभावसाधक है' निरास करके उपलब्धिरूप स्वभाव और कार्य हेतुको भी अभावसाधक सिद्ध किया है। अकलङ्कदेव के इसी मन्तव्य को लेकर माणिक्यनन्दि', विद्यानन्द तथा वादिदेवसूरिने उपलब्धि और अनुपलब्धिरूपसे समस्त हेतुअोंका संग्रह करके दोनोंको विधि और निषेधसाधक बतलाया है और उनके उत्तर भेदोंको परिगणित किया है । प्रा० धर्मभूषणने भी इसी अपनी पूर्वपरम्परा के अनुसार कतिपय हेतु-भेदोंका वर्णन किया है। न्यायदीपिका और परीक्षामुख के अनुसार हेतुओंके निम्न भेद हैं: १ "सत्प्रवृत्तिनिमित्तानि स्वसम्बन्धोपलब्धयः ।। तथाऽसद्व्यवहाराय स्वभावानुपलब्धयः । सद्वृत्तिप्रतिषेधाय तद्विरुद्धोपलब्धयः ॥"-प्रमाणसं० का० २६, ३० । तथा इनकी स्वोपज्ञवृत्ति देखें । २ “नानुपलब्धिरेव अभावसाधनी...।"-प्रमाणसं० का० ३० । ३ देखो, परीक्षामुख ३-५७ से ३-६३ तकके सूत्र । ४ देखो, प्रमाणपरी० पृ० ७२-७४ । ५ देखो, प्रमाणनयतत्त्वालोक का तृतीय परिच्छेद । ६ प्रमाणपरीक्षानुसार हेतुभेदों को वहीं से जानना चाहिए । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [न्यायदीपिकाके अनुसार] विधिरूप प्रतिषेधरूप ___२ १ । २ विधिसाधक प्रतिषेधसाधक विधिसा० प्रतिषेधसाधक कार्यरूप कारणरूप विशेषरूप पूर्वचर उत्तरचर सहचर =६+१+२६ [ परीक्षामुखके अनुसार ] २ उपलब्धि अनुपलब्धि विरुद्धो० अविरुद्धो० विरुद्धानु० अविरुद्धानु० । । । । । । । । । । व्या० कार्य कार० पूर्व उ० सह० । कार्य कारण स्वभाव । । । । । । व्याप्य कार्य कारण पूर्व उ० सह० । । । । । । । स्वभा.व्याप.कार्य.कारण पूर्वच. उत्तर सहचर. =६+६+३+७=२२ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २२. हेत्वाभास नैयायिक' हेतुके पाँच रूप मानते हैं । अतः उन्होंने एक एक रूपके अभावमें पाँच हेत्वाभास माने हैं। वैशेषिक' और बौद्ध हेतुके तीन रूप स्वीकार करते हैं। इसलिए उन्होंने तीन हेत्वाभास माने हैं। पक्षधर्मत्वके अभावसे प्रसिद्ध, सपक्षसत्त्वके अभावसे विरुद्ध और विपक्षासत्वके अभावसे सन्दिग्ध अथवा अनैकान्तिक ये तीन हेत्वाभास वर्णित किये हैं। सांख्य भी चूंकि हेतुको त्रैरूप्य मानते हैं। अतः उन्होंने भी मुख्यतया तीन ही हेत्वाभास स्वीकृत किये हैं। प्रशस्तपादने एक अनध्यवसित नामके चौथे हेत्वाभासका भी निर्देश किया है जो नया ही मालूम होता है और प्रशस्तपादका स्वोपज्ञ है क्योंकि वह न तो न्यायदर्शनके पाँच हेत्वाभासोंमें है, न कणादकथित तीन हेत्वाभासोंमें है और न उनके पूर्ववर्ती किसी सांख्य या बौद्ध विद्वान्ने बतलाया है । हाँ, दिग्नागने अनैकान्तिक हेत्वाभासके भेदोंमें एक विरुद्धाव्यभिचारी जरूर बतलाया है जिसके न्याय १ "सव्यभिचारविरुद्धप्रकरणसमसाध्यसमातीतकाला हेत्वाभासाः।"न्यायसू० १-२-४ । "हेतोः पञ्च लक्षणानि पक्षधर्मत्वादीनि उक्तानि । तेषामेकैकापाये पंच हेत्वाभासा भवन्ति । असिद्ध-विरुद्ध-अनैकान्तिक-कालात्ययापदिष्ट-प्रकरणसमाः ।"-न्यायकलिका पृ० १४ । न्यायमं० पृ० १०१ । २ "अप्रसिद्धोऽनपदेशोऽसन् सन्दिग्धश्चानपदेशः ।"-वैशे० सू० ३-१-१५ । “यदनुमेयेन सम्बद्धं प्रसिद्धं च तदन्विते । तदभावे च नास्त्येव तल्लिङ्गमनुमापकम् ॥ विपरीतमतो यत् स्यादेकेन द्वितयेन वा विरुद्धासिद्धसन्दिग्धमलिङ्ग काश्यपोऽब्रवीत् ॥”-प्रशस्त० पृ० १०० । ३ "असिद्धानैकान्तिकविरुद्धा हेत्वाभासाः ।”—न्यायप्र० पृ० ३। ४ "अन्ये हेत्वाभासाः चतुर्दश असिद्धानकान्तिकविरुद्धादयः ।”—माठरवृ० ५। ५ “एतेनासिद्धविरुद्धसन्दिग्धानध्यवसितवचनानामनपदेशत्वसुक्त भवति ।”प्रशस्तपा० भा० पृ० ११६ । ६ देखो, न्यायप्रवेश पृ० ३ । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दापिका प्रवेशगत वर्णन और प्रशस्तपादभाष्यगत अनध्यवसितके वर्णनका प्राशय प्रायः एक है और स्वयं जिसे प्रशस्तपादने' असाधारण कहकर अनध्यवसित हेत्वाभास अथवा विरुद्ध हेत्वाभासका एक भेद बतलाया है । कुछ भी हो, इतना अवश्य है कि प्रशस्तपादने वैशेषिकदर्शन सम्मत तीन हेत्वाभासोंके अलावा इस चौथे हेत्वाभासकी भी कल्पना की है । अज्ञात नामके हेत्वाभासको भी माननेका एक मत रहा है। हम पहले कह पाए हैं कि अर्चटने नैयायिक और मीमांसकोंके नामसे ज्ञातव्य सहित षड्लक्षण हेतुका निर्देश किया है। सम्भव है ज्ञातत्वरूपके अभावसे अज्ञातनामका हेत्वाभास भी उन्हींके द्वारा कल्पित हुआ हो। अकलङ्कदेवने इस हेत्वाभासका उल्लेख करके असिद्धमें अन्तर्भाव किया है। उनके अनुगामी माणिक्यनन्दि आदिने भी उसे असिद्ध हेत्वाभासरूपसे उदाहृत किया है। जैन विद्वान् हेतुका केवल एकही अन्यथानुपपन्नत्व-अन्यथानुपपत्तिरूप मानते हैं । अतः यथार्थमें उनका हेत्वाभास भी एक ही होना चाहिए । इस सम्बन्धमें सूक्ष्मप्रज्ञ अकलङ्कदेवने बड़ी योग्यतासे उत्तर दिया है । वे कहते हैं कि वस्तुतः हेत्वाभास एक ही है और वह है अकिञ्चित्कर अथवा असिद्ध । विरुद्ध, असिद्ध और सन्दिग्ध ये उसीके विस्तार हैं । चूंकि अन्यथानुपपत्तिका अभाव अनेक प्रकारसे होता है इसलिए हेत्वा १ देखो, प्रशस्तपा० भा० ११८, ११६ । २ "साध्येऽपि कृतकत्वादिः अज्ञातः साधनाभासः । तदसिद्धलक्षणेन अपरो हेत्वाभासः, सर्वत्र साध्यार्थासम्भवाभावनियमासिद्धेः अर्थज्ञाननिवृत्तिलक्षणत्वात् ।"-प्रमाणसं० स्वो० का ४४ । ३ परीक्षामु० ६-२७,२८ । ४ "साधनं प्रकृताभावेऽनुपपन्नं ततोऽपरे । विरुद्धासिद्धसन्दिग्धा अकिञ्चित्करविस्तराः ।"-न्यायवि० का० २६६ । “असिद्धश्चाक्षुषत्वादि: शब्दानित्यत्वसाधने । अन्यथासम्भवाभावभेदात्स बहुधा स्मृतः विरुद्धा- . सिद्धसन्दिग्धैरकिञ्चित्करविस्तरै:-न्यायवि० का० ३६५, ३६६ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दापिका स्तावना वर्णन और प्रशस्तपादभाष्यगत अनमी और स्वयं जिसे प्रशस्तपादने' असामा स अथवा विरुद्ध हेत्वाभासका ए:कते। अवश्य है कि प्रशस्तपादने वैतरह ___ वा इस चौथे हेत्वाभासकी भी कतार रे भी माननेका एक मत रहा है' कल्पना ___ और मीमांसकोंके नामसे ज्ञाः तीन । सम्भव है ज्ञातत्वरूपके अयप रा कल्पित हुआ हो। अकरः (पृ. सिद्धमें अन्तर्भाव किया है. इसको से प्रसिद्ध हेत्वाभासरूपसे चला __ एकही अन्यथानुपपन्नत्व-अ.क' हेत्वाभास भी एक ही ने बड़ी योग्यतासे उक ही है और वह है र सन्दिग्ध ये उसीके प्रकारसे होता है इस री और अकिञ्चित्कर ये चारभी भेद हो सामान्य और शेषको उसके भेद मानकर सकते हैं। अतएव जो हेतू त्रिलक्षणात्मक से रहित हैं वे सब अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कता है कि अकलङ्कदेवने पूर्व से प्रसिद्ध इस कल्पना कहाँसे की है ? क्योंकि वह न तो त तीन हेत्वाभासोंमें है और न गौतमस्वीकृत गद्धेय पं० सुखलालजीका कहना है कि 'जयन्त: (पृ० १६३) में अन्यथासिद्धापरपर्याय अप्रयोजक वासको माननेका पूर्व पक्ष किया है जो वस्तुतः - चला आता हुआ जान पड़ता है। अतएव यह व.अक या अन्यथासिद्ध माननेवाले किसी पूर्ववर्ती तार्किक हो। अकलङ्कने अकिंचित्कर हेत्वाभासकी अपने ढङ्गसे निःसन्देह पण्डितजीकी सम्भावना और समाधान दोनों ह है। जयन्तभट्टने इस हेत्वाभासके सम्बन्धमें कुछ विस्तारउसीवचार किया है। वे पहले तो उसे विचार करते करते धनाभासः। तदरिमाण ग्यमासिद्धेः अर्थज्ञान प्रमा परीक्षामु० ६-२ मा पेद्धसन्दिग्धा प्रतिष्ठा "असिद्धश्चाक्षुपरस्त रधा स्मृतः वि मूल जानुपपन्नत्वरहिता ये त्रिलक्षणाः । कारकान् सर्वांस्तान् वयं सङ्गिरामहे ॥-न्यायवि० का० ग्माणमी० भा० टि० पृ० ६७ । ३ देखो, न्यायमं० पृ० ला(प्रमेय प्रकरण)। ४ "प्रास्ताँ तहि षष्ठ एवायं हेत्वाभासः Mi तावद्यथोक्तनयेन नाश्नुते एव न च तेष्वन्तर्भवतीति बलात् तिष्ठते । कथं विभागसूत्रामिति चेद्, अतिक्रमिष्याम इदं सूत्रम्, पान्तः सुस्पष्टमपीममप्रयोजकं हेत्वाभासमपह्नवीमहि न चैवं युक्त सूत्रातिक्रमो न वस्त्वतिक्रम इति । xxx “तदेनं हेत्वाभा'द्ववर्ग एव निक्षिपामः।" xxxअथवा सर्वहेत्वाभासानुवृत्तमिद , Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दोपिका साहसपूर्वक छठवाँही हेत्वाभास मान लेते हैं और यहाँ तक कह देते है। कि विभागसूत्रका उलंघन होता है तो होने दो सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक (अन्यथासिद्ध) हेत्वाभासका अपह्नव नहीं किया जा सकता है और न वस्तुका उलंघन । किन्तु पीछे उसे प्रसिद्धवर्ग में ही शामिल कर लेते हैं। अन्तमें 'अथवा के साथ कहा है कि अन्यथासिद्धत्व (अप्रयोजकत्व) सभी हेत्वभासवृत्ति सामान्यरूप है, छठवाँ हेत्वाभास नहीं। इसी अन्तिम अभिमतको न्यायकलिका (पृ० १५) में स्थिर रखा है । पण्डितजीकी सम्भावनासे प्रेरणा पाकर जब मैंने 'अन्यथासिद्ध'को पूर्ववर्ती तार्किक ग्रन्थोंमें खोजना प्रारम्भ किया तो मुझे उद्योतकरके न्यायवात्तिकमें अन्यथासिद्ध हेत्वाभास मिल गया जिसे उद्योतकरने असिद्धके भेदोंमें गिनाया है। वस्तुतः अन्यथासिद्ध एकप्रकारका अप्रयोजक या अकिंचित्कर हेत्वाभासही है। जो हेतु अपने साध्यको सिद्ध न कर सके उसे अन्यथासिद्ध अथवा अकिंचित्कर कहना चाहिए। भलेही वह तीनों अथवा पाँचों रूपोंसे युक्त क्यों न हो। अन्यथासिद्धत्व अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव-अन्यथाउपपन्नत्वसे अतिरिक्त कुछ नहीं है । यही वजह है कि अकलङ्कदेवने सर्वलक्षणसम्पन्न होने पर भी अन्यथानुपपन्नत्वरहित हेतुओंको अकिंचित्कर हेत्वाभासकी संज्ञा दी है । अतएव ज्ञात होता है कि उद्योतकरके अन्यथासिद्धत्वमें से ही अकलङ्कने अकिंचित्कर हेत्वाभास की कल्पना की है। प्रा० माणिक्यनन्दिने इसका चौथे हेत्वाभासके रूपमें वर्णन किया है पर वे उसे हेत्वाभासके मन्यथासिद्धत्वं नाम रूपमिति न षष्ठोऽयं हेत्वाभास: । —पृ० १६६ । १ "अप्रयोजकत्वं च सर्वहेत्वाभासानामनुगतं रूपम् । अनित्याः परमाणवो मूर्त्तत्वात् इति सर्वलक्षणसम्पन्नोऽप्यप्रयोजक एव ।" २ “सोऽयमसिद्धत्व भवति प्रज्ञापनीयधर्मसमानः, आश्रयासिद्धः, अन्यथासिद्धश्चेति।" -पृ० १७५ । ३ परीक्षामुख ६-२१ । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लक्षणके विचार समयमें ही हेत्वाभाम मानते हैं । वादकालमें नहीं । उस समय तो पक्षमें दोष दिखा देनेसे ही व्युत्पन्नप्रयोगको दूषित बतलाते हैं। तात्पर्य यह कि वे अकिञ्चित्करको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेमें खास जोर भी नहीं देते । श्वेताम्बर विद्वानोंने असिद्धादि पूर्वोक्त तीन ही हेत्वाभास स्वीकृत किये हैं, उन्होंने अकिंचित्करको नहीं माना। माणिक्यनन्दिने अकिंचित्करको हेत्वाभास माननेकी जो दृष्टि बतलाई है उस दृष्टिसे उसका मानना उचित है। वादिदेवसूरि और यशोविजयने यद्यपि अकिंचित्करका खण्डन किया है पर वे उस दृष्टिको मेरे ख्यालमें सोझल कर गये हैं। अन्यथा वे उस दृष्टिसे उसके औचित्यको जरूर स्वीकार करते । प्रा० धर्मभूषणने अपने पूज्य माणिक्यनन्दिका अनुसरण किया है और उनके निर्देशानुसार अकिंचित्करको चौथा हेत्वाभास बताया है। इस तरह न्यायदीपिकामें आये हुए कुछ विशेष विषयोंपर तुलनात्मक विवेचन किया है। मेरी इच्छा थी कि आगम, नय, सप्तभंगी, अनेकान्त आदि शेष विषयोंपर भी इसी प्रकारका कुछ विचार किया जावे पर अपनी शक्ति, साधन, समय और स्थानको देखते हुए उसे स्थगित कर देना पड़ा। १ "लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ।” -परीक्षा० ६-३८ । २ न्यायाव० का० २३, प्रमाणनय० ६-४७ । ३ स्याद्वादरत्ना० पृ० १२३० । ४ जैनतर्कभा० पृ० १८ । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकार प्रा० धर्मभूषणने अपनी प्रस्तुत रचनामें अनेक ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका उल्लेख किया है तथा उनके कथनसे अपने प्रतिपाद्य विषयको पुष्ट एवं प्रमाणित किया है। अतः यह उपयुक्त जान पड़ता है कि उन ग्रन्थों और ग्रन्थकारोंका यहाँ कुछ परिचय दे दिया जाय । प्रथमतः न्यायदीपिकामें उल्लिखित हुए निम्न जैनेतर ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका परिचय दिया जाता है : (क) ग्रन्थ-१ न्यायविन्दु । (ख) ग्रन्थकार-१ दिग्नाग, २ शालिकानाथ, ३ उदयन और ४ वामन । न्यायविन्दु-यह बौद्ध विद्वान् धर्मकीत्तिका रचा हुआ बौद्ध-न्यायका प्रसिद्ध ग्रन्थ है। इसमें तीन परिच्छेद हैं। प्रथम परिच्छेदमें प्रमाणसामान्यलक्षणका निर्देश, उसके प्रत्यक्ष और अनुमान इन दो भेदोंका स्वीकार एवं उनके लक्षण, प्रत्यक्षके भेदों आदिका वर्णन किया गया है। द्वितीय-परिच्छेदमें अनुमानके स्वार्थ, परार्थ भेद, स्वार्थका लक्षण, हेतुका रूप्य लक्षण और उसके स्वभाव, कार्य तथा अनुपलब्धि इन तीन भेदों आदिका कथन किया है। और तीसरे परिच्छेदमें परार्थ अनुमान हेत्वाभास, दृष्टान्त, दृष्टान्ताभास आदिका निरूपण किया गया है। न्यायदीपिका पृ० १०पर इस ग्रन्थके नामोल्लेख पूर्वक दो वाक्यों और पृ० २५ पर इसके 'कल्पनापोढमभ्रान्तम्'प्रत्यक्षलक्षणकी समालोचना की गई है। प्रत्यक्षके इस लक्षणमें जो 'अभ्रान्त' पद निहित है वह खुद धर्मकीतिका ही दिया हुआ है। इसके पहले बौद्धपरम्परामें 'कल्पनापोढ' मात्र प्रत्यक्षका लक्षण स्वीकृत था। धर्मकीत्ति बौद्ध दर्शनके उन्नायक युगप्रधान थे। इनका अस्तित्व समय ईसाकी सातवीं शताब्दि (६३५ ई०) माना जाता है। ये नालन्दा विश्वविद्यालयके आचार्य धर्मपालके शिष्य Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञस्तावना कात्यायविन्दुके अतिरिक्त प्रमाणवात्तिक, वादन्याय, हेतुविन्दु, सन्ताना सिद्धि, प्रमाणविनश्चय और सम्बन्धपरीक्षा आदि इनके बनाए हुए पर हैं । अभिनव धर्मभूषण न्यायविन्दु आदिके अच्छे अभ्यासी थे । १. दिग्नाग-ये बौद्ध सम्प्रदायके प्रमुख तार्किक विद्वानोंमें से हैं । इन्हें त्यायका प्रतिष्ठापक होनेका श्रेय प्राप्त है, क्योंकि अधिकांशतः बौद्धमायके सिद्धान्तों की नींव इन्होंने डाली थी। इन्होंने न्याय, वैशेषिक और मीमांसा आदि दर्शनोंके मन्तव्योंकी आलोचनास्वरूप और स्वतन्त्ररूप अनेक प्रकरण ग्रन्थ रचे हैं । न्यायप्रवेश, प्रमाणसमुच्चय, प्रमाणसमुच्चययत्ति, हेतुचक्रडमरू, पालम्बनपरीक्षा और त्रिकालपरीक्षा आदि ग्रंथ इनके माने जाते हैं। इनमें न्यायप्रवेश और प्रमाणसमुच्चय मुद्रितभी हो चुके। १ उद्योतकर (६०० ई०) ने न्यायवा० पृ० १२८, १६८ पर देतवात्तिक और हेत्वाभासवार्तिक नामके दो ग्रन्थोंका उल्लेख किया है, जो सम्भवतः दिग्नागके ही होना चाहिए, क्योंकि वाचस्पति मिश्रके तात्पर्यटीका (पृ० २८६) गत संदर्भको ध्यानसे पढ़नेसे वैसा प्रतीत होता है। न्यायवा० भूमिका पृ० १४१, १४२ पर इनको किसी बौद्ध विद्वान्के प्रकट भी किये हैं। उद्योतकरके पहले बौद्ध परम्परामें सबसे अधिक प्रसिद्ध प्रबल और अनेक ग्रन्थोंका रचनाकार दिग्नाग ही हुआ है जिसका ज्यायवात्तिक में जगह जगह कदर्थन किया गया है । इन ग्रन्थोंके सम्बन्धमें मैंने माननीय पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यसे दर्याप्त किया था। उन्होंने मुझे लिखा है-'दिग्नागके प्रमाणसमुच्चयके अनुमानपरिच्छेदके ही वे श्लोक होने चाहिए जिसे उद्योतकर हेतुवात्तिक या हेत्वाभासवात्तिक कहते हैं। स्वतन्त्र ग्रन्थ नहीं मालूम होते यही "हतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः" इस कारिकाकी स्ववृत्ति टीकामें कर्णकगोमिने लिखा है-“वर्णितः प्राचार्यदिग्नागेन प्रमाणसमुच्चयादिषु" । सम्भव है इसमें आदि शब्दसे हेतुचक्रडमरूका निर्देश हो।' परन्तु उद्योतकरने जो इस प्रकार लिखा है- "एवं विरुद्ध विशेषणविरुद्धविशेष्याश्च Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका है। न्याय-प्रवेशपर तो जैनाचार्य हरिभद्रसूरिकी 'न्यायप्रवेशवृत्ति टीका है और इस वृत्तिपर भी जैनाचार्य पार्श्वदेव कृत 'न्यायप्रवेश पंजिका नामकी व्याख्या है। दिग्नागका समय ईसाकी चौथी और। शताब्दी (३४५-४२५ई० ) के लगभग है । प्रा० धर्मभूषणने न्यायदं पृ० ११६ पर इनका नामोल्लेख करके 'न याति' इत्यादि एक क उद्धृत की है, जो सम्भवतः इन्हींके किसी अनुपलब्ध ग्रन्थकी होग द्रष्टव्याः । एषां तूदाहरणानि हेत्वाभासवात्तिके द्रष्टव्यानि स्वयं मानि" (पृ० १६८) । इससे तो यह मालूम होता है कि यहाँ उद्य किसी 'हेत्वाभासवात्तिक' नामक ग्रंथका ही उल्लेख कर रहे है 'विरुद्धविशेषणविरुद्धविशेष्यो' के उदाहरण प्रदर्शित किये हैं और जिन्हें देखनेका यहाँ संकेतमात्र किया है । 'हेत्वाभासवात्तिके' पदरे कारिका या श्लोक प्रतीत नहीं होता। यदि कोई कारिका या होता तो उसे उद्धृत भी किया जा सकता था । अतः 'हेत्वाभासव नामका कोई ग्रन्थ रहा हो, ऐसा उक्त उल्लेखसे साफ मालूम होत इसी तरह उद्योतकरके निम्न उल्लेखसे 'हेतुवात्तिक ग्रन्थके में की सम्भावना होती है-“यद्यपि हेतुवात्तिकं ब्रुवाणेनोक्तम्-सा सम्भवे षट्प्रतिषेधादेकद्विपदपर्युदासेन विलक्षणो हेतुरिति । एतदप्य ......' (पृ० १२८) यहाँ हेतुवात्तिककारके जिन शब्दोंको उद्धृत है वे गद्य में हैं। श्लोक या कारिकारूप नहीं हैं। अतः सम्भव न्यायप्रवेशकी तरह 'हेतुवात्तिक गद्यात्मक स्वतन्त्र रचना हो और ि कर्णकगोमिने आदि शब्दसे संकेत भी किया हो । यह भी सम्भव प्रमाणसमुच्चयके अनुमानपरिच्छेदकी स्वोपज्ञ वृत्तिके उक्त पदवा हों। और उनकी मूल कारिकाओंको हेत्वाभासवात्तिक एवं हेतुव कहकर उल्लेख किया हो । फिर भी जबतक 'हेतुचक्रडमरू' और । समुच्चयका अनुमानपरिच्छेद सामने नहीं आता और दूसरे पुष्ट नहीं मिलते तबतक निश्चयपूर्वक अभी कुछ नहीं कहा जा सकता Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ६ह २. शालिकानाथ - ये प्रभाकरमतानुयायी मीमांसक दार्शनिक विद्वानोंमें एक प्रसिद्ध विद्वान् हो गये हैं । इन्होंने प्रभाकर गुरुके सिद्धास्लोंका बड़े जोरोंके साथ प्रचार और प्रसार किया है । उन (प्रभाकर) के बृहती नामके टीका ग्रन्थपर, जो प्रसिद्ध मीमांसक शवरस्वामीके शावरभाष्यकी व्याख्या है, इन्होंने 'ऋजुविमला' नामकी पंजिका लिखी है । प्रभाकरके सिद्धान्तों का विवरण करनेवाला इनका 'प्रकरणपंजिका नामका वृहद् ग्रन्थ भी है । ये ईसाकी आठवीं शताब्दीके विद्वान् माने जाते न्यायदीपिकाकारने पृ० १६ पर इनके नामके साथ 'प्रकरणपंजिका' के कुछ वाक्य उद्धृत किये हैं । ३. उदयन — ये न्यायदर्शनके प्रतिष्ठित आचार्योंमें हैं । नैयायिक परम्परामें ये 'आचार्य' के नामसे विशेष उल्लिखित हैं । जो स्थान बौद्धदर्शन में धर्मकीत्ति और जैनदर्शन में विद्यानन्दस्वामीको प्राप्त है वही स्थान न्यायदर्शनमें उदयनाचार्यका है । ये शास्त्रार्थी और प्रतिभाशाली विद्वान् थे। न्यायकुसुमांजली, श्रात्मतत्त्वविवेक, लक्षणावली, प्रशस्तपादभाष्यकी टीका किरणावली और वाचस्पति मिश्रकी न्यायवार्तिकतात्पर्यटीकापर लिखी गई तात्पर्यपरिशुद्धि टीका, न्यायपरिशिष्ट नामकी न्यायसूत्रवृत्ति यदि इनके बनाये हुए ग्रन्थ हैं । इन्होंने अपनी लक्षणावली' शक सम्बत् ६०६ (९८४ ई० ) में समाप्त की है । अतः इनका अस्तित्वकाल दशवीं शताब्दी है । न्यायदीपिका ( पृ० २१ ) में इनके नामोल्लेख के साथ 'न्यायकुसुमांजलि' ( ४-६ ) के 'तन्मे प्रमाणं शिवः' वाक्यको उद्धृत किया गया है। और उदयनाचार्यको 'योगाग्रसर' लिखा हैं । श्रभिनव धर्मभूषण इनके न्यायकुसुमांजलि, किरणावली आदि ग्रन्थोंके अच्छे अध्येता थे । न्यायदी० पृ० ११० पर किरणावली ( पृ० २९७, ३००,३०१) गत १ " तर्काम्बराङ्कप्रमितेष्वतीतेषु शकान्ततः । वर्षेष्वदयनश्चक्रे सुबोधां लक्षणावलीम् ॥” - लक्षणा० पृ० १३, 14 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका निरुपाधिक सम्बन्धरूप व्याप्तिका भी खण्डन किया गया है। यह किरणावली और न्यायदीपिकागत लक्षणमें कुछ शब्दभेद है। पर दोन की रचनाको देखते हुए भिन्न ग्रन्थकारकी रचना प्रतीत नहीं होते प्रत्युत किरणावलीकारकी ही वह रचना स्पष्टतः जान पड़ती है। दूस बात यह है, कि अनौपाधिक सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्य मत माना गया है। वैशेषिकदर्शनसूत्रोपस्कार (पृ० ६०) में 'नाप्यनी धिक: सम्बन्धः' शब्दोंके साथ पहिले पूर्व पक्ष में अनौपाधिकरूप व्यानि लक्षणकी आलोचना करके बादमें उसे ही सिद्धान्तमत स्थापित किया। यहाँ 'नाप्यनौपाधिक:' पर टिप्पण देते हुए टिप्पणकारने 'प्राचार्या दूषयन्नाह' लिखकर उसे आचार्य (उदयनाचार्य) का मत प्रकट किया मैं पहले कह आया हूँ कि उदयन आचार्यके नामसे भी उल्लेखित जाते हैं । इससे स्पष्ट मालूम होता है कि अनौपाधिक-निरुपा सम्बन्धको व्याप्ति मानना उदयनाचार्यका सिद्धान्त हैं और उसीकी न्या दीपिकाकारने आलोचना की है। उपस्कार और किरणावलीगत व्या तथा उपाधिके लक्षणसम्बन्धी संदर्भ भी शब्दशः एक हैं, जिससे टिणा कारके अभिप्रेत 'आचार्य' पदसे उदयनाचार्य ही स्पष्ट ज्ञात होते ।। यद्यपि प्रशस्तपादभाष्यकी व्योमवती टीकाके रचयिता व्योमशिवाचार्य । प्राचार्य कहे जाते हैं, परन्तु उन्होंने व्याप्तिका उक्त लक्षण स्वीकार किया। बल्कि उन्होंने सहचरित सम्बन्ध अथवा स्वाभाविक सम्बन्धः व्याप्ति माननेकी अोरही संकेत किया है। वाचस्पति मिश्रने भी अनौ धिक सम्बन्धको व्याप्ति न कहकर स्वाभाविक सम्बन्धको व्याा कहा है। ४. वामन—इनका विशेष परिचय यथेष्ट प्रयत्न करनेपर भी मास नहीं हो सका। न्यायदीपिकाके द्वारा उद्धृत किये गए वाक्यपर १ देखो, ब्योमवती टीका पृ० ५६३, ५७८ । देखो न्यायवाति तात्पर्यटीका पृ० १६५, ३४५ । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ७१ इतना जरूर मालूम हो जाता है कि वे अच्छे ग्रन्थकार और प्रभावक विद्वान् हुए हैं । न्यायदीपिका पू० १२४ पर इनके नामके उल्लेखपूर्वक इनके किसी ग्रन्थका 'न शास्त्रमसद्द्रव्येष्वर्थवत्' वाक्य उद्धृत किया गया है । अब जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका संक्षिप्त परिचय दिया जाता है । धर्मभूषणने निम्न जैन ग्रन्थ और ग्रन्थकारोंका उल्लेख किया है । (क) ग्रन्थ - १ तत्त्वार्थसूत्र, २ प्राप्तमीमांसा, ३ महाभाष्य, ४ जैनेन्द्रव्याकरण, ५ श्राप्तमीमांसाविवरण ६ राजवातिक और राजवातिकभाष्य, ७ न्यायविनिश्चय, ८ परीक्षा - मुख, ६ तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक तथा भाष्य, १० प्रमाण परीक्षा, ११ पत्र - परीक्षा, १२ प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और १३ प्रमाणनिर्णय । (ख) ग्रन्थकार - १ स्वामीसमन्तभद्र, २ प्रकलङ्कदेव, ३ कुमारनन्दि, ४ माणिक्यनन्दि और ५ स्याद्वादविद्यापति ( वादिराज ) । १. तत्त्वार्थ सूत्र - यह आचार्य उमास्वाति अथवा उमास्वामीकी अमर रचना है। जो थोड़ेसे पाठभेदके साथ जैनपरम्पराके दोनों ही दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंमें समानरूपसे मान्य हैं और दोनों ही सम्प्रदायोंके विद्वानोंने इसपर अनेक बड़ी बड़ी टीकाएँ लिखी हैं । उनमें ग्रा० पूज्यपादकी तत्वार्थवृत्ति ( सर्वार्थसिद्धि ), अकलंकदेवका तत्वार्थवार्तिक, विद्यानन्दका तत्वार्थश्लोकवार्त्तिक, श्रुतसागरसूरिकी तत्वार्थवृत्ति और श्वेताम्बर पपम्परामें प्रसिद्ध तत्वार्थभास ये पाँच टीकाएँ तो तत्वार्थसूत्र की विशाल, विशिष्ट और महत्वपूर्ण व्याख्याएँ हैं । प्राचार्य महोदय ने इस छोटीसी दशाध्यायात्मक अनूठी कृतिमें समस्त जैन तत्वज्ञानको संक्षेपमें 'गागरमें सागर की तरह भरकर अपने विशाल और सूक्ष्म ज्ञानभण्डारका परिचय दिया है । यही कारण है कि जैन परम्परामें तत्त्वार्थसूत्रका बहुत बड़ा महत्त्व है और उसका वही स्थान है जो हिन्दूसम्प्रदाय में गीताका है । इस ग्रन्थरत्नके रचयिता प्रा० उमास्वाति विक्रमकी Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका पहली शताब्दीके विद्वान् हैं । न्यायदीपिकाकारने तत्त्वार्थसूत्रके अनेक सूत्रोंको न्यायदी० (पृ० ४,३४,३६,३८,११३,१२२) में बड़ी श्रद्धाके साथ उल्लेखित किया है और उसे महाशास्त्र तक भी कहा है, जो उपयुक्त ही है। इतना ही नहीं, न्यायदीपिकाकी भव्य इमारत भी इसी प्रतिष्ठित तत्त्वार्थसूत्रके 'प्रमाणनयैरधिगमः' सूत्रका प्राशय लेकर निर्मित की गई है। प्राप्तमीमांसा–स्वामी समन्तभद्रकी उपलब्धि कृतियोंमें यह सबसे प्रधान और असाधारण कृति है । इसे 'देवागमस्तोत्र भी कहते हैं । इसमें दश परिच्छेद और ११४ पद्य (कारिकाएँ) हैं। इसमें प्राप्त (सर्वज्ञ) की मीमांसा-परीक्षा की गई है। जैसा कि उसके नामसे ही प्रकट है। अर्थात् इसमें स्याद्वादनायक जैन तीर्थकरको सर्वज्ञ सिद्ध करके उनके स्याद्वाद (अनेकान्त) सिद्धान्तकी सयुक्तिक सुव्यवस्था की है और स्याद्वादविद्वेषी एकान्तवादियोंमें प्राप्ताभासत्व (असावश्य) बतलाकर उनके एकान्त सिद्धान्तोंकी बहुत ही सुन्दर युक्तियोंके साथ आलोचना की है। जैनदर्शनके आधारभूत स्तम्भ ग्रन्थोंमें प्राप्तमीमांसा पहला ग्रन्थ है। इसके ऊपर भट्ट अकलङ्कदेवने 'अष्टशती' विवरण (भाष्य), प्रा० विद्यानन्दने 'अष्टसहस्री' (आप्तमीमांसालंकार या देवगमालंकार) और वसुनन्दिने 'देवागमवृत्ति' टीकाएँ लिखी हैं। ये तीनों टीकाएं उपलब्ध भी हैं। पण्डित जयचन्दजीकृत इनकी एक टीका हिन्दी भाषामें भी है। श्रीमान् पं० जुगलकिशोरजी मुख्तारने इसकी दो और अनुपलब्ध टीकाओं की सम्भावना की है। एक तो वह जिसका संकेत प्रा० विद्यानन्दने अष्टसहस्रीके अन्तमें 'अत्र शास्त्रपरिसमाप्तौ केचिदिदं मंगलवचनमनुतन्यते' इस वाक्यमें आए हुए 'केचित्' शब्दके द्वारा किया है। और १ देखो, स्वामीसमन्तभद्र । श्वेताम्बर विद्वान् श्रीमान् पं० सुखलालजी इन्हें भाष्यको स्वोपज्ञ माननेके कारण विकमकी तीसरीसे पाँचवीं शताब्दीका अनुमानित करते हैं । देखो, ज्ञानबिन्दुको प्रस्तावना । १ स्वामीसमन्तभद्र पृ० १६६, २०० । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना दूसरी 'देवागमपद्यवार्त्तिकालंकार'है, जिसकी सम्भावना युक्त्यनुशासनटीका (पृ० ६४) के 'इति देवागमपद्यवात्तिकालंकारे निरूपितप्रायम् ।' इस वाक्य में पड़े हुए 'देवागमपद्यवात्तिकालंकारे' पदसे की है। परन्तु पहली टीकाके होनेकी सूचना तो कुछ ठीक मालूम होती है, क्योंकि आ० विद्यानन्द भी उसका संकेत करते हैं। लेकिन पिछली टीकाके सद्भावका कोई आधार या उल्लेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ । वास्तवमें बात यह है कि प्रा० विद्यानन्द 'देवागमपद्य वार्तिकालंकारे' पदके द्वारा अपनी पूर्वरचित दो प्रसिद्ध टीकाओं-देवागमालंकार (अष्टसहस्री और पद्यवार्तिकालंकार (श्लोकवार्तिकालंकार) का उल्लेख करते हैं और उनके देखनेकी प्रेरणा करते हैं । पद्य का अर्थ श्लोक प्रसिद्ध ही है और अलंकार शब्दका प्रयोग दोनोंके साथ रहनेसे समस्यन्त एक वचनका प्रयोग भी असंगत नहीं है। अतः 'देवागमपद्यवार्तिकालंकार' नामकी कोई आप्तमीमांसाकी टीका रही है, यह विना पुष्ट प्रमाणोंके नहीं कहा जा सकता। प्रा० अभिनव धर्मभूषणने आप्तमीमांसाकी अनेक कारिकाएँ प्रस्तुत न्यायदीपिकामें बड़ी कृतज्ञताके साथ उद्धृत की है। 1. महाभाष्य-ग्रन्थकारने न्यायदीपिका पृ० ४१ पर निम्न शब्दोंके साथ महाभाष्यका उल्लेख किया है : 'तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे-' 1 परन्तु आज यह ग्रन्थ उपलब्ध जैन साहित्यमें नहीं है । अतः विचारणीय है कि इस नामका कोई ग्रंथ है या नहीं? यदि है तो उसकी उपलब्धि आदिका परिचय देना चाहिए। और यदि नहीं हैं तो आ० धर्म भूषणने किस आधारपर उसका उल्लेख किया है? इस सम्बन्धमें अपनी अोरसे कुछ विचार करनेके पहले मैं कह दूं कि इस ग्रन्थके अस्तित्व विषयमें जितना अधिक ऊहापोहके साथ सूक्ष्म विचार और अनुसन्धान मुख्तारसा० ने किया है उतना शायद ही अबतक दूसरे विद्वान्ने किया हो। उन्होंने १ देखो, स्वामीसमन्तभद्र प० २१२ से २४३ तक । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ न्याय-दीपिका अपने 'स्वामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ के ३१ पेजोंमें अनेक पहलुओंसे चिन्तन किया है और वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि स्वामीसमन्तभद्र रचित महाभाष्य नामका कोई ग्रन्थ रहा जरूर है पर उसके होनेके उल्लेख अब तक तेरहवीं शताब्दीके पहलेके नहीं मिलते हैं। जो मिलते हैं वे १३वीं, १४वीं और १५वीं शताब्दीके हैं। अतः इसके लिए प्राचीन साहित्यको टटोलना चाहिए। मेरी विचारणा किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकारके अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिए अधिकाशतः निम्न साधन अपेक्षित होते हैं : (१) ग्रन्थोंके उल्लेख। (२) शिलालेखादिकके उल्लेख ।। (३) जनश्रुति-परम्परा। १. जहाँ तक महाभाष्यके ग्रन्थोल्लेखोंकी बात है और वे अब तक जितने उपलब्ध हो सके हैं उन्हें मुख्तारसा०ने प्रस्तुत किये ही हैं। हाँ, एक नया ग्रन्थोल्लेख हमें और उपलब्ध हुआ है । वह अभयचन्द्रसूरिकी स्याद्वादभूषणनामक लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्तिका है, जो इस प्रकार है : "परीक्षितं विरचितं स्वामिसमन्तभद्राद्यैः सूरिभिः। कथं न्यक्षेण विस्तरेण । क्व अन्यत्र तत्त्वार्थ महाभाष्यादौ..."-लघी० ता० १०६७ । ये अभयचन्द्रसूरि तथा 'गोम्मटसार' की मन्दप्रबोधिका टीका और प्रक्रियासंग्रह (व्याकरणविषयक टीकाग्रन्थ) के कर्ता अभयचन्द्रसूरि यदि एक हैं और जिन्हें डा० ए० एन० उपाध्ये' तथा मुख्तारसा०२ ईसाकी १३वीं और वि०की१४वीं शताब्दीका विद्वान् स्थिर करते हैं तो उनके इस १ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ पृ० ११६ । २ देखो, स्वामीसमन्तभद्र पृ० २२४ का फुटनोट । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उल्लेख से महाभाष्यके विषयमें कोई विशेष प्रकाश नहीं पड़ता। प्रथम तो यह, कि यह उल्लेख मुख्तारसा० के प्रदर्शित उल्लेखों के समसामयिक है, उसका शृङ्खलाबद्ध पूर्वाधार अभी प्राप्त नहीं है जो स्वामीसमन्तभद्रके समय तक पहुँचाये । दूसरे यह, कि अभयचन्द्रसूरि इस उल्लेखके विषयमें अभ्रान्त प्रतीत नहीं होते । कारण, वे अकलङ्कदेवकी लघीयस्त्र यगत जिस कारिकाके 'अन्यत्र' पदका 'स्वामीसमन्तभद्रादिसूरि' शब्दका अध्याहार करके 'तत्त्वार्थमहाभाष्य' व्याख्यान करते हैं वह सूक्ष्म समीक्षण करने पर अकलङ्कदेवको अभिप्रेत मालूम नहीं होता । बात यह है कि अकलङ्कदेव वहाँ 'अन्यत्र' पदके द्वारा कालादिलक्षणको जाननेके लिये अपने पूर्वरचित तत्त्वार्थ राजवात्तिकभाष्यकी सूचना करते जान पड़ते हैं, जहां (राजवार्तिक ४-४२) उन्होंने स्वयं कालादि आठका विस्तारसे विचार किया है । यद्यपि प्रक्रियासंग्रहमें भी अभयचन्द्र सूरि ने सामन्तभद्री महाभाष्यका उल्लेख किया है और इस तरह उनके ये दो उल्लेख हो जाते हैं। परन्तु इनका पूर्वाधार क्या है? सो कुछ भी मालूम नहीं होता। अतः प्राचीन साहित्य परसे इसका अनुसन्धान करनेकी अभी भी आवश्कता बनी हुई है। २. अबतक जितने भी शिलालेखों आदिका संग्रह किया गया है उनमें महाभाष्य या तत्त्वार्थमहाभाष्यका उल्लेखवाला कोई शिलालेखादि उपलब्ध नहीं है । जिससे इस ग्रंथके अस्तित्व विषयमें कुछ सहायता मिल सके । तत्त्वार्थसूत्रके तो शिलालेख मिलते भी हैं पर उसके महाभाष्यका कोई शिलालेख नहीं मिलता। ३.जनश्रुति-परम्परा जरूर ऐसी चली आ रही है कि स्वामी समन्तभद्रने तत्वार्थसूत्रपर 'गन्धहस्ति' नामका भाष्य लिखा है जिसे महाभाष्य और १ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी । सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ।।—शि० १०८ । श्रीमानुमास्वातिरयं यतीशस्तत्वार्थसूत्रं प्रकटीचकार । यन्मुक्तिमार्गाचरणोद्यतानां पाथेयमर्थ्य भवति प्रजानाम् ॥-शि०१०५ (२५४) Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका तत्त्वार्थभाष्य या तत्त्वार्थमहाभाष्य भी कहा जाता है और आत्ममीमांसा उसका पहला प्रकरण है। परन्तु जनश्रुतिका पुष्ट और पुराना कोई अाधार नहीं है । मालूम होता है कि इसके कारण पिछले ग्रंथोल्लेख ही है अभी गत ३१ अक्तूबर (सन् १९०४) में कलकत्ता में हुए वीरशासनमहोत्सवपर श्री संस्करण सेठी मिले । उन्होंने कहा कि गन्धहस्ति महाभाष्य एक जगह सुरक्षित है और वह मिल सकता है । उनकी इस बातको सुनकर हमें बड़ी प्रसन्नता हुई और प्रेरणा की कि उसकी उपलब्धि आदिकी पूरी कोशिश करके उसकी सूचना हमें दें। इस कार्य में होनेवाले व्ययके भारको उठाने के लिये वीरसेवा मन्दिर, सरसावा प्रस्तुत है । परन्तु उन्होंने आज तक कोई सूचना नहीं की। इस तरह जनश्रुतिका आधारभूत पुष्ट प्रमाण नहीं मिलनेसे महाभाष्यका अस्तित्व संदिग्ध कोटिमें आज भी स्थित है। प्रा० अभिनव धर्मभूषणके सामने अभयचन्द्र सूरिके उपर्युक्त उल्लेख रहे हैं और उन्हींके आधारपर उन्होंने न्यायदीपिकामें स्वामिसमन्तभद्रकृत महाभाष्यका उल्लेख किया जान पड़ता है । उन्हें यदि इस ग्रन्थकी प्राप्ति हुई होती तो वे उसके भी किसी वाक्यादिको जरूर उध्दृत करते और अपने विषयको उससे ज्यादा प्रमाणित करते । अतः यह निश्चयरूपसे कहा जा सकता है कि प्राचार्य धर्मभूषण यतिका उल्लेख महाभाष्यकी प्राप्तिहालतका मालूम नही होता। केवल जनश्रुतिके आधार और उसके भी आधारभूत पूर्ववर्ती ग्रन्थोलेखोंपरसे किया गया जान पड़ता है। __४. जैनेन्द्रब्याकरण-यह आचार्य पूज्यपादका, जिनके दूसरे नाम देवनन्दि और जिनेन्द्रबुद्धि, प्रसिद्ध और महत्वपूर्ण व्याकरणग्रन्थ १ “यो देवनन्दिप्रथमाभिधानो बुद्ध्या महत्या स जिनेन्द्रबुद्धिः।। श्रीपूज्यपादोऽजनि देवताभिर्यत्पूजितं पादयुगं यदीयम् ।।" श्रवण शि० नं० ४० (घ४) Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना है । श्रीमाम् पं० नाथूरामजी प्रेमीके शब्दोंमें यह 'पहला जैन व्याकरण' है । इस ग्रंथकी जैनपरम्परामें बहुत प्रतिष्ठा रही है। भट्टाकलङ्कदेव आदि अनेक बड़े बड़े प्राचार्योंने अपने ग्रन्थोंमें इसके सूत्रोंका बहुत उपयोग किया है । महाकवि धनंजय ( नाममालाके कर्ता ) ने तो इसे 'अपश्चिम रत्न' (वेजोड़ रत्न) कहा है । इस ग्रन्थपर अनेक टीकाएँ लिखी गई हैं। इस समय केवल निम्न चार टीकाएँ उपलब्ध हैं :-१अभयनन्दिकृत महावृत्ति, २ प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर, ३ आर्य श्रुतिकीर्तिकृत पंचवस्तु प्रक्रिया और ४ पं० महाचन्द्रकृत लघुजैनेन्द्र । इस ग्रंथ के कर्ता आ० पूज्यपादका समय ईसाकी पाँचवी और विक्रमकी छठी शताब्दी माना जाता है । जैनेन्द्रव्याकरणके अतिरिक्त इनकी रची हुई–१ तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थसिद्धि), २ समाधितन्त्र, ३ इष्टोपदेश, ४ और दशभक्ति (संस्कृत) ये कृतियाँ उपलब्ध हैं। सारसंग्रह, शब्दावतारन्यास, जैनेन्द्रन्यास और वैद्यकका कोई ग्रंथ ये अनुपलब्ध रचनाएँ, है जिनके ग्रन्थों, शिलालेखों आदिमें उल्लेख मिलते हैं । अभिनव धर्मभूषणने न्यायदीपिका पृ० ११ पर इस ग्रंथके नामोल्लेखके बिना और पृ० १३ पर नामोल्लेख करके दो सूत्र उद्धृत किये हैं। प्राप्तमीमांसाविवरण-ग्रंथकारने न्यायदीपिका पृ० ११५ पर इस का नामोल्लेख किया है और उसे श्रीमदाचार्यपादका बतलाकर उसमें कपिलादिकोंकी आप्ताभासताको विस्तारसे जाननेकी प्रेरणा की है। यह आप्तमीमांसाविवरण प्राप्तमीमांसापर लिखीगई अकलङ्कदेवकी 'अष्टशती' नामक विवृत्ति और आचार्य विद्यानन्दरचित आप्तमीमांसालंकृति-'अष्ट २ इस ग्रन्थ और ग्रन्थकारके विशेष परिचयके लिये 'जैन साहित्य और इतिहासके देवनन्दि और उनका जैनेन्द्रव्याकरण' निबन्ध और सम धितन्त्रकी प्रस्तावना देखें । ३ “प्रमाणामकलङ्कस्य पूज्यपादस्य लक्षणं । धनजयकवे काव्यं रत्नत्रयमपश्चिमम् । "-नाममाला । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका सहस्त्रीको छोड़कर कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है और न अकलङ्कदेव तथा विद्यानन्दके सिवाय कोई 'श्रीमदाचार्यपाद' नामके आचार्य ही हैं । वसुनन्दि ने भी यद्यपि 'प्राप्तमीमांसा' पर देवागमवृत्ति' टीका लिखी है परन्तु वह आप्तमीमांसाकी कारिकारोंका शब्दानुसारी अर्थस्फोट ही करती हैंउसमें कपिलादिकोंकी आप्ताभासताका विस्तारसे वर्णन नहीं है। अतः न्यायदीपिकाकारको 'प्राप्तमीमांसाविवरण से अष्टशती और अष्टसहस्त्री विवक्षित हैं। ये दोनों दार्शनिक टीकाकृतियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण और गूढ हैं । अष्टशती तो इतनी दुरूह और जटिल है कि बिना अष्टसहस्त्रीके उसके मर्मको समझना बहुत मुश्किल है। जैनदर्शनसाहित्यमें ही नहीं, समग्र भारतीय दर्शनसाहित्यमें इनकी जोड़का प्रायः बिरला ही कोई स्वतन्त्र ग्रन्थ या टीकाग्रन्थ हो । राजवत्तिक और भाष्य-गौतमके न्यायसूत्रपर प्रसिद्ध नैयायिक उद्योतकरके 'न्यायकात्तिक' की तरह प्रा० उमास्वाति विरचित तत्वार्थसूत्रपर अकलङ्कदेवने गद्यात्मक 'तत्वार्थवात्तिक' नामक टीका लिखी है। जो राजवत्तिकके नामसे भी व्यवहृत होती है। और उसके वात्तिकोंपर उद्योतकरकी ही तरह स्वयं अकलङ्कदेवका रचागया भाष्य है जो 'तत्वार्थवात्तिकभाष्य या 'राजवात्तिकभाष्य' भी कहा जाता है। यह भाष्य राजवात्तिकके प्रत्येक वातिकका विशद व्याख्यान है। इसकीभाषा बड़ी सरल और प्रसन्न है जबकि प्रत्येक वात्तिक अत्यन्त गम्भीर और दुरूह है। एकही जगह अकलंकदेवकी इस चेतश्चमत्कारी प्रतिभाकी विविधताको पाकर सहृदय पाठक साश्चर्य आनन्दविभोर हो उठता है और श्रद्धासे उसका मस्तक नत होजाता है । अकलंकदेवने अपना यह राजवात्तिक आ० पूज्यपादकी सर्वार्थसिद्धिको आधार बनाकर लिखा है जो तत्त्वार्थसूत्रकी समग्र टीकाओं में पहली टीका है उन्होंने उसके अर्थगौरवपूर्ण प्रायः प्रत्येक वाक्यको राजवात्तिकका वार्तिक बनाया है। फिरभी राजवात्तिकमें सर्वार्थसिद्ध से कुछभी पुनरुक्ति एवं निरर्थकता मालूम नहीं होती। राजवात्तिककी यह विशेषता है Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना वह प्रत्येक विषयकी अन्तिम व्यवस्था अनेकान्तका आश्रय लेकर करताहै। तत्त्वार्थसूत्र की समस्त टीकाओंमें राजवात्तिक प्रधान टीका है । या श्रीमान् पं० सुखलालजीके शब्दोंमें यों कह सकते हैं कि “राजवात्तिक गद्य, सरल और विस्तृत होनेसे तत्त्वार्थके संपूर्ण टीका ग्रन्थोंकी गरज अकेला ही पूरी करता है।" वस्तुतः जैनदर्शनका बहुविध एवं प्रामाणिक अभ्यास करनेके लिए केवल राजवात्तिकका अध्ययन पर्याप्त है । न्यायदीपिकाकारने न्या० दी० पृ०३१ और ३५ पर राजवात्तिकका तथा पृ०६ और ३२ पर उनके भाष्यका जुदा जुदा नामोल्लेख करके कुछ वाक्य उद्धृत किये हैं । न्यायविनिश्चय-यह अकलङ्कदेवकी उपलब्ध दार्शनिक कृतियोंमें अन्यतम कृति है। इसमें तीन प्रस्ताव (परिच्छेद) है और तीनों प्रस्तावोंकी मिलाकर कुल ४८० कारिकाएँ हैं। पहला प्रत्यक्ष प्रस्ताव है जिसमें दर्शनान्तरीय प्रत्यक्षलक्षणोंकी आलोचनाके साथ जैनसम्मत प्रत्यक्ष-लक्षणका निरूपण किया गया है और प्रासंगिक कतिपय दूसरे विषयोंका भी विवेचन किया गया है। दूसरे अनुमान प्रस्तावमें अनुमानका लक्षण साधन, साधनाभास, साध्य, साध्याभास आदि अनुमानके परिकरका विवेचन है और तीसरे प्रस्तावमें प्रवचनका स्वरूप आदिका विशिष्ट निश्चय किया गया है। इस तरह इस न्यायविनिश्चयमें जैनन्यायकी रूपरेखा बांधकर उसकी प्रस्थापना की गई है। यह ग्रन्थ भी अकलङ्कदेवके दूसरे ग्रंथोंकीही तरह दुर्बोध और गम्भीर है । इसपर प्रा० स्याद्वादविद्यापति वादिराजसूरिकी न्यायविनिश्चयविवरण अथवा न्यायविनिश्चयालंकार नामकी वैदुष्यपूर्ण विशाल टीका है । अकलङ्कदेवकी भी इसपर स्वोपज्ञ विवृत्ति होनेकी सम्भावना की जाती है, क्योंकि लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रहपर भी उनकी स्वोपज्ञ विवृत्तियाँ हैं। तथा कतिपय वैसे उल्लेख भी मिलते हैं। न्यायविनिश्चय मूल अकलङ्कग्रन्थत्रयमें मुद्रित हो चुका है। वादिराज सूरिकृत टीका अभी अमुद्रित है। प्रा० धर्मभूषणने इस ग्रन्थके नामोल्लेखके साथ न्यायदीपिका पृ० २४ पर Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० न्याय-दीपिका इसकी अर्धकारिका और पृष्ठ ७० एक पूरी कारिका उद्धृत की है।। परीक्षामुख-यह प्राचार्य माणिक्यनन्दिकी असाधारण और अपूर्व कृति है । तथा जैनन्यायका प्रथम सूत्रग्रन्थ है । यद्यपि अकलङ्कदेव जैनन्यायकी प्रस्थापना कर चुके थे और अनेक महत्वपूर्ण स्फुट प्रकरण भी लिख चुके थे। परंतु गौतमके न्यायसूत्र, दिग्नागके न्यायप्रवेश, न्यायमुख आदिकी तरह जैनन्यायको सूत्रबद्ध करनेवाला 'न्यायसूत्र' ग्रन्थ जैनपरम्परामें अब तक नहीं बन पाया था। इस कमीकी पूत्तिको सर्वप्रथम प्रामाणिक्यनन्दिने प्रस्तुत 'परीक्षामुख' लिखकर किया । माणिक्यनन्दिकी यह अकेली एक ही अमर रचना है जो भारतीय न्यायसूत्रग्रन्थों में अपना विशिष्ट स्थान रखती है । यह अपूर्व ग्रन्थ संस्कृत भाषामें निबद्ध है । छह परिच्छेदोंमें विभक्त है और इसकी सूत्रसंख्या सब मिलाकर २०७ है । सूत्र बड़े सरल, सरस तथा नपे तुले हैं। साथमें गम्भीर, तलस्पर्शी और अर्थगौरवको लिए हुए हैं। आदि और अन्त में दो पद्य हैं । अकलंकदेवके द्वारा प्रस्थापित जैनन्यायको इसमें बहुत ही सुन्दर ढंगसे ग्रथित किया गया है। लघु अनन्तवीर्यने तो इसे अकलंकके वचनरूप समुद्रको' मथकर निकाला गया 'न्यायविद्यामृत-न्यायविद्याका अमृत बतलाया है। इस ग्रन्थरत्नका महत्व इसीसे ख्यापित हो जाता है कि इसपर अनेक महत्वपूर्ण टीकाएँ लिखी गई हैं। प्रा० प्रभाचन्द्रने १२ हजार श्लोकप्रमाण 'प्रमेयकमलमार्तण्ड' नामकी विशालकाय टीका १ अकलङ्कके वचनोंसे ‘परीक्षामुख' कैसे उद्धृत हुआ है, इसके लिए मेरा परीक्षामुखसूत्र और उसका उद्गम' शीर्षक लेख देखें । 'अनेकान्त' वर्ष ५ किरण ३-४ पृ० ११६-१२८ । २ "अकलङ्कवचोऽम्भोधेरुद्दभ्रे येन धीमता । __ न्यायविद्यामृतं तस्मै नमो माणिक्यनन्दिने ।।"प्रमेयर० पृ० २ । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लिखी है । इनके पीछे १२ वीं शताब्दीके विद्वान् लघु अनन्तवीर्यने प्रसन्न रचनाशैलीवाली 'प्रमेयरत्नमाला' टीका लिखी है । यह टीका है तो छोटी, पर इतनी विशद है कि पाठकको बिना कठिनाईके सहज में ही अर्थवोध हो जाता है। इसकी शब्दरचनासे हेमचन्द्राचार्य भी प्रभावित हुए हैं और उन्होंने अपनी प्रमाणमीमांसामें शब्दशः तथा अर्थशः उसका अनुसरण किया है। न्यायदीपिकाकारने परीक्षामुखके अनेक सूत्रोंको नामनिर्देश और बिना नामनिर्देशके उद्धृत किया है। वस्तुतः आ० धर्मभूषणने इस सूत्रग्रन्थका खूब ही उपयोग किया है। न्यायदीपिकाके आधारभूत ग्रन्थोंमें परीक्षामुखका नाम लिया जा सकता है। तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक और भाष्य—ग्रा० उमास्वातिके तत्त्वार्थसूत्रपर कुमारिलके 'मीमांसाश्लोकवात्तिक' और धर्मकीर्तिके 'प्रमाणवात्तिक' की तरह पद्यात्मक विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक रचा है और उसके पद्यवात्तिकोंपर उन्होंने स्वयं गद्य में भाष्य लिखा है जो तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकभाष्य' और 'श्लोकवात्तिकभाष्य' इन नामोंसे कथित होता है । आचार्यप्रवर विद्यानन्दने इसमें अपनी दार्शनिक विद्याका पूरा ही खजाना खोलकर रख दिया है और प्रत्येकको उसका अानन्दरसास्वाद लेनेके लिये निःस्वार्थ आमंत्रण दे रखा है श्लोकवात्तिकके एक सिरेसे दूसरे सिरे तक चले जाइये, सर्वत्र तार्किकता और गहन विचारणा समव्याप्त है। कहीं मीमांसादर्शनके नियोग भावनादिपर उनके सूक्ष्म एवं विशाल पाणिडत्यकी प्रखर किरणें अपना तीक्ष्ण प्रकाश डाल रहीं हैं तो कहीं न्यायदर्शनके निग्रहस्थानादिरूप प्रगाढ तमको निष्कासित कर रहीं हैं और कहीं बौद्ध दर्शनकी हिममय चट्टानोंको पिघला पिघला कर दूर कर रही हैं। इस तरह श्लोकवात्तिकमें हमें विद्यानन्दके अनेकमुख पाण्डित्य और सूक्ष्मप्रज्ञताके दर्शन होते हैं । यही कारण है कि जैनताकिकोंमें प्राचार्य विद्यानन्दका उन्नत स्थान है । श्लोकवात्तिक के अलावा विद्यानन्दमहोदय, अष्टसहस्री, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, आप्तपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका युक्त्यनुशासनालङ्कार आदि दार्शनिक रचनाएँ उनकी बनाई हुई है। इनमें विद्यानन्दमहोदय, जो श्लोकवात्तिककी रचनासे भी पहलेकी विशिष्ट रचना है और जिसके उल्लेख तत्त्वार्थरलोकवात्तिक ( पृ० २७२, ३८५) तथा अष्टसहस्त्री ( पृ०२८६, २६० ) में पाये जाते हैं, अनुपलब्ध है। शेषकी रचनाएँ उपलब्ध हैं और सत्यशासनपरीक्षाको छोड़कर मुद्रित भी हो चुकी हैं। प्रा० विद्यानन्द अकलङ्कदेवके उत्तरकालीन और प्रभाचन्द्राचार्यके पूर्ववर्ती है। अतः इनका अस्तित्व-समय नवमी शताब्दी माना जाता है । अभिनव धर्ममूषणने न्यायदीपिकामें इनके श्लोकवात्तिक और भाष्यका कई जगह नामोल्लेख करके उनके वाक्योंको उद्धृत किया है। प्रमाणपरीक्षा-विद्यानन्दकी ही यह अन्यतम कृति है। यह अकलङ्कदेवके प्रमाणसंग्रहादि प्रमाणविषयक प्रकरणोंका आश्रय लेकर रची गई है । यद्यपि इसमें परिच्छेद-भेद नहीं है तथापि प्रमाणमात्रको अपना प्रतिपद्य विषय बनाकर उसका अच्छा निरूपण किया गया है । प्रमाणका सम्यग्ज्ञानत्व लक्षण करके उसके भेद, प्रभेदों, प्रमाणका विषय तथा फल और हेतुओंकी इसमें सुन्दर एवं विस्तृत चर्चा की गई है। हेतु-भेदोंके निदर्शक कुछ संग्रहश्लोकोंको तो उद्धृत भी किया है । जो पूर्ववर्ती किन्हीं जनाचार्योंके ही प्रतीत होते हैं। विद्यानन्दने तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक' और अष्टसहस्त्री की तरह यहाँ भी प्रत्यभिज्ञानके दो ही भेद गिनाये हैं। जबकि अक १ पूर्ववर्तित्वके लिए 'तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण' शीर्षक मेरा द्वितीय लेख देखें, अनेकान्त वर्ष ५ किरण १०-११ पृ ३८० । देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० की प्रस्तावना पृ० ३० और स्वामी समन्तभद्र पृ० ४८ । ३ 'तद्विधैकत्वसादृश्यगोचरत्वेन निश्चतम्'-त० श्लो० पृ० १६० । ४ 'तदेवेदं तत्सदृशमेवेदमित्येकत्वसादृश्यविषयस्थ द्विविधप्रत्यभिज्ञानस्य - '-अष्टस० पृ० २७६ । ५ 'द्विविधं हि प्रत्यभिज्ञानं ' प्रमाणप० पृ० ६६ । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना लङ्क और माणिक्यनन्दिने' दोसे ज्यादा कहे हैं और यही मान्यता जैनपरम्परामें प्रायः सर्वत्र प्रतिष्ठित हुई है इससे मालूम होता है कि प्रत्यभिज्ञानके दो भेदोंकी मान्यता विद्यानन्दकी अपनी है । प्रा० धर्मभूषणने पृ० १७ पर इस ग्रन्थकी नामोल्लेखके साथ एक कारिका उद्धृत की है। पत्रपरीक्षा-यह भी आचार्य विद्यानन्दकी रचना है । इसमें दर्शनान्तरीय पत्रलक्षणोंकी समालोचनापूर्वक जैनदृष्टि से पत्रका बहुत सुन्दर लक्षण किया है तथा प्रतिज्ञा और हेतु इन दो अवयवोंको ही अनुमानाङ्ग बतलाया है । न्यायदीपिका पृ० ८१ पर इसग्नन्थका नामोल्लेख हुआ है और उसमें अवयवोंके विचारकको विस्तारसे जानने की सूचना की है । - प्रमेयकमलमार्तण्ड - यह आ० माणिक्यनन्दिके 'परीक्षामुख' सूत्रग्रन्थपर रचा गया प्रभाचन्द्राचार्यका बृहत्काय टीकाग्रंथ है। इसे पिछले लघु अनन्तवीर्य ( प्रमेयरत्नमालाकार ) ने 'उदारचन्द्रिका' की उपमा दी और अपनी कृति-प्रमेयरत्नमालाको उसके सामने जुगुनूके सदृश बतलाया है इससे प्रमेयकमलमार्तण्डका महत्व ख्यापित हो जाता है । निःसन्देह मार्तण्डके प्रदीप्त प्रकाशमें दर्शनान्तरीय प्रमेय स्फुटतया भासमान होते हैं। स्वतत्त्व, परतत्त्व और यथार्थता, अयथार्थताका निर्णय करने में कठिनाई नहीं मालूम होती । इस ग्रन्थके रचयिता प्रा० प्रभाचन्द्र ईसाकी १० वीं और ११वीं शताब्दी ( ६८०से १०६५ ई० ) के विद्वान् माने जाते हैं। इन्होंने प्रमेयकमलमार्तण्डके अलावा न्यायकुमुदचन्द्र, तत्त्वार्थवृत्तिपदविवरण, शाकटायनन्यास, शब्दाम्भोजभास्कर, प्रवचनसारस रोजभास्कर, गद्यकथाकोश, रत्नकरण्डश्रावकाचारटीका और समाधितंत्रटीका आदि ग्रन्थोंकी रचना की है। इनमें गद्यकथाकोश स्वतन्त्र कृति है और शेष १ देखो, लघीय का० २१ । २ देखो, परीक्षामु० ३-५ से ३-१० । ३ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० प्र० पृ० ५८ तथा प्रमेयकमलमार्तण्ड प्रस्ता० पृ० ६७ । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ न्याय-दीपिका टीका कृतियाँ हैं । धर्मभूषणने न्यायदीपिका पृ० ३० पर तो इस ग्रंथका केवल नामोल्लेख और ५४ पर नामोल्लेखके साथ एक वाक्यको भी उद्धृत किया है। प्रमाण-निर्णय-न्यायविनिश्चयविवरणटीकाके कर्ता आ० वादिराजसूरिका यह स्वतन्त्र तार्किक प्रकरण ग्रंथ है। इसमें प्रमाणलक्षणनिर्णय, प्रत्यक्षनिर्णय, परोक्षनिर्णय और आगमनिर्णय ये चार निर्णय (परिच्छेद) हैं, जिनके नामोंसे ही ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय स्पष्ट मालूम हो जाता है । न्या० दी० पृ०११ पर इस ग्रन्थके नामोल्लेखके साथ एक वाक्यको उद्धृत किया है। कारूण्यकलिका--यह सन्दिग्ध ग्रन्थ है । न्यायदीपिकाकारने पृ० १११ पर इस ग्रन्थका निम्न प्रकारसे उल्लेख किया है _ 'प्रपञ्चितमेतदुपाधिनिराकरणं कारुण्कलिकायामिति विरम्यते' परन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी हम यह निर्णय नहीं कर सके कि यह ग्रन्थ जैनरचना है या जैनेतर । अथवा स्वयं ग्रन्थकारकी ही न्यायदीपिकाके अलावा यह अन्य दूसरी रचना है । क्योंकि अब तकके मुद्रित जैन और जैनेतर ग्रन्थोंकी प्राप्त सूचियोंमें भी यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता । अतः ऐसा मालूम होता है कि यह या तो नष्ट हो चुका है या किसी लायब्रेरीमें असुरक्षित रूपमें पड़ा है। यदि नष्ट नहीं हया और किसी लायब्रेरीमें है तो इसकी खोज होकर प्रकाशमें आना चाहिए। यह बहुत ही महत्वपूर्ण और अच्छा ग्रन्थ मालूम होता है । न्यायदीपिकाकारके उल्लेखसे विदित होता है कि उसमें विस्तारसे उपाधिका निराकरण किया गया है। सम्भव है गदाधरके 'उपाधिवाद' ग्रन्थका भी इसमें खण्डन हो। स्वामीसमन्तभद्र-ये वीरशासनके प्रभावक, सम्प्रसारक और खास युगके प्रवर्तक महान् आचार्य हुये हैं सुप्रसिद्ध तार्किक भट्टाकलङ्कदेवने इन्हें कलिकालमें स्याद्वादरूपी पुण्योदधिके तीर्थका प्रभावक बतलाया Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना है । आचार्य जिनसेनने इनके वचनोंको भ० वीरके वचनतुल्य प्रकट किया है और एक शिलालेखमें तो भ० वीरके तीर्थकी हजारगुणी वृद्धि करनेवाला भी कहा है । आ० हरिभद्र और विद्यानन्द जैसे बड़े बड़े आचार्योंने उन्हें 'वादिमुख्य' 'आद्यस्तुतिकार' 'स्याद्वादन्यायमार्गका' प्रकाशक' आदि विशेषणों द्वारा स्मृत किया है इसमें सन्देह नहीं कि उत्तरवर्ती प्राचार्योंने जितना गुणगान स्वामी समन्तभद्रका किया है उतना दूसरे प्राचार्यका नहीं किया । वास्तवमें स्वामी समन्तभद्रने वीरशासनकी जो महान् सेवा की है वह जैनवाङ्मयके इतिहासमें सदा स्मरणीय एवं अमर रहेगी । प्राप्तमीमांसा (देवागमस्तोत्र), युक्त्यनुशासन, स्वयम्भूस्तोत्र रत्नकरण्डश्रावकाचार और जिनशतक (जिनस्तुतिशतक) ये पांच उपलब्ध कृतियाँ इनकी प्रसिद्ध हैं । तत्त्वानुशासन, जीवसिद्धि, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृतटीका और गन्धहस्तिमहाभाष्य इन ५ ग्रन्थोंके भी इनके द्वारा रचे जानेके उल्लेख ग्रन्थान्तरोंमें मिलते हैं। परन्तु अभी तक कोई उपलब्ध नहीं हुआ । गन्धहस्तिमहाभाष्य (महाभाष्य) के सम्बन्धमें मैं पहिले विचार कर आया हूँ। स्वामीसमन्तभद्र बौद्ध विद्वान् नागार्जुन (१८१ई०) के समकालीन या कुछ ही समय बादके और दिग्नाग (३४५४२५ई०) के पूर्ववर्ती विद्वान् हैं । अर्थात् इनका अस्तित्व-समय प्रायः ईसाकी दूसरी और तीसरी शताब्दी है कुछ विद्वान् इन्हें दिग्नाग (४२५ई० और धर्मकीर्ति (६३५ई०) के उत्तरकालीन अनुमानित करते हैं। १ देखो, अष्टशती पृ० २ । २ देखो, हरिवंशपुराण १-३० । ३ देखो, वेलूर ताल्लुकेका शिलालेख नं० १७ । ४ इन ग्रन्थोंके परिचयके लिये मुख्तार सा० का 'स्वामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ देखें । ५ देखो, 'नागार्जुन और स्वामीसमन्तभद्र' तथा 'स्वामीसमन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन' शीर्षक दो मेरे निबन्ध 'अनेकान्त' वर्ष ७ किरण १-२ और वर्ष ५ कि० १२ । ६ देखो, न्यायकुमुद द्वि० भा० का प्राक्कथन और प्रस्तावना। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका अर्थात् ५वीं और सातवीं शताब्दी बतलाते हैं । इस सन्बन्धमें जो उनकी दलीलें हैं उनका युक्तिपूर्ण विचार अन्यत्र' किया है। अतः इस संक्षिप्त स्थानपर पुनः विचार करना शक्य नहीं है। न्यायदीपिकाकारने न्यायदीपिकामें अनेक जगह स्वामी समन्तभद्रका नामोल्लेख किया है और उनके प्रसिद्ध दो स्तोत्रों-देवागमस्तोत्र (प्राप्तमीमांसा) और स्वयम्भूतोत्र. से अनेक कारिकानों को उद्धृत किया है । भट्टाकलदेव-ये 'जैनन्यायके प्रस्थापक' के रूपमें स्मृत किये जाते हैं जैनपम्पराके सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर तार्किक इनके द्वारा प्रतिष्ठित 'न्यायमार्ग' पर ही चले हैं। आगे जाकर तो इनका वह 'न्यायमार्ग' 'प्रकलङ्कन्याय'के नामसे प्रसिद्ध हो गया। तत्त्वार्थवार्तिक, अष्टशती, न्यायविनिश्चय, लघीयस्त्रय और प्रमाणसंग्रह आदि इनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ हैं । ये प्रायः सभी दार्शनिक कृतियाँ हैं और तत्त्वार्थवार्तिकभाष्यको छोड़कर सभी गूढ एवं दुरवगाह हैं । अनन्तवीर्यादि टीकाकारोंने इनके पदोंकी व्याख्या करने में अपनेको असमर्थ बतलाया है। वस्तुतः अकलङ्कदेवका वाङ्मय अपनी स्वाभाविक जटिलताके कारण विद्वानोंके लिए आज भी दुर्गम और दुर्बोध बना हुआ है। जबकि उनपर टीकाएँ भी उपलब्ध हैं। जैन साहित्यमें ही नहीं, बल्कि भारतीय दर्शनसाहित्यमें अकलङ्कदेवकी सर्व कृतियाँ अपना विशिष्ट स्थान रखती हैं। इनकी कतिपय कृतियोंका कुछ परिचय पहले करा आये हैं । श्रीमान् पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्यने इनका अस्तित्वकाल अन्तःपरीक्षा आदि प्रमाणोंके आधारपर ईसाकी आठवीं शताब्दी ( ७२० से७८० ई० ) निर्धारित किया है। न्यायदीपिकामें धर्मभूषणजीने कई जगह इनके नाम १ देखो, 'क्या स्वामीसमन्तभद्र धर्मकीतिके उत्तरकालीन है ?' नामक मेरा लेख, जैनसिद्धान्तभास्कर भा० ११ किरण १ । २ देखो, अकलङ्क ग्रन्थत्रयको प्रस्तावना पृ० ३२ । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८७ का उल्लेख किया है और तत्त्वार्थवातिक तथा न्यायविनिश्चयसे कुछ वाक्योंको उद्धृत किया है। कुमारनन्दि भट्टारक-यद्यपि इनकी कोई रचना इस समय उपलब्ध नहीं है, इससे इनका विशेष परिचय कराना अशक्य है फिर भी इतना जरूर कहा जा सकता है कि ये आ० विद्यानन्दके पूर्ववर्ती विद्वान् हैं और अच्छे जैनतार्किक हुए हैं। विद्यानन्दस्वामीने अपने प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा और तत्वार्थश्लोकवात्तिकमें इनका और इनके 'बादन्याय'का नामोल्लेख किया है तथा उसकी कुछ कारिकाएँ भी उद्धत की हैं। इससे इनकी उत्तरावधि तो विद्यानन्दका समय है अर्थात् हवीं शताब्दी है। और अकलङ्कदेवके उत्तरकालीन मालूम होते हैं; क्योंकि अकलङ्कदेवके समकालीनका अस्तित्व परिचायक इनका अब तक कोई उल्लेख प्राप्त नहीं है । अतः अकलङ्कदेवका समय (८वीं शताब्दी) इनकी पूर्वावधि है। इस तरह ये ८वीं, हवीं सदीके मध्यवर्ती विद्वान् जान पड़ते है । चन्द्रगिरि पर्वतपर उत्कीर्ण शिलालेख नं० २२७ (१३६) में इनका उल्लेख है जो हवीं शताब्दीका अनुमानित किया जाता है। इनका महत्वका 'वादन्याय' नामका तर्कग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं हैं जिसके केवल उल्लेख मिलते हैं। प्रा० धर्मभूषणने न्यायदी० पृ० ६६ और ८२ पर 'तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः कहकर इनके वादन्यायकी एक कारिकाके पूर्वार्द्ध और उत्तरार्धको अलग अलग उद्धृत किया है। माणिक्यनन्दि-ये कुमारनन्दि भट्टारककी तरह नन्दिसंघके प्रमुख प्राचार्योंमें हैं। इनकी एकमात्र कृति परीक्षमुख है। जिसके सम्बन्धमें हम पहले प्रकाश डाल पाए हैं। इनका समय १०वीं शताब्दीके लगभग माना जाता है । ग्रन्थकारने न्यायदीपिकामें कई जगह इनका नामोल्लेख किया है । एक स्थान ( पृ० १२० ) पर तो 'भगवान' और १ देखो, जैनशिलालेखसं० पृ० १५२, ३२१ । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ न्याय-दोपिका 'भट्टारक' जैसे महनीय विशेषणों सहित इनके नामका उल्लेख करके परीक्षामुखके सूत्रको उद्धृत किया है। ___ स्याद्वादविद्यापति--यह प्राचार्य वादिराजसूरिकी विशिष्ट उपाधि थी जो उनके स्याद्वादविद्याके अधिपतित्व–अगाध पाण्डित्यको प्रकट करती है । प्रा० वादिराज अपनी इस उपाधिसे इतने अभिन्न एवं तदात्म जान पड़ते हैं कि उनकी इस उपाधिसे ही पाठक वादिराजसूरिको जान लेते हैं। यही कारण है कि न्यायविनिश्चयविवरणके सन्धिवाक्योंमें 'स्याद्वादविद्यापति' उपाधिके द्वारा ही वे अभिहित हुए हैं। न्यायदीपिकाकारने भी न्यायदीपिका पृ० २४ और ७० पर इसी उपाधिसे उनका उल्लेख किया है और पृ० २४ पर तो इसी नामके साथ एक वाक्यको भी उद्धृत किया है। मालूम होता है कि 'न्यायविनिश्चय' जैसे दुरूह तकंग्रंथपर अपना बृहत्काय विवरण लिखनेके उपलक्षमें ही इन्हें गुरूजनों अथवा विद्वानों द्वारा उक्त गौरवपूर्ण स्याद्वादविद्याके धनीरूप उच्च पदवीसे सम्मानित किया होगा । वादिराजसूरि केवल अपने समयके महान् तार्किक ही नहीं थे, बल्कि वे सच्चे अहद्भक्त एवं आज्ञाप्रधानी, वैयाकरण और अद्वितीय उच्च कवि भी थे। न्यायविनिश्चयविवरण, पार्श्वनाथचरित, यशोधरचरित, प्रमाणनिर्णय और एकीभावस्तोत्र आदि इनकी कृतियाँ है । इन्होंने अपना पार्श्वनाथचरित शकसम्बत् ६४७ (१०२५ ई० ) में समाप्त किया है। अतः ये ईसाकी ११वीं सदीके पूर्वार्द्धके विद्वान हैं। - १ इसका एक नमूना इस प्रकार है-इत्याचार्यस्याद्वादविद्यापतिविरचित न्यायविनिश्चयकारिकाविवरणे प्रत्यक्षप्रस्ताव: प्रथम ।'लि. पत्र ३०६। २'वादिराजमनु शाब्दिकलोको वादिराजमनु तार्किकसिंहः । वादिराजमनु काव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहायः ।।' -एकीभावस्तोत्र २६ । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २. अभिनव धर्मभूषण प्रासंगिक जैनसमाजने अपने प्रतिष्ठित महान् पुरुषों-तीर्थंकरों, राजाओं, प्राचार्यों, श्रेष्ठिवरों, विद्वानों तथा तीर्थक्षेत्रों, मन्दिरों और ग्रंथागारों आदिके इतिवृत्तको संकलन करनेकी प्रवृत्तिकी ओर बहुत कुछ उपेक्षा एवं उदासीनता रखी है। इसीसे अाज सब कुछ होते हुए भी इस विषयमें हम दुनियाँ की नजरोंमें अकिञ्चन समझे जाते हैं । यद्यपि यह प्रकट हैं कि जैन इतिहासकी सामग्री विपुलरूपमें भारतके कोने-कोने में सर्वत्र विद्यमान है पर वह विखरी हुई असम्बद्धरूपमें पड़ी हुई है। यही कारण है कि जैन इतिहासको जाननेके लिए या उसे सम्बद्ध करनेके लिए अपरिमित कठिनाइयाँ आती हैं और अन्धेरे में टटोलना पड़ता है । प्रसन्नताकी बात है कि कुछ दूरदर्शी श्रीमान् विद्वान् वर्गका अब इस ओर ध्यान गया । और उन्होंने इतिहास तथा साहित्यके संकलन, अन्वेषण आदिका क्रियात्मक प्रयत्न प्रारम्भ कर दिया है। आज हम अपने जिन ग्रन्थकार श्री अभिनव धर्मभूषण का परिचय देना चाहते हैं उनको जानने के लिये जो कुछ साधन प्राप्त हैं वे यद्यपि पूरे पर्याप्त नहीं हैं । उनके माता-पितादिका क्या नाम था ? जन्म और स्वर्गवास कब, कहाँ हुआ? आदिका उनसे कोई पता नहीं चलता है । फिर भी सौभाग्य और सन्तोषकी बात यही है कि उपलब्ध साधनोंसे उनके प्रभावशाली व्यक्तित्व, गुरुपरम्परा, और समयका कुछ प्रामाणिक परिचय मिल जाता है । अतः हम उन्हीं शिलालेख, ग्रन्थोल्लेख आदि साधनोंपरसे ग्रन्थकारके सम्बन्धमें कुछ कहनेके लिये प्रस्तुत हुए हैं । ग्रन्थकार और उनके अभिनव तथा यति विशेषरण _ इस ग्रन्थके कर्ता अभिनव धर्मभूषण यति हैं। न्यायदीपिकाके पहले और दूससे प्रकाशके पुष्पिकावाक्योंमें 'यति' विशेषण तथा तीसरे Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्रकाशके पुष्पिकावाक्यमें 'अभिनव' विशेषण इनके नामके साथ पाये जाते हैं । जिससे मालूम होता हैं कि न्यायदीपिकाके रचयिता धर्मभूषण अभि नव और यति दोनों कहलाते थे। जान पड़ता है कि अपने पूर्ववर्ती धर्म भूषणोंसे अपनेको व्यावृत्त करनेके लिये 'अभिनव' विशेषण लगाया है। क्योंकि प्राय: ऐसा देखा जाता है कि एक नामके अनेक व्यक्तियोंमें अपने को जुदा करने के लिये कोई उपनाम रख लिया जाता है । अतः 'अभिनव न्यायदीपिकाकारका एक व्यावर्त्तक विशेषण या उपनाम समझना चाहिए। जैनसाहित्य में ऐसे और भी कई प्राचार्य हुए हैं जो अपने नामके साथ अमिनव विशेषण लगाते हुए पाये जाते हैं। जैसे अभिनव पण्डिताचार्य ( शक० १२३३ ) अभिनव श्रुतमुनि' अभिनव गुणभद्र' और अभिनव पण्डितदेव आदि । अतः पूर्ववर्ती अपने नामवालोंसे व्यावृत्ति के लिये 'अभिनव' विशेषण यह एक परिपाटी है। 'यति' विशेषण तो स्पष्ट ही है क्योंकि वह मुनिके लिये प्रयुक्त किया जाता है। अभिनव धर्मभूषण अपने गुरु श्रीवर्द्धमान भट्टारकके पट्टके उत्तराधिकारी हुए थे और वे कुन्दकुन्दाचार्यकी आम्नायमें हुए हैं । इसलिये इस विशेषणके द्वारा यह भी निर्धान्त ज्ञात हो जाता है कि ग्रन्थकार दिगम्बर जैन मुनि थे श्रीर भट्टारक नामसे लोकविश्रुत थे। १ देखो, शिलालेख० नं० ४२१ । २ देखो, जनशिलालेखसं० पृ० २०१, शिलाले० १०५ (२४५) । ३ देखो, 'सी. पी. एण्ड बरार कैटलाग' रा० ब० हीरालालद्वारा सम्पादित । ४ देखो, जैनशिलालेख सं० पृ० ६४५ शिलालेख नं० ३६२ ( २५७ ) । ५ " शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः । . भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविवर्जितः ॥" -विजयनगरशिला० नं० २। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना धर्मभूषरण नाम के दूसरे विद्वान् ऊपर कहा गया है कि ग्रन्थकारने दूसरे पूर्ववर्ती धर्मभूषणोंमे भिन्नत्व ख्यापित करनेके लिए अपने नामके साथ 'अभिनव' विशेषण लगाया है। अतः यहाँ यह बता देना आवश्यक प्रतीत होता है कि जैनपरम्परामें धर्मभूषण नामके अनेक विद्वान् हो गये हैं । एक धर्मभूषण वे हैं जो भट्टारक धर्मचन्द्र के पट्टपर बैठे थे और जिनका उल्लेख बरारप्रान्तके मूर्तिलेखोंमें बहुलतया पाया जाता है। ये मूत्तिलेख शकसम्बत् १५२२, १५३५, १५७२ और १५७७ के उत्कीर्ण हुए हैं । परन्तु ये धर्मभूषण न्यायदीपिकाकारके उत्तरकालीन हैं। दूसरे धर्मभूषण वे हैं जितके आदेशानुसार केशववर्णीने अपनी नोम्मटसारकी जीवतत्त्वप्रदीपिका नामक टीका शकसम्बत् १२८१ (१३५६ ई०) में बनाई है। तीसरे धर्मभुषण वे हैं जो अमरकीत्तिके गुरु थे तथा विजयनगरके शिलालेख नं० २ में उल्लिखित तीन धर्मभूषणोंमें पहले नम्बरपर जिनका उल्लेख है और जो ही सम्भवतः विन्ध्यगिरि पर्वतके शिलालेख नं० १११ (२७४) में भी अमरकीत्तिके गुरुरूपसे उल्लिखित हैं। यहाँ उन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' भी कहा गया है। चौथे धर्मभूषण वे हैं जो अमरकीत्तिके शिष्य और विजयनगर शिलालेख नं० २ गत पहले धर्मभूषणके प्रशिष्य हैं एवं सिंहनन्दीव्रतीके सधर्मा हैं तथा विजयनगरके शिलालेख नं० २ के ११वें पद्य में दूसरे नं० के धर्मभूषणके रूपमें उल्लिखित हैं । १ सहस्रनामाराधना' के कर्ता देवेन्द्रकीत्तिने भी 'सहस्रनामाराधना' में इन दोनों विद्वानोंका अपने गुरु और प्रगुरुरूपसे उल्लेख किया है। देखो, जैनसिद्धान्तभवन पारासे प्रकाशित प्रशस्ति सं० पृ० ६४ । २ देखो, डा० ए० एन० उपाध्येका 'गोम्मटसारकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका' शीर्षक लेख 'अनेकान्त' वर्ष ४ किरण १ पृ० ११८ । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ न्याय-दीपिका ग्रन्थकार धर्मभूषण और उनकी परम्परा प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता धर्मभूषण उपर्युक्त धर्मभूषणों से भिन्न हैं और जिनका उल्लेख उसी विजयनगरके शिलालेख नं० २ में तीसरे नम्बरक धर्मभूषणके स्थान पर है तथा जिन्हें स्पष्टतया श्रीवर्द्धमान भट्टारक शिष्य बतलाया है। न्यायदीपिकाकारने स्वयं न्यायदीपिकाके अन्तिम पद्य और अन्तिम (तीसरे प्रकाशगत) पुष्पिकावाक्यमें अपने गुरुका नाम श्रीवर्द्धमान भट्टारक प्रकट किया है। मेरा अनुमान है कि मङ्गलाचरण पद्यमें भी उन्होंने 'श्रीवर्द्धमान' पदके प्रयोग द्वारा वर्द्धमान तीर्थंकर और अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारक दोनोंको स्मरण किया है। क्योंकि अपने परापरगुरुका स्मरण करना सर्वथा उचित ही है। श्रीधर्मभूषण अपने गुरुके अत्यन्त अनन्य भक्त थे। वे न्यायदीपिका के उसी अन्तिम पद्य और पुष्पिकावाक्यमें कहते हैं कि उन्हें अपने उक्त गुरु की कृपासे ही सरस्वतीका प्रकर्ष (सारस्वतोदय) प्राप्त हुआ था और उनके चरणोंकी स्नेहमयी भक्ति-सेवासे न्यायदीपिका की पूर्णता हुई है । अतः मङ्गलाचरणपद्यमें अपने गुरु वर्द्धमान भट्टारकका भी उनके द्वारा स्मरण किया जाना सर्वथा-सम्भव एवं सङ्गत है । विजयनगरके उस शिलालेखमें जो शकसम्बत् १३०७ (१३८५ ई०) । में उत्कीर्ण हुआ है, ग्रन्थकार की जो गुरु परम्परा दी गई है उसके सूचक शिलालेखगत प्रकृतके उपयोगी कुछ पद्योंको यहां दिया जाता है : "यत्मादपङ्कजरजो रजो हरति मानसं । स जिनः श्रेयसे भूयाद् भूयसे करुणालयः ॥१॥ श्रीमत्परमगाम्भीरस्याद्वादामोघलाञ्छनम् । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनम् ॥२॥ १-२ देखो, पृ० १३२॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ T T AN प्रस्तावना ६३ श्रीमूलसंघेऽजनि नन्दिसंघस्तस्मिन् बलात्कारगणेतिसंज्ञः । तत्रापि सारस्वतनाम्नि गच्छे स्वच्छाशयोऽभूदिह पद्मनन्दी ||३|| आचार्यः कुन्दकुन्दाख्यो वकृग्रीवो महामुनिः । एलाचार्यो गृद्धपिच्छ इति तन्नाम पञ्चधा ॥ ४ ॥ केचित्तदन्वये चारुमुनयः खनयो गिराम् । जलधाविव रत्नानि बभूवुर्दिव्यतेजसः ॥५॥ तत्रासीच्चारुचारित्ररत्न रत्नाङ्करो गुरुः । धर्म भूषणयोगीन्द्रो भट्टारकपदांचितः || ६ || भाति भट्टारको धर्मभूषणो गुणभूषणः । यद्यशः कुसुमामोदे गमनं भ्रमरायते ॥ ७ ॥ शिष्यस्तस्य गुरोरासीदनर्गलत्तपोनिधिः । श्रीमान मरकीर्त्त्यार्यो देशिकाग्रेसरः शमी ॥८॥ निजपक्षपुटकवाटं घटयित्वाऽनिलनिरोधितो हृदये । श्रविचलितबोधदीपं तमममरकीर्त्ति भजे तमोहरणम् ||६|| केsपि स्वोदरपूरणे परिणता विद्याविहीनान्तराः । योगीशा भुवि सम्भवन्तु बहवः किं तैरनन्तैरिह || धीरः स्फूर्जति दुर्जयातनुमदध्वंसी गुणैरुज्जितराचार्योऽमरकीति शिष्यगणभृच्छ्रीसिंहनन्दीव्रती ॥ १० ॥ श्रीधर्मभूषोऽजनि तस्य पट्टे श्रीसिंहनन्द्यार्यगुरोस्सधर्मा । भट्टारकः श्रीजिनधर्महर्म्य स्तम्भायमानः कुमुदेन्दुकीर्त्तिः ॥ ११ ॥ पठ्ठे तस्य मुनेरासीद्वर्द्धमानमुनीश्वरः । श्रीसिंहनन्दियोगिन्द्रचरणाम्भोजषट्पदः ॥ १२॥ भा शिष्यस्तस्य गुरोरासीद्धर्मभूषणदेशिकः । भट्टारकमुनिः श्रीमान् शल्यत्रयविवर्जितः ॥ १३ ॥” इन पद्योंमें अभिनव धर्मभूषणकी इस प्रकार गुरुपरम्परा बतलाई गई है— १ १ इसके आगे के लेख में १५ पद्य और हैं जिनमें राजवंशका ही वर्णन है । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका मूलसङ्घ, नन्दिसङ्घ-बलात्कारगणके सारस्वतगच्छमें पद्मनन्दी (कुन्दकुन्दाचार्य) धर्मभूषण भट्टारका अमरकीति-आचार्य (जिनके शिष्यों के शिक्षक-दीक्षक सिंहनन्दी व्रती थे) श्रीधर्मभूषण भट्टारक II (सिंहनन्दीव्रतीके सधर्मा) वर्द्धमानमुनीश्वरः (सिंहनन्दीव्रतीके चरणसेवक) धर्मभूषण यति III (ग्रन्थकार) यह शिलालेख शकसम्वत् १३०७ में उत्कीर्ण हुअा है । इसी प्रकार का एक शिलालेख नं० १११ (२७४) का है जो बिन्ध्यगिरि पर्वतके अखण्ड बागिलुके पूर्वकी अोर स्थित चट्टान पर खुदा हुआ है और जो शक सं० १२६५ में उत्कीर्ण हुआ है। उसमें इस प्रकार परम्रा दी १ "श्रीमत्परमगम्भीर-स्याद्वादामोघ-लाञ्छनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिन-शासनं ॥१॥ श्रीमूल-सङ्घपयः पयोधिवर्द्धनसुधाकराः श्रीबलात्कारगणकमल-कलिका. कलाप-विकचन दिवाकराः 'वनवा' 'तकीत्तिदेवःतत्शिष्याः राय-भुज सुदाम..... 'प्राचार्य महा वादिवादीश्वर राय-वादि-पितामह सकल विद्वज्जन-चक्रवत्ति देवेन्द्रविशाल-कीत्ति-देवाः तत्शिष्याः भट्टारक श्रीशुभकात्तिदेवास्तत्शिष्याः कलिकाल-सर्वज्ञ-भट्टारक-धर्म भूषणदेवा तत्शिष्याः श्रीअमरकीर्त्याचार्याः तत्शिष्याः मालिर्वाति-नृपाणां प्रथः मानल............ रसित.... नुत-पा............ यमुल्लासक... देमक... 'चार्य्यपट्टविपुलायाचला..... करण-मार्तण्डमण्डलानां भट्टारक Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना मूलसंघ-बलात्कारगण कीर्ति ( वनवासिके ) देवेन्द्र विशालकीत्ति तीक्षक शुभकीत्तिदेव भट्टारक धर्मभूषणदेव I अमरकीत्ति प्राचार्य धर्मभूषणदेव II प्रकार वर्द्धमानस्वामी र्वतके र जो इस दोनों लेखोंको मिलाकर ध्यानसे पढ़नेसे विदित होता है कि रा दी प्रथम धर्मभूषण, अमरकीर्ति आचार्य धर्मभूषण द्वितीय और वर्द्धमान ये चार विद्वान् सम्भवतः दोनोंके एक ही हैं । यदि मेरी यह सम्भावना ठीक है तो यहाँ एक बात ध्यान देने योग्य है वह यह कि विन्ध्यगिरिके लेख (शक १२६५ ) में वर्द्धमानका तो उल्लेख है पर उनके शिष्य (पट्टके उत्तराधिकारी) तृतीय धर्मभूषणका उल्लेख नहीं है । जिससे जान पड़ता लका- है कि उस समय तक तृतीय धर्मभूषण वर्द्ध मानके पट्टाधिकारी नहीं बन भज-सके होंगे और इसलिये उक्त शिलालेखमें उनका उल्लेख नहीं पाया। कल धर्मभूषण-देवानां ..... 'तत्त्वार्थ-वाद्धिवर्द्धमान-हिमांशुना....."वर्द्धमानभारकदेवाः स्वामिना कारितोऽहं [यं] आचार्यणां ... स्वस्तिशक-वर्ष १२६५ परि धावि संवत्सर वैशाख-शुद्ध ३ बुधवारे ।"-उद्धृत जैनशि०पृ०२२३ से। ..... १ प्रो० हीरालालजीने इनकी निषद्या बनवाई जानेका समय शक धारक- सम्वत् १२६५ दिया है । देखो, शिलालेखसं० पृ० १३६ । प्र Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्यात-दीपिका किन्तु इस शिलालेखके कोई १२ वर्ष वाद शक सं० १३०७ (१३८५ ई. में उत्कीर्ण हुए विजयनगरके उल्लिखित शिलालेख नं० २ में उनकप (तृतीय धर्मभूषणका) स्पष्टतया नामोल्लेख है। अतः यह सहीस अनुमान हो सकता है कि वे अपने गुरु वर्द्ध मानके पट्टाधिकारी शाके सम्वत् १२६५से१३०७ में किसी समय बन चुके थे। इस तरह अभिनः मि धर्मभूषणके साक्षात् गुरु श्रीवर्द्ध मानमुनीश्वर और प्रगुरु द्वितीय धर्म भूषण थे । अमरकीर्ति दादागुरु और प्रथमधर्मभूषण परदादा गुरु थे। और इसीसे मेरेख्यालमें उन्होंने अपने इन पूर्ववर्ती पूज्य प्रगुरु (द्वितीय धर्मभूषण त तथा परदादागुरु (प्रथमधर्मभूषण) से पश्चाद्वर्ती एवं नया बतलानेके लिघ अपनेको अभिनव विशेषणसे विशेपित किया जान पड़ता है जो कुछ ही यह अावश्य है कि वे अपने गृरुके प्रभावशाली और मुख्य शिष्य थे। समय-विचार यद्यपि अभिनव धर्मभूषणकी निश्चित तिथि बताना कठिन है तथापि जो आधार प्राप्त हैं उनपरसे उनके समयका लगभग निश्चय होजाता है। अतः यहाँ उनके समयका विचार किया जाता है । विन्ध्यगिरिका जो शिलालेख प्राप्त है वह शक सम्वत १२६५ का उत्कीर्ण किया हुआ है । मैं पहले बतला आया हूँ कि इसमें प्रथम और द्वितीय इन दो ही धर्मभूषणोंका उल्लेख है और द्वितीय धर्मभूषणके शिप्य वर्द्ध मानका अन्तिमरूपसे उल्लेख है । तृतीय धर्मभूषणका उल्लेख उसमें नहीं पाया जाता । प्रो० हीरालालजी एम. ए. के उल्लेखानुसार द्वितीय धर्मभूषणकी निषद्या (निःसही) शकसं० १२६५में बनवाई गई हैं। अतः द्वितीय धर्मभूषणका अस्तित्वसमय शकसं०१२६५तक ही समझना चाहिए । मेरा अनुमान है कि केशववर्णीको अपनी गोम्मटसार की जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका बनानेकी प्रेरणा एवं आदेश जिन धर्मभूषणसे मिला वे धर्मभूषण भी यही द्वितीय धर्मभुषण होना चाहिये। क्योंकि इनके Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना पट्टका समय यदि २५ वर्ष भी हो तो इनका पट्टपर बैठने का समय शक 10 १२७० के लगभग पहुँच जाता है उस समय या उसके उपरान्त केशववर्णी को उपर्युक्त टीकाके लिखने में उनसे आदेश एवं प्रेरणा मिलना असम्भव नहीं है । चूंकि केशववर्णीने अपनी उक्त टीका शकसं० |१२८१ में पूर्ण की है । अतः उस जैसी विशाल टीकाके लिखनेके लिए १ वर्ष जितना समय का लगना भी आवश्यक एवं संङ्गत है । प्रथम व तृतीय धर्मभूषण केशववर्णीके टीकाप्रेरक प्रतीत नहीं होते । क्योंकि तृतीय धर्मभूषण जीवतत्त्वप्रदीपिकाके समाप्ति काल ( शक० १२८१ ) से करीब १६ वर्ष बाद गुरुपट्ट के अधिकारी हुए जान पड़ते हैं और उस समय वे प्रायः २० वर्ष के होंगे अतः जी० त० प्र० के रचनारम्भसमयमें तो उनका अस्तित्व ही नहीं होगा तब वे केशववर्णीके टीका-प्रेरक कैसे हो सकते ? और प्रथम धर्मभूषण भी उनके टीकाप्रेरक सम्भव प्रतीत नहीं होते । कारण, उनके पट्टपर अमरकीर्ति और अमरकीतिके पट्टपर द्वितीय धर्मभूषण (शक १२७०-१२६५) बैठे हैं। अत: अमरकीर्तिका पट्टसमय अनुमानतः शकसं० १२४५–१२७० और प्रथम धर्मभूषणका शकसं० १२२०-१२४५ होता है । ऐसी हालतमें यह सम्भव नहीं है कि प्रथम धर्मभूषण शकसं. १२२०-१२४५ में केशववर्णीको जीवतत्त्वप्रदीपिकाके लिखने का आदेश दें और वे ६१ या ३६ वर्षों जैसे इतने बड़े लम्बे समय में उसे पूर्ण करें। अतएव यही प्रतीत होता हैं कि द्वितीय धर्मभूषण (शक० १२७०-१२६५) ही केशववर्णी (शक० १२८१) के उक्त टीकाके लिखनेमें प्रेरक रहे हैं । अस्तु । पीछे मैं यह निर्देश कर आया हूँ कि तृतीय धर्मभूषण ( ग्रन्थकार ) शकसं० १२६५ में और शकसं०१३०७के मध्यमें किसी समय अपने वर्द्धमानगुरुके पट्टपर आसीन हुए हैं । अतः यदि वे पट्टपर बैठने के समय (करीब शक १३०० में) २० बर्ष के हों, जैसा कि सम्भव है तो उनका जन्मसमय शकसं० १२८० (१३५८ ई०) के करीब होना चाहिए। विजय Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका नगर साम्राज्यके स्वामी प्रथम देवराय और उनकी पत्नी भीमादेवी जिन वर्द्धमानगुरुके शिष्य धर्मभूषणके परम भक्त थे और जिन्हें अपना गा मानते थे तथा जिनसे प्रभावित होकर जैनधर्मकी अतिशय प्रभावना प्रवृत्त रहते थे वे यही तृतीय धर्मभूषण न्यायदीपिकाकार हैं। पद्मा वती-वस्तीके ए क लेखसे ज्ञात होता है कि "राजाधिराजपरमेश्वर देव राय प्रथम वर्द्धमानमुनिके शिष्य धर्म भूषण गुरुके, जो बड़े विद्वान् थे चरणों में नमस्कार किया करते थे ।" इसी बातका समर्थन शकसं २४४० में अपने 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' को समाप्त करनेवाले कति वर्द्ध मानमुनीन्द्रके इसी ग्रन्थगत निम्न श्लोकसे भी होता है:"राजाधिराजपरमेश्वरदेवरायभूपालमौलिलसदंघ्रिसरोजयुग्मः । . श्रीवर्धमानमुनिवल्लभमौढ्यमुख्यः श्रीधर्मभूषणसुखी जयति क्षमाढयः ॥ __ यह प्रसिद्ध है कि विजयनगरनरेश प्रथम देवराय ही 'राजाधिराजपरमेश्वर की उपाधि से भूषित थे। इनका राज्य समय सम्भवतः १४१८ ई० तक रहा है क्योंकि द्वितीय देवराय ई० १४१६ से १४४६ तक माने जाते हैं । अतः इन उल्लेखों से यह स्पष्ट है कि वर्द्ध मानके शिष्य धर्मभूषण तृतीय (गन्थकार) ही देवराय प्रथमके द्वारा सम्मानित थे । प्रथम अथवा द्वितीय धर्मभूषण नहीं ; क्योंकि वे वर्तमानके शिष्य १ प्रशस्तिसं०पृ० १२५ से उद्धृत । २-३ देखो,डा० भास्कर आनन्द सालेतोरका 'Mediaeval Jainism' P. 300-301 । मालूम नहीं डाः सा० ने द्वितीय देवराय (१४१६-१४४६ ई०) की तरह प्रथम देवरायः । के समय का निर्देश क्यों नहीं किया ? ४ डा० सालेतोर दो ही धर्मभूषण मानते हैं और उनमें प्रथम का समय १३७८ ई० और दूसरे का ई० १४०३ बतलाते हैं तथा वे इस झमेले में पड़ गए हैं कि कौन से धर्मभूषण का सम्मान देवराय प्रथमके द्वारा हुआ था ? (देखो, मिडि यावल जैनिज्म पृ० ३००)। मालूम होता है कि उन्हें विजयनगर का Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना EE दी थे। प्रथम धर्मभूषणतो शुभकीर्तिके और द्वितीय धर्मभूषण अमरकातिके शिष्य थे । अतएव यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है कि अभिव धर्मभूषण देवरायप्रथमके समकालीन हैं । अर्थात् ग्रन्थकारका अन्तिमकाल ई० १४१८ होना चाहिये । यदि यह मान लिया जाय तो उनका जीवनकाल ई० १३५८से १४१८ ई० तक समझना चाहिये। अभिनव धर्मभूषण जैसे प्रभावशाली विद्वान् जैन साधुके लिये ६० वर्ष की उम्र पाना कोई ज्यादा नहीं है । हमारी सम्भावना यह भी है कि वे देवराय द्वितीय' (१४१६-१४४६ ई०) और उनके श्रेष्ठि संकप्पके द्वारा भी प्रणत रहे हैं । हो सकता है कि ये अन्य धर्मभूषण हों, जो हो, इतना अवश्य है कि वे देवराय प्रथमके समकालिक निश्चितरूपसे हैं। ग्रंथकारने न्यायदीपिका (पृ० २१) में 'बालिशाः' शब्दोंके साथ सायणके सर्वदर्शनसंग्रहसे एक पंक्ति उद्धृत की है । सायणका समय शकसं० की १३वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है । क्योंकि शकसं० १३१२का उनका एक दानपत्र मिला है जिससे वे इसी समयके विद्वान् ठहरते हैं । न्यायदीपिकाकारका 'बालिशाः' पदका प्रयोग उन्हें सायणके समकालीन होनेकी ओर संकेत करता है। साथ ही दोनों विद्वान् नजदीक ही नहीं, एक ही जगह-विजयनगरके रहनेवाले, भी थे इसलिए यह पूरा सम्भव हैं कि धर्मभूषण और सायण समसामयिक होंगे। या १०-५ वर्षागे पीछेके होंगे। अतः न्यायदीपिकाके इस उल्लेखसे भी पूर्वोक्त निर्धारित शकशं० १२८०से१३४० या १३५८से १४१८ समय ही सिद्ध पूर्वोक्त शिलालेख नं० २ आदि प्राप्त नहीं हो सका। अन्यथा वे इस निष्कर्षपर न पहुँचते। प्रशस्तिसं०पृ० १४५में इनका समय ई० १४२६-१४५१ दिया है। २ इसके लिये जैनसिद्धान्तभवन आरासे प्रकाशित प्रशस्ति सं० में परिचय कराये गये वर्द्ध मान मुनीन्द्र 'दशभक्त्यादिमहाशास्त्र' देखना चाहिये । ३ देखो, सर्वदर्शनसंग्रहको प्रस्तावना पृ० ३२ । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका होता है । अर्थात् ये ईसाकी १४ वीं सदीके उत्तरार्ध और १५वीं सदी प्रथम पादके विद्वान् हैं। ___डा० के० बी० पाठक और मुख्तार सा० इन्हें शकसं० १३०७ ( १३८५) का विद्वान् बतलाते हैं जो विजयनगरके पूर्वोक्त शिलालेख नः २ के अनुसार सामान्यता ठीक है । परन्तु उपर्युक्त विशेष विचारसे ई. १४१८ तक इनकी उत्तरावधि निश्चित होती है । डा० सतीशचन्द्र विद्या भूषण 'हिस्टरी आफ दि मिडियावल स्कूल ऑफ इंडियन लॉजिक' में इन १६०० A. D. का विद्वान् सूचित करते हैं । पर वह ठीक नहीं है । जैसा कि उपर्युक्त विवेचनसे प्रकट है । मुख्तारसा० ने भी उनके इस समयको गलत ठहराया है। प्राचार्य धर्मभूषणके प्रभाव एवं व्यक्तित्वसूचक जो उल्लेख मिलते हैं। उनसे मालूम होता है कि वे अपने समय के सबसे बड़े प्रभावक औ व्यक्तित्वशाली जैनगुरु थे। प्रथम देवराय, जिन्हें राजाधिराजपरमेश्वरक उपाधि थी, धर्मभूषणके चरणोंमें मस्तक झुकाया करते थे। पद्मावतीवस्त के शासनलेखमें उन्हें बड़ा विद्वान् एवं वक्ता प्रकट किया गया है । सा में मुनियों और राजाओंसे पूजित बतलाया है। इन्होंने विजयनगर राजघरानेमें जैनधर्मकी अतिशय प्रभावनाकी है। मैं तो समझता हूँ| इस राजघराने में जैनधर्मकी महती प्रतिष्ठा हुई उसका विशेष श्रेय इन् अभिनव धर्मभूषणजीको है जिनकी विद्वत्ता और प्रभावके सब कायल थे इससे स्पष्ट है कि ग्रंथकार असाधारण प्रभावशाली व्यक्ति थे। जैनधर्मकी प्रभावना करना उनके जीवनका व्रत था ही, किन्तु ग्रं रचनाकार्य भी उन्होंने अपनी अनोखी शक्ति और विद्वत्ताका बहुत सुन्दर उपयोग किया है । आज हमें उनकी एक ही अमर रचना प्राप्त और वह अकेली यही प्रस्तुत न्यायदीपिका है । जो जैनन्यायके वाङ्मर अपना विशिष्ट स्थान रखे हुए है और ग्रन्थका रकी धवलकीतिको अक्षु १-२ स्वामी समन्तभद्र पृ. १२६ । ३-४देखो 'मिडियावल जैनिज्म'पृ.२६ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्ञस्तावना बनाये हुए है । उनकी विद्वत्ताका प्रतिबिम्ब उसमें स्पष्टतया आलोकित हो रहा है। इसके सिवाय उन्होंने और भी कोई रचना की या नहीं इसका कुछ भी पता नहीं चलता है। पर मैं एक सम्भावना पहिले कर आया हूँ कि इस ग्रन्थका इस प्रकारसे उल्लेख किया है कि जिससे लगता है कि ग्रन्थकार अपनी ही दूसरी रचनाको देखनेका इङ्गित कर रहे हैं। यदि सचमुचमें यह ग्रन्थ ग्रन्थकारकी रचना है तो मालूम होता है कि वह न्यायदीपिकासे भी अधिक विशिष्ट एवं महत्वपूर्ण ग्रन्थ होगा। अन्वेषकोंको इस महत्त्वपूर्ण ग्रन्थका अवश्य ही पता चलना चाहिए। ग्रन्थकारके प्रभाव और कार्यक्षेत्रसे यह भी प्रायः मालूम होता है कि उन्होंने कर्णाटकदेशके उपर्युक्त विजयनगरको ही अपनी जन्म-भूमि बनायी होगी और वहीं उनका शरीर त्याग एवं समाधि हुई होगी। क्योंकि वे गुरु परम्परासे चले आये विजयनगरके भट्टारकी पट्टपर आसीन हुए थे। यदि यह ठीक है तो कहना होगा कि उनके जन्म और समाधिका स्थान भी विजयनगर है। उपसंहार इस प्रकार ग्रन्थकार अभिनव धर्मभूषण और उनकी प्रस्तुत अमर कृतिके सम्बन्धमें ऐतिहासिक दृष्टिसे दो शब्द लिखनेका प्रथम साहस किया । इतिहास एक ऐसा विषय है जिसमें चिन्तनकी आवश्यकता हमेशा बनी रहती है और इसीलिये सच्चा ऐतिहासिक अपने कथन एवं विचारको अन्तिम नहीं मानता । इसलिये सम्भव है कि धर्मभूषणजीके ऐतिहासिक जीवनपरिचयमें अभी परिपूर्णता न आ पाई हो। फिर भी उपलब्ध साधनोंपरसे जो निष्कर्ष निकाले जा सके हैं उन्हें विद्वानोंके समक्ष विशेष विचारके लिये प्रस्तुत किया है । इत्यलम् । चैत्र कृष्ण १० वि० २००२ 1 दरबारीलाल जैन, कोठिया ता० ७-४-४५, देहली। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय १. प्रथम - प्रकाश सानुवादन्याय दीपिकाको विषय-सूची पृष्ठ संस्कृत हिन्दी १. मंगलाचरण और ग्रन्थप्रतिज्ञा १ ५ ह २. प्रमाण और नयके विवेचन की भूमिका ४ ३. उद्देशादिरूपसे ग्रन्थकी प्रवृत्तिका कथन ४. प्रमाणके सामान्यलक्षणका कथन ५. प्रमाणके प्रामाण्यका कथन ६. बौद्धके प्रमाण - लक्षण की परीक्षा ७. भाट्टोंके प्रमाण लक्षणकी परीक्षा ८. प्राभाकरोंके प्रमाण - लक्षणकी परीक्षा c. नैयायिकोंके प्रमाण - लक्षणकी परीक्षा २. द्वितीय प्रकाश १०. प्रमाणके भेद और प्रत्यक्षका लक्षण ११. बौद्धोंके प्रत्यक्ष - लक्षणका निराकरण १२. योगाभिमत सन्निकर्षका निराकरण १३. प्रत्यक्ष के दो भेद करके सांव्यवहारिक प्रत्यक्षका लक्षण और उसके भेदों का निरूपण १४ १.८ १८ १६ २० २३ २५ २६ ३१ १४. पारमार्थिक प्रत्यक्षका लक्षण और उसके भेदों का कथन ३४ १५. अवधि आदि तीनों ज्ञानोंको प्रतीन्द्रिय प्रत्यक्ष न हो सकनेकी शङ्का और समाधान ३७ १३५ १३८ १३६ १४४ १४६ १५३ १५३ १५४ १५४ १५६ १५७ १६० १६२ १६४ १६६ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठ विषय १६. प्रसङ्गवश शङ्का-समाधानपूर्वक सर्वज्ञकी सिद्धि १७. सामान्यसे सर्वज्ञको सिद्ध करके अर्हन्तमें सर्वज्ञताकी सिद्धि ४४ १७० ३. तृतीय-प्रकाश १८. परोक्ष प्रमाणका लक्षण ५१ १७३ १६. परोक्ष प्रमाणके भेद और उनमें ज्ञानान्तर की सापेक्षता का कथन १७४ २०. प्रथमतः उद्दिष्ट स्मृतिका निरूपण ५३ १७४ २१. प्रत्यभिज्ञानका लक्षण और उसके भेदोंका निरूपण ५६ १७६ २२. तर्क प्रमाणका निरूपण ६२ १७६ २३. अनुमान प्रमाण का निरूपण ६५ १८२ २४. साधनका लक्षण १८४ २५. साध्यका लक्षण ६६ १८४ २६. अनुमानके दो भेद और स्वार्थानुमानका निरूपण १८६ २७. स्वार्थानुमानके अङ्गोंका कथन १८६ २८. धर्मीकी तीन प्रकारसे प्रसिद्धिका निरूपण ७३ १८७ २६. परार्थानुमानका निरूपण ७५ १८६ ३०. परार्थानुमानकी अङ्गसम्पत्ति और उसके • अवयवोंका प्रतिपादन . ७६ १६० ३१. नैयायिकाभिमत पाँच अवयवोंका निराकरण७७ १६० ३२. विजिगीषुकथामें प्रतिज्ञा और हेतुरूप दो ही अवयवोंकी सार्थकताका कथन ७६ १६२ w MCN w Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३ ) विषय ३३. वीतरागकथामें अधिक अवयवोंके बोले जानेके चित्यका समर्थन ३४. बौद्धोंके त्रैरूप्य हेतुका निराकरण ३५. नैयायिकसम्मत पाँचरूप्य हेतुका कथन और उसका निराकरण ३६. अन्यथानुपपत्तिको ही हेतु लक्षण होनेकी सिद्धि ३७. हेतुके भेदों और उपभेदों का कथन ३८. हेत्वाभासका लक्षण और उनके भेद ३९. उदाहरणका निरूपण ४०. उदाहरण के प्रसङ्गसे उदाहरणाभासका कथन ४१. उपनय, निगमन और उपनयाभास तथा निगमनाभास के लक्षण ४२. श्रागम प्रमाणका लक्षण ४३. प्राप्तका लक्षण ४४. अर्थका लक्षण और उसका विशेष कथन ४५. सत्त्वके दो भेद और दोनोंमें अनेकान्तात्मकताका कथन ४६. नयका लक्षण, उसके भेद और सप्तभङ्गी का प्रतिपादन ४७. ग्रन्थकार का अन्तिम निवेदन ७८२ ८३ ६४ ६५ ६६ १०३ १०५. १११ २१२ ११३ ११६ १२२ (A १२५ १३२ पृष्ठ १९४ १६४ १६६ २०४ २०५ २०६ २१२ २१३ २१७ २१७ २१८ २२० २२३ २२५ २३० Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसमन्तभद्राय नमः श्रीमदमिनव-धर्मभूषण-यति-विरचिता न्याय-दीपिका [प्रकाशाख्यटिप्पणोपेता] १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः श्रीवर्द्धमानमर्हन्तं नत्वा बाल-प्रबुद्धये। विरच्यते मित-स्पष्ट-सन्दर्भ-न्यायदोपिका ॥१॥ ETE * प्रकाशाख्य-टिप्पणम् * महावीरं जिनं नत्वा बालानां सुख-बुद्धये। 'दीपिकाया' विशेषार्थः 'प्रकाशेन' प्रकाश्यते ॥१॥ १ प्रकरणारम्भे, स्वकृतेनिर्विघ्नपरिसमाप्त्यर्थम्, शिष्टाचारपरिपालमार्थम्, शिष्यशिक्षार्थम्, नास्तिकतापरिहारार्थम्, कृतज्ञताप्रकाशनार्थ वा करणकार: श्रीमदभिनवधर्मभूषणनामा यति: स्वेष्टदेवतानमस्कारात्मकं मङ्गलं विदधाति-श्रीवर्धमानेति । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका श्रीवर्द्धमानमर्हन्तं चतुर्विंशतितमं तीर्थकरं महावीरम् । अथवा, श्रिय --अनन्तचतुष्टयस्वरूपान्तरङ्गलक्षणया समवसरणादिबहिरङ्गस्वभावय च लक्ष्म्या-, वर्द्धमानः-वृद्धेः परमप्रकर्ष प्राप्तः, अर्हन् परमार्हत्समूह स्तम् । नत्वा नमस्कृत्य, कायवाङ्मनसां त्रिशुद्धया प्रणम्येत्यर्थः । बालान मन्दबुद्धीनाम् । बालास्त्रिविधाः प्रोक्ता:-मतिकृताः, कालकृताः, शरीर परिमाणकृताश्चेति । तत्रेह मतिकृता बाला गृह्यन्ते नान्ये, तेषां व्यभिचारात् कश्चिदष्टवर्षीयोऽपि निखिलज्ञानसंयमोपपन्नः सर्वज्ञः, कुब्जको वा सकल शास्त्रज्ञो भवति । न च तौ व्युत्पाद्यौ । अथ मतिकृता अपि बालाः किल्ल क्षणा इति चेत्; उच्यते; अव्युत्पन्न-संदिग्ध-विपर्यास्तास्तत्त्वज्ञानरहित बालाः । अथवा, ये यत्रानभिज्ञास्ते तत्र बालाः । अथवा, ग्रहणधारणपटवो बालाः, न स्तनन्धयाः । अथवा, अधीतव्याकरण-काव्य-कोशा अनधोत न्यायशास्त्रा बालाः । तेषां प्रबुद्धये प्रकर्षेण संशयादिव्यवच्छेदेन बोधार्थम् । मितो मानयुक्तः परिमितो वा। स्पष्टो व्यक्तः । सन्दर्भो रचना यस्यां सा चासौ 'न्यायदीपिका'-प्रमाण-नयात्मको न्यायस्तस्य दीपिका प्रकाशिका । समासतो न्यायस्वरूपव्युत्पादनपरो ग्रन्थो 'न्यायदीपिका' इति भावः । विरच्यते मया धर्मभूषणयतिना इति क्रियाकारकसम्बन्धः । ननु मङ्गलं न करणीयं निष्फलत्वात् । न हि तस्य किञ्चित्फलमुपलभ्यते । न च निर्विघ्नपरिसमाप्तिस्तत्फलमुपलभ्यत एवेति वाच्यम् समाप्तेर्मङ्गलफलत्वानुपपत्तेः । तथा हि-मङ्गलं समाप्ति प्रति न कारणम्, अन्वय-व्यतिरेकव्यभिचाराभ्याम् । सर्वत्र ह्यन्वयव्यतिरेकविधया कार्य कारणभावः समधिगम्यते । कारणसत्त्वे कार्यसत्त्वमन्वयः, कारणाभावे कार्याभावो व्यतिरेकः । न चेमौ प्रकृते सम्भवतः, मङ्गलसत्त्वेऽपि माक्षमार्गप्रकाशादौ समाप्त्यदर्शनात् । मङ्गलाभावेऽपि च परीक्षामुखादौ समाप्तिदर्शनात् । अतोऽन्वयव्यभिचारो व्यतिरेकव्यभिचारश्च । कारणसत्त्वे कायोसत्त्वमन्वयव्यभिचारः । कारणाभावे कार्यसत्त्व च व्यतिरेकव्यभिचार इति न चेतसि विधेयम् ; मङ्गलस्य सफलत्वसिद्धे : निष्फलत्वानुपपत्तेः । तद्यथा Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः । मङ्गलं सफलम् शिष्टाचारविषयत्वात् इत्यनुमानेन मङ्गलस्य साफल्यसिद्धेः, तच्च फलं ग्रन्थारम्भे कर्तु « दि 'प्रारब्धमिदं कार्य निर्विघ्नतया परिसमाप्यताम्' इति कामनाया अवश्यम्भावित्वात्-निर्विघ्नसमाप्तिः कल्प्यते। यच्चोक्तम्-अन्वय-व्यतिरेकव्यभिचाराभ्यामिति, तदयुक्तम्; मोक्षमार्गप्रकाशादौ विघ्नबाहुल्येन मङ्गलस्य च न्यूनत्वेन समाप्त्यदर्शनात् । प्रचुरस्यैव हि मङ्गलस्य प्रचुरविघ्ननिराकरणकारणत्वम् । किञ्च, यावत्साधनसामग्र्यभावान्न तत्र समाप्तिदर्शनम् । 'सामग्री जनिका हि कार्यस्य नैकं कारणम्' इति । तथा चोक्तं श्रीवादिराजाचार्यः–समग्रस्यैव हेतुत्वात् । असमनस्य व्यभिचारेऽपि दोषाभावात् । अन्यथा न पावकस्यापि धूमहेतुवमानॆन्धनादिविकलस्य व्यभिचारात् । तस्मात् आन्धनादिसहकारिसमग्रतायां यद्वत्करोति नियमादिह धूममग्निः । तद्वद्विशुद्धयतिशयादिसमग्रतायां निर्विघ्नतादि विदधाति जिनस्तवोऽपि ।' -न्यायविनिश्चयवि० लि० प०२ अतो मोक्षमार्गप्रकाशादौ कारणान्तराभावान्न परिसमाप्तिः। ततो अप- नान्वयव्यभिचारः । नापि परीक्षामुखादौ व्यतिरेकव्यभिचारः, तत्र वाचिमा. कस्य निबद्धरूपस्य मङ्गलस्याकरणेऽप्यनिबद्धस्य वाचिकस्य मानसिकस्य गम, कायिकस्य वा तस्य सम्भवात् । मङ्गलं हि मनोवचःकायभेदात् त्रिधा गर्य- भिद्यते । वाचिकमपि निबद्धाऽनिबद्धरूपेण द्विविधम् । यत्तैरेवोक्तम्पावे नाप्यसति तस्मिन् तद्भवस्तस्य निबद्धस्याभावेऽप्यनिबद्धस्य तस्य परमगुरुग-गुणानुस्मरणात्मनो मङ्गलस्यावश्यम्भावात् तदस्तित्वस्य च तत्कार्यादेवानुत-मानात् । धूमादेः प्रदेशादिव्यवहितपावकाद्यनुमानवत् । मङ्गलसामग्रीवैकयो त्यस्य च क्वचित्तत्कार्यस्य वैकल्यादेवानुमानाद्धमाभावात् तदुत्पादनसमर्थमन दहनाभावानुमानवत् ।'–न्यायविनश्चयवि. लि. प. २ । विद्यानन्दस्वामि भिरप्युक्तम्-'तस्य (मङ्गलस्य) शास्त्रे निबद्धस्यानिबद्धस्य वा वाचिकस्य |E FREE FREE Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [ प्रमाण-नय-विवेचनस्य पीठिका ] $१ "प्रमाणनयैरधिगमाः” इति महाशास्त्रतत्त्वार्थसूत्रम् [१-६] । तत्खलु परमपुरुषार्थ निःश्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादि. विषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपायनिरूपणपरम् । प्रमाणानयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तद्वयतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् । तत एव जीवाद्यधिगमोपायभूतौ प्रमाणनयावपि विवेक्तव्यौ । तद्विवेचनपरा: प्राक्तनग्रन्थाः१३ सन्त्येव, तथापि ते2 केचिद्विस्तृताः, केचिद् मानसस्य वा विस्तरत: संक्षेपतो वा शास्त्रकारैरवश्यंकरणात् । तदकरणे तेषां तत्कृतोपकारविस्मरणादसाधुत्वप्रसङ्गात् । साधूनां कृतस्योपकारस्याविस्मरणप्रसिद्धेः । 'न हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति' इति वचनात् ।' -प्राप्तपरी० पृ० ३ । परमेष्ठिगुणस्तोत्ररूपस्य मङ्गलस्य पुण्यावाप्तिरधर्मप्रध्वंसः फलमिति तु तत्त्वम् । अतो ग्रन्थादौ मङ्गलमवश्यमाचरणीयमिति । १ मोक्षशास्त्रापरनामधेयम् । २ सूत्रम् । ३ चत्वारः पुरुषार्था:धर्मार्थकाममोक्षाः, तेषु परमः पुरुषार्थो मोक्षः, स एव निश्रेयसमित्युच्यते । सकलप्राणिभिर्मुख्यसाध्यत्वेनाभीष्टत्वान्मोक्षस्य परमपुरुषार्थत्वमिति भावः । ४ अादिपदात्सम्यग्ज्ञानं सम्यक्चारित्रं च गृह्यते । ५ अत्रादिपदेनाऽजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षतत्त्वानि गृहीतव्यानि । ६ पृथक्कृताः विश्लेषिता इत्यर्थः । ७ ज्ञायन्ते । ८ प्रमाणनयाभ्यां विना । ६ प्रमाणनयातिरिक्त-तृतीयादिप्रकारस्याभावात् । १० प्रकारान्तरासम्भवादेव । ११ व्याख्यातव्यौ। १२ प्रमाण-नयव्याख्यानतत्पराः । १३ अकलङ्कादिप्रणीता न्यायविनिश्चयादयः। १४ प्रमेयकमलमार्तण्ड-न्यायकुमुद 1 द मा प्रत्योः 'हि' पाठो नास्ति । 2 प म मु प्रतिषु 'ते' पाठो नास्ति । Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाश: गम्भीरा' इति न तत्र बालानामधिकारः । ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाण-नयात्मकन्याय स्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसम्पत्तये 'प्रकरणमिदमारभ्यते । [ त्रिविधायाः प्रकरणप्रवृत्तेः कथनम् ] २ इह हि प्रमाण-नयविवेचनमुद्देश-लक्षणनिर्देश-परीक्षाद्वारेण क्रियते । अनुद्दिष्टस्य लक्षणनिर्देशानुपपत्तेः । अनिर्दिष्टलक्षणस्य परीक्षितुमशक्यत्वात् । अपरीक्षितस्य विवेचनायोगात् । लोकशास्त्रयोरपि तथैव वस्तुविवेचनप्रसिद्धः। ३ तत्र' विवेक्तव्यनाममात्रकथन मुद्देशः । व्यतिकीर्ण चन्द्र-न्यायविनिश्चयविवरणादयः । १ न्यायविनिश्चय-प्रमाणसंग्रहश्लोकवात्तिकादयः। २ प्रोक्तलक्षणानाम् । ३ प्रवेशः । ४ अक्लेशेन । ५ निपूर्वादिणगतावित्यस्माद्धातोः करणे घञ्प्रत्यये सति न्यायशब्दसिद्धिः, नितरामियते ज्ञायतेऽर्थोऽनेनेति न्यायः, अर्थपरिच्छेदकोपायो न्याय इत्यर्थः । स च प्रमाण-नयात्मक एव 'प्रमाणनयैरधिगमः' इत्यभिहितत्वादिति, लक्षण-प्रमाण-नय-निक्षेपचतुष्टयात्मको न्याय इति च । लक्षण-प्रमाणाभ्यामर्थसिद्धिरित्यतो लक्षणप्रमाणे न्याय इत्यन्ये । प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्याय इत्येके । पञ्चावयववाक्यप्रयोगो न्याय इत्यपि केचित् । ६ न्यायदीपिकाख्यम् । ७ अत्र प्रकरणे । ८ अत्रेदं बोध्यम्-उद्देशस्य प्रयोजनं विवेचनीयस्य वस्तुनः परिज्ञानम् । लक्षणस्य व्यावृत्तिर्व्यवहारो वा प्रयोजनम् । परीक्षायाश्च लक्षणे दोषपरिहारः प्रयोजनम् । अत एव शास्त्रकारा उद्देशलक्षणनिर्देश-परीक्षाभिः शास्त्रप्रवृत्ति कुर्वाणा दृष्टाः । ६ अकृतोद्देशस्य पदार्थस्य । १० उद्दे शादिद्वारेण । ११ उद्दे शादिषु मध्ये । १२ विवेचन Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका वस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् । तदाहुत्तिककारपादाः२ “परस्परव्यतिकरे सति येनाऽन्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्" [तत्त्वार्थवा०२-८] इति । ___१४ द्विविध1 लक्षणम्2, आत्मभूतमनात्मभूतं चेति । तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम् , यथाऽग्नेरौष्ण्यम् । औष्ण्यं ह्यग्ने: स्वरूपं सदग्निमबादिभ्यो व्यावर्त्तयति । तद्विपरीतम'नात्मभूतम्4, यथा दण्ड: पुरुषस्य । दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्डः पुरुषाननुप्रविष्ट एव पुरुषं "व्यावर्त्तयति । यद्भाष्यम् “तत्रात्म योग्यस्य नाममात्रनिरूपणम्, यथा घटविवेचनप्रारब्धे घट एव विवेक्तव्यो भवति । १ परस्परमिलितानां वस्तूनां व्यावृत्तिजनकं यत् तल्लक्षणमिति भावः । अत्र लक्षणं लक्ष्यं, शेषं तस्य लक्षणम् । २ तत्त्वार्थवात्तिककाराः श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवाः। “पादाः भट्टारको देवः प्रयोज्याः पूज्यनामतः ।" आ० प० १। ३ समानधर्माधारतया परस्परविषयगमनं व्यतिकर इति, एवं यत्रान्योन्यव्यतिकरे सति, इति भावः। ४ परस्परमिलितपदार्थव्यावृत्तिकारकेण । ५ तयोर्मध्ये। ६ कथंचिदविष्वक्भावाख्यतादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्नधर्मस्यात्मभूतलक्षणत्वम् । ७ जलादिभ्यः । ८ यद्वस्तुस्वरूपाननुप्रविष्टं तदनात्मभूतम् । भवति हि दण्ड: पुरुषस्य लक्षणम्, स च नाऽऽत्मभूतः, पुरुषादन्यत्राऽप्युपलभ्यमानत्वात् । अत एवात्मभूतलक्षणादनात्मभूतलक्षणस्य भेदः । ६ कथञ्चिद्विष्वक्भावाख्यसंयोगादिसम्बन्धावच्छिन्नस्यानात्मभूतलक्षणत्वम् । १० अदण्डिनः सकाशात् पृथक्करोति । 1 'तद्धिविधम्' इति प्रा प्रतिपाठः । 2 'लक्षण' इति पाठः पा प्रतौ नास्ति । 4 'चेति' द प्रतौ पाठः। 3, 5 'तद्' म प मु प्रतिषु पाठः ।। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः आतमग्नेरौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः” [राजवा० भा० २-८] ५ 'असाधारणधर्मवचनं। लक्षणम्' इति केचित्; तदनुपनम'; लक्ष्यमिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्गात्', दण्डादेरतद्धर्मस्यापि लक्षणत्वाच्च । किञ्चाव्याप्ताभिधानस्य लक्षणाभासस्यापि तथात्वात् । तथा हि-त्रयो लक्षणाभासभेदाः, अव्याप्तमतिव्याप्तमसम्भवि चेति । तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम्, यथा गोः शावलेयत्वम् । लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम्, यथा तस्यैव पशुत्वम् । बाधितलक्ष्यवृत्त्यसम्भवि, यथा नरस्य विषाणित्वम् । अत्र हि लक्ष्यैकदेशत्तिनः पुनरव्याप्तस्या १ नैयायिकाः, हेमचन्द्राचार्या वा। २ तदयुक्तम्, सदोषत्वात् । अत्र हि लक्षणस्य लक्षणे त्रयो दोषा: सम्भवन्ति-अव्याप्तिरतिव्याप्तिर-- सम्भवश्चेति । तत्र लक्ष्यमिवचनादिनाऽसम्भवो दोष उक्तः । दण्डादेरित्यादिनाऽव्याप्तिः प्रदर्शिता। किञ्चेत्यादिना चातिव्याप्तिः कथिता । एतच्च परिशिष्टे स्पष्टम् । अत्रासाधारणत्वं तदितरावृत्तित्वं ग्राह्यम्, लक्ष्येतरावृत्तित्वमित्यर्थः । ३ सामानाधिकरण्यं द्विधा–आर्थं शाब्दञ्च । तत्रैकाधिकरणवृत्तित्वमार्थम्, यथा रूपरसयोः। शाब्दं त्वेकार्थप्रतिपादकत्वे सति समानविभक्तिकत्वं भिन्नप्रवृत्ति निमित्तानामेकस्मिन्नर्थे वृत्तित्वरूपं वा, यथा नीलं कमलमित्यत्र । प्रकृते शाब्दं सामानाधिकरण्यं ग्राह्य वचनशब्दप्रयोगात् । वचनेन हि वचनस्य शाब्द-सामानाधिकरण्यम् । तच्चासाधारणधर्मवचनस्य लक्षणत्वेऽसम्भवि । शेषं परिशिष्टे दृष्टव्यम् । ४ पुरुषानसाधारणधर्मस्यापि—दण्डादिर्न पुरुषस्यासाधारणधर्मस्तथापि लक्षणं भवतीति भावः । ५ सदोषलक्षणं लक्षणाभासम् । ६ असाधारणधर्मत्वात् । ७ यस्य लक्षणं क्रियते तल्लक्ष्यं तद्भिन्नमलक्ष्यं ज्ञेयम् । 1 'असाधारणधर्मो लक्षणम्' इति म प प्रत्योः पाठः । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका साधारणधर्मत्वमस्ति, न तु लक्ष्यभूत गोमात्र 1 व्यावर्तकत्वम् ।। तस्माद्यथोक्तमेव लक्षणम्, तस्य कथनं लक्षणनिर्देशः । ६ विरुद्धनानायुक्तिप्राबल्यदौर्बल्यावधारणाय प्रवर्तमानो विचार: परीक्षा । सा खल्वेवं चेदेवं स्यादेवं चेदेवं न स्यादित्येवं? प्रवर्तते। $७ प्रमाणनययोरप्युद्देशः सूत्र एव कृतः । लक्षणमिदानी निर्देष्टव्यम् । परीक्षा च यथौचित्यं3 भविष्यति । 'उद्देशानुसारेण लक्षणकथनम्' इति न्यायात्प्रधानत्वेन प्रथमोद्दिष्टस्य प्रमाणस्य तावल्लक्षणमनुशिष्यते । १ गोत्वावच्छिन्नसकलगौः २ व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्ति हेतुरित्येव । ३ 'लक्षितस्य लक्षणमुपपद्यते नवेति विचार: परीक्षा'- (तर्कसं पदक पृ० ५)। ४ 'प्रमाणनयैरधिगमः' इति तत्त्वार्थसूत्रस्य पूर्वोल्लिखिते सूत्रे । ५ यथावसरम् । ६ उद्देशकमेण, यथोद्दे शस्तथा निर्देश इति भावः । ७ अथ प्रमाणनययोर्मध्ये प्रमाणापेक्षया नयस्याल्पाच्तरत्वात्प्रथमतस्तस्यैवोद्देशः कर्त्तव्योऽत अाह प्रधानत्वेनेति । ननु तथापि कथं प्रमाणस्य प्रधानत्वं ? येन प्रथमं तदुद्दिश्यत इति चेदुच्यते ; प्रमाणस्याभ्यर्हितत्त्वा-" प्रधानत्वम्, अभ्यहितत्त्वं च 'प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तेर्व्यवहारहेतुत्वात् । यतो हि प्रमाणप्रकाशितेष्वर्थेषु नयप्रवृत्तिर्व्यवहारहेतुर्भवति नान्येष्वतोऽभ्यहितत्वं प्रमाणस्य । अथवा समुदायविषयं प्रमाणमवयव विषया नयाः । तथा चोक्तम्- “सकलादेशः प्रमाणाधीनो विकलादेशो नयाधीनः" इति' ।—(तत्त्वार्थवा १-६) । ८ कथ्यते । 1 'मात्रस्य' इति द प्रतिपाठः । 2 'खल्वेवं चेदेवं स्यादेवं न स्यादित्येवं' इति प्रा प्रतिपाठः । प मु प्रतिषु 'न' पाठो नास्ति 3 'यथोचितं' इति द प्रतिपाठः ! Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाश: मी [ प्रमाणसामान्यस्य लक्षणकथनम् ] ८ सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम् । अत्र प्रमाणं लक्ष्यं सम्यग्ज्ञानत्वं तस्य लक्षणम् । गोरिव सास्नादिमत्वम्, अग्नेरिवौष्ण्यम् । अत्र' सम्यक्पदं संशयविपर्ययानध्यवसायनिरासाय क्रियते, अप्रमाणत्वादेतेषां ज्ञानानामिति । REE तथा हि-विरुद्धानेककोटिस्पशि ज्ञानं संशयः, यथा स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । स्थाणुपुरुष साधारणोद्धतादिधर्मदर्शनातद्विशेषस्य वक्रकोटरशिरःपाण्यादेः साधकप्रमाणाभावादनेककोट्यवलम्बित्वं ज्ञानस्य । विपरीतैककोटिनिश्चयो विपर्ययः, यथा शुक्तिकायामिदं रजतमिति ज्ञानम् । अत्रापि सादृश्यादिनिमित्तवशाच्छुक्तिविपरीते रजते निश्चयः । किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः',यथा पथि1 गच्छतस्तृणस्पर्शादिज्ञानम् । इदं" हि नानाकोटयवलम्बनाभावान्न संशयः । विपरीतैककोटिनिश्च १ यावत्सम्यग्ज्ञानवृत्ति: सामान्यरूपो धर्मः सम्यग्ज्ञानत्वम् । २ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाण' मित्यत्र । ३ संशयादीनाम् । ४ कोटि:-पक्षः, अवस्था वा । ५ उभयवृत्ति: सामान्यरूप ऊर्दूतादिधर्मः साधारणः । ६ स्थाणुपुरुषविशेषस्य, स्थाणोविशेषो वक्रकोटरादिः । पुरुषस्य तु शिर:पाण्यादिरिति भावः । ७ तदभाववति तत्प्रकारकं ज्ञानं विपर्ययः, यथा रजतत्वाभाववति शुक्तिशकले रजतत्वप्रकारकं 'शुक्तौ इदं रजतम्' इति ज्ञानमित्याशयः । ८ आदिपदेन चाकचिक्यादिग्रहणम् । ६ अनिश्चयस्वरूपं संशय-विपर्ययभिन्नजातीयं ज्ञानम् । १० अनध्यवसायाख्यज्ञानस्य __1 'पथि' इति पाठो म प्रतौ नास्ति । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका याभावान्न विपर्यय इति पृथगेव' । एतानि च स्वविषयप्रमितिजनकत्वाभावादप्रमाणानि ज्ञानानि भवन्ति, सम्यग्ज्ञानानि तु न भवन्तीति सम्यक्पदेन व्युदस्यन्ते । ज्ञानपदेन प्रमातुः प्रमितेश्च' व्यावृत्तिः । अस्ति हि निर्दोषत्वेन तत्रापि सम्यक्त्वं न तु ज्ञानत्वम् । $१० ननु प्रमितिकर्तुः प्रमातुतृित्वमेव न ज्ञानत्वमिति यद्यपि ज्ञानपदेन व्यावृत्तिस्तथापि प्रमितिर्न व्यावर्त्तयितुं शक्या, तस्या अपि सम्यग्ज्ञानत्वादिति चेत् ; भवेदेवम् ; यदि भावसाधन संशय-विपर्ययाभ्यां ज्ञानान्तरत्वं प्रसाधयति इदमिति, इदम् –अनध्यवसायाख्यं ज्ञानम् । इदमत्र तात्पर्यम् -संशये नानाकोट्यवलम्बनात्, विपर्यये च विपरीतैककोटिनिश्चयात् । अनध्यवसाये तु नैकस्या अपि कोटेनिश्चयो भवति । ततस्तदुभयभिन्नविषयत्वेन कारणस्वरूपभेदेन च ताभ्यामिदं ज्ञानं भिन्नमेव । तथा चोक्तम्-'अस्य (अनध्यवसायस्य) चानवधारणात्मकत्वेऽपि कारणस्वरूपादिभेदान्त संशयता । अप्रतीतविशेषविषयत्वेनाऽपि अस्य सम्भवादुभयविशेषानुस्मरणजसंशयतो भेद एवेति कन्दलीकाराः।-प्रशस्तपा० टि० पृ० ६१।। १ संशय-विपर्ययाभ्याम् । २ संशयादीनि। ३ निराक्रियन्ते । ४ सम्यक्पदस्य कृत्यं प्रदर्श्य ज्ञानपदस्य कृत्यं प्रदर्शयति ज्ञानपदेनेति । ५ ननु ज्ञानपदेन यथा प्रमातुः प्रमितेश्च व्यावृत्तिः कृता तथा प्रमेयस्य कथं न कृता तस्यापि ज्ञानत्वाभावात्, इति चेत्तस्यापि चशब्दाद् ग्रहणं बोध्यम् । यद्यपि स्वपरिच्छेद्यापेक्षया ज्ञानस्य प्रमेयत्वमस्त्येव तथापि घटपटादिबहिरर्थापेक्षया प्रमेयत्वं नास्तीत्यतो युक्तं चशब्दात्तस्य ग्रहणम् । ६ प्रमातरि प्रमितौ प्रमेये च । ७ भावसाधनपक्षे । ८ प्रमितेरव्यावर्त्तनम् । ६ ज्ञप्तिमात्रं ज्ञानमिति । Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः मिह ज्ञानपदम् । करणसाधनं खल्वेतज्ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानमिति । 'करणाधारे चानट” [जैनेन्द्रव्या० २।३।११२] इति करणेऽप्यनटप्रत्ययानुशासनात् । भावसाधनं तु ज्ञानपदं प्रमितिमाह1 । अन्यद्धि भावसाधनात्करणसाधनं2 पदम् । एवमेव प्रमाणपदमपि प्रमीयतेऽनेनेति करणसाधनं कर्त्तव्यम् । अन्यथा सम्यग्ज्ञानपदेन सामानाधिकरण्याघटनात्। तेन प्रमितिक्रियां प्रति यत्करणं तत्प्रमाणमिति सिद्धम् । तदुक्तं प्रमाणनिर्णये—“इदमेव हि प्रमाणस्य प्रमाणत्वं यत्प्रमितिक्रियां प्रति साधकतमत्वेन करणत्वम्” [प्रत्यक्षनिर्णय पृ० १] इति । . ११ नन्वेव मप्यक्षलिङ्गादा वतिव्याप्तिर्लक्षणस्य, तत्रापि प्रमितिरूपं फलं प्रति' करणत्वात् दृश्यते हि चक्षुषा १ विधानात् । २ ज्ञानपदवत् । ३ 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इत्यत्र प्रमाणलक्षणे प्रयुक्तं 'प्रमाणम्' इति पदम् । ४ प्रमाणपदं करणसाधनं नो चेत् । ५ प्रोक्तलक्षणशाब्दसामानाधिकरण्यानुपपत्तेः । ६ सुनिश्चितम् । ७ अतिशयेन साधकमिति साधकतमं नियमेन कार्योत्पादकमित्यर्थः । ८ संशयादौ प्रमात्रादौ च प्रोक्तप्रमाणलक्षणस्य व्यावृत्तावपि, अथ च प्रमाणपदस्य करणसाधनत्वेऽपि । ६ आदिपदेन धूमादेर्ग्रहणम् । १० अयमत्राशयः—यदि 'प्रमितिक्रियां प्रति यत्करणं तत्प्रमाणम्' इति प्रमाणार्थः कक्षीक्रियते तहि प्रमितिरूपं फलं प्रति करणत्वेनाक्ष-लिङ्गादेरपि प्रमाणत्वप्रसङ्गात् । अक्षलिङ्गादिः—इन्द्रिय-धूम-शब्दादिः । ११ अक्षलिङ्गादौ । 1 प्रमितिराह' इति प्रा प्रतिपाठः । 2 'साधनपदं' इति प प्रतिपाठः : Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.२ न्याय - दीपिका प्रमीयते, धूमेन प्रमीयते, शब्देन प्रमीयत इति व्यवहार1 इति चेत्; न; अक्षादेः प्रमिति प्रत्यसाधकतमत्वात् । $ १२ तथा हि-प्रमितिः प्रमाणस्य फलमिति न कस्यापि विप्रतिपत्तिः । सा चाज्ञाननिवृत्तिरूपा, तदुत्पत्तौ 2 करणेन 3 सता' तावदज्ञानविरोधिना भवितव्यम् । न चाक्षादिकमज्ञानविरोधि4, अचेतनत्वात् । तस्मादज्ञानविरोधिनश्चेतनधर्मस्यैव' करणत्वमुचितम् । लोकेऽप्यन्धकारविघटनाय तद्विरोधी प्रकाश' एवोपास्यते ' न पुनर्घटादिः, तद विरोधित्वात् । $ १३ किञ्च, अस्वसंविदितत्वादक्षादेर्नार्थिप्रमितौ साधकतमत्वम्, स्वावभासनाशक्तस्य परावभासकत्वायोगात् 5 । ज्ञानं तु स्वपरावभासकं प्रदीपादिवत्प्रतीतम् । ततः स्थितं प्रमिताव - साधकतमत्वादकरण मक्षादय इति । $ १४ चक्षुषा प्रमीयत इत्यादिव्यवहारे पुनरुपचारः शरणम्, १ समाधत्ते नेति । २ वादिनः प्रतिवादिनो वा । ३ विवादः । ४ प्रमिति: । ५ प्रमित्युत्पत्तौ । ६ भवता । ७ ज्ञानरूपस्य । ८ प्रदी पादिः । 8 अन्विष्यते । १० तेनान्धकारेण सह घटादेविरोधाभावात् । ११ स्वपरपरिच्छेदकम् । १२ प्रमिति प्रति न करणम् । 1 ' इति व्यवहारः' श्रा प्रतौ नास्ति । 2 'तदुत्पत्तौ तु' इति द प्रतिपाठः । 3 'भवता' इति पाठो म प मु प्रतिषु अधिकः । 4 ... दिकं तद्विरोधि' इति द प्रतौ पाठः । 5 'घटवत्' इत्यधिकः पाठो म प प्रत्योः । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः १३ उपचारप्रवृत्तौ च सहकारित्वं निबन्धनम् । न हि सहकारित्वेन 'तत्साधकमिद मिति करणं नाम, साधकविशेषस्यातिशयवत: करणत्वात् । तदुक्तं जैनेन्द्रे-“साधकतमं करणम्' [१।२।११४] इति1 । तस्मान्न लक्षणस्याक्षादावतिव्याप्तिः । १५ अथापि धारावाहिकबुद्धिष्वतिव्याप्तिस्तासाँ सम्यज्ञानत्वात् । न च तासामार्हतमते प्रामाण्याभ्युपगम इति; उच्यते; एकस्मिन्नेव घटे घटविषयाज्ञानविघटनार्थमाचे ज्ञाने प्रवृत्ते तेन घटप्रमितौ सिद्धायां पुनर्घटोऽयं घटोऽयमित्येवमुत्पन्नान्युत्तरोत्तरज्ञानानि खलु धारवाहिकज्ञानानि भवन्ति2। न ह्य:तेषां3 प्रमिति प्रति साधकतमत्वम्, प्रथमज्ञानेनैव प्रमितेः सिद्धत्वात् । कथं तत्र लक्षणमतिव्याप्नोति ? तेषां गृहीतग्राहित्वात्। १६ ननु बटे दृष्टे पुनरन्यव्यासङ्गेन पश्चात् घट एव दृष्टे पश्चात्तनं ज्ञानं पुनरिमाणं प्राप्नोति धारावाहिकवदिति चेत् ;न; -..र____१ 'मुख्यभावे व प्रयोजने निमित्ते चोपचार: प्रवर्त्तते' इति नियमात् । २ प्रमिति धकम् । ३ अक्षादिकम् । ४ असाधारणसाधकस्य ज्ञानस्य । ५ अत्रातिशयो नाम नियमेन कार्योत्पादकत्वम् । ६ अक्षलिङ्गादावतिव्याप्तिवारणेऽपि । ७ धाराबाहिकबुद्धीनाम् । ८ आद्येन घटज्ञानेन । ६ धारावाहिकज्ञानानाम् । १० धारावाहिकबुद्धिषु । ११ धारावाहिकज्ञानानाम् । १२ अन्यस्मिन् कार्ये व्यापृते चित्तस्याभ्यासशक्तिासङ्गः । बुद्धेरन्यत्र संचारो विषयान्तराकृष्टत्वं वा व्यासङ्गः । ____ 1 'इति' पाठो मुद्रितप्रतिषु नास्ति । -2 'भवन्ति' म प मु प्रतिषु नास्ति । 3 'एषां' इति म प मु प्रतिषु पाठः । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ न्याय-दीपिका 'दृष्टस्यापि मध्ये समारोपे ' सत्यदृष्टत्वात् । तदुक्तम् - " दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् " [ परीक्षा ० १ - ५] इति । $ १७ एतेन निर्विकल्प के सत्तालोचनरूपे दर्शनेऽप्यतिव्याप्तिः परिहृता । "तस्याव्यवसायरूपत्वेन प्रमिति प्रति करणत्वाभावात् । निराकारस्य 1 ज्ञानात्वाभावाच्च । “निराकारं दर्शनं साकारं ज्ञानम्” [सर्वार्थसि० २-९ ] इति प्रवचनात् । तदेवं 2 प्रमाणस्य सम्यग्ज्ञानमिति लक्षणं नाऽतिव्याप्तम् । नाऽप्यव्याप्तम्, लक्ष्ययोः प्रत्यक्ष परोक्षयोर्व्याप्यवृत्तेः ' । नाऽप्यसम्भवि, 'लक्ष्यवृत्तेरबाधितत्वात्" । [ प्रमाणस्य प्रामाण्यनिरूपणम् ] $ १८ किमिदं प्रमाणस्य प्रामाण्यं नाम ? प्रतिभातविष १ ज्ञातस्यापि । २ संशयविपर्ययानध्यवसायविस्मरणलक्षणे ३ ज्ञातपदार्थोऽपि सति संशये, विपर्यये, अनध्यवसाये, उवस्मरणे वाऽज्ञाततुल्यो भवति । अतस्तद्विषयकं ज्ञानं प्रमाणमेवेति भाव। प्रक्षलिङ्गशब्दधारावाहिकबुद्धिष्वतिव्याप्तिनिराकरणेन । ५ निवित पकदर्शनस्य । ६ अनिश्चयात्मकत्वेन । ७ श्रागमात् । ८ यावल्लक्ष्येषु वर्तमानत्वं व्याप्यवृत्तित्वम् । ६ लक्ष्ययोः प्रत्यक्षपरोक्षयोः । १० तदेव हि सम्यक् लक्षणं यदव्याप्त्यादिदोपत्रयशून्यमित्यभिप्रेत्य ग्रन्थकृता दोषत्रयपरिहारः कृतः । ११ प्रामाण्यं स्वतोऽप्रामाण्यं परत इति मीमांसकः, अप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यं परत इति ताथागताः, उभयं स्वत इति सांख्याः, उभयमपि परत इति नैयायिक - वैशेषिकाः, उभयमपि कथञ्चित्स्वतः कथञ्चित्परत इति 1 म प मु प्रतिषु 'दर्शनस्य इत्यधिकः पाठः । 2 म पसु प्रतिषु 'तस्मात्' इति पाठः । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः | याऽव्यभिचारित्वम्। । तस्योत्पत्तिः कथम् ? स्वत एवेति मोमांसकाः। प्रामाण्यस्य स्वत उत्पत्तिरिति ज्ञानसामान्यसामग्रीमात्रजन्यत्वमित्यर्थः । तदुक्तम्- 'ज्ञानोत्पादकहेत्वनतिरिक्तजन्यत्व मुत्पत्तौ स्वतस्त्वम्” [ ] इति । न ते मीमांसकाः, ज्ञानसामान्यसामग्रयाः संशयादावपि ज्ञानविशेष सत्त्वात् । वयं तु ब्रूमहे ज्ञानसामान्यसामग्रयाः साम्येऽपि संशयादिरप्रमाणं सम्यग्ज्ञानं प्रमाणमिति विभागस्तावदनिबन्धनो न भवति । ततः संशयादौ यथा हेत्वन्तर मप्रामाण्ये दोषादिकमङ्गीक्रियते तथा प्रमाणेऽपि2 "प्रामाण्यनिबन्धनमन्यदवश्यमभ्युपगन्तव्यम्, अन्यथा प्रमाणाप्रमाणविभागानुपपत्ते:१३ । स्याद्वादिनो जैना इत्येवं वादिनां विप्रतिपत्तेः सद्भावात्संशयः स्यात्तन्निराकरणाय प्रामाण्याप्रामाण्यविचार: प्रक्रम्यते किमिदमिति । १ प्रामाण्यस्य । २ येनैव कारणेन ज्ञानं जन्यते तेनैव तत्प्रामाण्यमपि न तद्भिन्नकारणेनेति भावः । ३ ज्ञानस्योत्पादको यो हेतुः कारणं तदतिरिक्तजन्यत्वं ज्ञानोत्पादककारणोत्पाद्यत्वमित्यर्थः । ४ समाधत्ते नेति, मीमांसका:-विचारकुशलाः । ५ समग्राणां भाव:-एककार्यकारित्वं सामग्री-यावन्ति कारणानि एकस्मिन् कार्ये व्याप्रियन्ते तानि सर्वाणि सामग्रीति कथ्यन्ते । ६ मिथ्याज्ञाने । ७ जैनाः । ८ अकारणः । ६ एकस्माद्धेतोरन्यो हेतुः हेत्वन्तरं ज्ञानसामान्यकारणाद्भिन्नकारणमित्यर्थः । १० स्वीक्रियते, भवता मीमांसकेन । ११ गुणादिकम्-नैर्मल्यादिकम् । १२ गुणदोषकृतप्रामाण्याप्रामाण्यानभ्युपगमे । १३ इदं ज्ञानं प्रमाणमिदमप्रमाणमिति विभागो न स्यात् ।। 1 'प्रमाण्यं' इत्यधिकः पाठः म प्रती। 2 'अपि' इति पा प्रतो नास्ति। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका १९ एवमप्यप्रामाण्यं परतः प्रामाण्यं तु स्वत इति न वक्तव्यम् ; विपर्ययेऽपि समानत्वात् । शक्यं हि वक्तुमप्रामाण्यं स्वतः प्रामाण्यं तु परत इति । तस्मादप्रामाण्यवत्प्रामाण्यमपि परत एवोत्पद्यते। न हि पटसामान्यसामग्री रक्तपटेहेतुः । तद्वन्न ज्ञानसामान्यसामग्री प्रमाणज्ञाने हेतुः, भिन्नकार्ययोभिन्नकारणप्रभवत्वावश्यम्भावादिति । २० कथं तस्य ज्ञाप्ति:? अभ्यस्ते विषये स्वतः,अनभ्यस्ते तु परत: । कोऽयमभ्यस्तो विषयः को वाऽनभ्यस्त: ? उच्यते; परिचितस्वग्रामतटाकजलादिरभ्यस्तः, तद्वयतिरिक्तोऽनभ्यस्तः। किमिदं स्वत इति ? किं नाम परत इति ? ज्ञानज्ञापकादेव प्रामाण्यज्ञप्ति:1 स्वत इति ? ततोऽतिरिवताज्ज्ञप्ति: परत इति। - २१ तत्र तावदभ्यस्ते विषये2 जलमिति3 ज्ञाने जाते ज्ञानस्वरूपज्ञप्तिसमय एव तद्गतं प्रामाण्यमपि ज्ञायत एव । अन्यथोत्तर क्षण एव निःशङ्कप्रवृत्तिरयोगात्। अस्ति हि जलज्ञानोत्तरक्षण एव निःशङ्कप्रवृत्तिः4। अनभ्यस्ते तु विषये जलज्ञाने जाते जल १ प्रामाण्याप्रामाण्ययोभिन्नकारणसिद्धेऽपि । २ जैन उत्तरयति नेति। ३ निर्मलतादिगुणेभ्यः । ४ ज्ञानप्रामाण्ये भिन्नकारणजन्ये भिन्नकार्यत्वादप्रमाण्यवदित्यनुमानमत्र बोध्यम् । ५ प्रामाण्यस्य । ६ निश्चयः । ७ परिचिते । ८ अपरिचिते । ६ ज्ञानस्वरूपज्ञप्तिसमये प्रामाण्यनिश्चयो नो चेत् । १० जलज्ञानानन्तरसमये । ११ जले सन्देहरहिता प्रवृत्तिन 1 म प मु प्रतिषु 'प्रमाण्यस्य' इति पाठः । 2 म मु 'अभ्यस्तविषये' इति पाठः। 3 म प मु 'जलमिदमिति' पाठः । 4प मु 'निःशंका' पाठः। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः ज्ञानं मम जातमिति ज्ञानस्वरूपनिर्णयेऽपि प्रामाण्यनिर्णयोऽन्यत' एव, अन्यथोत्तरकालं सन्देहानुपपत्तेः । अस्ति हि सन्देहो 'जलज्ञानं मम जातं तत्कि जलमुत मरीचिका इति। ततः कमलपरिमलशिशिर1मरुत्प्रचारप्रभृतिभिरवधारयति--'प्रमाणं' प्राक्तनं जलज्ञानं कमलपरिमलाद्यन्यथानुपपत्तेः' इति । २२ "उत्पत्तिवत्प्रामाण्यस्य ज्ञप्तिरपि परत एवेति यौगाः । तत्र प्रामाण्यस्योत्पत्तिः परत इति युक्तम् । ज्ञप्तिः पुनरभ्यस्तविषये स्वत एवेति स्थितत्वात् ज्ञप्तिरपि परत "एवेत्यवधारणानुपपत्तिः2 । ततो व्यवस्थितमेतत्प्रामाण्यमुत्पत्तौ परत एव, ज्ञप्तौ तु कदाचित्स्वतः "कदाचित्परत इति । तदुक्तं प्रमाणपरीक्षायां ज्ञप्ति प्रति५--- प्रमाणा "दिष्ट-संसिद्धि "रन्यथाऽतित्र सङ्गत:१९ । प्रामाण्यं तु स्वतः सिद्धमभ्यासात् परतोऽन्यथा ॥ [प्र.प.प्र.६३ ] स्यात् । १ संवादज्ञानान्तरादर्थक्रियाज्ञानाद्वा । २ अनभ्यस्ते-अपरिचिते विषये प्रामाण्य निर्णयोऽन्यतो न स्यात् । ३ बालुपुञ्जः । ४ सन्देहान्तरम। ५ साध्यम् । ६ धर्मी । ७ यथा प्रामाण्यस्योत्पत्तिः परतस्तथा। ८ यौगशब्देन नैयायिक-वैशेषिको गृह्यते। ६ उत्पत्ति-ज्ञप्त्योमध्ये । १० निश्चितत्वात् । ११ अन्यनिवृत्तिरूपफलजनकावधारणपरकैवकारप्रयोगासम्भवात् । १२ सम्यग् निश्चितम् । १३ अभ्यासदशायाम् । १४ अनभ्यासदशायाम् । १५ ज्ञप्तिमभिप्रेत्य । १६ सम्यग्ज्ञानात् । १७ इष्टोऽर्थस्तस्य सम्यकप्रकारेण सिद्धिप्तिलक्षणाऽभिलषितप्राप्तिलक्षणा वा । उत्पत्तिलक्षणा तु सिद्धिनात्र विवक्षिता, ज्ञापकप्रकरणात् । १८ प्रमाणाभासात् । १६ इष्टसंसिद्धय - भावः । २० अभ्यासदशायाम् । २१ अनभ्यासदशायाम् । 1 'मन्द' इत्यधिक: पाठो मुद्रितप्रतिषु । 2 'नुपपत्तेः इति द प्रतिपाठः । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका $ २३. तदेवं सुव्यवस्थितेऽपि प्रमाणस्वरूपे दुरभिनिवेशवशंगतैः सौगतादिभिरपि कल्पितं प्रमाणलक्षणं सुलक्षणमिति येषां भ्रमस्ताननुतीमः । तथा हि- [ सौगतीयप्रमाणलक्षणस्य समीक्षा ] $२४. “ अविसंवादि ज्ञानं प्रमाणम्" [ प्रमाणवा० २ - १] इति बौद्धाः । तदिदमविसंवादित्वमसम्भवित्वादलक्षणम् । बौद्धेन हि प्रत्यक्षमनुमानमिति प्रमाणद्वयमेवानुमन्यते । तदुक्तं न्यायबिन्दौ ' -- " द्विविधं सम्यग्ज्ञानम्", "प्रत्यक्षमनुमानं च" [ न्यायबिन्दु पृ० १० ] इति । तत्र न तावत्प्रत्यक्षस्याविसंवादित्वम्, तस्य निर्विकल्पकत्वेन स्वविषयानिश्चायकस्य समारोपविरोधित्वाभावात् । नाऽप्यनुमानस्य तन्मतानुसारेण' 'तस्याऽप्यपरमार्थभूतसामान्यगोचरत्वादिति । १८ [कुमारिलभट्टीयप्रमाणलक्षणस्य समीक्षा ] $ २५. “अनधिगततथाभूतार्थनिश्चायकं प्रमाणम्” [ शास्त्र १ मिथ्यात्वाभिप्रायैः । २ जनानाम् । ३ उपकुर्मः । ४ न निर्दोषलक्षणम् । ५ बौद्धतार्किकधर्म कीत्तिविरचिते न्यायविन्दुनाम्नि ग्रन्थे । ६ यन्न समारोपविरोधि तन्नाविसंवादि, यथा संशयादि, तथा च प्रत्यक्षम्, तस्मान्न तदविसंवादीति भावः । ७ अविसंवादित्वमिति सम्बन्धः । ८ बौद्धमतानुसारेण । अनुमानस्यापि । १० प्रयमत्राशयः - बौद्धमते हि द्विविधं प्रमेयं विशेषाख्यं स्वलक्षणमन्यापोहाख्यं सामान्यं च । तत्र स्वलक्षणं परमार्थभूतं प्रत्यक्षस्य विषयः स्वेनासाधारणेन लक्षणेन लक्ष्यमा - णत्वात्, सामान्यं त्वपरमार्थभूतमनुमानस्य विषयः परिकल्पितत्वात् । तथा Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः दी० पृ० १२३] इति भाट्टाः । तदप्यव्याप्तम्, तैरेव प्रमाणत्वेनाभिमतेषु 'धारावाहिकज्ञानेष्वनधिगतार्थ निश्चायकत्वाभावात् । उत्तरोत्तरक्षणविशेष विशिष्टार्थावभासकत्वेन तेषामनधिगतार्थनिश्चायकत्वमिति नाऽऽशङ्कनीयम्, क्षणानामतिसूक्ष्माणामाल -. 'क्षयितुमशक्यत्वात् । १६ [ प्रभाकरीयप्रमाणलक्षणस्य समीक्षा ] $ २६. "अनुभूति: प्रमाणम्" [वृहती ] १-१-५ ] इति प्राभाकराः । तदप्यसङ्गतम् ; अनुभूतिशब्दस्य भावसाधनत्वे करणलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः, 'करणसाधनत्वे तु भावलक्षणप्रमाणाव्याप्तेः,करण-भावयोरुभयोरपि तन्मते प्रामाण्याभ्युपगमात् । तदुक्तं शालिकानाथेन -- "यदा भावसाधनं तदा संविदेव प्रमाणं करणसाधनत्वे त्वात्म-मनः सन्निकर्षः "१० [ प्रकरणप० प्रमाणपा० पृ० ६४ ] इति । चापरमार्थभूतसामान्यविषयत्वादनुमानस्य नाविसंवादित्वमिति भावः । १ गृहीतार्थविषयकाण्युत्तरोत्तरजायमानानि ज्ञानानि धारावाहिकज्ञानानि तेषु । २ ननूत्तरोत्तरजायमानधारावाहिकज्ञानानां तत्तत्क्षणविशिष्टघटाद्यर्थनिश्चायकत्वेनागृहीतार्थविषयकत्व मेव, ततो न तैरख्याप्तिरिति शङ्कितुर्भावः । ३ शङ्का न कार्या । ४ आदर्शयितुम् । ५ 'प्रमाणमनुभूतिः' - प्रकरणपजि० पृ० ४२ । ६ प्रभाकर मतानुसारिणः । ७ अनुभवोऽनुभूतिरित्येवंभूते । ८ अनुभूयतेऽनेनेति अनुभूतिरित्येवंरूपे । ६ प्राभाकराणां मते । १० प्रभाकर मतानुसारिणा शालिकानाथेन यदुक्तं तत्प्रकरणपञ्जिकायामित्थं वर्त्तते — 'यदि प्रमितिः प्रमाणं इति भावसाधनं मानमाश्रीयते 1 द प्रतौ 'लक्षयितुम' इति पाठः । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [नैयायिकानां प्रमाणलक्षणस्य समीक्षा] २७. “प्रमाकरणं प्रमाणम्' [ न्यायमं० प्रमा० पृ० २५ इति नैयायिकाः । तदपि प्रमादकृतं लक्षणम् ; ईश्वराख्य एवं "तदङ्गीकृतेप्रमाणेऽव्याप्तेः । अधिकरणं हि महेश्वरः प्रमाया: न तु करणम् । न चायमनुक्तो पालम्भः, “तन्मे प्रमाणं शिवः तदा संविदेव मानम् । तस्याश्च व्यवहारानुगुणस्वभावत्वाद्धानोपादानो पेक्षाः फलम् । प्रमीयतेऽनेनेति करणसाधने प्रमाणशब्दे आत्म-मनःसन्निका त्मिनो ज्ञानस्य प्रमाणत्वे तद्वलभाविनी फल (लं) संविदेव बाह्यव्यवः हारोपयोगिनी सती"-प्रमाणपा० प० पृ० ६४ । १ वात्स्यायन-जयन्तभट्टादयस्ताकिकाः । यथा हि 'प्रमीयतेऽनेनेति करणार्थाभिधानः प्रमाणशब्द:,-न्यायभा० १. १. ३, 'प्रमीयते येन तत्प्रमाणमिति करणार्थाभिधायिनः प्रमाणशब्दात् प्रमाकरणं प्रमाणमवगम्यते'–न्यायमं० प्रमाण० पृ० २५ । २ प्रमाकरणं प्रमाणमिति नैयायिकाभिमतमपि । ३ सदोषम् । ४ महेश्वरे। ५ नैयायिकैरभ्युपगते । ६ अाश्रयः । ७ तत्प्रमायाः नित्यत्वात्करणत्वासम्भवात् । ८ अत्रायमाशयः-उपालम्भो दोषः (आरोपात्मकः), स च 'महेश्वरः प्रमाणम्' इत्ये वरूपो नानुक्तो भवता न स्वीकृत इति न, अपि तु महेश्वरस्य प्रमाणत्वं स्वीकृतमेव 'तन्मे प्रमाणं शिवः' इति वचनात्, तथा चेश्वराख्यप्रमाणस्य प्रमाया अधिकरणत्वेन प्रमाकरणत्वाभावादव्याप्तिदोषकथनं ग्रन्थकृता सङ्गतमेवेति भावः । ६ सम्पूर्णः श्लोकस्त्वित्थं वर्त्तते साक्षात्कारिणि नित्ययोगिनि परद्वारानपेक्षस्थिती भूतार्थानुभवे निविष्टनिखिलप्रस्ताविवस्तुक्रमः । लेशादृष्टिनिमित्तदुष्टिविगमप्रभ्रष्टशङ्कातुषः शङ्कोन्मेषकलङ्किभिः किमपरस्तन्मे प्रमाणं शिवः ॥ 1 'ईश्वराख्ये तदङ्गीकृत एव' इति म प मु प्रतिषु पाठः Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रमाणसामान्यप्रकाशः २१ [न्यायकुसु० ४–६ ] इति 'यौगाग्रसरेणोदयने नोक्तत्वात् । तत्परिहाराय केचन बालिशाः “साधनाश्रययोरन्यतरत्वे सति प्रमाव्याप्तं प्रमाणम्” [सर्वदर्शनसं० पृ० २३५ ] इति वर्णयन्ति तथापि साधनाश्रयान्यतर पर्यालोचनायां साधनमाश्रयो वेति फलति । तथा च "परस्पराव्याप्तिर्लक्षणस्य । २८ अन्यान्यपि पराभिमतानि प्रमाणसामान्यलक्षणा १ योगाः - नैयायिकास्तेषामग्रेसरः प्रधानः प्रमुखो वा तेन । २ महेश्वरेऽव्याप्तिदोषनिराकरणाय । ३ सायणमाधवाचार्याः । ४ सर्वदर्शनसंग्रहे 'साधनाश्रयाव्यतिरिक्तत्वे' इति पाठः । तट्टीकाकृता च तथैव व्याख्यातः । यथा हि - 'यथार्थानुभवः प्रमा, तस्याः साधनं करणम् । ग्राश्रय श्रात्मा । तदुभयापेक्षया भिन्नं यन्न भवति तथाभूतं सद्यत्प्रमया नित्यसम्बद्धं तत्प्रमाणमित्यर्थः । ५ प्रमासाधन- प्रमाश्रययोर्मध्ये प्रमासाधनं प्रमाणं प्रमाश्रयो वेति विचारे क्रियमाणे । ६ साधनाश्रययोरन्यतरस्य प्रमाणत्वाङ्गीकारे । ७ श्रयं भावः- - प्रमासाधनस्य प्रमाणत्वाङ्गीकारे प्रमाश्रये प्रमाणेव्याप्तिः प्रमाश्रयस्य च प्रमाणत्वस्वीकारे प्रमासाधने प्रमाणेऽव्याप्तिः, यतो ह्यन्यतरस्य प्रमाणत्वपरिकल्पनात् । उभयपरिकल्पने चासम्भवित्वं स्पष्टमेव । न हि प्रमाणत्वेनाभ्युपगतस्यैकस्य (सन्निकर्षस्य महेश्वरस्य वा ) कस्यचिदपि प्रमासाधनत्वं प्रमाश्रयत्वं चोभयं सम्भवि । इत्थं च नैयायिकाभिमतमपि प्रमाकरणं प्रमाणमिति प्रमाणलक्षणं न समीचीनमिति प्रतिपादितं बोद्धव्यम् । , ८ 'इन्द्रियवृत्तिः प्रमाणम्' इति सांख्याः, 'अव्यभिचारिणीमसंदिग्धामर्थोपलब्धिं विदधती बोधाबोधस्वभावा सामग्री ( कारकसाकल्यं ) प्रमाणम्' ( न्यायमं० प्रमा० पृ० १४ ) इति जरन्नैयायिका : ( जयन्तभट्टादयः ) इत्यादीन्यपि परोक्तानि प्रमाणसामान्यलक्षणानि सन्ति परं तेषां प्रमाण 1 ' प्रमाणस्य' इति म प मु प्रतिषु पाठः । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका 'न्यलक्षणत्वादुिपेक्ष्यन्ते । तस्मात्स्वपरावभासनसमर्थं सविकल्पमगृहीतग्राहक सम्यग्ज्ञानमेवाज्ञानमर्थे 'निवर्त्तयत्प्रमाणमित्यार्हतं मतम् । इति श्रीपरमाहताचार्य-धर्मभूषण-यति-विरचितायां न्यायदीपिकायां प्रमाणसामान्यलक्षणप्रकाशः प्रथम- ॥१॥ त्वस्यैवाघटनान्न परीक्षार्हाणि, अपि तूपेक्षाहाण्येव । ततो न तान्यत्र परीक्षितानि ग्रन्थकृता । नन्विन्द्रियवृत्तेः कारकसाकल्यादेर्वा प्रमाणत्वं कथं न घटते ? इति चेत् ; उच्यते ; इन्द्रियाणामज्ञानरूपत्वात्तवृत्तरप्यज्ञानरूपत्वेन प्रमाणत्वायोगात् । ज्ञान रूपमेव ही प्रमाणं भवितुमर्हति, तस्यैवाऽज्ञाननिवर्तकत्त्वात्प्रदीपादिवत् । इन्द्रियाणां चक्षुरादीनां वृत्तिहि तदुद्धाटनादिव्यापारः, स च जडस्वरूपः, ततो न तेनाज्ञाननिवृत्तिः सम्भवति घटादिवत् । तस्मादिन्द्रियवृत्तेरज्ञाननिवृत्तिरूपप्रमा प्रति करणत्वाभावान्न प्रमाणत्वमिति भावः ।। एवं कारकसाकल्यस्याऽप्यबोधस्वभावस्याज्ञानरूपत्वेन स्व-परज्ञानकरणे साधकतमत्वाभावान्न प्रमाणत्वम् । अतिशयेन साधकं साधकतमम्, साधकतमं च करणम् । करणं खल्वसाधारण कारणमुच्यते । तथा च सकलानां कारकाणां साधारणासाधारणस्वभावानां साकल्यस्य–परिसमाप्त्या सर्वत्र वर्तमानस्य सामस्त्यस्य-कथं साधकतमत्वमिति विचारणीयम् ? साधकतमत्वाभावे च न तस्य प्रमाणत्वम्, स्व-परपरिच्छित्तौ साधकतमस्यैव प्रमाणत्वघटनात् । तेनैव ह्यज्ञाननिवृत्ति: सम्पादयितुं शक्येत्यलं विस्तरेण । ततः सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इत्येतदेव प्रमाणस्य सम्यक् लक्षणम् । १ लक्षणाभासत्वात्, लक्षणकोटौ प्रवेष्टुमयोग्यत्वादिति भावः । २ न परीक्षाविषयीक्रियन्ते । ३ उपसंहारे 'तस्मात्' शब्दः । ४ अपूर्वार्थनिश्चायकम् । ५ घटादिपदार्थेष्वज्ञाननिवृत्ति कुर्वत् । ६ जैनम् । ७ शासनम् । 1 'न्यलक्ष्यत्वा' इति द आ प्रतिपाठः । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्षप्रकाश: -:: [प्रमाणं द्विधा विभज्य प्रत्यक्षस्य लक्षणकथनम् ] १. अथ प्रमाणविशेषस्वरूपप्रकाशनाय प्रस्तूयते । प्रमाणं' द्विविधम्-प्रत्यक्ष परोक्षं चेति । तत्र विशदप्रतिभासं प्रत्यक्षम् । इह प्रत्यक्ष लक्ष्यं विशदप्रतिभासत्वं लक्षणम् । यस्य प्रमाणभूतस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदस्तत्प्रत्यक्षमित्यर्थः । १. प्रमाणसामान्यलक्षणनिरूपणानन्तरमिदानी प्रकरणकारः प्रमाणविशेषस्वरूपप्रतिपादनाय द्वितीयं प्रकाशं प्रारभते अथेति । २ पूर्वोक्तलक्षणलक्षितम् । ३ विभागस्यावधारणफलत्वात्तेन द्विप्रकारमेव, न न्यूनं नाधिकमिति बोध्यम् । चार्वाकाद्यभिमतसकलप्रमाण भेदानामत्रैवान्तभर्भावात् । तत्र प्रत्यक्षमेवैकं प्रमाणमिति चार्वाकाः, प्रत्यक्षमनुमानं चेति द्वे एव प्रमाणे इति वौद्धाः वैशेषिकाश्च, प्रत्यक्षानुमानोपमानानि त्रीण्येव प्रमाणानीति सांख्याः, तानि च शाब्दं चेति चत्वार्येव इति नैयायिकाः, सहार्थापत्त्या च पञ्चेति प्राभाकराः, सहानुपलब्ध्या च षट् इति भाट्टाः वेदान्तिनश्च, सम्भवैतिह्याभ्यां सहाष्टौ प्रमाणानीति पौराणिकाः । तथा चोक्तम् प्रत्यक्षमेकं चार्वाकः कारणात्सौगताः पुनः । अनुमानं च तच्चैव सांख्याः शाब्दं च ते अपि ॥१॥ न्यायकदेशिनोऽप्येवमुपमानं च केन च । अर्थापत्त्या सहैतानि चत्वार्याहुः प्रभाकराः ॥२॥ अभावषष्ठान्येतानि भाट्टा वेदान्तिनस्तथा । सम्भवैतिशयुक्तानि तानि पौराणिका जगुः ॥३॥ तदेतेषां सर्वेषां यथायथं प्रत्यक्ष-परोक्षप्रमाणयोरेवान्तर्भाव इति द्विविध Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ न्याय - दीपिका $ २. किमिदं विशदप्रतिभासत्वं नाम ? उच्यते- ज्ञानावरणस्य' क्षयाद्विशिष्टक्षयोपशमाद्वा 1 शब्दानुमानाद्य' सम्भवि यन्नैर्मल्यमनुभवसिद्धम्, दृश्यते खल्वग्निरस्तीत्याप्त वचनाडूमादि लिङ्गाच्चोत्पन्नाज्ज्ञानादय' मग्निरित्युत्पन्नस्यैन्द्रियकस्य' ज्ञानस्य विशेषः । स एव नैर्मल्यम्, वैशद्यम्, स्पष्टत्वमित्यादिभिः शब्दैरभिधीयते । तदुक्तं भगवद्भिर कलङ्क देवै न्यायविनिश्चये "प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमञ्जसा ।" [ का० ३] इति । विवृतं च स्याद्वादविद्यापतिना ” - “निर्मलप्रतिभासत्व मित्यनेन सूचितम् । विद्यानन्दस्वामिनाऽप्युक्तम् - ' एवं प्रमाणलक्षणं व्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं परीक्षितम्, तत्प्रत्यक्षं परोक्षं चेति संक्षेपाद् द्वितयमेव व्यवतिष्ठते, सकलप्रमाणभेदानामत्रैवाऽन्तर्भावादिति विभावनात् ।' 'स्याद्वादिनां तु संक्षेपात्प्रत्यक्ष-परोक्षविकल्पात्प्रमाणद्वयं सिद्धयत्येव तत्र सकलप्रमाणभेदानां संग्रहादिति - प्रमाणपरी० पृ० ६३-६४,६७ । एतच्च प्रमेयकमलमार्तंडेऽपि ( २ - १ ) प्रपञ्चतो निरूपितम् । १ ज्ञानप्रतिबन्धकं ज्ञानावरणाख्यं कर्म, तस्य सर्वथा क्षयाद्विशेषक्षयोपशमाद्वा । २ श्रादिपदादुपमानार्थापत्त्यादीनां संग्रहः । ३ विश्वसनीयः पुरुष आप्त:, यथार्थवक्ता इति यावत् । ४ त्रादिपदेन कृतकत्व - शिशपात्वादीनां परिग्रहः । ५ पुरो दृश्यमानः । ६ इन्द्रियजन्यस्य । ७ श्रनुमानाद्यपेक्षया विशेषप्रतिभासन रूपः । तदुक्तम् — अनुमानाद्यतिरेकेण विशेषप्रतिभासनम् । तद्वैशद्यं मतं बुद्धेः - लघीय० का०४ । ८ विशेषः । अस्या: कारिकाया उत्तरार्धमिदमस्ति - 'द्रव्य - पर्यायसामान्यविशेषार्थात्मवेदनम् । १० व्या ख्यातं न्यायविनिश्चयविवरणे । ११ श्रीमद्वादिराजाचार्येण । 1 ' शाब्द' इति श्रा प्रतिपाठः । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ २. प्रत्यक्ष प्रकाशः मेव स्पष्टत्वम्, स्वानुभवप्रसिद्ध चैतत्सर्वस्यापि परीक्षकस्येति नातीव निर्बाध्यते” [ न्यायविनि० वि० का ० ३ ] इति । तस्मात्सुष्ठक्तं विशदप्रतिभासात्मकं ज्ञानं प्रत्यक्षमिति । [ सौगतीयप्रत्यक्षस्य निरासः ] $ ३. “कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् " [ न्यायबिन्दु पृ० ११] इति ताथागताः । अत्र हि कल्पनापोढपदेन सविकल्पकस्य व्यावृत्तिः, अभ्रान्तमिति पदेन त्वाभासस्य । तथा च ' समीचीनं निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमित्युक्तं भवति ; तदेतद् बालचेष्टितम् ; निर्विकल्पकस्य प्रामाण्यमेव दुर्लभम्, समारोपाविरोधित्वात् कुतः प्रत्यक्षत्वम् ? व्यवसायात्मकस्यैव' प्रामाण्यव्यस्थापनात्' । न १ तथा चोक्तम् — 'विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षम्, प्रत्यक्षत्वात्, यत्तु विशदज्ञानात्मकं तन्न प्रत्यक्षं यथाऽनुमानादिज्ञानम्, प्रत्यक्षं च विवादाध्यासितम्, तस्माद्विशदज्ञानात्मकमिति । - प्रमाणपरी० पृ० ६७ । २ 'अभिलापसंसर्गयोग्यप्रतिभासप्रतीतिः कल्पना, तया रहितम्' - न्यायबिन्दु पृ० १३ । नाम - जात्यादियोजना वा कल्पना, तयाऽपोढम्, कल्पनास्वभावशून्यमित्यर्थः । ' तत्र यन्न भ्राम्यति तदभ्रान्तम्' न्यायबिन्दुटीका पृ० १२ । ३ ‘प्रत्यक्षं कल्पनापोढम् । यज्ज्ञानमर्थे रूपादौ नाम - जात्यादिकल्पनारहितं तदक्षमक्षं प्रति वर्त्तते इति प्रत्यक्षम् - न्यायप्र० पृ० ७, 'प्रत्यक्षं कल्पनापोढं नाम-जात्याद्यसंयुतम् ' - प्रमाणसं ० का ० ३ ! प्रत्रेदं बोध्यम्- 'कल्पनापोढं प्रत्यक्षम्' इति दिग्नागस्य प्रत्यक्षलक्षणम्, अभ्रान्तविशेषणसहितं तु धर्मकीर्त्तेः । ४ तथागतः सुगतो बुद्ध इत्यनर्थान्तरम्, तदनुयायिनो ये ते ताथागता बौद्धाः । ५ व्यवच्छेदो निरास इति यावत् । ६ मिथ्याज्ञानस्य । ७ फलितलक्षणं प्रदर्शयति तथा चेति । निश्चयात्मकस्यैव ज्ञानस्य । ६ 'तन्निश्चयात्मकं समारोपविरुद्धत्वादनुमानवत्' ( परीक्षा० १-३ ) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका $ ४. 'ननु निर्विकल्पकमेव प्रत्यक्षप्रमाणमर्थजत्वात् । तदेव हि परमार्थसत्स्वलक्षणजन्यं न तु सविकल्पकम्, तस्यापरमार्थ भूतसामान्यविषयत्वेनार्थजत्वाभावादिति चेत् ;न'; अर्थस्यालोका वज्ञानकारणत्वानुपपत्तेः । तद्यथा-अन्वयव्यतिरेकगम्यो हि कार्यकारणभावः । तत्रालोकस्तावन्न ज्ञानकारणम्, 'तदभावेऽपि नक्तञ्चराणां मार्जारादीनां ज्ञानोत्पत्तेः, तद्भावेऽपि[च] चूकादीनां तदनुत्पत्तेः । तद्वदर्थोऽपि न ज्ञानकारणम्, "तदभावेऽपि केशमशकादिज्ञानोत्पत्तेः । तथा च कुतोऽर्थजत्वं ज्ञानस्य ? | तदुक्तं परीक्षामुखे-"नार्थालोको कारणम्" [२-६] इति । प्रामाण्यस्य चार्थाव्यभिचार एव निबन्धनं न त्वर्थजन्यत्वम्, इत्यादिना निश्चयात्मकस्यैव ज्ञानस्य प्रमाण्यं व्यवस्थापितम् । १ बौद्धः शङ्कते नन्विति । २ परमार्थभूतेन स्वलक्षणेन जन्यं 'परमार्थोऽकृत्रिममनारोपितं रूपम्, तेनास्तीति परमार्थसत् । य एवार्थः सन्निधानासन्निधानाभ्यां स्फुटमस्फुटं च प्रतिभासं करोति परमार्थसन् स एव । स एव च प्रत्यक्षविषयो यतस्तस्मात्तदेव स्वलक्षणम्'-न्यायबि० टी० पृ० २३, 'यदर्थक्रियासमर्थं तदेव स्वलक्षणमिति, सामान्यलक्षणं च ततो विपरीतम्'-प्रमाणसं० पृ० ६ । ३ जैन उत्तरयति । ४ अन्वयव्यतिरेकाभ्यां विना न कार्यकारणभावावगम इत्येतत्प्रदर्शनार्थ 'हि' शब्दः । ५ अालोकाभावेऽपि । ६ अालोकसद्भावेऽपि । ७ उलूकादीनाम् । ८ ज्ञानोत्पत्त्यभावात् । ६ आलोकवत् । १० अर्थाभावेऽपि । ११ केशोण्डुकादिज्ञानस्य भावात् । १२ तदभावववृत्तित्वं व्यभिचारस्तद्भिन्नोऽव्यभिचारः । तत्पदेनात्रार्थो ग्राह्यः । १३ कारणं प्रयोजकमित्यर्थः । 1 'एतदेव हि' इति द प्रतिपाठः । