________________
प्राक्कथन
जाता है । इसका सबब यह है कि सभी प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान यद्यपि
आत्मोत्थ हैं क्योंकि ज्ञानको आत्माका स्वभाव वा गुण माना गया है । परन्तु अतीन्द्रिय प्रत्यक्ष इन्द्रियोंकी सहायताके बिना ही स्वतन्त्ररूपसे
आत्मामें उद्भूत हुआ करते हैं इसलिये इन्हें परमार्थ संज्ञा दी गई है और इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष आत्मोत्थ होते हुए भी उत्पत्तिमें इन्द्रियाधीन हैं इसलिये वास्तवमें इन्हें प्रत्यक्ष कहना अनुचित ही है । अतः लोकव्यवहारकी दृष्टिसे ही इनको प्रत्यक्ष कहा जाता है। वास्तवमें तो इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षोंको भी परोक्ष ही कहना उचित है । फिर जब कि ये प्रत्यक्ष पराधीन हैं तो इन्हें परोक्ष प्रमाणोंमें ही अन्तर्भत क्यों नहीं किया गया है ? इस प्रश्नका उत्तर यह है कि जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान हो उस ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्षमें अन्तर्भूत किया गया है और जिस ज्ञानमें ज्ञेय पदार्थका इन्द्रियोंके साथ साक्षात् सम्बन्ध विद्यमान न हो । परम्परया सम्बन्ध कायम होता हो उस ज्ञानको परोक्ष प्रमाणमें अन्तर्भूत किया गया है। उक्त छहों इन्द्रियजन्य प्रत्यक्षों (सांव्यवहारिक प्रत्यक्षों) में प्रत्येककी अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा ये चार-चार अवस्थाएँ स्वीकार की गयी हैं। अवग्रह-ज्ञानकी उस दुर्बल अवस्थाका नाम है जो अनन्तरकालमें निमित्त मिलनेपर विरुद्ध नानाकोटि विषयक संशयका रूप धारण कर लेती है और जिसमें एक अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि भी शामिल रहती है। संशयके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक अनिर्णीत भावनारूप ज्ञानका नाम ईहा माना गया है। और ईहाके बाद अवग्रहज्ञानकी विषयभूत कोटि विषयक निणीत ज्ञानका नाम अवाय है । यही ज्ञान यदि कालान्तरमें होनेवाली स्मृतिका कारण बन जाता है तो इसे धारणा नाम दे दिया जाता है। जैसे कहीं जाते हुए हमारा दूर स्थित पुरुषको सामने पाकर उसके बारेमें “यह पुरुष है" इस प्रकारका ज्ञान अवग्रह है । इस ज्ञानकी दुर्बलता इसीसे जानी जा सकती है कि यही ज्ञान अनन्तरकाल में निमित्त मिल जानेपर