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प्रस्तावना
दूसरी 'देवागमपद्यवार्त्तिकालंकार'है, जिसकी सम्भावना युक्त्यनुशासनटीका (पृ० ६४) के 'इति देवागमपद्यवात्तिकालंकारे निरूपितप्रायम् ।' इस वाक्य में पड़े हुए 'देवागमपद्यवात्तिकालंकारे' पदसे की है। परन्तु पहली टीकाके होनेकी सूचना तो कुछ ठीक मालूम होती है, क्योंकि आ० विद्यानन्द भी उसका संकेत करते हैं। लेकिन पिछली टीकाके सद्भावका कोई आधार या उल्लेख अब तक प्राप्त नहीं हुआ । वास्तवमें बात यह है कि प्रा० विद्यानन्द 'देवागमपद्य वार्तिकालंकारे' पदके द्वारा अपनी पूर्वरचित दो प्रसिद्ध टीकाओं-देवागमालंकार (अष्टसहस्री और पद्यवार्तिकालंकार (श्लोकवार्तिकालंकार) का उल्लेख करते हैं और उनके देखनेकी प्रेरणा करते हैं । पद्य का अर्थ श्लोक प्रसिद्ध ही है और अलंकार शब्दका प्रयोग दोनोंके साथ रहनेसे समस्यन्त एक वचनका प्रयोग भी असंगत नहीं है। अतः 'देवागमपद्यवार्तिकालंकार' नामकी कोई आप्तमीमांसाकी टीका रही है, यह विना पुष्ट प्रमाणोंके नहीं कहा जा सकता। प्रा० अभिनव धर्मभूषणने आप्तमीमांसाकी अनेक कारिकाएँ प्रस्तुत न्यायदीपिकामें बड़ी कृतज्ञताके साथ उद्धृत की है। 1. महाभाष्य-ग्रन्थकारने न्यायदीपिका पृ० ४१ पर निम्न शब्दोंके साथ महाभाष्यका उल्लेख किया है :
'तदुक्तं स्वामिभिर्महाभाष्यस्यादावाप्तमीमांसाप्रस्तावे-' 1 परन्तु आज यह ग्रन्थ उपलब्ध जैन साहित्यमें नहीं है । अतः विचारणीय है कि इस नामका कोई ग्रंथ है या नहीं? यदि है तो उसकी उपलब्धि आदिका परिचय देना चाहिए। और यदि नहीं हैं तो आ० धर्म भूषणने किस आधारपर उसका उल्लेख किया है? इस सम्बन्धमें अपनी अोरसे कुछ विचार करनेके पहले मैं कह दूं कि इस ग्रन्थके अस्तित्व विषयमें जितना अधिक ऊहापोहके साथ सूक्ष्म विचार और अनुसन्धान मुख्तारसा० ने किया है उतना शायद ही अबतक दूसरे विद्वान्ने किया हो। उन्होंने
१ देखो, स्वामीसमन्तभद्र प० २१२ से २४३ तक ।