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न्याय-दीपिका
कथंचित् एक ही है, अनेक नहीं है। तथा पर्यायरूप से—अवान्तरसत्तासामान्यरूप विशेषों की अपेक्षा से वस्तु कथंचित् नाना (अनेक) ही है, एक नहीं है । तात्पर्य यह है कि तत्तत् नयाभिप्राय से ब्रह्म
वाद ( सत्तावाद ) और क्षणिकवाद का प्रतिपादन भी ठीक है। यही 5 प्राचार्य समन्तभद्र स्वामी ने भी निरूपण किया है कि "हे जिन !
आपके मत में अनेकान्त भी प्रमाण और नय से अनेकान्तरूप सिद्ध होता है, क्योंकि प्रमाण की अपेक्षा अनेकान्तरूप है और अर्पित नयको अपेक्षा एकान्तरूप है।
अनियत अनेक धर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला प्रमाण 10 है और नियत एक धर्मविशिष्ट वस्तु को विषय करने वाला नय
है। यदि इस जैन-सरणि-जैनमत की नय-विवक्षा को न मानकर सर्वथा एक ही अद्वितीय ब्रह्म है, अनेक कोई नहीं है, कथञ्चित्किसी एक अपेक्षा से भी अनेक नहीं है, यह आग्रह किया जाय
सर्वथा एकान्त माना जाय तो यह अर्थाभास है-मिथ्या अर्थ है 15 और इस अर्थ का कथन करने वाला वचन भी अागमाभास है, क्यों
कि वह प्रत्यक्ष से और 'सत्य भिन्न है तत्त्व भिन्न' है इस पागम से बाधितविषय है। इसी प्रकार 'सर्वथा भेद ही है, कथञ्चित् भी अभेद नहीं है' ऐसा कथन भी वैसा ही समझना चाहिए। अर्थात्
सर्वथा भेद ( अनेक ) का मानना भी अर्थाभास है और उसका 20 प्रतिपादक वचन भी भागमाभास है। क्योंकि सद्रूप से भी भेद मानने
पर असत् का प्रसङ्ग पायेगा और उसमें अर्थक्रिया नहीं बन, सकती है।
शङ्का-एक एक अभिप्राय के विषयरूप से भिन्न भिन्न सिद्ध होने वाले और परस्पर में साहचर्य की अपेक्षा न रखने पर मिथ्या 25 भूत हुये एकत्व, अनेकत्व आदि धर्मों का साहचर्यरूप समूह, भी
सहा