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न्याय-दीपिका
रूप व्यवहार कराता है, अन्य नय के विषय का निषेध नहीं करता। इसीलिए "दूसरे नय के विषय की अपेक्षा रखने वाले नय को सत् नय—सम्यक् नय अथवा सामान्य नय" कहा है । जैसे—यह
कहना कि 'सोना लाओं'। यहाँ द्रव्याथिकनय के अभिप्राय से 'सोना 5 लाओ' के कहने पर लाने वाला कड़ा, कुण्डल, केयूर इनमें से किसी को भी ले आने से कृतार्थ हो जाता है, क्योंकि सोनेरूप से कड़ा आदि में कोई भेद नहीं है। पर जब पर्यायाथिकनय की विवक्षा होती है तब द्रव्याथिक नय को गौण करके प्रवृत्त होने वाले पर्यायाथिक
नय की अपेक्षा से 'कुण्डल लाओ' यह कहने पर लाने वाला कड़ा 10 प्रादि के लाने में प्रवृत्त नहीं होता, क्योंकि कड़ा प्रादि पर्याय से
कुण्डल पर्याय भिन्न है। अतः द्रव्याथिक नय के अभिप्राय (विवक्षा) से सोना कथञ्चित् एकरूप ही है, पर्यायाथिक नय के अभिप्राय से कथञ्चित् अनेकरूप ही है, और क्रम से दोनों नयों के अभिप्राय से कथञ्चित् एक और अनेकरूप है। एक साथ दोनों नयों के अभिप्राय से कर्थचित् अवक्तव्यस्वरूप है। क्योंकि एक साथ प्राप्त हुये दो नयों से विभिन्न स्वरूप वाले एकत्व और अनेकत्व का विचार अथवा कथन नहीं हो सकता है। जिस प्रकार कि एक साथ प्राप्त हुये दो शब्दों के द्वारा घट के प्रधानभूत भिन्न स्वरूप वाले रूप और रस इन दो
धर्मों का प्रतिपादन नहीं हो सकता है। अतः एक साथ प्राप्त द्रब्यार्थिक 20 और पर्यायाथिक दोनों नयों के अभिप्राय से सोना कथंचित् अवक्तव्य
स्वरूप है। इस अवक्तव्यस्वरूप को द्रव्यार्थिक, पर्यायाथिक और द्रव्याथिक-पर्यायाथिक इन तीन नयों के अभिप्राय से क्रमशः प्राप्त हुए एकत्वादि के साथ मिला देने पर सोना कथंचित् एक और
अवक्तव्य है, कथंचित् अनेक और प्रवक्तव्य है तथा कथंचित् एक, 25 अनेक और प्रवक्तव्य है, इस तरह तीन नयाभिप्राय और हो जाते