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________________ प्रस्तावना लक्षणके विचार समयमें ही हेत्वाभाम मानते हैं । वादकालमें नहीं । उस समय तो पक्षमें दोष दिखा देनेसे ही व्युत्पन्नप्रयोगको दूषित बतलाते हैं। तात्पर्य यह कि वे अकिञ्चित्करको स्वतन्त्र हेत्वाभास माननेमें खास जोर भी नहीं देते । श्वेताम्बर विद्वानोंने असिद्धादि पूर्वोक्त तीन ही हेत्वाभास स्वीकृत किये हैं, उन्होंने अकिंचित्करको नहीं माना। माणिक्यनन्दिने अकिंचित्करको हेत्वाभास माननेकी जो दृष्टि बतलाई है उस दृष्टिसे उसका मानना उचित है। वादिदेवसूरि और यशोविजयने यद्यपि अकिंचित्करका खण्डन किया है पर वे उस दृष्टिको मेरे ख्यालमें सोझल कर गये हैं। अन्यथा वे उस दृष्टिसे उसके औचित्यको जरूर स्वीकार करते । प्रा० धर्मभूषणने अपने पूज्य माणिक्यनन्दिका अनुसरण किया है और उनके निर्देशानुसार अकिंचित्करको चौथा हेत्वाभास बताया है। इस तरह न्यायदीपिकामें आये हुए कुछ विशेष विषयोंपर तुलनात्मक विवेचन किया है। मेरी इच्छा थी कि आगम, नय, सप्तभंगी, अनेकान्त आदि शेष विषयोंपर भी इसी प्रकारका कुछ विचार किया जावे पर अपनी शक्ति, साधन, समय और स्थानको देखते हुए उसे स्थगित कर देना पड़ा। १ "लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दुष्टत्वात् ।” -परीक्षा० ६-३८ । २ न्यायाव० का० २३, प्रमाणनय० ६-४७ । ३ स्याद्वादरत्ना० पृ० १२३० । ४ जैनतर्कभा० पृ० १८ ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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