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________________ १६२ न्याय-दीपिका प्रत्यक्ष के दो भेद करके सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष का लक्षण और उसके भेदों का निरूपण___ वह प्रत्यक्ष दो प्रकार का है-१ सांव्यवहारिक और २ पार माथिक । एकदेश स्पष्ट ज्ञान को सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं। 5 तात्पर्य यह कि जो ज्ञान कुछ निर्मल है वह सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष है। उसके चार भेद हैं-१ अवग्रह, २ ईहा, ३ अवाय और ४ धारणा। इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध होने के बाद उत्पन्न हुए सामान्य अवभास (दर्शन) के अनन्तर होने वाले और अवान्तरसत्ता जाति से युक्त वस्तु को ग्रहण करने वाले ज्ञानविशेष को अवग्रह 10 कहते हैं। जैसे 'यह पुरुष है'। यह ज्ञान संशय नहीं है, क्योंकि विषयान्तर का निराकरण करके अपने विषय का ही निश्चय कराता है। और संशय उससे विपरीत लक्षण वाला है। जैसा कि राजवार्तिक में कहा है-"संशय नानार्थविषयक, अनिश्चयात्मक और अन्य का अव्यवच्छेदक होता है । किन्तु अवग्रह एकार्थविषयक, 15 निश्चयात्मक और अपने विषय से भिन्न विषय का व्यवच्छेदक होता है।" राजवात्तिकभाष्य में भी कहा है-"संशय निर्णय का विरोधी है, परन्तु अवग्रह नहीं है।" फलितार्थ यह निकला कि संशयज्ञानमें पदार्थ का निश्चय नहीं होता और अवग्रह में होता है। अत: अवग्रह संशयज्ञान से पृथक् है। अवग्रह से जाने हुये अर्थ में उत्पन्न संशयको दूर करने के लिये ज्ञाताका जो अभिलाषात्मक प्रयत्न होता है उसे ईहा कहते हैं। जैसे अवग्रह ज्ञानके द्वारा यह पुरुष है' इस प्रकार का निश्चय किया गया था, इससे यह 'दक्षिणी' है अथवा 'उत्तरीय' इस प्रकार के सन्देह होने पर उसको दूर करने के लिये यह दक्षिणी होना चाहिये' ऐसा ईहा 25 नाम का ज्ञान होता है।
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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