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष - प्रकाशः २७ स्वसंवेदनस्य विषयाजन्यत्वेऽपि प्रामाण्याभ्युपगमात् । न हि किञ्चित्स्वस्मादेव जायते । $ ५. नन्वतज्जन्यस्य ज्ञानस्य । कथं तत्प्रकाशकत्वम् ? इति चेत्; *घटाद्यजन्यस्यापि प्रदीपस्य तत्प्रकाशकत्वं दृष्ट्वा सन्तोष्टव्यमायुष्मता' । अथ कथमयं विषयप्रतिनियमः ? यदुत 'घटज्ञानस्य घट एव विषयो न पटः' इति । ग्रर्थजत्वं हि विषयप्रतिनियमकारणम्, तज्जन्यत्वात् तद्विषयमेव चैतदिति । तत्तु भवता नाऽभ्युपगम्यते इति चेत्; योग्यतैव विषयप्रतिनियमकारणमिति ब्रूमः । का नाम योग्यता ? इति2 । उच्यते - स्वावरणक्षयोपशमः । तदुक्तम् — “स्वावरणक्षयोपशमलक्षणयोग्यतया हि प्रतिनियतमर्थं व्यवस्थापयति [ परीक्षा० २-६] इति । 1120 - यदि १ बौद्धैः । २ अत्र बौद्धः पुनराशङ्कते नन्विति । ३ श्रयं भावःज्ञानं अर्थान्नोत्पद्यते तर्हि कथमर्थप्रकाशकं स्यात् ? तदेव हि ज्ञानमर्थप्रकाशकं यदर्थजन्यम्, प्रजन्यत्वे तु तस्यार्थो विषयो न स्यात् 'नाकारणं विषयः' इति वचनात् । ४ उत्तरयति - घटाद्यजन्योऽपि हि यथा प्रदीपः घटादिप्रकाशको भवति तथा ज्ञानमप्यर्थाजन्यं सत् श्रर्थप्रकाशकमिति किमनुपपन्नम् ? अर्थस्य ज्ञानकारणत्वनिरासस्तु पूर्वमेव कृतस्ततो नात्र किञ्चिद्वचनीयमस्ति । ५ सन्तोषः करणीयो भवता । ६ प्रमुकज्ञानस्य अमुक एव विषयो नान्य इति विषयप्रतिनियमः, स न स्याद्यदि ज्ञानस्यार्थ - जन्यत्वं नो भवेदिति शङ्काया आशयः । ७ अर्थजन्यत्वम् । ८ जैनेन । ९ जैना: । १० प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकों हि तत्तदावरणक्षयोपशमोऽर्थग्रहणशक्तिरूपः । तदुक्तम् — 'तल्लक्षणयोग्यता च शक्तिरेव । सैव ज्ञानस्य 1 श्राप सुप्रतिषु 'अन्यस्य' इति पाठः । 2 द प्रतौ 'इति' पाठो नास्ति : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका ६. 'एतेन तदाकारत्वात्तत्प्रकाशकत्वम्' इत्यपि प्रत्युक्तम्। अतदाकारस्यापि प्रदीपादेस्तत्प्रकाशकत्वदर्शनात् । ततस्तदाकार वत्तज्जन्यत्वमप्रयोजक प्रामाण्ये । सविकल्पकविषयभूतस्य प्रतिनियतार्थव्यवस्थायामङ्गम् नार्थोत्पत्त्यादि ।'–प्रमेयक० २-१०, 'योग्यताविशेषः पुनः प्रत्यक्षस्येव स्वविषयज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमविशेष एव'-प्रमाणपरीक्षा पृ० ६७ । १ अर्थजन्यताया निराकरणेन, योग्यतायाश्च प्रतिनियतार्थव्यवस्थापकत्वसमर्थनेन । २ निरस्तम् । ३ इत्थं च तदाकारत्वं तज्जन्यत्वं चोभयमपि प्रामाण्ये न प्रयोजकमिति बोध्यम् । ४ यच्चोक्तम्-सविकल्पकस्यापरमार्थभूतसामान्यविषयत्वमिति; तन्न युक्तम् ; सविकल्पकस्य विषयभूतसामान्यस्य प्रमाणाबाधितत्वात्परमार्थत्वमेव । यद्धि न केनापि प्रमाणेन बाध्यते तत्परमार्थसत्, यथा भवदभिमतं स्वलक्षणम्, प्रमाणाबाधितं च सामान्यम्, तस्मात्परमार्थसत् । किञ्च, 'यथैव हि विशेषः (स्वलक्षणरूपः) स्वेनासाधरणेन रूपेण सामान्यासम्भविना विसदृशपरिणामात्मना लक्ष्यते तथा सामान्यमपि स्वेनासाधारणेन रूपेण सदृशपरिणामात्मना विशेषासम्भविना लक्ष्यते इति कथं स्वलक्षणत्वेन विशेषाद् भिद्यते ? यथा च विशेषः स्वामर्थक्रियां कुर्वन् व्यावृत्तिज्ञानलक्षणार्थक्रियाकारी तथा सामान्यमपि स्वामर्थक्रियामन्वयज्ञानलक्षणां कुर्वत् कथमर्थक्रियाकारि न स्यात् तद्बाह्यां पुनर्वाह-दोहाद्यर्थक्रियां यथा न सामान्यं कर्तुमुत्सहते तथा विशेषोऽपि केवलः, सामान्यविशेषात्मनो वस्तुनो गवादेस्तत्रोपयोगात् । इत्यर्थक्रियाकारित्वेनापि तयोरभेदः सिद्धः ।'-अष्टस० पृ. १२१ । ततो यदुक्तं धर्मकीत्तिना यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थसत् । अन्यत्संवृतिसत् प्रोक्ते ते स्वसामान्यलक्षणे ॥' —प्रमाणवा० ३-३ इति । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः सामान्यस्य परमार्थत्वमेव, अबाधितत्वात् । प्रत्युत सौगताभिमत एव स्वलक्षणे विवादः । तस्मान्न निर्विकल्पकरूपत्वं प्रत्यक्षस्य । [नैयायिकाभिमतस्य सन्निकर्षस्य प्रत्यक्षत्वनिरासः] ६७. 'सन्निकर्षस्य च योगाभ्युपगतस्याचेतनत्वात् कुतः प्रमितिकरणत्वम्, कुतस्तरां प्रमाणत्वम्, कुतस्तमा प्रत्यक्षत्वम् ? ८.. 'किञ्च, रूपप्रमितेरसन्निकृष्टमेव चक्षुर्जनकम्, अप्राप्यकारित्वात्तस्य । ततः सन्निकर्षाभावेऽपि साक्षात्कारिप्रमोत्पत्तेर्न सन्निकर्षरूपतैव प्रत्यक्षस्य। न चाप्राप्यकारित्वं चक्षुषोऽप्रसिद्धम्, प्रत्यक्षतस्तथैव प्रतीतेः । ननु प्रत्यक्षागम्यामपि चक्षुषो विषयप्राप्तिमनुमानेन साधयिष्यामः परमाणुवत् । यथा प्रत्यक्षासिद्धोऽपि, परमाणुः कार्यान्यथानुपपत्त्यानुमानेन साध्यते तथा 'चक्षुः प्राप्तार्थप्रकाशकं बहिरिन्द्रियत्वात् त्वगिन्द्रियवत्' इत्यनुमानात् तन्निरस्तम् ; 'सामान्यलक्षण-स्वलक्षणयोहिं भेदाभावात्'–अष्टस० पृ० १२१ १ इन्द्रियायार्थयोः सम्बन्धः सन्निकर्षः । २ अज्ञाननिवृत्तिरूपप्रमा प्रति करणत्वं प्रमितिकरणत्वम्। तच्च सन्निकर्षस्य न सम्भवति, जडत्वात् । प्रमितिकरणत्वासम्भवे च न तस्य प्रमाणत्वम्, प्रमाकरणस्यैव प्रमाणत्वाभ्युपगमात् । तदभावे च न प्रत्यक्षत्वमिति भावः । ३ दोषान्तरमाह किञ्चेति । चक्षुर्हि असम्बद्धमेव रूपज्ञानस्य जनकं भवति, अप्राप्तार्थप्रकाशकत्वात् । न हि चक्षुः पदार्थ प्राप्य प्रकाशयति, अपि तु दूरादेव । ४ अप्राप्यकारित्वस्यैव । ५ प्रत्यक्षेणापरिच्छेद्याम् । ६ 'परमाणुरस्ति द्वचणुकादिकार्योत्पत्त्यन्यथानुपपत्तेः' इत्यनुमानेन । ७ वहिःपदं मनोव्यवच्छेदार्थम्, मनो हि न बहिरिन्द्रियं तस्यान्तःकरणत्वात् । तच्चाप्राप्यकारीति । अत्र व्याप्ति:-यद्वहिरिन्द्रियं तत्प्राप्तार्थप्रकाशकम्, यथा स्पर्शनेन्द्रियम् । यन्न प्राप्तार्थप्रका Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्राप्तिसिद्धिः । प्राप्तिरेव हि सन्निकर्षस्ततो न सन्निकर्षस्याव्याप्तिरिति चेत् ; न ; अस्यानुमानाभासत्वात् । तद्यथा ६. चक्षुरित्यत्र कः पक्षोऽभिप्रतः ? किं लौकिकं चक्षुरुतालौकिकम् ? अाद्ये हेतोः “कालात्यापदिष्टत्वम्, गोलकाख्यस्य1 लौकिक चक्षुषो विषयप्राप्ते: प्रत्यक्षबाधितत्वात् । द्वितीये' त्वाश्रयासिद्धिः, अलौकिकस्य चक्षुषोऽद्याऽप्यसिद्धेः । शाखासुधादीधिति समानकाल ग्रहणान्यथानुपपत्तेश्च3 चक्षुरप्राप्यकारीति निश्चीयते । तदेवं सन्निकर्षाभावेऽपि चक्षुषा रूपप्रतीति यित' इति सन्निकर्षोऽव्यापक त्वात्प्रत्यक्षस्य स्वरूपं न भवतीति स्थितम् । १०. अस्य च प्रमेयस्य प्रपञ्च:११ प्रमेयकमलमार्तण्डे शकं तन्न बहिरिन्द्रिम्, यथा मनः, वहिरिन्द्रयं चेदं चक्षुः, तस्मात्प्राप्तार्थप्रकाशकमिति भावः । १ सदोषानुमानत्वमनुमानाभासत्वम् । २ स्वीकृतो भवता योगेन । ३ प्रथमे पक्षे । ४ बाधितपक्षानन्तरं प्रयुक्तो हि हेतुः कालात्यापदिष्ट उच्यते । ५ उत्तरविकल्पे—अलौकिकं चक्षुरित्यभ्युपगमे। ६ किरणरूपस्य । ७ सुधादीधितिः-चन्द्रमाः । ८ शाखाचन्द्रमसोस्तुल्यकालग्रहणं दृष्टं ततो ज्ञायते चक्षुरप्राप्यकारीति । प्राप्यकारित्वे तु क्रमश एव तयोर्ग्रहणं स्यात् न युगपत्, परं युगपत्तयोर्ग्रहणं सर्वजनसाक्षिकमिति भावः । ६ अव्याप्तिदोपदुष्टत्वात् । १० एतस्य सन्निकर्षाप्रामाण्यविचारस्य । ११ विस्तरः । 1 'क्षस्य' इति म मु प्रत्योः पाठः । 2 ‘ग्रहणाद्यन्यथानु' इति प्राम प मु प्रतिपाठः । 3 आ म मु प्रतिष 'च' पाठो नास्ति । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाश: ॥ १-१ तथा २-४] सुलभः । संग्रहग्रन्थत्वात्तु नेह प्रतन्यते । एवं वन सौगताभिमतं निर्विकल्पं प्रत्यक्षम्, नापि यौगाभिमत इन्द्रियार्थसन्निकर्षः । किं तहि ? विशदप्रतिभासं ज्ञानमेव प्रत्यक्षं सिद्धम् । [प्रत्यक्षं द्विधा विभज्य सांव्यवहारिकस्य लक्षणपुरस्सरं भेदनिरूपणम् ११. तत्प्रत्यक्षं द्विविधम्1--सांव्यवहारिक पारमार्थिक चेति । तत्र देशतो विशदं सांव्यवहारिकं प्रत्यक्षम्। यज्ज्ञानं देशतो विशदमीषन्निर्मलं तत्सांव्यवहारिकप्रत्यक्षमित्यर्थः । तच्चतुविधम्-अवग्रहः, ईहा, अवायः, धारणा चेति । तत्रेन्द्रियार्थसमवधानसमनन्तरसमुत्थसत्तालोचनान्तरभावी सत्ताऽवान्तरजातिविशिष्ट वस्तुग्रही ज्ञान विशेषोऽवग्रहः—यथाऽयं पुरुष इति । नाऽयं संशयः, 'विषयान्तरव्युदासेन 'स्वविषयनिश्चायकत्वात् । तद्विपरीतलक्षणो हि संशयः । “यद्राजवात्तिकम् अनेकार्थानिश्चिताऽपयुदासात्मकः संशयस्तद्विपरीतोऽवग्रहः” १ सुबोधः । २ अत्र न्यायदीपिकायाम् । ३ विस्तार्यते । ४ प्रत्यक्षमिति सम्बन्धः । ५ सांव्यवहारिकप्रत्यक्षम् । ६ अवग्रहादिषु मध्ये । ७ इन्द्रियार्थयोः समवधानं सन्निपातः सम्बन्ध इति यावत्, तत्पश्चादुत्पन्नो यः सत्तालोचनरूप: सामान्यप्रतिभासस्तस्यानन्तरं जायमानः, अथ चावान्तरसत्ताविशिष्टवस्तुग्राहको यो ज्ञानविशेषः सोऽवग्रह इति भावः । ८ स्वविषयादन्यो विषयो विषयान्तरम्, तस्य व्युदासो व्यवच्छेदस्तेन स्वविषयातिरिक्तविषयव्यवच्छेदेन । ६ स्वविषयभूतपरमार्थंककोटिनिश्चायको ह्यवग्रहः । १० अवग्रहात्सर्वथा विपरीतः संशयः । ११ अवग्रह-संशययोर्भेदसाधकं तत्त्वार्थराजवात्तिकीथं लक्षणं प्रदर्शयति यदिति । १२ अयमर्थः-नानार्थ 1 'तत्कियत्प्रकारं, तद्विविधं' इति म प्रतिपाठः ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [ १-१५-६ ] इति । 'भाष्यं च–“संशयो हि निर्णयविरोधी नत्ववग्रह:२” [ १-१५-१० ] इति । अवग्रहग्रहोता र्थसमुद्भूतसंशयनिराशाय यतनमीहा । तद्यथा-पुरुष इति निश्चितेऽर्थे किमयं दाक्षिणात्य उतौदीच्य" इति संशये सति दक्षिणात्येन भवितव्यमिति तन्निरासायेहाख्यं ज्ञानं जायत इति । भाषादिविशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः, यथा दाक्षिणात्य एवायमिति । कालान्तराविस्मरणयोग्यतया तस्यैव विषयकः, अनिश्चयात्मकः, विषयान्तर व्यवच्छेदकः संशयः । अवग्रहस्तु तद्विपरीत:-एकार्थविषयकः, निश्चयात्मकः, विषयान्तरव्यवच्छेदकश्चेति। १ तत्त्वार्थराजवात्तिकभाष्यम् । २ सति संशये पदार्थस्य निर्णयो न भवति, अवग्रहे तु भवत्येवेति भावः । ३ ननु कथमीहाया ज्ञानत्वम् ? यतो हीहाया इच्छारूपत्वाच्चेष्टात्मकत्वाद्वा; मैवम् ; ईहा जिज्ञासा, सा च विचाररूपा, विचारश्च ज्ञानम्, नातो कश्चिद्दोषः । तथा चोक्तम्'ईहा ऊहा तर्क: परीक्षा विचारणा जिज्ञासा इत्यनर्थान्तरम् ।' तत्त्वार्थाधि० भा० १-१५, 'ईहा-धारणयोरपि ज्ञानात्मकत्वमुन्नेयं तदुपयोगविशेषात् ।'—लघीय० स्वोपज्ञ वि० का० ६, 'ज्ञानेने (ज्ञानमी) हाभिलाषात्मा संस्कारात्मा न धारणा !। इति केचित्प्रभाषन्ते तच्च न व्यवतिष्टते । विशेषवेदनस्येह दृढस्येहात्वसूचनात् ॥XXअज्ञानात्मकतायां तु संस्कारस्येह (हि)तस्य वा । ज्ञानोपादानता न स्याद्रूपादेरिव सास्ति च ।"तत्त्वार्थश्लोकवा० १-१५-१६, २०, २२, 'ईहा च यद्यपि चेष्टोच्यते तथापि चेतनस्य सेति ज्ञानरूपैवेति युक्तं प्रत्यक्षभेदत्वमस्या:'-प्रमाणमी० १-१-२७, 'ईहा-धारणयोर्ज्ञानोपादानत्वात् ज्ञानरूपतोन्नेया'-प्रमाणमी० १-१-३६ । ४ दक्षिणदेशीयः । ५ उत्तरदेशीयः । ६ अनुभवकालाद्भिन्नकालः कालान्तरमागामिसमय इत्यर्थः । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष - प्रकाशः ३३ ज्ञानं धारणा' । यद्वशादुत्तरकालेऽपि स । इत्येवं स्मरणं जायते । १२. ननु पूर्वपूर्वज्ञानगृहीतार्थग्राहकत्वादेतेषां धारावाहिकवदप्रामाण्यप्रसङ्ग इति चेत्; न; विषयभेदेनागृहीतग्राहकत्वात् । तथा हि-योऽवग्रहस्य विषयो नासावोहायाः, यः पुनरीहाया नायमवायस्य, यश्चावायस्य नैष2 धारणाया इति परिशुद्धप्रतिभानां सुलभमेवैतत् । तदेतदवग्रहादिचतुष्टयमपि यदेन्द्रियेण जन्यते तदेन्द्रियप्रत्यक्षमित्युच्यते, यदा पुनरनिन्द्रियेण तदाऽनिन्द्रियप्रत्यक्षं गीयते । इन्द्रियाणि स्पर्शन- रसन-प्राण- चक्षुः श्रोत्राणि पञ्च, अनिन्द्रियं तु मनः । तद्वयनिमित्तकमिदं 'लोकसंव्यवहारे प्रत्यक्षमिति प्रसिद्धत्वात्सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमुच्यते । तदुक्तं परीक्षामुखे: १ 'स्मृतिहेतुर्धारणा, संस्कार इति यावत्' लघी ० स्वोपज्ञविवृ० का ० ६ । ननु धारणायाः कथं ज्ञानत्वम्, संस्काररूपत्वात् ? न च संस्कारस्य ज्ञानरूपतेति चेत्; तन्न ; उक्तमेव पूर्वम्- ' ईहा - धारणयोरपि ज्ञानात्मकत्वम्, तदुपयोगविशेषात्' इति । 'अस्य ह्यज्ञानरूपत्वे ज्ञानरूपस्मृतिजनकत्वं न स्यात्, न हि सत्ता सत्तान्तरमनुविशति' (प्रमाणमी० १ - १ - २९ ) । 'अवग्रहस्य ईहा अवायस्य च धारणा व्यापारविशेषः, न च चेतनोपादानो व्यापारविशेषः अचेतनो युक्तोऽतिप्रसङ्गात् ' ( न्यायकुमु० पृ० १७३ ) । २ अवग्रहादीनाम् । ३ विशुद्धबुद्धीनाम् । ४ अवग्रहादिचतुष्टयस्यापि इन्द्रियानिन्द्रियजन्यत्वेन द्विविधत्वं प्रदर्शयति तदेतदिति । ५ कथ्यते । ६ लोकस्य यः समीचीनो बाधारहितः प्रवृत्ति निवृत्तिरूपो व्यवहारस्तस्मिन् । ७ संव्यवहारप्रयोजनक सांव्यवहारिकम् — अपारमार्थिकमित्यर्थः । 1 ' स एवेत्येवं' द प प्रतिपाठः । 2 'नैव' इति म प्रतिपाठः । 3 श्र मम प्रतिषु 'परीक्षामुखे' इति पाठो नास्ति । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ न्याय-दीपिका "इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं देशतः सांव्यवहारिकम्” (२-५) इति ।। इदं चामुख्यप्रत्यक्षम्, उपचारसिद्धत्वात् । वस्तुतस्तु परोक्षमेव, मतिज्ञानत्वात् । कुतो नु खल्वेतन्मतिज्ञानं परोक्षमिति ? उच्यते"प्राद्ये परोक्षम्" [तत्त्वार्थसू० १-११] इति सूत्रणात्।। आये मति-श्रुतज्ञाने परोक्षमिति हि सूत्रार्थः । उपचारमूलं पुनरत्र देशतो वैशद्यमिति कृतं विस्तरेण । [पारमार्थिकप्रत्यक्षं लक्षयित्वा तद्भदानां प्ररूपणम्] $ १३. सर्वतो विशदं पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । यज्ज्ञानं साकल्येन स्पष्टं तत्पारमार्थिकप्रत्यक्षम्, मुख्यप्रत्यक्षमिति यावत् । "तद् द्विविधम्-विकलं सकलं च । तत्र कतिपयविषयं विकलम् । "तदपि द्विविधम् अवधिज्ञानं मनःपर्ययज्ञानं च2। तत्रावधिज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमसहकृताज्जातं रूपिद्रव्यमात्रविषयमवधिज्ञानम् । मनःपर्ययज्ञानावरण-वीर्यान्तरायक्षयोप १ ननु यदि प्रकृतं ज्ञानममुख्यतः प्रत्यक्षं तर्हि मुख्यतः किं स्यादित्यत आह वस्तुतस्त्विति । २ इन्द्रियानिन्द्रयजन्यज्ञानस्योपचारत: प्रत्यक्षत्वकथने निमित्तम् । ३ सामस्त्येन । ४ पारमार्थिकप्रत्यक्षम्। ५ विकलमपि प्रत्यक्षम्। ६ अवधिः सीमा मर्यादा इति यावत् । स विषयो यस्य ज्ञानस्य तदवधि. ज्ञानम् । अत एवेदं ज्ञानं सीमाज्ञानमपि कथ्यते । 'अवायन्ति वजन्तीत्यवायाः पुद्गलाः, तान् दधाति जानातीत्यवधिः'XX 'अवधानम् अवधिः कोऽर्थः ? अधस्ताबहुतरविषयग्रहणादवधिरुच्यते, देवा खल्ववधिज्ञानेन 1 सूत्रभणनात्' इति म प्रतिपाठः। 2 'चेति' पाठो म ा मु प्रतिषु । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः ३५ शमसमुत्थं परमनोगतार्थविषयं मनःपर्ययज्ञानम् । मतिज्ञानस्येवावधिमनःपर्यययोरवान्तरभेदाः तत्त्वार्थराजवात्तिक-श्लोकवातिकभाष्याभ्यामवगन्तव्याः । सप्तमनरकपर्यन्तं पश्यन्ति । उपरि स्तोकं पश्यन्ति, निजविमानध्वजदण्डपर्यन्तमित्यर्थः ।'-तत्त्वार्थवृ० श्रु० १-६ । 'अवाग्धानात् (पुद्गलपरिज्ञानात) अवच्छिन्नविषयत्वाद्वा (रूपिविषयत्वाद्वा) अवधिः ।' सर्वार्थ० १-६ । १ परिकीयमनोगतोऽर्थो मन इत्युच्यते, साहचर्यात्तस्य पर्ययणं परिगमनं मनःपर्ययः ।' सर्वार्थ० १-६ । २ प्रभेदाः । ३ तदित्थम्—'अनुगाम्यननुगामिवर्द्धमानहीयमानावस्थिताऽनवस्थितभेदात् षड्विधोऽवधिःXX पुनरपरेऽवधेस्त्रयो भेदाः-देशावधिः, परमावधिः, सर्वावधिश्चेति । तत्र देशावधिस्त्रेधा-जघन्यः, उत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्टश्चेति । तथा परमावधिरपि त्रिधा (जघन्यः, उत्कृष्टः, अजघन्योत्कृष्टश्च)। सर्वावधिरविकल्पत्वादेक एव । उत्सेधांगुलासंख्येयभागक्षेत्रो देशावधिर्जघन्यः । उत्कृष्टः कृत्स्नलोकः । तयोरन्तरालेऽसंख्येयविकल्प अजघन्योत्कृष्ट: । परमावधिर्जघन्य एकप्रदेशाधिकलोकक्षेत्रः । उत्कृष्टोऽसंख्येयलोकक्षेत्रः, अजघन्योत्कृष्टो मध्यमक्षेत्रः । उत्कृष्टपरमावधिक्षेत्राद् बहिरसंख्यातक्षेत्रः सर्वावधिः । वर्द्धमानः, हीयमानः, अवस्थितः, अनवस्थितः, अनुगामी, अननुगामी, अप्रतिपाती, प्रतिपातीत्येतेऽष्टौ भेदा देशावधेर्भवन्ति । हीयमान-प्रतिपातिभेदवा इतरे षड्भेदा भवन्ति परमावधेः । अवस्थितोऽनुगाम्यननुगाम्यप्रतिपातीत्येते चत्वारो भेदाः सर्वावधेः ।'-तत्त्वार्थवा० १,२२,४ । 'अनुगाम्यननुगामी वर्द्धमानो हीयमानोऽवस्थितोऽनवस्थित इति षड्विकल्पोऽवधिः संप्रतिपाताप्रतिपातयोरत्रैवान्तर्भावात् । देशावधिः परमावधिः सर्वावधिरिति च । परमागमप्रसिद्धानां पूर्वोक्तयुक्त्या सम्भावितानामत्रोपसंग्रहात् ।'-तत्त्वार्थन श्लो० भा० १-२२-१० । ‘स मनःपर्ययो द्वेधा । कुतः ? सूत्रोक्तविकल्पात् । ऋजुमतिविपुलमतिरिति XXअाद्य ऋजुमतिमनःपर्ययस्त्रेधा । कुतः ? ऋजुमनोवाक्कायविषयभेदात् । ऋजुमनस्कृतार्थज्ञः, ऋजुवाक्कृतार्थज्ञः, Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका १४. सर्वद्रव्यपर्यायविषयं सकलम् । तच्च घातिसंघातनिरवशेषघातन 1समुन्मीलितं केवलज्ञानमेव । “सर्वद्रव्यपर्यायेष केवलस्य" [तत्त्वार्थसू० १-२६] इत्याज्ञापितत्वात् । १५. तदेवमवधि-मनःपर्यय-केवलज्ञानत्रयं सर्वतो वैशद्यात् पारमार्थिकप्रत्यक्षम् । सर्वतो वैशचं 'चात्ममात्रसापेक्षत्वात् । ऋजुकायकृतार्थश्चेति । ...... द्वितीयो विपुलमतिः षोढा भिद्यते । कुतः? ऋजुवक्रमनोवाक्कायविषयभेदात् । ऋजुविकल्पाः पूर्वोक्ताः, वक्रविकल्पाश्च तद्विपरीता योज्याः'-तत्त्वार्थवा० १,२३,६-८ । एवमेव श्लोकवात्तिके (१-२३) मनःपर्ययभेदाः प्रोक्ताः । १ पारमार्थिकप्रत्यक्षमिति सम्बन्धः । २ सकलप्रत्यक्षम् । ३ घातिनां ज्ञानावरण-दर्शनावरण-मोहनीयान्तरायकर्मणां संघात: समूहस्तस्य निरवशेषेण सामस्त्येन घातनात् क्षयात्समुन्मीलितं जातमित्यर्थः । ४ 'सर्वग्रहणं निरवशेषप्रतिपत्त्यर्थम् । ये लोकालोकभिन्नास्त्रिकालविषया द्रव्यपर्याया अनन्ताः, तेषु निरवशेषेषु केवलज्ञानविषयनिबन्ध इति प्रतिपत्त्यर्थं सर्वग्रहणम् । यावाँल्लोकालोकस्वभावोऽनन्तस्तावन्तोऽनन्तानन्ता यद्यपि स्युस्तानपि ज्ञातुमस्य सामर्थ्यमस्तीत्यपरिमितमाहात्म्यं केवलज्ञानं वेदितव्यम् ।' तत्त्वार्थवा० १,२६,६ । ५ विषयनिबन्धः (सम्बन्धः) इति शेषः। ६ आत्मानमेवापेक्ष्यैतानि त्रीणि ज्ञानान्युत्पद्यन्ते, नेन्द्रियानिन्द्रियापेक्षा अत्रास्ति । उक्तं च-........ अत एवाक्षानपेक्षाऽञ्जनादिसंस्कृतचक्षुषो यथाऽऽलोकानपेक्षा ।'–अष्टश० का० ३; 'न हि सर्वार्थः सकृदक्षसम्बन्धः सम्भवति साक्षात्परम्परया वा। ननु चावधि-मनःपर्ययज्ञानिनोर्देशतो विरतव्यामोहयोरसर्वदर्शनयो: कथमक्षानपेक्षा संलक्षणीया ? तदावरण ___ 1 म मु प्रत्योः 'घातनात्' इति पाठः । 2 'इत्यादिज्ञापितत्वात्' इति २४ - द प प्रतिपाठः । 3 'पारमार्थिकं प्रत्यक्षं' इति म मु प्रतिपाठः । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः ३७ १६. 'नन्वस्तु केवलस्य पारमार्थिकत्वम् अवधि-मनःपर्यययोस्तु न युक्तम्, विकलत्वादिति चेत् ;न'; साकल्य-वैकल्ययोरत्र विषयोपाधिकत्वात् । तथा हि-सर्वद्रव्यपर्यायविषयमिति केवलं सकलम् । अवधि-मनःपर्ययौ तु कतिपयविषयत्वाद्विकलौ । नैतावता तयोः पारमार्थिकत्वच्युतिः । केवलवत्तयोरपि वैशा स्वविषये साकल्येन समस्तीति तावपि पारमार्थिकावेव । o [अवध्यादित्रयस्यातीन्द्रियप्रत्यक्षत्वप्रतिपादनम्] १७. कश्चिदाह-"असं नाम चक्षुरादिकमिन्द्रियम्, तत् क्षयोपशमातिशयवशात्स्वविषये परिस्फुटत्वादिति ब्रूमः।'-अष्टस० पृ. ५० । १ अवधिमनःपर्ययोः पारमार्थिकत्वाभावमाशङ्कते नन्विति । २ समाधत्ते नेति । अयं भावः-अत्र हि केवलस्य यत्सकलप्रत्यक्षत्वमवधिमनःपर्ययोश्च विकलप्रत्यक्षत्वमुक्तं तद्विषयकृतम् । सकलरूप्यरूपिपदार्थविषयत्वेन केवलं सकलप्रत्क्षमुच्यते, रूपिमात्रविषयत्वेन चावघिमनःपर्ययौ विकलप्रत्यक्षौ कथ्यते । ततो न तयोः पारमार्थिकत्वहानिः । पारमार्थिकत्वप्रयोजकं हि स्वविषये साकल्येन वैशद्यम्, तच्च केवलवत्तयोरपि विद्यत एवेति । ३ विषय उपाधिनिमित्तं ययोस्तौ विषयोपाधिको विषयनिमित्तको तयोर्भावस्तत्त्वं तस्मात् विषयोपाधिकत्वात् विषयनिमित्तकत्वादित्यर्थः । ४ पारमाथिकत्वाभावः । ५ एवकारेणापारमार्थिकत्वव्यवच्छेदः, तेन नापारमाथिको इति फलति । ६ 'अक्षमक्षं प्रतीत्योत्पद्यते इति प्रत्यक्षम्, अक्षाणि इन्द्रियाणि'-प्रशस्त०भा० पृ. ६४ । 'अक्षमक्षं प्रति वर्त्तत इति प्रत्यक्षम्'न्यायप्र० पृ. ७। ये खलु 'इन्द्रियव्यापारजनितं प्रत्यक्ष-अक्षमक्षं प्रति यद्वर्त्तते तत्प्रत्यक्षमित्यभ्युपगमात्' (सर्वार्थ ० १-१२) इति प्रत्यक्षलक्षणमामनन्ति तेषामियं शङ्का, ते च वैशेषिकादयः । ७ इन्द्रियमाश्रित्य । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्रतीत्य 'यदुत्पद्यते तदेव प्रत्यक्षमुचितम्, नान्यत्'२ [ ] इति; तदसत्; आत्ममात्रसापेक्षाणामवधिमनःपर्ययकेवलानामिन्द्रियनिरपेक्षाणामपि प्रत्क्षत्वाविरोधात् । स्पष्टत्वमेव हि प्रत्यक्षत्वप्रयोजक नेन्द्रियजन्यत्वम् । अत एव हि मतिश्रुतावधिमन:पर्ययकेवलानां ज्ञानत्वेन प्रतिपन्नानां मध्ये "आद्ये परोक्षम्". [तत्त्वार्थसू० १-११] “प्रत्यक्षमन्यत्" [तत्त्वार्थसू० १-१२] इत्याद्ययोर्मतिश्रुतयोः परोक्षत्वकथनमन्येषां त्ववधिमनःपर्ययकेवलानां 'प्रत्यक्षत्ववाचोयुक्तिः। १८. कथं पुनरेतेषां प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वम् ? इति चेत्; रूढित' इति ब्रूमः । १ यज्ज्ञानम् । २ नेन्द्रियनिरपेक्षम्, तथा च नावध्यादित्रयं प्रत्यक्षमिति शङ्कितुराशयः । ३ तदयुक्तम् । ४ प्रत्यक्षतायां निबन्धनम् । ५ यतो हि 'यदि इन्द्रियनिमित्तमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमिष्यते, एवं सत्याऽऽप्तस्य प्रत्यक्षज्ञानं न स्यात् । न हि तस्येन्द्रियपूर्वोऽर्थाधिगमः । सर्वार्थ० १-१२ । ६ स्पष्टत्वस्य प्रत्यक्षत्वप्रयोजकत्वादेव, यत एव स्पष्टत्वं प्रत्यक्षत्वप्रयोजकं तत एव इत्यर्थः । ७ अभ्युपगतानामवगतानामिति यावत् । ८ प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनं सङ्गतं सूत्रकाराणाम् । यदाह अकलङ्कदेवोऽपि 'आद्ये परोक्षमपरं प्रत्यक्षं प्राहुराज सम् ।'–न्यायवि० का० ४७४ । ६ अवधिमनःपर्ययकेवलानाम् । १० कथन योग्यता, व्यपदेश इति यावत् । ११ अक्षमक्षं प्रति यद्वर्त्तते तत्प्रत्यक्षमितीमं प्रत्यक्षशब्दस्य व्युत्पत्त्यर्थमनाश्रित्यार्थसाक्षात्कारित्वरूपप्रवृत्तिनिमित्तसद्भावात् । 'अक्षाश्रितत्व च व्युत्पत्तिनिमित्तं शब्दस्य (प्रत्यक्षशब्दस्य), न तु प्रवृत्ति निमित्तम् । अनेन त्वक्षाश्रितत्वेन एकार्थसमवेतमर्थसाक्षात्कारित्वं लक्ष्यते तदेव च शब्दस्य (प्रत्यक्षशब्दस्य) प्रवृत्ति Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः १६. अथवा' अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष यात्मा, तत्मात्रापेक्षोत्पत्तिकं प्रत्यक्षमिति किमनुपपन्नम्। ? तहि इन्द्रियजन्यमप्रत्यक्षं प्राप्तमिति चेत् ; हन्त विस्मरणशीलत्वं वत्सस्य । अवोचाम खल्वौपचारिक प्रत्यक्षत्वमक्षजज्ञानस्य । ततस्तस्याप्रत्यक्षत्त्वं कामं प्राप्नोतु, का नो हानिः । “एतेन “अक्षेभ्यः निमित्तम् । ततश्च यत्किञ्चिदर्थस्य साक्षात्कारिज्ञानं तत्प्रत्यक्षमुच्यते । यदि चाक्षाश्रितत्वमेव प्रवृत्तिनिमित्तं स्यादिन्द्रियज्ञानमेव प्रत्यक्षमुच्येत, न मानसादि, यथा गच्छतीति गौः इति गमनक्रियायां व्युत्पादितोऽपि गोशब्दो गमनकियोपलक्षितमेकार्थसमवेतं गोत्वं प्रवृत्ति निमित्तीकरोति तथा च गच्छति अगच्छति च गवि गोशब्दः सिद्धो भवति'-न्यायबिन्दुटी० पृ० ११ । तथा प्रकृतेऽपि अक्षजन्येऽनक्षजन्ये च ज्ञाने प्रत्यक्षशब्दः प्रवर्तते। अतो युक्तमेवावध्यादित्रयाणामिन्द्रियनिरपेक्षाणामपि प्रत्यक्षशब्दवाच्यत्वम्, स्पष्टत्वापरनामार्थसाक्षात्कारित्वस्य तत्र प्रवृत्ति निमित्तसद्भावादिति भावः । १ यद्ययमाग्रहः स्याद्यद्वयुत्पत्तिनिमित्तेनैव भाव्यमिति तदा तदप्याह अथवेति । यथोक्तं श्रीप्रभाचन्द्ररपि–'यदि वा, व्युत्पत्तिनिमित्तमप्यत्र विद्यत एव । तथा हि-अक्षशब्दोऽयमिन्द्रियवत् आत्मन्यपि वर्त्तते, अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा इति व्युत्पत्तेः । तमेव क्षीणोपशान्तावरणं क्षीणावरणं वा प्रति नियतस्य ज्ञानस्य प्रत्यक्षशब्दातिशयता सुघटैव ।'न्यायकु० पृ० २६ । २ नायुक्तमिति भावः । ३ बालस्य, विस्मरणशीलः प्रायो बाल एव भवति, अत उक्तं वत्सस्येति । ४ इन्द्रियजन्यज्ञानस्य । ५ इन्द्रियजज्ञानस्य । ६ यथेष्टम् । ७ अस्माकम् —जैनानाम् । ८ 'अक्षमक्षं प्रतीत्य यदुत्पद्यते तत्प्रत्यक्षं' इति, 'अक्षमक्षं प्रति वर्त्तत इति प्रत्यक्षम्' इति वा प्रत्यक्षलक्षणनिरसनेन । 1 पा प्रतौ 'किमनुपपन्नम्' इति पाठो नास्ति । Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका परावृत्तं परोक्षम्” [ ] इत्यपि प्रतिविहितम्, अवैशद्यस्यैव परोक्षलक्षणत्वात् । २०. स्यादेतत् अतीन्द्रियं प्रत्यक्षमस्तोत्यतिसाहसम्; "असम्भावितत्वात् । यद्यसम्भावितमपि कल्प्येत, गगनकुसुमादिकमपि कल्प्यं स्यात् ; न1 स्यात् ; गगनकुसुमादे2रप्रसिद्धत्वात्, अतीन्द्रियप्रत्यक्षस्य तु प्रमाणसिद्धत्वात् । तथा हि—केवलज्ञानं तावत्किञ्चिज्ञानां कपिलादीनामसम्भवदप्यर्हतः सम्भवत्येव । सर्वज्ञो हि स भगवान् । १ व्यावृत्तं रहितमति यावत् । 'अक्षेभ्यो हि परावृत्तं परोक्षम्'तत्त्वार्थश्लो०पृ० १८३ । २ निरस्तम् । ३ यदाहाऽकलङ्कदेवः—'इतरस्य (अविशदनिर्भासिनो ज्ञानस्य) परोक्षता'-लघी० स्वो० वि० का ३ । ४ अतीन्द्रियप्रत्यक्षाभावमाशङ्कते स्यादेतदिति । ५ लोके खलु इन्द्रियैरुत्पन्नमेव ज्ञानं प्रत्यक्षमुच्यते प्रसिद्धं च, नत्विन्द्रियनिरपेक्षम्, तदन्तरेण तदुत्पत्ते रसम्भवादिति भावः । ६ इन्द्रियनिरपेक्षस्यापि प्रत्यक्षज्ञानस्योत्पत्तेः सम्भवात् । न हि सूक्ष्मान्तरितद्रार्थविषयकं ज्ञानमिन्द्रियैः सम्भवति, तेषां सन्निहितदेशविषयकत्वात्सम्बद्धवर्तमानार्थग्राहकत्वाच्च, 'सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना' (मी० श्लो० सू० ४ श्लो० ८४) इति भावत्कवचनात् । न च तज्ज्ञानं प्रत्यक्षमेव नास्ति, चोदनाप्रभवत्वात् । 'चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं विप्रकृष्टमित्येवंजातीयकमर्थमवगमयितुमलं पुरुषविशेषान्' (शाबरभा० १-१-२) इति वाच्यम्, तज्ज्ञानस्यावैशयेन परोक्षत्वात् । न हि शब्दप्रभवं ज्ञानं विशदं साक्षाद्रूपं च । प्रत्यक्षज्ञानं तु विशदं साक्षाद्रूपं च । अत एव तयोः साक्षात्वेनासाक्षात्वेन भेदः । 1 पा प्रतौ ‘इति चेन्न' इति पाठः । 2 म मु प्रत्योः ‘गगनकुसुमादि'पाठः । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः [प्रासङ्गिकी सर्वज्ञसिद्धिः] २१. 'ननु सर्वज्ञत्वमेवाप्रसिद्धं किमुच्यते' सर्वज्ञोऽर्हन्निति, क्वचिदप्यप्रसिद्धस्य विषयविशेष व्यवस्थापयितुमशक्तेरिति चेत् ; न ; सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः, अनुमेयत्वात्, अग्न्यादिवत्, इत्यनुमानात्सर्वज्ञत्वसिद्धेः । तदुक्तं "स्वामिभिमहाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा। अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ।। [का० ५] इति।। - २२. सूक्ष्माः स्वभावविप्रकृष्टाः परमाण्वादयः, अन्तरिताः कालविप्रकृष्टा रामादयः, दूरा2 देशविप्रकृष्टा मेर्वादयः । एते तथा चोक्तं समन्तभद्रस्वामिभिः— 'स्याद्वादकेवलज्ञाने सर्वतत्त्वप्रकाशने । भेदः साक्षादसाक्षाच्च......' प्राप्तमी० १०५ । सम्भवति च सूक्ष्मादीनां साक्षाद्रूपं ज्ञानम् । साक्षात्कृतेरेव सर्वद्रव्यपर्यायान् परिच्छिनत्ति (केवलाख्येन प्रत्यक्षेण केवली), नान्यतः (नागमात्) इति' (अष्टश० का० १०५) इति वचनात् । अतोऽतीन्द्रियं प्रत्यक्षमस्तीति युज्यते । १ सर्वज्ञाभाववादी मीमांसकश्चावकिश्चात्र शङ्कते नन्विति । २ भवता जैनेन । ३ कपिलादीनां मध्ये कस्मिंश्चिदपि अप्रतीतस्य सर्वज्ञत्वस्य । ४ व्यक्तिविशेषे अर्हति । ५ समन्तभद्राचार्यैः । ६ देवागमाभिधाप्तमीमांसाप्रकरणे । ७ व्यवहिताः कालापेक्षयेत्यर्थः । 1 द म मु प्रतिषु 'इति' पाठो नास्ति। 2 म मु प्रत्योः 'दूरार्था:' पाठः । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका स्वभावकालदेश विप्रकृप्टाः पदार्था मित्वेन विवक्षिताः। तेषां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साध्यम् । इह प्रत्यक्षत्वं प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वम्, विषयिधर्मस्य विषयेऽप्युपचारोपपत्तेः । अनुमेयत्वादिति हेतुः । अग्न्यादिर्दष्टान्तः । अमन्यादावनुमेयत्वं कस्यचित्प्रत्यक्षत्वेन सहोपलब्ध परमाण्वादावपि कस्यचित्प्रत्यक्षत्वं साधयत्येव । न चाण्वादावनुमेयत्वमसिद्धम्।, सर्वेषामप्यनुमेयमात्रे विवादाभावात् । २२. 'अस्त्वेवं सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षत्वसिद्धिद्वारेण कस्यचिदशेषविषयं प्रत्यक्षज्ञानम् । तत्पुनरतीन्द्रियमिति कथम् ? इत्थम्यदि तज्ज्ञानमैन्द्रियिक स्यात् अशेषविषयं न स्यात्, इन्द्रियाणां स्वयोग्यविषय एव ज्ञानजनकत्वशक्तेः । सूक्ष्मादीनां च तदयोग्य १ अत्रानुमाने । २ ज्ञानधर्मस्य प्रतिभासस्य, अयमाशयः— 'सूक्ष्मादयाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः' इत्यत्र सूक्ष्मादीनां यत्प्रत्यक्षत्वमुक्तं तद्धि प्रत्यक्षज्ञानवृत्तिर्धर्मो न तु सूक्ष्मादिपदार्थवृत्तिस्तत्कथं सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षत्वप्रतिपादनं श्रीस्वामिसमन्तभद्राचार्याणां सङ्गतम् ? अस्येदं समाधानम्-प्रत्यक्षत्वमत्र प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वं विवक्षितम्, तथा च सूक्ष्मादीनां प्रत्यक्षज्ञानविषयत्वेनोपचारतस्तेषां प्रत्यक्षत्वमुक्तं 'घटः प्रतिभासते, पट: प्रतिभासते, घटज्ञानम्, पटज्ञानम्' इति भवति हि व्यवहारो न च घटस्य प्रतिभास: पटस्य वा प्रतिभासः, तस्य ज्ञानधर्मत्वात् । एवं न घटस्य ज्ञानं पटस्य वा ज्ञानम्, तस्यात्मनिष्ठत्वेन घटपटादिनिष्ठत्वासम्भवात्, आत्मनो हि तद् गुणस्तथापि तथा व्यवहारो भवत्येव । एवं प्रकृतेऽपि बोध्यम् । ३ वादिप्रतिवादिनाम् । ४ अण्वादेरनुमानविषयतायाम् । ५ पुनरपि अतीन्द्रियप्रत्यक्षाभावमाशङ्कते अस्त्वेवमिति । ६ सर्वज्ञज्ञानम् । ७ इन्द्रियजम् । ८ इन्द्रियायोग्यविषयत्वात्, न हीन्द्रियाणि सकृत्सर्वार्थषु ज्ञानमुपजनयितुमलम्, सम्बद्धवर्तमानार्थ 1 म मु प्रत्योः 'प्रसिद्धं' पाठः । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः त्वादिति । तस्मात्सिद्धं तदशेषविषयं ज्ञानमनैन्द्रियकमेव' इति।। विषयत्वात् । किञ्च, इन्द्रियाणि सकृत्सर्वार्थसाक्षात्करणे बाधकान्येव आवरणनिबन्धनत्वात् । तदुक्तम्-'भावेन्द्रियाणामावरणनिबन्धनत्वात् । कात्य॑तो ज्ञानावरणसंक्षये हि भगवानतीन्द्रियप्रत्यक्षभाक् सिद्धः । न च सकलावरणसंक्षये भावेन्द्रियाणामावरणनिबन्धनानां सम्भवः, कारणाभावे कार्यानुपपत्तेः' अष्टस० पृ० ४५ । श्रीमाणिक्यनन्द्यप्याह-'सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसम्भवात्'परीक्षा०२-१३ । अकलङ्कदेवैरप्युक्तम् कथञ्चित् स्वप्रदेशेषु स्यात्कर्मपटलाच्छता । संसारिणां तु जीवानां यत्र ते चक्षुरादयः ॥ साक्षात्कर्तु विरोधः कः सर्वथाऽऽवरणात्यये ? । सत्यमर्थं तथा सर्व यथाऽभूद्वा भविष्यति ॥' न्यायवि० ३६१, ३६२ । अथ 'न कश्चिद्भवभृदतीन्द्रियप्रत्यक्षभागुपलब्धो यतो भगवांस्तथा सम्भाव्यते; इत्यपि न शङ्का श्रेयसी; तस्य भवभृतां प्रभुत्वात् । न हि भवभृत्साम्ये दृष्टो धर्मः सकलभवभृत्प्रभौ सम्भावयितुं शक्यः, तस्य संसारिजनप्रकृतिमभ्यतीतत्वात्' (अष्टस• पृ० ४५) । कथं संसारिजनप्रकृतिमभ्यतीतोऽसौ ? इत्यत आह मानुषीं प्रकृतिमभ्यतीतवान् देवतास्वपि च देवता यतः । तेन नाथ परमासि देवता श्रेयसे जिनवृष प्रसीद नः ॥ स्वयंभूस्तोत्र का० ७५ । ततस्तदशेषविषयं ज्ञानमतीन्द्रियमेव, अशेषविषयत्वान्यथानुपपत्तेरिति ध्येयम् । प्रत्यक्षं विशदज्ञानात्मक 'प्रत्यक्षत्वात्' इति वत् 'विशेषं धर्मिणं कृत्वा सामान्यं हेतुं ब्रुवतां दोषासम्भवात्' (प्रमाणप० पृ० ६७) । १ इन्द्रियेभ्यो निष्क्रान्तम्-अतीन्द्रियमित्यर्थः । 1 म मु 'अतीन्द्रियकमेव' इति पाठः । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ न्याय-दीपिका अस्मिश्चार्थे सर्वेषां सर्वज्ञवादिनां न विवादः। यद् बाह्या अप्याहः "अदृष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षाः प्रमेयत्वात् ।” [ ] इति । [सामान्यतः प्रसिद्धस्य सार्वश्यस्यार्हति प्रसाधनम् ] २४. नन्वस्त्वेवमशेषविषयसाक्षात्कारित्वलक्षणमतीन्द्रियप्रत्यक्षज्ञानम्, तच्चाहत इति कथम् ? कस्यचिदिति सर्वनाम्नः सामान्यज्ञापकत्वादिति चेत् ; सत्यम् ; "प्रकृतानुमानात्सामान्यत: सर्वज्ञत्वसिद्धिः । अर्हत एतदिति। पुनरनुमानान्तरात् । तथा हिअर्हन् सर्वज्ञो भवितुमर्हति, निर्दोषत्वात्, यस्तु न सर्वज्ञो नासौ निर्दोषः, यथा रथ्यापुरुष इति केवलव्यतिरेकिलिङ्गकमनुमानम्। १ विषये, अनुमेयत्वादिहेतुना सूक्ष्मादीनां कस्यचित्प्रत्यक्षत्वसाधने इति यावत् । २ जैनेतरा नैयायिकादयः । ३ यथा हि-स्वर्गादयः कस्यचित्प्रत्यक्षाः...... वस्तुत्वादागमविषयत्वात्, यद्वस्तु यच्च कथ्यते तत्कस्यचित्प्रत्यक्षं भवति,यथा घटादि'-न्यायवा० १-१-७, 'धर्मः कस्यचित्प्रत्यक्ष: प्रमेथत्वात् वासोवदिति, यस्य प्रत्यक्षः स योगी'-प्रमाणसं० पृ० ६ । ४ अदृष्टशब्देन पुण्यपापद्वयमुच्यते, अदृष्टमादिर्येषां ते अदृष्टादयः पुण्यपापादयोऽतीन्द्रियार्थाः । ५ 'सूक्ष्मान्तरितदरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात' इत्यस्मादनुमानात् । ६ सर्वज्ञत्वम् । ७ वक्ष्यमाणादन्यस्मादनुमानात् । ८ अनुमानान्तरमेव प्रदर्शयति तथा हीति । ६ व्यतिरेकव्याप्तिकाल्लिङ्गात् यदनुमानं क्रियते तद्वय तिरेकिलिङ्गकानुमानमुच्यते । साध्याभावे साधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेकव्याप्तिः । तथा च प्रकृतेऽनुमाने सर्वज्ञत्वरूपसाध्याभावे निर्दोषत्वरूपसाधनाभावः प्रदर्शितः । तत इदं व्यतिरेकिलिङ्गकानुमानम् । नन्वाशुबोधजनकमन्वयिलिङ्गकमेवानुमानं वाच्यम्, न केवलव्यतिरेकि 1 ‘एव तदिति' इति द प्रतिपाठः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाशः ४५ २५. आवरणरागादयो दोषास्तेभ्यो निष्क्रान्तत्वं हि निर्दोषत्वम् । तत्खलु सर्वज्ञत्वमन्तरेण1 नोपपद्यते, किञ्चिज्ञस्यावरणादिदोषरहितत्वविरोधात् । ततो निर्दोषत्वमर्हति विद्यमानं सार्वश्यं साधयत्येव । निर्दोषत्वं पुनरर्हत्परमेष्ठिनि युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक्त्वात्सिद्धयति । युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक्त्वं च तदभिमतस्य मुक्ति-संसारतत्कारण[तत्त्वस्यानेकधर्मात्मकचेतनाचेतनतत्त्वस्य च3 प्रमाणाबाधितत्वात्सुव्यवस्थितमेव । लिङ्गकम्, तस्य वक्रत्वेनाशु बोधजनकत्वाभावात् 'ऋजुमार्गेण सिद्धयन्तं को हि वक्रेण साधयेत्' (वैशे० सूत्रोप० २-१-१) इति वचनात् । किञ्च, व्यतिरेकिणि लिङ्गिनि बहूनि दूषणानि सम्भवन्ति । तथा हि 'साध्याप्रसिद्धिवैषम्यं व्यर्थतोपनयस्य च । अन्वयेनैव सिद्धिश्च व्यतिरेकिणि दूषणम् ॥' -वैशे० सूत्रोप० २-१-१ इति । ततो न तल्लिङ्गकमनुमानं युक्तमिति चेत् ; न; व्याप्तिमद्वयतिरेकिणोऽपि लिङ्गस्यान्वयिवदाशुबोधजनकत्वात् । व्याप्तिशून्यस्य तूभयस्याऽप्यगमकत्वात् । अत एवान्ताप्त्यैव सर्वत्र साध्यसिद्धेरभ्युपगमात्स्याद्वादिभिः। यदुक्तम् –'बहिर्व्याप्तिमन्तरेणान्तयाप्त्या सिद्धम् । यत इयमेवान्यत्रापि प्रधाना' प्राप्तमी० ७० ६ । सा च प्रकृते केवलव्यतिरेकिलिंगकानुमानेऽपि विद्यत एव । ततो नोक्तदोषः । १ निर्दोषत्वम् । २ अर्हदभिमतस्य । ३ प्रमाणेन बाधितुमशक्यत्वात् । तथा हि-तत्र तावद्भगवतोऽभिमतं मोक्षतत्त्वं न प्रत्यक्षेण बाध्यते, तस्य तदविषयत्वेन तद्बाधकत्वायोगात् । नाऽप्यनुमानेन 'नास्ति कस्यचिन्मोक्षः, 1 ा म मु 'सर्वज्ञमन्तरेण' पाठः । 2 आम मु प्रतिषु 'चेतनाचेतनात्मक' पाठः । 3 आ म प मु प्रतिषु 'च' पाठो नास्ति । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका २६. 'एवमपि सर्वज्ञत्वमर्हत एवेति कथम् ? कपिलादीनामपि सम्भाव्यमानत्वादिति चेत् ; उच्यते-कपिलादयो न सर्वज्ञा: सदोषत्वात् । सदोषत्वं तु तेषां न्यायागमविरुद्धभाषित्वात्। तच्च 'तदभिमतमुक्तयादितत्त्वस्य सर्वथैकान्तस्य च प्रमाणबाधित सदुपलम्भकप्रमाणपञ्चकाविषयत्वात्, कूर्मरोमादिवत्' इत्यादिरूपेण, तस्य मिथ्यानुमानत्वात्, मोक्षस्यानुमानागमाभ्यामस्तित्वव्यस्थापनात् । तद्यथा'क्वचिदात्मनि दोषावरणयोनिश्शेषा हानिरस्ति, अतिशायनात् क्वचित् कनकपाषाणादौ किट्टिमादिमलक्षयवत्' इत्यनुमानात्सकलकर्मक्षयस्वभावस्य मोक्षस्थ प्रसिद्धेः । 'बन्धहेत्वभाव-निर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः' इत्यागमाच्च तत्सिद्धेः । तथा मोक्षकारणतत्त्वमपि न प्रमाणेन वाध्यते, प्रत्यक्षतोऽकारणकमोक्षाप्रतीतेस्तेन तद्बाधनायोगात् । नाऽप्यनुमानेन, तस्य मोक्षकारणस्यैव प्रसाधकत्वात् । सकारणको मोक्षः प्रतिनियतकालादित्वात् पटादिवदिति । तस्याकारणकत्वे सर्वदा सर्वत्र तत्सद्भावप्रसङ्गः स्यात्, परापेक्षारहितत्वात् । अागमेनापि मोक्षकारणतत्त्वं न बाध्यते, प्रत्युत तस्य तत्साधकत्वात् । 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' (तत्त्वार्थसू० १-१) इति वचनात् । एवं संसारतत्त्वं संसारकारणतत्त्वमनेकान्तात्मकवस्तुतत्त्वं च प्रमाणेनाबाध्यमानं बोद्धव्यमिति संक्षेपः । विस्तरतस्त्वष्टसहस्रयां (देवागमालङ्कारे) विद्यानन्दस्वामिभिनिरूपितम् १ निर्दोषत्वेन हेतुना अर्हतः सर्वज्ञत्वसिद्धावपि । २ न्यायोऽनुमानम्, आगमः शास्त्रम्, ताभ्यां विरुद्धभाषिणो विपरीतवादिनः, तेषां भावस्तत्त्वं तस्मात् । 'ये न्यायागमविरुद्धभाषिणस्ते न निर्दोषाः, यथा दुवैद्यादयः, तथा चान्ये कपिलादयः' अष्टस० पृ० ६६ । ३ न्यायागमविरुद्धभाषित्वं च । ४ कपिलाद्यभिमतमुक्तिसंसारतत्कारणतत्त्वस्य । ५ नित्यायेकान्तस्य । ६ प्रमाणेन बाध्यत्वात्, तद्यथा-कपिलस्य तावत् 'तदा दृष्टुः स्वरूपेऽव Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाश: त्वात् । तदुक्तं स्वामिभिरेव स त्वमेवासि निर्दोषो युक्ति-शास्त्राविरोधिवाक् । अविरोधो 'यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न 'बाध्यते ।। स्थानम् (योगसू० १-३) स्वरूपे चैतन्यमात्रेऽवस्थानमात्मनो मोक्ष इत्यभिमतम्, तत्प्रमाणेन बाध्यते ; चैतन्यविशेषेऽनन्तज्ञानादौ स्वरूपेऽवस्थानस्य मोक्षत्वप्रसाधनात् । न हि अनन्तज्ञानादिकमात्मनोऽस्वरूपं सर्वज्ञत्वादिविरोधात् । अथ सर्वज्ञत्वादि प्रधानस्य स्वरूपम्, नात्मन इति चेन्न ; तस्याचेतनत्वान्न सर्वज्ञत्वादि तत्स्वरूपम्, आकाशवत् । ज्ञानादयश्च नाचेतनधर्माः,स्वसंवेदनस्वरूपत्वादनुभववदिति न चैतन्यमात्रेऽवस्थानं मोक्षः, अपि त्वनन्तज्ञानादिचैतन्यविशेषेऽवस्थानस्य मोक्षत्वप्रतीते: । एतेन बुद्धयादिगुणोच्छेदो मोक्ष इति वैशेषिकाः, अनन्तसुखमेव मुक्तस्य न ज्ञानादिकमित्यानन्दैकस्वभावाभिव्यक्तिर्मोक्ष इति वेदान्तिनः, निरास्रवचित्तसन्तत्युत्पादो मोक्ष इति बौद्धाः, तेषां सर्वेषामपि मोक्षतत्त्वं प्रमाणेन बाधितं ज्ञेयम् ; अनन्तज्ञानादिस्वरूपोपलब्धेरेव मोक्षत्वसिद्धेः । एवमेव कपिलादिभिर्भाषितं मोक्षकारणतत्त्वं संसारतत्त्वं संसारकारणतत्त्वं च न्यायागमविरुद्ध बोद्धव्यम् । इत्यष्टसहस्रयाः संक्षेपो विस्तरतस्तु तत्रैव दृष्टव्यः । १ प्रकरणसार: स्वोक्तमेव समन्तभद्राचार्यस्य कथनेन सह सङ्गमयति तदुक्तमिति । २ समन्तभद्राचार्यैः । ३ प्रमाणबलात् सामान्यतो यः सर्वज्ञो वीतरागश्च सिद्धः स त्वमेवाहन्, युक्तिशास्त्राविरोधिवाक्त्वात्, यो यत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् स तत्र निर्दोषो दृष्टो, यथा क्वचिद् व्याध्युपशमे भिषग्वरः । युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् च भगवान् मुक्तिसंसारतत्कारणेषु, तस्मान्निर्दोष इति' अष्टस०पृ० ६२ । अविरोधश्च, यस्मादिष्टं मोक्षादिक तत्त्वं ते प्रसिद्धेन प्रमाणेन न बाध्यते । तथा हि—'यत्र यस्याभिमतं तत्त्वं प्रमाणेन न बाध्यते स तत्र युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् यथा रोगस्वास्थ्यतत्कारणतत्त्वे भिषग्वरः, न बाध्यते च भगवतोऽभिमतं मोक्षसंसारतत्कारण Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ न्याय - दीपिका तत्त्वम्, तस्मात्तत्र त्वं युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् इति विषयस्य ( भगवतो मुक्त्यादितत्वस्य) युक्तिशास्त्राविरोधित्व सिद्धेर्विषयिण्या भगवद्वाचो युक्तिशास्त्राविरोधित्वसाधनं ( समर्थितं प्रतिपत्तव्यम्) - प्रष्टस० पृ० ७२ । ननु इष्टं इच्छाविषयीकृतमुच्यते, इच्छा च वीतमोहस्य भगवतः कथं सम्भवति ? तथा च नासौ युक्तिशास्त्राविरोधिवाक् ; तन्न; इष्टं मतं शासनमित्युपचर्यते, तथा च उपचारेण सयोगिध्यानवत्तदभ्युपगमे दोषाभावात् । ग्रनुपचारतोऽपि भगवतोऽप्रमत्तेच्छास्वीकारे न दोषः । तदुक्तम्अप्रमत्ता विवक्षेयं अन्यथा नियमात्ययात् । इष्टं सत्यं हितं वक्तुमिच्छा दोषवती कथम् ? ॥ — न्यायवि० का० ३५६ वस्तुतस्तु भगवतो वीतमोहत्वान्मोहपरिणामरूपाया इच्छायास्तत्रासम्भवात् । 'तथा हि— नेच्छा सर्वविदः शासनप्रकाशननिमित्तं प्रणष्टमोहत्वात् । यस्येच्छा शासनप्रकाशननिमित्तं न स प्रणष्टमोहो यथा किंचिज्ज्ञः, प्रणष्टमोहश्च सर्ववित्प्रमाणतः साधितस्तस्मान्न तस्येच्छा शासनप्रकाशननिमित्तम् ।' श्रष्टस० पृ० ७२ । न चेच्छामन्तरेण वाक्प्रवृत्तिर्न सम्भवतीति वाच्यम्, नियमाभावात् । 'नियमाभ्युपगमे सुषुप्त्यादावपि निरभिप्रायप्रवृत्तिर्न स्यात् । न हि सुषुप्तौ गोत्रस्खलनादौ वाग्व्यवहारादिहेतुरिच्छास्ति' अष्टस० पृ०७३, ततो न वाक्प्रवृत्तेरिच्छापूर्वकत्वनियमः, तस्य सुषुप्त्यादिना व्यभिचारात्, अपि तु 'चैतन्य-करणपाटवयोरेव साधकतमत्वम्' (अष्टश०, अष्टस० पृ० ७३) वाक्प्रवृत्तौ संवित्करणपाटवयोः सत्त्वे एव वाक्प्रवृत्तेः सत्त्वं तदभावे चासत्त्वम् । तस्माच्चैतन्यं करणपाटवं च वाचो हेतुरेव नियमतो न विवक्षा, विवक्षामन्तरेणापि सुषुप्त्यादौ तदर्शनात्' । किञ्च इच्छा वाक्प्रवृत्तिहेतुर्न 'तत्प्रकर्षाप्रकर्षानुविधानाभावाद् बुद्ध्यादिवत् । न हि यथा बुद्धेः शक्तेश्च प्रकर्षे वाण्याः प्रकर्षोऽपकर्षे वाऽपकर्षः प्रतीयते तथा दोषजातेः ( इच्छायाः) श्रपि तत्प्रकर्षे वाचोऽपकर्षात् तदपकर्षे एव तत्प्रकर्षात्, धा भ 16. ब 선의 बा र्या भव Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. प्रत्यक्ष-प्रकाश: ४६ 'त्वन्मतामृतबाह्यानां सर्वथैकान्तवादिनाम् । प्राप्ताभिमानदग्धानां स्वेष्टं दृष्टेन बाध्यते।।[आप्तमी.का.६-७] यतो वक्तुर्दोषजातिः (इच्छा) अनुमीयेत' । XXX 'विज्ञानगुणदोषाभ्यामेव वाग्वृत्तेर्गुणदोषवत्ता व्यवतिष्ठते, न पुनर्विवक्षातो दोषजातेर्वा । तदुक्तम् विज्ञानगुणदोषाभ्यां वाग्वृत्तेर्गुणदोषता । बाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ॥अप्टस०पृ० ७३ । अन्यच्चोक्तम् विवक्षामन्तरेणापि वाग्वृत्तिर्जातु वीक्ष्यते। . वाञ्छन्तो वा न वक्तारः शास्त्राणां मन्दबुद्धयः ॥ प्रज्ञा येषु पटीयस्यः प्रायो वचनहेतवः । विवक्षानिरपेक्षास्ते पुरुषार्थ प्रचक्षते ॥ -न्यायवि० ३५४-५५ । ४ ततः साधूक्तं तत्रेष्टं शासनं मतमिति । ५ प्रमाणेन अनित्यत्वायेकान्तधर्मेण वा । ६ अनेकान्तात्मकं तवेष्टं तत्त्वं नानित्यत्वाद्येकान्तधर्मेण बाध्यते तस्यासिद्धत्वात्, प्रमाणत: सिद्धमेव हि कस्यचिद बाधक भवति । न चानित्यत्वाद्यकान्ततत्त्वं प्रमाणत: सिद्धम्, ततो न तत्तवानेकान्तशासनस्य बाधकमिति भावः । १ त्वन्मतं त्वदीयमनेकान्तात्मकं तत्त्वं तज्ज्ञानं च, तदेवामृतं ततो बाह्या बहिष्कृतास्तेषाम्, सर्वथैकान्तवादिनां सर्वप्रकारैनित्यत्वानित्यत्वाद्येकधर्म स्वीकुर्वताम्, 'वयमाप्ताः' इत्यभिमानेन दग्धानां भस्मीभूतानां कपिलादीनां स्वेष्टं सदाधकान्ततत्त्वं प्रत्यक्षेणैव बाध्यते, अत: किमनुमानादिविहितबाधाप्रदर्शनेन ? सकलप्रमाणज्येष्ठत्वात्प्रत्यक्षस्य । 'न हि दृष्टाज्ज्येष्ठ गरिष्ठमिष्टं नाम' । ततः प्रत्यक्षबाधाप्रदर्शनेनैवानुमानादिबाधा प्रदर्शिता भवतीत्यवसेयम् । Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका २७. इति कारिकाद्वयेन एतयोरेव ‘परात्माभिमततत्त्वबाधाबाधयोः' समर्थन प्रस्तुत्य “भावैकान्ते" [का०६] इत्युपक्रम्य "स्यात्कारः सत्यलाञ्छन: [का० ११२] इत्यन्त प्राप्तमीमांसासन्दर्भ इति कृतं विस्तरेण । २८. तदेवमतीन्द्रियं केवलज्ञानमहत 1एवेति सिद्धम् । 'तद्वचनप्रमाण्याच्चावधिमनःपर्यययोरतीन्द्रिययोः सिद्धिरित्यतीन्द्रियप्रत्यक्षमनवद्यम् । तत: स्थितं सांव्यवहारिकं पारमार्थिक चेति द्विविधं प्रत्यक्षमिति । इति श्रीपरमार्हताचार्य-धर्मभूषण-यति-विरचितायां न्यायदीपिकायां प्रत्यक्षप्रकाशो द्वितीयः ॥२॥ .१ पराभिमते कपिलाद्यभिमते तत्त्वे सर्वथैकान्तरूपे बाधा, आत्माभिमते जैनाभिमते तत्त्वेऽनेकान्तरूपेऽबाधा बाधाभावस्तयोः । २ प्रस्तावभूतं कृत्वा । भावकान्ते पदार्थानामभावानामपह्नवात् । सर्वात्मकमनाद्यन्तमस्वरूपमतावकम् ॥६॥ "सामान्यवाग् विशेषे चेन्न शब्दार्था मृषा हि सा । अभिप्रेतविशेषाप्तेः स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः ॥११२॥ इति सम्पूर्ण कारिके । ५ अलम् । ६ 'वक्तुः प्रामाण्यात् वचनप्रामाण्यम्' इति न्यायादर्हत: प्रामाण्यसिद्धेः तदुपदिष्टावतीन्द्रियाववधिमनःपर्ययावपि सिद्धाविति प्रतिपत्तव्यम् । 1 द प प्रत्यो: 'एव' पाठो नास्ति । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्षप्रकाशः -: [ परोक्षप्रमाणस्य लक्षणम् ] 1 १. अथ परोक्षप्रमाणनिरूपणं प्रक्रम्यते । प्रविशदप्रतिभासं परोक्षम् । अत्र परोक्षं लक्ष्यम्, प्रविशदप्रतिभासत्वं लक्षणम् । यस्य ज्ञानस्य प्रतिभासो विशदो न भवति तत्परोक्षप्रमाणमित्यर्थः । वैशद्यमुक्तलक्षणम्' । ततोऽन्यद वैशद्यमस्पष्टत्वम् । '`तदप्यनुभवसिद्धमेव । $ २. सामान्यमात्रविषयत्वं परोक्षप्रमाणलक्षणमिति केचित् ' ; तन्न; प्रत्यक्षस्येव परोक्षस्यापि सामान्य विशेषात्मकवस्तुविषयत्वेन तस्य" लक्षणस्याऽसम्भवित्वात्' । तथा हि-घटादिविषयेषु प्रवर्त्तमानं प्रत्यक्षं प्रमाणं तद्गतं " सामान्याकारं घटत्वादिकं "व्यावृत्ताकारं व्यक्तिरूपं । च "युगपदेव प्रकाशयदुपलब्ध, - १ द्वितीयप्रकाशे प्रत्यक्षप्रमाणं निरूप्येदानीमिह परोक्षप्रमाणस्य निरूपणं प्रारभते प्रथेति । २ स्पष्टत्वं वैशद्यं तदेव नैर्मल्यमित्युक्तं पूर्वं वैशद्यलक्षणम् । ३ वैशद्यात् । ४ विपरीतम् । ५ प्रवैशद्यमपि, यथा नैर्मल्यं स्पष्टत्वमनुभवसिद्धं तथाऽस्पष्टत्वमनैर्मल्यमप्यनुभवसिद्धमेवेति भावः । ६ बौद्धा: । ७ सामान्यमात्रविषयत्वमिति परोक्षलक्षणस्य । ८ असम्भवदोषदुष्टत्वात्, तथा च तस्य लक्षणाभासत्वमिति भावः । & परोक्षस्य सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वमेव न सामान्यमात्रविषयत्वमिति प्रदर्शयति तथा हीति । १० घटादिनिष्ठम् । ११ अनुगताकारम् । १२ घटादिभ्यो व्यवच्छेदात्मकम् । १३ सहैव । १४ अनुवृत्ताकारव्यावृत्ताकारोभयं विषयी - 1 ' च विशेषरूपं ' इति श्रा प्रतिपाठः Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका तथा परोक्षमपीति न सामान्यमात्रविषयत्वं परोक्षलक्षणम् अपि त्ववैशद्यमेव । सामान्य-विशेषयोरेकत रविषयत्वे तु प्रमाण त्वस्यवाऽनुपपत्ति:2, सर्वप्रमाणानां सामान्य-विशेषात्मकवस्तुवि षयत्वाभ्यनुज्ञानात् । तदुक्तम्-“सामान्यविशेषात्मा तदर्थ विषयः”– [परीक्षा० ४-१] इति । तस्मात्सुष्ठूक्तं ‘अविशदावभा सनं परोक्षम्' इति । कुर्वत् दृष्टम् । १ इति शब्दोऽत्र हेत्वर्थे वर्तते, तथा च इति हेतोरित्यस्मात कारणादित्यर्थः । २ असम्भवः । ३ अभ्युपगमात् । ४ अत्रेदं बोध्यम — 'परोक्षमविशदज्ञानात्मकं परोक्षत्वात्, यन्नाविशदज्ञानात्मकं तन्न परोक्षम्, यथाऽतीन्द्रियप्रत्यक्षम्, परोक्षं च विवादाध्यासितं ज्ञानम्, तस्मादविशदज्ञानात्मकम्'—प्रमाणप० पृ० ६६ । 'कुतोऽस्य परोक्षत्वम् ? परायत्तत्वात् । पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोपदेशादि च बाह्य निमित्त प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्यात्मन उत्पद्यमानं मतिश्रुतं परोक्षमित्याख्यायते'–सर्वार्थ० १-११, न च परोक्षेण प्रमेयं न प्रमीयते परोक्षत्वादिति वाच्यम्, तस्यापि प्रत्यक्षस्येव सामान्यविशेषात्मकवस्तुविषयत्वाभ्युपगमात् । नाऽप्यस्याज्ञानरूपताऽप्रमाणता वा, 'तत्प्रमाणे' (तत्त्वार्थसू० १-१०) इति वचनेन प्रत्यक्षपरोक्षयोयोरपि प्रमाणत्वाभ्युपगमात् । तदुक्तम् 'ज्ञानानुवर्तनात्तत्र नाज्ञानस्य परोक्षता । प्रमाणस्यानुवृत्तेर्न परोक्षस्याप्रमाणता ॥' -तत्त्वार्थश्लो० १, ११, ६ । 1 द प्रतौ ‘एव' इति पाठो नास्ति । 2 द प्रतौ 'त्तेः' इति पाठः । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः / परोक्षप्रमाणं पञ्चधा विभज्य तस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वप्रतिपादनम् ] ६३. 'तत् पञ्चविधम् - स्मृतिः, प्रत्यभिज्ञानम्, तर्कः, अनुमा श्रागमश्चेति । पञ्चविधस्याऽप्यस्य । परोक्षस्य प्रत्ययान्तरसापेक्षत्वेनैवोत्पत्तिः2। तद्यथा - स्मरणस्य प्राक्तनानुभवापेक्षा, प्रत्यभिज्ञानस्य स्मरणानुभवापेक्षा, तर्कस्यानुभव - स्मरण - प्रत्यभिज्ञानापेक्षा, अनुमानस्य च लिङ्गदर्शनाद्य पेक्षा, श्रागमस्य शब्दश्रवण-सङ्केतग्रहणाद्यपेक्षा, प्रत्यक्षस्य तु न तथा 'स्वातन्त्र्येणैवोत्यत्तेः । स्मरणादीनां प्रत्ययान्तरापेक्षा तु तत्र तत्र निवेदयिष्यते । [स्मृतेनिरूपणम् ] I ६४. तत्र च4 का नाम स्मृतिः ? तदित्याकारा प्रागनुभूतवस्तुविषया स्मृतिः, यथा स देवदत्त इति । यत्र हि प्रागनुभूत एव 'देवदत्तस्तत्तया' प्रतीयते । तस्मादेषा प्रतीतिस्तत्तोल्लेखिन्यनुभूतविषया च, अननुभूते विषये तदनुत्पत्तेः । 'तन्मूलं चानुभवो धारगारूप एव' अवग्रहाद्यनुभूतेऽपि धारणाया प्रभावे स्मृतिजननायोगात् । धारणा हि तथाऽऽत्मानं संस्करोति, यथाऽसावात्मा कालान्तरेऽपि तस्मिन् विषये ज्ञानमुत्पादयति । तदेतद्धारणाविषये समुत्पन्नं तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मृतिरिति सिद्धम् । ५३ नम्, १ परोक्षप्रमाणम् । २ ज्ञानान्तरापेक्षत्वेन । ३ श्रादिपदेन व्याप्तिग्रहणादेर्परिग्रहः । ४ प्रत्ययान्तरनिरपेक्षत्वेनैव । ५ यथावसरम् । ६ तदोभविस्तत्ता तया, 'तत्' शब्दोल्लेखेन । ७ स्मृतेः कारणम् । ८ एवकारेणा 1 द प्रतौ 'अस्य' इति पाठो नास्ति । 2 द 'त्तेः' पाठः । 3 'प्रत्यक्ष' इति मुदितप्रतिषु पाठः । 4 'च' इति मुद्रितप्रतिषु नास्ति । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका ५. नन्वेवं धारणागृहीत एव स्मरणस्योत्पत्तौ 'गृहीतग्राहित्वादप्रामाण्यं प्रसज्यत' इति चेत् ;न'; 'विषयविशेषसद्भावादीहादिवत् । यथा ह्यवग्रहादिगृहीतविषयाणामीहादीनां विषयविशेषसद्भावात्स्वविषयसमारोपव्यवच्छेदकत्वेन" प्रामाण्यं तथा स्मरणस्यापि धारणागृहीतविषयप्रवृत्तावपि प्रामाण्यमेव । धारणाया हीदन्ताऽवच्छिन्नो विषयः, स्मरणस्य तु तत्ताऽवच्छिन्नः । तथा च स्मरणं स्वविषयास्मरणादिसमारोपव्यवच्छेदकत्वात्प्रमाणमेव । तदुक्तं प्रमेयकमलमार्तण्डे –“विस्मरणसंशयविपर्यासलक्षणः समारोपोऽस्ति, तन्निराकरणाच्चास्या: स्मृतेः प्रामाण्यम्” [३-४] इति । वग्रहाद्यनुभवत्रयस्य व्यवच्छेदः, अवग्रहादयो ह्यदृढात्मकाः । धारणा तु दृढात्मिका, अतः सैव स्मृतेः कारणं नावग्रहादयः 'स्मृतिहेतुर्धारणा' इति वचनादिति भावः । १ गृहीतस्यैव ग्रहणात् । २ प्रसक्तं भवति । ३ समाधत्ते नेति । ४ विषयभेदस्य विद्यमानत्वात् । तथा हि--'न खलु यथा प्रत्यक्षे विशदाकारतया वस्तुप्रतिभासः तथैव स्मृतौ, तत्र तस्या (तस्य) वैशद्याप्रतीते:' —प्रमेयक० ३-४ 'किञ्च, स्मृतेः वर्तमानकालावच्छेदेनाधिगतस्यार्थस्यातीतकालावच्छेदेनाधिगतेरपूर्वांशाधिगमोपपत्तेः ।' –स्याद्वादर० ३-४ । अतो न गृहीतग्राहित्वं स्मरणस्येति भावः । ५ स्वेषामीहादीनां विषयो ज्ञेयस्तस्मिन्नुत्पन्नो यः संशयादिलक्षणः समारोपस्तद्व्यवच्छेदकत्वेन तन्निराकारकत्वेन । ६ वर्तमानकालावच्छिन्नः । ७ भूतकालावच्छिन्नः । ८ अत्रेदमनुमानं बोध्यम्-स्मृतिः प्रमाणं समारोपव्यवच्छेदकत्वात्, यदेवं तदेवं यथा प्रत्यक्षम्, समारोपव्यवच्छेदिका च स्मृतिः, तस्मात्प्रमाणमिति । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ६. 'यदि चानुभूते प्रवृत्तमित्येतावता स्मरणमप्रमाणं स्यात् तहि अनुमितेऽग्नौ पश्चात्प्रवृत्तं प्रत्यक्षमप्यप्रमाणं स्यात् । ७. अविसंवादित्वाच्च प्रमाणं स्मृतिः प्रत्यक्षादिवत् । न हि स्मृत्वा निक्षेपादिषु प्रवर्त्तमानस्य विषयविसंवादोऽस्ति । यत्र त्वस्ति विसंवादस्तत्र स्मरणस्याभासत्वं प्रत्यक्षाभासवत् । तदेवं ‘स्मरणाख्यं पृथक् प्रमाणमस्तीति सिद्धम् । १ अत्र स्मृतेरप्रामाण्यवादिनो नैयायिकादयः कथयन्ति–'अतीतः पूर्वानुभूत इत्यतीतविषया स्मृतिः, अत एव सा न प्रमाणमर्थपरिच्छेदे पूर्वानुभवपारतन्त्र्यात्' इति कन्दलीकारः, 'न प्रमाणं स्मृतिः पूर्वप्रतिपत्तिव्यपेक्षणात् । स्मृतिहि तदित्युपजायमाना प्राची प्रतीतिमनुरुद्धय माना न स्वातन्त्र्येणार्थं परिच्छिनत्तीति न प्रमाणम्'–प्रकरणपजि० पृ० ४२ । २ 'अनुभूतार्थविषयत्वमात्रेणास्याः प्रामाण्यानभ्युपगमेऽनुमानेनाधिगतेऽग्नौ यत्प्रत्यक्षं तदप्यप्रमाणं स्यात् ।'–प्रमेयक० ३-४, स्याद्वादर० ३-४, 'अनुभूतेनार्थेन सालम्बनत्वोपपत्तेः । अन्यथा प्रत्यक्षस्याप्यनुभूतार्थविषयत्वादप्रामाण्यमनिवार्यं स्यात् । स्वविषयावभासनं स्मरणेऽप्यविशिष्टमिति ।' प्रमेयर० २-२, प्रमाणमी० १-२-३ । ३ 'न च तस्या विसंवादादप्रामाण्यम्, दत्तग्रहादिविलोपापत्तेः ।' प्रमेयर० २-२, ‘सा च प्रमाणम्, अविसंवादकत्वात्, प्रत्यक्षवत् ।—प्रमाणप० पृ० ६६, प्रमाणमी० १-२-३, न चासावप्रमाणम्, संवादकत्वात्, यत्संवादकं तत्प्रमाणं यथा प्रत्यक्षादि, संवादिका च स्मृतिः, तस्मात्प्रमाणम्' -प्रमेयक० ३-४ । ४ भूगर्भादिस्थापितेष्वर्थेषु । ५ जनस्य । ६ विषयाप्राप्तिः । ७ यत्र तु विसंवादः सा स्मृत्याभासा प्रत्यक्षाभासवत् ।'-प्रमाणप० पृ० ६६, स्याद्वादर० ३-४ । पकि ञ्च, स्मृतेरप्रामाण्येऽनुमानवार्ताऽपि दुर्लभा, तया व्याप्तेरविषयीकरणे तदुत्थानायोगादिति । तत इदं वक्तव्यम्-स्मृति: प्रमाणम्, Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [प्रत्यभिज्ञानस्य निरूपणम् ] | ८. अनुभवस्मृतिहेतुकं सङ्कलनात्मक ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । इदन्तोल्लेखिज्ञानमनुभवः, तत्तोल्लेखिज्ञानं स्मरणम् । तदुभयसमुत्थं पूर्वोत्तरैक्य-सादृश्य-वैलक्षण्यादिविषयं यत्सङ्कलनरूपं ज्ञानं जायते तत्प्रत्यभिज्ञानमिति ज्ञातव्यम् । यथा स एवाऽयं जिनदत्तः, गोसदृशो गवयः', गोविलक्षणो महिष इत्यादि । $6. 'अत्र हि पूर्वस्मिन्नुदाहरणे जिनदत्तस्य पूर्वोत्तरदशाद्वयव्यापक मेकत्वं प्रत्यभिज्ञानस्य विषयः । तदिदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानम् । द्वितीये" तु पूर्वानुभूतगोप्रतियोगिक गवयनिष्ठ सादृश्यम् । तदिदं सादृश्यप्रत्यभिज्ञानम् । तृतीये तु पुन: प्रागनुभूतगोप्रतियोगिक महिषनिष्ठं वैसादृश्यम् । यदिदं वैसादृश्य अनुमानप्रामाण्यान्यथानुपपत्तेरिति ।'–प्रमेयर० २-२, प्रमाणमी. १-२-३ । १ सङ्कलनं विवक्षितधर्मयुक्तत्वेन वस्तुनः प्रत्यवमर्शनम्, यथा 'रोमशो दन्तुरः श्यामो वामनः पृथुलोचनः । यस्तत्र चिपिटघ्राणस्तं चैत्रमवधारयः ॥' । २ इदमेकत्वप्रत्यभिज्ञानस्योदाहरणम् । ३ इदं सादृश्यप्रत्यभिज्ञानस्योदाहरणम् । ४ इदं वैलक्षण्यप्रत्यभिज्ञानस्योदाहरणम् । ५ एषूदाहरणेषु । ६ व्याप्त्या वर्तमानम् । ७ उदाहरणे । ८ गोत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकम् । ६ गवयो वन्यपशुविशेषः, तस्मिन् वर्तमानम्, गवयत्वावच्छिन्नानुयोगिताकमित्यर्थः । अत्रेदं बोध्यम्-यन्निरूपणाधीनं निरूपणं यस्य तत्तत्प्रतियोगि। अथवा यस्य सादृश्यादिकं प्रदर्श्यते स प्रतियोगी, यस्मिश्च प्रदर्श्यते सोऽनुयोगी इति भावः । १० प्रत्यभिज्ञानस्य विषय इति शेषः । ११ अत्रापि प्रत्यभिज्ञानस्य विषय इति सम्बन्धनीयम् । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः प्रत्यभिज्ञानम् । एवमन्येऽपि प्रत्यभिज्ञानभेदा यथाप्रतीति स्वयम्प्रेक्ष्याः । अत्र सर्वत्राऽप्यनुभवस्मृतिसापेक्षत्वात्तद्धेतुकत्वम् । १०. केचिदाहुः-अनुभवस्मृतिव्यतिरिक्तं प्रत्यभिज्ञानं नास्तीति; तदसत्; अनुभवस्य वर्तमानकालवत्ति विवर्तमात्र १ तदित्थम्इदमल्पं महद् दूरमासन्न प्रांशु नेति वा । व्यपेक्षातः समक्षेऽर्थे विकल्पः साधनान्तरम् ॥ -लघी० का २१ । 'इदमस्माद् दूरम्' 'वृक्षोऽयमित्यादि'-परीक्षा० ३, ६-१० । अन्यच्च पयोऽम्बुभेदी हंसः स्यात् षट्पादैर्धमरः स्मृतः । सप्तपर्णैस्तु तत्व विज्ञेयो विषमच्छदः ।। पञ्चवर्णं भवेद्रत्नं मेचकाख्यं पृथुस्तनी । युवतिश्चैकशृंगोऽपि गण्डकः परिकीर्तितः ॥ शरभोऽप्यष्टभिः पादः सिंहश्चारुसटान्वितः । इत्येवमादिशब्दश्रवणात्तथाविधानेव मरालादीनवलोक्य तथा सत्यापयति यदा तदा तत्सङ्कलनमपि प्रत्यभिज्ञानमुक्तम् दर्शनस्मरणकारणत्वाविशेषात् ।' प्रमेयर० ६-१० । २ चिन्तनीयाः । ३ प्रत्यभिज्ञानभेदेषु । ४ बौद्धाः । तेषामयमाशयः- 'ननु पूर्वापरावस्थाविषयं परामर्शज्ञानं कथमेकम् ? विषयभेदात्, परोक्ष्यापरोक्ष्यलक्षणविरुद्धधर्मसंसर्गाच्च । तथा हितदिति परोक्ष मिदमिति साक्षात्कार:'--न्यायवा० तात्पर्यटी० पृ० १४०, 'तस्माद् द्वे एते ज्ञाने-स इति स्मरणम्, अयम् इत्यनुभवः' -न्यायमं० पृ० ४४६ । अत्र बौद्धानां पूर्वपक्षत्वेनोल्लेखः । ननु तदिति स्मरणमिदमिति प्रत्यक्षमिति ज्ञानद्वयमेव, न ताभ्यां विभिन्न प्रत्यभिज्ञानाख्यं वयं प्रतिपद्यमानं प्रमाणान्तरमुपलभामहे'-प्रमेयर० २-२। ५ विवत: पर्यायः । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्रकाशकत्वम्, स्मृतेश्चातीतविवर्त्तद्योतकत्वमिति तावद्वस्तुगति: कथं नाम तयोरतीतवर्त्तमानसङ्कलितैक्य-सादृश्यादिविषयावगाहित्वम्? तस्मादस्ति स्मृत्यनुभवातिरिक्तं तदनन्तरभाविसङ्कलनज्ञानम् । तदेव प्रत्यभिज्ञानम् ।। ११. अपरे त्वेकत्वप्रत्यभिज्ञानमभ्युपगम्यापि तस्य प्रत्यक्षेऽन्तर्भावं कल्पयन्ति । तद्यथा—यदिन्द्रियान्वयव्यतिरेकानविधायि तत्प्रत्यक्षमिति तावत्प्रसिद्धम्, इन्द्रियान्वयव्यतिरेकानुविधायि चेदं प्रत्यभिज्ञानम्, तस्मात्प्रत्यक्षमिति; तन्न ; इन्द्रियाणां वर्तमानदशापरामर्शमात्रोपक्षीणत्वेन वर्तमानातीतदशाव्यापकैक्यावगाहित्वाघटनात् । न ह्यविषयप्रवृत्तिरिन्द्रियाणां युक्तिमती', चक्षुषा रसादेरपि प्रतीतिप्रसङ्गात् । १२. ननु सत्यमेतदिन्द्रियाणां वर्तमानदशावगाहित्वमेवेति तथापि तानि सहकारि “समवधानसामर्थ्याद्दशा द्वयव्यापि १ वैशेषिकादयः । २ यदुक्तम् –'यस्तु भवतामस्य मानसत्वे प्रयासः स वरमिन्द्रियजत्वे एव भवतुxxपश्चाज्जायमानपीन्द्रियार्थसन्निकर्षप्रभवतया प्रत्यक्षं भवत्येवXX विवादाध्यासिता विकल्पाः (प्रत्यभिज्ञानरूपाः) प्रत्यक्षाः अव्यभिचारित्वे सतीन्द्रियार्थसन्निकर्षजत्वात्'-न्यायवा०तात्पर्यटी० पृ० १४३, ‘एवं पूर्वज्ञानविशेषितस्य स्तम्भादेविशेषणमतीतक्षणविषय इति मानसी प्रत्यभिज्ञा'--न्यायमं० पृ० ४६१, 'तेनेन्द्रियार्थसम्बन्धात्प्रागूज़ चापि यत्स्मृतेः । विज्ञानं जायते सर्व प्रत्यक्षमिति गम्यताम् ।।' मी० श्लो० सू० ४ श्लो० २३७। ३ त एव वैशेषिकादयः पुनराशङ्कन्ते नन्विति । ४ समवधानं सन्निपात एकत्र मेलनं इति यावत् । ५ दशाद्वयं पूर्वोत्तरावस्थे व्याप्य वर्तमाने । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः त्येकत्वेऽपि 'प्रतोति जनयन्तु, अञ्जनसंस्कृतं चक्षुरिव व्यवहितेऽर्थे । न हि चक्षुषो व्यवहितार्थप्रत्यायन सामर्थमस्ति, अञ्जनसंस्कारवशात्तु तथात्वमुपलब्धम् । तद्वदेव स्मरणादि सहकृतानीन्द्रियाण्येव दशाद्वयव्यापकमेकत्वं प्रत्याययिष्यन्तीति किं 'प्रमाणान्तरकल्पनाप्रयासेनेति । तदप्यसत्; सहकारिसहस्र"समवधानेऽप्यविषयप्रवृत्तेरयोगात् । चक्षुषो हि अञ्जनसंस्कारादिः सहकारी स्वविषये रूपादावेव प्रवर्तको न त्वविषये रसादौ । "अविषयश्च पूर्वोत्तरावस्थाव्यापकमेकत्वमिन्द्रियाणाम् । तस्मातत्प्रत्यायनाय'२ ११प्रमाणान्तरमन्वेषणीयमेव, “सर्वत्रापि विषयविशेषद्वारेण प्रमाणभेदव्यवस्थापनात् । १३. "किञ्च, अस्पष्टवेयं तदेवेदमिति प्रतिपत्तिः, तस्मादपि न तस्याः प्रत्यक्षान्तर्भाव इति । अवश्यं चैतदेवं 2विज्ञेयं चक्षु १ ज्ञानम् । २ अन्तरिते। ३ प्रत्यायनं ज्ञापनम् । ४ व्यवहितार्थप्रत्यायनसामर्थ्यम् । ५ दृष्टम् । ६ चक्षुरिव । ७ आदिपदेन पर्वानुभवस्य परिग्रहः । ८ ज्ञापयिष्यन्ति । ६ प्रमाणान्तरं प्रत्यभिज्ञानाख्यम् । १० मिलितेऽपि । ११ इन्द्रियाणामविषयमेव प्रदर्शयति अविषयश्चेति । १२ एकत्वज्ञापनाय । १३ प्रत्यभिज्ञाननामकम् । १४ सर्वेष्वपि दर्शनेषु, सर्वैरपि वादिभिः । स्व-स्वदर्शने विषयभेदमाश्रित्यैव प्रमाणभेदव्यवस्था कृतेति भावः । १५ युक्त्यन्तरेण प्रत्यभिज्ञानस्य प्रत्यक्षान्तर्भावं निराकरोति किञ्चेति–स एवायमिति हि ज्ञानमस्पष्टमेव, प्रत्यक्षं तु न तथा, तस्य स्पष्टत्वात् । ततोऽपि न तस्य प्रत्यक्षेऽन्तर्भाव इति भावः । 1 द '\' पाठः । 2 द प 'ज्ञेयं' पाठः । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६० न्याय - दीपिका रादेरैक्यप्रतीतिजननसामर्थ्यं नास्तीति । अन्यथा लिङ्गदर्शनव्याप्तिस्मरणादिसहकृतं चक्षुरादिकमेव वह्नचादिलिङ्गज्ञानं जनयेदिति नानुमानमपि पृथक् प्रमाणं स्यात् । स्वविषयमात्र एव चरितार्थत्वाच्चक्षुरादिकमिन्द्रियं न लिङ्गिनि प्रवर्तितुं प्रगल्भमिति चेत् प्रकृतेन किमपराद्धम् ? ततः स्थितं प्रत्यभिज्ञानाख्यं पृथक् प्रमाणमस्तीति । $ १४. सादृश्यप्रत्यभिज्ञानमुपमानाख्यं पृथक् प्रमाणमिति केचित् कथयन्ति ; तदसत्; स्मृत्यनुभवपूर्वकसङ्कलनज्ञानत्वेन १ चक्षुरादेरैक्यप्रतीतिजननसामर्थ्य स्वीकरणे । २ ननु चक्षुरादेः स्वविपय एव पुरोदृश्यमाने धूमादौ प्रवृत्तेर्न परोक्षे वह्न्यादौ लिङ्गिनि प्रवर्ततुं सामर्थ्यमस्ति ततोऽनुमानं पृथगेव प्रमाणमिति चेत्; प्रत्यभिज्ञानेऽप्येतत् समानम्, तत्रापि हि इदन्तोलिखित एवार्थे देवदत्तादौ चक्षुरादेः प्रवृत्तिर्न परोक्षे एकत्वे कुमारयुवा वृद्धावस्थाव्यापिनी देवदत्तत्वादौ । तदुक्तम् — तया ( द्रव्यसंवित्त्या) यावत्स्वतीतेषु पर्यायेष्वस्ति संस्मृतिः । केन तद्वयापिनि द्रव्ये प्रत्यभिज्ञास्य वार्यते ॥ बालकोsहं य एवासं स एव च कुमारकः । युवानो मध्यमो वृद्धोऽधुनाऽस्मीति प्रतीतितः ॥' - तत्त्वार्थ श्लोकवा० १, १३, ४५-४६ । एतदेवाह स्वविषये । ३ समर्थम् । ४ प्रत्यभिज्ञानेन । ५ नैयायिका: मीमांसकाश्च तत्र तावन्मीमांसकाः ननु गोदर्शनाहितसंस्कारस्य ज्ञानस्योपमानरूपत्वान्न प्रत्यभिज्ञानता । सादृश्यविशिष्टो हि विशेषो ( गोलक्षणो धर्मी ) विशेषविशिष्टं वा सादृश्यमुपमानस्यैव प्रमेयम्' – Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ६१ प्रत्यभिज्ञानत्वानतिवृत्तेः । अन्यथा गोविलक्षणो महिष इत्यादिविसदृशत्वप्रत्ययस्य, इदमस्माद् दूरमित्यादेश्च प्रत्ययस्य सप्रतियोगिकस्य पृथक् प्रमाणत्वं स्यात् । ततो 14सादृश्यादिप्रत्ययवत् सादृश्यप्रत्ययस्यापि प्रत्यभिज्ञानलक्षणाक्रान्तत्वेन प्रत्यभिज्ञानत्वमेवेति प्रामाणिकपद्धतिः । प्रमेयक० ३-१० । उक्तं च दृश्यमानाद्यदन्यत्र विज्ञानमुपजायते । सादृश्योपाधिवत्तज्जैरुपमानमिति स्मृतम् ॥ तस्माद्यत्स्मर्यते तत्स्यात्सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥ प्रत्यक्षेणाऽवबुद्धेऽपि सादृश्ये गवि च स्मृते । विशिष्टस्यान्यतः सिद्धरुपमानप्रमाणता ॥ -मी० श्लो० उ० ३६-३८ । इति प्रत्यभिज्ञानस्योपमानरूपतां निरूपयन्ति, 'तदसमीक्षिताभिधानम्, एकत्व-सादृश्यप्रतीत्योः सङ्कलनज्ञानरूपतया प्रत्यभिज्ञानतानतिक्रमात् । 'स एवायम्'इति हि यथा उत्तरपर्यायस्य पूर्वपर्यायेणैकताप्रतीतिः प्रत्यभिज्ञा, तथा सादृश्यप्रतीतिरपि 'अनेन सदृशः' इति (प्रत्यभिज्ञा), अविशेषात्' —प्रमेयक० ३-१० । कथमन्यथा वैलक्षण्यप्रतीतिरपि प्रमाणान्तरं न स्यात्? नैयायिकास्तु 'पागमाहितसंस्कारस्मृत्यपेक्षं सारूप्यज्ञानमुपमानम् । यदा ह्यनेन श्रुतं भवति 'यथा गौरेवं गवयः' इति । प्रसिद्ध गो-गवयसाधर्म्य पुनर्गवा साधर्म्य पश्यतोऽस्य भवत्ययं गवय इति समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिः' -न्यायवा० १-१-६ । समाख्यासम्बन्धप्रतिपत्तिश्चोपमानमिति प्रतिपाद 1 'वैसदृश्य' द प्रतिपाठः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [तर्कस्य निरूपणम्] १५. अस्तु प्रत्यभिज्ञानम्, कस्तहि तर्कः?व्याप्तिज्ञानं तर्कः । साध्यसाधनयोर्गम्यगमकभावप्रयोजको' व्यभिचारगन्धासहिष्णुः सम्बन्धविशेषो' व्याप्तिरविनाभाव इति च 1 व्यपदिश्यते। तत्सामर्थ्यात्खल्वग्न्यादि घूमादिरेव 'गमयति न तु घटादिः, तदभावात् । तस्याश्चाविनाभावापरनाम्न्याः2 व्याप्तेः प्रमितौ यत्साधकतमं तदिदं तख्यिं प्रमाणमित्यर्थः। तदुक्तं श्लोकवात्तिकभाष्ये“साध्यसाधनसम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिरूपे हि फले साधकतमस्तर्कः यन्ति; तन्न; वैलक्षण्यादिप्रत्ययानामपि प्रमाणान्तरत्वानुषङ्गात् । तथा चोक्तं श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवै: उपमानं प्रसिद्धार्थ साधात् साध्यसाधनम् । तद्वैधात् प्रमाणं किं स्यात् संक्षिप्रतिपादनम् ॥ प्रत्यक्षार्थान्तरापेक्षा सम्बन्धप्रतिपद्यतः । तत्प्रमाणं न चेत्सर्वमुपमानं कुतस्तथा ॥ -लघीय० का० १६-२० । अतः ‘यथैव हि एकदा घटमुपलब्धवतः पुनस्तस्यैव दर्शने ‘स एवायं घटः' इति प्रतिपत्तिः प्रत्यभिज्ञा तथा ‘गोसदृशो गवयः' इति सङ्केतकाले गोसदृशगवयाभिधानयोर्वाच्यवाचकसम्बन्ध प्रतिपद्य पुनर्गवयदर्शनात्तत्प्रतिपत्ति: प्रत्यभिज्ञा किन्नेष्यते ?'–प्रमेय क० ३-१० । १प्रसाधकः । २ व्यभिचारशन्यः । ३ नियमरूपः । ४ व्याप्तिबलात्। ५ ज्ञापयति । ६ व्याप्तेरभावात् । ७ श्लोकवात्तिकभाष्ये यदुक्तं तत्किञ्चित् शब्दभेदनेत्थं वर्तते-'प्रमाणं तर्कः साक्षात्परम्परया च स्वार्थनिश्चयने 1 द प्रतौ 'च' नास्ति । 2 'नाम्नो' इति द ा प म प्रतिपाठः । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष-प्रकाशः M १-१३-११५] इति । ऊह इति तर्कस्यैव 'व्यपदेशान्तरम् । स च तर्कस्तां व्याप्ति सकलदेश-कालोपसंहारेण विषयीकरोति । ६ १६. किमस्योदाहरणम् ? उच्यते-यत्र यत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वमिति । अत्र हि धूमे सति भूयोऽग्न्युपलम्भे अग्न्यभावे च धमानुपलम्भे1 ‘सर्वत्र सर्वदा धूमोऽग्नि न व्यभिचरति" इत्येवं सर्वोपसंहारेणाविनाभाविज्ञानं पश्चादुत्पन्नं तख्यिं प्रत्यक्षादेः पृथगेव । प्रत्यक्षस्य2 सन्निहितदेश एव धूमाग्निसम्बन्धप्रकाशनान्न व्याप्तिप्रकाशकत्वम् । सर्वोपसंहारवती हि व्याप्तिः । १७. ननु यद्यपि प्रत्यक्षमात्रं व्याप्तिविषयीकरणे शक्तं न भवति तथापि विशिष्ट प्रत्यक्षं तत्र शक्तमेव । तथा हि-महान फले साधकतमत्वात्प्रत्यक्षवत् । स्वविषयभूतस्य साध्यसाधनसम्बन्धाज्ञाननिवृत्तिरूपे साक्षात्स्वार्थनिश्चयने फले साधकतमस्तर्कः, परम्परया तु स्वार्थानुमाने हानोपादानोपेक्षाज्ञाने वा प्रसिद्ध एवेति ।' १ नामान्तरम् । २ सर्वदेशकालावच्छेदेन । ३ अस्मिन्नुल्लेखे । ४ धूमोऽग्न्यभावे न भवति, अपि त्वग्निसद्भाव एव भवति, इति भावः । ५ 'न हि प्रत्यक्षं यावान् कश्चिद्धमः कालान्तरे देशान्तरे च पादकस्यैव कार्य नार्थान्तरस्येतीयतो व्यापारान् कर्तुं समर्थम्, सन्निहितविषयबलोत्पत्तेरविचारकत्वात्' लघी० स्वोपज्ञवि० का० ११, अष्टस० पृ० २८०, प्रमाणप० पृ० ७०, प्रमेयक० ३-१३ । ६ समीपवत्तिनि योग्यदेश एव महानसादौ, न दूरवत्तिनि परोक्षे देशे । ७ नियतधूमाग्न्योः सम्बन्धज्ञापनात् । ८ प्रत्यक्षसामान्यम् । ६ समर्थम् । १० व्याप्तिविषयीकरणे । 1 'अग्न्यभावे च धूमानुपलम्भे' इति पाठो मुद्रितप्रतिषु नास्ति । 2 'प्रत्यक्षस्य हि' इति म प प्रतिपाठः ! Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका सादौ तावत्प्रथमं धूमाऽग्न्योर्दर्शनमेकं प्रत्यक्षम्, तदनन्तरं भूयो भूयः प्रत्यक्षाणि प्रवर्तन्ते, तानि च प्रत्यक्षाणि न सर्वाणि व्याप्तिविषयीकरणसमर्थानि, अपि तु पूर्वपूर्वानुभूतधूमाग्निस्मरणतत्सजातीयत्वानुसन्धानरूपप्रत्यभिज्ञानसहकृतः कोऽपि' प्रत्यक्षविशेषो व्याप्ति सर्वोपसंहारवतीमपि1 गृह्णाति । तथा च स्मरणप्रत्यभिज्ञानसहकृते प्रत्यक्षविशेषे व्याप्तिविषयीकरणसमर्थे कि तर्काख्येन पृथक्प्रमाणेनेति केचित् ; तेऽपि न्यायमार्गानभिज्ञाः; “सहकारिसहस्रसमवधानेऽप्यविषयप्रवृत्तिन घटत इत्युक्तत्वात् । तस्मात्प्रत्यक्षेण व्याप्तिग्रहणमसञ्जसम् । इदं तु समञ्जसम्स्मरणम्, प्रत्यभिज्ञानम्, भूयोदर्शनरूपं प्रत्यक्षं च मिलित्वा तादृशमेकं ज्ञानं जनयन्ति यद्वयाप्तिग्रहणसमर्थमिति । तर्कश्च स एव । अनुमानादिकं तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसम्भाव्यमेव । १ पुनः पुनः । २ अनिर्दिष्टनामा । ३ नैयायिकादयः । ४ समाधत्ते तेऽपीति । ५ प्रत्यक्षस्य पुरोवत्तिधूमवह्निव्यक्तिविषयत्वेऽपि नापुरोवत्तिसकलधूमवह्निव्यक्तिविषयत्वम्, तासां तदयोग्यत्वात् । सहकारिणामविषये प्रत्यक्षस्य प्रवर्तकत्वाघटनाच्च । ६ न ह्यनुमानादिना व्याप्तिग्रहणं सम्भवति, अन्योन्याश्रयादिदोषात् । अनुमानेन हि व्याप्तिग्रहणं चेतर्हि प्रकृतानुमानेनानुमानान्तरेण वा ? प्रकृतानुमानेन चेदितरेतराश्रयः । तथा हि-सत्यां व्याप्तिप्रतिपत्तावनुमानस्यात्मलाभस्तदात्मलाभे च सति व्याप्तिप्रतिपत्तिरिति । अनुमानान्तरेण व्याप्तिप्रतिपत्तावनुमानान्तरीयव्याप्तिप्रतिपत्तिरप्यनुमानान्तरेणेत्येवमनवस्था स्यात् । ततो नानुमानाद्व्याप्तिग्रहणम् । नाऽप्यागमादेः, तस्य भिन्नविषयत्वात् । यदुक्तम्-'नाऽप्यनुमानेन (व्याप्ति 1 'सर्वोपसंहारवतीमपि' इति पाठो मुद्रितप्रतिषु नास्ति । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १६. बौद्धास्तु प्रत्यक्षपृष्ठभावी विकल्पः व्याप्ति गृह्णातीति अत्यन्ते । त एवं पृष्टव्याः -स हि विकल्प: किमप्रमाणमुत प्रमामिति । यद्यप्रमाणम्, कथं नाम तद्गृहीतायां व्याप्तौ समावासः ? अथ प्रमाणम्, कि प्रत्यक्षमथवाऽनुमानम् ? न तावत्प्रत्यक्षम्, अस्पष्टप्रतिभासत्वात् । नाप्यनुमानम्, लिङ्गदर्शनाद्यनपेक्षत्वात् । 'ताभ्यामन्यदेव किञ्चित्प्रमाणमिति चेदागतस्तहि तर्कः । तदेवं तख्यिं प्रमाणं निर्णीतम् । [अनुमानस्य निरूपणम्] १७. इदानीमनुमान मनुवर्ण्यते । साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम् । इहानुमानमिति लक्ष्यनिर्देशः, साधनात्साध्यविज्ञानग्रहणम्), प्रकृतापरानुमानकल्पनायामितरेतराश्रयत्वानवस्थाऽवतारात् । प्रागमादेरपि भिन्नविषयत्वेन सुप्रसिद्धत्वान्न ततोऽपि तत्प्रतिपत्तिरिति' प्रमेयर० ३-१८ । श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवरप्युक्तम् अविकल्पधिया लिङ्ग न किञ्चित् सम्प्रतीयते । नानुमानादसिद्धत्वात्प्रमाणान्तरमाञ्जसम् ॥ लघीय०का० ११ अतः सूष्ठूक्तं ग्रन्थकृता 'अनुमानादिकं तु व्याप्तिग्रहणं प्रत्यसम्भाव्यमेव' इति । १ निर्विकल्पकप्रत्यक्षानन्तरं जायमानः । २ प्रामाण्यम् । ३ प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् । ४ 'साधनात् साध्यविज्ञानमनुमान .....'-न्यायवि० का० १७०, 'साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्'–परीक्षामु० ३-१४, 'साधनात् साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः' ।—तत्त्वार्थश्लो० १-१३-१२० । Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ न्याय-दीपिका मिति लक्षणकथनम् । साधनाद्धमादेलिङ्गात्साध्येऽग्न्यादौ लिङ्गि नि यद्विज्ञानं जायते तदनुमानम्, 'तस्यैवाऽग्नाद्यव्युत्पत्तिविच्छित्तिकरणत्वात्। न पुन: साधनज्ञानमनुमानम्, 'तस्य साधनाव्यू त्पत्तिविच्छेदमात्रोपक्षीणत्वेन साध्याज्ञाननिवर्तकत्वायोगात् । "ततो यदुक्तं नैयायिकै:-'लिङ्गपरामर्शोऽनुमानम्' [न्यायवा० १-१-५॥ उद्धृतम्] इत्यनुमानलक्षणम् तद विनीतविलसितमिति निवेदितं भवति । “वयं त्वनुमानप्रमाणस्वरूपलाभे व्याप्तिस्मरणसहकृतो लिङ्गपरामर्शः कारणामिति मन्यामहे, स्मृत्यादि "स्वरूपलाभेऽनुभवादिवत् । तथा हि-धारणाख्योऽनुभवः स्पृतौ हेतुः । तादात्विकानुभव-स्मृती प्रत्यभिज्ञाने। स्मृतिप्रत्यभिज्ञानानुभवाः साध्य १ साध्यज्ञानस्यैव । २ अग्न्यादेरव्युत्पत्तिरज्ञानं तस्या विच्छित्तिनिरासस्तत्करणत्वात् साध्यज्ञानस्य, अतः साधनाज्जायमानं साध्यज्ञानमेवानुमानमिति भावः । ३ साधनज्ञानस्य । ४ साधनसम्बन्ध्यज्ञाननिराकरणमात्रेणैव कृतार्थत्वेन । ५ यतश्च साधनज्ञानं नानुमानं ततः । ६ 'अपरे तु मन्यन्ते लिङ्गपरामर्शोऽनुमानमिति । वयं तु पश्यामः सर्वमनुमानमनुमितेस्तन्नान्तरी यकत्वात् । प्रधानोपसर्जनताविवक्षायां लिङ्गपरामर्श इति न्याय्यम् । कः पुनरत्र न्यायः ? आनन्तर्यप्रतिपत्तिः । यस्माल्लिङ्गपरामर्शादनन्तरं शेषार्थप्रतिपत्तिरिति । तस्माल्लिङ्गपरामर्शो न्याय्य इति ।'न्यायवा० पृ० ४५ । लिङ्गपरामर्शो लिङ्गज्ञानमित्यर्थः । ७ अविनीतैरविचारिभिविलसितं परिकल्पितमत एव तदयुक्तमिति भावः । ८ जैनाः । ६ लिङ्गज्ञानमनुमानस्योत्पत्तौ कारणम्, न तु स्वयमनुमानमित्यर्थः । १० आदिपदेन प्रत्यभिज्ञादीनां ग्रहणम् । __1 'करणं' इति मु प्रतिपाठः । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः विषयास्तर्के । 'तद्वल्लिङ्गज्ञानं व्याप्तिस्मरणादिसहकृतमनुमानोत्पत्ती निबन्धनमित्येतत्सुसङ्गतमेव । म. ननु भवतां मते साधनमेवानुमाने 1हेतुर्न तु साधनसाधनात्साध्यविज्ञानमनुमानम्' इति वचनादिति चेत् ;न; मादित्यत्र निश्चयपथप्राप्ताद्धमादेरिति विवक्षणात्, अनि प्राप्तस्य धमादेः साधनत्वस्यैवाघटनात् । तथा चोक्तं अस्वार्थश्लोकवात्तिके2-“साधनात्साध्यविज्ञानमनुमानं विदुर्बुधाः" 12-१३-१२०] इति । साधनाज्ज्ञायमानाद्धमादेः साध्येऽग्न्यादौ निकिनि यद्विज्ञानं तदनुमानम् । अज्ञायमानस्य तस्य साध्यज्ञानजनकत्वे हि सुप्तादीनामगृहीतधूमादीनामप्यग्न्यादिज्ञानोत्पत्ति3सकः । तस्माज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकस्य साध्यज्ञानस्यैव १ स्मृत्यादिवत् । २ अस्मदीयं कथनं सुयुक्तमेव । ३ नैयायिकः शङ्कते नम्विति । ४ जनानाम् । ५ पूर्वं निरूपणात् । ६ अत एवाकलङ्कदेवरुक्तम् लिङ्गात्साध्याविनाभावाभिनिबोधैकलक्षणात् । लिङ्गिधीरनुमानं तत्फलं हानादिबुद्धयः ॥ लघी०का० १२ । ७ साधनस्य । ८ जनानाम् । ६ ज्ञायमानं लिङ्ग कारणं यस्य तज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकं तस्य, साध्याविना मावित्वेन निर्णीतसाधनहेतुकस्येत्यर्थः । अत्रेदं बोध्यम्-न हि वयं केवलं लिङ्गमनुमाने कारणं मन्यामहे, अपि स्वन्यथानुपपन्नत्वेन निश्चितमेव, अज्ञायमानस्य लिङ्गस्यानुमितिकारणत्वासम्भवात् । अन्यथा यस्य कस्याप्यनुमितिः स्यात् । एतेन यदुक्तं नैयायिकैः 1 'अनुमानहेतुः' इति द प प्रत्योः पाठः। 2 'श्लोकवात्तिके' इति मुद्रितप्रतिषु पाठः । 3 'ज्ञानोत्पाद' इति द प्रतिपाठः । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका साध्याव्युत्पत्तिनिरासकत्वेनानुमानत्वम्, न तु लिङ्गपरामर्शादे. रिति बुधाः प्रामाणिका' विदुरिति 'वातिकार्थः । अनुमायां ज्ञायमानं लिङ्ग तु कारणं न हि । अनागतादिलिङ्गन न स्यादनुमितिस्तदा । यद्यनुमितौ लिङ्ग करणं स्यात्तदाऽनागतेन विनष्टेन वा लिङ्गन (इयं यज्ञशाला वह्निमती भविष्यति, भाविधूमात् । इयं यज्ञशाला वह्निमत्यासीत्, भूतधूमात् [सिद्धान्तमु० टिप्पण] इत्येवंरूपेण) अनुमितिर्न स्यादन, मितिकरणस्य लिङ्गस्य तदानीमभावात्'-सिद्धान्तमुक्तावली ६७; तन्निरस्तम् ; लिङ्गस्य ज्ञायमानस्य करणत्वानभ्युपगमेऽज्ञायमानादपि लिङ्गादनमितिप्रसङ्गात् । किञ्च, वर्तमानत्वेन प्रतीतस्यैव लिङ्गस्यानुमितिहेतुत्वम, न भविष्यत्वेनातीतत्वेन वा भाव्यतीतयोलिङ्गत्वस्यैवाघटनात् । न हि कश्चित्प्रेक्षावान् भाविधूमात्भाविवह्निमतीतधूमादतीतर्वाह्न वाऽनुमिनोति। तस्माज्ज्ञायमानलिङ्गकारणकस्यैव साध्यज्ञानस्यानुमानत्वमिति ध्येयम् । १ नैयायिकाद्यभिमतस्य । २ अकलङ्कदेवा न्यायविनिश्चये (का० १७०)। ३ साधनात्साध्यविज्ञानमित्यादितत्त्वार्थश्लोकवात्तिकीयवात्तिकस्यार्थः । वात्तिकलक्षणं तु 'उक्तानुक्तद्विरुक्तानां चिन्ता यत्र प्रसज्यते । तं ग्रन्थं वात्तिकं प्राहुत्तिकज्ञा मनीषिणः ॥ -पराशरोपपुराण अ० १८ । 'उक्तानुक्तद्विरुक्तानां विचारस्य निबन्धनम् । हेतुभिश्च प्रमाणैश्च एतद्वात्तिकलक्षणम् ॥' 'उक्तानुक्तदुरुक्तानां चिन्ताकारि तु वात्तिकम् ।'--हैमकोश। 'वात्तिकं हि सूत्राणामनुपपत्तिचोदना तत्परिहारो विशेषाभिधानं प्रसिद्धम् ।' -तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक पृ० २। Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः [ साधनस्य लक्षणकथनम् ] ६ १६. किं तत्साधनं यद्धेतुकं साध्यज्ञानमनुमानम् ? इति वेत; उच्यते — निश्चितसाध्यान्यथानुपपत्तिकं साधनम् । यस्य 'साध्याभावासम्भवनियमरूपा व्याप्त्यविनाभावाद्यपरपर्याया साध्यान्यथानुपपत्तिस्तर्काख्येन प्रमाणेन निर्णीता तत्साधनमित्यर्थः । तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारक: “अन्यथानुपपत्त्येक लक्षणं लिङ्गमङ्गयते" 1[ वादन्याय...] इति । [ साध्यस्य लक्षणकथनम् ] $ २०. किं तत्साध्यं यदविनाभावः साधनलक्षणम् ? उच्यतेशक्यमभिप्रतमप्रसिद्धं साध्यम् । यत्प्रत्यक्षादिप्रमाणाबाधितत्वेन साधयितुं शक्यम्, वाद्यभिमतत्वेनाभिप्र ेतम्', 'सन्देहाद्याक्रान्तवेनाप्रसिद्धम्, तदेव साध्यम् । अशक्यस्य साध्यत्वे ' वह्ननुष्ण १ साधनस्य । २ साध्याभावे न भवतीति नियमरूपा । ३ यद्यपि कुमारनन्दिनोऽयं वादन्यायो नेदानीमुपलभ्यते तथापीयं कारिका सहोत्तराद्धेन विद्यानन्दस्वामिना प्रमाणपरीक्षायां 'कुमारनन्दिभट्टारकैः पत्रपरीक्षायां च 'कुमारनन्दिभट्टारकैरपि स्ववादन्याये निगदित्वात्' इति नामोलेखपुरस्सरमुद्धृताऽस्ति । ४ श्रीमाणिक्यनन्दिभिरप्युक्तम् — 'इष्टमबाधितमसिद्धं साध्यम्' – परीक्षा० ३ २० । ५ इष्टम् । ६ अव्युत्पत्तिसंशयविपर्यासविशिष्टोऽर्थः साध्य इति भावः । ' सन्दिग्धविपर्यस्ताव्युत्पन्नानां माध्यत्वं यथा स्यादित्यसिद्धपदम् – परीक्षा० ३ - २१ । ७ बाधितस्य । नं 'वह्निरनुष्णो द्रव्यत्वात्' इत्यादौ वह्नावुष्णस्पर्शग्राहिणा प्रत्यक्षेण वाघितस्यानुष्णत्वादेरपि साध्यत्वं स्यात् । - B 1 'लिङ्गमभ्यत इति मुद्रित प्रतिषु पाठः । ६६ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका त्वादेरपि साध्यत्वप्रसङ्गात् । ग्रनभिप्र ेतस्य साध्यत्वे त्वतिप्रस ङ्गात्' । प्रसिद्धस्य साध्यत्वे पुनरनुमानवैयर्थ्यात् । तदुक्तं न्यायविनिश्चये ७० " साध्यं शक्यमभिप्र तमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः " ॥ १७२ ॥ इति । । २१. श्रयमर्थः 2 - यच्छक्यमभिप्रतमप्रसिद्धं तत्साध्यम् । ततोऽपरं साध्याभासम् । किं तत् ? विरुद्धादि । विरुद्ध प्रत्यक्षादिबाधितम् । श्रादिशब्दादनभिप्रेतं प्रसिद्धं चेति । कुत एतत् ? साधनाविषयत्वतः - साधनेन गोचरीकर्तुमशक्यत्वादित्यकलङ्क देवानाममिप्रायलेशः । तदभिप्रायसाकल्यं तु स्याद्वादविद्या १ स्वेष्टसाधनायोगात् । अत एवाह - 'अनिष्टाध्यक्षादिबाधितयोः साध्यत्वं मा भूदितीष्टाबाधितवचनम् - परीक्षा० ३ २२ । २ साधनाहं हि साध्यम्, साधनं चासिद्धस्यैव भवति न सिद्धस्य, पिष्टपेषणानुषङ्गात् । तथा चासिद्धस्थ साधनमेवानुमानफलम्, सिद्धस्य तु साध्यत्वे तस्य प्रागेव सिद्धत्वेनानुमानवैफल्यं स्यादेवेति भावः । यदुक्तं स्याद्वादविद्यापतिना 'प्रसिद्धादन्यदप्रसिद्धम्, तदेव साध्यम् । न प्रसिद्धम्, तत्र साधनवैफल्यात् प्रसिद्धिरेव हि साधनस्य फलम्, सा च प्रागेव सिद्धेति' – न्याय वि० वि० २, पृ० ८ । ३ शक्यादिलक्षणात्साध्याद्विपरीतम् । ४ अभिप्रायस्य संक्षेपः । ५ अकलङ्कदेवानामभिप्रायसामस्त्यम् । ६ श्रीमद्वादिराजाचार्यो न्यायविनिश्चयविवरणकारः । 1 श्री द प्रत्योः 'इति' पाठो नास्ति । 2 'अस्यायमर्थः' इति श्रा प्रतिपाठः । 3 'किं तत् ?' इति द प प्रत्योर्नास्ति । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः पतिद! । साधनसाध्यद्वयमधिकृत्य' श्लोकवात्तिकं च2 अन्यथानुपपत्त्येकलक्षणं तत्र साधनम् । साध्यं शक्यमभिप्रतमप्रसिद्धमुदाहृतम् ॥ [१-१३-२२१] इति । ६२२. तदेवमविनाभावनिश्चयैकलक्षणात्साधनाच्छक्याभिप्रताप्रसिद्ध रूपस्य साध्यस्य ज्ञानमनुमानमिति सिद्धम् । [अनुमानं द्विधा विभज्य स्वार्थानुमानस्य निरूपणम् ] २३. तदनुमानं द्विविधम्-स्वार्थ परार्थं च। तत्र स्वयमेव 'निश्चितात्साधनात्साध्यज्ञानं स्वार्थानुमानम् । परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्प्राक्तानुभूतव्याप्तिस्मरण सहकृताद्भूमादेः साधनादुत्पन्नं पर्वतादौ धर्मिण्यग्न्यादेः साध्यस्य ज्ञानं स्वार्थानु १ आश्रित्य । २ तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकम । ३ अन्यथानुपपत्तिरविनाभावः, सा एवैका लक्षणं स्वरूपं यस्य तत्तथा साधनम्, न पक्षधर्मत्वादित्रितयलक्षणं पञ्चलक्षणं वा बौद्ध-नैयायिकाभिमतम् । ४ उक्तलक्षणलक्षितम् । ५ प्रत्यक्षादिना ज्ञातात् । ६ प्रतिज्ञादिवाक्यप्रयोगम् । ७ ‘हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणपूर्वकं जायमानं साध्यज्ञानं स्वार्थानुमानम्, यथा गृहीतधूमस्य स्मृतव्याप्तिकस्य ‘पर्वतो वह्निमान्' इति ज्ञानम् । अत्र हेतुग्रहणसम्बन्धस्मरणयोः समुदितयोरेव कारणत्ववसेयम्'-जैनतर्क भा० पृ० १२ । अनुमाता हि पर्वतादौ धूमं दृष्ट्वा महानसादौ गृहीतव्याप्ति स्मृत्वा च 'पर्वतोऽयं वह्निमान्' इत्यनुमिनोति । यत्रेयमनुमितिः परोपदेशमनपेक्ष्य स्वयमेव निश्चितात्साधनाद्भवति तत्स्वार्थानुमानमिति मावः । 1 'विवेद' इति मु प्रतिपाठः । २ 'च' इति द प्रतौ नास्ति । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका मानमित्यर्थः । यथा - पर्वतोऽयमग्निमान् धमवत्त्वादिति । अयं हि स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपस्यापि शब्देनोल्लेखः । यथा 'अयं घटः इति शब्देन प्रत्यक्षस्य ' । 'पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात्' इत्यनेन प्रकारेण प्रमाता जानातीति स्वार्थानुमानस्थितिरित्यवगन्तव्यम् ।। ७२ [स्वार्थानुमानस्याङ्गप्रतिपादनम् ] $ २४. अस्य च स्वार्थानुमानस्य त्रीण्यङ्गानि - 'धर्मी, साध्यम्, साधनं च । तत्र साधनं 'गमकत्वेनाङ्गम् । साध्यं तु गम्यत्वेन' । धर्मी पुनः साध्यधर्माधारत्वेन । आधारविशेषनिष्ठतया हि साध्यसिद्धिरनुमानप्रयोजनम्, धर्ममात्रस्य तु व्याप्तिनिश्चयकाल एव सिद्धत्वात् 'यत्र तत्र धूमवत्त्वं तत्र तत्राग्निमत्त्वम्' इति । २५. अथवा, पक्षी हेतुरित्यङ्गद्वयं स्वार्थानुमानस्य, साध्यधर्मविशिष्टस्य धर्मिणः पक्षत्वात् । तथा च स्वार्थानुमानस्य धर्मसाध्यसाधनभेदात् त्रीण्यङ्गानि पक्षसाधन भेदादङ्गद्वयं वेति सिद्धम्, १ ननु स्वार्थानुमानस्य ज्ञानरूपत्वात्कथं तस्य 'पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात्' इति शब्देनोल्लेख: ? इत्यत श्राह श्रयमिति । अनुमाता येन प्रकारेण स्वार्थानुमानं करोति तत्प्रकारप्रदर्शनार्थमेव ज्ञानरूपस्यापि तस्य शब्दविधयोल्लेखः । भवति हि यथा 'इदं मदीयं पुस्तकम्' इति शब्देन प्रत्यक्षस्याप्युल्लेखः । ततो न कोऽपि दोष इति । २ उल्लेख इति पूर्वेण सम्बन्धः । ३ पक्ष: । ४ ज्ञापकत्वेन । ५ ज्ञाप्यत्वेन । ६ धर्मिणः स्वार्थानुमानाङ्गत्वे युक्ति: । ७ प्रकारान्तरेण स्वार्थानुमानस्याङ्गप्रतिपादनार्थमाह अथवेति । 1 म मु प्रतिषु स्थितिरवगन्तव्या' इति पाठः । 2 ' अथवा ' इति पाठो मुद्रितप्रतिषु नास्ति । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ न्याय-दीपिका सिद्धः, अपि तु प्रतीतिमात्रसिद्ध इति विकल्पसिद्धोऽयं धर्मी। तथा खरविषाणमपि नास्तित्वसिद्धेः प्राग्विकल्पसिद्धम्। 'उभयसिद्धो धर्मी यथा- शब्द: परिणामी कृतकत्वादित्यत्र शब्द: । स हि वर्तमानः प्रत्यक्षगम्यः, भूतो भविष्यंश्च विकल्पगम्यः । स सर्वोऽपि धर्मीति प्रमाण-विकल्पसिद्धो धर्मी । प्रमाणोभयसिद्धयोर्धमिणोः साध्ये कामचारः" । विकल्पसिद्धे तु धर्मिणि सत्तासत्तयोरेव साध्यत्वमिति नियमः । तदुक्तम्-"विकल्पसिद्ध "तस्मिन् सत्तेतरे साध्ये' [परीक्षा ३-२८] इति । ६२८. तदेवं परोपदेशानपेक्षिणः1 साधनाद् दृश्यमानार्मिनिष्ठतया साध्ये यद्विज्ञानं तत्स्वार्थानुमानमिति स्थितम् । तदुक्तम् १ सम्भावनामात्रसिद्धः, सम्भावना प्रतीतिविकल्प इत्येकार्थकाः । २ तथा चाहुः श्रीमाणिक्यनन्दिनः-'विकल्पसिद्धे तस्मिन् सत्तेत्तरे साध्ये' 'अस्ति सर्वज्ञो नास्ति खरविषाणम्'–परीक्षा० २-२८,२६ । ३ प्रमाणविकल्पसिद्धः । ४ अत्र शब्दत्वेन निखिलशब्दानां ग्रहणम्, तेषु वर्तमानशब्दाः श्रावणप्रत्यक्षेण गम्याः सन्ति, भूता भविष्यन्तश्च प्रतीतिसिद्धाः सन्ति, अतः शब्दस्योभयसिद्धर्मित्वमिति भावः । ५ अनियमः । ६ सत्ता अस्तित्वम्, असत्ता नास्तित्वम्, ते द्वे एवात्र विकल्पसिद्धे धर्मिणि साध्ये भवतः, 'अस्ति सर्वज्ञः' इत्यादौ सत्ता साध्या, 'नास्ति खरविषाणम्' इत्यादौ चासत्ता साध्या इत्येवं नियम एव, न प्रमाणोभयसिद्धमिवत्कार्मचारस्तत्रेत्यवसेयम् । ७ मिणि । ८ सत्तासत्ते । ६ भवत इति क्रियाध्याहारः । १० एतत्पदप्रयोगात् साधनस्य वर्तमानकालिकत्वं प्रकटितं बोद्धव्यम्, तेन भूतभाविधूमादेर्भूतभाविवयादिसाघ्यं प्रति साधनत्वं निरस्तम् । 1 'परोपदेशानपेक्षेण' इति प्रा प्रतिपाठः । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः परोपदेशाभावेऽपि साधनात्साध्यबोधनम् । यद्रष्टुर्जायते स्वार्थमनुमानं तदुच्यते ॥[ ] इति । [परार्थानुमानस्य निरूपणम्] | २६. परोपदेशमपेक्ष्य यत्साधनात्साध्यविज्ञानं तत्परार्थानुमानम् । प्रतिज्ञा-हेतुरूपपरोपदेशवशात् श्रोतुरुत्पन्नं साधनात् साध्यविज्ञानं परार्थानुमानमित्यर्थः । यथा-पर्वतोऽयमग्निमान् भवितुर्महति धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरिति' वाक्ये केनचित्प्रयुक्ते तद्वाक्यार्थं पर्यालोचयतः स्मृतव्याप्तिकस्य श्रोतुरनुमानमुपजायते। ६३०. परोपदेशवाक्यमेव परार्थानुमानमिति केचित् ; त एवं प्रष्टव्याः तत् किं मुख्यानुमानम् अथ। 'गौणानुमानम् इति ? न तावन्मुख्यानुमानम्, वाक्यस्याज्ञानरूपत्वात् । गौणानुमानं "तद्वाक्य मिति त्वनुमन्यामहे', 'तत्कारणे "तव्यपदेशोपपत्तेरायु2घु तमित्यादिवत् । १ अनुमातुः । २ कोऽसौ परोपदेश इत्याह प्रतिज्ञाहेतुरूपेति । ३ वि. चारयतः । ४ महानसे पूर्वगृहीतव्याप्ति स्मरतः। ५ नैयायिकादयः । ६ औपचारिकानुमानम् । ७ परोपदेशवाक्यम् । ८ वयं जैनाः । ६ परार्थानुमानकारणे परोपदेशवाक्ये । १० परार्थानुमानव्यपदेशघटनात्, तत उपचारादेव परोपदेशवाक्यं परार्थानुमानम् । परमार्थतस्तु तज्जन्यं ज्ञानमेव परार्थानुमानमिति । यदाह श्रीमाणिक्य नन्दी-'परार्थं तु तदर्थपरामशिवचनाज्जातम्'-परीक्षा० ३-५५, तद्वचनमपि तद्धेतुत्वात्'-परीक्षा० ३-५६, 1 म मु 'अथवा' इति पाठः । 2 म मु ‘रायुर्वं घृतं इति पाठः । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका [परार्थानुमानप्रयोजकवाक्यस्य प्रतिज्ञा हेतुरूपावयवद्वयस्य प्रतिपादनम् ] $ ३१. तस्यैतस्य परार्थानुमानस्याङ्गसम्पत्तिः स्वार्थानुमानवत् । परार्थानुमानप्रयोजकस्य च वाक्यस्य । द्वाववयवी - प्रतिज्ञा हेतुश्च । तत्र धर्मं-धर्मिसमुदायरूपस्य पक्षस्य वचनं प्रतिज्ञा । यथा- पर्वतोऽयमग्निमान्' इति । साध्याविनाभावि साधनवचनं हेतुः । यथा-‘धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेः' इति ' तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेः ' - इति वा2 । अनयोर्हेतुप्रयोगयोरुक्तिवैचित्र्यमात्रम्' । 'पूर्वत्र धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्ययमर्थः- धूमवत्त्वस्याग्निमत्त्वाभावेऽनुपपत्तेरिति निषेधमुखेन कथनम् । द्वितीये तु धूमवत्त्वोपपत्तेरित्ययमर्थः-प्रग्निमत्वे सत्येव धूमवत्त्वस्योपपत्तेरिति विधिमुखेन प्रतिपादनम् 4 | अर्थस्तु न भिद्यते, 'उभयत्राऽप्यविनाभावि - साधनाभिधानाविशेषात् । ग्रतस्तयोर्हेतु प्रयोगयोरन्यतर " एव वक्तव्यः, उभयप्रयोगे पौनरुक्त्यात् । तथा चोक्तलक्षणा प्रतिज्ञा, एतयोरन्यतरो हेतुप्रयोगश्चेत्यवयवद्वयं परार्थानुमानवाक्यस्येति स्थितिः, व्युत्पन्नस्य श्रोतुस्तावन्मात्रेणैवांनुमित्युदयात् । ७६ श्रीहेमचन्द्राचार्योऽप्याह - 'यथोक्तसाधनाभिधानजः परार्थम्' 'वचनमुपचारात्' - प्रमाणमी० २,१, १-२ । १ केवलं कथनभेदः । २ हेतुप्रयोगे । ३ हेतुप्रयोगे । ४ हेतुप्रयोगद्वयेऽपि । ५ एकतर एव । ६ प्रतिज्ञाहेतुद्वयेनैव । 1 द प प्रत्योः 'च वाक्यस्य' इति पाठो नास्ति । 2 द प प्रत्योः 'च' पाठः । 3 श्रमु म प्रतिषु 'प्रतिपादनम् इति पाठः । 4 श्रमु म प्रतिषु 'कथनम्' पाठः । 5 'अर्थतस्तु' इति द प्रतिपाठः । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ওও ३. परोक्ष-प्रकाशः [नैयायिकाभिमतपञ्चावयवानां निरासः] ३२. 'नैयायिकास्तु परार्थानुमानप्रयोगस्य यथोक्ताभ्यां द्वाभ्यामवयवाभ्यां सममुदाहरणमुपनयो निगमनं चेति पञ्चावयवानाहुः । तथा च ते सूत्रयन्ति “प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनान्यवयवाः” [न्यायसू० १-१-३२] इति । तांश्च ते लक्षणपुरस्सरमु १ अवयवमान्यतामभिप्रेत्य दार्शनिकानां मतभेदो वर्त्तते । तथा हिनैयायिकास्तावत् मूले प्रदर्शितान् प्रतिज्ञादीन् पञ्चावयवान् प्रतिपेदिरे । नैयायिकैकदेशिनः 'पूर्वोक्ताः पञ्च, जिज्ञासा, संशयः, शक्यप्राप्तिः, प्रयोजनम्, संशयव्युदासः' (न्यायभा० १-१-३२) इति दशावयवान् वाक्ये संचक्षते । मीमांसकाः 'तत्राबाधित इति प्रतिज्ञा, ज्ञातसम्बन्धनियमस्येत्यनेन दृष्टान्तवचनम्, एकदेशर्दशनादिति हेत्वभिधानम्, तदेवं त्र्यवयवसाधनम्' (प्रकरणपजि० पृ० ८३) इत्येतान् त्र्यवयवान् मन्यन्ते । सांख्याः 'पक्षहेतुदृष्टान्ता इति त्र्यवयवं साधनम्' (सांख्य० माठरवृ० का० ५) प्रतिपादयन्ति । बौद्धतार्किकदिग्नागः ‘पक्षहेतुदृष्टान्तवचनैहि प्राश्निकानामप्रतीतोऽर्थः प्रतिपाद्यते XXX एतान्येव त्रयोऽवयवा इत्युच्यन्ते' (न्याय० पृ० १४, १६) इति प्ररूपयति । केचिन्मीमांसकाः प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयान् चतुरोऽवयवान् कथयन्ति (प्रमेयर० ३-३६) । धर्मकीर्तिस्तन्मतानुसारिणो बौद्धाश्च हेतुदृष्टान्ताविति द्वाववयवौ (प्रमाणवा० १-२८, वादन्या० पृ० ६१), 'हेतुरेव हि केवलः' (प्रमाणवा० १-२८) इति केवलं हेतुरूपमेकमवयवमपि च निरूपयन्ति । वैशेषिकाश्च 'अवयवाः पुनः प्रतिज्ञापदेशनिदर्शनानुसन्धानप्रत्याम्नायाः' (प्रशस्तपादभा० पृ० ११४) इत्युक्तान् पञ्चावयवान् मेनिरे । स्याद्वादिनो जैनास्स्तु 'एतद्द्वयमेवानुमानाङ्ग नोदाहरणम्' (परीक्षा० ३-३७) इति प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयमेव मन्यन्त इति विवेकः । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ न्याय-दीपिका दाहरन्ति च।। तद्यथा-पक्षवचनं प्रतिज्ञा, यथा-पर्वतोऽयमग्नि मानिति । साधनत्वप्रकाशार्थं2 पञ्चम्यन्तं लिङ्गवचनं हेतुः, यथाधूमवत्त्वादिति। व्याप्तिपूर्वकदृष्टान्तवचनमुदाहरणम्, यथा-यो यो धूमवानसावसावग्निमान्, यथा महानस इति साधर्योदाहरणम् । यो योऽग्निमान्न भवति स स धूमवान्न भवति, यथा महाह्रद इति वैधर्योदाहरणम् । पूर्वत्रोदाहरणभेदे हेतोरन्वयव्याप्तिः प्रदीते, द्वितीये तु व्यतिरेकव्याप्तिः । तद्यथा-अन्वयव्याप्तिप्रदर्शनस्थानमन्वयदृष्टान्तः, व्यतिरेकव्याप्तिप्रदर्शनप्रदेशो व्यतिरेकदृष्टान्तः । एवं दृष्टान्त द्वैविध्यात्तद्ववचनस्योदाहणस्यापि द्वैविध्यं बोध्यम् । अनयोश्चोदाहरणयोरन्यतरप्रयोगेणैव पर्याप्तत्वादितराप्रयोगः। दृष्टान्तापेक्षया पक्षे3 हेतोरुपसंहारवचनमुपनयः:", तथा १ साधनसद्भावपूर्वकसाध्यसद्भावप्रदर्शनमन्वयव्याप्तिः । २ साध्याभावपूर्वकसाधनाभावप्रदर्शनं व्यतिरेकव्याप्तिः । ३ 'यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावेन साध्यसाधनयोर्घर्मयोरस्तित्वं ख्याप्यते स साधर्म्यदृष्टान्तः । यद्यत् कृतकं तत्तदनित्यं दृष्टम्, यथा घट इति'—न्यायकलि० पृ० ११ । ४ 'यत्र साध्याभावप्रयुक्तो हेत्वभाव: ख्याप्यते स वैधर्म्यदृष्टान्तः । यत्रानित्यत्वं नास्ति तत्र कृतकत्वमपि नास्ति, यथा अाकाश इति' (न्यायकलि० पृ० ११) एतदुभयमधिकृत्य कैश्चिदुक्तम्-'साध्येनानुगमो हेतोः साध्याभावे च नास्तिता इति' (न्यायवात्तिक पृ० १३७) । ५ 'साधर्म्यवैधर्योदाहरणानुसारेण तथेति, न तथेति वा साध्यमिणि हेतोरूपसंहार उपनयः'न्यायकलि० पृ० १२ । 1 मुद्रितप्रतिषु 'च' पाठो नास्ति । 2 मु म 'प्रकाशनार्थ' । 3 मु ‘पक्षहेतो'। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः चायं धूमवानिति । हेतुपूर्वकं पुन:1 पक्षवचनं निगमनम्', तस्मादग्निमानेवेति । एते पञ्चावयवाः परार्थानुमानप्रयोगस्य । तदन्यतमाभावे वीतरागकथायां विजिगीषुकथायां च2 नानुमितिरुदेतीति नैयायिकानामभिमति:3 । ___३३. तदेतदविमृश्याभिमननम् ; वीतरागकथायां4 प्रतिपाद्याशयानुरोधेनावयवाधिक्येऽपि विजिगोषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयेनैव पर्याप्तेः किमप्रयोजनैरन्यैरवयवैः । [विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयस्यैव सार्थक्यमिति] ३४. तथा हि-वादिप्रतिवादिनोः स्वमतस्थापनार्थ जयपराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्त्तमानो वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा। गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वा5 रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णय १ द्विविवे हेतौ द्विविधे च दृष्टान्ते द्विविधे चोपनये तुल्यमेव हेत्वपदेशेन पुनः साधोपसंहरणान्निगमनम्' --न्यायकलि० पृ० १२ । २ ते इमे प्रतिज्ञादयो निगमनान्ताः पञ्चावयवाः स्वप्रतिपत्तिवत्परप्रतिपत्ति मुत्पादयितुमिच्छता यथानिदिष्टक्रमकाः प्रयोक्तव्याः । एतदेव साधनवाक्यं परार्थानुमानमाचक्षते ।' –न्यायकलि० पृ० १२ । ३ प्रतिज्ञादीनामेकतमस्याऽप्यभावे । ४ 'वादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा । सा द्विविधा-वीतरागकथा विजिगीषुकथा चेति ।-न्यायसार पृ० १५ । ५ वचनप्रवृत्तिः । 1 मुद्रितप्रतौ 'पुनः' नास्ति । 2 ा म मु प्रतिषु 'वा' पाठः । 3 म मु प्रतिषु ‘मतम्' । 4 द प प्रत्योः 'वीतरागकथायां तु' इति पाठः । 5 द 'वा' पाठो नास्ति । Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः चायं धूमवानिति । हेतुपूर्वकं पुन:1 पक्षवचनं निगमनम्', तस्मादग्निमानेवेति । एते पञ्चावयवाः परार्थानुमानप्रयोगस्य'। तदन्यतमाभावे वीतरागकथायां विजिगीषुकथायां च2 नानुमितिरुदेतीति नैयायिकानामभिमति:3 । ३३. तदेतदविमृश्याभिमननम् ; वीतरागकथायां4 प्रतिपाद्याशयानुरोधेनावयवाधिक्येऽपि विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयेनैव पर्याप्तेः किमप्रयोजनैरन्यैरवयवैः । [विजिगीषुकथायां प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयस्यैव सार्थक्यमिति] $३४. तथा हि-वादिप्रतिवादिनोः स्वमतस्थापनार्थ जयपराजयपर्यन्तं परस्परं प्रवर्त्तमानो वाग्व्यापारो विजिगीषुकथा । गुरुशिष्याणां विशिष्टविदुषां वा5 रागद्वेषरहितानां तत्त्वनिर्णय १ द्विविवे हेतौ द्विविधे च दृष्टान्ते द्विविध चोपनये तुल्यमेव हेत्वपदेशेन पुनः साधोपसंहरणान्निगमनम्' -न्यायकलि० पृ० १२ । २ ते इमे प्रतिज्ञादयो निगमनान्ता: पञ्चावयवाः स्वप्रतिपत्तिवत्परप्रतिपत्तिमुत्पादयितुमिच्छता यथानिर्दिष्टक्रमकाः प्रयोक्तव्याः । एतदेव साधनवाक्यं परार्थानुमानमाचक्षते ।' –न्यायकलि० पृ० १२ । ३ प्रतिज्ञादीनामेकतमस्याऽप्यभावे । ४ 'बादिप्रतिवादिनोः पक्षप्रतिपक्षपरिग्रहः कथा । सा द्विविधा-वीतरागकथा विजिगीषुकथा चेति । -न्यायसार पृ० १५ । ५ वचनप्रवृत्तिः । 1 मुद्रितप्रतौ 'पुनः' नास्ति । 2 ा म मु प्रतिषु 'वा' पाठः । 3 म मु प्रतिषु 'मतम्'। 4 द प प्रत्योः 'वीतरागकथायां तु' इति पाठः । 5 द 'वा' पाठो नास्ति। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका पर्यन्तं परस्परं प्रवर्त्तमानो वाग्व्यापारो वीतरागकथा' । तत्र विजगीषुकथा वाद इति चोच्यते' । 'केचिद्वीतरागकथा वाद इति कथयन्ति तत्पारिभाषिकमेव । न हि लोके गुरुशिष्यादिवाग्व्यापारे वादव्यवहारः, विजिगीषुवाग्व्यवहार एव वादत्वप्रसिद्धेः 1 । यथा स्वामिसमन्तभद्राचार्यैः सर्वे सर्वथैकान्तवादिनो वादे जिता इति । तस्मिंश्च वादे परार्थानुमानवाक्यस्य प्रतिज्ञा हेतुरित्यवयवद्वयमेवोपकारकम्, नोदाहरणादिकम् । तद्यथा-लिंगवचनात्मकेन हेतुना तावदवश्यं भवितव्यम्, लिङ्गज्ञानाभावेऽनुमितेरेवानुदयात् । पक्षवचनरूपया प्रतिज्ञयाऽपि भवितव्यम्, अन्यथाऽभिमतसाध्यनिश्चयाभावे साध्यसन्देहवतः श्रोतुरनुमित्यनुदयात् । तदुक्तम् -"एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम्"" [परीक्षा ३ - ३७] इति । श्रयमर्थः - एतयोः प्रतिज्ञा ८० १ जयपराजयाभिप्रायरहिता तत्त्वजिज्ञासया क्रियमाणा तत्वचर्चा वीतरागकथा इति भावः । २ उभयोर्मध्ये । ३ यथोक्तम् प्रत्यनीकव्यवच्छेदप्रकारेणैव सिद्धये । वचनं साधनादीनां वादः सोऽयं जिगीषतोः || न्यायवि० ०का० ३८२ । ४ नैयायिकाः - 'गुर्वादिभिः सह वादः X X X गुर्वादिभिः सह वादोपदेशात्, यस्मादयं तत्त्ववुभुत्सुर्गुर्वादिभिः सह त्रिविधं (ग्रनधिगततत्त्वावबोधम्, संशयनिवृत्तिम् ग्रध्यवसिताभ्यनुज्ञानम्) फलमाकाङ्क्षन् वादं करोति ।'- - न्यायवा० पृ० १४९ । यत्र वीतरागो वीतरागेणैव सह तत्त्वनिर्णयार्थं साधनोपालम्भौ करोति सा वीतरागकथा वादसंज्ञयोच्यते ।' — न्यायसार पृ० १५ । ५ कथनमात्रम्, न तु वास्तविकम् । ६ प्रतिज्ञाया अभावे । ७ 'एतद्द्वयमेवानुमानाङ्ग नोदाहरणम्' इत्युपलब्धसूत्रपाठः । 1 द 'सिद्धेः' पाठः । 2 द 'सर्वे' पाठो नास्ति । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः हेत्वोयमेवानुमानस्य परार्थानुमानस्याङ्गम् । वाद इति शेषः । एवकारेणावधारणपरेण नोदाहरणादिकमिति सूचितं' भवति । व्युत्पन्नस्यैव हि वादाधिकारः, प्रतिज्ञाहेतुप्रयोग1मात्रेणैवोदाहरणादिप्रतिपाद्यस्यार्थस्य गम्यमानस्य व्युत्पन्नेन ज्ञातुं शक्यत्वात् । गम्यमानस्याऽप्यभिधाने पौनरुक्त्यप्रसङ्गादिति2 । ३५. स्यादेतत्, प्रतिज्ञाप्रयोगेऽपि पौनरुक्त्यमेव, तदभिधयस्य पक्षस्यापि प्रस्तावादिना गम्यमानत्वात् । तथा च लिङ्गवचनलक्षणो हेतुरेक एव वादे प्रयोक्तव्य' इति वदन् बौद्धपशुरात्मनो "दुर्विदग्धत्व4 मुद्घोषयति"। हेतुमात्रप्रयोगे व्युत्पन्नस्यापि साध्यसन्देहानिवृत्तेः । तस्मादवश्यं प्रतिज्ञा प्रयोक्तव्या। तदुक्तम्-“साध्यसन्देहापनोदार्थ गम्यमानस्यापि पक्षस्य वचनम्" [परीक्षा ३-३४] इति । तदेवं वादापेक्षया परार्थानुमानस्य प्रतिज्ञाहेतुरूपमवयवद्वयमेव, न न्यूनं न5 चाधिकमिति स्थितम् । "प्रपञ्चः पुनरवयवविचारस्य पत्रपरीक्षायामीक्षणीयः१६ । ____ १ इतरव्यवच्छेदकेन । २ ज्ञापितम् । ३ वादकरणसमर्थस्यैव वक्तुः । ४ वचने । ५ पुनर्वचनं पौनरुक्त्यम् । ६ सौगतः शङ्कते । ७ प्रतिज्ञायाः प्रतिपाद्यस्य । ८ प्रकरणव्याप्तिप्रदर्शनादिना। ६ प्रतिज्ञामन्तरेण केवलस्य हेतोरेव प्रयोगः करणीयः, 'हेतुरेव हि केवलः' इति धर्मकीतिवचनात् । १० जाड्यम् ११ प्रकटयति । १२ साध्यस्य सन्देहो न निवर्त्तते । १३ साध्यसंशयनिवृत्त्यर्थम् । १४ विजिगीषुकथामाश्रित्य । १५ विस्तरः । १६ दृष्टव्यः । 1 द प प्रत्योः 'प्रतिज्ञाहेतुमात्रे' इति पाठः । 2 मु 'इति' नास्ति । 3 द 'वचन'नास्ति । 4 प मु'दुर्विदग्धता' पाठः । 5 'नाधिक'इति मु प्रतिपाठः । Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ न्याय-दीपिका [वीतरागकथायामधिकावयवप्रयोगस्यौचित्यसमर्थनम्] ३६. वीतरागकथायां तु प्रतिपाद्याशयानुरोधेन' प्रतिज्ञाहेतू द्वाववयवौ, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणानि त्रयः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयाश्चत्वारः, प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमनानि वा1पञ्चेति यथायोग2 प्रयोगपरिपाटी। तदुक्तं कुमारनन्दिभट्टारकैः "प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः”-[वादन्याय...] इति। तदेवं प्रतिज्ञादिरूपात्परोपदेशादुत्पन्नं परार्थानुमानम् । तदुक्तम् परोपदेशसापेक्षं साधनात्साध्यवेदनम् । श्रोतुर्यज्जायते सा हि परार्थानुमितिर्मता ॥[ ] इति। तथा च स्वार्थ परार्थं चेति द्विविधमनुमानं साध्याविनाभावनिश्चयैकलक्षणाद्धेतोरुत्पद्यते। १ प्रतिपाद्याः शिष्यास्तेषामाशयोऽभिप्रायस्तदपेक्षया। २ परार्थानुमानवाक्यावयववचनसमुदायः प्रयोगपरिपाटी । अत्रायं भावः-वीतरागकथायामवयवप्रयोगस्य न कश्चिन्नियमः, तत्र यावद्भिः प्रयोगः प्रतिपाद्यो बोधनीयो भवति तावन्तस्ते प्रयोक्तव्याः। दृश्यन्ते खलु केचिद् द्वाभ्यामवयवाभ्यां प्रकृतार्थ प्रतिपद्यन्ते, केचन त्रिभिरवयवैः, अपरे चतुभिरवयवैः, अन्ये पञ्चभिरवयवैः, अत उक्तं 'प्रयोगपरिपाटी तु प्रतिपाद्यानुरोधतः' इति । अत एव च परानुग्रहप्रवृत्तः शास्त्रकारैः प्रतिपाद्यावबोधनदृष्टिभिस्तथैव प्ररूपणात् । व्युत्पन्नप्रज्ञानां तु न तथाऽनियमः, तेषां कृते तु प्रतिज्ञाहेतुरूपावयवद्वयस्यैव पर्याप्तत्वादस्ति तादृनियमः। ३ ज्ञानम् । ४ साध्यज्ञानम् । 1 द 'वा' नास्ति । 2 म मु 'यथायोग्यं' पाठः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः [बौद्धाभिमतत्ररूप्यहेतुलक्षणस्य निरासः] ३७. इत्थमन्यथानुपपत्त्येकलक्षणो हेतुरनुमितिप्रयोजक' इति प्रथितेऽप्याहते1 मते तदेतदवितान्येऽन्यथाऽप्याहुः । तत्र सावत्ताथागताः ‘पक्षधर्मत्वादित्रितयलक्षणा2ल्लिङ्गादनुमानोत्थातम' इति वर्णयन्ति । तथा हि-पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षाद्वयावृत्तिरिति हेतोस्त्रीणि रूपाणि । तत्र साध्यधर्मविशिष्टो धर्मी पक्षः, यथा धूमध्वजानुमाने पर्वतः, तस्मिन् व्याप्य वर्त्तमानत्वं हेतोः पक्षधर्मत्वम् । साध्यसजातोयधर्मा धर्मी सपक्षः, यथा तत्रैव" महानसः,तस्मिन् सर्वत्रैकदेशे वा वर्तमानत्वं हेतोः सपक्षे सत्त्वम् । साध्यविरुद्धधर्मा धर्मी विपक्षः, यथा तत्रैव ह्रदः3, तस्मात्सर्वस्माद् १ जनक इत्यर्थः । २ प्रसिद्ध । ३ सौगतादयः । ४ त्रैरूप्यादिकम् । ५ अयमभिप्रायो बौद्धानाम्-नान्यथानुपपत्तिनियमनिश्चयकलक्षणं साधनम्, अपि तु पक्षधर्मत्वादिरूपत्रययुक्तम्, तेनैवासिद्धत्वादिदोषपरिहारात् । उक्तं च। हेतोस्त्रिष्वपि रूपेषु निर्णयस्तेन वर्णितः । प्रसिद्धविपरीतार्थव्यभिचारिविपक्षतः ॥ प्रमाणवा० १-१६ । 'हेतुस्त्रिरूपः । किं पुनस्त्ररूप्यम् ? पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षे चासत्त्वमिति ।' न्यायप्र० पृ० १। अत्र न्यायबिन्दुटी० पृ० ३१,३३ । बादन्याय० पृ. ६० । तत्त्वसं० पृ. ४०४ इत्याद्यपि दृष्टव्यम् । ६ धूमध्वजो वह्निः, धूमस्य तज्ज्ञापकत्वात् । ७ धूमध्वजानुमाने । ८ ह्रदादिसर्वविपक्षात् । 1 म मु 'अर्हतमते' पाठः । 2 द प 'लक्षणलिङ्गा' इति पाठः । आम मु 'महाहृदः' इति पाठः । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ न्याय-दीपिका व्यावृत्तत्वं हेतोविपक्षाद् व्यावृत्तिः । तानीमानि त्रीणि रूपाणि मिलितानि हेतोर्लक्षणम् । अन्यतमाभावे हेतोराभासत्वं स्यादिति । ३८. तदसङ्गतम् ; कृत्तिकोदयादेहतोरपक्षधर्मस्य शकटोदयादिसाध्यगमकत्वदर्शनात् । तथा हि-शकटं मुहूर्तान्ते उदेष्यति कृत्तिकोदयादिति । अत्र हि-शकटं धर्मी1, मुहूर्तान्तोदयः? साध्यः, कृत्तिकोदयो हेतुः । न हि कृत्तिकोदयो हेतुः पक्षीकृते शकटे वर्त्तते, अतो न पक्षधर्मः । तथाप्यन्थानुपपत्तिबलाच्छकटोदयाख्यं साध्यं गमयत्येव । तस्माद् बौद्धाभिमतं हेतोर्लक्षणमव्याप्तम् । _ [नैयायिकाभिमतपाञ्चरूप्यहेतुलक्षणस्य निरास:] ३६. नैयायिकास्तु पाञ्चरूप्यं हेतोर्लक्षणमाचक्षते । तथा हि १ विपक्षावृत्तित्त्वं विपक्षाद् व्यावृत्तिः। २ प्रोक्तरूपत्रयाणामेकैकापाये। ३ तन्नामको हेत्वाभासः स्यादिति भावः । तथा च पक्षधर्मत्वाभावेऽसिद्धत्वम्, सपक्षसत्त्वविरहे विरुद्धत्वम्, विपक्षाद्वयावृत्त्यभावे चानैकान्तिकत्वमिति । ४ ग्रन्थकारः समाधत्ते तदसङ्गतमिति । ५ पक्षेऽवर्तमानस्य । ६ पक्षधर्मत्वाऽभावेऽपि । ७ किञ्च, 'उपरि वृष्टिरभूत्, अधोपूरान्यथानुपपत्तेः' इत्यादावपि पक्षधर्मत्वं नास्ति तथापि गमकत्वं सर्वैरभ्युपगम्यते, अन्यथानुपपत्तिसद्भावात् । अतः सैव हेतोः प्रधानं लक्षणमस्तु ? किं - रूप्येण । ८ अव्याप्तिदोषदूषितम् । अपि च, 'बुद्धोऽसर्वज्ञो वक्तृत्वादे रथ्यापुरुषवत्' इत्यत्र पक्षधर्मत्वादिरूपत्रयसद्भावेनातिव्याप्तम् । 1 मु 'शकट: पक्षः पाठः । 2 म मु 'मुहूर्तान्ते उदयः' पाठः । । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष- प्रकाशः पक्षधर्मत्वम्, सपक्षे सत्त्वम्, विपक्षाद्वयावृत्तिः प्रबाधितविषयत्वम्, श्रसत्प्रतिपक्षत्वं चेति पञ्च रूपाणि । तत्राद्यानि त्रीण्युक्तलक्षणानि । साध्यविपरीतनिश्चायकप्रबल प्रमाणरहितत्वमबाधितविषयत्वम् । तादृशसमबलप्रमाणशून्यत्वमसत्प्रतिपक्षत्वम् । तद्यथा - पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वात्, यो यो धूमवानसा 1 वसावग्निमान्, यथा महानसः, यो योऽग्निमान्न भवति स धूमवान्न भवति, यथा महाह्रदः, तथा चायं धूमवांस्तस्मादग्निमानेवेति । अत्र ह्यग्निमत्त्वेन साध्यधर्मेण विशिष्टः पर्वताख्यो धर्मी पक्षः, धूमवत्त्वं हेतुः । तस्य च तावत्पक्षधर्मत्वमस्ति पक्षीकृते पर्वते वर्त्तमानत्त्वात् । सपक्षे सत्त्वमप्यस्ति सपक्षे महानसे वर्त्तमानत्वात् । 'ननु केषुचित्सपक्षेषु धूमवत्त्वं न वर्त्तते श्रङ्गारावस्थापन्नाग्निमत्सु प्रदेशेषु धूमाभावात् इति चेत्; न; सपक्षैकदेशवृत्तेरपि हेतुसपक्षे सर्वत्रैकदेशे वा वृत्तिर्हेतोः सपक्षे सत्त्वमित्युक्तत्वात् । विपक्षाद्वयावृत्तिरप्यस्ति, धूमवत्त्वस्य सर्वमहाहृदादिविपक्ष 2व्या - वृत्तेः । 'अबाधितविषयत्वमप्यस्ति, धूमवत्त्वस्य हेतोर्यो विषयोऽग्निमत्त्वाख्यं साध्यं तस्य प्रत्यक्षादि प्रमाणाबाधितत्वात् । 'असत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्ति, अग्निरहितत्वसाधकसमबलप्रमाणासम्भ } त्वात्, , ८५ १ तेषु । २ पक्षधर्मत्वादीनि । ३ वह्नयनुमाने । ४ धूमवत्त्वस्य । ५ योगं प्रति परः शङ्कते नन्विति । ६ घूमवत्त्वे पक्षधर्मत्वादित्रयं समर्थ्यावाघितविषयत्वमसत्प्रतिपक्षत्वं चापि शेषरूपद्वयं समर्थयति प्रकरणकारोबाधितेत्यादिना । ७ आदिपदादनुमानागमादिग्रहणम् । न विद्यते ८ 1 म मु प्रतिषु स स' इति पाठः । 2 श्रा म मु 'विपक्षाद्वया' इति पाठः । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका वात् । तथा च पाञ्चरूप्य1 सम्पत्तिरेव धूमवत्त्वस्य 2स्वसाध्य. साधकत्वे निबन्धनम् । एवमेव सर्वेषामपि सद्धेतूनां रूपपञ्चक सम्पत्तिरूहनीया। ४०. तदन्यतमविरहादेव खलु पञ्च हेत्वाभासा प्रसिद्धविरुद्धानैकान्तिक-कालात्ययापदिष्टप्रकरणसमाख्याः सम्पन्नाः। तथा हि-अनिश्चितपक्षवृत्तिरसिद्धः, यथा-'अनित्यः शब्दश्चाक्षष. त्वात् । अत्र हि चाक्षुषत्वं हेतु: पक्षीकृते शब्दे न वर्तते, श्रावण त्वाच्छब्दस्य । तथा च पक्षधर्मविरहादसिद्धत्वं चाक्षुषत्वस्य । साध्यविपरीतव्याप्तो विरुद्धः, यथा—'नित्यः शब्दः कृतकत्वात' इति । कृतकत्वं हेतुः साध्यभूतनित्यत्वविपरीतेनानित्यत्वेन व्या. प्तः3, सपक्षे4 गगनादावविद्यमानो विरुद्धः । “सव्यभिचारोऽनैकान्तिकः, यथा-अनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात्' इति । प्रमेयत्व प्रतिपक्षो यस्य सोऽसत्प्रतिपक्षस्तस्य भावस्तत्त्वम्, प्रतिद्वन्द्विहेतुरहितत्वमित्यर्थः । न ह्यत्र 'पर्वतो नाग्निमान् अमुकत्वात्' इत्येवंभूतमग्निरहितत्वसाधक किञ्चित् समबलप्रमाणं वर्तते । ततोऽसत्प्रतिपक्षत्वं धूमवत्त्वस्य । १ उक्तमेवोपसंहरति तथा चेति । २ स्वपदेन धूमवत्त्वं तस्य साध्य वह्निस्तत्प्रसाधने । ३ कृतकत्वादीनाम् । ४ विचारणीया । ५ पक्षधर्मत्वादीनामेकैकापायात् । ६ तानेवोपदर्शयति । ७ न निश्चिता पक्षे वृत्तिर्यस्य सोऽसिद्धः । ८ 'साध्याद् (नित्यत्वादेः) विपरीतं यत् (अनित्यत्वादि) तेन सह व्याप्तो व्याप्तिमान् हेतुः स विरुद्धो हेत्वाभासः 1 6 नियमेन वर्तमानः १० साध्यासत्त्वे हेतुसत्त्वं व्यभिचारस्तेन सहितः सव्यभिचारः । साध्या भाववद्वृत्तिहेतुर्व्यभिचारीत्यर्थः । 1 द पञ्चरूप' पाठः। 2 ा प म मु 'स्व' नास्ति । 3 मु 'व्याप्तत्वात पाठः । 4 मु 'सपक्षे च' पाठः । 5 मु 'वविद्यमानत्वात्' पाठः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः हि हेतु:1 साध्यभूतमनित्यत्वं व्यभिचरति, गगनादौ विपक्षे नित्यत्वेनापि सह वृत्तेः। ततो विपक्षाद्वयावृत्त्यभावादनैकान्तिक:21 'बाधितविषयः कालात्ययापदिष्टः । यथा-'अग्निरनुष्ण: पदार्थत्वात्' इति । अत्र हि पदार्थत्वं हेतु: स्वविषयेऽनुष्णत्वे उष्णत्वग्राहकेण प्रत्यक्षेण बाधिते प्रवर्त्तमानोऽबाधितविषयत्वाभावात्कालात्ययापदिष्टः । प्रतिसाधनप्रतिरुद्धो3 हेतुः प्रकरणसमः, "यथा—'अनित्यः शब्दो नित्यधर्मरहितत्वात् इति। अत्र १ अनित्यत्वाभाववति । २ प्रत्यक्षादिना बाधितो विषयः साध्यं यस्य हेतोः स बाधितविषयः कालात्ययापदिष्टो नाम । ३ एतन्नामकश्चतुर्थों हेत्वाभासः। तथा चोक्तम्-'प्रत्यक्षागमविरुद्धः कालात्ययापदिष्टः । अबाधितपरपक्षपरिग्रहो हेतुप्रयोगकालः तमतीत्यासावुपदिष्ट इति । अनुष्णो. ऽग्निः कृतकत्वात् घटवदिति प्रत्यक्षविरुद्धः । ब्राह्मणेन सुरा पेया द्रवद्रव्यत्वात् क्षीरवत् इत्यागमविरुद्धः ।'-न्यायकलि० पृ० १५ । ४ कालात्ययापदिष्टमुदाहरति यथेति । ५ विरोधिसाधनं प्रतिसाधनम्, तेन साध्यप्रत्यायनं प्रति रुद्धोऽसमर्थीकृतो यो हेतु: स प्रकरणसमो नाम पञ्चमो हेत्वाभासः । ६ जयन्तभट्टस्तु प्रकरणसममित्थं लक्षयति—'विशेषाग्रहणात् प्रकरणे पक्षे संशयो भवति–नित्यः शब्दोऽनित्यः शब्दो वेति । तदेव विशेषाग्रहणं भ्रान्त्या हेतुत्वेन प्रयोज्यमानं प्रकरणसमो हेत्वाभासो भवति । अनित्यः शब्दो नित्यधर्मानुपलब्धेः घटवदिति, नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मानुपलब्धेराकाशवदिति । न चानयोरन्यतरदपि साधनं बलीयः यदितरस्य बाधकमुच्येत ।'-न्यायकलि० पृ० १५। ७ असत्प्रतिपक्षापरनामप्रकरणसममुदाहरणद्वारा दर्शयति यथेति । 1 द पा प्रत्योः 'हेतु:' नास्ति । 2 द 'कम्' । 3 द 'विरुद्धो' पाठः । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका हि नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतु: प्रतिसाधनेन प्रतिरुद्धः1 । किं तत्प्रतिसाधनम् इति चेत् ; नित्यः शब्दोऽनित्यधर्मरहितत्वादिति नित्यत्वसाधनम् । तथा चासत्प्रतिपक्षत्वाभावात्प्रकरणसमत्वं नित्यधर्मरहितत्वादिति हेतोः। तस्मात्पाञ्चरूप्यं हेतोलक्षणमन्यतमाभावे हेत्वाभासत्वप्रसङ्गादिति सूक्तम्। 'हेतुलक्षणरहिता हेतुवदवभासमाना: खलु हेत्वाभासाः । पञ्चरूपान्यतमशून्यत्वाद्धेतुलक्षणरहितत्वम्, कतिपयरूपसम्पत्तेर्हेतुवदवभासमानत्वम्' [ ] इति वचनात् । ४१. तदेतदपि नैयायिकाभिमतमनुपपन्नम् ,कृत्तिकोदयस्य पक्षधर्मरहितस्यापि शकटोदयं प्रति हेतुत्वदर्शनात्पाञ्चरूप्यस्याव्याप्तेः। ६४२. 'किञ्च, केवलान्वयिकेवलव्यतिरेकिणोर्हेत्वोः पाञ्चरूप्याभावेऽपि गमकत्वं तैरेवाङ्गीक्रियते । तथा हि-ते मन्यन्ते "त्रिविधो हेतुः-अन्वयव्यतिरेकी, केवलान्वयी, केवलव्यतिरेकी १ 'अहेतवो हेतुवदवभासमानाः हेत्वाभासा:-न्यायकलि० पृ० १४ । २ त्रैरूप्यवत्पाञ्चरूप्यमपि। ३ नैयायिकमतानुसारेणैव पुनरव्याप्ति दर्शयति किञ्चेति । ४ 'अन्वयी, व्यतिरेकी, अन्वयव्यतिरेकी चेति । तत्रान्वयव्यतिरेकी विवक्षिततज्जातीयोपपत्तौ विपक्षावृत्तिः, यथा-अनित्यः शब्दः सामान्यविशेषवत्त्वे सत्यस्मदादिबाह्यकरणप्रत्यक्षत्वाद् धटवदिति । अन्वयी विवक्षिततज्जातीयवृत्तित्वे सति विपक्षहीनो, यथा सर्वानित्यत्ववादिनामनित्यः शब्दः कृतकत्वादिति । अस्य हि विपक्षो नास्ति । व्यतिरेकी विवक्षितव्यापकत्वे सति सपक्षाभावे सति विपक्षावृत्तिः, यथा नेदं जीवच्छरीरं निरात्मकमप्राणादिमत्त्वप्रसङ्गादिति-न्यायवा० पृ० ४६ । 1 द 'विरुद्धः पाठः । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः चेति । तत्र पञ्चरूपोपपन्नोऽन्वयव्यतिरेकी । यथा - ' शब्दोऽनित्यो भवितुमर्हति कृतकत्वात्, यद्यत्कृतकं तत्तदनित्यं यथा घटः, यद्यदनित्यं न भवति तत्तत् कृतकं न भवति । यथाऽऽकाशम्, तथा चायं कृतकः, तस्मादनित्य एवेति' । अत्र शब्द 'पक्षीकृत्यानित्यत्वं साध्यते । तत्र कृतकत्वं हेतुस्तस्य पक्षीकृतशब्दधर्मत्वात्पक्षधर्मत्वमस्ति । सपक्षे घटादौ वर्त्तमानत्वाद्विपक्षे गगनादववर्त्तमानत्वादस्वयव्यतिरेकित्वम् । ब $ ४३. पक्षसपक्षवृत्तिर्विपक्षरहितः केवलान्वयी । यथा- 'अदृष्टादयः कस्यचित्प्रत्यक्षा अनुमेयत्वात्, यद्यदनुमेयं तत्तत्कस्य'चित्प्रत्यक्षम्, यथाऽग्न्यादि' इति । अत्रादृष्टादयः पक्षः, कस्यचित् प्रत्यक्षत्वं साध्यम्, अनुमेयत्वं हेतुः श्रग्न्याद्यन्वयदृष्टान्तः । अनुमेयत्वं हेतुः पक्षीकृतेऽदृष्टादौ वर्त्तते, सपक्षभूतेऽग्न्यादौ वर्त्तते । ततः पक्षधर्मत्वं सपक्षे सत्त्वं चास्ति । विपक्ष: पुनरत्र नास्त्येव, सर्वस्यापि पक्ष सपक्षान्तर्भावात्तस्माद्विपक्षाद्व्यावृत्तिर्नास्त्येव । 'व्यावृत्तेरवधिसापेक्षत्वात्, अवधिभूतस्य च विपक्षस्याभावात् । शेषमन्वयव्यतिरेकिवद् द्रष्टव्यम् I १ धर्मिणं कृत्वा । २ व्यावृत्तिर्ह्य वधिमपेक्ष्य भवति, अवधिश्च विपक्ष:, स चात्र नास्त्येव । ततोऽवधिभूतविपक्षाभावान्न विपक्षव्यावृत्तिः केवलान्वयिनि ताविति भावः । 1 द आ ' यत्कृतकं तदनित्यं यथा घटः यदनित्यं न भवति तत्कृतकं न भवति' इति पाठः । 2 द 'पक्षान्तर्भावा- ' पाठः । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका ४४. पक्षवृत्तिविपक्षव्यावृत्तः सपक्षरहितो हेतु: केवलव्यतिरेकी । यथा-'जीवच्छरीरं सात्मकं भवितुर्महति प्राणादिमत्त्वात्, यद्यत्सात्मकं न भवति तत्तत्प्राणादिमन्न भवति यथा लोष्ठम् इति । अत्र जीवच्छरीरं पक्षः, सात्मकत्वं साध्यम्, प्राणादिमत्त्वं हेतुः, लोष्ठादिय॑तिरेकदृष्टान्तः । प्राणादिमत्त्वं हेतु: पक्षीकृते जीवच्छरीरे वर्तते। विपक्षाच्च लोष्ठादेावर्त्तते । सपक्षः पुनरत्र नास्त्येव, सर्वस्यापि 1पक्षविपक्षान्तर्भावादिति । शेषं पूर्ववत् । ___६४५. एवमेतेषां त्रयाणां हेतूनां मध्येऽन्वयव्यतिरेकिण एव पाञ्चरूप्यम्, केवलान्वयिनो विपक्षव्या2वृत्तेरभावात्, केवलव्यतिरेकिणः सपक्षे3 सत्त्वाभावाच्च नैयायिकमतानुसारेणैव पाञ्चरूप्यव्यभिचारः । अन्यथानुपपत्तेस्तु सर्वहेतुव्याप्तत्वाद्धेतुलक्षणत्वमुचितम्, 'तदभावे हेतोः स्वसाध्यगमकत्वाघटनात् । ६४६. यदुक्तम्-'असिद्धादिदषपञ्चकनिवारणाय पञ्चरूपाणि' [ ] इति, तन्न; अन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चितत्वस्यैवास्मदभिमतलक्षणस्य तन्निवारकत्वसिद्धेः । तथा हिसाध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वं खलु हेतोर्लक्ष १ अत्र व्यभिचारपदेनाव्याप्तिदोषो विवक्षितः । २ अन्यथानुपपत्तेरभावे । ३ असिद्धादिदोषव्यवच्छेदकत्वप्रसिद्धेः । ४ ननु कथमेकेनान्यथानुपपत्तिलक्षणेनासिद्धादिपञ्चहेत्वाभासानां निराकरणम् ? इत्यत आह तथा हीति। 1 द 'पक्षान्तर्भा-'। 2 आ प म मु 'विपक्षव्यावृत्त्यभावात्' 3 मु 'सपक्षसत्वाभावात्। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः णम्, “साध्याविनाभावित्वेन निश्चितो हेतुः” [परीक्षा० ३-१५] इति वचनात् । न चैतदसिद्धस्यास्ति । शब्दानित्यत्वसाधनायाभिप्रेतस्य चाक्षुषत्वादेः स्वरूपस्यैवाभावे कुतोऽन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्तिः ? ततः साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्त्यभावादेवास्य हेत्वाभासत्वम्, न तु पक्षधर्मत्वाभावात्, 'अपक्षधर्मस्यापि कृत्तिकोदयादेर्यथोक्त लक्षणसम्पत्तेरेव सद्धेतुत्वप्रतिपादनात् । विरुद्धादेस्तदभावः' स्पष्ट एव । न हि विरुद्धस्य व्यभिचारिणो बाधितविषयस्य सत्प्रतिपक्षस्य वा1ऽन्यथानुपपत्तिमत्त्वेन निश्चयपथप्राप्तिरस्ति । तस्माद्यस्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति योग्यदेशनिश्चयपथप्राप्तिरस्तीति स एव सद्धेतुरपरस्तदाभास इति स्थितम् ।। ४७. किंच', 'गर्भस्थो मैत्रीतनयः2 श्यामो भवितुर्महति, मैत्रीतनयत्वात्, सम्प्रतिपन्नमैत्रीतनयवत्' इत्यत्रापि त्रैरूप्य १ साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वम् । २ ‘शब्दोऽनित्यश्चाक्षुषत्वात्' इत्यत्र शब्देऽनित्यत्वसाधनाय प्रयुक्तस्य चाक्षुषत्वहेतोः स्वरूपत्वमेव नास्ति । यतो हि शब्दस्य श्रोत्रग्राह्यत्वम्, न तु चाक्षुषत्वम् । अतो न चाक्षुषत्वादेरन्यथानुपपन्नत्वम् । तदभावादेव चास्यासिद्धत्वमिति ज्ञेयम् । ३ पक्षधर्मरहितस्य । ४ साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वलक्षणसद्भावादेव। ५ साध्यान्यथानुपपत्तिमत्त्वे सति निश्चयपथप्राप्तत्वाभावः । ६ त्ररूप्यपाञ्चरूप्ययोरतिव्याप्तिप्रदर्शनार्थमाह किञ्चेत्यादि । 1 द प्रतौ 'वा' स्थाने 'च' पाठः । 2 या द प्रत्योः सर्वत्र 'मैत्र' स्थाने 'मैत्री' शब्दः प्रयुक्तः । जैनतर्कभाषायां (पृ० १८) स्त्रीलिङ्गवाचको 'मित्रा' शब्दः प्रयुक्तः । Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका पाञ्चरूप्ययोबौद्ध-यौगाभिमतयोरतिव्याप्तेरलक्षणत्वम् । तथा हि-परिदृश्यमानेषु पञ्चसु मैत्रीपुत्रेषु श्यामतामुपलभ्य तद्गर्भगतमपि। विवादापन्नं पक्षीकृत्य श्यामत्वसाधनाय प्रयुक्तो मैत्रीतनयत्वाख्यो हेतुराभास इति तावत्प्रसिद्धम्, अश्यामत्वस्यापि तत्र सम्भावितत्वात्। तत्सम्भावना च श्यामत्वं प्रति मैत्रीतनयत्वस्यान्यथानुपपत्त्यभावात् । तदभावाश्च सहक्रमभावनियमाभावात् । $ ४८. यस्य हि2 धर्मस्य येन धर्मेण सहभावनियमः स तं गमयति । यथा शिशपात्वस्य वृक्षत्वेन सहभावनियमोऽस्तीति शिशपात्वं हेतुर्वृक्षत्वं गमयति । यस्य च3 क्रमभावनियमः स तं गमयति । यथा धूमस्याग्न्यनन्तरभावनियमोऽस्तीति धूमोऽग्नि गमयति । न हि मैत्रीतनयत्वस्य हेतुत्वाभिमतस्य श्यामत्वेन साध्यत्वाभिमतेन सहभावः क्रमभावो वा 4नियमोऽस्ति, येन मैत्रीतनयत्वं हेतु: श्यामत्वं साध्यं गमयेत् । १ लक्षणाभासत्वम् । २ मैत्रीगर्भस्थम् । ३ असद्धेतुः । ४ गर्भस्थे मैत्रीतनये । ५ न हि श्यामत्वेन सह मैत्रीतनयत्वस्यान्यथानुपपत्तिरस्ति, गौरत्वेनापि तस्य वृत्तिसम्भवात् । ६ अन्यथानुपपत्त्यभावः, अन्यथानुपपत्तिरविनाभावः । स च द्विविधः-सहभावनियमः क्रमभावनियमश्च । तदेतद्द्विविधस्याप्यत्राभावादिति भावः । ७ ननु मैत्रीतनयत्वस्य श्यामत्वेन सहभावः क्रमभावो वा नियमोऽस्तु, तथा च मैत्रीतनयत्वं श्यामत्वं गमयेदेव इत्याशङ्कायामाह नहीत्यादि । ___1 द प प्रा 'तद्भार्यागर्भगतमपि' पाठः । 2 द 'हि' नास्ति । 3 श्रा म 'यस्य यत्क्रमभावनियमः' मु 'यस्य येन क्रम...'। 4 द ा प म प्रतिषु 'नियतो' पाठः। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ६३ ४६. यद्यपि सम्प्रतिपन्नमैत्रीपुत्रेषु श्यामत्वमैत्रीतनयत्वयोः सहभावोऽस्ति तथापि नासौ नियतः । मैत्रीतनयत्वमस्तु श्यामत्वं भाऽस्तु इत्येवंरूपे विपक्षे बाधकाभावात् । विपक्षे बाधकप्रमाणबलात्खलु हेतुसाध्ययोव्याप्तिनिश्चयः1 । व्याप्तिनिश्चयतः सहभावः क्रमभावो वा । “सहक्रमभावनियमोऽविनाभावः” [परीक्षा ३-१६] इति वचनात् । 'विवादाध्यासितो वृक्षो भवितुमर्हति शिंशपात्वात्। या या शिशपा स स वृक्षः, यथा सम्प्रतिपन्न इति। अत्र हि हेतुरस्तु साध्यं मा भूदित्येतस्मिन् विपक्षे सामान्य-विशेषभावभङ्गप्रसङ्गो बाधकः। वृक्षत्वं हि सामान्यं शिशपात्वंतद्विशेषः। न हि विशेषः सामान्याभावे सम्भवति। न चैवं मैत्रीतनयत्वमस्तु श्यामत्वं माऽस्तु इत्युक्ते किञ्चिद्बाधकमस्ति । तस्मान्मैत्रीतनयत्वं हेत्वाभास एव । तस्य2 तावत्पक्षधर्मत्वमस्ति, पक्षीकृते १ नियमेन वर्तमानः । २ व्यभिचारशङ्कायाम् । ३ तन्निवर्त्तकानुकूलतर्काभावात् । अत्रायम्भावः ‘हेतुरस्तु साध्यं माऽस्तु' इत्येवं व्यभिचारशङ्कायां सत्यां यदि तन्निवर्तकं 'यदि साध्यं न स्यात्तर्हि हेतुरपि न स्यात् वह्नयभावे धूमाभाववत्' इत्येवंभूतं विपक्षबाधकं प्रमाणमस्ति तदाऽसौ हेतु: सद्धेतुर्भवति, विपक्षबाधकप्रमाणाभावे च न सहेतुः, तथा च 'मैत्रीतनयत्वमस्तु श्यामत्वं माऽस्तु' इत्यत्र श्यामत्वाभावे मैत्रीतनयत्वस्यासत्त्वापादने न खलु 'यदि श्यामत्वं न स्यात्तहि मैत्रीतनयत्वमपि न स्यात्' इत्येवंभूतं किञ्चिद्विपक्षबाधकं वर्त्तते, यतः गर्भस्थे मैत्रीतनये मैत्रीतनयत्वस्य सत्त्वेऽपि श्यामत्वस्य सन्दिग्धत्वादिति । ४ पूर्वोक्तमेव स्पष्टयति विवादाध्यासितेत्यादिना। 1 द 'नियमः । 2 द 'तत्र तावत्प' पाठः । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ न्याय - दीपिका गर्भस्थे तत्सद्भावात् । सपक्षेषु सम्प्रतिपन्नपुत्रेषु 1 तस्य विद्यमान - त्वात्सपक्षे सत्त्वमप्यस्ति । विपक्षेभ्यः पुनरश्यामेभ्यश्चैत्रपुत्रेभ्यो व्यावर्त्तमानत्वाद्विपक्षाद्वयावृत्तिरस्ति । विषयबाधाभावादबाधितविषयत्वमस्ति । न हि गर्भस्थस्य श्यामत्वं केनचिद् बाध्यते । असत्प्रतिपक्षत्वमप्यस्ति, प्रतिकूलसमबलप्रमाणाभावात् । इति पाञ्चरूप्यसम्पत्तिः। त्रैरूप्यं तु 'सहस्रशतन्यायेन 2 सुतरां सिद्धमेव । [ अन्यथानुपपन्नत्वमेव हेतोर्लक्षणमित्युपपादनम् ] $ ५०. ननु च न पाञ्चरूप्यमात्रं हेतोर्लक्षणम् । किं तर्हि ? 'अन्यथानुपपत्त्युपलक्षितमेव लक्षणमिति चेत्; तर्हि "सैवैका तल्लक्षणमस्तु4 'तदभावे पाञ्चरूप्यसम्पत्तावपि मैत्रीतनयत्वादौ न हेतुत्वम् । तत्सद्भावे पाञ्चरूप्याभावेऽपि कृत्तिकोदयादी हेतुत्वमिति । तदुक्तम् — अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ ] इति बौद्धान् प्रति । [ १ गौरेभ्यः । २ विषयः साध्यम्, तच्चात्र श्यामत्वरूपम्, तस्य प्रत्यक्षादिना बाधाभावात् । ३ यथा सहस्र शतमायात्येव तथा मैत्रीतनयत्वे - पाञ्चरूप्यप्रदर्शिते त्रैरूप्यं प्रदर्शितमेवेति बोध्यम् । ४ अन्यथानुपपत्तिविशि ष्टमेव पाञ्चरूप्यं हेतोर्लक्षणमित्यर्थः । ५ अन्यथानुपपत्तिरेवान्यनिरपेक्षा ६ कारणमाह तदभावे इति, तथा च हेतोः स्वसाध्यगमकत्वे अन्यथानुपपन्नत्वमेव प्रयोजकम्, न त्रैरूप्यं न च पाञ्चरूप्यमिति ध्येयम् । ७ कारिकेयं 1 मु 'सम्प्रतिपन्नेषु' | 2 आ मु 'सहस्र शतन्यायेन' | 3 मु ' ग्रन्यथानुपपत्त्युपलक्षणमिति पाठः । 4 प 'सैवैकान्ताल्लक्षणनस्तु' पाठः । भु 'सैवैकान्तलक्षणमस्तु' इति पाठः । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः $ ५१. यौगं1 प्रति तु अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ।। [प्रमाणपरी० पृ० ७२] इति । हेतुं विधिप्रतिषेधरूपाभ्यां द्विधा विभज्य तयोरवान्तर भेदानां कथनम्] ५२. 'सोऽयमन्यथानुपपत्तिनिश्चयैकलक्षणो हेतुः संक्षेपतो द्विविधः-'विधिरूपः, प्रतिषेधरूपश्चेति । विधिरूपोऽपि द्विविधःविधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति । तत्रा द्योऽनेकधा । तद्यथाकश्चित्कार्यरूपः, यथा-'पर्वतोऽयमग्निमान् धूमवत्त्वान्यथानुपपत्तेः' इत्यत्र धूमः । धूमो ह्यग्नेः कार्यभूतस्तदभावे ऽनुपपद्यमानोऽग्नि गमयति । कश्चित्कारणरूपः, यथा-वृष्टिर्भविष्यति तत्त्वसंग्रहकृता पात्रस्वामिकर्तृ का निर्दिष्टा । सिद्धिविनिश्चयटीकाकृता तु भगवत्सीमन्धरस्वामिनः प्रदर्शिता । न्यायविनिश्चयविवरणे आराधनाकथाकोशे च भगवत्सीमन्धरस्वामिसकाशादानीय पद्मावतीदेव्या पात्रस्वामिने समर्पितेति समुल्लिखतम् । समुद्धृता च निम्नग्रन्थेषु तत्त्वसं० पृ० ४०६, न्यायविनि० का० ३२३, सिद्धिविनि० टी० २, पृ० ३७२, धवला पु. १३, पृ. २४६, तत्त्वार्थश्लो० पृ० २०३, २०५ । प्रमाणप० पृ० ७२, जैनतर्कवात्तिक पृ० १३५, सूत्रकृताङ्गटी० पृ० २२५, प्रमाणमी० पृ० ४०, सन्मतिटी० पृ० ५६०, स्या० रत्ना० पृ० ५२१, इत्थं चेयं कारिका जैनपरम्परायां सर्वत्र प्रतिष्ठिता। १ हेतुलक्षणं विस्तरतः प्रदर्याधुना तत्प्रकारनिरूपणार्यमाह सोऽयमिति। २ सद्भावात्मकः । ३ विधिसाधकः। ४ अग्न्यभावे । ५ अनुपपन्नः । I मुद्रितप्रतिषु ‘यौगान्' इति पाठः । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका 'विशिष्टमेघान्यथानुपपत्तेः' इत्यत्र मेघविशेषः । मेघविशेषो हि वर्षस्य कारणं स्वकार्यभूतं वर्षं गमयति । ६५३ 'ननु कार्य कारणानुमापकमस्तु, कारणाभावे कार्यस्यानुपपत्तेः । कारणं तु कार्याभावेऽपि सम्भवति, यथा-धूमाभावेऽपि १ यथा चोक्तम्'गम्भीरगजितारम्भनिभिन्नगिरिगह्वराः । त्वङ्गत्तडिल्लतासङ्गपिसङ्गोत्तुङ्गविग्रहाः ॥'-न्यायम० पृ.१२६ । 'रोलम्बगवलव्यालतमालमलिनत्विषः (तमसन्निभाः)। वृष्टि व्यभिचरन्तीह नैवंप्राया. पयोमुचः ॥-षड्दर्श० २० । ईदृशाः खलु विशिष्टमेघा वृष्टि गमयन्त्येवेति भावः ।। २ सौगतः शङ्कते नन्विति, तेषामयमाशयः-नावश्यं कारणानि कार्यवन्ति भवन्तीति नियमः, अतश्च कारणं न कार्यस्य गमकं व्यभिचारात्, कार्य तु कारणसत्त्वे एव भवति तदभावे च न भवति, अतस्तत्तु गमकमिष्टम् ; तन्न युक्तम् 'यथैव हि किञ्चित् कारणमुद्दिश्य किञ्चत्कार्यम्, तथैव किञ्चित् कार्यमुद्दिश्य किञ्चित् कारणम् । यद्वदेवाजनकं प्रति न कार्यत्वम्, तद्वदेवाजन्यं प्रति न कारणत्वमिति नानयोः कश्चिद्विशेषः । अपि च रसादेकसामग्रयनुमानेन रूपानुमान मिच्छता न्यायवादिनेष्टमेव कारणस्य हेतुत्वम् । यदाह एकसामग्रयधीनस्य रूपादे रसतो गतिः । हेतुधर्मानुमानेन धूमेन्धनविकारवत् ॥ (प्रमाणवा० १-१०) न च वयमपि यस्य कस्यचित् कारणस्य हेतुत्वं ब्रूमः । अपि तु यस्य न मन्त्रादिना शक्तिप्रतिबन्धो न वा कारणान्तरवैकल्यम् ।'—प्रमाणमी० Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः सम्भवन् वह्निः सुप्रतीतः । अत एव वह्निर्न धूमं गमयतीति चेत; तन्न; उन्मीलितशक्तिकस्य कारणस्य कार्याव्यभिचारित्वेन कार्यं प्रति हेतुत्वाविरोधात् । ५४. कश्चिद्विशेषरूपः, यथा-वृक्षोऽयं शिशपात्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र [शिंशपा] । शिशपा हि वृक्षविशेषः सामान्यभूतं वृक्षं गमयति । न हि वृक्षाभावे वृक्षविशेषो घटत इति । कश्चित्पूर्वचरः, यथा-उदेष्यति शकटं कृत्तिकोदयान्यथानुपपत्तेरित्यत्र कृत्तिकोदयः1 । कृत्तिकोदयान्तरं मुहूर्तान्ते नियमेन शकटोदयो जायत इति कृत्तिकोदय: पूर्वचरो हेतुः शकटोदयं गमयति । कश्चिदुत्तरचरः, यथा-उदगाद्भरणिः प्राक्, कृत्तिकोदयादित्यत्र कृत्तिकोदयः । कृत्तिकोदयो हि भरण्युदयोत्तरचरस्तं गमयति । कश्चित्सहचरः, यथा-मातुलिङ्गं रूपवद्भवितुमर्हति रसवत्त्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्र रसः । रसो हि नियमेन रूपसहचरितस्तदभावेऽनुपपद्यमानस्तद् गमयति । १-२-१२। 'रसादेकसामग्रयनुमानेन रूपानुमानमिच्छद्भिरिष्टमेव किंचित् कारणं हेतुर्यत्र सामर्थ्याप्रतिबन्ध-कारणान्तरावैकल्ये।' –परीक्षामु० ३-६० । किञ्च, अस्त्यत्र छाया छत्रादित्यादौ छत्रादेविशिष्टकारणस्य छायादिकार्यानुमापकत्वेन हेतुत्वमवश्यं स्वीकार्यमस्ति । ततो न कारणहेतोरपह्नवः कर्तुं शक्य इति भावः । १ प्रकटितसामर्थ्यस्य । २ विशेषो व्याप्यः । 1 द 'कृत्तिकोदयः' नास्ति । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ £5 न्याय - दीपिका $ ५५ एतेषूदाहरणेषु भावरूपानेवाग्न्यादीन् साधयन्तो धूमादयो हेतवो भावरूपा एवेति विधिसाधक - विधिरूपः । एत 1 एवा विरुद्धोपलब्धय इत्युच्यन्ते । एवं विधिरूपस्य हेतोर्विधिसाधकाख्य ग्राद्यो भेद उदाहृतः । $ ५६. द्वितीयस्तु निषेधसाधकाख्यः, विरुद्धोपलब्धिरिति तस्यैव नामान्तरम् । स यथा - नास्य मिथ्यात्वम्, आस्तिक्यान्यथानुपपत्तेरित्यत्रास्तिक्यम् । प्रास्तिक्यं हि सर्वज्ञवीतरागप्रणीतजीवादितत्त्वार्थ रुचिलक्षणम् । तन्मिथ्यात्ववतो न सम्भवतीति मिथ्यात्वाभावं साधयति । यथा वा, नास्ति वस्तुनि सर्वथैकान्तः, अनेकान्तात्मकत्वान्यथानुपपत्तेरित्यत्राने कान्तात्मकत्वम् 2 । अनेकान्तात्मकत्वं हि वस्तुन्यबाधित प्रतीतिविषयत्वेन प्रतिभासमानं सौगतादिपरिकल्पित सर्वथैकान्ताभावं साधयत्येव । $ ५७. ननु किमिदमनेकान्तात्मकत्वं यद्बलाद्वस्तुनि सर्वथैकान्ताभावः साध्यते इति चेत्; उच्यते ; सर्वस्मिन्नपि जीवादिवस्तुनि भावाभावरूपत्वमेकानेकरूपत्वं नित्यानित्यरूपत्वमित्येवमादिकमनेकान्तात्मकत्वम् । एवं विधिरूपो 'हेतुर्दर्शितः । १ साध्यं साधनं चोभयमपि सद्भावात्मकम् । अत एवोल्लिखिता हेतवो विधिसाधक - विधिरूपा इति कथ्यते । २ ग्रविरुद्धेन साध्येन सहोपलभ्यन्त इत्यविरुद्धोपलब्धयः । ३ एकान्तवादी शङ्कते नन्विति । ४ हेतोर्मूलभेदयोविधि- प्रतिषेधरूपयोविधिरूपः प्रथमभेदः । ५ व्याख्यातः । 1 द प 'अत पाठान्तरम् । 2 द 'हेतुः' इत्यधिको पाठः । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ ३. परोक्ष-प्रकाशः ५८. 'प्रतिषेधरूपोऽपि। हेतुर्द्विविधः-'विधिसाधकः प्रतिषेधसाधकश्चेति। तत्राद्यो यथा, अस्त्यत्र प्राणिनि सम्यक्त्वं विपरीताभिनिवेशाभावात् । अत्र विपरीताभिनिवेशाभावः प्रतिषेधरूपः सम्यक्त्वसद्भावं साधयतीति प्रतिषेधरूपो विधिसाधको हेतुः। ५९. 'द्वितीयो यथा, नास्त्यत्र धूमोऽग्न्यनुपलब्धेरित्य बाग्न्यभावः प्रतिषेधरूपो धूमाभावं प्रतिषेधरूपमेव साधयतीति प्रतिषेधरूपः प्रतिषेधसाधको हेतुः । तदेवं विधिप्रतिषेधरूपतया द्विविधस्य हेतोः कतिचिदवान्तरभेदा उदाहृताः । विस्तरतस्तु परीक्षामुखतः प्रतिपत्तव्या:2 । इत्थमुक्तलक्षणा एव3 हेतवः साध्यं गमयन्ति । "नान्ये, हेत्वाभासत्वात् । [हेत्वाभासानां चातुर्विध्यमुक्त्वा तेषां निरूपणम्] ६०. "के ते हेत्वाभासा: इति चेत् ; उच्यते; हेतुलक्षण १ हेतोद्वितीयभेदं प्रदर्शयति प्रतिषेधेति । २ विधि सद्भावं साधयतीति विधिसाधकः । ३ प्रतिषेधमभावं साधयतीति प्रतिषेधसाधकः । ४ सम्यक्त्वस्य विपरीतं मिथ्यात्वं तस्याभिनिवेशो मिथ्र्यकान्ताग्रहस्तदसत्त्वात् । मिथ्यात्वाभिनिवेशाभावो हि नियमेन जीवे सम्यक्त्वास्तित्वं साधयति, इति भावः । ५ प्रतिषेधसाधको हेतुः । ६ अस्मिन्प्रदेशे । ७ कतिपयाः प्रभेदाः । ८ उदाहरणद्वारा प्रदर्शिताः। ६ अत्र परीक्षामुखस्य ३-५६ सूत्रमारभ्य ३-६२ पर्यन्तसूत्राणि द्रष्टव्यानि। १० अन्यथानुपपन्नत्वविशिष्टाः । ११ अन्यथानुपपत्तिविरहिताः । १२ हेत्वाभासान् प्रदर्शयति के ते, इति । 1 म 'प्रतिषेधरूपः' । 2 द प्रतौ 'प्रतिज्ञातव्याः' इति पाठ: 3 मप आ मु प्रतिषु ‘एव' पाठो नास्ति । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० न्याय - दीपिका रहिता हेतुवदवभासमाना हेत्वाभासाः । ते चतुविधा: - प्रसिद्धविरुद्धानैकान्तिकाकिञ्चित्करभेदात् ' । तत्रानिश्चयपथप्राप्तोसिद्धः । श्रनिश्चयपथप्राप्तिश्च हेतोः स्वरूपाभावनिश्चयात स्वरूपसन्देहाच्च । स्वरूपाभावनिश्चये स्वरूपासिद्ध:, स्वरूप सन्देहे सन्दिग्धासिद्धः । तत्राद्यो यथा - परिणामी शब्दः चाक्षुषत्वादिति । शब्दस्य हि श्रावणत्वाच्चाक्षुषत्वाभावो निश्चित इति स्वरूपा - सिद्धश्चाक्षुषत्वहेतुः । द्वितीयो यथा धूमवाष्पादिविवेकानिश्चये कश्चिदाह - "अग्निमानयं प्रदेशो धूमवत्त्वात्" इति । अत्र हि धूमवत्त्वं हेतुः सन्दिग्धासिद्ध:, तत्स्वरूपे सन्देहात् । I १ तदुक्तं श्रीमद्भट्टाकलङ्क देवैः - अन्यथानुपपन्नत्वरहिता ये विडम्बिता: । हेतुत्वेन परस्तेषां हेत्वाभासत्वमीक्ष्यते ॥ न्यायवि० ० का० ३४३ ।. २ तथा चोक्तम्- 'हेत्वाभासा असिद्धविरुद्धानैकान्तिका किञ्चित्कराः ।' - परीक्षा० ६ - २१ । एतेषां संक्षेपलक्षणानि - स विरुद्धोऽन्यथाभावादसिद्धः सर्वथाऽत्ययात् ॥ व्यभिचारी विपक्षेsपि सिद्धेऽकिञ्चित्करोऽखिलः । प्रमाणसं० का० ४८, ४६ ३ हेत्वाभासानां चतुर्भेदेषु प्रथमोद्दिष्टमसिद्ध लक्षयति तत्रेति । ४ यदुक्तं श्रीमाणिक्यनन्दिभिः - 'प्रविद्यमान सत्ताक : ( स्वरूपासिद्धः ) परिणामी शब्दश्चाक्षुषत्वात् । -- परीक्षा० ६ २३ । ननु कुतोऽस्य चाक्षुषत्वहेतोरसिद्धत्वमिति चेत्तदप्याह 'स्वरूपेणासत्वात्' - परीक्षा ६-२४ इति । ५ उक्तञ्च परीक्षामुखकृता – 'अविद्यमाननिश्चयो ( सन्दिग्धासिद्धः ) Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ६१. साध्यविपरीतव्याप्तो हेतु । विरुद्धः । यथाऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं ह्यपरिणामित्वविरोधिना परिणामित्वेन व्याप्तम् । १०१ ६२. पक्षसपक्षविपक्षवृत्तिरनैकान्तिकः । स द्विविध:निश्चितविपक्षवृत्तिकः शङ्कितविपक्षवृत्तिकश्च । तत्राद्यो यथा, धूमवानयं प्रदेशोऽग्निमत्त्वादिति । अत्राग्निमत्त्वं पक्षीकृते सन्दिह्यमानधूमे पुरोवर्तिनि प्रदेशे वर्त्तते, सपक्षे धूमवति महानसे 2 वर्त्तते, विपक्षे घूमरहितत्वेन निश्चितेऽङ्गारावस्थापन्नाग्निमति प्रदेशे वर्त्तते इति निश्चयान्निश्चित विपक्षवृत्तिकः । द्वितीयो यथा, मुग्धबुद्धि प्रत्यग्निरत्र धूमात्' इति । ' तस्य वाष्पादिभावेन भूतसङ्घाते सन्देहात् ' - परीक्षा० ६-२६ । को 'साध्याभावव्याप्तो हेतुविरुद्धः । यथा - शब्दो नित्यः कृतकत्वादिति । कृतकत्वं हि नित्यत्वाभावेनाऽनित्यत्वेन व्याप्तम्' – तर्कसं० पृ० ११२ । 'विपरीत निश्चिताविनाभावो विरुद्धोऽपरिणामी शब्दः कृतकत्वात्'– परीक्षा० ६ २६ । २ यः स्वोत्पत्तौ परव्यापारमपेक्षते स कृतक उच्यते । शब्दोऽपि ताल्वादिपरिस्पन्दव्यापारमपेक्ष्य जन्यते । अतस्तस्य कृतकत्वं सुव्यक्तमेव । यच्च कृतकं तत्परिणामि दृष्टं यथा घटपटादि । तथा चात्र कृतकत्वं साध्यभूतापरिणामित्वविपरीतेन परिणामित्वेन सह व्याप्तत्वाद्विरुद्धमिति भावः । ३ 'विपक्षेऽप्यविरुद्धवृत्तिरनैकान्तिकः - परीक्षा० ६ ३० । ४ उदाहरणान्तरम् - निश्चितवृत्तिरनित्यः शब्दः प्रमेयत्वात् घटवत्' - परीक्षा० ६ ३१ । 'आकाशे नित्येऽप्यस्य निश्चयात्' – परीक्षा ६-३२ । 1 प म मु ' हेतु:' नास्ति । 2 द 'च' नास्ति । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ न्याय-दीपिका गर्भस्थो मैत्रीतनयः श्यामो भवितुमर्हति मैत्रीतनयत्वादितरतत्तनयवदिति। अत्र मैत्रीतनयत्वं हेतुः पक्षीकृते गर्भस्थे वर्त्तते, सपने इतरतत्पुत्रे वर्त्तते, विपक्षे अश्यामे वतापीति1शङ्काया अनिवृत्तेः शङ्कितविपक्षवृत्तिकः । अपरमपि शङ्कितविपक्षवृत्तिकस्योदाहरणम्-अर्हन् सर्वज्ञो न भवितुमर्हति2 वक्तृत्वात् रथ्यापुरुषवदिति। वक्तृत्वस्य हि हेतोः पक्षीकृते अर्हति, सपक्षे रथ्यापुरुषे यथा वृत्तिरस्ति तथा विपक्षे सर्वज्ञेऽपि वृत्तिः सम्भाव्येत3, वक्तृत्वज्ञातृत्वयोरविरोधात् । यद्धि येन सह विरोधि तत्खलु तद्वति न वर्त्तते । न च वचन-ज्ञानयोर्लोके विरोधोऽस्ति, प्रत्युत ज्ञानवत एव वचनसौष्ठवं स्पष्ट दृष्टम् । ततो ज्ञानोत्कर्षवति सर्वज्ञे वचनोत्कर्षे काऽनुपपत्तिरिति ? ६३. 'अप्रयोजको4 हेतुरकिञ्चित्करः । स द्विविधः-सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति। तत्राद्यो यथा, शब्दः श्रावणो भवितुमर्हति शब्दत्वादिति । अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्दनिष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धेतुरकिचित्करः। बाधितविषयस्त्वनेकधा। कश्चित्प्रत्यक्षबाधितविषयः, यथा-अनुष्णोऽग्निद्रव्यत्वादिति । अत्र द्रव्यत्वं हेतुस्तस्य विषयत्वेनाभिमतमनुष्णत्वमुष्णत्वग्राहकेण स्पार्शनप्रत्यक्षेण बाधितम् । ततःकिञ्चिदपि कर्तुमशक्यत्वादकिंचित्करो १ ननु किं नामाप्रयोजकत्वमिति चेत्, अन्यथासिद्धत्वमप्रयोजकत्वम्, साध्यसिद्धि प्रत्यसमर्थत्वनित्यर्थः । 1 म प मु प्रतिषु 'वर्त्तते नापीति' पाठः। 2 प म मु 'न भवति' । 3 म मु 'सम्भाव्यते' प 'सम्भाव्येति' पाठः। 4 द म 'अथाप्रयोजको' । 5 द प 'स्पर्शनेन प्रत्यक्षेण' । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १०३ द्रव्यत्वहेतुः। कश्चित्पुनरनुमानबाधितविषयः, यथा-अपरिणामी शब्दः कृतकत्वादिति । अत्र परिणामी शब्द: प्रमेयत्वादित्यनुमातेन बाधितविषयत्वम् । कश्चिदागमबाधितविषयः, यथाप्रेत्यासुखप्रदो धर्मः पुरुषाश्रितत्वादधर्मवदिति । अत्र धर्मः सुखप्रद इत्यागमस्तेन बाधितविषयत्वं हेतोः । कश्चित्स्ववचनबाधितविषयः, यथा-मे माता बन्ध्या पुरुषसंयोगेऽप्यगर्भत्वात्प्रसिद्धबन्ध्यावत् । एवमादयोऽप्यकिञ्चित्करविशेषाः स्वयमूह्याः । तदेवं हेतुप्रसङ्गाद्धेत्वाभासा अवभासिताः । [उदाहरणस्य निरूपणम् ६६४. ननु व्युत्पन्न प्रति यद्यपि प्रतिज्ञाहेतुभ्यामेव पर्याप्तं तथापि बालबोधार्थ ।मुदाहरणादिकमप्यभ्युपगत2माचार्यैः । उदा १ एतत्सर्वमभिप्रेत्य सूत्रमाहुः-'सिद्धे प्रत्यक्षादिबाधिते च साध्ये हेतुरकिञ्चित्करः'-परीक्षा० ६-३५ । २ चिन्तनीयाः । ३ प्रकाशिता निरूपिता इत्यर्थः । ४ तथा हि-प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगोपगमात् । यथैव हि कस्यचित्प्रतिबोध्यस्यानुरोधेन साधनवाक्ये सन्धाऽभिधीयते (तथा) दृष्टान्तादिकमपि —पत्रपरी० पृ० ३ । कुमारनन्दिभट्टारकैरप्युक्तम् प्रतिपाद्यानुरोधेन प्रयोगेषु पुनर्यथा । प्रतिज्ञा प्रोच्यते तज्जैस्तथोदाहरणादिकम् ॥ पत्रपरी. पृ. ३ उद्धृतम् । श्रीमाणिक्यनन्द्यप्याह-'बालव्युत्पत्त्यर्थं तत्त्रयोपगमे शास्त्र एवासौ, न वादेऽनुपयोगात् ।' परीक्षा० ३-४६ । श्रीयशोविजयसूरिणाऽप्युक्तम् 1 द 'बोधनार्थं । 2 म 'मभ्युपगन्तत्य', मु 'मभ्युपगत' । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका हरणं च सम्यग्दृष्टान्तवचनम् । कोऽयं दृष्टान्तो नाम इति चेत्, उच्यते; व्याप्तिसम्प्रतिपत्तिप्रदेशो दृष्टान्तः । व्याप्तिर्हि साध्ये वह्नयादौ सत्येव साधनं धूमादिरस्ति, असति तु नास्तीति साध्यसाधननियतसाहचर्य लक्षणा । एतामेव2 साध्यं विना साधनस्याभावादविनाभावमिति च व्यपदिशन्ति । तस्याः सम्प्रतिपत्तिर्नाम वादिप्रतिवादिनोर्बुद्धिसाम्यम्', सैषा यत्र सम्भवति स सम्प्रतिपत्तिप्रदेशो महानसादिर्हदादिश्च । तत्रैव धूमादौ सति नियमेनाऽग्यादिरस्ति, अग्न्याद्यभावे नियमेन धूमादिर्नास्तीति सम्प्रतिपत्तिसम्भवात्। तत्र महानसादिरन्वयदृष्टान्तः । अत्र साध्यसाध'मन्दमतींस्तु व्युत्पादयितुं दृष्टान्तादिप्रयोगोऽप्युपयुज्यते'-जैनतर्कभाषा पृ.१६ १ 'सम्यग्दृष्टान्ताभिधानमुदाहरणम्'-न्यायसार पृ०१२ । 'दृष्टान्तवचनमुदाहरणम्'–न्यायकलिका पृ० ११ । २ यथा चोक्तम् सम्बन्धो यत्र निर्जातः साध्यसाधनधर्मयोः । स दृष्टान्तः तदाभासाः साध्यादिविकलादयः ॥ -न्यायविनि० का० ३८० । ३ 'लौकिकपरीक्षकाणां यस्मिन्नर्थे बुद्धिसाम्यं स दृष्टान्तः'-न्यायसू० १-१-२५ । 'तत्र दृष्टान्तो नाम यत्र मूर्खाविदुषां बुद्धिसाम्यं'चरकसं० पृ० २६३ । 'दृष्टान्तवचनं हि यत्र पृथग्जनानामार्याणां च बुद्धिसाम्यं तदा वक्तब्यम् । दृष्टान्तो द्विविधः-सम्पूर्णदृष्टान्त आंशिकदृष्टान्तश्च'—उपायहृदय पृ० ५। ४ 'दृष्टान्तो द्वेधा, अन्वयव्यतिरेकभेदात्' 'साध्यव्याप्तं साधनं यत्र प्रदर्श्यते सोऽन्वयदृष्टान्तः'-परीक्षा० ३-४७,४८ । 'दृष्टान्तो द्विविध: साधयेण वैधhण च । तत्र साधhण तावत्, '1 म मु नियतता साहचर्य' । २ प म मु 'एनामेव' । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १०५ नयोर्भावरूपान्वयसम्प्रतिपत्तिसम्भवात् । ह्रदादिस्तु व्यतिरेकदृष्टान्तः', अत्र साध्यसाधनयोरभावरूपव्यतिरेकसम्प्रतिपत्तिसम्भवात्। दृष्टान्तौ चैतौ, दृष्टावन्तौ धमौं साध्यसाधनरूपौ नयत्र स दृष्टान्त इत्यर्थानुवृत्तेः । ६६५. उक्तलक्षणस्य दृष्टान्तस्य यत्सम्यग्वचनं तदुदाहरणम् । - न च वचनमात्रमयं दृष्टान्त इति । किन्तु दृष्टान्तत्वेन वचनम् । । तद्यथा-यो यो धूमवानसावसावग्निमान्, यथा महानस इति । यत्राग्निर्नास्ति तत्र धूमोऽपि नास्ति, यथा महाह्रद इति च । एवंविधेनैव वचनेन दृष्टान्तस्य दृष्टान्तत्वेन प्रतिपादनसम्भवात् । [उदाहरणप्रसङ्गादुदाहरणाभासस्य कथनम्] ६६. उदाहरणलक्षणरहित उदाहरणवदवभासमान उदाहरणाभासः । उदाहरणलक्षणराहित्यं 1 द्वेधा सम्भवति, दृष्टान्तस्यासम्यग्वचनेनादृष्टान्तस्य सम्यग्वचनेन वा। तत्राद्यं यथा, यो यत्र हेतोः सपक्ष एवास्तित्वं ख्याप्यते । तद्यथा—यत्कृतकं तदनित्यं दृष्टम्, यथा घटादिरिति ।-न्यायप्र० पृ० १,२ । यत्र प्रयोज्यप्रयोजकभावेन साध्यसाधनधर्मयोरस्तित्वं ख्याप्यते स साधर्म्यदृष्टान्तः ।'न्यायकलिका पृ० ११ ।। १ 'साध्याभावे साधनाभावो यत्र कथ्यते स व्यतिरेकदृष्टान्तः'परीक्षा० ३-४६ । 'यत्र साध्याभावप्रयुक्तो हेत्वभावः ख्याप्यते स वैधर्म्यदृष्टान्तः'-न्यायकलिका पृ० ११ । “वैधयेणाऽपि, यत्र साध्याभावे हेतोरभाव एव कथ्यते । तद्यथा-यन्नित्यं तदकृतकं दृष्टम्, यथाऽऽकाशमिति ।-न्यायप्र० पृ० २ । 1 म मु 'च' अधिकः । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ न्याय - दीपिका योऽग्निमान् 1 स स धूमवान्, यथा महानस इति 2, यत्र यत्र धूमो नास्ति तत्र तत्राऽग्निर्नास्ति, यथा महाह्रद इति च व्याप्यव्यापकयोर्वैपरीत्येन कथनम् । $ ६७. ननु किमिदं व्याप्यं व्यापकं नाम इति चेत्; उच्यते; साहचर्यनियमरूपां व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्म तद्वयाप्यम्, विपूर्वादापेः कर्मणि यद्विधानाद्वयाप्यमिति सिद्धत्वात् । तत्तु व्याप्यं धूमादि । एतामेव व्याप्तिक्रियां प्रति यत्कर्तृ तद्वयापकम्, व्यापेः कर्तरि वुलि4 सति व्यापकमिति सिद्धेः । एवं सति धूम १ 'यत्र यत्र धूमस्तत्र तत्र वह्निरिति साहचर्यनियमो व्याप्तिः - तर्कसं० पृ० ६१ । २ अत्रेदं बोध्यम् - साहचर्यनियमरूपां व्याप्तिमाश्रित्य व्याप्यव्यापकयोव्युत्पत्तिमुखेन लक्षणं प्रदर्शयता ग्रन्थकृता व्याप्तेरुभयधर्मत्वं प्रकटितम् । प्रमाणमीमांसाकृताऽपि तथैवोक्तम् — 'व्याप्तिः' इति यो व्याप्नोति यश्च व्याप्यते तयोरुभयोर्धर्मः । तत्र यदा व्यापकधर्मतया विवक्ष्यते तदा व्यापकस्य गम्यस्य व्याप्ये धर्मे सति, यत्र धर्मिणि व्याप्यमस्ति तत्र सर्वत्र भाव एव व्यापकस्य स्वगतो धर्मो व्याप्तिः । ततश्च व्याप्यभावापेक्षा व्याप्यस्यैव व्याप्तताप्रतीतिः । यदा तु व्याप्यधर्मतया व्याप्तिविवक्ष्यते तदा व्याप्यस्य वा गमकस्य तत्रैव व्यापके गम्ये सति यत्र धर्मिणि व्यापको ऽस्ति तत्रैव भावः, न तदभावेऽपि व्याप्तिरिति । - प्रमाणमी०पृ. ३८ । इत्थं च व्याप्तेर्व्याप्यव्यापकोभयधर्मत्वेऽपि व्याप्यस्यैव धूमादेर्गमकत्वम्, व्यापकस्यैव च बह्वयादेर्गम्यत्वम्, विशिष्टव्याप्तिसद्भावात् । व्याप्यस्य 1 आम सु प 'वह्निमान्' । अग्रेतनव्याप्तिस्थाग्निशब्दप्रयोगापेक्षया द प्रतेरेव 'अग्निमान्' पाठो मूले निक्षिप्तः । 2 द ' इत्यादि' । 3 म मुप 'एनामेव' । 4 मु ण्वौ', द ' ण्वणि' । COME Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १०७ नियोप्नोति, यत्र धूमो वर्त्तते तत्र नियमेनाग्निवर्त्तते इति, सावत्सर्वत्र धूमवति नियमेनाग्निदर्शनात् । धूमस्तु न तथाऽग्नि व्याप्नोति, तस्याङ्गारावस्थस्य धूमं विनापि वर्तनात्।। यत्राग्नितते तत्र नियमेन धूमो2 वर्त्तते इत्यसम्भवात् । ६८. 'नन्वाइँन्धनमग्नि व्याप्नोत्येव धूम इति चेत् ; अोमिति ब्रमहे । यत्र यत्राविच्छिन्नमूलो3 धूमस्तत्र तत्राग्निरिति यथा, तथैव4 यत्र यत्राऽऽर्दैन्धनोऽग्नि: तत्र तत्र धूम इत्यपि सम्भवात् । वह्निमात्रस्य तु धूमविशेषं प्रति व्यापकत्वमेव, व्यापकेनैव सहोपलब्धः, व्यापकस्य तु व्याप्याभावेऽप्युपलब्धेरिति भावः । इदं च बौद्धविदुषाऽर्चटेनापि हेतुबिन्दुटीकायां निरूपितम् । व्याप्यव्यापकमधिकृत्यात्र श्लोकः : व्यापकं तदतन्निष्ठं व्याप्यं तन्निष्ठमेव च । साध्यं व्यापकमित्याहुः साधनं व्याप्यमुच्यते ॥' प्रमाणमी० टि० पृ० ३७ । १ अथ नायं नियमः यत् 'अग्निरेव धूमं व्याप्नोति, न धूमोऽग्निम्' इति, घमस्याऽप्याऽऽर्टेन्धनाग्निव्यापकत्वदर्शनात् 'यत्राऽऽर्द्वन्धनोऽग्निवर्त्तते तत्र नियमेन घूमो वर्तते' इति, यावत्सर्वत्राऽऽइँन्धनवति धूमोपलब्धः, तथा चाग्नेरपि धूमवद्वयाप्यत्वम्, ततश्च तस्यापि गमकत्वं स्वीकार्यमित्याशयेन शङ्कते नन्विति । २ समाधत्ते अोमिति । आ.न्धनस्याग्ने—मव्याप्यत्वेऽपि वह्निसामान्यस्य तु व्यापकत्वमेव । ततो नोक्तदोष इति भावः । ३ वह्निसामान्यस्य । ४ न व्याप्यत्वमित्यर्थः । 1 प्रा 'वर्तमानात्', म मु 'वर्तमानत्वात्' 2 ा म मु 'तत्र धूमोऽपि नियमेन' । 3 द 'यत्र यत्रानवच्छिन्नमूलो' । 4 द 'तथा'। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ न्याय-दीपिका अनुमानस्य तावन्मात्रा1 पेक्षत्वात् । ततो यो यो धूमवानसावसावग्निमान्, यथा महानस इत्येवं सम्यग्दृष्टान्तवचनं वक्तव्यमा विपरीतवचनं तु दृष्टान्ताभास एवेत्ययमसम्यग्वचनरूपोऽन्वयदृष्टान्ताभासः । व्यतिरेकव्याप्तौ तु व्यापकस्याग्नेरभावो व्याप्यः, व्याप्यस्य धूमस्याभावो व्यापकः । तथा सति यत्र यत्राऽग्न्यभावस्तत्र तत्र धूमाभावो यथा ह्रद इत्येवं वक्तव्यम् । विपरीतकथनंत, असम्यग्वचनत्वादुदाहरणाभास एव । अदृष्टान्तवचनं2 तु, अन्वयव्याप्तौ व्यतिरेकदृष्टान्तवचनम्, व्यतिरेकव्याप्तावन्वयदृष्टान्तवचनं च, उदाहरणाभासौ। स्पष्टमुदाहरणम् । - ६६६. ननु गर्भस्थो मैत्रीतनयः3 श्यामः, मैत्रीतनयत्वातं, साम्प्रत4मैत्रीतनयवत् इत्याद्यनुमानप्रयोगे पञ्चसु मैत्रीतनयेष्वन्वयदृष्टान्तेषु 'यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं तत्र तत्र श्यामत्वम् इत्यन्वयव्याप्तेः, व्यतिरेकदृष्टान्तेषु गौरेष्वमैत्रीतनयेषु सर्वत्र 'यत्र यत्र १ ‘पर्वतो वह्निमान् धूमात्' इत्यनुमाने वह्निसामान्यस्यापेक्षणात्, न तु वह्निविशेषस्य । नातो कश्चिद्दोष इति भावः । २ अन्वयदृष्टान्ताभासो द्विविध:-दृष्टान्तस्यासम्यग्वचनमदृष्टान्तस्य सम्यग्वचनं च, तत्रायमाद्यः । ३ अन्वयदृष्टान्ताभासस्य ( उदाहरणाभासस्य ) द्वितीयभेदमदृष्टान्तस्य सम्यग्वचनाख्यं दर्शयति अदृष्टान्तेति । ४ अनयोरुदाहरणाभासयोरुदाहरणं स्पष्टमेवेत्यर्थः । 1 'अनुमातुस्तावन्मात्रा' इति म मु पाठः। 2 मु 'अदृष्टान्तवचनं' नास्ति । तत्र त्रुटितोऽयं पाठः। 3 मु 'मैत्रीतनयः' नास्ति । 4 द प 'सम्मत' पाठः । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष- प्रकाशः १०६ श्यामत्वं नास्ति तत्र तत्र मैत्रीतनयत्वं नास्ति' इति व्यतिरेकव्याप्तेश्च सम्भवान्निश्चितसाधने गर्भस्थमंत्रीतनये पक्षे साध्यभूतश्यामत्वसन्देहस्य'गुणत्वात् । सम्यगनुमानं प्रसज्येदिति चेत्; न; दृष्टान्तस्य विचारान्तरबाधितत्वात् । $ ७०. तथा हि- साध्यत्वेनाभिमतमिदं हि श्यामत्वरूपं 2 कार्य सत् स्वसिद्धये कारणमपेक्षते । तच्च कारणं न तावन्मैत्रीतनयत्वम्, विनाऽपि तदिदं पुरुषान्तरे' श्यामत्वदर्शनात् । न हि कुलालादिकमन्तरेण सम्भविनः पटस्य कुलालादिकं कारणम् । एवं मैत्रीतनयत्वस्य श्यामत्वं प्रत्यकारणत्वे निश्चिते यत्र यत्र मैत्रीतनयत्वं न तत्र तत्र श्यामत्वम्, किन्तु यत्र तत्र श्यामत्वस्य कारणं विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामस्तत्र तत्र तस्य कार्यं श्यामत्वम् इति सिद्धं सामग्रीरूपस्य विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामस्य श्यामत्वं प्रति व्याप्यत्वम् । स तु पक्षे' न १ अतो गर्भस्थे श्यामत्वस्य सन्देहो गौणः, स च न मैत्रीतनयत्वहेतोः समीचीनत्वे बाधकः । तथा च तत्समीचीनमेंवानुमानमिति शङ्कितुर्भावः । २ मैत्रीतनयत्वम् । ३ मैत्रीपुत्रभिन्नपुरुषे । ४ ततो न मैत्रीतनयत्वमन्तरेण जायमानं श्यामत्वं प्रति मैत्रीतनयत्वं कारणमिति भावः । ५ इत्थं च । ६ श्यामत्वजनिका सामग्री, सा चात्र विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाच्चाहारपरिणामः, तत्सत्त्वे एव श्यामत्वसत्त्वम्, तदभावे च तदभाव इति भावः । ७ विशिष्टनामकर्मानुगृहीतशाकाद्याहारपरिणामः | ८ गर्भस्थे मैत्रीतनये I 1 म 'गोणत्वा' । 2 द श्रा ममु 'श्यामरूपं । 3श्रा प म मु -कुलालचक्रादिकमन्तरेणापि । Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० न्याय-दीपिका निश्चीयत' इति सन्दिग्धासिद्धः । मैत्रीतनयत्वं तुअकारणत्वादेव। श्यामत्वं कार्य न गमयेदिति । ___ ७१. केचित्2 "निरुपाधिक: सम्बन्धो व्याप्तिः" [ ] इत्यभिधाय "साधनाव्यापकत्वे सति साध्यसमव्याप्तिरूपाधि:५' [ ] इत्यभिदधते । सोऽयमन्योन्या १ श्यामत्वसामग्रयन्तर्गतविशिष्टनामकर्मादेरतीन्द्रियत्वान्निश्चयासम्भवात् । २ मैत्रीतनयत्वस्य श्यामत्वं प्रति कारणत्वाभावादेव। ३ ननु नाकरणत्वान्मैत्रीतनयत्वं श्यामत्वं प्रत्यगमकम्, अपि तु व्याप्त्यभावात् । व्यप्तिर्हि निरुपाधिकः सम्बन्धः। स चात्र नास्त्येव, शाकपाकजत्वोपाधिसत्त्वेन मैत्रीतनयत्वस्य निरुपाधिकत्वासम्भवादिति केषाञ्चिदाशयं प्रदर्शयन्नाह केचिदिति। केचित् नैयायिकादय इत्यर्थः । ४ 'ननु कोऽयं प्रतिबन्धो नाम ? अनौपाधिकः सम्बन्ध इति ब्रूमः ।'—किरणावली पृ० २६७ । अनौपाधिक: सम्बन्धो व्याप्तिः । अनौपाधिकत्वं तु यावत्स्वव्यभिचारिव्यभिचारिसाध्यसामानाधिकरण्यम्, यावत्स्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिप्रतियोगिकात्यन्ताभावसमानाधिकरणसाध्यसामानाधिकरण्यं वा । यावत्साधनाव्यापकाव्याप्यसाध्यसामानाधिकरण्यमिति निरुक्तिद्वयार्थः ।'–वैशेषिकसूत्रोपस्कार पृ० ६२ । ५ 'साधने सोपाधिः साध्ये निरूपाधिरेवोपाधित्वेन निश्चेयः। xxx उपाधिलक्षणं तु साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापत्वमित्युक्तमेव ।'-किरणावली पृ० ३००, ३०१ । 'नन्वनौपाधिकत्वमुपाधिविरहः, उपाधिरेव दुष्परिकलनीय इति चेन्न; साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वस्योपाधित्वात् । तदुक्तम्-साधने सोपाधिः साध्ये निरुपाधिरुपाधिः ।- वैशेषिकसूत्रोपस्कार पृ० ६३ । 'साध्यव्यापकत्वे सति साधनाऽव्यापकत्वमुपाधिः । साध्यसमानाधिकरणाऽत्यन्ताभावा 1 म 'अकारणादेव' । 2 मु कश्चित्' । 3 मु 'अभिधत्ते' । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः श्रयः । प्रपञ्चितमेतदुपाधिनिराकरणं कारुण्यकलिकायामिति विरम्यते। [उपनयनिगमनयोस्तदाभासयोश्च लक्षणकथनम् ] ७२. साधनवत्तया पक्षस्य दृष्टान्तसाम्यकथनमुपनयः-तथा चायं धूमवानिति । साधनानुवादपुरस्सरं साध्यनियमवचनं निगप्रतियोगित्वं साध्यव्यापकत्वं । साधनवनिष्ठाऽत्यन्ताभावप्रतियोगित्वं साधनाऽव्यापकत्वम् । यथा-'पर्वतो धूमवान् वह्निमत्त्वात्' इत्यत्राऽऽर्द्वन्धनसंयोग उपाधिः । तथा हि-'यत्र धृमस्तत्राऽऽर्टेन्धनसंयोगः' इति साध्यव्यापकत्वम्, 'यत्र वह्निस्तत्राऽऽन्धनसंयोगो नास्ति' अयोगोलके आर्द्वन्धनसंयोगाभावादिति साधनाऽव्यापकत्वम् । एवं साध्यव्यापकत्वे सति साधनाऽव्यापकत्वादा.न्धनसंयोग उपाधिः ।'–तर्कसं० पृ० ११४ । 'उपाधिश्चतुर्विधः-केवलसाध्यव्यापकः, पक्षधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकः, साधनावच्छिन्नसाध्यव्यापकः, उदासीनधर्मावच्छिन्नसाध्यव्यापकश्चेति । आद्य:आर्दैन्धनसंयोगः । द्वितीयो यथा—'वायुः प्रत्यक्षः प्रत्यक्षस्पर्शाश्रयत्वात्' इत्यत्र बहिर्द्रव्यत्वावच्छिन्नप्रत्यक्षत्वव्यापकमद्भूतरूपवत्त्वम् । तृतीयो यथा –'प्रागभावो विनाशी जन्यत्वात्' इत्यत्र जन्यत्वावच्छिन्नानित्यत्वव्यापक भावत्वम् । चतुर्थस्तु 'प्रागभावो विनाशी प्रमेयत्वात्' इत्यत्र जन्यत्वावच्छिन्नानित्यत्वव्यापकं भावत्वम् ।'–तर्कदी० पृ० ११४-११६ । १ व्याप्तिलक्षणस्योपाधिगर्भत्वादुपाधिलक्षणस्य च व्याप्तिघटितत्वात् । तथा च व्याप्तिग्रहे सति उपाधिग्रहः स्यात् उपाधिग्रहे च सति व्याप्तिग्रहः स्यादित्येवमन्योन्याश्रयः । यथा चोक्तम्-नाप्यनौपाधिकः सम्बन्धः, उपाधेरेव दुर्वचत्वात् । सुवचत्वेऽपि दुर्ग्रहत्वात्, सुग्रहत्वेऽप्यन्योन्याश्रयात् । साध्यव्यापकत्वे सति साधनाव्यापकत्वादेर्व्याप्तिग्रहाधीनग्रहत्वात् ।'–वैशेषिकसूत्रोप० पृ० ६० । Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ न्याय-दीपिका मनम्-तस्मादग्निमानेवेति । अनयोर्व्यत्ययेन' कथनमनयोराभासः । अवसित 1मनुमानम् । ___ [परोक्षप्रमाणभेदस्यागमस्य निरूपणम् ] ७३. 'अथागमो लक्ष्यते2 । प्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः । अत्रागम इति लक्ष्यम् । अवशिष्टं लक्षणम् । अर्थज्ञानमित्येवंतावत्युच्यमाने प्रत्यक्षादावतिव्याप्तिः, अत उक्तं वाक्यनिबन्धनमिति । वाक्यनिबन्धमर्थज्ञानमित्युच्यमानेऽपि 5यादच्छिकसंवादिषु विप्रलम्भवाक्यजन्येषु सुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसर्गादिज्ञानेष्वतिव्याप्तिः, अत उक्तमाप्तेति । आप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमानेऽप्याप्तवाक्यकर्मके श्रावणप्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिः, अत उक्तमर्थेति । अर्थस्तात्पर्यरूढ:6 [प्रयोजनारूढ] इति यावत् । अर्थ एव7 'तात्पर्य मेव वचसि'[ ] .. १ विपरीतक्रमेण, क्रमभङ्ग नेत्यर्थः । २ निर्णीतम् । ३ विस्त रतोऽनुमानं प्ररूप्याधुना क्रमप्राप्तमागमं लक्षयति अथेति । ४ 'प्राप्तवचनादिनिबन्धनमर्थज्ञानमागमः' । परीक्षा-३-१९ । प्राप्तस्य वाक्यं वचनं तन्निबन्धनं यस्यार्थज्ञानस्येत्याप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमिति । अत्र 'आप्तशब्दोपादानादपौरुषेयत्वव्यवच्छेदः । अर्थज्ञानमित्यनेनान्यापोहज्ञानस्याभिप्रायसूचनस्य च निरासः।-प्रमेयर० पृ. १२५ । ५ प्राप्तो यथार्थवक्ता। ६ उक्तं च-'अर्थज्ञान मित्येतावत्युच्यमाने प्रत्यक्षादावतिव्याप्तिरत उक्तं वाक्यनिबन्धनमिति । वाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमित्युच्यमानेऽपि यादृच्छिकसंवादिषु विप्रलम्भ. 1 मु 'इत्यवसित' । 2 द 'लिख्यते'। 3 द 'तत्रागम'। 4 म मु 'तावदुच्यमा' । 5 द 'यादृग्विसंवादिविप्रलम्भ'। 6 म म प 'तात्पर्य रूप'। 7 मु 'अर्थ एव' नास्ति । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ११३ इत्यभियुक्तवचनात् । तत प्राप्तवाक्यनिबन्धनमर्थज्ञानमित्युक्तमागमलक्षणं निर्दोषमेव । यथा-"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः” [तत्त्वार्थसू० १-१] इत्यादिवाक्यार्थज्ञानम् । सम्यग्दर्शनादीनि1 मोक्षस्य सकलकर्मक्षयस्य मार्ग उपायः, न तु मार्गाः । ततो भिन्नलक्षणानां दर्शनादीनां त्रयाणां समुदितानामेव मार्गत्वम्, न तु प्रत्येकमित्ययमर्थो मार्ग इत्येकवचनप्रयोगतात्पर्य2 सिद्धः । अयमेव वाक्यार्थः । अत्रैवार्थे प्रमाणसाध्या संशयादिनिवृत्तिः3 प्रमितिः। [आप्तस्य लक्षणम् ] ७४. 'कः पुनरयमाप्तः इति चेत् ; उच्यते ; प्राप्तः प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थत्वे सति परमहितोपदेशकः । प्रमितेत्यादावेवोच्यमाने श्रुतकेवलष्वतिव्याप्तिः, तेषामागमप्रमितसकलार्थत्वात् । वाक्यजन्येषु सुप्तोन्मत्तादिवाक्यजन्येषु वा नदीतीरफलसंसर्गादिज्ञानेष्वतिव्याप्तिः, अत उक्तमाप्तेति । प्राप्तवाक्यनिबन्धनज्ञानमित्युच्यमानेऽप्याप्तवाक्यकर्मके (कारणे) श्रावणप्रत्यक्षेऽतिव्याप्तिरत उक्तमर्थेति । अर्थस्तात्पर्यरूढः, प्रयोजनारूढ इति यावत् । तात्पर्य मेव वचसीत्यभियुक्तवचनात वचसां प्रयोजनस्य प्रतिपादकत्वात्।'-प्रमेयक० टि० पृ०३६१। प्रमेयर० टि० पृ० १२४ । १ आप्तस्य स्वरूपं जिज्ञासमानः परः पृच्छति कः पुनरयमाप्त इति । २ 'तत्राप्तिः साक्षात्करणादिगुणः "सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः कस्यचित्प्रत्यक्षाः" इत्यादिना साधितः'। अष्टश० अष्टस० पृ० २३६ । तया विशिष्टो योऽसावाप्त इति भावः । ३ श्रुतकेवलिनो हि श्रुतेन सकलार्थान् प्रतिपद्यन्ते । ॐ 1 मु प 'दीन्यनेकानि', म 'दीन्येतानि'। 2 मु 'प्रयोगस्तात्पर्य' । 3 मु 'साध्यसंशयादिनिवृत्तिः' । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ न्याय-दीपिका अत उक्तं प्रत्यक्षेति । प्रत्यक्षप्रमितसकलार्थ इत्येतावत्युच्यमाना 'सिद्धेष्वतिव्याप्तिः । अत उक्तं परमेत्यादि2 । परमहितं3 निःश्रेय. सम्, तदुपदेश एवार्हतः4प्रामुख्येन प्रवृत्तिः । 'अन्यत्र तु प्रश्नानुरोधादुपसर्जनत्वेनेति भावः । नैवंविधः सिद्धपरमेष्ठी, तस्यानुपदेशकत्वात् । ततोऽनेन विशेषणेन तत्र नातिव्याप्तिः । आत्मसद्भावे प्रमाणमुपन्यस्तम् । नैयायिकाद्यभिमतानामाप्ताभासानामसर्वज्ञत्वात्प्रत्यक्षप्रमितेत्यादिविशेषणेनैव निरासः। ६७५. ननु नैयायिकाभिमत प्राप्तः कथं न सर्वज्ञः इति चेत्; उच्यते; तस्य ज्ञानस्यास्वप्रकाशकत्वादेकत्वाच्च विशेषणभूतं स्वकीयं ज्ञानमेव न जानातीति तद्विशिष्टमात्मानं 'सर्वज्ञोऽहम्' इति कथं जानीयात् ? एवमनात्मज्ञोऽयमसर्वज्ञ एव । प्रपञ्चितं च १ अशरीरिणो मुक्तात्मानः सिद्धाः सिद्धपरमेष्टिन इत्युच्यन्ते । उक्तं च'णिक्कम्मा अट्टगुणा किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा। लोयग्गठिदा णिच्चा उप्पाद-वयेहि संजुत्ता ॥'-द्रव्यसं० १४ । २ निःश्रेयसातिरिक्ते विषये । ३ अमुख्येन, गौणरूपेणेत्यर्थः। ४ द्वितीयप्रकाशे । ५ व्यावृत्तिः, ततो न तत्राप्यतिव्याप्तिरिति भावः । ६ नैयायिका हि ज्ञानं ज्ञानान्तरवेद्यं मन्यन्ते । ततो तैराप्तत्वेनाभिमतो महेश्वरः स्वज्ञानस्याप्रवेदनात्तद्विशिष्टस्यात्मनोऽप्यज्ञानान्न सर्वज्ञ इति भावः। 1 द 'इत्युच्यमाने' मु 'इत्येतावदुच्यमाने'। 2 द 'परमेति'। 3 मु परमं हितं' 4 म 'सम्भवति' इत्यधिकः पाठः । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परोक्ष-प्रकाशः सुगतादोनामाप्ताभासत्वमाप्तमीमांसाविवरण श्रीमदाचार्यपादैःरिति विरम्यते । वाक्यं तु तन्त्रान्तरसिद्धमिति नेह लक्ष्यते । १ अष्टशत्याम् । २ श्रीमद्भट्टाकलङ्कदेवैः। आप्तमीमांसालङ्कारे (अष्टसहस्रयां) च श्रीविद्यानन्दस्वामिभिरित्यपि बोध्यम् । ३ तदित्थम्'पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् ।'–अष्टश० अष्टस० पृ० २८५ । 'वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायः पदम् । पदानां तु परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम् ।'-न्यायकुमु० पृ० ७३७ । प्रमेयक० पृ० ४५८ । 'यस्य प्रतिपत्तुर्यावत्सु परस्परापेक्षेषु पदेषु समुदितेषु निराकाङ्क्षत्वं तस्य तावत्सु वाक्यत्वसिद्धिरिति प्रतिपत्तव्यम् ।'प्रमेयक० पृ० ४५८ । 'वाक्यं विशिष्टपदसमुदायः । यदाह पदानां संहतिर्वाक्यं सापेक्षाणां परस्परम् । साख्यताः कल्पनास्तत्र पश्चात्सन्तु यथायथम् ॥' -न्यायाव० टी० टि० पृ०८। 'वर्णानामन्योन्यापेक्षाणां संहतिः पदम्, पदानां तु वाक्यमिति ।प्रमाणनयत० ४-१०। परैस्तु वाक्यलक्षणमित्थमभिमतम्-'पाख्यातं साव्ययं सकारकं स-कारक-विशेषणं वाक्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम्, अपर आह-आख्यातं सविशेषणमित्येव । सर्बाणि ह्य तानि विशेषणानि । एकतिङ्, एकतिङ् वाक्यसंज्ञं भवतीति वक्तव्यम् ।' पात० महाभा० २-१-१ । 'तिङ्-सुबन्तचयो वाक्यं क्रिया वा कारकान्विता ।'-अमरको० । 'पूर्वपदस्मृत्यपेक्षोऽन्त्यपदप्रत्ययः स्मृत्यनुग्रहेण प्रतिसन्धीयमानो विशेषप्रतिपत्तिहेतुर्वाक्यम् ।'-न्यायवा० पृ० १६ । 'यावद्भिः पदैरर्थपरिसमाप्तिः तदेकं वाक्यम् ।'-वादन्याय० पृ० १०८ । 'पदसमूहो वाक्यम् । –न्यायम० पृ० ६३७ । न्यायवा० ता० पृ० ४३४ । 'वाक्यं पदसमूहः, यथा-गामा Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका [ अर्थस्य लक्षणम् ] ७६. अथ कोऽयमर्थो नाम ? उच्यते; अर्थोऽनेकान्तः । अर्थ इति लक्ष्यनिर्देशः, श्रभिधेय इति यावत् । अनेकान्त इति ११६ नय शुक्लां दण्डनेति ।' - तर्कसं० पृ० १२२ । 'अथात्र प्रसङ्गान्मीमांसक - वाक्यलक्षणमर्थद्वारेण प्रदर्शयितुमाह साकाङ्क्षावयवं भेदे परानाकाङ्क्षशब्दकम् । कर्मप्रधानं गुणवदेकार्थं वाक्यमिष्यते ॥ - वाक्यप० २-४ । मिथ: साकाङ्क्षशब्दस्य व्यूहो वाक्यं चतुविधम् । सुप्तिङन्तचयो नैवमतिव्याप्त्यादिदोषतः ॥ T यादृशशब्दानां यादृशार्थविषयताकान्वयबोधं प्रत्यनुकूला परस्पराकाङ्क्षा तादृशशब्दस्तोम एव तथाविधार्थे वाक्यम् ।' - शब्दश० श्लो. १३ । 'वाक्यं स्याद्योग्यताकाङ्क्षासक्तियुक्तः पदोच्चयः । - साहि०६० २-१ । 'पदानामभिधित्सार्थग्रन्थनाकार: सन्दर्भों वाक्यम् ।' -काव्यमी० पृ० २२ । अन्यदपि वाक्यलक्षणं कैश्चिदुक्तम् श्रस्याशब्दः (१) सङ्घातो ( २ ) जाति: सङ्घातवत्तनी (३) । ) एकोऽनवयवः शब्दः ( ४ ) क्रमो ( ५ पदमाद्यं ( ८ ) पदं चान्त्यं ( ६ ) वाक्यं प्रति मतिभिन्ना पदं बहुधा • बुद्ध चनु संहृती (६,७ ) ॥ सापेक्ष मित्यपि (१०) । न्याय वेदिनाम् ॥' 7 - वाक्य प० २ - १, २ - (2) TR तत्र पूर्वोक्तमेव 'पदानां परस्परापेक्षाणां निरपेक्षः समुदायो वाक्यम्' इति वाक्यलक्षणं समीचीनम् । ग्रन्येषां तु सदोषत्वादिति प्रतिपत्तव्यम् । ४ न्यायदीपिकायाम् । १ अर्थस्य स्वरूपं प्रतिपादयितुमाह प्रथेति । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः ११७ लक्षणकथनम्। 'अनेके अन्ता धर्माः सामान्य-विशेष-पर्याय-गुणा। यस्येति सिद्धोऽनेकान्तः । तत्र सामान्यमनुवृत्ति2स्वरूपम् । तद्धि घटत्वं पृथुबुध्नोदराकारः3, गोत्वमिति सास्नादिमत्वमेव । तस्मान्न व्यक्तितोऽत्यन्तमन्यन्नित्यमेकमनेकवृत्ति' । अन्यथा १ अनेकान्तस्य व्युत्पत्तिमुखेन लक्षणं निबध्नाति अनेके इति । २ अनुगताकारप्रतीतिविषयमित्यर्थः । अत्रायं विशेष:-'सामान्यं द्विविधम्-ऊर्ध्वतासामान्यं तिर्यक्सामान्यं चेति । तत्रोर्खतासामान्यं क्रमभाविषु पर्यायेष्वेकत्वान्वयप्रत्ययग्राह्य द्रव्यम् । तिर्यक्सामान्यं नानाद्रव्येषु पर्यायेषु च सादृश्यप्रत्ययग्राह्य सदृशपरिणामरूपम् ।'–युक्त्यनुशा० टी० पृ० ६० । 'सामान्यं द्वेधा तिर्यगूर्खताभेदात् । ४.३ । सदृशपरिणामस्तिर्यक् खण्डमुण्डादिषु गोत्ववत् । ४-४ । परापरविवर्त्तव्यापि द्रव्यमूर्खता मृदिव स्थासादिषु'।४-५।-परीक्षामुख । ३ 'सामान्यं द्विविधं परमपरं च । तत्र परं सत्ता, अपरं सत्ताव्याप्यं द्रव्यत्वादि । तत्र नित्यमनेकव्यक्तिवत्ति सामान्यम्, नित्यत्वे सति स्वाश्रयान्योन्याभावसामानाधिकरण्यां वा । परमपि सामान्यमपरमपि तथाऽपरं तु सामान्यं विशेपसंज्ञामपि लभते ।'-वैशेषिकसूत्रोप० पृ० ३४ । तन्न युक्तम्-'नित्यैकरूपस्य गोत्वादेः क्रम-योगपद्याभ्यामर्थक्रियाविरोधात् । प्रत्येक परिसमाप्त्या व्यक्तिषु वृत्ययोगाच्चानेक सदृशपरिणामात्मकमेवेति तिर्यक्सामान्यमुक्तम् ।'-प्रमेयर० ४-४, पृ० १७६ । 'तच्चाऽनित्यासर्वगतस्वभावमभ्युपगन्तव्यम्, नित्यसर्वगतस्वभावत्वेऽर्थक्रियाकारित्वायोगात् । तत् (सामान्यं) सर्वसर्वगतं स्वव्यक्तिसर्वगतं वा ? न तावत्सर्वसर्वगतम् ; व्यक्त्यन्तरालेऽनुपलम्यमानत्धाद्वयक्तिस्वात्मवत् । 'नापि स्वव्यक्तिसर्वगतम् ; प्रतिव्यक्ति परिसमाप्तत्वेनास्याऽनेHT1 मु 'पर्याया गुणा' । 2 म प मु 'अनुवृत्त'। 3 ा प 'पृथुबुघ्नोदराद्याकारः'। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका कत्वानुषङ्गाद्वयक्तिस्वरूपवत् । कात्स्न्यैकदेशाभ्यां वृत्त्यनुपपत्तेश्चासत्त्वम् । किञ्च, एकत्र व्यक्ती सर्वात्मना वर्त्तमानस्यान्यत्र वृत्तिर्न स्यात् । तत्र हि वृत्तिस्तद्देशे गमनात्, पिण्डेन सहोत्पादात्, तद्दे शे सद्भावात्, अंशवत्तया वा स्यात् ? न तावद् गमनादन्यत्र पिण्डे तस्य वृत्तिः; निष्क्रियत्वोपगमात् । किञ्च, पूर्वपिण्डपरित्यागेन तत्तत्र गच्छेत्, अपरित्यागेन वा ? न तावत्परित्यागेन, प्राक्तनपिण्डस्य गोत्वपरित्यक्तस्यागोरूपताप्रसङ्गात् । नाप्यपरित्यागेन, अपरित्यक्तप्राक्तनपिण्डस्यास्यानंशस्य रूपादेरिव गमना. सम्भवात् । न ह्यपरित्यक्तपूर्वाधाराणां रूपादीनामाधारान्तरसंक्रान्तिदृष्टा। नापि पिण्डेन सहोत्पादात्, तस्यानित्यत्वानुषङ्गात् । नापि तद्दे शे सत्त्वात्, पिण्डोत्पत्तेः प्राक् तत्र निराधारस्यास्यावस्थानाभावात् । भावे वा स्वाश्रयमात्रवृत्तित्वविरोधः । नाप्यंशवत्तया, निरंशत्वप्रतिज्ञानात् । ततो व्यक्त्यन्तरे सामान्यस्याभावानुषङ्गः । परेषाँ प्रयोगः 'ये यत्र नोत्पन्ना नापि प्रागवस्थायिनो नापि पश्चादन्यतो देशादागतिमन्तस्ते तत्राऽसन्तः, यथा खरोत्तमाले तद्विषाणम्, तथा च सामान्यं तच्छून्यदेशोत्पादवति घटादिके वस्तुनि' इति । उक्तं च 'न याति न च तत्रासीदस्ति पश्चान्न चांशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसन्ततिः॥'-प्रमेयक० पृ० ४७३ । किञ्च, इदं सामान्य व्यक्तिभ्यो भिन्नं चेत् ; तत् व्यक्त्युत्पत्तौ उत्पद्यते न वा ? यद्युत्पद्यते, तद्वदेवानित्यत्वम् । नोत्पद्यते चेत्; तत् उत्पत्तिप्रदेशे विद्यते न वा ? यदि विद्यते, व्यक्त्युत्पत्तेः पूर्वमपि गृह्यत । अथ तद्देशे तत् नास्ति, उत्पन्ने तु व्यक्तिविशेषे व्यक्त्यन्तराद् आगच्छति । ननु ततः तत् आगच्छत् पूर्वव्यक्ति परित्यज्य प्रागच्छति न वा ? प्रथमपक्षे तस्याः तद्रहितत्वप्रसङ्गः । अथापरित्यज्य, तत्रापि किं व्यक्त्या सहैवागच्छति किं वा केनचिदंशेन तत्रैव तिष्ठति केनचिदागच्छति ? प्रथमविकल्पे शावले. येऽपि 'बाहुलेयोऽयम्' इति प्रतीतिः स्यात् । द्वितीयविकल्पस्त्वयुक्तः, Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः न याति न च तत्रास्ते न पश्चादस्ति नांशवत्।। जहाति पूर्वं नाधारमहो' व्यसनसन्ततिः ॥ [ ] - इति दिग्नागदर्शित2दूषणगणप्रसरप्रसङ्गात् । पृथुबुध्नोदराकारादिदर्शनानन्तरमेव 'घटोऽयं घटोऽयं गौरयं गौरयम्' निरंशत्वेनास्यांशवत्तया प्रवृत्त्यसम्भवात् । सांशत्वे चास्य व्यक्तिवदनित्यत्वप्रसङ्गः । -स्वायकुमु० पृ० २८७, २८८ । 'क्वचिदेकत्र नित्यात्मन्याश्रये सर्वात्मना वृत्तं सामान्यं समवायश्च तावत् उत्पित्सुप्रदेशे प्राग्नासीदनाश्रितत्वप्रसङ्गात्, नान्यतो याति सर्वात्मना पूर्वाधारापरित्यागादन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, नाप्येकदेशेन, सांशत्वाभावात्, स्वयमेव पश्चाद्भवति स्वप्रत्ययकारित्वात्, आश्रय विनाशे च न नश्यति. नित्यत्वात्, प्रत्येकं परिसमाप्त चेति व्याहतमेतत् ।'- अष्टस. पृ. २१६ । एतदुक्तानेव दोषान् दिग्नागोक्तकारिकया मूले दीपिकाकारो दर्शयति न यातीति । १ गोत्वादिसामान्यं हि व्यक्त्यन्तरं न गच्छति निष्क्रियत्वोपगमात् । २ व्यक्तिदेशे, यत्र गोपिण्ड उत्पद्यते तत्र न गोपिण्डोत्पादात्पूर्व चिते, देशस्यापि तस्य गोत्वापत्तेः । ३ न वा गोपिण्डोत्पादानन्तरं तेन सहोत्पद्यते, तस्य नित्यत्वाभ्युपगमात् । अन्यथाऽनित्यत्वानुष ङ्गात् । ४ न चांशसहितं निरंशत्वप्रतिज्ञानात्, अन्यथा सांशत्वप्रसङ्गात् । ५ न च प्राक्तनमाधारं गोपिण्डं त्यजति, तस्यागोत्वापत्तेः । ६ तदेवं गोत्वादिसामान्यस्य नित्यैकसर्वगतत्वाभ्युपगमे एतैर्दूषणैर्न परिमुच्यते सोऽयं यौगः । अहो आश्चर्य कष्ट वा एतेषामपरिहार्या व्यसनसन्ततिः दूषणपरम्परा, वृथा स्थितिरितियावत् । ७ कारिकेयं धर्मकीत्तिविरचिते प्रमाणवात्तिकेऽपि (१-१५३) मूलरूपेणोपलभ्यते । परमत्र ग्रन्थकृता नामोल्लेखपुरस्सरं दिग्नागस्योक्ता। ततः सम्भवति दिग्नागस्यैव कस्यचिद् ग्रन्थस्येयं कारिका स्यादिति । ८ दिग्नागे 1 प म 'नाशवत्' । 2 मु 'दूषित' । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० न्याय-दीपिका इत्याद्यनुवृत्तप्रत्ययसम्भवात् । विशेषोऽपि 'स्थूलोऽयं घटः, सूक्ष्मः' इत्यादिव्यावृत्तप्रत्ययालम्बनं। घटादिस्वरूपमेव । 'तथा चाह भगवान् माणिक्यनन्दिभट्टारक:- “सामान्य-विशेषात्मा तदर्थः" [परीक्षा० ४-१] इति । ७७. "पर्यायो द्विविधः-अर्थपर्यायो व्यञ्जनपर्यायश्चेति। तत्रार्थपर्यायो भूतत्वभविष्यत्वसंस्पर्शरहितशुद्धवर्तमानकालाव2च्छिन्नं वस्तुस्वरूपम् । तदेतदृजुसूत्रनयविषयमामनन्त्यभियुक्ताः। एतदेकदेशावलम्बिन: खलु सौगताः क्षणिकवादिनः । व्यञ्जनं व्यक्तिः प्रवृत्तिनिवृत्तिनिबन्धनं जलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वम3, तेनोपलक्षितः पर्यायो व्यञ्जनपर्यायः, मृदादेः [यथा] पिण्डस्थास-कोश-कुशूल-घट-कपालादयः4 पर्यायाः। नोक्तकारिकया दर्शितानि दूषणानि, तेषां गणः समूहस्तस्य प्रसरो विस्तरस्तस्य प्रसङ्गस्तस्मादित्यर्थः । १ अनुगतप्रतीतिभावात् । ततो घटत्वादिसामान्यं घटादिव्यक्तेः कथञ्चिदभिन्नमेवेत्यवसेयम् । २ तदुक्तं परीक्षामुखे-'विशेषश्च ।४-६। पर्यायव्यतिरेकभेदात् ।४-७। एकस्मिन् द्रव्ये क्रमभाविनः परिणामाः पर्याया अात्मनि हर्षबिषादादिवत् ।४-८। अर्थान्तरगतो विसदृशपरिणामो व्यतिरेको गो-महिपादिवत्' ।४-६। ३ स्वोक्तमेव प्रमाणयति तथा चाहेति । ४ संक्षेपतः सामान्यं विशेषं च निरूप्य पर्याय निरूपयितुमाह पर्यायेति । ___ 1 मु 'वलम्वनं'। 2 प मु 'कालत्वाव'। 3 या 'निबन्धनजलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वे', म प मु 'निबन्धनजलानयनाद्यर्थक्रियाकारित्वं'। 4 द 'कपालमालादयः'। Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १२१ ७८. यावद्दव्यभाविनः सकलपर्यायानुवतिनो गुणाः वस्तुत्व-रूप-रस-गन्ध-स्पर्शादयः । मृद्रव्यसम्बन्धिनो हि वस्तुत्वादयः पिण्डादिपर्यायाननुवर्तन्ते, न तु पिण्डादयः स्थासादीन् । तत। एव पर्यायाणां गुणेभ्यो भेदः । यद्यपि सामान्यविशेषौ पर्यायौ तथापि सङ्केतग्रहणनिबन्धनत्वाच्छब्दव्यवहारविषयत्वाच्चागम2 11 १ गुणं लक्षयति यावदिति । २ वस्तुत्वप्रमेयत्वादयः सामान्यगुणाः । रूपरसादयो विशेषगुणाः । तेषां लक्षणं तु सर्वेष्वविशेषेण हि ये द्रव्येषु च गुणाः प्रवर्त्तन्ते । ते सामान्यगुणा इह यथा सदादि प्रमाणतः सिद्धम् ॥ तस्मिन्नेव विवक्षितवस्तुनि मग्ना इहेदमिति चिज्जाः । ज्ञानादयो यथा ते द्रव्यप्रतिनियमिता विशेषगुणाः ॥ -अध्यात्मक० २-७, ८ । ३ गुणपर्याययोः को भेदः ? इत्यत्रोच्यते, सहभाविनो गुणाः, क्रमभाविनः पर्याया इति । गुणा हि द्रव्येण सह त्रिकालावच्छेदेन वर्तन्ते, न तु पर्यायाः, तेषां क्रमवत्तित्वादिति भावः। तथा चोक्तम् अन्वयिनः किल नित्या गुणाश्च निर्गुणावयवा ह्यनन्तांशाः । द्रव्याश्रया विनाशप्रादुर्भावाः स्वशक्तिभिः शश्वत् ॥ व्यतिरेकिणो ह्यनित्यास्तत्काले द्रव्यतन्मयाश्चापि । ते पर्याया द्विविधा द्रव्यावस्थाविशेषधर्मांशाः ॥ -अध्यात्मक०२-६, ६। ४ ननु सामान्यविशेषावपि पर्यायावेव, तत्कथमत्र तयोः पर्यायेभ्यः पृथग् निर्देश इत्यत आह यद्यपीति । सामान्यविशेषौ यद्यपि पर्यायावेव तथाप्याऽऽगमप्रकरणानुरोधात्तयोः पृथग्निर्देशकर्त्तव्यस्यावश्यकत्वादिति । 1 द 'अत' । 2 मु 'निबन्धनस्य शब्दव्यवहारविषयत्वादागम' । । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ न्याय-दीपिका प्रस्तावे तयोः पृथग्निर्देशः । तदनयोगुणपर्याययोः द्रव्यमाश्रयः, “गुणपर्ययवद् द्रव्यम्” [तत्त्वार्थसू० ५-३८] इत्याचार्यानुशासनात्'। तदपि सत्त्वमेव “सत्त्वं द्रव्यम्"[ ] इत्यकलङ्कीयवचनात्2॥ [सत्त्वं द्विधा विभज्य द्वयोरप्यनेकान्तात्मकत्वप्ररूपणम् ] ७९. 'तदपि जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चेति संक्षेपतो द्विविधम् । 'द्वयमप्येतदुत्पत्तिविनाशस्थितियोगि “उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्" [तत्त्वार्थसू० ५-३०] इति निरूपणात्। तथा हि-जीव १ उपदेशात् । २ भगवता श्रीउमास्वातिनाऽप्युक्तम्- 'सद्व्यलक्ष___णम्'-तत्त्वार्थसू० ५-२६ । ३ सत्त्वमपि । ४ जीवद्रव्यमजीवद्रव्यं चापि । ___५ समन्तभद्रस्वामिभिरपि तथैव प्रतिपादनात् । तथा हि घट-मौलि-सुवर्णार्थो नाशोत्पाद-स्थितिष्वयम् । शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यं जनो याति सहेतुकम् ॥ पयोव्रतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिव्रतः । अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ -प्राप्तमी० का० ५६, ६० । इदमत्राकूतम्---सर्व हि वस्तुजातं प्रतिसमयमुत्पादव्ययध्रौव्यात्मकं समनुभूयते । घटार्थिनो हि जनस्य घटविनाशे शोकः, मुकुटार्थिनो मुकुटोत्पादे हर्षः, सुवर्णार्थिनश्च सुवर्णसत्त्वे माध्यस्थ्यं जायमानं दृश्यते । न चैतद् निर्हेतुकं सम्भवति । तेन विज्ञायते सुवर्णादिवस्तु उत्पादादित्रयात्मकम्, तदन्तरेण शोकाद्यनुपपत्तेरिति । एवं 'यस्य पयो दुग्धमेवाहं भुजे इति व्रतं 1 द 'तद्वदनयो' । 2 ा प 'इत्याकरज्ञवचनात्', मु 'इत्याकरजवचनात्' पाठः । मूले द प्रतेः पाठो निक्षिप्तः । स च युक्तः प्रतिभाति ।-सम्पा० । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १२३ द्रव्यस्य स्वर्गप्रापकपुण्योदये सति मनुष्यस्वभावस्य व्ययः, दिव्य1स्वभावस्योत्पादः, चैतन्यस्वभावस्य ध्रौव्यमिति । जीवद्रव्यस्य 'सर्वथैकरूपत्वे2 पुण्योदयवैफल्यप्रसङ्गात् । सर्वथा भेदे पुण्यवानन्यः फलवानन्य इति पुण्यसम्पादनवैयर्थ्यप्रसङ्गात्। उपरोपकारेऽप्यात्मसुकृतार्थमेव प्रवर्तनात्4 तस्माज्जीवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्य देवपर्यायरूपेण भेद इति 6प्रतिनियतनयनिरस्तविरोधी भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव । नियमः, नासौ दध्यत्ति-दधि भुंक्ते । यस्य च दध्यहं भुजे इति व्रतम् नासौ पयोऽत्ति-दुग्धं भुंक्ते । यस्य चागोरसमहं भुजे इति व्रतम्, नासावुभयमत्ति । कुतः ? गोरसरूपेण तयोरेकत्वात् । दुग्धव्रतस्य दधिरूपेणाभावात्, दधिव्रतस्य पयोरूपेणाभावात्, अगोरसवतस्य दधिदुग्धरूपेणाभावात् । तस्मात्तत्त्वं वस्तु त्रयात्मकं स्थित्युत्पत्तिव्ययात्मकं सुघटमेतदनेकान्ते जैनमते इति ।'-प्राप्तमी० वृ० का० ६० । श्रीपण्डितप्रवरराजमल्लेनाप्युक्तम् कैश्चित्पर्य्ययविगमैव्येति द्रव्यं ह्य देति समकाले । अन्यैः पर्ययभवनधर्मद्वारेण शाश्वतं द्रव्यम् ॥ -अध्यात्मक०२-१६ । १ पर्यायेभ्यः सर्वथाऽभेदे । २ मनुष्यादिपर्यायेभ्यो जीवद्रव्यस्य कथञ्चिदप्यन्वयाभावे कृतस्य फलाभावादकृतस्य च फलप्राप्ते: पुण्यसम्पादनं व्यर्थमेव स्यात् । कृतनाशाकृताभ्यागमप्रसङ्गश्च स्यादिति भावः । ३ नहीमावनुभूयमानौ भेदाभेदौ मिथ्याभूतौ विरुद्धौ वा। तथा चोक्तं श्रीमत्समन्त 1 म मु 'देव'। 2 म प 'कान्तरूपे', मु 'कान्तरूपत्वे'। 3 म 'कारोऽप्या', मु 'कारस्याप्य' । 4 प 'प्रर्तमानात्', मु 'प्रवर्त्तमानत्वात्' । 5 म 'मनुष्यपर्यायदेवपर्याय' । 6 द 'प्रतिनियम' । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय - दीपिका ८०. तथैवाजीवस्या मृद्रव्यस्यापि मृदः पिण्डाकारस्य व्ययः, पृथुवुध्नोदराकारस्योत्पाद:, मृद्रूपस्य ध्रुवत्वमिति सिद्धमुत्पादादियुक्तत्वमजीवद्रव्यस्य 2 ! स्वामिसमन्तभद्राचार्याभिमतानुसारी वामनोऽपि सदुपदेशात्प्राक्तनमज्ञानस्वभावं हन्तुमुपरितनमर्थज्ञानस्वभावं स्वीकर्तुं च यः समर्थ श्रात्मा स एव शास्त्राधिकारीत्याह "न शास्त्रमसद्द्रव्येष्वर्थवत्" [ ] इति । तदेवमनेकान्तात्मकं वस्तु प्रमाणवाक्यविषयत्वादर्थत्वेनावतिष्ठते । तथा च प्रयोगः - 'सर्वमनेकान्तात्मकं सत्त्वात् । यदुक्तसाध्यं न, तन्नोक्तसाधनम्, यथा गगनारविन्दमिति । ८१. ननु यद्यप्यरविन्दं गगने नास्त्येव तथापि सरस्यस्तीति ततो न सत्त्वरूप हेतु 4व्यावृत्तिरिति चेत्; तर्हि तदेतदरविन्दमधिकरणविशेषापेक्षया सदसदात्मकमनेकान्त मित्यन्वय दृष्टान्तत्वं ' भवतैव प्रतिपादितमिति सन्तोष्टव्यमायुष्मता । उदाहृतवाक्ये - भद्राचार्यैः १२४ ― प्रमाणगोचरौ सन्तौ भेदाभेदौ न संवृती । तावेकत्राविरुद्धौ ते गुणमुख्यविवक्षया ॥ १ यदुक्तम् - श्राप्तमी० ० का० ३६ । 'तद्रव्यपर्यायात्माऽर्थो बहिरन्तश्च तत्त्वतः ।' — लघीय० ० का० ७ । २ अरविन्दस्येति शेषः । ३ प्रत्यक्षेणानुमानेन च वस्तुनोऽनेकान्ता 1 मु' तथैवाजीवद्रव्यस्यापि २ म म 'मजीवस्य' 3 मु 'भिमतमतानु' । 4 श्रम मु 'सत्वहेतु' । 5 द मु 'इति' नास्ति । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १२५ नापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेव, न संसारकारणत्वमिति विषयविभागेन कारणाकारणात्मकत्वं प्रतिपाद्यते। 'सर्व वाक्यं सावधारणम् इति न्यायात् । एवं प्रमाणसिद्धमनेकान्तात्मकं वस्तु। [नयं स्वरूपतः प्रकारतश्च निरूप्य सप्तभङ्गीप्रतिपादनम्] ६८२. नया विभज्यन्ते।। ननु कोऽयं नयो नाम2 ? उच्यते; प्रमाणगृहीतार्थंकदेशग्राही प्रमातुरभिप्रायविशेष:3 । “नयो ज्ञातुरभिप्राय:।' [लघीय०का० ५२] इत्यभिधानात् । स नयः संक्षेपेण द्वेधा'—द्रव्याथिकनयः पर्यायाथिकनयश्चेति । तत्र द्रव्याथिकनयः त्मकत्वं प्रसाध्यागमेनापि तत्प्रसाधनार्थमाह उदाहृतेति । अयं भाव:'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इत्यागमो यथा सम्यग्दर्शनादित्रयाणां समुदितानां मोक्षकारणत्वं प्रतिपादयति तथा संसारकारणत्वाभावमपि । तथा चागमादपि सम्यग्दर्शनादीनां कारणाकारणात्मकत्वमनेकान्तस्वरूपं प्रतिपादितं बोद्धव्यम् । - १ श्रुतज्ञानिनः । अभिप्रायो विवक्षा। २ सम्पूर्णश्लोकस्त्वित्थम् ज्ञानं प्रमाणमात्मादेरुपायो न्यास इष्यते।। नयो ज्ञातुरभिप्रायो युक्तिोऽर्थपरिग्रहः ॥ ३ 'नयो द्विविधः-द्रव्याथिक: पर्यायार्थिकश्च । पर्यायार्थिकनयेन पर्यायतत्त्वमधिगन्तव्यम् । इतरेषां नामस्थापनाद्रव्याणां द्रव्याथिकेन, सामान्यात्मकत्वात् ।'-सर्वार्थसि० १-६। यथोक्तं श्रीविद्यानन्दस्वामिभिःसंक्षेपाद् द्वौ विशेषेण द्रव्यपर्यायगोचरौ।'-त० श्लो० पृ० २६८ । 1 द 'अथ नयं विभजति' पाठः। 2 द 'नाम नयः' । 3 ममु 'नयः' इत्यधिकः पाठः । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ न्याय-दीपिका द्रव्यपर्यायरूपमेकानेकात्मकमनेकान्तं प्रमाणप्रतिपन्नमर्थं विभज्य पर्यायाथिकनयविषयस्य भेदस्योपसर्जनभावेनावस्थानमात्रमभ्यनुज़ानन्। स्वविषयं द्रव्यमभेदमेव व्यवहारयति, “नयान्तरविषयसापेक्षः सन्नयः”[ ]इत्यभिधानात् । यथा सुवर्णमानयेति । अत्र द्रव्याथिकनयाभिप्रायेण सुवर्णद्रव्यानयनचोदनायां कटकं कुण्डलं केयूरं चोपनयन्नुपनेता कृती भवति, सुवर्णरूपेण कटकादीनां भेदाभावात् । द्रव्याथिकनयमुपसर्जनीकृत्य प्रवर्त्तमानपर्यायाथिकनयमवलम्ब्य कुण्डलमानयेत्युक्ते न कटकादौ प्रवर्तते, कटकादिपर्यायात् कुण्डलपर्यायस्य भिन्नत्वात् । ततो द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण सुवर्ण स्यादेकमेव । पर्यायाथिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव। क्रमेणोभयनयाभिप्रायेण स्यादेकमनेकं च3 । युगपदुभय4नयाभिप्रायेण स्यादवक्तव्यम्, युगपत्प्राप्तेन नयद्वयेन विविक्तस्वरूपयोरेकत्वानेकत्वयोविमर्शासम्भवात् । न हि युगपदुपनतेन शब्दद्वयेन घटस्य प्रधानभूतयो 5रूपवत्त्वरसवत्त्वयोविविक्तस्वरूपयो: प्रतिपादनं शक्यम् । तदेतदवक्तव्यस्वरूपं तत्तदभिप्रायैरुप 'स द्रव्यार्थिक: पर्यायाथिकश्च । द्रवति द्रोष्यति अद्रुवत् इति द्रव्यम्, तदेवार्थोऽस्ति यस्य सो द्रव्याथिकः ।' लघीय० का० स्वो० ३० । १उक्तं चमेदाभेदात्मके ज्ञेये भेदाभेदाभिसन्धयः । ये तेऽपेक्षानपेक्षाभ्यां लक्ष्यन्ते नयदुर्नयाः ॥-लघीय०का० ३० । 1 द 'मभ्यनुजानानः'। 2 मु 'कटकादिपर्यायस्य ततो भिन्नत्वात्। 3 ___द 'च' नास्ति । 4 द ‘एवं च युगपदुभय' । 5 प्रा म मु 'रूपत्वरसत्वयो'। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १२७ नतेनैकत्वादिना समुचितं स्यादेकमवक्तव्यम्, स्यादनेकमवक्तव्यम्, स्यादेकानेकमवक्तव्यमिति स्यात् । सैषा नयविनियोगपरिपाटी सप्तभङ्गीत्युच्यते, भङ्गशब्दस्य वस्तुस्वरूपभेदवाचकत्वात् सप्तानां भङ्गानां समाहारः सप्तभङ्गीति' सिद्धेः । - ८३. नन्वेकत्र वस्तुनि सप्तानां भङ्गानां कथं सम्भवः इति चेत् ; यथैकस्मिन् रूपवान् घट: रसवान् गन्धवान् स्पर्शवानिति १ ननु केयं सप्तभङ्गी इति चेत्; उच्यते; 'प्रश्नवशादेकत्र वस्तुन्यविरोधेन विधिप्रतिषेधकल्पना सप्तभङ्गी'-तत्त्वार्थवात्तिक १-६ । न्यायविनिश्चयेऽपि श्रीमदकलङ्कदेवैरुक्तम् द्रव्यपर्यायसामान्यविशेषप्रविभागतः । स्याद्विधिप्रतिषेधाभ्यां सप्तभङ्गी प्रवर्तते ॥४५१॥ श्रीयशोविजयोऽप्याह-'एकत्र वस्तुन्येकैकधर्मपर्यनुयोगवशादविरोधेन व्यस्तयोः समस्तयोश्च विधिनिषेधयोः कल्पनया स्यात्काराङ्कितः सप्तधा वाक्यप्रयोगः सप्तभङ्गी । इयं च सप्तभङ्गी वस्तुनि प्रतिपर्यायं सप्तविधधर्माणां सम्भवात् सप्तविधसंशयोत्थापितसप्तविधजिज्ञासामूलसप्तविधप्रश्नानुरोधादुपपद्यते ।'-जैनतर्कभा० पृ० १६ । 'ननु एकत्राऽपि जीवादिवस्तुनि विधीयमाननिषिध्यमानानन्तधर्मसद्भावात्तत्कल्पनाऽनन्तभङ्गी स्यात् (न तु सप्तभङ्गी); इति चेन्न; अनन्तानामपि सप्तभङ्गीनामिष्टत्वात्, तत्रैकत्वानेकत्वादिकल्पनयाऽपि सप्तानामेव भङ्गानामुपपत्तेः, प्रतिपाद्यप्रश्नानां तावतामेव सम्भवात्, प्रश्नवशादेव सप्तभङ्गीति नियमवचनात् । सप्तविध एव तत्र प्रश्नः कुत इति चेत्, सप्तविधजिज्ञासाघटनात् । सापि सप्तविधा कुत इति चेत्, सप्तधा संशयोत्पत्तेः । सप्तधैव संशयः कथमिति चेत्, तद्विषयवस्तुधर्मसप्तविधत्वात ।'-अष्टस० पृ० १२५, १२६ । २ के ते वस्तुनिष्ठाः सप्त धर्मा इत्यत्रोच्यते (१) सत्त्वम्, Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ न्याय-दीपिका पृथग्व्यवहारनिबन्धना1 रूपवत्त्वादिस्वरूपभेदाः सम्भवन्ति तथैवेति सन्तोष्टव्यमायुष्मता। ___८४. एवमेव परमद्रव्याथिकनयाभिप्रायविषयः परमद्रव्यं सत्ता2, तदपेक्षया “एकमेवाद्वितीयं ब्रह्म, नेह नानास्ति किञ्चन", सद्रूपेण चेतनानामचेतनानां च भेदाभावात् । भेदे तु सद्विलक्षणत्वेन तेषामसत्त्वप्रसङ्गात्। ६८५. ऋजुसूत्रनयस्तु परमपर्यायाथिकः । स हि भूतत्वभविप्यत्वाभ्यामपरामृष्टं शुद्धं वर्तमानकालावच्छिन्नवस्तुस्वरूपं3 परामृशति । तन्नयाभिप्रायेण बौद्धाभिमतक्षणिकत्वसिद्धिः । एते नयाभिप्रायाः सकलस्वविषयाशेषात्मकमनेकान्तं प्रमाणविषयं विभज्य व्यवहारयन्ति । स्यादेकमेव वस्तु द्रव्यात्मना न नाना4, स्यान्नानैव पर्यायात्मना नैकमिति । तदेतत्प्रतिपादितमाचार्यसमन्तभद्रस्वामिभिः'अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः प्रमाण-नयसाधनः । अनेकान्तः प्रमाणात्ते तदेकान्तोऽपितान्नयात् ॥ [स्वयम्भू० १०६ ] इति । (२) असत्त्वम्, (३) क्रमार्पितोभयं सत्त्वासत्त्वाख्यम्, (४) सहार्पितोभयमवक्तव्यत्वरूपम्, (५) सत्त्वसहितमवक्तव्यत्वम्, (६) असत्त्वसहितमवक्तव्यत्वम्, (७) सत्त्वासत्त्वविशिष्टमवक्तव्यत्वमिति । १ ननु सर्वस्य वस्तुनोऽनेकान्तात्मकत्वेऽनेकान्तस्याप्यनेकान्तात्मकत्वं 1 द 'निबन्धन' । 2 मु 'परमद्रव्यसत्ता' । 3 म मु 'वस्तुरूपं' । 4 म प मु 'स्यादेकमेव द्रव्यात्मना वस्तु नो नाना' । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाश: १२९ 'अनियतानेकधर्मवद्वस्तुविषयत्वात्प्रमाणस्य, नियतैकधर्मवद्वस्तुविषयत्वाच्च नयस्य । यद्यनामाईती सरणिमुल्लङ्ध्य सर्वथैकमेवाद्वितीयं ब्रह्म नेह नानास्ति किञ्चन, कथञ्चिदपि1 नाना नेत्याग्रहः स्यात्तदेतदर्थाभासः । एतत्प्रतिपादकं वचनमपि2 अागमाभासः, प्रत्यक्षेण “सत्यं भिदा तत्त्वं भिदा" [ ] इत्यादिनाऽऽगमेन च बाधित विषयत्वात् । सर्वथा भेद एव, न कथञ्चिदप्यभेद इत्यत्राप्येवमेव विज्ञेयम्', सद्रूपेणापि भेदेऽसत: परिकल्पनीयम्, तथा चानवस्था इत्यत्राह अनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति । इदमत्राकूतम्-प्रमाणनयसाधनत्वेनानेकान्तोऽप्यनेकान्तात्मकः । प्रमाणविषयापेक्षयाऽनेकान्तात्मकः, विवक्षितनयविषयापेक्षया एकान्तात्मकः। एकान्तो विविधः सम्यगेकान्तः मिथ्र्यकान्तश्च । तत्र सापेक्षः सम्यगेकान्तः, स एव नयविषयः । अपरस्तु निरपेक्षः, स न नयविषयः, अपि तु दुर्नयविषयः. मिथ्यारूपत्वात् । तदुक्तम्-'निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत्' इति । तथा चानेकान्तस्याप्यनेकान्तात्मकत्वमविरुद्धम्, प्रमाणप्रतिपन्ने वस्तुन्यनवस्थादिदोषानवकाशादिति ध्येयम् । १ प्रमाणनययोः को भेदः ? इत्यत आह अनियतेति । उक्तं च 'अर्थस्यानेकरूपस्य धीः प्रमाणं तदंशधीः । नयो धर्मान्तरापेक्षी दुर्नयस्तन्निराकृतिः ॥' २ तस्यापि प्रत्यक्षादिना बाधितत्वादर्थाभासत्वं बोध्यमिति भावः । ३ सय 1 द 'तत्कथंचिदपि'। 2 ा प 'एतत्प्रतिपादकमपि वचनं', म म 'एतत्प्रतिपादकमतिवचनं'। Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० न्याय - दीपिका अर्थक्रियाकारित्वासम्भवात् । ८६. ननु प्रतिनियताभिप्रायगोचरतया पृथगात्मनां परस्परसाहचर्यानपेक्षायां1 मिथ्याभूतानामेकत्वानेकत्वादीनां2 धर्माणां साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्यैवेति चेत्; तदङ्गीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारकभावं विना स्वतन्त्रतया नैरपेक्ष्यापेक्षायां पटस्वभावविमुख तन्तुसमूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थक्रियावदेकत्वानेकत्वादीनामर्थं क्रियायां सामर्थ्याभावात् कथञ्चिन्मिथ्यात्वस्यापि सम्भवात् । तदुक्तमाप्तमीमांसायां स्वामिसमन्तभद्राचार्यै: * मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । - पापेक्षयाऽपि घटादिवस्तूनां सर्वथा भेदेऽसत्त्वप्रसङ्गात् । तथा च खपुष्पव देव तत्सर्वं स्यात् । तदुक्तम्— सदात्मना च भिन्नं चेत् ज्ञानं ज्ञेयाद् द्विधाऽप्यसत् । ज्ञानाभावे कथं ज्ञेयं बहिरन्तश्च ते द्विषाम् ॥ - श्राप्तमी० १० का० ३० । १ अर्थक्रियाकारित्वं हि सतो लक्षणम् । ग्रसत्त्वे च तन्न स्यादिति भावः । २ अनेकान्ततत्त्वे दूषणमुद्भावयन् परः शङ्कते नन्विति । ३ स्वोक्तमेव प्रकरणकारः श्रीमत्समन्तभद्रस्वामिवचनेन प्रमाणयति तदुक्तमिति । ४ अस्या: कारिकाया प्रयमर्थः ननु एकत्वानेकत्व - नित्य 1 मु 'साहचर्यानपेक्षाणां' । 2 मु 'मेकत्वादीनां' । 3 प 'विमुक्ततन्तुसमूहस्य', म 'विमुक्तस्य तन्तसमूहस्य ! Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. परोक्ष-प्रकाशः १३१ निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ॥ १०८ ॥ इति । $ ८७. ततो " नयप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धि:' इति सिद्ध: सिद्धान्तः । पर्याप्तमागमप्रमाणम् । त्वानित्यत्वादीनां सर्वथैकान्तरूपाणां धर्माणां मिथ्यात्वात्तत्समुदायरूपः स्याद्वादिभिरभ्युपगतोऽनेकान्तोऽपि मिथ्यैव स्यात् । न हि विषकणिकाया विषत्वे तत्समूहस्याविषत्वं कैश्चिदभ्युपगम्यते । तन्न युक्तम् ; मिथ्यासमूहस्य जैनैरनभ्युपगमात् । मिथ्यात्वं हि निरपेक्षत्वम्, तच्च नास्माभिः स्वीक्रियते, सापेक्षाणामेव धर्माणां समूहस्यानेकान्तत्वाभ्युपगमात् । तत एव चार्थक्रियाकारित्वम्, अर्थक्रियाकारित्वाच्च तेषां वस्तुत्वम् । क्रम- यौगपद्याभ्यां ह्यनेकान्त एवार्थक्रिया व्याप्ता नित्यक्षणिकाद्येकान्ते तदनुपपत्तेः। तथा च निरपेक्षा नया मिथ्या – अर्थक्रियाकारित्वाभावादसम्यक्, अवस्तु इत्यर्थः । सापेक्षास्तु ते वस्तु – सम्यक्, अर्थक्रियाकारित्वादिति दिक् । १ 'निरपेक्षत्वं प्रत्यनीकवर्मस्य निराकृतिः सापेक्षत्वमुपेक्षा, अन्यथा प्रमाणनयाविशेषप्रसङ्गात् । धर्मान्तरादानोपेक्षाहानि-लक्षणत्वात् प्रमाणनयदुर्नयानां प्रकारान्तरासम्भवाच्च' । श्रष्टश ० का ० १०८ । २ ते सापेक्षा नयाः । ३ अर्थक्रियाकारिणो भवन्तीति क्रियाध्याहारः । ४ पूर्वोक्तमेवोपसंहरति ततो इति । ५ नयशब्दस्याल्पाच्तरत्वात् 'प्रत्यासत्तेर्वलीयान्' इति न्यायाच्च पूर्वनिपातो बोध्यः । ६ यः खलु 'प्रमाणनयैरधिगम:' इति सिद्धान्तः प्रकरणादावुपन्यस्तः स सिद्ध इति भावः । ७ प्रागमाख्यं परोक्षप्रमाणं यथेप्सितं समाप्तम् । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ न्याय-दीपिका 'मद्गुरोर्वर्द्धमानेशो वर्द्धमानदयानिधेः । श्रीपादस्नेहसम्बन्धात् सिद्धेयं न्यायदीपिका2 ॥२॥ इति श्रीमद्वर्द्धमानभट्टारकाचार्य गुरुकारुण्यसिद्धसारस्वतोदयश्रीमदभिनवधर्मभूषणाचार्यविरचितायां न्यायदीपिकायां परोक्षप्रकाशस्तृतीयः3 ॥३॥ समाप्तेयं न्यायदीपिका। -:: १ ग्रन्थकाराः श्रीमदभिनवधर्मभूषणयतयः प्रारब्धनिर्वहणं प्रकाशयन्नाहुर्मद्गुरोरिति । सुगममिदं पद्यम् । समाप्तमेतत्प्रकरणम् । जैनन्याय-प्रवेशाय बालानां हितकारकम् । दीपिकायाः प्रकाशाख्यं टिप्पणं रचितं मया ॥१॥ द्विसहस्र कवर्षाब्दे ख्याते विक्रमसंज्ञके । भाद्रस्य सितपञ्चम्यां सिद्धमेतत्सुबोधकम् ॥२॥ मतिमान्द्यात्प्रमादाद्वा यदत्र स्खलनं क्वचित् । संशोध्यं तद्धि विद्वद्भिः क्षन्तव्यं गुणदृष्टिभिः ॥३॥ इति श्रीमदभिनवधर्मभूषणयतिविरचिताया न्यायदीपिकाया न्यायतीर्थजैनदर्शनशास्त्रि-न्यायाचार्यपण्डितदरबारीलालेन रचितं प्रकाशाख्यं टिप्पणं समाप्तम् । -:: 1 द 'यद्गुरो' पाठः । 2 पद्यमिदं म प मु प्रतिषु नोपलभ्यते । 3 आ पद 'परोक्षप्रकाशस्तृतीयः' पाठो नास्ति । तत्र 'आगमप्रकाशः' इति पाठो वर्त्तते ।-सम्पा० । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KXXXX**:XXXXXXXXXXXXXXX** न्याय-दीपिकाका हिन्दी अनुवाद Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कामं द्विषन्नप्युपपत्तिचक्षुः समीक्षतां ते समदृष्टिरिष्टम् । त्वयि ध्रुवं खंडितमानशृङ्गो भवत्यभद्रोऽपि समन्तभद्रः ॥ स्वामिसमन्तभद्र । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री-समन्तभद्राय नमः श्रीमदभिनव-धर्मभूषण-पति-विरचित न्याय-दीपिका का हिन्दी अनुवाद पहला प्रकाश मंगलाचरण और ग्रन्थ-प्रतिज्ञाग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगल करना प्राचीन भारतीय प्रास्तिक परम्परा है । उसके अनेक प्रयोजन और हेतु माने जाते हैं। १ निर्विघ्नशास्त्र-परि-समाप्ति २ शिष्टाचार-परिपालन ३ नास्तिकता-परिहार ४ कृतज्ञता-प्रकाशन और ५ शिष्य-शिक्षा। इन प्रयोजनों को संग्रह 5 करने वाला निम्नलिखित पद्य है, जिसे पण्डित आशाधरजी ने अपने अनगारधर्मामृत की टीका में उद्धृत किया है : नास्तिकत्वपरीहारः शिष्टाचारप्रपालनम् । पुण्यावाप्तिश्च निर्विघ्नं शास्त्रादावाप्तसंस्तवात् ।। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका ___ इसमें नास्तिकतापरिहार, शिष्टाचारपरिपालन, पुण्यावाप्ति और निर्विघ्नशास्त्र परिसमाप्तिको मङ्गलका प्रयोजन बताया है। कृतज्ञताप्रकाशनको प्राचार्य विद्यानन्दने और शिष्यशिक्षाको आचार्य अभयदेवने' प्रकट किया है। इनका विशेष खुलासा इस 5 प्रकार है : १. प्रत्येक ग्रन्थकारके हृदयमें ग्रन्थारम्भके समय सर्व प्रथम यह कामना अवश्य होती है कि मेरा यह प्रारम्भ किया ग्रन्थरूप कार्य निर्विघ्न समाप्त हो जाय। वैदिकदर्शनमें 'समाप्तिकामो मङ्गलमाचरेत्' इस वाक्य को श्रुति-प्रमाण के रूप में प्रस्तुत करके 10 समाप्ति और मङ्गल में कार्यकारणभाव की स्थापना भी की गई है। न्यायदर्शन और वैशेषिक दर्शन के पीछे के अनुयायियों ने इसका अनेक हेतुओं और प्रमाणों द्वारा समर्थन किया है। प्राचीन नैयायिकों ने समाप्ति और मङ्गल में अव्यभिचारी कार्यकारणभाव स्थिर करने के लिए विघ्नध्वंसको समाप्ति का द्वार माना है और 15 जहाँ मङ्गल के होने पर भी समाप्ति नहीं देखी जाती वहाँ मङ्गल में कुछ कमी ( साधनवैगुण्यादि ) को बतलाकर समाप्ति और मङ्गल के कार्यकारणभाव को सङ्गति बिठलाई है। तथा जहाँ मङ्गल १ "अभिमतफलसिद्धेरभ्युपायः सुबोधः प्रभवति स च शास्त्रात् तस्य चोत्पत्तिराप्तात् । इति भवति स पूज्यस्तत्प्रसादात्प्रबुद्धेन हि कृतमुपकारं साधवो विस्मरन्ति ।।" -तत्त्वार्थ श्लो. पृ. २ । २ देखो, सन्मतितर्कटीका पृ. २ । ३ देखो, सिद्धान्तमुक्तावली पृ. २, दिनकरी टीका पृ.६ । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १३७ के बिना भी ग्रन्थ- समाप्ति देखी जाती है वहाँ अनिबद्ध वाचिक श्रथवा मानसिक या जन्मान्तरीय मङ्गल को कारण माना जाता है । नवीन नैयायिकों का मत है कि मङ्गल का सीधा फल तो विघ्नध्वंस है और समाप्ति ग्रन्थकर्त्ता की प्रतिभा, बुद्धि और पुरुषार्थ का फल है । इनके मत से विघ्नध्वंस और मङ्गल में कार्यकारण- 5 भाव है । जैन तार्किक प्राचार्य विद्यानन्द ने किन्हीं जैनाचार्य के नाम से निर्विघ्नशास्त्र परिसमाप्ति को और वादिराज आदि ने निर्विघ्नता को मङ्गल का फल प्रकट किया है । २. मङ्गल करना एक शिष्ट कर्त्तव्य हैं। इससे सदाचार का 10 पालन होता है । अतः प्रत्येक शिष्ट ग्रन्थकार को शिष्टाचार परिपालन करने के लिए ग्रन्थ के आरम्भ में मङ्गल करना श्रावश्यक है । इस प्रयोजन को आ० हरिभद्र और विद्यानन्द ने भी माना हैं । ३. परमात्मा का गुण स्मरण करने से परमात्मा के प्रति ग्रन्थकर्त्ता की भक्ति और श्रद्धा तथा प्रास्तिक्यबुद्धि ख्यापित होती है। 15 और इस तरह नास्तिकता का परिहार होता है । श्रतः ग्रन्थकर्त्ताको ग्रन्थ के श्रादि में नास्तिकता के परिहार के लिए भी मङ्गल करना उचित और श्रावश्यक है । ४. अपने प्रारब्ध ग्रन्थ की सिद्धि में अधिकांशतः गुरुजन ही निमित्त होते हैं । चाहे उनका सम्बन्ध ग्रन्थ-सिद्धि में साक्षात् हो 20 या परम्परा । उनका स्मरण अवश्य ही सहायक होता है । यदि उनसे या उनके रचे शास्त्रों से सुबोध न हो तो ग्रन्थ-निर्माण नहीं १ मुक्तावली पृ० २, दिनकरी पृ ६ । २ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक पृ० १ । ३ न्यायविनिश्चयविवरण लिखितप्रति पत्र २ ४ अनेकान्तजयपताका पृ० २ | ५ तत्त्वार्थश्लो० पृ० १, प्राप्तप० पृ० ३ । Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ न्याय - दीपिका हो सकता। इसलिये प्रत्येक कृतज्ञ ग्रन्थकार का कर्त्तव्य होता है कि वह अपने ग्रन्थ के आरम्भ में कृतज्ञता - प्रकाशन के लिए परापर गुरुत्रों का स्मरण करें । अतः कृतज्ञता - प्रकाशन भी मङ्गल का एक प्रमुख प्रयोजन है । इस प्रयोजन को श्र० विद्यानन्दादि ने 5 स्वीकार किया है । ५. ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण को निबद्ध करने से शिष्यों, प्रशिष्यों और उपशिष्यों को मङ्गल करने की शिक्षा प्राप्ति होती है । श्रतः 'शिष्या अपि एवं कुर्युः' अर्थात् शिष्य- समुदाय भी शास्त्रारम्भ में मङ्गल करने की परिपाटी को कायम रक्खे, इस 10 बात को लेकर शिष्य - शिक्षा को भी मङ्गल के अन्यतम प्रयोजन रूप में स्वीकृत किया है । पहले बतला श्राए हैं कि इस प्रयोजन को भी जैनाचार्यों ने माना है । इस तरह जैनपरम्परा में मंगल करने के पाँच प्रयोजन स्वीकृत किए गए हैं। इन्हीं प्रयोजनों को लेकर ग्रन्थकार श्री अभिनव धर्म - 15 भूषण भी अपने इस प्रकरण के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करते हैं और ग्रन्थ-निर्माण (न्याय - दीपिका के रचने) की प्रतिज्ञा करते हैं: वीर, प्रतिवीर, सन्मति, महावीर और वर्द्धमान इन पाँच नाम विशिष्ट अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी को अथवा 'अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिनसमूह को 20 नमस्कार करके मैं (अभिनव धर्मभूषण ) न्यायस्वरूप जिज्ञासु बालकों ( मन्द जनों) के बोधार्थ विशद, संक्षिप्त और सुबोध न्याय - दीपिका' ( न्याय - स्वरूप की प्रतिपादक पुस्तिका) ग्रन्थ को बनाता हूँ । प्रमाण और नयके विवेचन की भूमिका 'प्रमाणनयैरधिगम:' [त० सू० १-६] यह महाशास्त्र तत्त्वार्थ25 सूत्र के पहले अध्याय का छठवाँ सूत्र है । वह परमपुरुषार्थ — मोक्ष Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश के कारणभूत' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय जीव, अजीव, प्रास्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले उपायों का प्रमाण और नयरूप से निरूपण करता है। क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यक्ज्ञान होता है। प्रमाण और 5 नय को छोड़कर जीवादिकों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं हैं । इसलिए जीवादि तत्त्वज्ञान के उपायभूत प्रमाण और नय भी विवेचनीय–व्याख्येय हैं। यद्यपि इनका विवेचन करनेवाले प्राचीन ग्रन्थ विद्यमान हैं तथापि उनमें कितने ही ग्रन्थ विशाल हैं और कितने ही अत्यन्त गम्भीर हैं-छोटे होनेपर भी 10 अत्यन्त गहन और दुरूह हैं। अतः उनमें बालकों का प्रवेश सम्भव नहीं है। इसलिए उन बालकों को सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध करानेवाले शास्त्रों में प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है । उद्देशादिरूपसे ग्रन्थ की प्रवृत्ति का कथन इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेचनीय वस्तु का उद्देश-नामोल्लेख किए बिना लक्षणकथन नहीं 15 १ सम्यग्दर्शनज्ञानचारिज्ञाणि मोक्षमार्गः'-त० सू० १-१। २ 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्'-त० सू० १-४ । ३ लक्षण और निक्षेपका भी यद्यपि शास्त्रों में पदार्थोंके जानने के उपायरूपसे निरूपण है तथापि मुख्यतया प्रमाण और नय ही अधिगम के उपाय हैं। दूसरे लक्षणके ज्ञापक होनेसे प्रमाणमें ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है और निक्षेप नयोंके विषय होनेसे नयोंमें शामिल हो जाते हैं । ४ अकलङ्कादिप्रणीत न्यायविनिश्चय आदि । ५ प्रमेयकमलमार्तण्ड वगैरह। ६ न्यायविनिश्चय आदि । Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० न्याय-दीपिका हो सकता और लक्षणकथन किए बिना परीक्षा नहीं हो सकती तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन-निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक और शास्त्र' में भी उक्त प्रकार से (उद्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षा द्वारा ) ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है। 