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________________ १४८ न्याय-दीपिका जी स्वयं अपना प्रकाश नहीं कर सकता है वह दूसरेका भी प्रकाश नहीं कर सकता है। घटकी तरह। किन्तु ज्ञान दीपक आदिकी तरह अपना तथा अन्य पदार्थोंका प्रकाशक है, यह अनुभवसे सिद्ध है । अतः यह स्थिर हुआ कि इन्द्रिय वगैरह पदार्थोके ज्ञान करानेमें साधकतम 5 न होनेके कारण करण नहीं है। 'आँखसे जानते हैं' इत्यादि व्यवहार तो उपचारसे प्रवृत्त होता है और उपचारकी प्रवृत्ति में सहकारिता निमित्त है । अर्थात् इन्द्रियादिक अर्थपरिच्छेदमें ज्ञानके सहकारी होनेसे उपचारसे परिच्छेदक मान लिये जाते हैं। वस्तुतः मुख्य परिच्छेदक तो ज्ञान ही है। अतः इन्द्रियादिक 10 सहकारी होनेसे प्रमिति क्रियामें मात्र साधक हैं, साधकतम नहीं। और इसलिए करण नहीं हैं। क्योंकि अतिशयवान् साधकविशेष (असाधारण कारण ) ही करण होता है। जैसा कि जैनेन्द्र व्याकरण [ ११२।११३ ] में कहा है-'साधकतमं करणम्' अर्थात्-अतिशय विशिष्ट साधकका नाम करण है' । अतः इन्द्रियादिक में लक्षण की 15 अतिव्याप्ति नहीं है। शङ्का-इन्द्रियादिकोंमें लक्षणको अतिव्याप्ति न होनेपर भी धारावाहिक ज्ञानोंमें अतिव्याप्ति है। क्योंकि वे सम्यक् ज्ञान हैं। किन्तु उन्हें पाहत मत-जैन दर्शन में प्रमाण नहीं माना है ? समाधान—एक ही घट (घड़े) में घटविषयक अज्ञानके निरा20 करण करनेके लिए प्रवृत्त हुए पहले घटज्ञानसे घटकी प्रमिति (सम्यक परिच्छित्ति) हो जानेपर फिर 'यह घट है, यह घट है' इस प्रकार उत्पन्न हुए ज्ञान धारावाहिक ज्ञान हैं। ये ज्ञान अज्ञान-निवृत्तिरूप प्रमितिके प्रति साधकतम नहीं हैं; क्योंकि अज्ञानकी निवृत्ति पहले ज्ञानसे ही हो जाती है। फिर उनमें लक्षणको अतिव्याप्ति कैसे हो 25 सकती है ? क्योंकि यह गृहीतग्राही हैं— ग्रहण किये हुए ही अर्थको ग्रहण करते हैं।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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