SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 308
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ न्याय-दीपिका । जिस प्रकार इन्द्रियसापेक्षता प्रत्यक्षता में प्रयोजक नहीं है। उसी कार इन्द्रियनिरपेक्षता परोक्षता में भी प्रयोजक नहीं है। किन्तु त्यक्षता में स्पष्टताकी तरह परोक्षता में अस्पष्टता कारण है। शङ्का-'अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष है' यह कहना बड़े साहस की बात है; क्योंकि वह असम्भव है। यदि असम्भव की भी कल्पना करें तो आकाश के फूल आदि की भी कल्पना होनी चाहिए ? । समाधान-नहीं; आकाश के फूल आदि अप्रसिद्ध हैं। परन्तु अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध है। वह इस प्रकार से है'केवलज्ञान' जो कि अतीन्द्रिय है, अल्पज्ञानी कपिल आदि के असम्भव होने पर भी अरहन्तके अवश्य सम्भव है ; क्योंकि अरहन्त भगवान् सर्वज्ञ हैं। प्रसङ्गवश शङ्का-समाधान पूर्वक सर्वज्ञ की सिद्धि। शङ्का-सर्वज्ञता ही जब अप्रसिद्ध है तब आप यह कैसे कहते हैं कि 'अर्हन्त भगवान् सर्वज्ञ हैं ? क्योंकि जो सामान्यतया कहीं भी प्रसिद्ध नहीं है उसका किसी खास जगह में व्यवस्थापन नहीं हो सकता है ? समाधान-नहीं; सर्वज्ञता अनुमान से सिद्ध है। वह अनुमान इस प्रकार है-सूक्ष्म, अन्तरित और दूरवर्ती पदार्थ किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि अनुमान से जाने जाते हैं। जैसे अग्नि आदि • पदार्थ । स्वामी समन्तभद्र ने भी महाभाष्य के प्रारम्भ में आप्तमी १ महाभाष्यसे सम्भवतः ग्रन्थकार का प्राशय गन्धहस्तिमहाभाष्य से जान पड़ता हैं क्योंकि अनुश्रुति ऐसी है कि स्वामी समन्तभद्रने 'तत्त्वार्थसूत्र' पर 'गन्धहस्तिमहाभाष्य' नामकी कोई बृहद् टीका लिखी है और आप्तमीमांसा जिसका आदिम प्रकरण है । पर उसके अस्तित्वमें विद्वानोंका मतभेद है । इसका कुछ विचार प्रस्तावनामें किया है। पाठक वहाँ देखें ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy