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न्याय-दीपिका अपने 'स्वामीसमन्तभद्र' ग्रन्थ के ३१ पेजोंमें अनेक पहलुओंसे चिन्तन किया है और वे इस निष्कर्षपर पहुँचे हैं कि स्वामीसमन्तभद्र रचित महाभाष्य नामका कोई ग्रन्थ रहा जरूर है पर उसके होनेके उल्लेख अब तक तेरहवीं शताब्दीके पहलेके नहीं मिलते हैं। जो मिलते हैं वे १३वीं, १४वीं और १५वीं शताब्दीके हैं। अतः इसके लिए प्राचीन साहित्यको टटोलना चाहिए। मेरी विचारणा
किसी ग्रन्थ या ग्रन्थकारके अस्तित्वको सिद्ध करनेके लिए अधिकाशतः निम्न साधन अपेक्षित होते हैं :
(१) ग्रन्थोंके उल्लेख। (२) शिलालेखादिकके उल्लेख ।। (३) जनश्रुति-परम्परा।
१. जहाँ तक महाभाष्यके ग्रन्थोल्लेखोंकी बात है और वे अब तक जितने उपलब्ध हो सके हैं उन्हें मुख्तारसा०ने प्रस्तुत किये ही हैं। हाँ, एक नया ग्रन्थोल्लेख हमें और उपलब्ध हुआ है । वह अभयचन्द्रसूरिकी स्याद्वादभूषणनामक लघीयस्त्रयतात्पर्यवृत्तिका है, जो इस प्रकार है :
"परीक्षितं विरचितं स्वामिसमन्तभद्राद्यैः सूरिभिः। कथं न्यक्षेण विस्तरेण । क्व अन्यत्र तत्त्वार्थ महाभाष्यादौ..."-लघी० ता० १०६७ ।
ये अभयचन्द्रसूरि तथा 'गोम्मटसार' की मन्दप्रबोधिका टीका और प्रक्रियासंग्रह (व्याकरणविषयक टीकाग्रन्थ) के कर्ता अभयचन्द्रसूरि यदि एक हैं और जिन्हें डा० ए० एन० उपाध्ये' तथा मुख्तारसा०२ ईसाकी १३वीं और वि०की१४वीं शताब्दीका विद्वान् स्थिर करते हैं तो उनके इस
१ देखो, अनेकान्त वर्ष ४ किरण १ पृ० ११६ । २ देखो, स्वामीसमन्तभद्र पृ० २२४ का फुटनोट ।