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________________ न्याय-दीपिका सम्बन्धमें जितना अधिक चिन्तन जैनदर्शनने किया है और भारतीयदर्शनशास्त्रको तत्सम्बन्धी विपुल साहित्यसे समृद्ध बनाया है उतना अन्य दूसरे दर्शनने शायद ही किया हो। अकलङ्कदेवने सर्वज्ञत्वके साधनमें अनेक युक्तियोंके साथ एक युक्ति बड़े मार्केकी कही है वह यह कि सर्वज्ञके सद्भावमें कोई बाधक प्रमाण नहीं है इसलिए उसका अस्तित्व होना ही चाहिए। उन्होंने जो भी बाधक हो सकते हैं उन सबका सुन्दर ढङ्गसे निराकरण भी किया है । एक दूसरी महत्वपूर्ण युक्ति उन्होंने यह दी है कि 'आत्मा 'ज्ञ'—ज्ञाता है और उसके ज्ञानस्वभावको ढकनेवाले आवरण दूर होते हैं। अतः प्रावरणोंके विच्छिन्न हो जानेपर ज्ञस्वभाव आत्माके लिए फ़िर ज्ञेय—जानने योग्य क्या रह जाता है ? अर्थात् कुछभी नहीं । अप्राप्यकारी ज्ञानसे सकलार्थपरिज्ञान होना अवश्यम्भावी है ? इन्द्रियाँ और मन सकलार्थपरिज्ञानमें साधक न होकर बाधक हैं वे जहाँ नहीं हैं और आवरणोंका पूर्णतः अभाव है वहाँ त्रैकालिक और त्रिलोकवर्ती यावत् पदार्थोंका साक्षात् ज्ञान होनेमें कोई बाधा नहीं है। वीरसेनस्वामी और प्राचार्य विद्यानन्दने भी इसी आशयके एक महत्त्वपूर्ण श्लोकको उद्धृत करके ज्ञस्वभाव आत्मामें सर्वज्ञताका उपपादन किया है जो वस्तुतः अकेला ही सर्वज्ञताको सिद्ध करनेमें समर्थ एवं पर्याप्त है। इस तरह हम देखते हैं कि जैनपरम्परामें १ देखो, अष्टश० का० ३ । २ "ज्ञस्यावरणविच्छेदे ज्ञेयं किमवशिष्यते । अप्राप्यकारिणस्तस्मात् सर्वार्थावलोकनम् ॥"-न्यायवि० का० ४६५। तथा देखो, का० ३६१, ३६२ । ३ देखो, जयधवला प्र० भा० पृ० ६६ । ४ देखो, अष्टस० पृ० ५० । ५ ‘ज्ञो ज्ञेये कथमज्ञः स्यादसति प्रतिबन्धने । दाह्य ऽग्निहको न स्यादसति प्रतिबन्धने ॥"
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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