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________________ १७० न्याय-दीपिका सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाला नहीं हो सकता है। क्योंकि इन्द्रियाँ अपने योग्य विषय' (सन्निहित और वर्तमान अर्थ) में ही ज्ञान को उत्पन्न कर सकती हैं। और सूक्ष्मादि पदार्थ इन्द्रियों के योग्य विषय नहीं हैं। अतः वह सम्पूर्ण पदार्थ विषयक ज्ञान अनन्द्रियिक ही है5 इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित अतीन्द्रिय है, यह बात सिद्ध हो जाती है। इस प्रकार से सर्वज्ञ के मानने में किसी भी सर्वज्ञवादी को विवाद नहीं है। जैसा कि दूसरे भी कहते हैं—'पुण्य-पापादिक किसी के प्रत्यक्ष हैं; क्योंकि वे प्रमेय हैं।" सामान्य से सर्वज्ञ को सिद्ध करके अर्हन्त के सर्वज्ञता की सिद्धि10 शङ्का सम्पूर्ण पदार्थों को साक्षात् करने वाला अतीन्द्रिय प्रत्यक्षज्ञान सामान्यतया सिद्ध हो; परन्तु वह अरहन्त के हैं यह कैसे ? क्योंकि किसी के' यह सर्वनाम शब्द है और सर्वनाम शब्द सामान्य का ज्ञापक होता है ? समाधान-सत्य है । इस अनुमान से सामान्य सर्वज्ञ की ___15 सिद्धि की है। 'परहन्त सर्वज्ञ हैं' यह हम अन्य अनुमान से सिद्ध करते हैं। वह अनुमान इस प्रकार है- 'अरहन्त सर्वज्ञ होने के योग्य हैं, क्योंकि वे निर्दोष हैं, जो सर्वज्ञ नहीं है वह निर्दोष नहीं है, जैसे रथ्यापुरुष ( पागल )।' यह केवलव्यतिरेकी हेतु जन्य अनुमान है। आवरण और रागादि ये दोष हैं और इनसे रहित का नाम निर्दोषता है। वह निर्दोषता सर्वज्ञता के बिना नहीं हो सकती है। क्योंकि जो किञ्चिज्ज्ञ है- अल्पज्ञानी है उसके प्रावरणादि दोषों का प्रभाव नहीं है। अतः अरहन्त में रहने वाली यह निर्दोषता उनमें १ 'सम्वद्धं वर्त्तमानं च गृह्यते चक्षुरादिना'-मी०श्लो॰सूत्र ४ श्लोक ८४ ।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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