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________________ १४४ न्याय-दीपिका कहते अथव प्रायः स्थाण साध तथा अभा ज्ञान है। इस तरह असाधारण धर्म को लक्षण कहने में असम्भव, अव्याप्ति गौर अतिव्याप्ति ये तीनों ही दोष आते हैं। अतः पूर्वोक्त (मिली इई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु के अलग करानेवाले इतुको लक्षण कहते हैं ) ही लक्षण ठीक है। उसका कथन करना क्षण-निर्देश है। विरोधी नाना युक्तियों की प्रबलता और दुर्बलता का निर्णय करने के लए प्रवृत्त हुए विचार को परीक्षा कहते हैं । वह परीक्षा 'यदि ऐसा हो तो ऐसा होना चाहिए और यदि ऐसा हो तो ऐसा नहीं होना चाहिए' इस प्रकार से प्रवृत्त होती है। प्रमाण के सामान्य लक्षण का कथनप्रमाण और नयका भी उद्देश सूत्र ('प्रमाणनयैरधिगमः') में ही किया या है। अब उनका लक्षण -निर्देश करना चाहिए। और परीक्षा यथा(सर होगी। 'उद्देश के अनुसार लक्षण का कथन होता है' इस न्याय के नुसार प्रधान होने के कारण प्रथमतः उद्दिष्ट प्रमाण का पहले लक्षण कया जाता है। 'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' अर्थात्-सच्चे ज्ञान को प्रमाण कहते '—जो ज्ञान यथार्थ है वही प्रमाण है । यहां 'प्रमाण' लक्ष्य है। योंकि उसका लक्षण किया जा रहा है और 'सम्यग्ज्ञानत्व' (सच्चा निपना ) उसका लक्षण है ; क्योंकि वह 'प्रमाण' को प्रमाणभिन्न दार्थों से व्यावृत्त कराता है। गाय का जैसे 'सास्नादि' और ग्नि का जैसे 'उष्णता' लक्षण प्रसिद्ध है। यहां प्रमाण के लक्षण में तो 'सम्यक्' पद का निवेश किया गया है वह संशय, विपर्यय और नध्यवसाय के निराकरण के लिए किया है; क्योंकि ये तीनों 'न अप्रमाण हैं—मिथ्याज्ञान हैं। इसका खुलासा निम्न प्रकार जैसेसदृश अतः यह ज्ञ साय हो जा निश्चर ज्ञान ६ उत्पन्न अतः वृत्ति
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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