5 विवेचनीय वस्तु के केवल नामोल्लेख करने को उद्देश्य कहते हैं। जैसे 'प्रमाणनयैरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नय का उद्देश्य किया गया है। मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करनेवाले हेतुको (चिन्ह को ) लक्षण कहते हैं। जैसा कि श्री अकलंकदेव ने राजवात्तिक में कहा है-'परस्पर मिली हुई 10 वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा व्यावृत्त ( अलग ) की जाती हैं उसे लक्षण कहते हैं।' लक्षण के दो भेद हैं-१ आत्मभूत और २ अनात्मभूत । जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे प्रात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे अग्नि की उष्णता। यह उष्ण ता अग्नि का स्वरूप होती १ स्वर्णकार जैसे सुवर्ण का पहिले नाम निश्चित करता है फिर परिभाषा बांधता है और खोटे खरेके के लिए मसान पर रखकर परीक्षा करता है तब वह इस तरह सुवर्ण का ठीक निर्णय करता है। २ 'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति:-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्याभिधानं उद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथा लक्षणमुपपद्यते नवेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा ।'-न्यायभा० १-१-२ । ३ लक्षण के सामन्यलक्षण और विशेष लक्षण के भेदसे भी दो भेद माने गए हैं। यथा—'तद् द्वेधा सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणम् च ।' प्रमाणमी० पृ० २ । न्यायदीपिकाकार को ये भेद मान्य हैं। जैसा कि ग्रन्थ के व्याख्यान से सिद्ध है । पर उनके यहां कथन न करने का कारण Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १४१ हुई अग्निको जलादि पदार्थों से जुदा करती है । इसलिए उष्णता अग्नि का आत्मभूत लक्षण है । जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ न हो — उससे पृथक् हो उसे अनात्मभूत लक्षण कहते हैं । जैसे दण्डी पुरुष का दण्ड । 'दण्डी को लानो' ऐसा कहने पर दण्ड पुरुष में न मिलता हुग्रा ही पुरुष को पुरुषभिन्न पदार्थों से पृथक् 5 करता है । इसलिए दण्ड पुरुष का श्रनात्मभूत लक्षण है । जैसा कि तत्त्वार्थ राजवात्तिकभाष्य में कहा है: - 'अग्नि की उष्णता आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का दण्ड अनात्मभूत लक्षण है ।' श्रात्मभूत और अनात्मभूत लक्षण में यही भेद है कि श्रात्मभूत लक्षण वस्तु के स्वरूपमय होता है और अनात्मभूत लक्षण वस्तु के 10 स्वरूप से भिन्न होता है और वह वस्तु के साथ संयोगादि सम्बन्ध से सम्बद्ध होता है । 'असाधारण धर्म के कथन करने को लक्षण कहते हैं' ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और हेमचन्द्राचार्य ) का कहना है; पर वह ठीक नहीं है । क्योंकि लक्ष्यरूप धर्मिवचन का लक्षणरूप धर्मवचन के साथ सामा- 15 नाधिकरण्य ( शाब्द सामानाधिकरण्य) के अभाव का प्रसङ्ग श्राता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है: और 20 श्रवश्य लक्षणवचन यदि साधारण धर्म को लक्षण का स्वरूप माना जाय तो लक्ष्यवचन और लक्षणवचन में सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता । यह नियम है कि लक्ष्य - लक्षणभावस्थल में लक्ष्यवचन में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप सामानाधिकरण्य होता है । जैसे 'ज्ञानी जीवः' अथवा 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' इनमें यह है कि ग्रात्मभूत और अनात्मभूत लक्षणों के कथन से ही उनका कथन हो जाता है । दूसरे, उन्होंने राजवातिककार की दृष्टि स्वीकृत की है जिसे आचार्य विद्यानन्द ने भी अपनाया है । देखो, त० श्लो० पृ० ३१८ । Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ न्याय-दीपिका शाब्द सामानाधिकरण्य है। यहाँ 'जीवः' लक्ष्यवचन है; क्योंकि जीवका लक्षण किया जा रहा है। और 'ज्ञानी' लक्षणवचन है। क्योंकि वह जीव को अन्य अजीवादि पदार्थों से ब्यावृत्त कराता है । 'ज्ञानवान् जीव है' इसमें किसी को विवाद नहीं है। अब यहाँ देखेंगे कि 5 'जीवः' शब्द का जो अर्थ है वही 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है। और जो 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है वही 'जीवः' शब्द का है। अतः दोनोंका वाच्यार्थ एक है। जिन दो शब्दों-पदों का वाच्यार्थ एक होता है उनमें शाब्दसामानाधिकरण्य होता है। जैसे 'नीलं कमलम्' यहाँ स्पष्ट है। इस तरह 'ज्ञानी' लक्षणवचन में और 'जीवः' लक्ष्यवचन10 में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप शाब्दसामानाधिकरण्य सिद्ध है। इसी प्रकार 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' यहाँ भी जानना चाहिए। इस प्रकार जहाँ कहीं भी निर्दोष लक्ष्यलक्षणभाव किया जावेगा वहाँ सब जगह शाब्दसामानाधिकरण्य पाया जायगा । इस नियम के अनुसार 'असाधारणधर्मवचनं लक्षणम्' यहाँ असाधारणधर्म जब लक्षण होगा 15 तो लक्ष्य धर्मों होगा और लक्षणव वन धर्मीवचन तथा लक्ष्यवचन धर्मीवचन माना जायगा । किन्तु लक्ष्यरूप धर्मीवचन का और लक्षणरूप धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ एक नहीं है । धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ तो धर्म है और धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ धर्मी है। ऐसी हालत में दोनों का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न भिन्न होने से 20 धर्मारूप लक्ष्यवचन और धर्मरूप लक्षणवचन में एकार्थप्रतिपाद कत्वरूप सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं है और इसलिए उक्त प्रकार का लक्षण करने में शाब्दसामानाधिकरण्याभावप्रयुक्त असम्भव दोष प्राता है। अव्याप्ति दोष भी इस लक्षण में आता है। दण्डादि असाधा5 रण धर्म नहीं हैं, फिर भी वे पुरुष के लक्षण होते हैं। अग्नि की उष्णता, जीव का ज्ञान आदि जैसे अपने लक्ष्य में मिले हुए होते Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १४३ हैं इसलिए वे उनके असाधारण धर्म कहे जाते हैं । वैसे दण्डादि पुरुष में मिले हुए नहीं हैं— उससे पृथक् हैं और इसलिए वे पुरुष के असाधारण धर्म नहीं हैं । इस प्रकार लक्षणरूप लक्ष्य के एक देश अनात्मभूत दण्डादि लक्षण में असाधारण धर्म के न रहने से लक्षण ( असाधारण धर्म ) अव्याप्त है । 5 इतना ही नहीं, इस लक्षण में प्रतिव्याप्ति दोष भी श्राता है । शालेयत्वादि रूप व्याप्त नाम का लक्षणाभास भी प्रसाधारणधर्म है । इसका खुलासा निम्न प्रकार है : मिथ्या अर्थात् - सदोष लक्षण को लक्षणाभास कहते हैं । उसके तीन भेद हैं -१ श्रव्याप्त, २ अतिव्याप्त और ३ असम्भवि । लक्ष्य के 10 एक देश में लक्षण के रहने को श्रव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं। जैसे गायका शालेयत्व । शालेयत्व सब गायों में नहीं पाया जाता वह कुछ ही गायों का धर्म है, इसलिए श्रव्याप्त है । लक्ष्य और लक्ष्य में लक्षण के रहने को अतिव्याप्त लक्षणाभास कहते हैं । जैसे गाय का ही पशुत्व ( पशुपना ) लक्षण करना । यह 'पशुत्व' गायों के 15 सिवाय अश्वादि पशुओं में भी पाया जाता है इसलिए 'पशुत्व' अतिव्याप्त है । जिसकी लक्ष्य में वृत्ति बाधित हो अर्थात् जो लक्ष्यमें बिलकुल ही न रहे वह असम्भव लक्षणाभास है । जैसे मनुष्य का लक्षण सींग । सींग किसी भी मनुष्य में नहीं पाया जाता । अतः वह असम्भव लक्षणाभास है । यहाँ लक्ष्य के एक देश 20 में रहने के कारण 'शावलेयत्व' श्रव्याप्त है, फिर भी उसमें असावारणवत्व रहता है- 'शाबलेयत्व' गाय के अतिरिक्त अन्यत्र नहीं रहता — गाय में ही पाया जाता है । परन्तु वह लक्ष्यभूत समस्त गायों का व्यावर्त्तक - अश्वादि से जुदा करनेवाला नहीं हैकुछ ही गायों को व्यावृत्त कराता है । इसलिए अलक्ष्यभूत श्रव्याप्त 25 लक्षणाभास में प्रसाधारणधर्म के रहने के कारण प्रतिव्याप्ति भी Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ न्याय-दीपिका कहते अथव प्रायः स्थाण साध तथा अभा ज्ञान है। इस तरह असाधारण धर्म को लक्षण कहने में असम्भव, अव्याप्ति गौर अतिव्याप्ति ये तीनों ही दोष आते हैं। अतः पूर्वोक्त (मिली इई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के अलग करानेवाले इतुको लक्षण कहते हैं ) ही लक्षण ठीक है। उसका कथन करना क्षण-निर्देश है। विरोधी नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं । वह परीक्षा 'यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए' इस प्रकार से प्रवृत्त होती है। प्रमाण के सामान्य लक्षण का कथनप्रमाण और नयका भी उद्देश सूत्र ('प्रमाणनयैरधिगमः') में ही किया या है। अब उनका लक्षण -निर्देश करना चाहिए। और परीक्षा यथा(सर होगी। 'उद्देश के अनुसार लक्षण का कथन होता है' इस न्याय के नुसार प्रधान होने के कारण प्रथमतः उद्दिष्ट प्रमाण का पहले लक्षण कया जाता है। 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात्-सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते '—जो ज्ञान यथार्थ है वही प्रमाण है । यहां 'प्रमाण' लक्ष्य है। योंकि उसका लक्षण किया जा रहा है और 'सम्यग्ज्ञानत्व' (सच्चा निपना ) उसका लक्षण है ; क्योंकि वह 'प्रमाण' को प्रमाणभिन्न दार्थों से व्यावृत्त कराता है। गाय का जैसे 'सास्नादि' और ग्नि का जैसे 'उष्णता' लक्षण प्रसिद्ध है। यहां प्रमाण के लक्षण में तो 'सम्यक्' पद का निवेश किया गया है वह संशय, विपर्यय और नध्यवसाय के निराकरण के लिए किया है; क्योंकि ये तीनों 'न अप्रमाण हैं—मिथ्याज्ञान हैं। इसका खुलासा निम्न प्रकार जैसेसदृश अतः यह ज्ञ साय हो जा निश्चर ज्ञान ६ उत्पन्न अतः वृत्ति Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १४५ विरुद्ध अनेक पक्षोंका श्रवगाहन करनेवाले ज्ञानको संशय कहते हैं। जैसे—यह स्थाणु ( इंठ ) है या पुरुष है ? यहाँ 'स्थाणुत्व, स्थाणुत्वाभाव, पुरुषत्व और पुरुषत्वाभाव' इन चार अथवा 'स्याणुत्व और पुरुषत्व' इन दो पक्षोंका अवगाहन होता है । प्रायः संध्या श्रादिके समय मन्द प्रकाश होनेके कारण दूरसे मात्र स्थाणु और पुरुष दोनों में सामान्यरूपसे रहनेवाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मोके देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, पैर आदि विशेष धर्मोके साधक प्रमाणोंका प्रभाव होनेसे नाना कोटियोंको अवगाहन करनेवाला यह संशय ज्ञान होता है । विपरीत एक पक्षका निश्चय करनेवाले ज्ञानको विपर्यय कहते हैं । जैसे - सीपमें 'यह चांदी है' इस प्रकारका ज्ञान होना । इस ज्ञान में सदृशता आदि कारणोंसे सीपसे विपरीत चाँदीमें निश्चय होता है । अतः सीपमें सीपका ज्ञान न करनेवाला और चाँदीका निश्चय करनेवाला यह ज्ञान विपर्यय माना गया है । 'क्या है' इस प्रकारके श्रनिश्चयरूप सामान्य ज्ञानको अनध्यव - साथ कहते हैं । जैसे—मार्ग में चलते हुए तृण, कंटक श्रादिके स्पर्श हो जानेपर ऐसा ज्ञान होना कि 'यह क्या है ।' यह ज्ञान नाना पक्षोंका अवगाहन न करनेसे न संशय है और विपरीत एक पक्षका निश्चय न करने से न विपर्यय है । इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे यह 20 ज्ञान पृथक ही है । न ये तीनों ज्ञान उत्पन्न न करनेके श्रतः 'सम्यक्' पदसे 'ज्ञान' पदसे प्रमाता, वृत्ति हो जाती है । अपने गृहीत विषयमें प्रमिति - यथार्थताको कारण प्रमाण हैं, सम्यग्ज्ञान नहीं हैं । इनका व्यवच्छेद हो जाता है । और प्रमिति और 'च' शब्दसे प्रमेयकी व्यायद्यपि निर्दोष होनेके कारण 'सम्यक्त्व' 5 10 15 25 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ न्याय-दीपिका उनमें भी है, परन्तु 'ज्ञानत्व' (ज्ञानपना) उनमें नहीं है। इस तरह प्रमाणके लक्षणमें दिये गये 'सम्यक्' और 'ज्ञान' ये दोनों पद सार्थक हैं। शङ्का-प्रमाता प्रमितिको करनेवाला है। अतः वह ज्ञाता ही है, 5 ज्ञानरूप नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान पदसे प्रमाताकी तो व्यावृत्ति हो सकती है। परन्तु प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती । कारण, प्रमिति भी सम्यग्ज्ञान है। समाधान—यह कहना उस हालतमें ठीक है जब ज्ञान पद यहाँ भावसाधन हो। पर 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' अर्थात् जिसके द्वारा जाना 10 जावे वह ज्ञान है। इस प्रकारको व्युत्पत्तिको लेकर ज्ञान पद करण साधन इष्ट है। 'करणाधारे चानट्' [१-३-११२] इस जैनेन्द्रव्याकरणके सूत्रके अनुसार करणमें भी 'अनट्' प्रत्ययका विधान है। भावसाधनमें ज्ञानपदका अर्थ प्रमिति होता है। और भावसाधनसे करणसाधन पद भिन्न है। फलितार्थ यह हुआ कि प्रमाणके लक्षणमें 15 ज्ञान पद करणसाधन विवक्षित है, भावसाधन नहीं। अतः ज्ञान पदसे प्रमितिकी व्यावृत्ति हो सकती है। इसी प्रकार प्रमाणपद भी 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' इस व्युत्पत्तिको लेकर करणसाधन करना चाहिए। अन्यथा 'सम्यग ज्ञानं प्रमाणम्' यहाँ करणसाधनरूपसे प्रयुक्त 'सम्यग्ज्ञान' पदके 20 साथ 'प्रमाण' पदका एकार्थप्रतिपादकत्वरूप समानाधिकरण्य नहीं बन सकेगा। तात्पर्य यह कि 'प्रमाण' पदको करणसाधन न मानने पर और भावसाधन मानने पर 'प्रमाण' पदका अर्थ प्रमिति होगा और 'सम्यग्ज्ञान' पदका अथं प्रमाणज्ञान होगा और ऐसी हालतमें दोनों पदोंका प्रतिपाद्म अर्थ भिन्न-भिन्न होनेसे 25 शाब्द सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता। अतः 'प्रमाण' पदको करणसाधन करना चाहिए। इससे यह बात सिद्ध हो गई कि Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १४७ 5 10 अज्ञाननिवृत्ति अथवा अर्थपरिच्छेदरूप प्रमितिक्रियामें जो करण हो वह प्रमाण है। इसी बातको प्राचार्य वादिराजने अपने प्रमाणनिर्णय' [ पृ० १ ] में कहा है :-'प्रमाण वही है जो प्रमितिक्रियाके प्रति साधकतमरूपसे करण (नियमसे कार्यका उत्पादक ) हो। शङ्का—इस प्रकारसे (सम्यक् और ज्ञान पद विशिष्ट) प्रमाणका लक्षण माननेपर भी इन्द्रिय और लिङ्गादिकोंमें उसकी अतिव्याप्ति है। क्योंकि इन्द्रिय और लिङ्गादि भी जाननेरूप प्रमित्तिक्रियामें करण होते हैं। 'आँखसे जानते हैं, धूमसे जानते हैं, शब्दसे जानते हैं' इस प्रकार का व्यवहार हम देखते ही हैं ? के समाधान-इन्द्रियादिकोंमें लक्षणकी अतिव्याप्ति नहीं है। क्योंकि इन्द्रियादिक प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है : 'प्रमिति प्रमाणका फल ( कार्य ) है' इसमें किसी भी (वादी अथवा प्रतिवादी ) व्यक्तिको विवाद नहीं है-सभीको मान्य है। 15 और वह प्रमिति अज्ञाननिवृत्तिस्वरूप है। अतः उसकी उत्पत्तिमें जो करण हो उसे अज्ञान-विरोधी होना चाहिए। किन्तु इन्द्रियादिक अज्ञानके विरोधी नहीं हैं, क्योंकि अचेतन ( जड ) हैं। अतः अज्ञान-विरोधी चेतनधर्म-ज्ञानको ही करण मानना युक्त है। लोकमें भी अन्धकारको दूर करनेके लिए उससे विरुद्ध 20 प्रकाशको ही खोजा जाता है, घटादिकको नहीं। क्योंकि घटादिक अन्धकारके विरोधी नहीं हैं—अन्धकारके साथ भी वे रहते हैं और इसलिए उनसे अन्धकारकी निवृत्ति नहीं होती। वह तो प्रकाशसे ही होती है। - दूसरी बात यह है, कि इन्द्रिय वगैरह अस्वसंवेदी (अपनेको 25 न जाननेवाले ) होनेसे पदार्थोंका भी ज्ञान नहीं करा सकते हैं। Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ न्याय-दीपिका जी स्वयं अपना प्रकाश नहीं कर सकता है वह दूसरेका भी प्रकाश नहीं कर सकता है। घटकी तरह। किन्तु ज्ञान दीपक आदिकी तरह अपना तथा अन्य पदार्थोंका प्रकाशक है, यह अनुभवसे सिद्ध है । अतः यह स्थिर हुआ कि इन्द्रिय वगैरह पदार्थोके ज्ञान करानेमें साधकतम 5 न होनेके कारण करण नहीं है। 'आँखसे जानते हैं' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है और उपचारकी प्रवृत्ति में सहकारिता निमित्त है । अर्थात् इन्द्रियादिक अर्थपरिच्छेदमें ज्ञानके सहकारी होनेसे उपचारसे परिच्छेदक मान लिये जाते हैं। वस्तुतः मुख्य परिच्छेदक तो ज्ञान ही है। अतः इन्द्रियादिक 10 सहकारी होनेसे प्रमिति क्रियामें मात्र साधक हैं, साधकतम नहीं। और इसलिए करण नहीं हैं। क्योंकि अतिशयवान् साधकविशेष (असाधारण कारण ) ही करण होता है। जैसा कि जैनेन्द्र व्याकरण [ ११२।११३ ] में कहा है-'साधकतमं करणम्' अर्थात्-अतिशय विशिष्ट साधकका नाम करण है' । अतः इन्द्रियादिक में लक्षण की 15 अतिव्याप्ति नहीं है। शङ्का-इन्द्रियादिकोंमें लक्षणको अतिव्याप्ति न होनेपर भी धारावाहिक ज्ञानोंमें अतिव्याप्ति है। क्योंकि वे सम्यक् ज्ञान हैं। किन्तु उन्हें पाहत मत-जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना है ? समाधान—एक ही घट (घड़े) में घटविषयक अज्ञानके निरा20 करण करनेके लिए प्रवृत्त हुए पहले घटज्ञानसे घटकी प्रमिति (सम्यक परिच्छित्ति) हो जानेपर फिर 'यह घट है, यह घट है' इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक ज्ञान हैं। ये ज्ञान अज्ञान-निवृत्तिरूप प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं हैं; क्योंकि अज्ञानकी निवृत्ति पहले ज्ञानसे ही हो जाती है। फिर उनमें लक्षणको अतिव्याप्ति कैसे हो 25 सकती है ? क्योंकि यह गृहीतग्राही हैं— ग्रहण किये हुए ही अर्थको ग्रहण करते हैं। Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १४६ शङ्का-यदि गृहीतग्राही ज्ञानको अप्रमाण मानेंगे तो घटको जान लेनेके बाद दूसरे किसी कार्य में उपयोगके लग जानेपर पीछे घटके ही देखनेपर उत्पन्न हुना पश्चाद्वर्ती ज्ञान अप्रमाण हो जायगा । क्योंकि धारावाहिक ज्ञानकी तरह वह भी गृहीतग्राही हैं--अपूर्वार्थग्राहक नहीं है ? 5 समाधान नहीं; जाने गये भी पदार्थमें कोई समारोप-संशय आदि हो जानेपर वह पदार्थ अदृष्ट नहीं जाने गयेके ही समान हैं। कहा भी है—'दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक्' [ परीक्षा० १-५ ] अर्थात् ग्रहण किया हुन्ना भी पदार्थ संशय आदिके हो जाने पर ग्रहण नहीं किये हुएके तुल्य है। 10 में उक्त लक्षणकी इन्द्रिय, लिङ्ग, शब्द और धारावाहिक ज्ञानमें अतिव्याप्तिका निराकरण कर देनेसे निर्विकल्पक सामान्यावलोकनरूप दर्शनमें भी अतिव्याप्तिका परिहार हो जाता है। क्योंकि दर्शन अनिश्चयस्वरूप होनेसे प्रमितिके प्रति करण नहीं है। दूसरी बात यह है, कि दर्शन निराकार ( अनिश्चयात्मक ) होता है और निराकारमें 15 ज्ञानपना नहीं होता। कारण, "दर्शन निराकार (निर्विकल्पक ) होता है और ज्ञान साकार ( सविकल्पक ) होता है ।" ऐसा आगमका वचन है। इस तरह प्रमाणका 'सम्यक् ज्ञान' यह लक्षण अतिव्याप्त नहीं है। और न अव्याप्त है। क्योंकि प्रत्यक्ष और परोक्षरूप अपने दोनों लक्ष्योंमें व्यापकरूपसे विद्यमान रहता है। तथा 20 असम्भवी भी नहीं है, क्योंकि लक्ष्य ( प्रत्यक्ष और परोक्ष ) में उसका रहना बाधित नहीं है-वहाँ वह रहता है। अतःप्रमाणका उपर्युक्त लक्षण बिल्कुल निर्दोष है। प्रमाणके प्रामाण्यका कथन शङ्का-प्रमाणका यह प्रामाण्य क्या है, जिससे 'प्रमाण' प्रमाण 25 कहा जाता है, अप्रमाण नहीं ? Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० न्याय-दीपिका समाधान—जाने हुए विषय में व्यभिचार (अन्यथापन) का न होना प्रामाण्य है। अर्थात् ज्ञानके द्वारा पदार्थ जैसा जाना गया है वह वैसा ही सिद्ध हो, अन्य प्रकारका सिद्ध न हो, यही उस ज्ञानका प्रामाण्य (सच्चापन) है। इसके होनेसे ही ज्ञान प्रमाण कहा जाता 5 है और इसके न होनेसे अप्रमाण कहलाता है। शङ्का-प्रामाण्यकी उत्पत्ति किस प्रकार होती है ? समाधान- मीमांसक कहते हैं कि 'स्वतः' होती है। 'स्वतः उत्पत्ति' कहनेका मतलब यह है कि ज्ञान जिन कारणोंसे पैदा होता है उन्हीं कारणोंसे प्रामाण्य उत्पन्न होता है-उसके लिए 10 भिन्न कारण (गुणादि) अपेक्षित नहीं होते। कहा भी है 'ज्ञानके कारणोंसे अभिन्न कारणोंसे उत्पन्न होना उत्पत्ति में स्वतस्त्व है।' पर उनका यह कहना विचारपूर्ण नहीं है। क्योंकि ज्ञानसामान्यकी उत्पादक सामग्री ( कारण ) संशय आदि मिथ्याज्ञानोंमें भी रहती है। हम तो इस विषयमें यह कहते हैं कि ज्ञानसामान्यकी 15 सामग्री सम्यग्ज्ञान और मिथ्याज्ञान दोनों में समान होनेपर भी 'संशयादि अप्रमाण हैं और सम्यग्ज्ञान प्रमाण है, यह विभाग (भेद) विना कारणके नहीं हो सकता है। अतः जिस प्रकार संशयादिमें अप्रमाणताको उत्पन्न करनेवाले काचकामलादि दोष और चाकचिक्य आदिको ज्ञानसामान्यकी सामग्रीके अलावा कारण ___20 मानते हैं। उसी प्रकार प्रमाणमें भी प्रमाणताके उत्पादक कारण ज्ञानको सामान्यसामग्रीसे भिन्न निर्मलता आदि गुणोंको अवश्य मानना चाहिये। अन्यथा प्रमाण और अप्रमाणका भेद नहीं हो सकता है। शङ्का-प्रमाणता और अप्रमाणताके भिन्न कारण सिद्ध हो ___25 भी जायें तथापि अप्रमाणता परसे होती है और प्रामाणता तो स्वतः ही होती है ? Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश समाधान-ऐसा कहना भी ठीक नहीं है। क्योंकि यह बात तो विपरीत पक्षमें भी समान है। हम यह कह सकते हैं कि 'अप्रमाणता तो स्वतः होती है और प्रमाणता परसे होती है। इसलिए अप्रमाणताकी तरह प्रमाणता भी परसे ही उत्पन्न होती है। जिस प्रकार वस्त्रसामान्यकी सामग्री लास्त्र वस्त्रमें कारण नहीं होती-उसके लिए दूसरी 5 ही सामग्री आवश्यक होती है उसी प्रकार ज्ञानसामान्यकी सामग्री प्रमाणमात्रमें कारण नहीं हो सकती है। क्योंकि दो भिन्न कार्थ अवश्य ही भिन्न भिन्न कारणोंसे होते हैं । शङ्का-प्रामाण्यका निश्चय कैसे होता है ? if समाधान-अभ्यस्त विषयमें तो स्वतः होता है और अनभ्यस्त 10 विषयमें परसे होता है। तात्पर्य यह है कि प्रामाण्यकी उत्पत्ति तो सर्वत्र परसे ही होती है, किन्तु प्रामाण्यका निश्चय परिचित विषयमें स्वतः और अपरिचित विषयमें परतः होता है। - शङ्का- अभ्यस्त विषय क्या है ? और अनभ्यस्त विषय क्या है ? क. समाधान—परिचित-कई बार जाने हुए अपने गाँवके तालाबका 15 जल वगैरह अभ्यस्त विषय हैं और अपरिचित नहीं जाने हुए दूसरे गाँवके तालाबका जल वगैरह अनभ्यस्त विषय हैं । fo शंका-स्वतः क्या है और परतः क्या है ! f समाधान-ज्ञानका निश्चय करानेवाले कारणोंके द्वारा ही प्रामाण्यका निश्चय होना 'स्वतः' है और उससे भिन्न कारणोंसे 20 होना 'परतः' है। उनमेंसे अभ्यस्त विषयमें 'जल है' इस प्रकार ज्ञान होनेपर ज्ञानस्वरूपके निश्चयके समयमें ही ज्ञानगत प्रामाणताका भी निश्चय अवश्य हो जाता है। नहीं तो दूसरे ही क्षणमें जलमें सन्देहरहित प्रवृत्ति नहीं होती, किन्तु जलज्ञानके बाद ही सन्देहरहित प्रवृत्ति 25 अवश्य होती है। अतः अभ्यासदशामें तो प्रामाण्यका निश्चय Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ न्याय-दीपिका स्वतः ही होता है। पर अनभ्यासदशामें जलज्ञान होनेपर 'जलज्ञान मुझे हुना' इस प्रकारसे ज्ञानके स्वरूपका निश्चय हो जाने पर भी उसके प्रामाण्यका निश्चय अन्य ( अर्थक्रियाज्ञान अथवा संवादज्ञान) से ही होता है। यदि प्रामाण्यका निश्चय अन्यसे न 5 हो- स्वतः ही हो तो जलज्ञानके बाद सन्देह नहीं होना चाहिये। पर सन्देह अवश्य होता है कि 'मुझको जो जलका ज्ञान हुआ है वह जल है या बालूका ढेर ?'। इस सन्देह के बाद ही कमलोंकी गन्ध, ठण्डी हवाके आने आदिसे जिज्ञासु पुरुष निश्चय करता है कि 'मुझे जो पहले जलका ज्ञान हुआ है वह प्रमाण है-सच्चा है, 10 क्योंकि जलके बिना कमलकी गन्ध आदि नहीं आ सकती है।' अतः निश्चय हुआ कि अपरिचित दशामें प्रामाण्यका निर्णय परसे ही होता है। नैयायिक और वैशेषिकों की मान्यता है कि उत्पत्तिकी तरह प्रामाण्यका निश्चय भी परसे ही होता है। इसपर हमारा कहना 15 है कि प्रामाण्यकी उत्पत्ति परसे मानना ठीक है। परन्तु प्रामाण्य का निश्चय 'परिचित विषय में स्वतः ही होता है' यह जब सयुक्तिक निश्चित हो गया तब 'प्रामाण्यका निश्चय परसे ही होता है' ऐसा अवधारण ( स्वतस्त्वका निराकरण ) नहीं हो सकता है। अतः यह स्थिर हुआ कि प्रमाणताकी उत्पत्ति तो परसे ही होती है, पर ज्ञप्ति (निश्चय) कभी ( अभ्यस्त विषयमें ) स्वतः और कभी (अनभ्यस्त विषयमें) परतः होती है। यही प्रमाणपरीक्षामें ज्ञप्तिको लेकर कहा है :____ "प्रमाणसे पदार्थों का ज्ञान तथा अभिलषितकी प्राप्ति होती है और प्रमाणाभाससे नहीं होती है। तथा प्रमाणताका निश्चय अभ्यास25 दशामें स्वतः और अनभ्यासदशामें परतः होता है।" इस तरह प्रमाणका लक्षण सुव्यवस्थित होनेपर भी जिन 20 Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १५३ लोगोंका यह भ्रम हैं कि बौद्धादिकोंका भी माना हुआ प्रमाणका लक्षण वास्तविक लक्षण है। उनके उपकार के लिए यहाँ उनके प्रमाणलक्षणोंकी परीक्षा की जाती है। बौद्धोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षा 'जो ज्ञान अविसंवादी है-विसंवादरहित है वह प्रमाण हैं' 5 ऐसा बौद्धोंका कहना है, परन्तु उनका यह कहना ठीक नहीं है। इसमें असम्भव दोष आता है। वह इस प्रकारसे है-बौद्धों ने प्रत्यक्ष और अनुमान ये दो ही प्रमाण माने हैं । न्यायबिन्दुमें कहा है "सम्यग्ज्ञान (प्रमाण) के दो भेद हैं-१ प्रत्यक्ष और २ अनुमान ।" उनमें न प्रत्यक्ष में अविसंवादीपना सम्भव है, क्योंकि वह 10 निर्विकल्पक होनेसे अपने विषयका निश्चायक न होनेके कारण संशयादिरूप समारोपका निराकरण नहीं कर सकता है। और न अनुमानमें भी अविसंवादीपना सम्भव है, क्योंकि उनके मतके अनुसार वह भी अवास्तविक सामान्यको विषय करनेवाला है। इस तरह बौद्धोंका वह प्रमाणका लक्षण असम्भव दोषसे दूषित होनेसे सम्यक् 15 लक्षण नहीं है। भाटोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षाहि 'जो पहले नहीं जाने हुए यथार्थ अर्थका निश्चय करानेवाला है वह प्रमाण है' ऐसा भाट्ट-मीमांसकों की मान्यता है; किन्तु उनका भी यह लक्षण अव्याप्ति दोषसे दूषित है। क्योंकि 20 उन्हींके द्वारा प्रमाणरूपमें माने हुए धारावाहिकज्ञान अपूर्वार्थग्राही नहीं हैं। यदि यह आशंका की जाय कि धारावाहिक ज्ञान अगले अगले क्षणसे सहित अर्थको विषय करते हैं इसलिए अपूवार्थविषयक ही हैं। तो यह आशंका करना भी ठीक नहीं है। कारण, क्षण अत्यन्त सूक्ष्म हैं उनको लक्षित करना-जानना 25 Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका सम्भव नहीं है। अतः धारावाहिकज्ञानोंमें उक्त लक्षणको अव्याप्ति निश्चित है। प्राभाकरोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षा प्राभाकर-प्रभाकरमतानुयायी 'अनुभूतिको प्रमाणका लक्षण' 5 मानते हैं; किन्तु उनका भी यह लक्षण युक्तिसङ्गत नहीं है। क्योंकि 'अनुभूति' शब्दको भावसाधन करनेपर करणरूप प्रमाणमें और करणसाधन करनेपर भावरूप प्रमाण में अव्याप्ति होती है। कारण, करण और भाव दोनों को ही उनके यहाँ प्रमाण माना गया है । जैसा कि शालिकानाथने कहा है10 'जब प्रमाण शब्दको 'प्रमितिः प्रमाणम्' इस प्रकार भावसाधन किया जाता है उस समय 'ज्ञान' ही प्रमाण होता है और 'प्रमीयतेऽनेन' इस प्रकार करणसाधन करनेपर 'प्रात्मा और मनका सन्निकर्ष' प्रमाण होता है। अतः अनुभूति (अनुभव) को प्रमाणका लक्षण मानने में अव्याप्ति दोष स्पष्ट है। इसलिए यह लक्षण भी सुलक्षण 15 नहीं है। नैयायिकोंके प्रमाण-लक्षणकी परीक्षा 'प्रमाके प्रति जो करण है वह प्रमाण हैं' ऐसी नैयायिकोंकी मान्यता है। परन्तु उनका भी यह लक्षण निर्दोष नहीं है। क्योंकि उनके द्वारा प्रमाणरूपमें माने गये ईश्वरमें ही वह अब्याप्त है। 20 कारण, महेश्वर प्रमाका आश्रय है, करण नहीं है। ईश्वरको प्रमाण माननेका यह कथन हम अपनी प्रोरसे आरोपित नहीं कर रहे हैं। किन्तु उनके प्रमुख प्राचार्य उदयनने स्वयं स्वीकार किया है कि 'तन्मे प्रमाणं शिवः' अर्थात् 'वह महेश्वर मेरे प्रमाण हैं। इस अव्याप्ति दोषको दूर करनेके लिये कोई इस प्रकार 25 व्याख्यान करते हैं कि 'जो प्रमाका साधन हो अथवा प्रमाका श्राश्रय हो वह प्रमाण है।' मगर उनका यह व्याख्यान युक्तिसङ्गत नहीं है । Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पहला प्रकाश १५५ क्योंकि प्रमासाधन और प्रमाश्रयमें से किसी एकको प्रमाण माननेपर लक्षणकी परस्परमें अव्याप्ति होती है। 'प्रमासाघन' रूप जब प्रमाणका लक्षण किया जायगा तब 'प्रमाश्रय' रूप प्रमाणलक्ष्यमें लक्षण नहीं रहेगा और जब 'प्रमाश्रय' रूप प्रमाणका लक्षण माना जायगा तब 'प्रमासाधन' रूप प्रमाणलक्ष्य में लक्षण घटित नहीं होगा। 5 तथा प्रमाश्रय और प्रमासाधन दोनोंको सभी लक्ष्योंका लक्षण माना जाय तो कहीं भी लक्षण नहीं जायगा। सन्निकर्ष श्रादि केवल प्रमासाघन हैं, प्रमाणके आश्रय नहीं हैं और ईश्वर केवल प्रमाका आश्रय है प्रमाका साधन नहीं है क्योंकि उसकी प्रमा (ज्ञान) नित्य है। प्रमाका साधन भी हो और प्रमाका आश्रय भी हो ऐसा 10 कोई प्रमाणलक्ष्य नहीं है। अतः नैयायिकोंका भी उक्त लक्षण सुलक्षण नहीं है। ए और भी दूसरोंके द्वारा माने गये प्रमाणके सामान्य लक्षण हैं। जैसे सांख्य 'इन्द्रियव्यापार' को प्रमाणका लक्षण मानते हैं । जरन्नैयायिक कारकसाकल्य' को प्रमाण मानते हैं, आदि । पर वे सब विचार 15 करनेपर सुलक्षण सिद्ध नहीं होते। अतः उनकी यहाँ उपेक्षा कर दी गई है । अर्थात् उनकी परीक्षा नहीं की गई। की अतः यही निष्कर्ष निकला कि अपने तथा परका प्रकाश करनेवाला सविकल्पक और अपूर्वार्थग्राही सम्यग्ज्ञान ही पदार्थोंके अज्ञानको दूर करनेमें समर्थ है। इसलिए वही प्रमाण है। इस तरह जैनमत 20 सिद्ध हुना। इस प्रकार श्रीजैनाचार्य धर्नभूषण यति विरचित न्यायदीपिकामें प्रमाणका सामान्य लक्षण प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश पूर्ण हुआ। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश प्रमाणविशेषका स्वरूप बतलानेके लिये यह दूसरा प्रकाश प्रारम्भ किया जाता है। प्रमाणके भेद और प्रत्यक्ष का लक्षण __ प्रमाणके दो भेद हैं :-१ प्रत्यक्ष और २ परोक्ष । विशद प्रतिभास 5 ( स्पष्ट ज्ञान ) को प्रत्यक्ष कहते हैं।' यहाँ 'प्रत्यक्ष' लक्ष्य है, 'विशदप्रतिभासत्व' लक्षण है। तात्पर्य यह कि जिस प्रमाणभूत ज्ञानका प्रतिभास (अर्थप्रकाश) निर्मल हो वह ज्ञान प्रत्यक्ष है । शङ्का-विशदप्रतिभासत्व' किसे कहते हैं ? समाधान-ज्ञानावरणकर्म के सर्वथा क्षयसे अथवा विशेष10 क्षयोपशमसे उत्पन्न होनेवाली और शब्द तथा अनुमानादि प्रमाणों से नहीं हो सकनेवाली जो अनुभवसिद्ध निर्मलता है वही निर्मलता 'विशदप्रतिभासत्व' है। किसी प्रामाणिक पुरुषके 'अग्नि है' इस प्रकारके वचनसे और 'यह प्रदेश अग्निवाला है, क्योंकि धुआँ है, इस प्रकारके धूमादि लिङ्गसे उत्पन्न हुए ज्ञानकी अपेक्षा 'यह अग्नि है। 15 इस प्रकारके उत्पन्न इन्द्रियज्ञानमें विशेषता (अधिकता) देखी जाती है। वही विशेषता निर्मलता, विशदता और स्पष्टता इत्यादि शब्दों द्वारा कही जाती है। अर्थात् ये उसी विशेषताके बोधक पर्याय नाम हैं। तात्पर्य यह कि विशेषप्रतिभासनका नाम विशद प्रतिभासत्व है। भगवान् भट्टाकलङ्कदेवने भी 'न्यायविनिश्चय' 20 में कहा है : स्पष्ट, यथार्थ और सविकल्पक ज्ञानको प्रत्यक्षका लक्षण कहा। है।' इसका विवरण (व्याख्यान) स्याद्वादविद्यापति श्रीवादिराजने Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश १५७ त्यायविनिश्चयविवरण' में इस प्रकार किया है कि "निर्मलप्रतिभासत्व ही स्पष्टत्व है और वह प्रत्येक विचारकके अनुभवमें आता है। इसलिये इसका विशेष व्याख्यान करना आवश्यक नहीं हैं"। अतः विशदप्रतिभासात्मक ज्ञानको जो प्रत्यक्ष कहा है वह बिल्कुल ठीक है। बौद्धोंके प्रत्यक्ष-लक्षणका निराकरण बौद्ध 'कल्पना-पोढ-निर्विकल्पक और अभ्रान्त--भ्रान्तिरहित ज्ञानको प्रत्यक्ष' मानते हैं। उनका कहना है कि यहाँ प्रत्यक्षके लक्षणमें जो दो पद दिये गये हैं। उनमें 'कल्पनापोढ' पदसे सविकल्पककी और 'अभ्रान्त' पदसे मिथ्याज्ञानोंकी व्यावृत्ति की 10 गई है। फलितार्थ यह हुआ कि जो समीचीन निर्विकल्पक ज्ञान है वह प्रत्यक्ष है। किन्तु उनका यह कथन बालचेष्टामात्र हैसयुक्तिक नहीं है। क्योंकि निर्विकल्पक संशयादिरूप समारोपका विरोधी ( निराकरण करनेवाला ) न होनेसे प्रमाण ही नहीं हो सकता है। कारण, निश्चयस्वरूप ज्ञानमें ही प्रमाणता व्यवस्थित 15 (सिद्ध ) होती है। तब वह प्रत्यक्ष कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। शङ्का-निर्विकल्पक ही प्रत्यक्ष प्रमाण है, क्योंकि वह अर्थसे उत्पन्न होता है। परमार्थसत्-वास्तविक है और स्वलक्षणजन्य है। सविकल्पक नहीं, क्योंकि वह अपरमार्थभूत सामान्यको विषय करनेसे 20 अर्थजन्य नहीं है ? समाधान नहीं; क्योंकि अर्थ प्रकाशकी तरह ज्ञानमें कारण नहीं हो सकता है। इसका खुलासा इस प्रकार है : अन्वय ( कारणके होनेपर कार्यका होना ) और व्यतिरेक (कारणके अभावमें कार्यका न होना ) से कार्यकारण भाव जाना 25 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका o RRE जाता है। इस व्यवस्थाके अनुसार प्रकाश ज्ञानमें कारण नहीं है। क्योंकि उसके प्रभावमें भी रात्रिमें विचरनेवाले बिल्ली, चहे। आदिको ज्ञान पैदा होता है और उसके सद्भावमें भी उल्लू वगैरहको ज्ञान उत्पन्न नहीं होता है। अतः जिस प्रकार प्रकाशका ज्ञानके 5 साथ अन्वय और व्यतिरेक न होनेसे वह ज्ञानका कारण नहीं हो सकता है उसी प्रकार अर्थ ( पदार्थ ) भा ज्ञानके प्रति कारण नहीं हो सकता है । क्योंकि अर्थके अभावमें भी केशमशकादिज्ञान उत्पन्न होता है। (और अर्थके रहनेपर भी उपयोग न होनेपर अन्यमनस्क या सुप्तादिकों को ज्ञान नहीं होता ) ऐसी दशामें ज्ञान 10 अर्थजन्य कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता है। परीक्षा मुखमें भी कहा है—'अर्थ और प्रकाश ज्ञानके कारण नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि प्रमाणतामें कारण अर्थाव्यभिचार ( अर्थके शमा अभावमें ज्ञानका न होना) है, अर्थजन्यता नहीं। कारण, स्वसंवेदन प्रत्यक्ष विषयजन्य न होनेपर भी प्रमाण माना गया है। यहां यह , 15 नहीं कहा जा सकता कि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष चूंकि अपनेसे उत्पन्न उत्पन होता है इसलिए वह भी विषयजन्य ही है, क्योंकि कोई भी प्रकार वस्तु अपनेसे ही पैदा नहीं होती। किन्तु अपनेसे भिन्न कारणोंसे अपने पैदा होती है। शङ्का-यदि ज्ञान अर्थ से उत्पन्न नहीं होता तो वह अर्थका 20 प्रकाशक कैसे हो सकता है ? मान्यत समाधान–दीपक घटादि पदार्थोंसे उत्पन्न नहीं होता फिर मणि भी वह उनका प्रकाशक है, यह देखकर आपको सन्तोष कर लेना । हुये देख चाहिये । अर्थात् दीपक जिस प्रकार घटादिकोंसे उत्पन्न न होकर प्रमाण भी उन्हें प्रकाशित करता है उसी प्रकार ज्ञान भी अर्थसे उत्पन्न न पहले 25 होकर उसे प्रकाशित करता है। सविकल शङ्का-ज्ञानका विषयके साथ यह प्रतिनियम कैसे बनेगा कि भयो अनाव Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश १५६ घटज्ञान का घट ही विषय है, पट नहीं है ? हम तो ज्ञान को अर्थजन्य होने के कारण श्रर्थजन्यता को ज्ञानमें विषयका प्रतिनियामक मानते हैं और जिससे ज्ञान पैदा होता है उसीको विषय करता है, अन्य को नहीं, इस प्रकार व्यवस्था करते हैं । किन्तु उसे श्राप नहीं मानते हैं ? प्रतिनियमक मानते हैं । समाधान हम योग्यता को विषय का जिस ज्ञान में जिस अर्थ के ग्रहण करने की योग्यता (एक प्रकार की शक्ति) होती है वह ज्ञान उस ही अर्थ को विषय करता है - श्रन्य को नहीं । 1 शंका- योग्यता किसे कहते हैं ? समाधान - अपने आवरण (ज्ञानको ढकने वाले कर्म) के क्षयोपशमको योग्यता कहते हैं । कहा भी हैं :- अपने प्रावरण कर्म के क्षयोपशमरूप योग्यता के द्वारा ज्ञान प्रत्येक पदार्थ की व्यवस्था करता है। तात्पर्य यह हुआ कि आत्मा में घटज्ञानावरण कर्म के हटने से उत्पन्न हुआ घटज्ञान घट को ही विषय करता है, पट को नहीं। इसी प्रकार दूसरे पटादिज्ञान भी अपने अपने क्षयोपशम को लेकर अपने अपने ही विषयों को विषय करते हैं । अतः ज्ञान को प्रर्थजन्य मानना अनावश्यक और प्रयुक्त है । 10 15 'ज्ञान अर्थ के आकार होने से अर्थ को प्रकाशित करता है।' यह मान्यता भी उपर्युक्त विवेचन से खंडित हो जाती है । क्योंकि दीपक, 20 मणि आदि पदार्थों के आकार न होकर भी उन्हें प्रकाशित करते हुये देखे जाते हैं । अतः अर्थाकारता और अर्थजन्यता ये दोनों ही प्रमाणता में प्रयोजक नहीं हैं । किन्तु श्रर्थाव्यभिचार ही प्रयोजक है । पहले जो सविकल्पक के विषयभूत सामान्य को प्रपरमार्थ बता कर सविकल्पक का खण्डन किया है वह भी ठीक नहीं है; क्योंकि किसी 25 Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 १६० न्याय - दीपिका प्रमाणसे बाधित न होने के कारण सविकल्प का विषय परमार्थ ( वास्तविक ) ही है । वल्कि बौद्धों के द्वारा माना गया स्वलक्षण ही आपत्ति के योग्य है । श्रतः प्रत्यक्ष निर्विकल्पकरूप नहीं है - सवि 20 कल्पकरूप ही है । नैयायिक और वैशेषिक सन्निकर्ष ( इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध ) को प्रत्यक्ष मानते हैं। पर वह ठीक नहीं है; क्योंकि सन्निकर्ष चेतन है । वह प्रमिति के प्रति करण कैसे हो सकता है ? प्रमिति के प्रति जब करण नहीं, तब प्रमाण कैसे ? और जब प्रमाण 10 ही नहीं, तो प्रत्यक्ष कैसे ? यौगाभिमत सन्निकर्ष का निराकरण दूसरी बात यह है कि चक्षु इन्द्रिय रूपका ज्ञान सन्निकर्ष के बिना ही कराती है, क्योंकि वह श्रप्राप्य है । इसलिए सन्निकर्ष के श्रभाव में भी प्रत्यक्ष ज्ञान होने से प्रत्यक्ष में सन्निकर्षरूपता ही नहीं है । चक्षु इन्द्रिय को जो यहाँ अप्राप्यकारी कहा गया है वह प्रसिद्ध 15 नहीं है। कारण, प्रत्यक्ष से चक्षु इन्द्रिय में श्रप्राप्यकारिता ही प्रतीत होती है । 25 प्राप्यकारिता ( पदार्थ को प्राप्त मालूम नहीं होती तथापि उसे जिस प्रकार पर करेंगे । 'परमाणु है, शंका - यद्यपि चक्षु इन्द्रिय की करके प्रकाशित करना ) प्रत्यक्ष से परमाणु की तरह अनुमान से सिद्ध माणु प्रत्यक्ष से सिद्ध न होने पर भी क्वोंकि स्कन्धादि कार्य अन्यथा नहीं हो सकते' इस अनुमान से उसकी सिद्धि होती है उसी प्रकार 'चक्षु इन्द्रिय पदार्थ को प्राप्त करके प्रकाश करने दाली है, क्योंकि वह बहिरिन्द्रिय है ( बाहर से देखी जाने वाली इन्द्रिय है ) जो बहिरिन्द्रिय है वह पदार्थ को प्राप्त करके ही प्रकाश करती है, जैसे स्पर्शन इन्द्रिय' इस अनुमान से चक्षु में न वि हो Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश प्राप्यकारिता की सिद्धि होती है और प्राप्यकारिता ही सन्निकषं है । अतः चक्षु इन्द्रिय में सन्निकर्ष की अव्याप्ति नहीं है। अर्थात् चक्षु इन्द्रिय भी सन्निकर्ष के होने पर ही रूपज्ञान कराती है। इसलिए सन्निकर्ष को प्रत्यक्ष मानने में कोई दोष नहीं है ? समाधान – नहीं; यह अनुमान सम्यक् अनुमान नहीं है-अनु- 5 मानाभास है । वह इस प्रकार है : इस अनुमान में 'चक्षु' पदसे कौनसी चक्षु को पक्ष बनाया है ? लौकिक (गोलकरूप) चक्षुको अथवा अलौकिक (किरणरूप) चक्षुको ? पहले विकल्प में, हेतु कालात्ययापदिष्ट (बाधितविषय) नामका हेत्वाभास) है; क्योंकि गोलकरूप लौकिक चक्षु विषय के पास जाती हुई 10 किसी को भी प्रतीत न होने से उसकी विषय-प्राप्ति प्रत्यक्ष से बाधित है। दूसरे विकल्प में, हेतु अाश्रयासिद्ध है; क्योंकि किरणरूप अलौकिक चक्षु अभी तक सिद्ध नहीं है। दूसरी बात यह है, कि वृक्ष की शाखा और चन्द्रमा का एक ही काल में ग्रहण होने से चक्ष अप्राप्यकारी ही प्रसिद्ध होती है। अतः उपर्युक्त अनुमानगत हेतु कालात्ययापदिष्ट 15 और आश्रयासिद्ध होने के साथ ही प्रकरणसम (सत्प्रतिपक्ष) भी है। इस प्रकार सन्निकर्ष के बिना भी चक्षु के द्वारा रूपज्ञान होता है। इसलिए सन्निकर्ष अव्याप्त होने से प्रत्यक्ष का स्वरूप नहीं है, यह बात सिद्ध हो गई। - इस सन्निकर्ष के अप्रमाण्य का विस्तृत विचार प्रमेयकमलमार्तण्ड 20 में [ १-१ तथा २-४ ] अच्छी तरह किया गया है। संग्रहग्रन्थ होने के कारण इस लघु प्रकरण न्याय-दीपिका में उसका विस्तार नहीं किया। इस प्रकार न बौद्धाभिमत निर्विकल्पक प्रत्यक्ष है और न यौगों का इन्द्रियार्थसन्निकर्ष । तो फिर प्रत्यक्ष का लक्षण क्या है ? विशदप्रतिभासस्वरूप ज्ञान ही प्रत्यक्ष है, यह भले प्रकार सिद्ध 25 हो गया। Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ न्याय-दीपिका प्रत्यक्ष के दो भेद करके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण___ वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-१ सांव्यवहारिक और २ पार माथिक । एकदेश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। 5 तात्पर्य यह कि जो ज्ञान कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। उसके चार भेद हैं-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय और ४ धारणा। इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अनन्तर होने वाले और अवान्तरसत्ता जाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञानविशेष को अवग्रह 10 कहते हैं। जैसे 'यह पुरुष है'। यह ज्ञान संशय नहीं है, क्योंकि विषयान्तर का निराकरण करके अपने विषय का ही निश्चय कराता है। और संशय उससे विपरीत लक्षण वाला है। जैसा कि राजवार्तिक में कहा है-"संशय नानार्थविषयक, अनिश्चयात्मक और अन्य का अव्यवच्छेदक होता है । किन्तु अवग्रह एकार्थविषयक, 15 निश्चयात्मक और अपने विषय से भिन्न विषय का व्यवच्छेदक होता है।" राजवात्तिकभाष्य में भी कहा है-"संशय निर्णय का विरोधी है, परन्तु अवग्रह नहीं है।" फलितार्थ यह निकला कि संशयज्ञानमें पदार्थ का निश्चय नहीं होता और अवग्रह में होता है। अत: अवग्रह संशयज्ञान से पृथक् है। अवग्रह से जाने हुये अर्थ में उत्पन्न संशयको दूर करने के लिये ज्ञाताका जो अभिलाषात्मक प्रयत्न होता है उसे ईहा कहते हैं। जैसे अवग्रह ज्ञानके द्वारा यह पुरुष है' इस प्रकार का निश्चय किया गया था, इससे यह 'दक्षिणी' है अथवा 'उत्तरीय' इस प्रकार के सन्देह होने पर उसको दूर करने के लिये यह दक्षिणी होना चाहिये' ऐसा ईहा 25 नाम का ज्ञान होता है। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश १६३ भाषा, वेष और भूषा आदि के विशेष को जानकर यथार्थता का निश्चय करना अवाय है । जैसे 'यह दक्षिणी ही है। . अवाय से निश्चित किये गये पदार्थ को कालान्तर में न भूलने की शक्ति से उसी का ज्ञान होना धारणा है। जिससे भविष्य में भी 'वह' इस प्रकार का स्मरण होता है । तात्पर्य यह कि 5 पदार्थका निश्चय होने के बाद जो उसको न भूलने रूप से संस्कार ( वासना ) स्थिर हो जाता है और जो स्मरण का जनक होता है वही धारणाज्ञान है। अतएव धारणा का दूसरा नाम संस्कार शङ्का-ये ईहादिक ज्ञान पहले पहले ज्ञान से ग्रहण किये 10 हुये पदार्थ को ही ग्रहण करते हैं, अतः धारावाहिक ज्ञान की तरह अप्रमाण हैं ? समाधान-नहीं; भिन्न विषय होने से अगृहीतार्थग्राही हैं । अर्थात् -पूर्व में ग्रहण नहीं किये हुये विषय को ही ग्रहण करते हैं । यथाजो पदार्थ अवग्रह ज्ञान का विषय है वह ईहा का नहीं है। और जो 15 ईहा का है वह अवाय का नहीं है । तथा जो अवाय का है वह धारणा का नहीं है। इस तरह इनका विषयभेद बिल्कुल स्पष्ट है और उसे बुद्धिमान अच्छी तरह जान सकते हैं। ये अवग्रहादि चारों ज्ञान जब इन्द्रियों के द्वारा उत्पन्न होते हैं तब इन्द्रियप्रत्यक्ष कहे जाते हैं। और जब अनिन्द्रिय-मन के द्वारा 20 पैदा होते हैं तब अनिन्द्रियप्रत्यक्ष कहे जाते हैं । इन्द्रियाँ पाँच है–१ स्पर्शन, २ रसना, ३ घ्राण, ४ चक्षु, और ५ श्रोत्र । अनिन्द्रिय १ स्मृतिहेतुधारणा, संस्कार इति यावत्-लघी०स्वोपज्ञविवृ०का०६। वैशेषिकदर्शन में इसे (धारणाको) भावना नामका संस्कार कहा है और उसे स्मृतिजनक माना है। Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका केवल एक मन है। इन दोनों के निमित्त से होनेवाला यह अवग्रहादिरूप ज्ञान लोकव्यवहार में 'प्रत्यक्ष' प्रसिद्ध है। इसलिये यह सांव्यवहारिकप्रत्यक्ष कहा जाता है। परीक्षामुख में भी कहा है-'इन्द्रिय और मन के निमित्त से होने वाले एक देश स्पष्ट ज्ञान 5 को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं।" और यह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष अमुख्य प्रत्यक्ष है—गौण रूपसे प्रत्यक्ष है, क्योंकि उपचार से सिद्ध होता है। वास्तव में तो परोक्ष ही है। कारण वह मतिज्ञान है और मतिज्ञान परोक्ष है। शङ्का-मतिज्ञान परोक्ष कैसे है ? 10 समाधान—“पाद्ये परोक्षम्" [ त० सू० १-११ ] ऐसा सूत्र है—ागम का वचन है। सूत्र का अर्थ यह है कि प्रथम के दो ज्ञान –मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं। यहाँ सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष को जो उपचार से प्रत्यक्ष कहा गया है उस उपचार में निमित्त 'एकदेश स्पष्टता' है। अर्थात्-इन्द्रिय और अनिन्द्रिय जन्य ज्ञान 1 15 कुछ स्पष्ट होता है, इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा गया है। इस सम्बन्ध में और अधिक विस्तार की आवश्यकता नहीं है। इतना विवेचन पर्याप्त है। पारमार्थिक प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का कथन-ौ सम्पूर्णरूप से स्पष्ट ज्ञान को पारमार्थिक प्रत्यक्ष कहते हैं। जो विव 20 ज्ञान समस्त प्रकार से निर्मल है वह पारमार्थिक प्रत्यक्षा है। उसी को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं। उसके दो भेद हैं-एक सकल प्रत्यक्ष और दूसरा विकल(चूंकि प्रत्यक्ष। उनमें से कुछ पदार्थों को विषय करने वाला ज्ञान विकल , इर पारमार्थिक है। उसके भी दो भेद हैं-१ अवधिज्ञान और २ मनःप 25 मनःपर्ययज्ञान । अवधिज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोप- जाते। IFE TO Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुसरा प्रकाश १६५ शमसे उत्पन्न होने वाले तथा मूर्त्तिक द्रव्य मात्रको विषय करने वाले ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं । मन:पर्ययज्ञानावरण और वीर्यान्तरायकर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न हुये और दूसरे के मन में स्थित पदार्थ को जाननेवाले ज्ञान को मन:पर्ययज्ञान कहते हैं । मतिज्ञान की तरह अवधि और मन:पर्ययज्ञान के भी भेद और प्रभेद है, उन्हें तत्त्वार्थ- 5 राजवात्तिक और श्लोकवात्तिकभाष्य से जानना चाहिये । समस्त द्रव्यों और उनकी समस्त पर्यायों को जानने वाले ज्ञान को सकल प्रत्यक्ष कहते हैं । वह सकल प्रत्यक्ष ज्ञानावरण आदि घातियाकर्मों के सम्पूर्ण नाश से उत्पन्न केवलज्ञान ही है । क्योंकि " समस्त द्रव्यों और समस्त पर्यायों में केवल ज्ञान की प्रवृत्ति है" ऐसा तत्त्वार्थ- 10 सूत्र का उपदेश है । इस प्रकार अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान और केवलज्ञान ये तीनों ज्ञान सब तरह से स्पष्ट होने के कारण पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं । सब तरह से स्पष्ट इसलिये हैं कि ये मात्र श्रात्मा की अपेक्षा लेकर उत्पन्न होते हैं - इन्द्रियादिक पर पदार्थ की अपेक्षा नहीं लेते । शङ्का — केवलज्ञान को पारमार्थिक कहना ठीक है, परन्तु अवधि और मन:पर्यय को पारमार्थिक कहना ठीक नहीं है । कारण, वे दोनों विकल ( एकदेश) प्रत्यक्ष हैं ? 15 समाधान- नहीं; सकलपना और विकलपना यहाँ विषय की प्रपेक्षा से है, स्वरूपतः नहीं । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है- 20 चूंकि केवलज्ञान समस्त द्रव्यों और पर्यार्यो को विषय करने वाला है, इसलिये वह सकल प्रत्यक्ष कहा जाता है । परन्तु अवधि और मन:पर्यय कुछ पदार्थों को विषय करते हैं, इसलिये वे बिकल कहे जाते हैं। लेकिन इतने से उनमें पारमार्थिकता की हानि नहीं होती । क्योंकि पारमार्थिकता का कारण सकलार्थविषयता नहीं है- पूर्ण 25 Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका निर्मलता है और वह पूर्ण निर्मलता केवलज्ञान की तरह अवधि और मनःपर्यय में भी अपने विषय में विद्यमान है। इसलिये वे दोनों भी पारमार्थिक ही हैं। अवधि आदि तीनों ज्ञानों को अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष न हो सकने की 5 शङ्का और उसका समाधान शङ्का-अक्ष नाम चक्षु आदि इन्द्रियों का है, उनकी सहायता लेकर जो ज्ञान उत्पन्न होता है उसे ही प्रत्यक्ष कहना ठीक है, अन्य (इन्द्रियनिरपेक्ष अवधिज्ञानादिक) को नहीं ? ___समाधान—यह शङ्का ठीक नहीं है ; क्योंकि आत्मा मात्र को 10 अपेक्षा रखने वाले और इन्द्रियों की अपेक्षा न रखने वाले भी अवधि, मनःपर्यय और केवलज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में कोई विरोध नहीं है। कारण, प्रत्यक्षता का प्रयोजक स्पष्टता ही है, इन्द्रिय जन्यता नहीं। और वह स्पष्टता इन तीनों ज्ञानोंमें पूर्णरूप से है। 15 इसीलिये मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल इन पाँच ज्ञानों में 'आद्ये परोक्षम्' [ त० सू० १-११ ] और 'प्रत्यक्षमन्यत्' [ त० सू० १-१२ ] इन दो सूत्रों द्वारा प्रथम के मति और श्रुत इन दो ज्ञानों को परोक्ष तथा अवधि, मनःपर्यय और केवल इन तीनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहा है। शङ्का-फिर ये प्रत्यक्ष शब्द के वाच्य कैसे हैं ? अर्थात् इनको 20 प्रत्यक्ष शब्द से क्यों कहा जाता है ? क्योंकि अक्ष नाम तो इन्द्रियों का है और इन्द्रियों की सहायता से होने वाला इन्द्रियजन्य ज्ञान ही प्रत्यक्ष शब्द से कहने योग्य है ? __ समाधान हम इन्हें रूढि से प्रत्यक्ष कहते हैं। तात्पर्य यह कि प्रत्यक्ष शब्द के व्युत्पत्ति (यौगिक) अर्थ की अपेक्षा न करके अवधि 25 आदि ज्ञानों में प्रत्यक्ष शब्द की प्रवृत्ति होती है और प्रवृत्ति में Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 दूसरा प्रकाश १६७ निमित्त' स्पष्टता है । और वह उक्त तीनों ज्ञानों में मौजूद है । श्रतः जो ज्ञान स्पष्ट है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है । अथवा, व्युत्पत्ति अर्थ भी इनमें मौजूद है । ' अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा' अर्थात् - जो व्याप्त करे-जाने उसे अक्ष कहते हैं और वह आत्मा है । इस व्युत्पत्ति को लेकर अक्ष शब्द का अर्थ 5 आत्मा भी होता है । इसलिये उस अक्ष- - श्रात्मा मात्रको अपेक्षा लेकर उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में क्या बाधा है ? अर्थात् कोई बाधा नहीं है । - शङ्का - यदि ऐसा माना जाय तो इन्द्रियजन्य ज्ञान श्रप्रत्यक्ष कहलायेगा ? समाधान - हमें खेद है कि आप भूल कि इन्द्रियजन्य ज्ञान उपचार से प्रत्यक्ष है । हो, इसमें हमारी कोई हानि नहीं है । हम कह आये हैं जाते हैं । अतः वह वस्तुतः अप्रत्यक्ष 10 इस उपर्युक्त विवेचन से 'इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानको परोक्ष' कहनेकी मान्यता का भी खण्डन हो जाता है । क्योंकि श्रविशदता 15 ( अस्पष्टता) को ही परोक्ष का लक्षण माना गया है। तात्पर्य यह १ व्युत्पत्तिनिमित्त से प्रवृत्तिनिमित्त भिन्न हुआ करता है । जैसे गोशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त 'गच्छतीति गौः' जो गमन करे वह गौ है, इस प्रकार 'गमनक्रिया' है और प्रवृत्तिनिमित्त 'गोत्व' है। यदि व्युत्पत्तिनिमित्त ( गमन क्रिया) को ही प्रवृत्ति में निमित्त माना जाय तो बैठी या खड़ी गाय में गोशब्दकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और गमन कर रहे मनुष्यादिमें भी गोशब्दकी प्रवृत्ति का प्रसङ्ग आयेगा । अतः गोशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त व्युत्पत्तिनिमित्तसे भिन्न 'गोत्व' है । उसी प्रकार प्रकृत में प्रत्यक्ष शब्दकी प्रवृत्ति में व्युत्पत्तिनिमित्त 'प्रक्षाश्रितत्व' से भिन्न ' स्पटत्व' है । अतः अवधि आदि तीनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहने में कोई बाधा नहीं है । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका । जिस प्रकार इन्द्रियसापेक्षता प्रत्यक्षता में प्रयोजक नहीं है। उसी कार इन्द्रियनिरपेक्षता परोक्षता में भी प्रयोजक नहीं है। किन्तु त्यक्षता में स्पष्टताकी तरह परोक्षता में अस्पष्टता कारण है। शङ्का-'अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है' यह कहना बड़े साहस की बात है; क्योंकि वह असम्भव है। यदि असम्भव की भी कल्पना करें तो आकाश के फूल आदि की भी कल्पना होनी चाहिए ? । समाधान-नहीं; आकाश के फूल आदि अप्रसिद्ध हैं। परन्तु अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। वह इस प्रकार से है'केवलज्ञान' जो कि अतीन्द्रिय है, अल्पज्ञानी कपिल आदि के असम्भव होने पर भी अरहन्तके अवश्य सम्भव है ; क्योंकि अरहन्त भगवान् सर्वज्ञ हैं। प्रसङ्गवश शङ्का-समाधान पूर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि। शङ्का-सर्वज्ञता ही जब अप्रसिद्ध है तब आप यह कैसे कहते हैं कि 'अर्हन्त भगवान् सर्वज्ञ हैं ? क्योंकि जो सामान्यतया कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है उसका किसी खास जगह में व्यवस्थापन नहीं हो सकता है ? समाधान-नहीं; सर्वज्ञता अनुमान से सिद्ध है। वह अनुमान इस प्रकार है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि अनुमान से जाने जाते हैं। जैसे अग्नि आदि • पदार्थ । स्वामी समन्तभद्र ने भी महाभाष्य के प्रारम्भ में आप्तमी १ महाभाष्यसे सम्भवतः ग्रन्थकार का प्राशय गन्धहस्तिमहाभाष्य से जान पड़ता हैं क्योंकि अनुश्रुति ऐसी है कि स्वामी समन्तभद्रने 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' नामकी कोई बृहद् टीका लिखी है और आप्तमीमांसा जिसका आदिम प्रकरण है । पर उसके अस्तित्वमें विद्वानोंका मतभेद है । इसका कुछ विचार प्रस्तावनामें किया है। पाठक वहाँ देखें । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश मांसा प्रकरण में कहा है- "सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसीके प्रत्यक्ष हैं, क्योकि वे अनुमानसे जाने जाते हैं। जैसे अग्नि आदि। इस अनुमान से सर्वज्ञ भले प्रकार सिद्ध होता है।" सूक्ष्म पदार्थ वे हैं जो स्वभाव से विप्रकृष्ट हैं-दूर हैं, जैसे परमाणु आदि । अन्तरित वे हैं जो काल से विकृष्ट हैं, जैसे राम 5 आदि । दूर वे हैं जो देश से विप्रकृष्ट हैं, जैसे मेरु आदि । ये ‘स्वभाव, काल और देश से विप्रकृष्ट पदार्थ' यहाँ धर्मी (पक्ष) हैं। 'किसी के प्रत्यक्ष हैं' यह साध्य है। यहाँ 'प्रत्यक्ष' शब्द का अर्थ 'प्रत्यक्षज्ञान के विषय' यह विवक्षित है, क्योंकि विषयी ( ज्ञान ) के धर्म (जानना) का विषय में भी उपचार होता है। 'अनुमान से जाने जाते हैं' यह 10 हेतु है । 'अग्नि आदि' दृष्टान्त है । 'अग्नि प्रादि' दृष्टान्त में 'अनुमान से जाने जाते हैं' यह हेतु किसी के प्रत्यक्ष' हैं' इस साध्य के साथ पाया जाता है। अतः वह परमाणु , वगैरह सूक्ष्मादि पदार्थों में भी किसी को प्रत्यक्षता को अवश्य सिद्ध करता है। तात्पर्य यह कि जिस प्रकार अग्नि आदि अनुमान से जाने जाते हैं। अतएव वे किसी के 15 प्रत्यक्ष भी होते हैं। उसी प्रकार सुक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ चूँकि हम लोगों के द्वारा अनुमान से जाने जाते हैं अतएव वे किसी के प्रत्यक्ष भी हैं और जिसके प्रत्यक्ष हैं वही सर्वज्ञ है । परमाणु आदि में 'अनुमान से जाने जाते हैं। यह हेतु प्रसिद्ध भी नहीं है, क्योंकि उनको अनुमान से जानने में किसी को विवाद नहीं है। अर्थात्-सभी मतवाले इन पदार्थों 20 को अनुमेय मानते हैं। ____ शङ्का-सूक्ष्मादि पदार्थों को प्रत्यक्ष सिद्ध करने के द्वारा किसी के सम्पूर्ण पदार्थों का प्रत्यक्षज्ञान हो, यह हम मान सकते हैं। परन्तु वह अतीन्द्रिय है-इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता है, यह कैसे ? समाधान-इस प्रकार से—यदि वह ज्ञान इन्द्रियजन्य हो तो 25 Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० न्याय-दीपिका सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है। क्योंकि इन्द्रियाँ अपने योग्य विषय' (सन्निहित और वर्तमान अर्थ) में ही ज्ञान को उत्पन्न कर सकती हैं। और सूक्ष्मादि पदार्थ इन्द्रियों के योग्य विषय नहीं हैं। अतः वह सम्पूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनन्द्रियिक ही है5 इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित अतीन्द्रिय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार से सर्वज्ञ के मानने में किसी भी सर्वज्ञवादी को विवाद नहीं है। जैसा कि दूसरे भी कहते हैं—'पुण्य-पापादिक किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे प्रमेय हैं।" सामान्य से सर्वज्ञ को सिद्ध करके अर्हन्त के सर्वज्ञता की सिद्धि10 शङ्का सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान सामान्यतया सिद्ध हो; परन्तु वह अरहन्त के हैं यह कैसे ? क्योंकि किसी के' यह सर्वनाम शब्द है और सर्वनाम शब्द सामान्य का ज्ञापक होता है ? समाधान-सत्य है । इस अनुमान से सामान्य सर्वज्ञ की ___15 सिद्धि की है। 'परहन्त सर्वज्ञ हैं' यह हम अन्य अनुमान से सिद्ध करते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है- 'अरहन्त सर्वज्ञ होने के योग्य हैं, क्योंकि वे निर्दोष हैं, जो सर्वज्ञ नहीं है वह निर्दोष नहीं है, जैसे रथ्यापुरुष ( पागल )।' यह केवलव्यतिरेकी हेतु जन्य अनुमान है। आवरण और रागादि ये दोष हैं और इनसे रहित का नाम निर्दोषता है। वह निर्दोषता सर्वज्ञता के बिना नहीं हो सकती है। क्योंकि जो किञ्चिज्ज्ञ है- अल्पज्ञानी है उसके प्रावरणादि दोषों का प्रभाव नहीं है। अतः अरहन्त में रहने वाली यह निर्दोषता उनमें १ 'सम्वद्धं वर्त्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना'-मी०श्लो॰सूत्र ४ श्लोक ८४ । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा प्रकाश १७१ सर्वज्ञता को अवश्य सिद्ध करती है। और यह निर्दोषता अरहन्त परमेष्ठी में उनके युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन होने से सिद्ध होती है। युक्ति और शास्त्र से अविरोधी वचन भी उनके द्वारा माने गये मुक्ति, संसार और मुक्ति तथा संसार के कारण तत्त्व और अनेकधर्मयुक्त चेतन तथा अचेतन तत्त्व के प्रत्यक्षादि प्रमाण से : बाधित न होने से अच्छी तरह सिद्ध होते हैं। तात्पर्य यह कि अरहन्त के द्वारा उपदेशित तत्त्वों में प्रत्यक्षादि प्रमाणों से कोई बाधा नहीं आती है। अतः वे यथार्थवक्ता हैं। और यथार्थवक्ता होने से निर्दोष हैं। तथा निर्दोष होने से सर्वज्ञ हैं। शङ्का-इस प्रकार अरहन्त के सर्वज्ञता सिद्ध हो जाने पर भी 10 वह अरहन्त के ही हैं, यह कैसे ? क्योंकि कपिल श्रादि के भी वह सम्भव है ? समाधान-कपिल आदि सर्वज्ञ नहीं हैं; क्योंकि वे सदोष हैं। और सदोष इसलिए हैं कि वे युक्ति और शास्त्र से विरोधी कथन करने वाले हैं। युक्ति और शास्त्र से विरोधी कथन करने वाले भी 15 इस कारण है कि उनके द्वारा माने गये मुक्ति आदिक तत्त्व और सर्वथा एकान्त तत्त्व प्रमाण से बाधित हैं। अतः वे सर्वज्ञ नहीं हैं। अरहन्त ही सर्वज्ञ हैं। स्वामी समन्तभद्र ने ही कहा है- "हे अर्हन् ! वह सर्वज्ञ आप ही हैं, क्योंकि आप निर्दोष हैं। निर्दोष इसलिये हैं कि युक्ति और आगम से आपके वचन अविरुद्ध हैं-युक्ति तथा आगम से 20 उनमें कोई विरोध नहीं आता। और वचनों में विरोध इस कारण नहीं है कि आपका इष्ट ( मुक्ति आदि तत्त्व ) प्रमाण से बाधित नहीं है। किन्तु तुम्हारे अनेकान्त मतरूप अमृत का पान नहीं करने वाले तथा सर्वथा एकान्त तत्त्व का कथन करने वाले और अपने को प्राप्त समझने के अभिमान से दग्ध हुए एकान्तवादियों का इष्ट (अभि- 25 मत तत्त्व) प्रत्यक्ष से बाधित है।" Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ न्याय-दीपिका इस तरह इन दो कारिकारों के द्वारा पराभिमत तत्त्व में बाधा और स्वाभिमत तत्त्व में अबाधा इन्हीं दो के समर्थन को लेकर 'भावैकान्ते' इस कारिका के द्वारा प्रारम्भ करके 'स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः' इस कारिका तक प्राप्तमीमांसा की रचना की गई है। अर्थात् - 5 अपने द्वारा माने गये तत्त्व में कैसे बाघा नहीं है ? और एकान्तवादियों के द्वारा माने तत्व में किस प्रकार बाधा है ? इन दोनों का विस्तृत विवेचन स्वामी समन्तभद्र ने 'प्राप्तमीमांसा' में 'भावैकान्ते' इस कारिका ह से लेकर 'स्यात्कारः सत्यलाञ्छनः' इस कारिका ११२ तक किया है। अतः यहाँ और अधिक विस्तार नहीं किया जाता। ___10 इस प्रकार अतीन्द्रिय केवलज्ञान अरहन्त के ही है, यह सिद्ध हो गया। और उनके वचनों के प्रमाण होने से उनके द्वारा प्रतिपादित अतीन्द्रिय अवधि और मनःपर्ययज्ञान भी सिद्ध हो गये। इस तरह अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष निर्दोष (निधि) है—उसके मानने में कोई दोष या बाधा नहीं है। अतः प्रत्यक्ष के सांव्यवहारिक और पारमार्थिक ये दो ___15 भेद सिद्ध हुये। इस प्रकार श्रीजैनाचार्य धर्मभूषण यति विरचित न्यायदीपिकामें प्रत्यक्ष प्रमाणका प्रकाश करनेवाला पहला प्रकाश पूर्ण हुआ। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश दूसरे प्रकाश में प्रत्यक्ष प्रमाण का निरूपण करके इस प्रकाश में परोक्ष प्रमाण का निरूपण प्रारम्भ किया जाता है। परोक्ष प्रमाण का लक्षण अविशद प्रतिभास को परोक्ष कहते हैं। यहाँ 'परोक्ष' लक्ष्य है, 'अविशदप्रतिभासत्व' लक्षण है। तात्पर्य यह कि जिस ज्ञान का 5 प्रतिभास विशद-स्पष्ट नहीं है वह परोक्ष प्रमाण है। विशदता का लक्षण पहले बतला पाये हैं, उससे भिन्न अविशदता है। उसी को अस्पष्टता कहते हैं। यह अविशदता भी विशदता की तरह अनुभव से जानी जाती है। ___ 'जो ज्ञान केवल सामान्य को विषय करे वह परोक्ष है' ऐसा 10 कोई (बौद्ध) परोक्ष का लक्षण करते हैं। परन्तु वह ठीक नहीं है। क्योंकि प्रत्यक्ष की तरह परोक्ष भी सामान्य और विशेषरूप वस्तु को विषय करता है। और इसलिये वह लक्षण असम्भव दोष युक्त है। जिस प्रकार प्रत्यक्ष घटादि पदार्थों में प्रवृत्त होकर उनके घटत्वादिक सामान्याकार को और घट व्यक्तिरूप व्यवच्छेदात्मक विशेषा- 15 कारको एक साथ ही विषय करता हुआ उपलब्ध होता है उसी प्रकार परोक्ष भी सामान्य और विशेष दोनों आकारों को विषय करता हुआ उपलब्ध होता है। इस कारण 'केवल सामान्य को विषय करना' परोक्ष का लक्षण नहीं है, अपि तु अविशदता ही परोक्ष का लक्षण है। सामान्य और विशेष में से किसी एक को 20 विषय करने वाला मानने पर तो प्रमाणता ही नहीं बन सकती है। क्योंकि सभी प्रमाण सामान्य और विशेष दोनों स्वरूप वस्तु को विषय करने वाले माने गये हैं। कहा भी है-"सामान्य और विशेष Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ न्याय-दीपिका रूप वस्तु प्रमाणका विषय है।" अतः अविशद (अस्पष्ट) प्रतिभास को जो परोक्ष का लक्षण कहा है वह बिल्कुल ठीक है। परोक्ष प्रमाण के भेद और उनमें ज्ञानान्तर की सापेक्षता का कथन . n उस परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं-१ स्मृति, २ प्रत्यभिज्ञान, ३ तर्क, ४ अनुमान और ५ प्रागम। ये पाँचों ही परोक्ष प्रमाण ज्ञानान्तर की अपेक्षा से उत्पन्न होते हैं। स्मरण में पूर्व अनुभव की अपेक्षा होती है, प्रत्यभिज्ञान में स्मरण और अनुभव की, तर्क में अनुभव, स्मरण और प्रत्यभिज्ञान की, अनुमान में लिङ्गदर्शन, व्याप्ति स्मरण आदि की और पागम में शब्दश्रवण, सङ्केतग्रहण (इस शब्द का यह अर्थ है, इस प्रकार के संकेत के ग्रहण ) आदि की अपेक्षा होती है। किन्तु प्रत्यक्ष प्रमाण में ज्ञानान्तर की अपेक्षा नहीं होती, वह स्वतन्त्र रूप से—ज्ञानान्तर निरपेक्ष ही उत्पन्न होता है । स्मरण आदि को यह ज्ञानान्तरापेक्षा उनके अपने अपने निरूपण के समय बतलायी जायगी। प्रथमतः उद्दिष्ट स्मृति का निरूपणस्मृति किसे कहते हैं ? 'वह' इस प्रकार से उल्लिखित होने वाले और पहले अनुभव किये हुये पदार्थ को विषय करने वाले ज्ञान को स्मृति कहते हैं। जैसे 'वह देवदत्त' । यहाँ पहले अनुभव किया हुना ही देवदत्त 'वह' शब्द के द्वारा जाना जाता है। इसलिये यह ज्ञान 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला और अनुभूत पदार्थ को विषय करने वाला है । जिसका अनुभव नहीं किया उसमें यह ज्ञान नहीं होता। इस ज्ञान का जनक अनुभव है और वह अनुभव धारणारूप ही कारण होता है। क्योंकि पदार्थ में अवग्रहादिक ज्ञान हो जाने पर भी : धारणा के अभाव में स्मृति उत्पन्न नहीं होती। कारण, धारणा A.A4.0, A Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १७५ आत्मा में उस प्रकार का संस्कार पैदा करती है, जिससे वह कालान्तर में भी उस अनुभूत विषय का स्मरण करा देती है। इसलिये धारणाके विषय में उत्पन्न हुआ 'वह' शब्द से उल्लिखित होने वाला यह ज्ञान स्मृति है, यह सिद्ध होता है। शङ्का-यदि धारणा के द्वारा ग्रहण किये विषय में ही स्मरण 5 उत्पन्न होता है तो गृहीतग्राही होने से उसके अप्रमाणता का प्रसङ्ग आता है ? समाधान-नहीं; ईहा प्रादिक की तरह स्मरणमें भी विषयभेद मौजूद है। जिस प्रकार अवग्रहादिक के द्वारा ग्रहण किये हुए अर्थ को विषय करने वाले ईहादिक ज्ञानों में विषयभेद होने से अपने विषय-सम्बन्धी 10 संशयादिरूप समारोप को दूर करने के कारण प्रमाणता है उसी प्रकार स्मरण में भी धारणा के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में प्रवृत्त होने पर भी प्रमाणता ही है। कारण, धारणा का विषय इदन्ता से युक्त अर्थात् यह है-'यह' शब्द के प्रयोग पूर्वक उल्लिखित होता है और स्मरण का तत्ता से युक्त अर्थात् 'वह' है-'वह' शब्द के द्वारा निर्दिष्ट 15 होता है । तात्पर्य यह है कि धारणा का विषय तो वर्तमान कालीन है और स्मरण का विषय भूतकालीन है। अतः स्मरण अपने विषय में उत्पन्न हुये अस्मरण आदि समारोपको दूर करने के कारण प्रमाण ही है—अप्रमाण नहीं। प्रमेयकमलमार्तण्ड में भी कहा है-"विस्मरण, संशय और विपर्ययरूप समारोप है और उस समारोप को दूर करने 20 से यह स्मृति प्रमाण है।" * स्मरण अनुभूत विषय में प्रवृत्त होता है' इतने से यदि वह अप्रमाण हो तो अनुमान से जानी हुई अग्नि को जानने के लिये पीछे प्रवृत्त हुआ प्रत्यक्ष भी अप्रमाण ठहरेगा। अतः स्मरण किसी भी प्रकार अप्रमाण सिद्ध नहीं होता। