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________________ पहला प्रकाश १४५ विरुद्ध अनेक पक्षोंका श्रवगाहन करनेवाले ज्ञानको संशय कहते हैं। जैसे—यह स्थाणु ( इंठ ) है या पुरुष है ? यहाँ 'स्थाणुत्व, स्थाणुत्वाभाव, पुरुषत्व और पुरुषत्वाभाव' इन चार अथवा 'स्याणुत्व और पुरुषत्व' इन दो पक्षोंका अवगाहन होता है । प्रायः संध्या श्रादिके समय मन्द प्रकाश होनेके कारण दूरसे मात्र स्थाणु और पुरुष दोनों में सामान्यरूपसे रहनेवाले ऊँचाई आदि साधारण धर्मोके देखने और स्थाणुगत टेढ़ापन, कोटरत्व आदि तथा पुरुषगत शिर, पैर आदि विशेष धर्मोके साधक प्रमाणोंका प्रभाव होनेसे नाना कोटियोंको अवगाहन करनेवाला यह संशय ज्ञान होता है । विपरीत एक पक्षका निश्चय करनेवाले ज्ञानको विपर्यय कहते हैं । जैसे - सीपमें 'यह चांदी है' इस प्रकारका ज्ञान होना । इस ज्ञान में सदृशता आदि कारणोंसे सीपसे विपरीत चाँदीमें निश्चय होता है । अतः सीपमें सीपका ज्ञान न करनेवाला और चाँदीका निश्चय करनेवाला यह ज्ञान विपर्यय माना गया है । 'क्या है' इस प्रकारके श्रनिश्चयरूप सामान्य ज्ञानको अनध्यव - साथ कहते हैं । जैसे—मार्ग में चलते हुए तृण, कंटक श्रादिके स्पर्श हो जानेपर ऐसा ज्ञान होना कि 'यह क्या है ।' यह ज्ञान नाना पक्षोंका अवगाहन न करनेसे न संशय है और विपरीत एक पक्षका निश्चय न करने से न विपर्यय है । इसलिए उक्त दोनों ज्ञानोंसे यह 20 ज्ञान पृथक ही है । न ये तीनों ज्ञान उत्पन्न न करनेके श्रतः 'सम्यक्' पदसे 'ज्ञान' पदसे प्रमाता, वृत्ति हो जाती है । अपने गृहीत विषयमें प्रमिति - यथार्थताको कारण प्रमाण हैं, सम्यग्ज्ञान नहीं हैं । इनका व्यवच्छेद हो जाता है । और प्रमिति और 'च' शब्दसे प्रमेयकी व्यायद्यपि निर्दोष होनेके कारण 'सम्यक्त्व' 5 10 15 25
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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