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सम्पादकीय
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प-यह पं. परमानन्दजीकी प्रति है । जो १६।। पत्रों में समाप्त है। वि. सं. १६५७ में सीताराम शास्त्रीकी लिखी हुई है। इसकी प संज्ञा रक्खी है।
ये चारों प्रतियाँ प्रायः पुष्ट कागज़ पर हैं और अच्छी दशामें हैं । प्रस्तुत संस्करणको आवश्यकता और विशेषताएँ . पहिले संस्करण अधिकांश स्खलित और अशुद्ध थे तथा न्यायदीपिका की लोकप्रियता उत्तरोत्तर वढ़ती जा रही थी। बंगाल संस्कृत एसोसिएशन कलकत्ताकी जैनन्यायप्रथमा परीक्षामें वह बहत समयसे निहित है। इधर माणिकचन्द परीक्षालय और महासभाके परीक्षालयमें भी विशारदपरीक्षा में सन्निविष्ट है । ऐसी हालतमें न्यायदीपिका जैसी सुन्दर रचनाके अनुरूप उसका शुद्ध एवं सर्वोपयोगो संस्करण निकालनेकी अतीव आवश्यकता थी। उसीकी पूर्तिका यह प्रस्तुत प्रयत्न है। मैं नहीं कह सकता कि कहाँ तक इसमें सफल हुअा हूँ फिर भी मुझे इतना विश्वास है कि इसमें अनेकोंको लाभ पहुँचेगा और जैन पाठशालाओंके अध्यापकोंके लिये बड़ी सहायक होगी। क्योंकि इसमें कई विशेषताएँ हैं।
पहली विशेषता तो यह है कि मूलग्रन्थको शुद्ध किया गया है। प्राप्त सभी प्रतियोंके आधारसे अशुद्धियोंको दूर करके सबसे अधिक शुद्ध पाठको मूलमें रखा है और दूसरी प्रतियों के पाठान्तरोंको नीचे द्वितीय फुटनोटमें जहाँ आवश्यक मालूम हुआ दे दिया है। जिससे पाठकोंको शुद्धि अशुद्धि ज्ञात हो सके। देहलीकी प्रतिको हमने सबसे ज्यादा प्रमाणभूत और शुद्ध समझा है। इसलिये उसे आदर्श मानकर मुख्यतया उसके ही पाठोंको प्रथम स्थान दिया है । इसलिये मूलग्रन्थको अधिकसे अधिक शुद्ध बनानेका यथेष्ट प्रयत्न किया गया है । अवतरण वाक्योंके स्थानको भी ढूंढ़कर [ ] ऐसे ब्रैकेटमें दे दिया है अथवा खाली छोड़ दिया है।
दूसरी विशेषता यह है कि न्यायदीपिकाके कठिन स्थलोंका खुलासा करनेवाले विवरणात्मक एवं संकलनात्मक 'प्रकाशाख्य' संस्कृतटिप्पणीकी साथमें योजना की गई है जो विद्वानों और छात्रों के लिये खास उपयोगी सिद्ध होगा :