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका प्रत्यक्षादिककी तरह स्मृति अविसंवादी है-विसंवाद रहित है, इसलिए भी वह प्रमाण है। क्योंकि स्मरण करके यथास्थान रक्खी हुई वस्तुओं को ग्रहण करने के लिए प्रवृत्त होने वाले व्यक्ति को स्मरण के विषय (पदार्थ) में विसंवाद-भूल जाना या अन्यत्र प्रवृत्ति करना 5 नहीं होता। जहाँ विसंवाद होता है वह प्रत्यक्षाभास की तरह स्मरणाभास है। उसे हम प्रमाण नहीं मानते। इस तरह स्मरण नामका पृथक् प्रमाण है, यह सिद्ध हुआ। प्रत्यभिज्ञान का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण अनुभव और स्मरणपूर्वक होने वाले जोड़ रूप ज्ञानको प्रत्यभिज्ञान 10 कहते हैं। 'यह' का उल्लेख करने वाला ज्ञान अनुभव है और 'वह' का उल्लेखी ज्ञान स्मरण है। इन दोनों से पैदा होने वाला तथा पूर्व और उत्तर अवस्थानों में वर्तमान एकत्व, सादृश्य और वैलक्षण्य आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान होता है वह प्रत्यभिज्ञान है, ऐसा समझना चाहिए। जैसे वही यह जिनदत्त है, गौ के समान 15 गवय ( जङ्गली पशुविशेष) होता है, गाय से भिन्न भैंसा होता है, इत्यादिक प्रत्यभिज्ञान के उदाहरण हैं। यहाँ पहले उदाहरण में, जिनदत्त की पूर्व और उत्तर अवस्थाप्रोंमें रहने वाली एकता प्रत्यभिज्ञान का विषय है। इसीको एकत्व प्रत्यभिज्ञान कहते हैं। दूसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई 20 गाय को लेकर गवय में रहने वाली सदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है। इस प्रकार के ज्ञान को सादृश्यप्रत्यभिज्ञान कहते है। तीसरे उदाहरण में, पहले अनुभव की हुई गाय को लेकर भैंसा में रहने वाली विसदृशता प्रत्यभिज्ञान का विषय है। इस तरह का ज्ञान वैसादृश्य प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । इसी प्रकार और भी प्रत्यभिज्ञान के 25 भेद अपने अनुभव से स्वयं बिचार लेना चाहिये। इन सभी प्रत्य Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १७७ भिज्ञानों में अनुभव और स्मरण की अपेक्षा होने से उन्हें अनुभव और स्मरणहेतुक माना जाता है। किन्हीं का कहना है कि अनुभव और स्मरण से भिन्न प्रत्यभिज्ञान नहीं है। ( क्योंकि पूर्व और उत्तर अवस्थाओं को विषय करने वाला एक ज्ञान नहीं हो सकता है। कारण, विषय भिन्न है। दूसरी 5 बात यह है कि 'वह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है वह तो परोक्ष है और 'यह' इस प्रकार से जो ज्ञान होता है वह प्रत्यक्ष हैइसलिये भी प्रत्यक्ष और परोक्षरूप एक ज्ञान नहीं हो सकता है, किन्तु वे अनुभव और स्मरणरूप दो ज्ञान हैं।) यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकि अनुभव तो वर्तमानकालीन पर्याय को ही विषय करता 10 है और स्मरण भूतकालीन पर्याय का द्योतन करता है। इसलिये ये दोनों अतीत और वर्तमान पर्यायों में रहने वाली एकता, सदृशता आदि को कैसे विषय कर सकते हैं ? अर्थात्-नहीं कर सकते है। प्रतः स्मरण और अनुभव से भिन्न उनके बाद में होने वाला तथा उन एकता, सदृशता आदि को विषय करने वाला जो जोड़रूप ज्ञान 15 होता है वही प्रत्यभिज्ञान है। अन्य ( दूसरे वैशेषिकादि ) एकत्वप्रत्यभिज्ञान को स्वीकार करके भी उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव कल्पित करते हैं। वह इस प्रकार से है-जो इन्द्रियों के साथ अन्वय और व्यतिरेक रखता है वह प्रत्यक्ष है। अर्थात्-जो इन्द्रियों के होने पर होता है और उनके 20 अभाव में नहीं होता बह प्रत्यक्ष है, यह प्रसिद्ध है। और इन्द्रियों का अन्वय तथा व्यतिरेक रखने वाला यह प्रत्यभिज्ञान है, इस कारण वह प्रत्यक्ष है। उनका भी यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि इन्द्रियाँ वर्तमान पर्याय मात्र के विषय करने में ही उपक्षीण ( चरितार्थ ) हो जाने से वर्तमान और अतीत अवस्थाओं में रहने वाले 25 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ न्याय-दीपिका एकत्वको विषय नहीं कर सकती हैं। इन्द्रियों की अविषय में प्रवृत्ति मानना योग्य नहीं है। अन्यथा चक्षु के द्वारा रसादि का भी ज्ञान होने का प्रसङ्ग पावेगा। शङ्का—यह ठीक है कि इन्द्रियाँ वर्तमान पर्याय मात्र को ही 5 विषय करती हैं तथापि वे सहकारियों की सहायता से वर्तमान और अतीत अवस्थाओं में रहने वाले एकत्व में भी ज्ञान करा सकती हैं। जिस प्रकार अञ्जन के संस्कार से चक्षु व्यवधान प्राप्त (ढके हुये) पदार्थ को भी जान लेती है। यद्यपि चक्षु के व्यवहित पदार्थ को जानने की सामर्थ्य (शक्ति) नहीं है। परन्तु अञ्जन संस्कार की सहायता 10 से वह उसमें देखी जाती है । उसी प्रकार स्मरण आदि की सहायता ले इन्द्रियाँ ही दोनों अवस्थाओं में रहने वाले एकत्व को जान लेंगी। अतः उसको जानने के लिए एकत्वप्रत्यभिज्ञान नाम के प्रमाणान्तर की कल्पना करना अनावश्यक है ? रव-na समाधान - यह कहना भी सम्यक नहीं है। क्योंकि हजार सह'15 कारियों के मिल जाने पर भी अविषय में—जिसका जो विषय नहीं है, उसकी उसमें—प्रवृत्ति नहीं हो सकती है। चक्षु के अञ्जन संस्कार आदि सहायक उसके अपने विषय रूपादि में ही उसको प्रवृत्त करा सकते हैं, रसादिक विषय में नहीं। और इन्द्रियों का अविषय है पूर्व तथा उत्तर अवस्थाओं में रहने वाला एकत्व । अतः उसे जानने के लिये 20 पृथक् प्रमाण मानना ही होगा। सभी जगह विषय-भेद के द्वारा ही प्रमाण के भेद स्वीकार किये गये हैं। दूसरी बात यह है कि 'वही यह है' यह ज्ञान अस्पष्ट ही है-स्पष्ट नहीं है। इसलिए भी उसका प्रत्यक्ष में अन्तर्भाव नहीं हो सकता है। और यह निश्चय ही जानना चाहिये कि चक्षु 25 आदिक इन्द्रियों में एकत्वज्ञान उत्पन्न करने की सामर्थ्य नहीं है। स Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १७६ अन्यथा लिङ्गदर्शन (धूमादि का देखना) और व्याप्ति के स्मरण आदि की सहायता से चक्षुरादिक इन्द्रियाँ ही अग्नि आदिक लिङ्गि (साध्य) का ज्ञान उत्पन्न कर दें। इस तरह अनुमान भी पृथक् प्रमाण न हो। यदि कहा जाय, कि चक्षुरादिक इन्द्रियाँ तो अपने विषय धूमादि के देखने मात्र में ही चरितार्थ हो जाती हैं, वे अग्नि आदि परोक्ष 5 अर्थ में प्रवृत्त नहीं हो सकतीं, अतः अग्नि आदि परोक्ष अर्थों का ज्ञान करने के लिये अनुमान प्रमाण को पृथक मानना आवश्यक है, तो प्रत्यभिज्ञान ने क्या अपराध किया ? एकत्व को विषय करने के लिए उसको भी पृथक् मानना जरूरी है। अतः प्रत्यभिज्ञान नामका पृथक प्रमाण है, यह स्थिर हुआ। 10 'सादृश्यप्रत्यभिज्ञान उपमान नाम का पृथक् प्रमाण है' ऐसा किन्हीं ( नैयायिक और मीमांसकों ) का कहना है। पर वह ठीक नहीं हैं। क्योंकि स्मरण और अनुभवपूर्वक जोड़रूप ज्ञान होने से उसमें प्रत्यभिज्ञानता (प्रत्यभिज्ञानपना) का उलंघन नहीं होता - वह उसमें रहती है । अतः वह प्रत्यभिज्ञान ही है। अन्यथा (यदि सादृश्य- 15 विषयक ज्ञानको उपमान नाम का पृथक् प्रमाण माना जाय तो) 'गाय से भिन्न भैसा हैं' इत्यादि विसदृशता को विषय करने वाले वैसादृश्यज्ञान को और 'यह इससे दूर हैं' इत्यादि प्रापेक्षिक ज्ञान को भी पृथक् प्रमाण होना चाहिए । अतः जिस प्रकार वैसादृश्यादिज्ञानों में प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वे प्रत्यभिज्ञान हैं 20 उसी प्रकार सादृश्यविषयक ज्ञान में भी प्रत्यभिज्ञान का लक्षण पाया जाने से वह प्रत्यभिज्ञान ही है-उपमान नहीं। यही प्रामाणिक परम्परा है। तर्क प्रमाण का निरूपणप्रत्यभिज्ञान प्रमाण हो। तर्क का क्या स्वरूप है ? व्याप्ति के 25 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८० न्याय-दीपिका ज्ञानको तर्क कहते है। साध्य और साधन में गम्य और गमक (बोध्य और बोधक) भाव का साधक और व्यभिचार की गन्ध से रहित जो सम्बन्ध विशेष है उसे व्याप्ति कहते हैं। उसी को अविना भाव भी कहते हैं । उस व्याप्ति के होने से अग्न्यादिक को धूमादिक हो 5 जनाते हैं, घटादिक नहीं। क्योंकि घटादिक की अग्न्यादिक के साथ व्याप्ति (अविनाभाव) नहीं है । इस अविनाभावरूप व्याप्ति के ज्ञान में जो साधकतम है वह यह तर्क नाम का प्रमाण है। श्लोकवात्तिक भाष्य में भी कहा है - "साध्य और साधन के सम्बन्धविषयक अज्ञान को दूर करने रूप फल में जो साधकतम है वह तर्क है।" 'ऊहा' भी 10 तर्क का ही दूसरा नाम है। वह तर्क उक्त व्याप्तिको सर्वदेश और । सर्वकाल की अपेक्षा से विषय करता है। शङ्का-इस तर्क का उदाहरण क्या है ? प्रकर समाधान-'जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती प्रवि है' यह तर्क का उदाहरण है। यहाँ धूम के होने पर अनेक बार इस 15 अग्नि की उपलब्धि और अग्नि के अभाव में धूम की अनुपलब्धि पाई जाने पर सब जगह और सब काल में धुआँ अग्नि का व्यभिचारी नहीं है—अग्नि के होने पर ही होता है और अग्नि के अभाव में नहीं होता' इस प्रकार का जो सर्वदेश और सर्वकालरूप से अविना- वही भाव को ग्रहण करने वाला बाद में ज्ञान उत्पन्न होता है वह तर्क 20 नाम का प्रत्यक्षादिक से भिन्न ही प्रमाण है। प्रत्यक्ष निकटवर्ती ग्रहण ही धूम और अनि के सम्बन्ध का ज्ञान कराता है, अतः वह व्याप्ति व्यारि का ज्ञान नहीं करा सकता। कारण, व्याप्ति सर्व देश और सर्वकाल है या को लेकर होती है। प्राता शङ्का-यद्यपि प्रत्यक्षसामान्य ( साधारण प्रत्यक्ष ) व्याप्ति को 25 विषय करने में समर्थ नहीं है तथापि विशेष प्रत्यक्ष उसको विषय Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १८१ करने में समर्थ है ही । वह इस प्रकार से रसोईशाला श्रादि में धूम और अग्नि को सबसे पहले देखा, यह एक प्रत्यक्ष हुना । इसके बाद अनेकों बार और कई प्रत्यक्ष हुये; पर वे सब प्रत्यक्ष व्याप्ति को विषय करने में समर्थ नहीं हैं। लेकिन पहले पहले के अनुभव किये धूम और अग्नि का स्मरण तथा तत्सजातीय के अनुसन्धानरूप 5 प्रत्यभिज्ञान से सहित होकर कोई प्रत्यक्ष - विशेष सर्वदेश-काल को भी लेकर होने वाली व्याप्ति को ग्रहण कर सकता है। और इसलिये स्मरण तथा प्रत्यभिज्ञान से सहित प्रत्यक्ष - विशेष ही जब व्याप्ति को विषय करने में समर्थ है, तब तर्क नामके पृथक् प्रमाण के मानने की क्या आवश्यकता है ? 10 समाधान - ऐसा कथन उनकी न्याय मार्ग की अनभिज्ञता को प्रकट करता है; क्योंकि ' हजार सहकारियों के मिल जाने पर भी विषय में प्रवृत्ति नहीं हो सकती है' यह हम इस कारण प्रत्यक्ष के द्वारा व्याप्ति का ग्रहण किन्तु यह सङ्गत प्रतीत होता है कि और अनेकों बार का हुआ प्रत्यक्ष ये को उत्पन्न करते हैं जो व्याप्ति के ग्रहण है । कर एक वैसे ज्ञान तीनों मिल करने में समर्थ है और वही तर्क है। अनुमान आदि के द्वारा तो व्याप्ति का ग्रहण होना सम्भव ही नहीं हैं । तात्पर्य यह कि अनुमान से यदि व्याप्ति का ग्रहण माना जाय तो यहाँ दो विकल्प उठते व्याप्ति का ग्रहण करना है उसी अनुमान से है या अन्य दूसरे अनुमान से ? पहले विकल्प में श्रन्योन्याश्रय दोष हैं- जिस अनुमान की 20 व्याप्ति का ग्रहण होता आता है, क्योंकि व्याप्ति का ज्ञान जब हो जाय, तब पहले कह प्राये हैं । बतलाना सङ्गत नहीं स्मरण, प्रत्यभिज्ञान 15 अनुमान अपना तब व्याप्तिका स्वरूप लाभ करे और अनुमान जब स्वरूप लाभ कर ले, t ज्ञान हो, इस तरह दोनों परस्परापेक्ष हैं । अन्य दूसरे अनुमान से 25 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ न्याय-दीपिका व्याप्ति का ज्ञान मानने पर अनवस्था दोष आता है, क्योंकि दूसरे अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य तृतीय अनुमान से मानना होगा, तृतीय अनुमान की व्याप्ति का ज्ञान अन्य चौथे अनुमान से माना जायगा, इस तरह कहीं भी व्यवस्था न होने से अनवस्था नाम का 5 दोष प्रसक्त होता है। इसलिए अनुमान से व्याप्ति का ग्रहण सम्भव नहीं है। और न आगमादिक प्रमाणों से भी सम्भव है, क्योंकि उन सबका विषय भिन्न भिन्न है। और विषयभेद से प्रमाणभेद को व्यवस्था होती है। अतः व्याप्ति को ग्रहण करने के लिए तर्क प्रमाण का मानना आवश्यक है। 10 निर्विकल्पक प्रत्यक्ष के अनन्तर जो विकल्प पैदा होता है वह व्याप्ति को ग्रहण करता है' ऐसा बौद्ध मानते हैं; उनसे हम पूछते हैं कि वह विकल्प अप्रमाण है अथवा प्रमाण ? यदि अप्रमाण है, तो उसके द्वारा ग्रहीत व्याप्ति में प्रमाणता कैसे ? और यदि प्रमाण है. तो वह प्रत्यक्ष है अथवा अनुमान ? प्रत्यक्ष तो हो नहीं सकता; क्योंकि 15 वह अस्पष्टज्ञान है और अनुमान भी नहीं हो सकता; कारण, उसमें लिङ्गदर्शन आदि की अपेक्षा नहीं होती। यदि इन दोनों से भिन्न हो कोई प्रमाण है, तो वही तो तर्क है। इस प्रकार तर्क नाम के प्रमाण का निर्णय हुना। अनुमान प्रमाण का निरूपण-- 20 अब अनुमान का वर्णन करते हैं। साधन से साध्य का ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं। यहाँ 'अनुमान' यह लक्ष्य-निर्देश है। और 'साधन से साध्य का ज्ञान होना' यह उसके लक्षण का कथन है । तात्पर्य यह कि साधन-धूमादि लिङ्ग से साध्य-अग्नि आदिक लिङ्गी में जो ज्ञान होता है वह अनुमान है। क्योंकि वह साध्य25 ज्ञान ही अग्नि आदि के अज्ञान को दूर करता है। साधनज्ञान अनुमान Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश नहीं है, क्योंकि वह तो साधन सम्बन्धी अज्ञान के ही दूर करने में चरितार्थ हो जाने से साध्य सम्बन्धी अज्ञान को दूर नहीं कर सकता है। अतः नैयायिकों ने अनुमान का जो लक्षण कहा है कि "लिङ्गज्ञान अनुमान है'' वह सङ्गत नहीं है। हम तो स्मरण आदि की उत्पत्ति में अनुभव आदि की तरह व्याप्ति स्मरण से सहित लिङ्गज्ञान को 5 अनुमान प्रमाण की उत्पत्ति में कारण मानते हैं। इसका खुलासा इस 6 प्रकार है-जिस प्रकार धारणा नाम का अनुभव स्मरण में कारण होता है, तात्कालिक अनुभव तथा स्मरण प्रत्यभिज्ञान में और साध्य तथा साधनविषयक स्मरण, प्रत्यभिज्ञान और अनभव तर्क में कारण होते हैं उसी प्रकार व्याप्तिस्मरण आदि से सहित होकर लिङ्गज्ञान 10 अनुमान की उत्पत्ति में कारण होता है-वह स्वयं अनुमान नहीं है। यह कथन सुसङ्गत ही है। शङ्का-आपके मतमें-जैनदर्शनमें साधनको ही अनुमानमें कारण माना है, साधन के ज्ञान को नहीं, क्योंकि “साधन से साध्य के ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं।" ऐसा पहले कहा गया है ? । 15 समाधान नहीं; 'सावन से' इस पद का अर्थ 'निश्चय पथ प्राप्त धमादिक से' यह विवक्षित है। क्योंकि जिस धमादिक साधन का निश्चय नहीं हुआ है। अर्थात् —जिसे जाना नहीं है वह साधन ही नहीं हो सकता है। इसी बात को तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक में कहा है - "साधन से साध्य के ज्ञान होने को विद्वानों ने अनुमान कहा 20 है।" इस वात्तिक का अर्थ यह है कि साधन से—अर्थात् जाने हुए धूमादिक लिङ्ग से साध्य में अर्थात्-अग्नि आदिक लिङ्गी में जो ज्ञान होता है वह अनुमान है। क्योंकि जिस धूमादिक लिङ्ग को नहीं जाना है उसको साध्य के ज्ञान में कारण मानने पर सोये हुये अथवा जिन्होंने धूमादिक लिङ्ग को ग्रहण नहीं किया उनको भी 25 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४ न्याय-दीपिका अग्नि आदि का ज्ञान हो जावेगा। इस कारण जाने हुये साधन से होने वाला साध्य का ज्ञान ही साध्यविषयक अज्ञान को दूर करने से अनुमान है, लिङ्गज्ञानादिक नहीं। ऐसा अकलङ्कादि प्रामाणिक विद्वान कहते हैं। तात्पर्य यह है कि ज्ञायमान साधन को अनुमान में 5 कारण प्रतिपादन करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि जैन दर्शन में साधन को अनुमान में कारण नहीं माना, अपितु साधनज्ञान को ही कारण माना है। साधन का लक्षण वह साधन क्या है, जिससे होने वाले साध्य के ज्ञान को अनु___ 10 मान कहा है ? अर्थात्-साधन क्या लक्षण है ? इसका उत्तर यह है-जिसकी साध्य के साथ अन्यथानुपपत्ति (अविनाभाव) निश्चित है उसे साधन कहते हैं। तात्पर्य यह कि जिसकी साध्य के अभाव में नहीं होने रूप व्याप्ति, अविनाभाव आदि नामों वाली साध्यान्यथानुप पत्ति-साध्य के होने पर ही होना और साध्य के अभाव में नहीं 15 होना-तर्क नाम के प्रमाण द्वारा निर्णीत है वह साधन है। श्री कुमार नन्दी भट्टारक ने भी कहा है—"अन्यथानुपपत्तिमात्र जिसका लक्षण है उसे लिङ्ग कहा गया है।" साध्य का लक्षण वह साध्य क्या है, जिसके अविनाभाव को साधन का लक्षण 20 प्रतिपादन किया है। ? अर्थात्-साध्य का क्या स्वरूप है ? सुनिये शक्य, अमिप्रेत और अप्रसिद्ध को साध्य कहते हैं। शक्य वह है जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से. बाधित न होने से सिद्ध किया जा सकता है। अभिप्रेत वह है जो वादी को सिद्ध करने के लिए अभिमत है इष्ट है। और अप्रसिद्ध वह है जो सन्देहादिक से युक्त होने से 25 अनिश्चित है, इस तरह जो शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्ध है वही साध्य है। Pune Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १८५ यदि अशक्य ( बाधित ) को साध्य माना जाय, तो अग्नि में अनुष्णता ( उष्णता का अभाव ) आदि भी साध्य हो जायगी। अनभिप्रेत को साध्य माना जाय, तो अतिप्रसङ्ग नामका दोष प्रावेगा। तथा प्रसिद्ध को साध्य माना जाय, तो अनुमान व्यर्थ हो जायगा, क्योंकि साध्य की सिद्धि के लिये अनुमान किया जाता है 5 और वह साध्य पहले से प्रसिद्ध है। अतः शक्यादिरूप ही साध्य है। न्यायविनिश्चय में भी कहा है : साध्यं शक्यमभिप्रेतमप्रसिद्धं ततोऽपरम् । साध्याभासं विरुद्धादि साधनाविषयत्वतः ॥१७२॥ इसका अर्थ यह है कि जो शक्य है, अभिप्रेत है और अप्रसिद्ध 10 है वह साध्य है और जो इससे विपरीत है वह साध्याभास है। वह साध्याभास कौन है ? विरुद्धादिक हैं। प्रत्यक्षादि से बाधित को विरुद्ध कहते हैं। 'पादि' शब्द से अनभिप्रेत और प्रसिद्ध का ग्रहण करना चाहिए। ये तीनों साध्याभास क्यों हैं ? क्योंकि ये तीनों ही साधन के विषय नहीं हैं। अर्थात्--साधन के द्वारा ये 15 विषय नहीं किये जाते हैं। इस प्रकार यह अकलङ्कदेव के अभिप्राय का संक्षेप है। उनके सम्पूर्ण अभिप्राय को तो स्याद्वादविद्यापति श्री वादिराज जानते हैं। अर्थात्-अकलङ्कदेव की उक्त कारिका का विशद एवं विस्तृत व्याख्यान श्री वादिराज ने न्यायविनिश्चय के व्याख्यानभूत अपने न्यायविनिश्चयविवरण में किया है । अतः 20 अकलङ्कदेव के पूरे प्राशय को तो वे ही जानते हैं। यहाँ सिर्फ उनके अभिप्राय के अंशमात्र को दिया है । साधन और साध्य दोनों को लेकर श्लोकवात्तिक में भी कहा है-"जिसका अन्यथानुपपत्तिमात्र लक्षण है, अर्थात्-जो न त्रिलक्षणरूप है और न पञ्चलक्षणरूप है, केवल अविनाभावविशिष्ट है वह साधन है। तथा जो शक्य है, अभिप्रेत है 25 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका और अप्रसिद्ध है उसे साध्य कहा गया है।" इस प्रकार अविनाभाव निश्चयरूप एक लक्षण वाले साधन से शक्य, अभिप्रेत और अप्रसिद्धरूप साध्य के ज्ञान को अनुमान कहते हैं, यह सिद्ध हुआ। 5 वह अनुमान दो प्रकारका है-१ स्वार्थानुमान और २ परार्था नुमान। उनमें स्वयं ही जाने हुए साधन से साध्य के ज्ञान होने को स्वार्थानुमान कहते हैं। अर्थात् -दूसरे के उपदेश (प्रतिज्ञादिवाक्यप्रयोग ) की अपेक्षा न करके स्वयं ही निश्चित किये और पहले तर्क प्रमाण से जाने गये तथा व्याप्ति के स्मरण से सहित _) धूमादिक साधन से पर्वत प्रादिक धर्मों में अग्नि आदि साध्य का जो ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान है। जैसे—यह पर्वत अग्निवाला है। क्योंकि धूम पाया जाता है। यद्यपि स्वार्थानुमान ज्ञानरूप है तथापि समझाने के लिये उसका यह शब्द द्वारा उल्लेख किया गया है। जैसे 'यह घट है' इस शब्द के द्वारा प्रत्यक्ष का उल्लेख किया 5 जाता है । 'पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूम पाया जाता है। इस प्रकार अनुमाता जानता है—अनुमिति करता है, इस तरह स्वार्थानुमान की स्थिति है। अर्थात्-स्वार्थानुमान इस प्रकार प्रवृत्त होता है, ऐसा समझना चाहिए। स्वार्थानुमान के अङ्गों का कथन0 इस स्वार्थानुमान के तीन अङ्ग हैं--१ धर्मी, २ साध्य और ३ साधन । साधन साध्य का गमक (ज्ञापक) होता है, इसलिए वह गमकरूप से अङ्ग है । साध्य साधन के द्वारा गम्य होता हैजाना जाता है, इसलिए वह गम्यरूप से अङ्ग है। और धर्मी साध्य-धर्म का आधार होता है, इसलिए वह साध्यधर्म के प्राधार 5 रूप से अङ्ग है। क्योंकि किसी आधारविशेष में साध्य की सिद्धि Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १८७ करना अनुमान का प्रयोजन है। केवल धर्म की सिद्धि तो व्याप्तिनिश्चय के समय में ही हो जाती है। कारण, जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है' इस प्रकार की व्याप्ति के ग्रहण समय में साध्यधर्म-अग्नि ज्ञात हो ही जाती है। इसलिए केवल धर्म की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन नहीं है। किन्तु 'पर्वत अग्नि- 5 वाला है' अथवा 'रसोईशाला अग्निवाली है' इस प्रकार 'पर्वत' या 'रसोईशाला' में वृत्तिरूप से अग्नि का ज्ञान अनुमान से ही होता है। अतः आधारविशेष (पर्वतादिक) में रहने रूप से साध्य (अग्न्यादिक) की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन है। इसलिए धर्मी भी स्वार्थानुमान का अङ्ग है। 10 अथवा स्वार्थानुमान के दो अङ्ग हैं-१ पक्ष और २ हेतु । क्योंकि साध्य-धर्म से युक्त धर्मों को पक्ष कहा गया है। इसलिए पक्ष के कहने से धर्म और धर्मी दोनों का ग्रहण हो जाता है। इस तरह स्वार्थानुमान के धर्मी, साध्य और साधन के भेद से तीन अङ्ग अथवा पक्ष और साधन के भेद से दो अङ्ग हैं, यह सिद्ध हो गया। 15 यहाँ दोनों जगह विवक्षा का भेद है। जब स्वार्थानुमान के तीन अङ्ग कथन किये जाते हैं तब धर्मी और धर्म के भेद की विवक्षा है और जब दो अङ्ग कहे जाते हैं तब धर्मी और धर्म के समुदाय की विवक्षा है। तात्पर्य यह कि स्वार्थानुमान के तीन या दो अङ्गों के कहने में कुछ भी विरोध अथवा अर्थभेद नहीं है । केवल कथन का 20 भेद है। उपर्युक्त यह धर्मी प्रसिद्ध ही होता है-अप्रसिद्ध नहीं। इसी बात को दूसरे विद्वानों ने कहा है--"प्रसिद्धो धर्मी' अर्थात्धमी प्रसिद्ध होता है। धर्मी की तीन प्रकार से प्रसिद्धि का निरूपणधर्मी की प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाण से, कहीं विकल्प से और 25 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ न्याय-दीपिका कहीं प्रमाण तथा विकल्प दोनों से होती है। प्रत्यक्षादिक प्रमाणों में से किसी एक प्रमाण से धर्मों का निश्चय होना 'प्रमाणसिद्ध धर्मी' है। जिसकी प्रमाणता या अप्रमाणता का निश्चय नहीं हुआ है ऐसे ज्ञान से जहाँ धर्मी की सिद्धि होती है उसे 'विकल्पसिद्ध धर्मी' कहते हैं। और 5 जहाँ प्रमाण तथा विकल्प दोनों से धर्मी का निर्णय किया जाता है वह 'प्रमाणविकल्पसिद्ध धर्मी' है। प्रमाणसिद्ध धर्मो का उदाहरण-'धूम से अग्नि की सिद्धि करने में पर्वत' है । क्योंकि वह प्रत्यक्ष से जाना जाता है। विकल्पसिद्ध धर्मी का उदाहरण इस प्रकार है-'सर्वज्ञ है, 10 क्योंकि उसके सद्भाव के बाधक प्रमाणों का अभाव अच्छी तरह निश्चित है, अर्थात्-उसके अस्तित्व का कोई बाधक प्रमाण नहीं है।' यहाँ सद्भाव सिद्ध करने में 'सर्वज्ञ' रूप धर्मी विकल्पसिद्ध धर्मी है। अथवा खिरविषाण नहीं है, क्योंकि उसको सिद्ध करने वाले प्रमाणों का अभाव निश्चित है' यहाँ अभाव सिद्ध करने में 'खरविषाण' ' 15 विकल्पसिद्ध धर्मी है । 'सर्वज्ञ' सद्भाव सिद्ध करने के पहले प्रत्यक्षादिक किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, किन्तु केवल प्रतीति (कल्पना) से सिद्ध है, इसलिए वह विकल्पसिद्ध धर्मी है। इसी प्रकार 'खरविषाण' असद्भाव सिद्ध करने के पहले केवल कल्पना से सिद्ध है, अतः वह भी विकल्पसिद्ध धर्मों है। 20 उभयसिद्ध धर्मों का उदाहरण-'शब्द परिणमनशील है, क्योंकि वह किया जाता है-तालु आदि की क्रिया से उत्पन्न होता है।' यहाँ शब्द है। कारण, वर्तमान शब्द तो प्रत्यक्ष से जाने जाते हैं, परन्तु भूतकालीन और भविष्यत्कालीन शब्द केवल प्रतीति से सिद्ध हैं और वे समस्त शब्द यहाँ धर्मी हैं, इसलिए 'शब्द' रूप धर्मी प्रमाण 25 तथा विकल्प. दोनों से सिद्ध अर्थात्-उभयसिद्ध धर्मों है। प्रमाण Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १८६ सिद्ध और उभयसिद्ध धर्मी में साध्य यथेच्छ होता है-उसमें कोई नियम नहीं होता। किन्तु विकल्पसिद्ध धर्मी में सद्भाव और असद्भाव ही साध्य होते हैं, ऐसा नियम है । कहा भी है-"विकल्पसिद्ध धर्मी में सत्ता और असत्ता ये दो ही साध्य होते हैं।" इस प्रकार दूसरे के उपदेश की अपेक्षा से रहित स्वयं जाने गये साधन से पक्ष में रहने रूप से 5 साध्य का जो ज्ञान होता है वह स्वार्थानुमान है, यह दृढ़ हो गया। कहा भी है-'परोपदेश के बिना भी दृष्टा को साधन से जो साध्य का "ज्ञान होता है उसे स्वार्थानुमान कहते हैं।" परार्थानुमान का निरूपणदूसरे के उपदेश की अपेक्षा लेकर जो साधन से साध्य का ज्ञान 10 होता है उसे परार्थानुमान कहते हैं। तात्पर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतुरूप परोपदेश की सहायता से श्रोता को जो साधन से साध्य का ज्ञान होता है वह परार्थानुमान है। जैसे—'यह पर्वत अग्निवाला होने के योग्य है, क्योंकि धूम वाला है।' ऐसा किसी के वाक्य-प्रयोग करने पर उस वाक्य के अर्थ का विचार और पहले ग्रहण की हुई व्याप्ति का 15 स्मरण करने वाले श्रोता को अनुमान ज्ञान होता है । और ऐसे अनुमान ज्ञान का ही नाम परार्थानुमान है। _ 'परोपदेश वाक्य ही परार्थानुमान है । अर्थात् जिस प्रतिज्ञादि पञ्चावयवरूप वाक्य से सुनने वाले को अनुमान होता है वह वाक्य ही परार्थानुमान है।' ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर उनका 20 यह कहना ठीक नहीं है। हम उनसे पूछते हैं कि वह वाक्य मुख्य अनुमान है अथवा गौण अनुमान ? मुख्य अनुमान तो हो ही नहीं सकता, क्योंकि वाक्य अज्ञानरूप है। यदि वह गौण अनुमान है, तो उसे हम मानते हैं, क्योंकि परार्थानुमान ज्ञान के कारण—परार्थानुमान वाक्य में परार्थानुमान का व्यपदेश हो सकता है। जैसे—'धी आयु 25 Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० न्याय-दीपिका हैं' इत्यादि व्यपदेश होता है । तात्पर्य यह कि परार्थानुमान वाक्य परार्थानुमान ज्ञान के उत्पन्न करने में कारण होता है, अतः उसको उपचार से पराथानुमान माना गया है। __ परार्थानुमान की अङ्गसम्पत्ति और उसके अवयवों का 5 प्रतिपादन ___ इस परार्थानुमान के अङ्गों का कथन स्वार्थानुमान की तरह जानना चाहिए। अर्थात्-उसके भी धर्मी, साध्य और साधन के भेद से तीन अथवा पक्ष और हेतु के भेद से दो अङ्ग हैं। और परा नुमान में कारणीभूत वाक्य के दो अवयव हैं-१ प्रतिज्ञा और 10 २ हेतु। धर्म और धर्मी के समुदाय रूप पक्ष के कहने को प्रतिज्ञा कहते हैं। जैसे—'यह पर्वत अग्नि वाला है।' साध्य के अविनाभावी साधन के बोलने को हेतु कहते हैं। जैसे-धूम वाला अन्यथा हो नहीं सकता' अथवा 'अग्नि के होने से ही धूम वाला है।' इन दोनों हेतु-प्रयोगों में केवल कथन का भेद है। पहले हेतु-प्रयोग में तो 15 'धूम अग्नि के बिना नहीं हो सकता' इस तरह निषेधरूप से कथन किया है और दूसरे हेतु-प्रयोग में 'अग्नि के होने पर ही धूम होता है' इस तरह सद्भावरूप से प्रतिपादन किया है। अर्थ में भेद नहीं है । दोनों ही जगह अविनाभावी साधन का कथन समान है। इसलिए उन दोनों हेतुप्रयोगों में से किसी एक को ही बोलना चाहिए। 20 दोनों के प्रयोग करने में पुनरुक्ति पाती है। इस प्रकार पूर्वोक्त प्रतिज्ञा और इन दोनों हेतु-प्रयोगों में से कोई एक हेतु-प्रयोग, ये दो ही परार्थानुमान वाक्य के अवयव हैं—अङ्ग हैं; क्योंकि व्युत्पन्न (समझदार) श्रोता को प्रतिज्ञा और हेतु इन दो से ही अनुमिति अनुमान ज्ञान हो जाता है। 25 नैयायिकाभिमत पाँच अवयवों का निराकरण नैयायिक परार्थानुमान वाक्य के उपर्युक्त प्रतिज्ञा और हेतु Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश इन दो अवयवों के साथ उदाहरण, उपनय तथा निगमन इस तरह पाँच अवयव कहते हैं । जैसा कि वे सूत्र द्वारा प्रकट करते हैं :__ "प्रतिज्ञाहेतूदाहरणोपनयनिगमानान्यवयवाः” [न्यायसू० १।१।३२] अर्थात्-प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच अवयव हैं । उनके वे लक्षणपूर्वक उदाहरण भी देते हैं—पक्ष के प्रयोग 5 करने को प्रतिज्ञा कहते हैं । जैसे—यह पर्वत अग्नि वाला है। साधनता (साधनपना) बतलाने के लिए पञ्चमी विभक्ति रूप से लिङ्ग के कहने को हेतु कहते हैं। जैसे- क्योंकि धूमवाला है। व्याप्ति को . दिखलाते हुए दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं। जैसे- जो जो धूमवाला है वह वह अग्निवाला है । जैसे-रसोई का घर । यह साधर्म्य 10 उदाहरण है। जो जो अग्निवाला नहीं होता वह वह धूमवाला नहीं होता। जैसे-तालाब । यह वैधर्म्य उदाहरण है। उदाहरण के पहले भेद में हेतु की अन्वयव्याप्ति ( साध्य की मौजूदगी में साधन की मौजूदगी ) दिखाई जाती है और दूसरे भेद में व्यतिरेकव्याप्ति (साध्य की गैर मौजूदगी में साधन की गैर मौजूदगी) बतलाई 15 जाती है। जहाँ अन्वयव्याप्ति प्रदर्शित की जाती है उसे अन्वय दृष्टान्त कहते हैं और जहाँ व्यतिरेकव्याप्ति दिखाई जाती है उसे व्यतिरेक दृष्टान्त कहते हैं। इस प्रकार दृष्टान्त के दो भेद होने से दृष्टान्त के कहने रूप उदाहरण के भी दो भेद जानना चाहिए। इन दोनों उदाहरणों में से किसी एक का ही प्रयोग करना पर्याप्त 20 (काफी) है, अन्य दूसरे का प्रयोग करना अनावश्यक है। दृष्टान्त की अपेक्षा लेकर पक्ष में हेतु के दोहराने को उपनय कहते हैं । जैसेइसीलिए यह पर्वत धूमवाला है। हेतुपुरस्सर पक्ष के कहने को निगमन कहते हैं। जैसे-धूमवाला होने से यह अग्निवाला है। ये पाँचों अवयव परार्थानुमान प्रयोग के हैं। इनमें से कोई भी एक न हो तो 25 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ न्याय-दीपिका वीतराग कथा में और विजिगीषुकथा में अनुमिति उत्पन्न नहीं होती, ऐसा नैयायिकों का मानना है । पर उनका यह मानना अविचारपूर्ण है; क्योंकि वीतरागकथा में शिष्यों के अभिप्राय को लेकर अधिक भी अवयव बोले जा सकते हैं। 5 परन्तु विजिगीषुकथा में प्रतिज्ञा और हेतुरूप दो ही अवयव बोलना पर्याप्त है, अन्य अवयवों का बोलना वहाँ अनावश्यक है। इसका खुलासा इस प्रकार है वादी और प्रतिवादी में अपने पक्ष को स्थापित करने के लिए जीत-हार होने तक जो परस्पर (आपस) में वचनप्रवृत्ति (चर्चा) 10 होती है वह विजिगीषुकथा कहलाती है। और गुरु तथा शिष्यों में अथवा रागद्वेष रहित विशेष विद्वानों में तत्त्व ( वस्तुस्वरूप ) के निर्णय होने तक जो आपस में चर्चा की जाती है वह वीतरागकथा है । इनमें विजिगीषुकथा को वाद कहते हैं। कोई (नैयायिक) वीत रागकथा को भी वाद कहते हैं। पर वह स्वग्रहमान्य ही है, क्योंकि 15 लोक में गुरु-शिष्य आदि की सौम्यचर्चा को वाद ( शास्त्रार्थ ) नहीं कहा जाता। हाँ, हार-जीत की चर्चा को अवश्य वाद कहा जाता है। जैसे स्वामी समन्तभद्राचार्य ने सभी एकान्तवादियों को वाद में जीत लिया। अर्थात्-विजिगीषुकथा में उन्हें विजित कर लिया। और उस वाद में परार्थानुमान वाक्य के प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही 20 अवयव कार्यकारी हैं, उदाहरणादिक नहीं। इसका भी स्पष्टीकरण इस प्रकार है-सबसे पहले लिङ्गवचनरूप हेतु अवश्य होना चाहिये, क्योंकि लिङ्ग का ज्ञान न हो, तो अनुमिति ही उत्पन्न नहीं हो सकती है । इसी प्रकार पक्ष-वचनरूप प्रतिज्ञा का भी होना आवश्यक है। नहीं तो, अपने इष्ट साध्य का किसी आधारविशेष में निश्चय नहीं 25 होने पर साध्य के सन्देह वाले श्रोता को अनुमिति पैदा नहीं हो Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १६३ सकती। कहा भी है-"एतद्द्वयमेवानुमानाङ्गम्" [परीक्षा० ३-३७] इसका अर्थ यह है कि प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अनुमान अर्थात् परार्थानुमान के अङ्ग (अवयव) हैं । यहाँ सूत्र में 'वादे' शब्द को और जोड़ लेना चाहिए। जिसका तात्पर्य यह है कि विजिगीषुकथा में परार्थानुमान के प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अङ्ग हैं। यहाँ सूत्र में 5 अवधारणार्थक एवकार शब्द के प्रयोग द्वारा उदाहरणादिक का व्यवच्छेद किया गया है। अर्थात् उदाहरण प्रादिक परार्थानुमान के अवयव नहीं हैं, यह प्रकट किया गया है। क्योंकि वाद (शास्त्रार्थ) का अधिकार व्युत्पन्न को ही है और व्युत्पन्न केवल प्रतिज्ञा तथा हेतु के प्रयोग से ही जाने. जानेवाले उदाहरण आदि के प्रतिपाद्य अर्थ को जानने में 10 समर्थ है । उसको जानने के लिए उदाहरणादिक की आवश्यकता नहीं है। यदि गम्यमान (जाना जानेवाले) अर्थ का भी पुनः कथन किया जाये, तो पुनरुक्तता का प्रसङ्ग आता है । तात्पर्य यह कि प्रतिज्ञा और हेतु के द्वारा जान लेने पर भी उस अर्थ के कथन के लिए उदाहरणादिक का प्रयोग करना पुनरुक्त है। अतः उदाहरणादिकः परार्थानुमान 15 के अङ्ग नहीं हैं। शङ्का-यदि ऐसा है तो प्रतिज्ञा के कहने में भी पुनरुक्तता प्राती है। क्योंकि प्रतिज्ञा द्वारा कहा जाने वाला पक्ष भी प्रकरण, व्याप्तिप्रदर्शन आदि के द्वारा ज्ञात हो जाता है। इसलिए लिङ्गवचनरूप एक हेतु का ही विजिगीषुकथा में प्रयोग करना चाहिये । 20 समाधान–बौद्धों का यह कथन ठीक नहीं है। इस प्रकार कहकर वे अपनी जड़ता को प्रकट करते हैं। क्योंकि केवल हेतु के प्रयोग करने पर व्युत्पन्न को भी साध्य के सन्देह की निवृत्ति नहीं हो सकती है। इस कारण प्रतिज्ञा का प्रयोग अवश्य करना चाहिए। कहा भी है-“साध्य (साध्यधर्म के आधार) का सन्देह दूर करने के 25 Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ न्याय-दीपिका लिए प्रकरण आदि के द्वारा जाना गया भी पक्ष बोलना चाहिए।" इस प्रकार वाद की अपेक्षा से परार्थानुमान के प्रतिज्ञा और हेतुरूप दो ही अवयव हैं, न कम हैं और न अधिक, यह सिद्ध हुआ । इस तरह अवयवों का यह संक्षेप में विचार किया, विस्तार से पत्रपरीझा से 5 जानना चाहिए। वीतरागकथा में अधिक अवयवों के बोले जाने के औचित्य का समर्थन वीतरागकथा में तो शिष्यों के प्राशयानुसार प्रतिज्ञा और हेतु ये दो भी अवयव हैं । प्रतिज्ञा, हेतु और उदाहरण ये तीन भी हैं। प्रतिज्ञा 10 हेतु, उदाहरण और उपनय ये चार भी हैं तथा प्रतिज्ञा, हेतु, उदाहरण, उपनय और निगमन ये पाँच भी हैं। इस तरह यथायोग रूप से प्रयोगों की यह व्यवस्था है। इसी बात को श्रीकुमारनन्दि भट्टारक ने कहा है कि प्रयोगों के बोलने की व्यवस्था प्रतिपाद्यों के अभिप्रायानुसार करनी चाहिये—जो जितने अवयवों से समझ सके उसे उतने अवयवों 15 का प्रयोग करना चाहिये।" इस प्रकार प्रतिज्ञा अादिरूप परोपदेश से उत्पन्न हुआ ज्ञान परार्थानुमान कहलाता है। कहा भी है-"जो दूसरे के प्रतिज्ञादिरूप उपदेश की अपेक्षा लेकर श्रोता को साधन से साध्य का ज्ञान होता है वह परार्थानुमान माना गया है।" इस तरह अनुमान के स्वार्थ और परार्थ ये दो भेद हैं और ये दोनों ही अनुमान साध्य के साथ जिसका अविनाभाव निश्चित है ऐसे हेतु से उत्पन्न होते हैं। , बौद्धों के त्रैरूप्य हेतु का निराकरण- . इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह प्रसिद्ध हो जाता है कि 25 अन्यथानुपपत्ति विशिष्ट हेतु अनुमिति में कारण है। तथापि इस 20 Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १६५ का विचार न करके दूसरे ( बौद्धादिक ) अन्य प्रकार भी हेतु का लक्षण कहते हैं। उनमें बौद्ध पक्षधर्मत्व आदिक तीन लक्षणवाले हेतु से अनुमान की उत्पत्ति वणित करते हैं। वह इस प्रकार से है—पक्ष-धर्मत्व, सपक्ष-सत्त्व और विपक्ष-व्यावृत्ति ये तीन हेतु के रूप (लक्षण) हैं। उनमें साध्यधर्म से विशिष्ट धर्मी को पक्ष कहते 5 हैं । जैसे अग्नि के अनुमान करने में पर्वत पक्ष होता है। उस पक्ष में व्याप्त होकर हेतुका रहना पक्षधर्मत्व है। अर्थात् – हेतु का पहला रूप यह है कि उसे पक्ष में रहना चाहिये। साध्य के समान धर्मवाले धर्मी को सपक्ष कहते हैं। जैसे अग्नि के अनुमान करने में ही महानस ( रसोई का घर ) सपक्ष होता है। उस सपक्ष में सब 10 जगह अथवा एक जगह हेतु का रहना सपक्ष-सत्त्व है। यह हेतु का दूसरा रूप है। साध्य से विरोधी धर्म वाले धर्मी को विपक्ष कहते हैं। जैसे अग्नि के अनुमान करने में ही तालाब विपक्ष है। उन सभी विपक्षों से हेतु का व्यावृत्त होना अर्थात् उनमें नहीं रहना विपक्षव्यावृत्ति है। यह हेतु का तीसरा रूप है। ये तीनों रूप मिल कर 15 हेतु का लक्षण है। यदि इनमें से कोई एक भी न हो तो वह हेत्वाभास है-असम्यग् हेतु है। उनका यह वर्णन सङ्गत नहीं है। क्योंकि पक्ष-धर्मत्व के बिना भी कृत्तिकोदयादिक हेतु शकटोदयादि साध्य के ज्ञापक देखे जाते हैं। वह इस प्रकार से—'शकट नक्षत्र का एक मुहूर्त के बाद उदय होगा, 20 क्योंकि इस समय कृत्तिका नक्षत्र का उदय हो रहा है।' इस अनुमान में 'शकट नक्षत्र' धर्मी (पक्ष ) है, 'एक मुहूर्त के बाद उदय' साध्य है और 'कृत्तिका नक्षत्र का उदय' हेतु है। किन्तु 'कृत्तिका नक्षत्र का उदय' रूप हेतु पक्षभूत 'शकट' नक्षत्र में नहीं रहता, इसलिए वह पक्षधर्म नहीं है । अर्थात्-'कृत्तिका नक्षत्र का उदय' रूप हेतु पक्षधर्म से 25 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका रहित है। फिर भी वह अन्यथानुपपत्ति के होने से (कृत्तिका के उदय हो जाने पर ही शकट का उदय होता है और कृत्तिका के उदय न होने पर शकट का उदय नहीं होता है ) शकट के उदयरूप साध्य का ज्ञान कराता ही है। अतः बौद्धों के द्वारा माना गया हेतु का रूप्य 5 लक्षण अव्याप्ति दोष सहित है। नैयायिकसम्मत पाँचरूप्य हेतु का कथन और उसका निराकरण नैयायिक पाँचरूपता को हेतु का लक्षण कहते हैं। वह इस तरह से है-पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व, विपक्षव्यावृत्ति, अबाधितविषयत्व और 10 असत्प्रतिपक्षत्व ये पाँच रूप हैं। उनमें प्रथम के तीन रूपों के लक्षण कहे जा चुके हैं। शेष दो के लक्षण यहाँ कहे जाते हैं। साध्य के प्रभाव को निश्चय कराने वाले बलिष्ठ प्रमाणों का न होना अबाधितविषयत्व है और साध्य के प्रभाव को निश्चय कराने वाले समान बल के प्रमाणों का न होना असत्प्रतिपक्षत्व है। इन सबको उदाहरण द्वारा 15 इस प्रकार समझिये—यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला है, जो जो धूम वाला होता है वह वह अग्निवाला होता है, जैसे—रसोईघर, जो जो अग्निवाला नहीं होता, वह वह धूमवाला नहीं होता, जैसेतालाब, चूंकि यह धूमवाला है, इसलिए अग्निवाला जरूर ही है। इस पाँच अवयवरूप अनुमान प्रयोग में अग्निरूप जाध्यधर्म से युक्त 20 पर्वतरूप धर्मी पक्ष है, 'धूम' हेतु है। उसके पक्षधर्मता है, क्योंकि वह पक्षभूत पर्वत में रहता है। सपक्षसत्त्व भी है, क्योंकि सपक्षभूत रसोईघर में रहता है। शङ्का-किन्हीं सपक्षों में धूम नहीं रहता है, क्योंकि अङ्गाररूप अग्निवाले स्थानों में धुओं नहीं होता । अतः सपक्षसत्त्व हेतु का 25 रूप नहीं है। Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश १६७ समाधान-नहीं; सपक्ष के एक देश में रहने वाला भी हेतु है । क्योंकि पहले कह प्राये हैं कि 'सपक्ष में सब जगह अथवा एक जगह हेतु का रहना सपक्षसत्त्व है।' इसलिए श्रङ्गाररूप श्रग्निवाले स्थानों में धूम के न रहने पर भी रसोई घर आदि सपक्षों में रहने से उसके सपक्षसत्त्व रहता ही है । विपक्षव्यावृत्ति भी उसके 5 है, क्योंकि घूम तालाब आदि सभी विपक्षों से व्यावृत्त है - वह उनमें नहीं रहता है । अबाधितविषयत्व भी है, क्योंकि धूमहेतु का प्रमाणों से बाधित प्रभाव का साधक जो श्रग्निरूप साध्य विषय है वह प्रत्यक्षादिक नहीं है । असत्प्रतिपक्षत्व भी है, क्योंकि अग्नि के तुल्य बल वाला कोई प्रमाण नहीं हैं। इस प्रकार पाँचों रूपों का 10 सद्भाव ही धूम हेतु के अपने साध्य की सिद्धि करने में प्रयोजक ( कारण ) है । इसी तरह सभी सम्यक् हेतुनों में पाँचों रूपों का सद्भाव 'समझना चाहिए । इनमें से किसी एक रूप के न होने से ही प्रसिद्ध, विरुद्ध, अनंकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसम नाम के पाँच हेत्वाभास 15 श्रपन्न होते हैं। इसका खुलासा इस प्रकार है १. पक्ष में जिसका रहना अनिश्चित हो वह प्रसिद्ध हेत्वाभास है । जैसे— ' शब्द अनित्य ( नाशवान् ) है, क्योंकि चक्षु इन्द्रिय से जाना जाता है।' यहाँ 'चक्षु इन्द्रिय से जाना जाना' हेतु पक्षभूत शब्द में नहीं रहता है । कारण, शब्द श्रोत्रेन्द्रिय से जाना जाता है | 20 इसलिए पक्षधर्मत्व के न होने से 'चक्षु इन्द्रिय से जाना जाना' हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है । २. साध्य से विपरीत - साध्याभाव के साथ जिस हेतु की व्याप्ति हो वह विरुद्ध हेत्वाभास है । जैसे— ' शब्द नित्य है, क्योंकि वह कृतक है— किया जाता है' यहाँ 'किया जाना' रूप हेतु अपने साध्यभूत 25 Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका नित्यत्व से विपरीत अनित्यत्व के साथ रहता है और सपक्ष आकाशादि में नहीं रहता। अतः विरुद्ध हेत्वाभास है। ३. जो हेतु व्यभिचार सहित (व्यभिचारी) हो–साध्य के प्रभाव में भी रहता हो वह अनैकान्तिक हेत्वाभास है। जैसे—'शब्द अनित्य 5 है, क्योंकि वह प्रमेय हैं' यहाँ 'प्रमेयत्व'-प्रमेयपना हेतु अपने साध्य अनित्यत्व का व्यभिचारी है। कारण, आकाशादिक विपक्ष में नित्यत्व के साथ भी वह रहता है। अतः विपक्ष से व्यावृत्ति न होने से अनैकान्तिक हेत्वाभास है। ४. जिस हेतुका विषय –साध्य प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित हो वह 10 कालात्ययापदिष्ट हेत्वाभास है। जैसे—'अग्नि ठण्डी है, क्योंकि वह पदार्थ है' यहाँ ‘पदार्थत्व' हेतु अपने विषय 'ठण्डापन' में, जो कि अग्नि की गर्मी को ग्रहण करने वाले प्रत्यक्ष से बाधित है, प्रवृत्त है। अतः अबाधित विषयता न होने के कारण ‘पदार्थत्व' हेत कालात्ययापदिष्ट है। ५. विरोधी साधन जिसका मौजूद हो वह हेतु प्रकरणसम अथवा सत्प्रतिपक्ष हेत्वाभास है। जैसे-'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह नित्यधर्मरहित है' यहाँ 'नित्यधर्मरहितत्व' हेतु का प्रतिपक्षी साधन मौजूद है। वह प्रतिपक्षी साधन कौन है ? 'शब्द नित्य है, क्योंकि वह अनित्य के धर्मों से रहित है' इस प्रकार नित्यता का साधन करना, 20 उसका प्रतिपक्षी साधन है। अतः असत्प्रतिपक्षता के न होने से 'नित्यधर्मरहितत्व' हेतु प्रकरणसम हेत्वाभास है। इस कारण पाँचरूपता हेतु का लक्षण है। उनमें से किसी एक के न होने पर हेतुके हेत्वाभास होने का प्रसङ्ग पायेगा, यह ठीक ही कहा गया है। क्योंकि जो 'हेतु के लक्षण से रहित हों और हेतु के 25 समान प्रतीत होते हों वे हेत्वाभास हैं। पांच रूपों में से किसी एक के Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश न होने से हेतु लक्षण से रहित है और कुछ रूपों के होने से हेतु के समान प्रतीत होते हैं ऐसा वचन है। - नैयायिकों के द्वारा माना गया हेतु का यह पाँचरूपता लक्षण भी युक्तिसङ्गत नहीं है, क्योंकि पक्षधर्म से शून्य भी कृत्तिका का उदय शकट के उदयरूप साध्य का हेतु देखा जाता है। अतः पाँचरूपता 5 अव्याप्ति दोष से सहित है। . दूसरी बात यह है, कि नैयायिकों ने ही केवलान्वयी और केवलव्यतिरेकी इन दोनों हेतु प्रों को पाँचरूपता के बिना भी गमक ( ज्ञापक ) स्वीकार किया है। वह इस प्रकार से है-उन्होंने हेतु के तीन भेद माने हैं-१ अन्वयव्यतिरेकी, २ केवलान्वयी और 10 ३ केवलव्यतिरेकी। १. उनमें जो पाँच रूपों से सहित है वह अन्वयव्यतिरेकी है। जैसे—'शब्द अनित्य है, क्योंकि कृतक है-किया जाता है, जो जो किया जाता है वह वह अनित्य है, जैसे घड़ा, जो जो अनित्य नहीं होता वह वह किया नहीं जाता, जैसे—अाकाश, और किया जाता है यह शब्द, 15 इसलिए अनित्य ही है।' यहाँ शब्द को पक्ष करके उसमें अनित्यता सिद्ध की जा रही है। अनित्यता के सिद्ध करने में किया जाना हेतु है। वह पक्षभूत शब्द का धर्म है। अतः उसके पक्षधर्मत्व है । सपक्ष घटादिकों में रहने और विपक्ष आकाशादिक में न रहने से सपक्षसत्त्व और विपक्ष व्यावृत्ति भी है। हेतु का विषय साध्य (अनित्यत्व) 20 किसी प्रमाण से बाधित न होने से अबाधितविषयत्व और प्रतिपक्षी साधन न होने से असत्प्रतिपक्षत्व भी विद्यमान है। इस तरह किया जाना' हेतु पाँचों रूपों से विशिष्ट होने के कारण अन्वयव्यतिरेकी है। वा २. जो पक्ष और सपक्ष में रहता है तथा विपक्ष से रहित है वह 25 Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०० न्याय-दीपिका केवलान्वयी है। जैसे-'अदृष्ट (पुण्य-पाप) आदिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो जो अनुमान से जाने जाते हैं वे वे किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे-अग्नि प्रादि ।' यहाँ 'अदृष्ट प्रादिक' पक्ष है, 'किसी के प्रत्यक्ष' साध्य है, 'अनुमान से जाना 5 जाना' हेतु है, 'अग्नि प्रादि' अन्वय दृष्टान्त है । 'अनुमान से जाना जाना' हेतु पक्ष बनाये गये 'अदृष्ट आदिक' में रहता है और सपक्ष किये 'अग्नि आदि' में रहता है । अतः पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्व है। तथा विपक्ष यहाँ कोई है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और सपक्ष के भीतर प्रा लिए हैं। इस कारण विपक्षव्यावृत्ति है ही नहीं। कारण, 10 ब्यावृत्ति अवधि (सीमा) को लेकर होती है और व्यावृत्ति की अवधि विपक्ष है, वह यहाँ है नहीं। बाकी कथन अन्वयव्यतिरेकी की तरह समझना चाहिए। ३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं रहता और सपक्ष से रहित है वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जैसे-'जिन्दा शरीर जीव15 सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादि वाला है। जो जो जीव सहित नहीं होता वह वह प्राणादि वाला नहीं होता, जैसे-लोष्ठ ( मिट्टी का ढेला ) । यहाँ 'जिन्दा शरीर' पक्ष है, 'जीवसहितत्व' साध्य है, 'प्राणादि' हेतु है और 'लोष्ठादिक' व्यतिरेकतृष्टान्त है । 'प्राणादि' हेतु पक्षभूत 'जिन्दा शरीर' में रहता है और विपक्ष 20 लोष्ठादिकसे व्यावृत्त है-वहाँ वह नहीं रहता है। तथा सपक्ष यहाँ है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और विपक्षके अन्तर्गत हो गये । बाकी कथन पहले की तरह जानना चाहिये। इस तरह इन तीनों हेतुओं में अन्दयव्यतिरेकी हेतु के ही पाँचरूपता है। केवलान्वयी हेतु के विपक्षव्यावृत्ति नहीं है और 25 केवलव्यतिरेकीके सपक्षसत्त्व नहीं है। अतः नैयायिकोंके मतानु Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २०१ सार ही पाँचरूप्य हेतुका लक्षण अव्याप्त है। पर अन्यथानुपपत्ति सभी ( केवलान्वयी प्रादि ) हेतुओं में व्याप्त है-रहती है। इसलिये उसे ही हेतुका लक्षण मानना ठीक है। कारण उसके बिना हेतु अपने साध्यका गमक ( ज्ञापक ) नहीं हो सकता है। TET जो यह कहा गया था कि 'प्रसिद्ध प्रादिक पाँच हेत्वाभासोंके 5 निवारण करनेके लिये पाँच रूप हैं, वह ठीक नहीं है। क्योंकि अन्यथानपपत्ति विशिष्टरूपसे निश्चतपना ही, जो हमने हेतुलक्षण माना है, उन असिद्धादिक हेत्वाभासोंका निराकरण करनेवाला सिद्ध होता है । तात्पर्य यह कि केवल एक अन्यथानुपपत्तिको ही हेतु का लक्षण मानने से प्रसिद्धादिक सभी दोषों का वारण हो जाता है । 10 वह इस प्रकार से है : जो साध्य का अविनाभावी है–साध्य के होने पर ही होता है और साध्य के बिना नहीं होता तथा निश्चयपथ को प्राप्त है अर्थात् जिसका ज्ञान हो चुका है वह हेतु है, क्योंकि "जिसका साध्यके साथ अविनाभाव निश्चित है वह हेतु है" ऐसा वचन 15 है और यह अविनाभाव प्रसिद्धके नहीं है । शब्दकी अनित्यता सिद्ध करने के लिये जो 'चक्षु इन्द्रियका विषय' हेतु बोला जाता है वह शब्द का स्वरूप ही नहीं है । अर्थात् शब्दमें चक्षु इन्द्रिय की विषयता ही नहीं है तब उसमें अन्यथानुपपत्तिविशिष्टरूपसे निश्चयपथप्राप्ति अर्थात् -अविनाभावका निश्चय कैसे हो सकता है ? 20 अर्थात्-नहीं हो सकता है। अतः साध्य के साथ अविनाभाव का निश्चय न होने से ही 'चक्षु इन्द्रिय का विषय' हेतु प्रसिद्ध हेत्वाभास है, न कि पक्षधर्मता के प्रभाव होने से। कारण, पक्षधर्मता के बिना भी कृत्तिकोदयादि हेतुओं को उक्त अन्यथानुपपत्तिरूप हेतुलक्षण के रहने से ही सद्धेतु-सम्यक् हेतु कहा गया है। और 25 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ न्याय-दीपिका AN owa विरुद्धादिक हेत्वाभासों में अन्यथानुपपत्ति का अभाव प्रकट ही है। क्योंकि स्पष्ट ही विरुद्ध, व्यभिचारी, बाधितविषय और सत्प्रतिपक्ष के अविनाभाव का निश्चय नहीं है। इसलिए जिस हेतु के अन्यथानपपन्नत्व का योग्य देश में निश्चय है वही सम्यक् हेतु है उससे भिन्न हेत्वाभास है, यह सिद्ध हो गया। दूसरे, 'गर्भ में स्थित मैत्री का पुत्र श्याम ( काला ) होना चाहिए, क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है, अन्य मौजूद मैत्री के पुत्रों की तरह ।' यहाँ हेत्वाभास के स्थान में भी बौद्धों के त्रैरूप्य और नयायिकों के पाञ्चरूप्य हेतुलक्षण की अतिव्याप्ति है, इसलिए त्रैरूप्य और पाञ्चरूप्य हेतु का लक्षण नहीं है। इसका स्पष्टीकरण निम्न प्रकार है : __ मैत्री के मौजूद पाँच पुत्रों में कालेपन को देखकर मैत्री के गर्भस्थ पुत्र को भी-जो कि विवादग्रस्त है, पक्ष करके उसमें कालेपन को सिद्ध करने के लिए जो 'मैत्री का पुत्रपना' हेतु प्रयुक्त किया जाता है वह हेत्वाभास है—सम्यक् हेतु नहीं है, यह प्रसिद्ध ही है। क्योंकि उसमें गोरेपन की भी सम्भावना की जा सकती है। और वह सम्भावना 'कालेपन' के साथ 'मैत्री का पुत्रपना' की अन्यथानुपपत्ति ( अविनाभाव ) न होने से होती है। अन्यथानुपपत्ति का अभाव इसलिए है कि कालेपन के साथ मैत्री के पुत्रपने का न तो सहभाव । नियम है और न क्रमभाव नियम । जिस धर्म का जिस धर्म के साथ सहभाव नियम-एक साथ होने का स्वभाव होता है वह उसका ज्ञापक होता है। अर्थात्-वह उसे जनाता है। जैसे शिशपात्व का वृक्षत्व के साथ सहभाव नियम है, इसलिए शिशपात्व हेतु वृक्षत्व को जनाता है। और जिसका । जिसके साथ क्रमभाव नियम-क्रम से होने का स्वभाव होता है वह SINo Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २०३ उसका ज्ञान कराता है। जैसे-धुएँ का अग्नि के बाद होने का नियम है, इसलिए धुआँ अग्नि का ज्ञान कराता है। प्रकृत में 'मैत्री के पुत्रपने' हेत का 'कालेपन' साध्य के साथ न तो सहभाव नियम है और न क्रमभाव नियम है जिससे कि 'मैत्री का पुत्रपना' हेतु 'कालेपन' साध्य का ज्ञान कराये। 5 यद्यपि विद्यमान मैत्री के पुत्रों में 'कालेपन' और 'मैत्री का पुत्रपन' का सहभाव है—दोनों एक साथ उपलब्ध होते हैं, पर वह . सहभाव नियत नहीं है—नियमरूप में नहीं है, क्योंकि कोई यदि यह कहे कि गर्भस्थ पुत्र में 'मैत्री का पुत्रपन' तो हो, किन्तु 'कालापन' न हो, तो इस प्रकार विपक्ष ( व्यभिचारशङ्का ) में 10 कोई बाधक नहीं है—उक्त व्यभिचार की शङ्का को दूर करने वाला अनुकूल तर्क नहीं है। अर्थात् यहाँ ऐसा तर्क नहीं है कि यदि कालापन न हो तो मैत्री का पुत्रपन' भी नहीं हो सकता है' क्योंकि मैत्रीपुत्र में 'मैत्री के पुत्रपन' के रहने पर भी 'कालापन' सन्दिग्ध है। और विपक्ष में बाधक प्रमाणों-ब्यभिचारशङ्कानिवर्त्तक अनुकूल 15 तर्कों के बल से ही हेतु और साध्य में व्याप्ति का निश्चय होता है। तथा ब्याप्ति के निश्चय से सहभाव अथवा क्रमभाव का निर्णय होता है। क्योंकि "सहभाव और क्रमभाव नियम को अविनाभाव कहते हैं" ऐसा वचन है। विवाद में पड़ा हुया पदार्थ वृक्ष होना चाहिए, क्योंकि वह शिशपा (शीशम) है, जो जो शिशपा होती है वह वह वृक्ष 20 होता है। जैसे—ज्ञात शिशपा वृक्ष । यहाँ यदि कोई ऐसी ब्यभिचारशङ्का करे कि हेतु (शिशपा) रहे साध्य (वृक्षत्व) न रहे तो सामान्यविशेषभाव के नाश का प्रसङ्गरूप बाधक मौजूद है। अर्थात् उस व्यभिचारशङ्का को दूर करने वाला अनुकूल तर्क विद्यमान है। यदि वृक्षत्व न हो तो शिशपा नहीं हो सकती; क्योंकि वृक्षत्व 25 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ न्याय-दीपिका सामान्य है और शिशपा उसका विशेष है और विशेष सामान्य के बिना नहीं हो सकता है। इसलिए यहाँ सामान्य-विशेषभाव के भङ्ग होने का प्रसङ्गरूप बाधक मौजूद है। किन्तु 'मैत्री का पुत्रपन हो कालापन न हो' ऐसा कहने में (व्यभिचारशङ्का प्रकट करने में) कोई बाधक नहीं 5 है, अर्थात्-उस व्यभिचारशङ्का को दूर करने वाला कोई अनकूल तर्क-कि यदि कालापन न हो तो मैत्री का पुत्रपन नहीं हो सकता है नहीं है, क्योंकि गोरेपन के साथ भी मैत्री के पुत्रपन का रहना सम्भव है। अतः 'मैत्री का पुत्रपन' हेतु हेत्वाभास ही है। अर्थात्-वह सन्दिग्धानकान्तिक है। उसके पक्षधर्मता है, क्योंकि पक्ष0 भूत गर्भस्थ मैत्रीपुत्र में रहता है। सपक्ष किये गये मौजूद मैत्रीपुत्रों में रहने से सपक्ष-सत्त्व भी है। और विपक्ष गोरे चैत्र के पुत्रों से व्यावृत्त होने से विपक्षव्यावृत्ति भी है। कोई बाधा नहीं है, इसलिए अबाधित विषयता भी है, क्योंकि गर्भस्थ पुत्र का कालापन किसी प्रमाण से बाधित नहीं है। असत्प्रतिपक्षता भी है, क्योंकि 5 विरोधी समान बल वाला प्रमाण नहीं है। इस प्रकार 'मैत्री के पुत्रपन' में पाँचों रूप विद्यमान हैं। तीन रूप तो 'हजार में सौ' के न्याय से स्वयं सिद्ध हैं। अर्थात्-जिस प्रकार हजार में सौ प्रा ही जाते हैं उसी प्रकार मंत्री पुत्रपन में पाँच रूपों के दिखा देने पर तीन रूप भी प्रदर्शित हो जाते हैं। 20 अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु-लक्षण होने की सिद्धि यहाँ यदि कहा जाय कि केवल पाँचरूपता हेतु का लक्षण नहीं है, किन्तु अन्यथानुपपत्ति से विशिष्ट ही पांचरूपता हेतु का लक्षण है। तो उसी एक अन्यथानुपपत्ति को ही हेतु का लक्षण मानिये; क्योंकि अन्यथानुपपत्ति के अभाव में पाँचरूपता के रहने पर भी 25 'मैत्री का पुत्रपन' प्रादि हेतुओं में हेतुता नहीं है और उसके सद्भाव Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २०५ में पाँचरूपता के न होने पर भी 'कृत्तिकोदय' श्रादि में हेतुता है । कहा भी है : " अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥" [ 1 जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ तीन रूपों के मानने से क्या ? और 5 जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ तीन रूपों के सद्भाव से भी क्या ? तात्पर्य यह कि त्रैरूप्य श्रन्यथानुपपत्ति के बिना अभिमत फल का सम्पादक नहीं है- व्यर्थ है । यह त्रैरूप्य को मानने वाले बौद्धों के लिए उत्तर है । और पाँच रूपों को मानने वाले नैयायिकों के लिए तो निम्न उत्तर है : "अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः । नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र किं तत्र पञ्चभिः ॥" [ प्रमाणप० पृ० ७२ ] 10 जहाँ अन्यथानुपपत्ति है वहाँ पाँच रूपों के मानने से क्या ? और जहाँ अन्यथानुपपत्ति नहीं है वहाँ पाँच रूपों के सद्भाव से भी क्या ? मतलब यह कि अन्यथानुपपत्ति के बिना पाँच रूप सर्वथा अन्यथा - 15 सिद्ध हैं - निष्फल हैं हेतु के भेदों और उपभेदों का कथन यह अन्यथानुपपत्ति के निश्चयरूप एक लक्षण वाला हेतु संक्षेप में दो तरह का है- १ विधिरूप और २ प्रतिषेधरूप विधिरूप हेतु के भी दो भेद हैं- १ विधिसाधक और २ प्रतिषेध- 20 १ यह कारिका प्रमाण-परीक्षा में कुछ परिवर्तनके साथ निम्न प्रकार उपलब्ध है : अन्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् । नान्यथानुपपन्नत्वं रूपैः किं पञ्चभिः कृतम् ॥ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ न्याय - दीपिका साधक । इनमें से पहले विधिसाधक के अनेक भेद हैं- ( १ ) कोई कार्यरूप है, जैसे- 'यह पर्वत अग्निवाला है, क्योंकि धूमवाला श्रन्यथा नहीं हो सकता' यहाँ 'धूम' कार्यरूप हेतु है । कारण, धूम अग्नि का कार्य है और वह उसके बिना न होता हुआ श्रग्नि का ज्ञान कराता है । ( २ ) कोई कारणरूप है, जैसे- 'वर्षा होगी, क्योंकि विशेष बादल अन्यथा हो नहीं सकते' यहाँ 'विशेष बादल' कारण हेतु हैं । क्योंकि विशेष बादल वर्षा के कारण हैं और अपने कार्यभूत वर्षा का बोध कराते हैं । शङ्का - कार्य तो कारण का ज्ञापक हो सकता है, क्योंकि कारण के बिना कार्य नहीं होता । किन्तु कारण कार्य के अभाव में भी सम्भव है, जैसे—धूम के बिना भी श्रग्नि देखी जाती है । प्रतएव अग्नि धूम की गमक नहीं होती । श्रतः कारणहेतु को मानना ठीक नहीं है ? समाधान- नहीं; जिस कारण की शक्ति प्रकट है - प्रप्रतिहत है वह कारण कार्य का व्यभिचारी नहीं होता- नियम से कार्य का जनक होता है । अतः ऐसे कारण को कार्य का ज्ञापक हेतु माननेमें कोई विरोध नहीं है । ( ३ ) कोई विशेषरूप है, जैसे- 'यह वृक्ष है, क्योंकि शिशपा अन्यथा हो नहीं सकती ।' यहाँ 'शिशपा' विशेष रूप हेतु है । क्योंकि शिशपा वृक्षविशेष है, वह अपने सामान्यभूत वृक्ष का ज्ञापन कराती है । कारण वृक्षविशेष वृक्षसामान्यके बिना नहीं हो सकता है । ( ४ ) कोई पूर्वचर है, जैसे- 'एक मुहुर्त के बाद शकट का उदय होगा; क्योंकि कृत्तिका का उदय श्रन्यथा हो नहीं सकता' । 'यहाँ कृत्तिका का उदय' क्योंकि कृत्तिका के उदय के बाद मुहूर्त्त के अन्त में का उदय होता है । और इसलिए कृत्तिका का उदय पूर्वचर हेतु पूर्वचर हेतु है; नियम से शकट ज क वि इस नि उस जीव सक कता वह इसि है । एका सकतं Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २०७ होता हुआ शकट के उदय को जनाता है। (५) कोई उत्तरचर है, जैसे—एक मुहूर्त के पहले भरणिका उदय हो चुका; क्योंकि इस समय कृत्तिका का उदय अन्यथा हो नहीं सकता' यहाँ 'कृत्तिका का उदय उत्तरचर हेतु है। कारण, कृत्तिका का उदय भरणि के उदय के बाद होता है और इसलिए वह उसका उत्तरचर होता हुआ उसको 5 जनाता है। (६) कोई सहचर है, जैसे मातुलिङ्ग (बिजौरा नीबू) रूपवान् होना चाहिए, क्योंकि रसवान् अन्यथा हो नहीं सकता' यहाँ 'रस' सहचर हेतु है। कारण, रस नियम से रूप का सहचारी है-साथ में रहने वाला है और इसलिए वह उसके अभाव में नहीं होता हुआ उसका ज्ञापन कराता है। 10 ____इन उदाहरणों में सद्भावरूप ही अग्न्यादिक साध्य को सिद्ध करने वाले धूमादिक साधन सद्भावरूप ही हैं। इसलिए ये सब विधिसाधक विधिरूप हेतु हैं। इन्हीं को अविरुद्धोपलब्धि कहते हैं । इस प्रकार विधिरूप हेतु के पहले भेद विधिसाधक का उदाहरणों द्वारा निरूपण किया। . 15 दूसरा भेद निषेधसाधक नामका है । विरुद्धोपलब्धि भी उसी का दूसरा नाम है। उसका उदाहरण इस प्रकार है-'इस जीव के मिथ्यात्व नहीं है, क्योंकि आस्तिकता अन्यथा हो नहीं सकती'। यहाँ 'पास्तिकता' निषेधसाधक हेतु है, क्योंकि आस्तिकता सर्वज्ञ वीतराग के द्वारा प्रतिपादित तत्त्वार्थों के श्रद्धानरूप है। 20 वह श्रद्धान मिथ्यात्व वाले (मिथ्यादृष्टि) जीव के नहीं हो सकता, इसलिए वह विवक्षित जीव में मिथ्यात्व के अभाव को सिद्ध करता है। अथवा, इस हेतु का दूसरा उदाहरण यह है-'वस्तु में सर्वथा एकान्त नहीं है, क्योंकि अनेकान्तात्मकता अन्यथा हो नहीं सकती' यहाँ 'अनेकान्तात्मकता' निषेधसाधक हेतु है । कारण, 25 Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ न्याय-दीपिका अनेकान्तात्मकता वस्तु में अबाधितरूप से प्रतीत होती है और इस. लिए वह बौद्धादिकल्पित सर्वथा एकान्त के अभाव को अवश्य सिता करती है। शङ्का—यह अनेकान्तात्मकता क्या है, जिसके बल से वस्त में 5 सर्वथा एकान्त के प्रभाव को सिद्ध किया जाता है ? समाधान-सभी जीवादि वस्तुओं में जो भाव-अभावरूपता, एकअनेकरूपता और नित्य-अनित्यरूपता इत्यादि अनेक धर्म पाये जाते हैं। उसी को अनेकान्तात्मकता अथवा अनेकान्तरूपता कहते हैं। इस तरह विधिरूप हेतु का दिग्दर्शन किया। 10 प्रतिषेधरूप हेतु के भी दो भेद हैं- १ विधिसाधक और २ प्रतिषेधसाधक । उनमें विधिसाधक का उदाहरण इस प्रकार है'इस जीव में सम्यक्त्व है, क्योंकि मिथ्या अभिनिवेश नहीं है।' यहाँ 'मिथ्या अभिनिवेश नहीं है। यह प्रतिषेधरूप हेतु है और वह सम्यग्दर्शन के सद्भाव को साधता है, इसलिए वह प्रतिषेधरूप विधि15 साधक हेतु है। दूसरे प्रतिषेधरूप प्रतिषेधसाधक हेतु का उदाहरण यह है'यहाँ धुआँ नहीं है, क्योंकि अग्नि का अभाव है।' यहाँ 'अग्नि का प्रभाव' स्वयं प्रतिसेधरूप है और वह प्रतिषेधरूप ही धूम के प्रभाव को सिद्ध करता है, इसलिए 'अग्नि का अभाव' प्रतिषेध20 रूप प्रतिषेधसाधक हेतु है। इस तरह विधि और प्रतिषेधरूप से दो प्रकार के हेतु के कुछ प्रभेदों का उदाहरण द्वारा वर्णन किया। विस्तार से परीक्षामुख से जानना चाहिए। इस प्रकार पूर्वोक्त लक्षण वाले ही हेतु साध्य के गमक हैं, अन्य नहीं। अर्थात्-जो अन्यथानुपपत्ति लक्षण वाले नहीं हैं वे साध्य के गमक नहीं हैं, क्योंकि 25 वे हेत्वाभास हैं। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २०६ हेत्वाभास का लक्षण और उनके भेद_ हेत्वाभास किन्हें कहते हैं ? जो हेतु के लक्षण से रहित हैं, किन्तु हेतु जैसे प्रतीत होते हैं उन्हें हेत्वाभास कहते हैं । वे चार प्रकार के हैं१ प्रसिद्ध, २ विरुद्ध, ३ अनैकान्तिक और ४ अकिञ्चित्कर । (१) असिद्ध—जिसकी साध्य के साथ व्याप्ति अनिश्चित है 5 वह असिद्ध हेत्वाभास है। हेतु की यह अनिश्चितता हेतु के स्वरूप के प्रभाव का निश्चय होने से और स्वरूप में संशय होने से होती है। स्वरूपाभाव के निश्चय में स्वरूपासिद्ध है और स्वरूप के सन्देह में सन्दिग्धासिद्ध है। उनमें पहले का उदाहरण यह है—'शब्द परिणमनशील है, क्योंकि यह चक्षु इन्द्रिय का विषय है।' यह 10 चक्षु इन्द्रिय का विषय हेतु स्वरूपासिद्ध है। क्योंकि शब्द' श्रोत्रेन्द्रिय का विषय है, चक्षु इन्द्रिय का नहीं। अतः शब्द में चक्षु इन्द्रिय की वषयता का अभाव निश्चित है इसलिए वह स्वरूपासिद्ध है। दूसरे का उदाहरण यह है-धूम अथवा भाप आदि के निश्चय किये बना ही कोई यह कहे कि 'यह प्रदेश अग्नि वाला है, क्योंकि वह 15 'म वाला है।' यहाँ 'धूम' हेतु सन्दिन्धासिद्ध है.। कारण, उसके वरूप में सन्देह है। ... । (२) विरुद्ध-जिस हेतु की साध्य से विरुद्ध (साध्याभाव) के . पथ व्याप्ति हो वह विरुद्ध हेत्वाभास है। जैसे–'शब्द अपरिणमन- . ल है, क्योंकि किया जाता है' यहाँ 'किया जाना' हेतु की व्याप्ति 20 परिणमनशील से विरुद्ध परिणमनशीलता के साथ है। अतः वह 'रुद्ध हेत्वाभास है। (३) अनैकान्तिक-ज़ो पक्ष, सपक्ष और विपक्ष में रहता है . . , { अनैकान्तिक हेत्वाभास है। वह दो प्रकारका है—१ निश्चितपक्षवृत्ति और २ शङ्कितविपक्षवृत्ति । उनमें पहले का उदाहरण 25 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० न्याय-दीपिका यह है-'यह प्रदेश धूमवाला है, क्योंकि वह अग्निवाला है।' यहाँ 'अग्नि' हेतु पक्षभूत सन्दिग्ध धूमवाले सामने के प्रदेश में रहता है और सपक्ष धूम वाले रसोईघर में रहता है तथा विपक्ष धूमरहित रूप से निश्चित अङ्गारस्वरूप अग्नि वाले प्रदेश में भी रहता है, 5 ऐसा निश्चय है। अतः वह निश्चितविपक्षवृत्ति अनैकान्तिक है। दूसरे शङ्कितविपक्षवृत्ति का उदाहरण यह है—'गर्भस्थ मैत्री का पुत्र श्याम होना चाहिए, क्योंकि मैत्री का पुत्र है, मैत्री के दूसरे पुत्रों की तरह यहाँ 'मैत्री का पुत्रपना' हेतु पक्षभूत गर्भस्थ मैत्री के पुत्र में रहता है, सपक्ष दूसरे मैत्रीपुत्रों में रहता है, और विपक्ष 0 अश्याम–गोरे पुत्र में भी रहे इस शङ्का की निवृत्ति न होने से अर्थात् विपक्ष में भी उसके रहने की शङ्का बनी रहने से वह शङ्कितविपक्षवृत्ति है। शङ्कितविपक्षवृत्ति का दूसरा भी उदाहरण है-'अरहन्त सर्वज्ञ नहीं होना चाहिए, क्योंकि वे वक्ता हैं, जैसे-'रथ्यापुरुष'। यहाँ 'वक्ता पन' हेतु जिस प्रकार पक्षाभूत अरहन्त में और सपक्षभूत रथ्यापुरुष 5 में रहता है उसी प्रकार सर्वज्ञ में भी उसके रहने की सम्भावना की जाय, क्योंकि वक्तापन और ज्ञातापन का कोई विरोध नहीं है। जिसका जिसके साथ विरोध होता है वह उस वाले में नहीं रहता है और वचन तथा ज्ञान का लोक में विरोध नहीं है, बल्कि ज्ञान वाले ( ज्ञानी ) के ही वचनों में चतुराई अथवा सुन्दरता ) स्पष्ट देखने में आती है। अतः विशिष्ट ज्ञानवान् सर्वज्ञ में विशिष्ट वक्तापन के होने में क्या आपत्ति है ? इस तरह वक्तापन की विपक्षभूत सर्वज्ञ में भी सम्भावना होने से वह शङ्कितविपक्षवृत्ति नाम का अनैकान्तिक हेत्वाभास है। लिये अधर्म आगर जैसे गर्भ न रहता (४) अकिञ्चित्कर-जो हेतु साध्यकी सिद्धि करने में अप्रयोजक; असमर्थ है उसे अकिञ्चित्कर हेत्वाभास कहते हैं । उसके दो है औ मेरी । