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दूसरा प्रकाश
१६७ निमित्त' स्पष्टता है । और वह उक्त तीनों ज्ञानों में मौजूद है । श्रतः जो ज्ञान स्पष्ट है वह प्रत्यक्ष कहा जाता है ।
अथवा, व्युत्पत्ति अर्थ भी इनमें मौजूद है । ' अक्ष्णोति व्याप्नोति जानातीति अक्ष आत्मा' अर्थात् - जो व्याप्त करे-जाने उसे अक्ष कहते हैं और वह आत्मा है । इस व्युत्पत्ति को लेकर अक्ष शब्द का अर्थ 5 आत्मा भी होता है । इसलिये उस अक्ष- - श्रात्मा मात्रको अपेक्षा लेकर उत्पन्न होने वाले ज्ञान को प्रत्यक्ष कहने में क्या बाधा है ? अर्थात् कोई बाधा नहीं है ।
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शङ्का - यदि ऐसा माना जाय तो इन्द्रियजन्य ज्ञान श्रप्रत्यक्ष कहलायेगा ?
समाधान - हमें खेद है कि आप भूल कि इन्द्रियजन्य ज्ञान उपचार से प्रत्यक्ष है । हो, इसमें हमारी कोई हानि नहीं है ।
हम कह आये हैं
जाते हैं । अतः वह वस्तुतः अप्रत्यक्ष
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इस उपर्युक्त विवेचन से 'इन्द्रियनिरपेक्ष ज्ञानको परोक्ष' कहनेकी मान्यता का भी खण्डन हो जाता है । क्योंकि श्रविशदता 15 ( अस्पष्टता) को ही परोक्ष का लक्षण माना गया है। तात्पर्य यह
१ व्युत्पत्तिनिमित्त से प्रवृत्तिनिमित्त भिन्न हुआ करता है । जैसे गोशब्दका व्युत्पत्तिनिमित्त 'गच्छतीति गौः' जो गमन करे वह गौ है, इस प्रकार 'गमनक्रिया' है और प्रवृत्तिनिमित्त 'गोत्व' है। यदि व्युत्पत्तिनिमित्त ( गमन क्रिया) को ही प्रवृत्ति में निमित्त माना जाय तो बैठी या खड़ी गाय में गोशब्दकी प्रवृत्ति नहीं हो सकती और गमन कर रहे मनुष्यादिमें भी गोशब्दकी प्रवृत्ति का प्रसङ्ग आयेगा । अतः गोशब्दकी प्रवृत्ति में निमित्त व्युत्पत्तिनिमित्तसे भिन्न 'गोत्व' है । उसी प्रकार प्रकृत में प्रत्यक्ष शब्दकी प्रवृत्ति में व्युत्पत्तिनिमित्त 'प्रक्षाश्रितत्व' से भिन्न ' स्पटत्व' है । अतः अवधि आदि तीनों ज्ञानों को प्रत्यक्ष कहने में कोई बाधा नहीं है ।