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तीसरा प्रकाश
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तो कि अनेकान्त है, मिथ्या ही है। तात्पर्य यह कि परस्पर नरपेक्ष एकत्वादिक एकान्त जब मिथ्या हैं तब उनका समूहरूप प्रनेकान्त भी मिथ्या ही कहलायेगा, वह सम्यक् कैसे हो सकता
___समाधान-वह हमें इष्ट है। जिस प्रकार परस्पर के उपकार्य- 5 उपकारकभाव के बिना स्वतन्त्र होने से और एक दूसरे की अपेक्षा । करने पर वस्त्ररूप अवस्था से रहित तन्तुओं का समूह शीतनिवाण ( ठण्ड को दूर करना ) आदि कार्य नहीं कर सकता है उसी कार एक दूसरे की अपेक्षा न करने पर एकत्वादिक धर्म भी यथार्थ पान कराने आदि अर्थक्रिया में समर्थ नहीं हैं, इसलिए उन पर- 10 पर निरपेक्ष एकत्वादि धर्मों में कथंचित् मिथ्यायन भी सम्भव । प्राप्तमीमांसा में स्वामी समन्तभद्राचार्य ने भी कहा है कि मिथ्याभूत एकान्तों का समूह यदि मिथ्या है तो वह मिथ्या एकातता-परस्पर निरपेक्षता हमारे ( स्याद्वादियों के ) यहाँ नहीं है। योंकि जो नय निरपेक्ष हैं वे मिथ्या हैं—सम्यक् नहीं हैं और 15 तो सापेक्ष हैं-एक दूसरे की अपेक्षा सहित हैं वे वस्तु हैं-सम्यक् य हैं और वे ही अर्थक्रियाकारी हैं ।' तात्पर्य यह हुआ कि नरपेक्ष नयों के समूह को मिथ्या मानना तो हमें भी इष्ट है, पर पाद्वादियों ने निरपेक्ष नयों के समूह को अनेकान्त नहीं माना किन्तु पेिक्ष नयों के समूह को अनेकान्त माना है; क्योंकि वस्तु प्रत्यक्षादि 20 माणों से अनेक धर्मात्मक ही प्रतीत होती है, एक धर्मात्मक
अतः यह सिद्धान्त सिद्ध हुआ कि 'नय और प्रमाण से वस्तुसिद्धि होती है-पदार्थों का यथावत् निर्णय होता है।' इस कार आगम प्रमाण समाप्त हुआ।