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________________ न्याय-दोपिका साहसपूर्वक छठवाँही हेत्वाभास मान लेते हैं और यहाँ तक कह देते है। कि विभागसूत्रका उलंघन होता है तो होने दो सुस्पष्ट दृष्ट अप्रयोजक (अन्यथासिद्ध) हेत्वाभासका अपह्नव नहीं किया जा सकता है और न वस्तुका उलंघन । किन्तु पीछे उसे प्रसिद्धवर्ग में ही शामिल कर लेते हैं। अन्तमें 'अथवा के साथ कहा है कि अन्यथासिद्धत्व (अप्रयोजकत्व) सभी हेत्वभासवृत्ति सामान्यरूप है, छठवाँ हेत्वाभास नहीं। इसी अन्तिम अभिमतको न्यायकलिका (पृ० १५) में स्थिर रखा है । पण्डितजीकी सम्भावनासे प्रेरणा पाकर जब मैंने 'अन्यथासिद्ध'को पूर्ववर्ती तार्किक ग्रन्थोंमें खोजना प्रारम्भ किया तो मुझे उद्योतकरके न्यायवात्तिकमें अन्यथासिद्ध हेत्वाभास मिल गया जिसे उद्योतकरने असिद्धके भेदोंमें गिनाया है। वस्तुतः अन्यथासिद्ध एकप्रकारका अप्रयोजक या अकिंचित्कर हेत्वाभासही है। जो हेतु अपने साध्यको सिद्ध न कर सके उसे अन्यथासिद्ध अथवा अकिंचित्कर कहना चाहिए। भलेही वह तीनों अथवा पाँचों रूपोंसे युक्त क्यों न हो। अन्यथासिद्धत्व अन्यथानुपपन्नत्वके अभाव-अन्यथाउपपन्नत्वसे अतिरिक्त कुछ नहीं है । यही वजह है कि अकलङ्कदेवने सर्वलक्षणसम्पन्न होने पर भी अन्यथानुपपन्नत्वरहित हेतुओंको अकिंचित्कर हेत्वाभासकी संज्ञा दी है । अतएव ज्ञात होता है कि उद्योतकरके अन्यथासिद्धत्वमें से ही अकलङ्कने अकिंचित्कर हेत्वाभास की कल्पना की है। प्रा० माणिक्यनन्दिने इसका चौथे हेत्वाभासके रूपमें वर्णन किया है पर वे उसे हेत्वाभासके मन्यथासिद्धत्वं नाम रूपमिति न षष्ठोऽयं हेत्वाभास: । —पृ० १६६ । १ "अप्रयोजकत्वं च सर्वहेत्वाभासानामनुगतं रूपम् । अनित्याः परमाणवो मूर्त्तत्वात् इति सर्वलक्षणसम्पन्नोऽप्यप्रयोजक एव ।" २ “सोऽयमसिद्धत्व भवति प्रज्ञापनीयधर्मसमानः, आश्रयासिद्धः, अन्यथासिद्धश्चेति।" -पृ० १७५ । ३ परीक्षामुख ६-२१ ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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