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २११ अर्थात् — अग्नि को 10 । अतः 'द्रव्यत्व' हेतु प्रकिञ्चित्कर है । अपरिणामी है, भेद हैं- १ सिद्धसाधन और २ बाधितविषय | उनमें पहले का उदाहरण यह है - ' शब्द श्रोत्रेन्द्रिय का विषय होना चाहिए, क्योंकि वह शब्द हैं' । यहाँ 'श्रोत्रेन्द्रिय की विषयता' रूपसाध्य शब्द में श्रावणप्रत्यक्ष से ही सिद्ध है । अतः उसको सिद्ध करने के लिए प्रयुक्त किया गया 'शब्दपना' हेतु सिद्धसाधन नाम का श्रकिञ्चित्कर 5 हेत्वाभास है । बाधितविषय नामका श्रकिञ्चित्कर हेत्वाभास अनेक प्रकार का है । कोई प्रत्यक्षबाधितविषय है । जैसे– 'अग्नि अनुष्ण—- ठंडी है, क्योंकि वह द्रव्य है' । यहाँ 'द्रव्यत्व' हेतु प्रत्यक्षबाधितविषय है । कारण उसका जो ठंडापन विषय है वह उष्णताग्राहक स्पर्शनेन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष से बाधित है। छूने पर वह उष्ण प्रतीत होती है, ठंडी नहीं कुछ भी साध्यसिद्धि करने में समर्थ न होने से कोई अनुमानवाधित विषय है । जैसे - ' शब्द क्योंकि वह किया जाता है' यहाँ 'किया जाना' हेतु 'शब्द परिणामी है, क्योंकि वह प्रमेय है' इस अनुमान से बाधितविषय है । इस- 15 लिये वह अनुमानबाधितविषय नामका अकिञ्चित्कर हेत्वाभास है । कोई श्रागमबाधितविषय है । जैसे- 'धर्म परलोक में दुःख का देने वाला है, क्योंकि वह पुरुष के श्राश्रय से होता है, जैसेश्रधर्म' यहाँ 'धर्म सुख का देने वाला है' ऐसा श्रागम है, इस श्रागम से उक्त हेतु बाधितविषय है । कोई स्ववचनबाधित विषय है | 20 जैसे - मेरी माता बन्ध्या है, क्योंकि पुरुष का संयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता है । जिसके पुरुष का संयोग होने पर भी गर्भ नहीं रहता है वह बन्ध्या कही जाती है, जैसे— प्रसिद्ध वन्ध्या स्त्री । यहाँ हेतु अपने वचन से बाधितविषय है, क्योंकि स्वयं मौजूद है और माता भी मान रहा है फिर भी यह कहता है कि मेरी माता बन्ध्या है । श्रतः हेतु स्ववचनबाधितविषय नामका 25 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ न्याय-दीपिका अकिञ्चितकर हेत्वाभास है। इसी प्रकार और भी अकिञ्चित्कर के भेद स्वयं विचार लेना चाहिए। इस तरह हेतु के प्रसङ्ग से हेत्वाभासों का निरूपण किया। FRE होता उदाहरण का निरूपण यद्यपि व्युत्पन्न ज्ञाता के लिए प्रतिज्ञा और हेतु ये दो ही अवरव पर्याप्त हैं तथापि अव्युत्पन्नों के ज्ञान के लिए उदाहरणादिक को मी आचार्यों ने स्वीकृत किया है। यथार्थ दृष्टान्त के कहने को उदाहरण कहते हैं। यह दृष्टान्त क्या है ? जहाँ साध्य और साधन की याप्ति दिखलाई (जानी) जाती है उसे दृष्टान्त कहते हैं। और माध्य-अग्नि आदिक के होने पर ही साधन-धूमादिक होते हैं तथा उनके नहीं होने पर नहीं होते हैं, इस प्रकार के साहचर्यरूप साध्यधन के नियम को व्याप्ति कहते हैं। इस व्याप्ति को ही साध्य के बना साधन के न होने से अविनाभाव कहते हैं। वादी और प्रतिशादी की बुद्धिसाम्यता को व्याप्ति की सम्प्रतिपत्ति कहते हैं और ह सम्प्रतिपत्ति (बुद्धिसाम्यता) जहाँ सम्भव है वह सम्प्रतिपत्ति 'देश कहलाता है, जैसे—रसोईशाला आदि, अथवा तालाब आदि । योंकि वहीं 'धूमादिक के होने पर नियम से अग्न्यादिक पाये आते हैं और अग्न्यादिक के अभाव में नियम से धूमादिक नहीं पाये ते' इस प्रकारको सम्प्रतिपत्ति-बुद्धिसाम्यता सम्भव है। उनमें सोईशाला आदि अन्वयदृष्टान्त हैं, क्योंकि वहाँ साध्य और 'धिन के सद्भाव रूप अन्वयबुद्धि होती है। और तालाब आदि । तिरेकदृष्टान्त हैं, क्योंकि वहाँ साध्य और साधन के अभावरूप पतिरेक का ज्ञान होता है। ये दोनों ही दृष्टान्त हैं, क्योंकि साध्य और साधनरूप अन्त—अर्थात् धर्म जहाँ देखे जाते हैं वह दृष्टान्त हलाता है, ऐसा 'दृष्टान्त' शब्द का अर्थ उनमें पाया जाता है। होना पहले वह ६ नहीं और म्यग्व उसे । अर्थ में तात्पर्य इस इस द Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २१३ इस उपयुक्त दृष्टान्त का जो सम्यक् वचन है-प्रयोग है वह उदाहरण है। केवल 'वचन' का नाम उदाहरण नहीं है, किन्तु दृष्टान्तरूप से जो वचन-प्रयोग है वह उदाहरण है। जैसे—'जो जो धूमवाला होता है वह वह अग्नि वाला होता है, जैसे—रसोई घर, और जहाँ अग्नि नहीं है वहाँ धूम भी नहीं है, जैसे-तालाब ।' 5 इस प्रकार के वचन के साथ ही दृष्टान्त का दृष्टान्तरूप से प्रतिपादन होता है। उदाहरण के प्रसङ्ग से उदाहरणाभास का कथन जो उदाहरण के लक्षण से रहित है किन्तु उदाहरण जैसा प्रतीत होता है वह उदाहरणाभास है। उदाहरण के लक्षण की रहितता 10 (अभाव) दो तरह से होती है—१ दृष्टान्त का सम्यक् वचन न होना और २ जो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्यक वचन होना। उनमें पहले का उदाहरण इस प्रकार है-'जो जो अग्नि वाला होता है वह वह धूम वाला होता है, जैसे- रसोईघर । जहाँ जहाँ धूम नहीं है वहां वहां अग्नि नहीं है, जैसे-लालाब ।' इस तरह ब्याप्य 1 और ब्यापक का विपरीत ( उल्टा ) कथन करना दृष्टान्त का असम्यग्वचन है। शङ्का-व्याप्य और व्यापक किसे कहते हैं ? समाधान—साहचर्य नियमरूप व्याप्ति क्रिया का जो कर्म है उसे ब्याप्य कहते हैं, क्योंकि 'वि' पूर्वक 'प्राप्' धातु से 'कर्म' 2 अर्थ में ‘ण्यत्' प्रत्यय करने पर 'व्याप्य' शब्द निष्पन्न होता है। तात्पर्य यह कि 'जहाँ जहाँ धूम होता है वहां वहां अग्नि होती है' इस प्रकारके साथ रहने के नियम को व्याप्ति कहते हैं, और इस व्याप्ति का जो कर्म है—विषय है वह व्याप्य कहलाता है। वह व्याप्य धूमादिक हैं, क्योंकि धूमादिक वह्नयादि के द्वारा .. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ न्याय-दीपिका व्याप्त (विषय ) किये जाते हैं। तथा इसी व्याप्ति क्रियाका जो कर्ता है उसे ब्यापक कहते हैं, क्योंकि 'वि' पूर्वक 'प्राप्' धातु से कर्ता अर्थ में 'वुल' प्रत्यय करने पर व्यापक' शब्द सिद्ध होता है। वह व्यापक अग्न्यादिक हैं। इसीलिए अग्नि धूम को व्याप्त करती 5 है, क्योंकि 'जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि नियम से होती है' इस तरह धूम वाले सब स्थानों में नियम से अग्नि पायी जाती है। किन्तु धूम अग्नि को वैसा व्याप्त नहीं करता, क्योंकि अंगारापन्न अग्नि धूम के बिना भी रहती है। कारण, जहां 'अग्नि है वहाँ नियम से धूम भी है' ऐसा सम्भव नहीं है। 10 शङ्का-धूम गीले ईन्धन वाली अग्नि को व्याप्त करता ही है। अर्थात् वह उसका व्यापक होता है, तब आप कैसे कहते हैं कि घूम अग्नि का व्यापक नहीं होता ? समाधान-गीले ईन्धनवाली अग्नि का धूम को ब्यापक मानना हमें इष्ट है। क्योंकि जिस तरह 'जहां जहां अविच्छिन्नमूल धूम ___15 होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है' यह सम्भव है उसी तरह जहां जहां गीले ईन्धन वाली अग्नि होती है वहाँ वहाँ धूम होता है' यह भी सम्भव है। किन्तु अग्निसामान्य धूम-विशेष का व्यापक ही है-व्याप्य नहीं; कारण कि 'पर्वत अग्नि वाला है, क्योंकि वह धूम वाला है' इस अनुमान में अग्नि-सामान्य की ही अपेक्षा होती है 20 आन्धन वाली अग्नि या महानसीय, पर्वतीय, चत्वरीय और गोष्ठीय आदि विशेष अग्नि की नहीं। इसलिये धूम अग्नि का व्यापक नहीं है, अपितु अग्नि ही धूम की व्यापक है। अतः 'जो जो धूमवाला होता है वह अग्निवाला होता है, जैसे—रसोई का घर' इस प्रकार दृष्टान्त का सम्यक् वचन बोलना चाहिए। किन्तु 25 इससे विपरीत वचन बोलना दृष्टान्ताभास है । इस तरह यह Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २१५ असम्यक् वचनरूप अन्वय दृष्टान्ताभास (अन्वय उदाहरणाभास) है। व्यतिरेकब्याप्ति में तो व्यापक-अग्न्यादिक का अभाव व्याप्य होता है और व्याप्य-धूमादिक का अभाव व्यापक होता है। अतएव 'जहां जहां अग्नि का अभाव है वहां वहां धूम का अभाव है, जैसे -तालाब' इस प्रकार दृष्टान्त का सम्यक् वचन बोलना चाहिए। 5 इससे विपरीत कथन करना असम्यक वचनरूप व्यतिरेक उदाहरणाभास है। 'अदृष्टान्तवचन' ( जो दृष्टान्त नहीं है उसका सम्यक् वचन होना ) नाम का दूसरा उदाहरणाभास इस प्रकार है - अन्वयव्याप्ति में ब्यतिरेक दृष्टान्त कह देना और ब्यतिरेकब्याप्ति में अन्वय दृष्टान्त बोलना, उदाहरणाभास है । इन दोनों के 10 उदाहरण स्पष्ट हैं। शङ्का-'गर्भस्थ मैत्री का पुत्र श्याम होना चाहिये, क्योंकि वह मैत्री का पुत्र है, जो जो मैत्री का पुत्र है वह वह श्याम है, जैसे उसके दूसरे पुत्र' इत्यादि अनुमानप्रयोग में अन्वयदृष्टान्त स्वरूप पाँच मैत्रीपुत्रों में जहां जहां मैत्री का पुत्रपना है वहां वहां श्यामता है' यह 15 अन्वयव्याप्ति है और ब्यतिरेक दृष्टान्तस्वरूप गौरवर्ण अमैत्रीपुत्रों में सब जगह 'जहां जहां श्यामता नहीं है वहां वहाँ मैत्री का पुत्रपना नहीं है' यह व्यतिरेकब्याप्ति सम्भव है। अतः गर्भस्थ मैत्रीपुत्ररूप पक्ष में जहां कि साधन निश्चितरूप से है, साध्यभूत श्यामता का सन्देह गौण है और इसलिए यह अनुमान भी सम्यक् हो जावेगा- 20 अर्थात् दृष्टान्त का उपयुक्त लक्षण मानने पर मैत्रीतनयत्वहेतुक श्यामत्वसाध्यक प्रस्तुत अनुमान भी समीचीन अनुमान कहा जावेगा, कारण कि उसके अन्वय दृष्टान्त और ब्यतिरेक दृष्टान्त दोनों ही सम्यक् दृष्टान्तवचनरूप हैं ? समाधान नहीं; प्रकृत दृष्टान्त अन्य विचार से बाधित है। 25 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ न्याय-दीपिका वह इस प्रकार से है-साध्यरूप से माना गया यह श्यामतारूप कार्य अपनी निष्पत्ति के लिए कारण की अपेक्षा करता है। वह कारण मैत्री का पुत्रपना तो हो नहीं सकता, क्योंकि उसके बिना भी दूसरे पुरुषों में, जो मैत्री के पुत्र नहीं हैं, श्यामता देखी जाती है। अतः जिस 5 प्रकार कुम्हार, चाक आदि कारणों के बिना ही उत्पन्न होने वाले वस्त्र के कुम्हार आदिक कारण नहीं है उसी प्रकार मैत्री का पुत्रपना - श्यामता का कारण नहीं है, यह निश्चित है। अतएव जहां जहां मैत्री का पुत्रपना है वहां वहां श्यामता नहीं है, किन्तु जहां जहां श्यामता का कारण विशिष्ट नामकर्म से सहित शाकादि आहाररूप 10 परिणाम है वहां वहां उसका कार्य श्यामता है। इस प्रकार सामग्री रूप विशिष्ट नामकर्म से सहित शाकादि आहार परिणाम श्यामता का ब्याप्य है-कारण है । लेकिन उसका गर्भस्थ मैत्रीपुत्ररूप पक्ष में निश्चय नहीं है, अतः वह सन्दिग्धासिद्ध है । और मैत्री का पुत्रपना तो श्यामता के प्रति कारण ही नहीं है, इसलिए वह 15 श्यामतारूप कार्य का गमक नहीं है। अतः उपर्युक्त अनुमान सम्यक अनुमान नहीं है। 'जो उपाधि रहित सम्बन्ध है वह व्याप्ति है, और जो साधनका अव्यापक तथा साध्य का व्यापक है वह उपाधि है' ऐसा किन्हीं (नैयायिकों) का कहना है। पर वह ठीक नहीं है। क्योंकि ब्याप्ति का 20 उक्त लक्षण मानने पर अन्योन्याश्रय दोष पाता है। तात्पर्य यह कि उपाधि का लक्षण व्याप्तिघटित है और व्याप्ति का लक्षण उपाधिघटित है। अतः व्याप्ति जब सिद्ध हो जावे तब उपाधि सिद्ध हो और जब उपाधि सिद्ध हो जावे तब व्याप्ति सिद्ध हो, इस तरह उपाधि रहित सम्बन्ध को व्याप्ति का लझण मानने में अन्योन्याश्रय नामका ____ 25 दोष प्रसक्त होता है। इस उपाधि का निराकरण कारुण्यकलिका में Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २१७ विस्तार से किया गया है। अतः विराम लेते हैं-उसका पुनः खण्डन यहाँ नहीं किया जाता है। हा उपनय, निगमन और उपनयाभास तथा निगमनाभास के लक्षण साधनवान् रूप से पक्ष की दृष्टान्त के साथ साम्यता का कथन 5 करना उपनय है। जैसे-इसीलिए यह धूम वाला है। साधन को दोहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते हैं। जैसे-धूम वाला होने से यह अग्नि वाला ही है । इन दोनों का अयथाक्रम से-उपनय की जगह निगमन और निगमन की जगह उपनय का-कथन करना उपनयाभास और निगमनाभास हैं। अनुमान प्रमाण 10 समाप्त हुआ। पागम प्रमाण का लक्षणप्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थज्ञान को प्रागम कहते हैं । यहाँ 'पागम' यह लक्ष्य है और शेष उसका लक्षण है। 'अर्थज्ञान को पागम कहते हैं' इतना ही यदि आगम का लक्षण कहा जाय 15 तो प्रत्यक्षादिक में अतिव्याप्ति है, क्योंकि प्रत्यक्षादिक भी अर्थज्ञान हैं। इसलिए 'वचनों से होने वाले' यह पद-विशेषण दिया है। 'वचनों से होने वाले' अर्थज्ञान को प्रागम का लक्षण कहने में भी स्वेच्छापूर्वक ( जिस किसी के ) कहे हुए भ्रमजनक वचनों से होने वाले अथवा सोये हुए पुरुष के और पागल आदि के वाक्यों से 20 होने वाले 'नदी के किनारे फल हैं' इत्यादि ज्ञानों में अतिव्याप्ति है, इसलिए 'प्राप्त' यह विशेषण दिया है। प्राप्त के वचनों से होने वाले ज्ञान को' आगम का लक्षण कहने में भी प्राप्त के वाक्यों को सुनकर जो श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षण की अतिव्याप्ति है, अतः 'अर्थ' यह पद दिया है। 'अर्थ' पद तात्पर्य में रूढ है। 25 Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ न्याय-दीपिका अर्थात्-प्रयोजनार्थक है, क्योंकि 'अर्थ ही–तात्पर्य ही वचनों में है' ऐसा प्राचार्यवचन है। मतलब यह कि यहां 'अर्थ' पद का अर्थ तात्पर्य विवक्षित है, क्योंकि वचनों में तात्पर्य ही होता है। इस तरह प्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थ (तात्पर्य) ज्ञान को जो 5 आगम का लक्षण कहा गया है वह पूर्ण निर्दोष है । जैसे "सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" [त० सू० १-१] 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ( सहभाव ) मोक्ष का मार्ग है' इत्यादि वाक्यार्थज्ञान । सम्यग्दर्शनादिक सम्पूर्ण कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है-न कि 'मार्ग हैं'। ) अतएव भिन्न भिन्न लक्षण वाले सम्यग्दर्शनादि तीनों मिलकर ही मोक्ष का मार्ग हैं, एक एक नहीं, ऐसा अर्थ 'मार्गः' इस एक वचन के प्रयोग के तात्पर्य से सिद्ध होता है। यही उक्त वाक्य का अर्थ है। और इसी अर्थ में प्रमाण से संशयादिक की निवृत्तिरूप प्रमिति होती है। प्राप्त का लक्षण प्राप्त किसे कहते हैं ? जो प्रत्यक्षज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) है और परमहितोपवेशी है वह प्राप्त है। 'समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इत्यादि ही प्राप्त का लक्षण कहने पर श्रुतकेवलियों में अतिव्याप्ति होती है, क्योंकि वे आगम से समस्त पदार्थोंको जानते हैं । इसलिए 'प्रत्यक्षज्ञान से यह विशेषण दिया है। 'प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इतना ही प्राप्त का लक्षण करने पर सिद्धों में अतिव्याप्ति है, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षज्ञान से ही सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता हैं, अतः 'परमहितोपदेशी' यह विशेषण कहा है। परम-हित निश्रेयस-मोक्ष है और उस मोक्ष के उपदेश में ही अरहन्त की मुख्यरूप से प्रवृत्ति होती है, अन्य सिद्धों में अतिझाता हैं, अता है और उस है, अन Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २१६ विषय में तो प्रश्न के अनुसार गौणरूप से होती है। सिद्ध परमेष्ठी ऐसे नहीं हैं-वे निःश्रेयस का न तो मुख्यरूप से उपदेश देते हैं और न गौणरूप से, क्योंकि वे अनुपदेशक हैं। इसलिए ‘परमहितोपदेशी' विशेषण कहने से उनमें अतिव्याप्ति नहीं होती । प्राप्त के सद्भाव में प्रमाण पहले ही ( द्वितीय प्रकाशमें ) प्रस्तुत कर 5 आये हैं। नैयायिक श्रादि के द्वारा माने गये 'प्राप्त' सर्वज्ञ न होने से प्राप्ताभास हैं—सच्चे प्राप्त नहीं हैं । अतः उनका व्यवच्छेद (निराकरण) 'प्रत्यक्षज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता' इस विशेषण से ही हो जाता है। शङ्का-नैयायिकों के द्वारा माना गया प्राप्त क्यों सर्वज्ञ 10 नहीं है ? समाधान-नैयायिकों ने जिसे प्राप्त माना है वह अपने ज्ञान का ज्ञाता नहीं हैं, क्योंकि उनके यहाँ ज्ञान को अस्वसंवेदी-ज्ञानान्तरवेद्य माना गया है। दूसरी बात यह है कि उसके एक ही ज्ञान है उसको जानने वाला ज्ञानान्तर भी नहीं है। अन्यथा उनके अभिमत प्राप्त में 15 दो ज्ञानों के सद्भाव का प्रसङ्ग आयेगा और दो ज्ञान एक साथ हो नहीं सकते, क्योंकि सजातीय दो गुण एक साथ नहीं रहते ऐसा नियम है। अतः जब वह विशेषणभूत अपने ज्ञान को ही नहीं जानता है तो उस ज्ञानविशिष्ट प्रात्मा को ( अपने को ) कि 'मैं सर्वज्ञ हूँ" ऐसा कैसे जान सकता है ? इस प्रकार जब वह अनात्मज्ञ है तब 20 असर्वज्ञ ही है-सर्वज्ञ नहीं है। और सुगतादिक सच्चे प्राप्त नहीं हैं, इसका विस्तृत निरूपण आप्तमीमांसाविवरण–अष्टशती में श्रीप्रकलङ्कदेव ने तथा अष्टसहस्री में श्रीविद्यानन्द स्वामी ने किया है। अत. यहाँ और अधिक विस्तार नहीं किया गया । वाक्य का Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० न्याय-दीपिका लक्षण दूसरे शास्त्रों में प्रसिद्ध है, इस कारण उसका भी यहाँ लक्षण नहीं किया जाता है। अर्थ का लक्षण और उसका विशेष कथन अर्थ किसे कहते हैं ? अनेकान्त को अर्थ कहते हैं। अर्थात् जो 5 अनेकान्त स्वरूप है उसे अर्थ कहते हैं। यहाँ 'अर्थ' यह लक्ष्य का निर्देश है, उसी को अभिधेय अर्थात् कहा जाने वाला भी कहते हैं। 'अनेकान्त' यह लक्षण का कथन है। जिसके अथवा जिसमें अनेक अन्त अर्थात् धर्म-सामान्य, विशेष, पर्याय और गुण पाये जाते हैं उसे अनेकान्त कहते हैं। तात्पर्य यह कि सामान्यादि अनेक धर्म वाले 10 पदार्थ को अनेकान्त कहते हैं। 'घट घट' 'गौ गौ' इस प्रकार के अनुगत व्यवहार के विषयभूत सदृश परिणामात्मक 'घटत्व' 'गोत्व' आदि अनुगत स्वरूप को सामान्य कहते हैं। वह 'घटत्व' स्थूल कम्बुग्रीवादि स्वरूप तथा 'गोत्व' सास्ना आदि स्वरूप ही है। अतएव घटत्वादि सामान्य घटादि व्यक्तियों से न सर्वथा भिन्न है, न नित्य है 15 और न एक तथा अनेकों में रहने वाला है। यदि वैसा माना जाय तो अनेकों दूषण आते हैं, जिन्हें दिग्नाग ने निम्न कारिका के द्वारा प्रदर्शित किया है : १ परस्पर में अपेक्षा रखने वाले पदों के निरपेक्ष समूह को वाक्य कहते हैं । जैसे—'गाय को लागो' यहाँ 'गाय को' और 'लामो' ये दोनों पद एक-दूसरे की अपेक्षा रखते हैं तभी वे बिवक्षित अर्थ का बोध कराने में समर्थ हैं तथा इस अर्थ के बोध में अन्य वाक्यान्तर की अपेक्षा नहीं होती इसलिए उक्त दोनों पदों का समूह निरपेक्ष भी है । २ प्रमेयकमलमार्तण्डादिक में । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २२१ न याति न च तत्रास्ते न पश्चादस्ति नांशवत् । जहाति पूर्वं नाधारमहो व्यसनसन्ततिः ।। अर्थात्-वह गोत्वादि सामान्य शावलेयादि व्यक्तियों से यदि सर्वथा भिन्न, नित्य, एक और अनेकवृत्ति है तो जब एक गौ उत्पन्न हुई तब उसमें गोत्व कहाँ से आता है ? अन्यत्र से आ नहीं सकता, 5 क्योंकि उसे निष्क्रिय माना है। उत्पन्न होने के पहले गोत्व वहाँ रहता नहीं, क्योंकि गोत्व सामान्य गौ में ही रहता है। अन्यथा, देश भी गोत्व के सम्बन्ध से गौ हो जायेगा। गोपिण्ड के साथ उत्पन्न भी नहीं हो सकता, क्योंकि उसे नित्य माना है, अन्यथा उसके अनित्यता का प्रसङ्ग पायगा । अंशवान् है नहीं, क्योंकि उसे निरंश स्वीकार किया 10 है। नहीं तो सांशत्व का प्रसङ्ग आवेगा । यदि वह पूर्व पिण्ड को छोड़ कर नूतन गौ में आता है तो यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि पूर्व पिण्ड का त्याग नहीं माना है । अन्यथा पूर्व गोपिण्डगौ, अगौ-गोत्वशून्य हो जायगा, फिर उसमें 'गौ' व्ववहार नहीं हो सकेगा। इस तरह गोत्वादि सामान्य को व्यक्ति से सर्वथा भिन्न, नित्य 15 और एक मानने में अनेक विध दूषण प्रसक्त होते हैं। अतः स्थूल और कम्बुग्रीवा आदि आकार के तथा सास्ना आदि के देखने के बाद ही यह 'घट है' 'यह गौ है' इत्यादि अनुगत प्रत्यय होने से सदृश परिणामरूप ही घटत्व-गोत्वादि सामान्य है और वह कथञ्चित् भिन्नअभिन्न, नित्य-अनित्य और एक-अनेक रूप है। इस प्रकार के 20 १ 'नायाति' पाठान्तरम् । २ कारिका का शब्दार्थ यह है कि 'गोत्वादि सामान्य दूसरी गौ में अन्यत्रसे जाता नहीं, न वहाँ रहता है, न पीछे पैदा होता है, न अंशोंवाला है, और न पहलेके अपने आश्रयको छोड़ता है फिर भी उसकी स्थिति हैवह सम्बद्ध हो जाता है; यह कैसी व्यसनसन्तति-कदाग्रहपरम्परा है ।' Page #362 -------------------------------------------------------------------------- Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ न्याय - दीपिका सामान्य के मानने में उपर्युक्त कोई भी दूषण नहीं श्राता है। विशेष भी सामान्य की ही तरह 'यह स्थूल घट है' 'यह छोटा है' इत्यादि व्यावृत्त प्रतीति का विषयभूत घटादि व्यक्तिस्वरूप ही है । इसी बात को भगवान् माणिक्यनन्दि भट्टारक ने भी कहा है कि - "वह अर्थ 5 सामान्य और विशेषरूप है ।" उसके दो भेद हैं- १ श्रर्थभविष्य के उल्लेख परिणमन को पर्याय कहते हैं। पर्याय और २ व्यञ्जनपर्याय । उनमें भूत और रहित केवल वर्तमानकालीन वस्तुस्वरूप को अर्थ पर्याय कहते हैं अर्थात् वस्तुत्रों में प्रतिक्षण होने वाली पर्यायों को अर्थपर्याय कहते हैं । 10 आचार्यों ने इसे ऋजुसूत्र नय का विषय माना है । इसी के एक देश को मानने वाले क्षणिकवादी बौद्ध हैं । व्यक्ति का नाम ब्यञ्जन है, और जो प्रवृत्ति - निवृत्ति में कारणभूत जल के ले श्राने श्रादिरूप अर्थक्रियाकारिता है वह व्यक्ति है, उस व्यक्ति से युक्त पर्याय को व्यंजनपर्याय कहते हैं । अर्थात् जो पदार्थों में प्रवृत्ति और 15 जलानयन श्रादि अर्थक्रिया करने में समर्थ पर्याय है कहते हैं । जैसे- मिट्टी आदि का पिण्ड, स्थास कोश, कपाल आदि पर्याय हैं । निवृत्ति जनक उसे व्यंजन पर्याय कुशूल, घट और जो सम्पूर्ण द्रव्य में व्याप्त होकर रहते हैं और समस्त पर्यायों के साथ रहने वाले हैं उन्हें गुण कहते हैं । और वे वस्तुत्व, रूप, 20 गन्ध और स्पर्श आदि हैं । अर्थात् वे गुण दो प्रकारके हैं- १ सामान्यगुण और २ विशेषगुण । जो सभी द्रव्यों में रहते हैं वे सामान्य गुण हैं और वे वस्तुत्व, प्रमेयत्व श्रादि हैं। तथा जो उसी एक द्रव्य में रहते हैं वे विशेषगुण कहलाते हैं । जैसे - रूप- रसादिक । मिट्टी के साथ सदैव रहने वाले वस्तुत्व व रूपादि तो पिण्डादि पर्यायों के साथ भी 25 रहते हैं, किन्तु पिण्डादि स्थासादिक के साथ नहीं रहते हैं । इसी Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २२३ लिये पर्यायों का गुणों से भेद है। अर्थात् पर्याय और गुण में यही भेद है कि पर्यायें क्रमवर्ती होती हैं और गुण सहभावी होते हैं तथा वे द्रव्य और पर्याय के साथ सदैव रहते हैं। यद्यपि सामान्य और विशेष भी पर्याय हैं और पर्यायों के कथन से उनका भी कथन हो जाता है-उनका पृथक् कथन करने की आवश्यकता 5 नहीं है, तथापि सङ्केतज्ञान में कारण होने और जुदा जुदा शब्दव्यवहार होने से इस प्रागम प्रस्ताव में (पागम प्रमाण के निरूपण में) सामान्य और विशेष का पर्यायों से पृथक् निर्देश किया है। इन सामान्य और विशेषरूप गुण तथा पर्यायों का प्राश्रय द्रव्य है। क्योंकि “जो गुण और पर्याय वाला है वह द्रव्य हैं" ऐसा 10 प्राचार्य महाराज का आदेश (उपदेश) है। वह द्रव्य भी 'सत्त्व' अर्थात् सत् ही है। क्योंकि "जो सत्त्व है वह द्रव्य है" ऐसा अकलङ्कदेव का वचन है। द्रव्य भी संक्षेप में दो प्रकारका हैजीव द्रव्य और अजीव द्रब्य । और ये दोनों ही द्रव्य उत्पत्ति, विनाश तथा स्थितिवान् हैं, क्योंकि "जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य 15 से सहित है वह सत् है" ऐसा निरूपण किया गया है। इसका खुलासा इस प्रकार है :-जीव द्रव्य के स्वर्ग प्राप्त कराने वाले पुण्य कर्म ( देवगति, देवायु आदि ) का उदय होने पर मनुष्य स्वभाव का विनाश होता है, दिव्य स्वभाव का उत्पाद होता है और चैतन्य स्वभाव स्थिर रहता है। जीव द्रव्य यदि मनुष्यादि पर्यायों 20 से सर्वथा एकरूप ( अभिन्न ) हो तो पुण्य कर्म के उदय का कोई फल नहीं हो सकेगा; क्योंकि वह सदैव एकसा ही बना रहेगामनुष्य स्वभाव का विनाश और देव पर्याय का उत्पाद ये भिन्न परिणमन उसमें नहीं हो सकेंगे। और यदि सर्वथा भिन्न हो तो पुण्यवान्—पुण्यकर्ता दूसरा होगा और फलवान्–फलभोक्ता दूसरा, 25 इस तरह पुण्य कर्म का उपार्जन करना भी ब्यर्थ हो जायगा। परोप Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .२४ न्याय-दीपिका गर में भी जो प्रवृत्ति होती है वह अपने पुण्य के लिए ही होती है। स कारण जीव द्रव्य की अपेक्षा से अभेद है और मनुष्य तथा देव र्याय की अपेक्षा से भेद है, इस प्रकार भिन्न भिन्न नयों की दृष्टि से द और अभेद के मानने में कोई विरोध नहीं है, दोनों प्रामाणिक —प्रमाणयुक्त हैं। . ....: इसी तरह मिट्टीरूप अजीव द्रब्य के भी मिट्टी के पिण्डाकार का बनाश, कम्बुग्ग्रीवा आदि आकार की उत्पत्ति और मिट्टीरूप की स्थति होती है। अतः यह सिद्ध हुआ कि अजीव द्रव्य में भी रत्पत्ति, विनाश और स्थिति ये तीनों होते हैं। स्वामी समन्तभद्र के मत का अनुसरण करने वाले वामन ने भी कहा है कि समीचीन पदेश से पहले के अज्ञान स्वभाव को नाश करने और आगे के त्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में जो समर्थ प्रात्मा है वही शास्त्र का अधिकारी है। जैसा कि उसके इस वाक्य से प्रकट है :'न शास्त्रमसद्रव्येष्वर्थवत्' अर्थात्-शास्त्र असद् द्रव्यों में जो तीव अज्ञान स्वभाव के दूर करने और तत्त्वज्ञान स्वभाव के प्राप्त करने में समर्थ नहीं है उसमें). प्रयोजनवान् नहीं है-कार्यकारी नहीं है। इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वस्तु प्रमाणवाक्य का विषय है और इसलिए वह अर्थ सिद्ध होती है। अतएव इस प्रकार अनुमान करना त्राहिए कि समस्त पदार्थ अनेकान्त स्वरूप हैं, क्योंकि वे सत् हैं, तो अनेकान्तस्वरूप नहीं है वह सत् भी नहीं है, जैसे- प्रकाश का कमल। शङ्का-यद्यपि कमल आकाश में नहीं है तथापि तालाब में है। प्रतः उससे (कमल से) 'सत्त्व' हेतु की व्यावृत्ति नहीं हो सकती है ? समाधान- यदि ऐसा कहो तो यह कमल अधिकरण विशेषकी अपेक्षा से सत् और असत् दोनों रूप होने से अनेकान्तस्वरूप 4भभ भos 424 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २२५ सिद्ध हो गया और उसे श्रन्वयदृष्टान्त श्रापने ही स्वीकार कर लिया । इससे ही आपको सन्तोष कर लेना चाहिए। तात्पर्य यह कि इस कहने से भी वस्तु श्रनेकान्तात्मक प्रसिद्ध हो जाती है । पहले जिस 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग : ' वाक्व का उदाहरण दिया गया है उस वाक्य के द्वारा भी 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान 5 और सम्यक्चारित्र इन तीनों में मोक्षकारणता ही है, संसारकारणता नहीं' इस प्रकार विषयविभागपूर्वक ( अपेक्षाभेदसे ) कारणता और प्रकारणता का प्रतिपादन करने से वस्तु अनेकान्त स्वरूप कही जाती है । यद्यपि उक्त वाक्य में अवधारण करने वाला कोई एवकार जैसा शब्द नहीं है तथापि "सर्वं वाक्यं सावधारणम्" अर्थात् 10 - सभी वाक्य अवधारण सहित होते हैं इस न्याय से उपर्युक्त वाक्य के द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि में मोक्षकारणता का विधान और संसारकारणता का निषेध स्पष्ट सिद्ध हो जाता है। इस प्रकार प्रमाण - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम-से यह सिद्ध हुआ कि वस्तु अनेकान्तस्वरूप है । 15 नयका लक्षण, उसके भेद और सप्तभङ्गी का प्रतिपादन - प्रमाण का विस्तार से वर्णन करके अब नयों का विश्लेषणपूर्वक कथन किया जाता है। नय किसे कहते हैं ? प्रमाण से जाने हुये पदार्थ के एक देश (अंश) को ग्रहण करने वाले ज्ञाता के श्रभिप्रायविशेष को नय कहते हैं। क्योंकि "ज्ञाता का अभिप्राय नय 20 है" ऐसा कहा गया है। उस नय के संक्षेप में दो भेद हैं- १ द्रव्यार्थिक और २ पर्यायार्थिक । उनमें द्रव्यार्थिक नय प्रमाण के विषयभूत द्रव्य - पर्यायात्मक, एकानेकात्मक अनेकान्तरूप अर्थ का विभाग करके पर्यायार्थिक नय के विषयभूत भेद को गौण करता हुआ उसकी स्थिति मात्र को स्वीकार कर अपने विषय द्रव्य को भेद- 25 Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२६ न्याय-दीपिका रूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसीलिए "दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सत् नय—सम्यक् नय अथवा सामान्य नय" कहा है । जैसे—यह कहना कि 'सोना लाओं'। यहाँ द्रव्याथिकनय के अभिप्राय से 'सोना 5 लाओ' के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनेरूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है। पर जब पर्यायाथिकनय की विवक्षा होती है तब द्रव्याथिक नय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायाथिक नय की अपेक्षा से 'कुण्डल लाओ' यह कहने पर लाने वाला कड़ा 10 प्रादि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा प्रादि पर्याय से कुण्डल पर्याय भिन्न है। अतः द्रव्याथिक नय के अभिप्राय (विवक्षा) से सोना कथञ्चित् एकरूप ही है, पर्यायाथिक नय के अभिप्राय से कथञ्चित् अनेकरूप ही है, और क्रम से दोनों नयों के अभिप्राय से कथञ्चित् एक और अनेकरूप है। एक साथ दोनों नयों के अभिप्राय से कर्थचित् अवक्तव्यस्वरूप है। क्योंकि एक साथ प्राप्त हुये दो नयों से विभिन्न स्वरूप वाले एकत्व और अनेकत्व का विचार अथवा कथन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कि एक साथ प्राप्त हुये दो शब्दों के द्वारा घट के प्रधानभूत भिन्न स्वरूप वाले रूप और रस इन दो धर्मों का प्रतिपादन नहीं हो सकता है। अतः एक साथ प्राप्त द्रब्यार्थिक 20 और पर्यायाथिक दोनों नयों के अभिप्राय से सोना कथंचित् अवक्तव्य स्वरूप है। इस अवक्तव्यस्वरूप को द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक इन तीन नयों के अभिप्राय से क्रमशः प्राप्त हुए एकत्वादि के साथ मिला देने पर सोना कथंचित् एक और अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक और प्रवक्तव्य है तथा कथंचित् एक, 25 अनेक और प्रवक्तव्य है, इस तरह तीन नयाभिप्राय और हो जाते Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २२७ हैं, जिनके द्वारा भी सोने का निरूपण किया जाता है। नयों के कथन करने की इस शैली (व्यवस्था) को ही सप्तभङ्गी कहते हैं । यहाँ 'भङ्ग' शब्द वस्तु के स्वरूपविशेष का प्रतिपादक है। इससे यह सिद्ध हुआ कि प्रत्येक वस्तु में नियत सात स्वरूप-विशेषों का प्रतिपादन करने वाला शब्द-समूह सप्तभङ्गी है। 5 शङ्का-एक वस्तु में सात भङ्गों ( स्वरूप अथवा धर्मों ) का सम्भव कैसे है ? समाधान-जिस प्रकार एक ही घटादि में घट रूप वाला है, रस वाला है, गन्ध वाला है और स्पर्श वाला है, इन जुदे-जुदे व्यवहारों के कारणभूत रूपवत्त्व (रूप) आदि स्वरूपभेद सम्भव हैं उसी 10 प्रकार प्रत्येक वस्तु में होने वाले एक, अनेक, एकानेक, प्रवक्तव्य आदि व्यवहारों के कारणभूत एकत्व, अनेकत्व आदि सात स्वरूपभेद - भी सम्भव हैं। इसी प्रकार परम द्रव्यार्थिक नयके अभिप्राय का विषय परमद्रव्यसत्ता–महासामान्य है। उसकी अपेक्षा से "एक ही अद्वितीय 15 ब्रह्म है, यहाँ नाना-अनेक कुछ भी नहीं है" इस प्रकार का प्रतिपादन किया जाता है। क्योंकि सद्रूप से चेतन और अचेतन पदार्थों में भेद नहीं है। यदि भेद माना जाय तो सद् से भिन्न होने के कारण वे सब असत् हो जाएँगे। ऋजुसूत्रनय परमपर्यायार्थिक नय है। वह भूत और भविष्य के 20 स्पर्श से रहित शुद्ध- केवल वर्तमानकालीन वस्तुस्वरूप को विषय करता है। इस नय के अभिप्राय से ही बौद्धों के क्षणिकवाद की सिद्धि होती है। ये सब नयाभिप्राय सम्पूर्ण अपने विषयभूत अशेषात्मक अनेकान्त को, जो प्रमाण का विषय है, विभक्त करके लोकव्यवहार को कराते हैं कि वस्तु द्रव्यरूप से सत्तासामान्य की अपेक्षा से 25 Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ न्याय-दीपिका कथंचित् एक ही है, अनेक नहीं है। तथा पर्यायरूप से—अवान्तरसत्तासामान्यरूप विशेषों की अपेक्षा से वस्तु कथंचित् नाना (अनेक) ही है, एक नहीं है । तात्पर्य यह है कि तत्तत् नयाभिप्राय से ब्रह्म वाद ( सत्तावाद ) और क्षणिकवाद का प्रतिपादन भी ठीक है। यही 5 प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी निरूपण किया है कि "हे जिन ! आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय से अनेकान्तरूप सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और अर्पित नयको अपेक्षा एकान्तरूप है। अनियत अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण 10 है और नियत एक धर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय है। यदि इस जैन-सरणि-जैनमत की नय-विवक्षा को न मानकर सर्वथा एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, अनेक कोई नहीं है, कथञ्चित्किसी एक अपेक्षा से भी अनेक नहीं है, यह आग्रह किया जाय सर्वथा एकान्त माना जाय तो यह अर्थाभास है-मिथ्या अर्थ है 15 और इस अर्थ का कथन करने वाला वचन भी अागमाभास है, क्यों कि वह प्रत्यक्ष से और 'सत्य भिन्न है तत्त्व भिन्न' है इस पागम से बाधितविषय है। इसी प्रकार 'सर्वथा भेद ही है, कथञ्चित् भी अभेद नहीं है' ऐसा कथन भी वैसा ही समझना चाहिए। अर्थात् सर्वथा भेद ( अनेक ) का मानना भी अर्थाभास है और उसका 20 प्रतिपादक वचन भी भागमाभास है। क्योंकि सद्रूप से भी भेद मानने पर असत् का प्रसङ्ग पायेगा और उसमें अर्थक्रिया नहीं बन, सकती है। शङ्का-एक एक अभिप्राय के विषयरूप से भिन्न भिन्न सिद्ध होने वाले और परस्पर में साहचर्य की अपेक्षा न रखने पर मिथ्या 25 भूत हुये एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मों का साहचर्यरूप समूह, भी सहा Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा प्रकाश २२६ तो कि अनेकान्त है, मिथ्या ही है। तात्पर्य यह कि परस्पर नरपेक्ष एकत्वादिक एकान्त जब मिथ्या हैं तब उनका समूहरूप प्रनेकान्त भी मिथ्या ही कहलायेगा, वह सम्यक् कैसे हो सकता ___समाधान-वह हमें इष्ट है। जिस प्रकार परस्पर के उपकार्य- 5 उपकारकभाव के बिना स्वतन्त्र होने से और एक दूसरे की अपेक्षा । करने पर वस्त्ररूप अवस्था से रहित तन्तुओं का समूह शीतनिवाण ( ठण्ड को दूर करना ) आदि कार्य नहीं कर सकता है उसी कार एक दूसरे की अपेक्षा न करने पर एकत्वादिक धर्म भी यथार्थ पान कराने आदि अर्थक्रिया में समर्थ नहीं हैं, इसलिए उन पर- 10 पर निरपेक्ष एकत्वादि धर्मों में कथंचित् मिथ्यायन भी सम्भव । प्राप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि मिथ्याभूत एकान्तों का समूह यदि मिथ्या है तो वह मिथ्या एकातता-परस्पर निरपेक्षता हमारे ( स्याद्वादियों के ) यहाँ नहीं है। योंकि जो नय निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं—सम्यक् नहीं हैं और 15 तो सापेक्ष हैं-एक दूसरे की अपेक्षा सहित हैं वे वस्तु हैं-सम्यक् य हैं और वे ही अर्थक्रियाकारी हैं ।' तात्पर्य यह हुआ कि नरपेक्ष नयों के समूह को मिथ्या मानना तो हमें भी इष्ट है, पर पाद्वादियों ने निरपेक्ष नयों के समूह को अनेकान्त नहीं माना किन्तु पेिक्ष नयों के समूह को अनेकान्त माना है; क्योंकि वस्तु प्रत्यक्षादि 20 माणों से अनेक धर्मात्मक ही प्रतीत होती है, एक धर्मात्मक अतः यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ कि 'नय और प्रमाण से वस्तुसिद्धि होती है-पदार्थों का यथावत् निर्णय होता है।' इस कार आगम प्रमाण समाप्त हुआ। Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ; न्याय - दीपिका ग्रन्थकार का अन्तिम निवेदन मेरे कृपालु गुरुवर्य श्रीमान् वर्द्धमान भट्टारक के श्रीचरणों के प्रसाद से यह न्याय दीपिका पूर्ण हुई । २३० इस प्रकार श्रीमान् श्राचार्य वर्द्धमान भट्टारक गुरुकी कृपासे सरस्वती के प्रकर्ष को प्राप्त श्रीअभिनव धर्मभूषणाचार्य विरचित न्यायदीपिका में परोक्षप्रमाण का प्रकाश करने वाला तीसरा प्रकाश पूर्ण हुआ । न्यायदीपिका समाप्त हुई । 波 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट -०::०१. न्यायदोपिका में आये हुए अवतरण-वाक्यों की सूचीअवतरण-वाक्य पृष्ठ अवतरण-वाक्य पृष्ठ अक्षं नाम चक्षुरादिक- ३७ गुणपर्ययवद्रव्यम् १२२ अक्षेभ्यः परावृत्तं परोक्षम् ३६ ज्ञानोत्पादकहेत्वनतिरिक्त- १५ अदृष्टादयः कस्यचित्- ४४ तत्रात्मभूतमग्नेरौष्ण्यअनधिगततथाभूतार्थ- १८ तन्मे प्रमाणं शिवः अनुभूतिः प्रमाणम् १६ तात्पर्य मेव वचसि ११२ अनेकार्थनिश्चता ३१ त्वन्मतामृतबाह्यानां अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः १२८ दृष्टोऽपि समारोपात्तादृक् १४ अन्यथानुपपत्त्येक ६६ द्विविधं सम्यग्ज्ञानम् अन्यथानुपपत्त्येक- ७१ न याति न च तत्रास्ते अन्यथानुपपन्नत्वं ६४ नयान्तरविषयसापेक्षः १२६ अन्यथानुपपन्नत्वं ६५ नयो ज्ञातुरभिप्रायः १२५ अविसंवादिज्ञानं प्रमाणम् १८ न शास्त्रमसद्रव्येषु १२४ असिद्धादिदोषपञ्चक- ६० नार्थालोको कारणम् अ.द्ये परोक्षम् २४, ३८ निर्मलप्रतिभासत्वमेव २४ इदमेव हि प्रमाणस्य ११ निराकारं दर्शनं साकारं ज्ञानम् १४ इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तं ३४ निरुपाधिकः सम्बन्धो व्याप्तिः११० उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् १२२ परस्परव्यतिकरे सति एतद्वयमेवानुमानाङ्गम् ८० परोपदेशसापेक्षं करणाधारे चानट ११ परोपदेशाभावेऽपि कल्पनापोढमभ्रान्तं प्रत्यक्षम् २५ प्रपिज्ञाहेतूदाहरणो Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका FO अवतरण-वाक्य पृष्ठ अवतरण-वाक्य प्रत्यक्षमन्यत् ३८ सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रणि प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः २४ सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य प्रमाकरणं प्रमाणम् २० संशयो हि निर्णयविरोधी प्रमाणनयैरधिगमः ४ साधकतमं करणम् प्रमाणादिष्टसंसिद्धि- १७ साधनात्साध्यविज्ञानप्रयोगपरिपाटी तु ८२ साधनाव्यापकत्वे सति प्रसिद्धो धर्मी ७३ साधनाश्रययोरन्यतरत्वे भावैकान्ते ५० साध्यसन्देहापनोदार्थ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न १३० साध्यसाधनसम्बन्धायदा भावसाधनं १६ साध्यं शक्यमभिप्रेतलिङ्गपरामर्शोऽनुमानम् ६६ साध्याविनाभावित्वेन विकल्पसिद्धे तस्मिन् ७४ सामान्यविशेषात्मा तदर्थः ५२,१२० विस्मरणसंशय ५४ सूक्ष्मान्तरितदूरार्था स त्वमेवाऽसि निर्दोषो ४७ स्यात्कारः सत्यलाञ्छन: सत्यं भिदा तत्त्वं भिदा १२६ स्वावरणक्षयोपशमसत्त्वं द्रव्यम् १२२ हेतुलक्षणरहिताः २. न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थों की सूचीग्रंथनाम पृष्ठ ग्रंधनाम आप्त-मीमांसा ४१,५०,१३० तत्त्वार्थश्लोकवात्तिकभाष्य प्राप्तमीमांसाविवरण ११५ तत्त्वार्थसूत्र कारुण्यकलिका १११ न्यायबिन्दु जैनेद्र १३ न्यायविनिश्चय २४, ७० तत्त्वार्थराजवात्तिकभाष्य ३५ पत्र-परीक्षा तत्त्वार्थश्लोकवात्तिक ६७ परोक्षा-मुख २६,३३६६ ८१ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट ग्रंथनाम पृष्ठ ग्रंथनाम प्रमाण-निर्णय ११ महाभाष्य प्रमाण-परीक्षा राजवात्तिक प्रमेय-कमल-मार्तण्ड ३०,५४ भाष्य (तत्त्वार्थराजवात्तिक श्लोकवात्तिक भाष्य) ६,३२ श्लोकवात्तिकभाष्य GK a OMe ३. न्यायदीपिका में उल्लिखित ग्रन्थकारों की सूची ग्रन्थकारनाम अकलङ्क अकलङ्कदेव उदयन कुमारनन्दिभट्टारक दिग्नाग माणिक्यनन्दिभट्टारक वात्तिककारपाद वामन पृष्ठ ग्रंथकारनाम १२२ शालिकानाथ श्रीमदाचार्यपाद समन्तभद्रस्वामि १२८ ६६, ८२ स्याद्वादविद्यापति २४,७० १२० स्वामी ४१,४७ ६ स्वामिसमन्तभद्राचार्य ८०,१२४, १२४ १३० ४ न्यायदोपिका में आये हुये न्यायवाक्य Y न्यायवाक्य पृष्ठ न्यायवाक्य 'उद्देशानुसारेण लक्षणकथनम्' ८ 'सहस्रशतन्याय' 'सर्वं वाक्यं सावधारणम्' १२५ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३४ न्याय-दीपिका ५ न्यायदोपिकागत विशेष नामों तथा शब्दों की सूचीनाम शब्द पृष्ठ नाम शब्द भियुक्त ७३,११३ प्रामाणिक हित् ४०, ४१, ४४ ४५, ४६ प्रामाणिकपद्धति ५०, १०२ बालिश हित्परमेष्ठी ४५ बाह्य गम ४६,११२,११२,१२६,१३१ बुध |गमाभास १२६ बौद्ध १८, ६५, ८४, चार्य ६२, ६४,१२८ चार्यानुशासन १२२ भाट्ट प्ति ४६, ११२, ११३ महाशास्त्र हत २२,८३ मीमांसक हितमत दीच्य ३२ यौग १७, ३१, ६२, ६५ ४०, ४६ यौगाग्रसर न्त्रान्तर ११५ राम थागत २५, ८३ वर्द्धमान १, १३२ क्षिणात्य ३२ शास्त्र यायिक २०, ६६, ७७, ७६, श्रुतकेवलि ८४, ८८, ११४ सिद्ध, सिद्धपरमेष्ठी यायिकमत ६० सिद्धान्त रमहितोपदेशक ११३ सुगत ११५ वचन १४ सौगत १८, २९, ३१ भाकर १६ संग्रहग्रन्थ पिल Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २३५ ६. न्यायदोपिका-गत दार्शनिक एवं लाक्षणिक शब्दों की सूची शब्द नाम अकिञ्चित्कर अतिव्याप्त अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष अनध्यवसाय ६२, १०४ अनभ्यस्त अनात्मभूत अनिन्द्रिय अनिन्द्रियप्रत्यक्ष अनुभव अनुमान अनेकान्त अनेकान्तात्मकत्व अनैकान्तिक अन्तरित अन्यथानुपपत्ति अन्वयदृष्टान्त अन्वयव्यतिरेकी अबाधितविषयत्व अप्रसिद्ध अभिप्रेत अभ्यस्त अमुख्य प्रत्यक्ष अर्थ पृष्ठ शब्द नाम १०२ अर्थपर्याय ७ अलक्ष्य ४० अवग्रह ह अवाय १६ अवधिज्ञान ६ अविनाभाव ३३ अविशदप्रतिभासत्व ३३ अवैशद्य ५७ अव्याप्त ६५ असत्प्रतिपक्षत्व ११७ असम्भवि १८ असिद्ध ८६,१०१ आगम ४१ अात्मभूत ६६ प्राप्त ७८ इन्द्रिय इन्द्रियप्रत्यक्ष ८५ ईहा ६६ उदाहरण ६६ उदाहरणाभास १६ उद्देश ३४ उपनय ११६ उपनयाभास ११३ ७८, १११ ११२ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका 10 ब्द नाम यसिद्धधर्मी ७२, ८३ mm m गुसूत्रनय त्वप्रत्यभिज्ञान १२६ १२८ लात्ययापदिष्ट लज्ञान लव्यतिरेकी लान्वयी भावनियम ४५६ . पृष्ठ शब्द नाम ७४ न्याय ६३ पक्ष १२८ पक्षधर्मत्व ५६ पर्यायार्थिक १३ परतः ८७. परमपर्यायाथिक ३६ परार्थानुमान ६० परीक्षा ८६ परोक्ष ६२ पारमार्थिक १२१ प्रकरणसम ६२ प्रतिज्ञा ४१ प्रत्यक्ष १२२ प्रत्यभिज्ञान १२५ प्रमाण १०४ प्रमाणसिद्धधर्मी ७३ प्रमिति ३२ प्रामाण्य १३ मनःपर्यज्ञान १२५ मुख्यप्रत्यक्ष ८६, १११ युक्ति ११२ योग्यता ४५ लक्ष्य १४, २५ वस्तु २४ लक्षण सार्थ य याथिक टान्त रणा रावाहिक प गमन गमनाभास र्दोिषत्व विकल्पक मल्य Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २३७ २६, ३० ० ० m ० ० ० ० mm mr शब्द नाम पृष्ट शब्द नाम वाद ८० सन्दिग्धासिद्ध विकल ३४ सन्निकर्ष विकल्पसिद्धधर्मी ७३ सपक्ष विपक्ष ८३ सपक्षसत्त्व विजिगीषुकथा ७६ सप्तभङ्गी विपक्षव्यावृत्ति ८३ समारोप विपर्यय ६ सविकल्पक विरुद्ध ८ , १०१ सहभावनियम विशदप्रतिभासत्व २४ संशय विशेष १२० सादृश्यप्रत्यभिज्ञान वीतरागकथा ७६ साधन वैशद्य २४ साध्य वैसादृश्यप्रत्यभिज्ञान ५३ साध्याभास व्यञ्जनपर्याय १२० सांव्यवहारिक व्यतिरेकदृष्टान्त ७८ सूक्ष्मार्थ व्यतिरेकव्याप्ति ७८ सामान्य ब्यापक १०६ स्पष्टत्व व्याप्ति ६२, ६३, १०४ स्मृति व्याप्तिसम्प्रतिपत्ति १०४ स्वतः व्याप्य १०६ स्वरूपासिद्ध शक्य ६६ स्वार्थानुमान सकलप्रत्यक्ष सत् १२२ हेत्वाभास r. x Yur MP० m " " ७६, ७८,६० Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ न्याय-दीपिका ७. 'असाधारणधर्मवचनं लक्षरणम्' ननु असाधारणधर्मवचनं लक्षणं कथं न समीचीनमिति चेत्, च्यते; तदेव हि सम्यक् लक्षणं यदव्याप्त्यादिदोषत्रयशून्यम् । न चात्र क्षणेऽव्याप्त्यादिदोषत्र याभावः। तथा हि-अशेषैरपि वादिभिर्दण्डी, ण्डली, वासस्वी देवदत्त इत्यादौ दण्डादिकं देवदत्तस्य लक्षणमुररीक्रियते । रं दण्डादेरसाधारणधर्मत्वं नास्ति, तस्य पृथग्भूतत्वेनापृथग्भूतत्वासम्भत् । अपृथग्भूतस्य चासाधारणधर्मत्वमिति तवाभिप्रायः । तथा च लक्ष्यदेशेऽनात्मभूतलक्षणे दण्डादौ असाधारणधर्मत्वस्याभावादव्याप्तिरित्येव त्पर्यमाश्रित्योक्तं ग्रन्थकृता "दण्डादेरतद्धर्मस्यापि लक्षणत्वादिति” । किञ्चाव्याप्ताभिधानस्य लक्षणाभासस्यापि शावलेयत्वादेरसाधारणत्विादतिव्याप्तिः । गो: शावलेयत्वम्, जीवस्य भव्यत्वं, मतिज्ञानित्वं वा न गदीनां लक्षणमिति सुप्रतीतम्, शावलेयत्वस्य सर्वत्र गोष्ववृत्तेः । भव्यस्य मतिज्ञानित्वस्य वा सर्वजीवेष्ववर्तमानत्वादव्याप्तेः । परन्तु शावले. वस्यं भव्यत्वादेर्वाऽसाधारणधर्मत्वमस्ति । यतो हि तेषां गवादिभ्यो न्नेष्ववृत्तित्वात् । तदितरावृत्तित्वं ह्यसाधारणत्वमिति । ततः शावलेवादावव्याप्ताभिधाने लक्षणाभासे असाधारणधर्मस्यातिव्याप्तिरिति व्यम्। अपि च लक्ष्यमिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरण्याभावङ्गात् । तथा हि-सामानाधिकरण्यं द्विविधम् - शाब्दमार्थं च । यथोरेकत्र वृत्तिस्तयोरार्थं सामानाधिकरण्यम्, यथा रूप-रसयोः । ययोर्द्वयोः योश्चैक: प्रतिपाद्योऽर्थस्तयोः शाब्दसामानाधिकरण्यम्, यथा घट. शशब्दयोः । सर्वत्र हि लक्ष्य-लक्षणभावस्थले लक्ष्यवचनलक्षणवच: शाब्दसामानाधिकरण्यं भवति, ताभ्यां प्रतिपाद्यस्यार्थस्यैकत्वात् । यथा गोऽग्निः, ज्ञानी जीवः, सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्, इत्यादौ उष्णः, ज्ञानी, ‘रज्ञानम्, एतानि लक्षणवचनानि । अग्निः, जीवः, प्रमाणम्, एतानि नक्ष्यचनानि । अत्र लक्षणवचनप्रतिपाद्यो योऽर्थः स एव लक्ष्यवचन Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २३६ प्रतिपाद्यो न भिन्नोऽर्थस्तत्प्रतिपाद्यः । एवं लक्ष्यवचनप्रतिपाद्यो योऽर्थः स एव लक्षणवचनप्रतिपाद्यो न भिन्नः, यतो हि उष्ण इत्युक्ते अग्निरित्युक्त भवति, अग्निरित्युक्ते उष्ण इत्युक्तं भवति, इत्यादि बोध्यम् । ततश्चेदं सिद्धं यत्र कुत्रापि लक्ष्यलक्षणभावः क्रियेत तत्र सर्वत्रापि लक्षणवचनलक्ष्यवचनयोः शाब्दसामानाधिकरण्यम् । इत्थं च प्रकृते असाधारणधर्मस्य लक्षणत्वस्वीकारे लक्षणवचनं धर्मवचनं लक्ष्यवचनं च धर्मिवचनं स्यात् । न च लक्षणवचनरूपधर्मवचन-लक्ष्यवचनरूपमिवचनयोः शाब्दसामानाधिकरण्यमस्ति, ताभ्यां प्रतिपाद्यार्थस्य भिन्नत्वात् । धर्मवचनप्रतिपाद्यो हि धर्मः, धर्मिवचनप्रतिपाद्यश्च धर्मी, तौ च परस्परं सर्वथा भिन्नौ। तथा चासाधारणधर्मस्य लक्षणत्वे न कुत्रापि लक्ष्यलक्षणभावस्थले लक्ष्यवचनलक्षणवचनयोः शाब्दसामानाधिकरण्यं सम्भवति, ततश्च शाब्दसामानाधिकरण्याभावप्रयुक्तासम्भवदोषः समापतत्येव । तस्मान्न साधारणासाधारणधर्ममुखेन लक्षणकरणं यौक्तिकम्, अपि तु परस्परव्यतिकरे येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणमित्यकलङ्कम् । , ८. न्यायदीपिकायाः तुलनात्मकटिप्परगानि __पृ० ५ पं० ५ 'उद्देश-लक्षणनिर्देश-परीक्षाद्वारेण' । तुलना-'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति:-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रास्याभिधानमुद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणमुपपद्यते न वेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा' -न्यायभा० १-१-२।। ___'नामधेयेन पदार्थानामभिधानमुद्देशः । उद्दिष्टस्य स्वपरजातीयव्यावर्त्तको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथालक्षणं विचार: परीक्षा'कन्दली पृ० ३६ । ___ 'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्तिः-उद्देशो लक्षणं परीक्षेति ! नामधेयेन पदार्थाभिधानमुद्देशः, उद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवस्थापको धर्मो लक्षणम्, लक्षितस्य तल्लक्षणमुपपद्यते न वैति विचारः परीक्षा'-न्यायमं० पृ० ११ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० न्याय-दीपिका 'त्रिधा हि शास्त्राणां प्रवृत्तिः–उद्देशः, लक्षणम्, परीक्षा चेति । तत्र नाममात्रेणार्थानामभिधानमुद्देश: । उद्दिष्टस्य स्वरूपव्यवस्थापको धर्मो लक्षिणम् । उद्दिष्टस्य लक्षितस्य च 'यथावल्लक्षणमुपपद्यते न वा' इति प्रमाणतोऽर्थावधारणं परीक्षा'-न्यायकुमुद० पृ० २१ । 'त्रयी हि शास्त्रस्य प्रवत्तिः–उद्देशो लक्षणं परीक्षा च । तत्र नामधेयमात्रकीर्तनमुद्दे श: । उद्दिष्टस्यासाधारणधर्मवचनं लक्षणम् ।... लक्षितस्य इदमित्थं भवति नेत्थं इति न्यायतः परीक्षणं परीक्षा'-प्रमाणमी० पृ० २। 'तदेतद्व्युत्याद्यद्वयं प्रति प्रमाणस्योद्दे शलक्षणपरीक्षा' प्रतिपाद्यन्ते, शास्त्रप्रवृत्तेस्त्रिविधत्वात् । तत्रार्थस्य नाममात्रकथनमुद्दे शः, उद्दिष्टस्यासाधारणस्वरूपनिरूपणं लक्षणम् । प्रमाणबलात्तल्लक्षणविप्रतिपत्तिपक्षनिरास: परीक्षा'-लघीय० तात्पर्य० पृ० ६ । 'नाममात्रेण वस्तुसंकीर्तनमुद्दे शः । यथा 'द्रव्यम्' 'गुणाः' इति । असाधारणधर्मो लक्षणम् । यथा गन्धत्वं पृथिव्याः । लक्षितस्य लक्षणं सम्भवति न वेति विचार: परीक्षा'-तर्कसंग्रहपदकृत्य पृ० ५। . पृ० ६ पं० १ 'परस्परव्यतिकरे'। तुलना-'परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम् । हेम-श्यामिकयोर्वर्णादिविशेषवत्'--- तत्त्वार्थश्लोक पृ० ३१८ । पृ०६ पं० ४ 'द्विविधं' । तुलना—'तद्विविधम्, आत्मभूतमनात्मभूतविकल्पात् । तत्रात्मभूतं लक्षणमग्नेरुष्णगुणवत् । अनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डवत्'-तत्त्वार्थश्लोक पृ० ३१८ । पृ० ६ पं० २ 'सम्यग्ज्ञानं' । तुलना-'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं प्रमाणत्वान्यथानुपपत्तेः'-प्रमाणपरीक्षा पृ० १, प्रमाणनि० पृ० १। पृ० ६ पं० ६ 'संशयः' । तुलना-'संशयस्तावत् प्रसिद्धानेकविशेषयोः सादृश्यमात्रदर्शनादुभयविशेषानुस्मरणादधर्माच्च किंस्विदिति उभयावलम्बी विमर्शः संशयः'-प्रशस्तपादभा० पृ० ८५, ८६ । Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २४१ 'नानार्थावमर्शः संशयः' - न्यायमं० पृ० ७ । 'अनुभयत्रो भयको टिस्पर्शी प्रत्ययः संशयः । अनुभयस्वभावे वस्तुनि उभयान्तपरिमर्शनशीलं ज्ञानं सर्वात्मना शेत इवात्मा यस्मिन् सति स संशयः, यथा अन्धकारे दूरादूर्ध्वाकारवस्तुपलम्भात् साधक-बाधकप्रमाणाभावे सति 'स्थाणुर्वा पुरुषो वा' इति प्रत्ययः ।' प्रमाणमी० पृ० ५ । पृ०६ पं०७ ' स्थाणुपुरुष' । तुलना - स्थाणुपुरुषयोरूर्ध्वतामात्रसादृश्यदर्शनात् वक्रादिविशेषानुपलब्धितः स्थाणुत्वादिसामान्यविशेषानभिव्यक्तावुभयविशेषानुस्मरणादुभयत्राकृष्यमाणस्यात्मनः प्रत्ययो दोलायते ' किंनु खल्वयं स्थाणुः स्यात्पुरुषो वा इति' - प्रशस्तपा० भा० पृ० ८६ ८७ । पृ० प०६ 'विपरीतक' । तुलना - ' प्रतस्मिंस्तदेवेति विपर्ययः, यथा गव्येवाश्वः । — प्रशस्तपा० भा० पृ० ८८ । 'अतस्मिस्तदेवेति विपर्ययः 1 यत् ज्ञाने प्रतिभासते तद्रूपरहिते वस्तुनि 'तदेव' इति प्रत्ययो विपर्यासरूपत्वाद्विपर्ययः, यथा धातुवैषम्यान्मधुरादिषु द्रव्येषु तिक्तादिप्रत्ययः, तिमिरादिदोषात् एकस्मिन्नपि चन्द्रे द्विचन्द्रादिप्रत्ययः । नौयानात् अगच्छत्स्वपि गच्छत्प्रत्ययः, आशुभ्रमणादलातादावचक्रेऽपि चक्रप्रत्यय इति'प्रमाणमी० पृ० ५ । - पृ० ९ पं० ११ किमित्या' । तुलना - 'किमित्यालोचनमात्रमनध्यवसायः, प्रशस्तपा० भा० पृ० १० । 'विशेषानुल्लेख्यनध्यवसायः । दूरान्धकारादिवशादसाधारणधर्मावमर्श रहितः प्रत्ययः अनिश्चयात्मकत्वादनध्यवसायः, यथा 'किमेतत्' इति - प्रमाणमी० पृ० ५ । पृ० ११ पं० १० ‘नन्वेव' । तुलना - 'ननु च तत्क्रियायामस्त्येवाचेतनस्यापीन्द्रियलिङ्गादेः करणत्वम्, चक्षुषा प्रमीयते, धूमादिना प्रमीयते इति । तत्रापि प्रमितिक्रियाकरणत्वस्य प्रसिद्धेरिति - प्रमाणनि० पृ० १ 'लोकस्तावद्दीपेन मया दृष्टं चक्षुषाऽवगतं धूमेन प्रतिपन्नं शब्दान्निश्चितमिति व्यवहरति । - न्यायवि० वि० १-२, पृ० ५७ । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ न्याय-दीपिका पृ० १२ पं० १३ 'पुनरुपचारः'। तुलना-अचेतनस्य त्विन्द्रियलिङ्गादेस्तत्र करणत्वं गवाक्षादेरिवोपचारादेव । उपचारश्च तद्व्यवच्छित्तौ " सम्यग्ज्ञानस्येन्द्रियादिसहायतया प्रवृत्तेः'-प्रमाणनि० पृ० २। __ पृ० १६ पं० ७ 'अभ्यस्ते' । तुलना—'तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च'परीक्षामु० १-१३ । 'स्वयमभ्यस्त विषये प्रमाणस्य स्वतः प्रामाण्यसिद्धः, सकलविप्रतिपत्तीनामपि प्रतिपत्तुरभावात्, अन्यथा तस्य प्रमेये निस्संशयं प्रवृत्त्ययोगात् । तथाऽनभ्यस्तविषये परतः प्रमाणस्य प्रमाण्यनिश्चयात् । तन्निश्चयनिमित्तस्य च प्रमाणान्तरस्याभ्यस्तविषये स्वतः प्रमाणत्वसिद्ध रनवस्थापरस्पराश्रयणयोरनवकाशात् । 'प्रमाणप० पृ० ६३ । पृ० १६ पं० १ 'प्रमाणत्वेनाभिमतेषु' । तुलना—'व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरत इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता।' प्रकरणप० पृ० ४३, बृहती पृ० १०३ । पृ० १६ पं० ३ 'उत्तरोत्तरक्षण' । तुलना-'न च तत्तत्कालकलाविशिष्टतया तत्राप्यनधिगतार्थत्वमुपपादनीयम्, क्षणोपाधीनामनाकलनात् । न चाज्ञातेष्वपि विशेषणेषु तज्जनितविशिष्टता प्रकाशते इति कल्पनीयम्,स्वरूपेण तज्जननेऽनागतादिविशिष्टतानुभवविरोधात् ।'–न्यायकुसु० ४-१, पृ.२ । 'न च कालभेदेनानधिगतगोचरत्वं धारावाहिकज्ञानानामिति युक्तम् । परमसूक्ष्माणां कालकलादिभेदानां पिशितलोचनैरस्मादृशैरनाकलनात् ।'न्यायवात्तिकतात्पर्य० पृ० २१ । 'धारावाहिकेष्वपि उत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । सन्नपि कालभेदोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृश्यत इति'- शास्त्रदी० पृ० १२४ । (अत्र पूर्वपक्षणोल्लेखः) । 'धारावाहिकज्ञानानामुत्तरेषां पुरस्तात्तनप्रतीतार्थविषयतया प्रामाण्यापाकरणात् । न च कालभेदावसायितया प्रामाण्योपपत्तिः । सतोऽपि कालभेदस्यातिसौक्षम्यादनवग्रहणात् ।'–प्रकरणप० पृ० ४० । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २४३ पृ० २० पं० ५ न तु करणं' । तुलना - 'न तत् (ईश्वरज्ञानं) प्रमाकरणमिति त्विष्यत एव, प्रमया सम्बन्धाभावात् । तदाश्रयस्य तु प्रमातृत्वमेतदेव यत् तत्समवायः ।'–न्यायकुसु०४-५, पृ. २५। पृ० २३ पं० ३ 'विशदप्रतिभासं'। तुलना- 'प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं...' -लघीय० का० ३, प्रमाणसं० का० २, परीक्षामु० २-१, तत्त्वार्थश्लो० पृ० १८१ । 'विशदज्ञानात्मकं प्रत्यक्षं प्रत्यक्षत्वात्, यत्तु न विशदज्ञानात्मकं तन्न प्रत्यक्षम्, यथाऽनुमानादिज्ञानम्, प्रत्यक्षं च विवादाध्यासितम्, तस्माद्विशदज्ञानात्मकम् ।'-प्रमाणप० पृ० ६७ । प्रमेयक० २-३ । 'तत्र यत्स्पष्टावभासं तत्प्रत्यक्षम् ।'–न्यायबि० वि० लि० प० ५३९ । प्रमाणनि० पृ० १४ । 'विशद: प्रत्यक्षम्'-प्रमाणमी० पृ० ६ । पृ० २४ पं० ५ 'वैशा' । तुलना—'प्रतीत्यन्त राव्यवधानेन विशेषवत्तया वा प्रतिभासनं वैशद्यम् ।' –परीक्षामु० २-४ । 'अनुमानाधिक्येन विशेषप्रकाशनं स्पष्टत्वम्'-प्रमाणनयत० २-३ । जैनतर्कभा० पृ० २ । प्रमाणान्तरानपेक्षेदन्तया प्रतिभासो वा वैशद्यम् ।'-प्रमाणमी० पृ० १० । पृ० २६ पं० ४ 'अन्वयव्यतिरेक' । तुलना—'तदन्वव्यतिरेकानुविधानाभावाच्च केशोण्डुकज्ञान वन्नक्तञ्चरज्ञानवच्च'-परीक्षामु० २-७ । पृ० २७ पं० ३ 'घटाद्य जन्यस्यापि' । तुलना -अतज्जन्यमपि तत्प्रकाशकं प्रदीपवत्'-परीक्षामु० २-८ । 'न खलु प्रकाश्यो घटादिः स्वप्रकाशकं प्रदीपं जनयति, स्वकारणकलापादेवास्योत्पत्तेः'-प्रमेयक० २-६ । पृ०२६ पं० ६ 'चक्षुपो विषयप्राप्तिं' । तुलना-'स्पर्शनेन्द्रियादिवच्चक्षुषोऽपि विषयप्राप्यकारित्वं प्रमाणात्प्रसाध्यते । तथा हि-प्राप्तार्थप्रकाशकं चक्षुः बाह्य न्द्रियत्वात्स्पर्शनेन्द्रियादिवत् ।'-प्रमेयक० २-४ । 'अस्त्येव चक्षुषस्तद्विषयेण सन्निकर्षः, प्रत्यक्षस्य तत्रासत्त्वेऽपि अनुमानतस्तदवगमात् । तच्चेदमनुमानम्, चक्षुः सन्निकृष्टमर्थं प्रकाशयति बाह्यन्द्रियत्वात्त्वगादिवत्'-प्रमाणनि० पृ० १८ । न्यायकुमु० पृ० ७५ । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ न्याय-दीपिका पृ० ३० पं० ३ 'चक्षुरित्यत्र' । तुलना-'चक्षुश्चात्र धमित्वेनोपात गोलकस्वभावं रश्मिरूपं वा ? तत्राद्यविकल्पे प्रत्यक्षबाधा; अर्थदेशपरिहारेण शरीरप्रदेशे एवास्योपलम्भात्, अन्यथा तद्रहितत्वेन नयनपक्ष्मप्रदेशस्योपलम्भः स्यात् । अथ रश्मिरूपं चक्षुः, तर्हि धर्मिणोऽसिद्धिः । न खलु रश्मयः प्रत्यक्षत: प्रतीयन्ते, अर्थवत्तत्र तत्स्वरूपाप्रतिभासनात् ।' प्रमेयक० २-४ । 'अत्र न तावद्गोलकमेव चक्षुस्तद्विषयसन्निकर्षप्रतिज्ञानस्य प्रत्यक्षेण बाधनात्तेन तत्र तदभावस्यैव प्रतिपत्तेहेतोश्च तद्वाधितकर्मनिर्देशानन्तरं प्रयुक्ततया कालात्ययापदिष्टतोपनिपातात् ।...रश्मिपरिकरितमिति चेन्न, तस्याद्याप्यसिद्धत्वेन रूपादीनामित्यादिहेतोराश्रयासिद्धदोषात् ।'—प्रमाणनि० पृ० १८ पृ० ३१ पं० ६ 'तत्प्रत्यक्षं द्विविधं' तुलना–प्रत्यक्षं विशदं ज्ञानं मुख्यसंव्यवहारतः'-लघीय० का० २ । 'तच्चोक्तप्रकारं प्रत्यक्षं मुख्यसांव्यवहारिकप्रत्यक्षप्रकारेण द्विप्रकारम्'-प्रमेयक० पृ० २२६ । तच्च प्रत्यक्षं द्विविधं सांव्यवहारिकं मुख्यं चेति'-प्रमाणनि० पृ० २३ । पृ० ३२ पं० १ अवग्रहः' । तुलना-'विषयविषयिसन्निपातानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः'-लघीय० स्वो० का० ५। 'तत्राव्यक्तं यथास्वमिन्द्रियैः विषयाणामालोचनावधारणमवग्रहः'-तत्त्वार्थाधि० भा० १-१५। 'विषयविषयिसन्निपातसमयानन्तरमाद्यग्रहणमवग्रहः । विषयविषयि सन्निमाते सति दर्शनं भवति, तदनन्तरमर्थस्य ग्रहणमवग्रहः ।'—सर्वार्थसिद्धि १-१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५ । धवला पु० १, पृ. ३५४ । प्रमाणप० पृ० ६८ । प्रमाणमी० पृ० १-१-२६ । पृ० ३२ पं० ३ 'ईहा' । तुलना-विशेषाकांक्षा ईहा-लघीय० का ५। 'अवगृहीतेऽथें विषयार्थंकदेशाच्छेषानुगमनं निश्चयविशेषजिज्ञासा चेष्टा ईहा ।'-तत्त्वार्थाधि० भा० १-१५ । अवगृहीतेऽर्थे तद्विशेषाकाङ्क्षणमीहा'—सर्वार्थसि० १-१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५। तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२० । प्रमाणप० पृ० ६८ प्रमाणमी० १-१ २७ । जैनतर्कभा० पू० ५। Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २४५ पृ० ३२ पं० ६ 'अवायः' । तुलना-'अवायो विनिश्चयः'-लघीय० का० ५। 'विशेषनिर्ज्ञानाद्याथात्म्यावगमनमवायः ।'—सर्वार्थसि० १-१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २२० । प्रमाणप० पृ० ६८ । प्रमाणमी० १-१-२८ । जैनतर्कभा० पृ० ५। __ पृ० ३३ पं० १ 'धारणा' । 'धारणा स्मृतिहेतुः'-लघीय० का० ६ । धारणा प्रतिपत्तियथास्वं मत्यवस्थानमवधारणं च धारणाप्रतिपत्तिः अवघारणमवस्थानं निश्चयोऽवगमः अवबोध इत्यनर्थान्तरम् ।'–तत्त्वार्थाधि० मा० १-१५ । 'अर्थतस्य कालान्तरे विस्मरणकारणं धारणा'—सर्वार्थसि० १-१५ । तत्त्वार्थवा० १-१५ प्रमाणप० पृ० ६८ । प्रमाणमी० १-१-२६ । जैनतर्कभा०पृ० ५ । 'महोदये च कालान्तरविस्मरणकारणं हि धारणाभिधानं ज्ञानम् । अनन्तवीर्योऽपि तथानिर्णीतस्य कालान्तरे तथैव स्मरणहेतुः संस्कारो धारणा इति'–स्या० रत्ना० पृ० ३४६ । .. पृ० ३८ पं० ६ 'कथं पुनरेतेषां' । तुलना—'कथं पुनरनक्षाश्रितस्य ज्ञानस्यायं प्रत्यक्षव्यपदेश इति चेन्न, अक्षाश्रितत्वं प्रत्यक्षाभिधानस्य व्युत्पत्तिनिमित्तं गतिक्रियेव गोशब्दस्य ! प्रवृत्तिनिमित्तं त्वेकार्थसमवायिनाऽक्षाश्रितत्वेनोपलक्षितमर्थसाक्षात्कारित्वं गतिक्रियोपलक्षितगोत्ववत् गोशब्दस्य अन्यद्धि शब्दस्य व्युत्पत्तिनिमितं अन्यद्वाच्यम् । अन्यथा गच्छन्त्येव गौगौरित्युच्येत नान्या व्युत्पत्तिनिमित्ताभावात् । तथेहकेवलज्ञाने व्युत्पत्तिनिमित्तस्याक्षाश्रितत्वस्याभावेऽपि... प्रवृत्ति निमित्तस्यार्थसाक्षात्कारित्वस्य भावात् प्रत्यक्षाभिधानप्रवृत्ति रविरुद्धा।'-लघुसर्वज्ञपृ० ११६ । न्यायकु० पृ० २६ । __ पृ० ३६ पं० १ ‘अक्ष्णोति' तुलना-'अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीत्यक्ष आत्मा, तमेव प्राप्तक्षयोपशमं प्रक्षीणावरणं वा प्रतिनियतं प्रत्यक्षम्।' सर्वार्थसि० १-१२ । तत्त्वार्थवा० १-१२ । तत्त्वार्थश्लो० १-१२ । प्रमाणप० पृ० ६८ । न्यायकु० पृ० २६ । 'न क्षीयते इत्यक्षो जीवस्तं प्रति वर्त्तते इति प्रत्यक्षम्'-प्रमाल० पृ० ४ । Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्याय-दीपिका । ० ३६ पं० ३ 'विस्मरणशीलत्वं' । तुलना-विस्मरणशीलो देवानांप्रकरणं न लक्षयति' '-वादन्याय० पृ० ७६ । ० ३६ पं० ५ 'अक्षेभ्यः परावृत्तं'। तुलना—व्यतीन्द्रियविषयव्यापारं म्'- सर्वार्थसि० १-१२ । ० ५१ पं० ३ 'परोक्षम्' । तुलना-जं परदो विण्णाणं तंतु परोक्ख णिदमत्थेसु'-प्रवचनसागा०५६ । पराणीन्द्रियाणि मनश्च प्रकाशोदे च बाह्यनिमित्तं प्रतीत्य तदावरणकर्मक्षयोपशमापेक्षस्य अात्मनः मानं मतिश्रुतं परोक्षमित्याख्यायते ।'-सर्वार्थसि० १-११ । 'उपात्तापरप्राधान्यादवगमः परोक्षम्'-तत्त्वार्थवा०पृ०३८ । 'इतरस्य परोक्षता ० स्वो० का० ३। 'उपात्तानुपात्तप्राधान्यादवगमः परोक्षम् । उपान्द्रयाणि मनश्च, अनुपात्तं प्रकाशोपदेशादि, तत्प्राधान्यादवगमः परोथागति शक्त्युपेतस्यापि स्वयं गन्तुमसमर्थस्य यष्ट्याद्यवलम्बनप्राधान्यं तथा मतिश्रुतावरणक्षयोपशमे सति ज्ञस्वभावस्यात्मनः स्वयमानुपपर्थस्य पूर्वोक्तप्रत्ययप्रधानं ज्ञानं परायत्तत्वात् परोक्षम् ।'-धवला पु. १४३-४४ । 'पराणिन्द्रियाणि पालोकादिश्च, परेषामायत्तं ज्ञान परो बवला पु. १३, पृ. २१२ । 'अक्षाद् आत्मनः परावृत्तं परोक्षम्, ततः द्रयादिभिरूक्ष्यते सिञ्च्यते अभिवद्धर्यते इति परोक्षम्' ।-तत्त्वार्थपृ० १८२ । 'परोक्षमविशदज्ञानात्मकम्'-प्रमाणप० पृ० ६६ । मतरत्-परीक्षामु० ३-१ । परैरिन्द्रियलिङ्गशब्दैरूक्षा सम्बन्धोपरोक्षम् ।'-प्रमालक्ष० पृ० ५। 'भवति परोक्षं सहायसापेक्षम् ।' यायी श्लो० ६६६ । 'अविशदः परोक्षम् ।'-प्रमाणमी० पृ० ३३। _) ६५ पं० १ प्रत्यक्षपृष्ठभावी' । तुलना—'यस्यानुमानमन्तरेण 'न प्रतीयते भवतु तस्यायं दोषोऽस्माकं तु प्रत्यक्षपृष्ठभाविनाऽपि न प्रकृतिविभ्रमात् सामान्यं प्रतीयते ।'-हेतुबि० टी० लि. पo । 'देशकालव्यक्तिव्याप्त्या च व्याप्तिरुच्यते । यत्र यत्र धूमस्तत्र नरिति । प्रत्यक्षपृष्ठश्च विकल्पो न प्रमाणं प्रमाणव्यपारानुकारी Ale Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट २४७ त्वसौ इष्यते ।'—मनोरथन० पृ० ७ । 'प्रत्यक्षपृष्ठभाविनो विकल्पस्यापि तद्विषयमात्राध्यवसायत्वात् सर्वोपसंहारेण व्याप्तिग्राहकत्वाभावः ।' प्रमेयक० ३-१३ । 'अथ प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्पात् साकल्येन साध्यसाधनभावप्रतिपत्तेर्न प्रमाणान्तरं तदर्थं मृग्यमित्यपरः ।'-प्रमेयर० पृ० ३७ । 'ननु यदि निर्विकल्पकं प्रत्यक्षमविचारकं तहिं तत्पृष्ठभावी विकल्पो व्याप्तिं गृहीष्यतीति चेत्, नैतत्, निर्विकल्पेन व्याप्ते रग्रहणे विकल्पेन गृहीतुमशक्यत्वात् निर्विकल्पकगृहीतार्थविषयत्वाद्विकल्पस्य ।'-प्रमाणमी० पृ० ३७ । 'प्रत्यक्षपृष्ठभाविविकल्परूपत्वान्नायं प्रमाणमिति बौद्धाः।'-जैनतर्कभा० पृ०११ । पृ० ६५ पं० २ स हि विकल्पः' । तुलना-'तद्विकल्पज्ञानं प्रमाणमन्यथा वेति ? प्रथमपक्षे प्रमाणान्तरमनुमन्तव्यम्, प्रमाणद्वयेऽनन्तर्भावात् । उत्तरपक्षे तु न ततोऽनुमानव्यवस्था । न हि व्याप्तिज्ञानस्याप्रामाण्ये तत्पूर्वकमनुमानं प्रमाणमास्कन्दति सन्दिग्धादिलिङ्गादप्युत्पद्यमानस्य प्रामाण्य प्रसङ्गात् ।'–प्रमेयर० पृ० ३८ । 'स तर्हि प्रमाणमप्रमाणं वा ? प्रमाणत्वे प्रत्यक्षानुमानातिरिक्त प्रमाणान्तरं तितिक्षितव्यम् । अप्रामाण्ये तु ततो व्याप्तिग्रहणश्रद्धा षण्ढात्तनयदोहृदः ।'-प्रमाणमी० पृ० ३७ । । पृ० १३० पं० ५ स्वतन्त्रतया' । तुलना—'ते एते गुणप्रधानतया परस्परतन्त्राः सम्यग्दर्शनहेतवः पुरुषार्थक्रियासाधनसामर्थ्यात्तन्त्वादय इव यथोपायं विनिवेश्यमानाः पटादिसंज्ञाः स्वतन्त्राश्चासमर्थाः । निरपेक्षेषु तन्त्वादिषु पटादिकार्य नास्तीति ।'-सर्वार्थसि० १-३३ । तत्त्वार्थवा०१-३३ 'मिथोऽनपेक्षाः पुरुषार्थहेतुर्नीशा न चांशी पृथगस्ति तेभ्यः । परस्परेक्षाः पुरुषार्थहेतुर्दष्टा नयास्तद्वदसि क्रियायाम् ।।' –युक्त्यनुशा० का० ५१ । पृ० १३० पं० ७ 'मिथ्यात्वस्यापि' । तुलना-एवमेते शब्दसमभिरूद्वैवंभूतनया: सापेक्षाः सम्यक् परस्परमनपेक्षास्तु मिथ्येति प्रतिपादयति इतोऽन्योन्यमपेक्षायां सन्तः शब्दादयो नयाः । निरपेक्षाः पुनस्ते स्युस्तदाभासाविरोधतः ।।'-तत्त्वार्थश्लो॰पृ० २७४ । Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुद्रक : रूप-वाणी प्रिंटिंग हाऊस २३, दरियागंज, दिल्ली. Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22.