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________________ १४६ न्याय-दीपिका उनमें भी है, परन्तु 'ज्ञानत्व' (ज्ञानपना) उनमें नहीं है। इस तरह प्रमाणके लक्षणमें दिये गये 'सम्यक्' और 'ज्ञान' ये दोनों पद सार्थक हैं। शङ्का-प्रमाता प्रमितिको करनेवाला है। अतः वह ज्ञाता ही है, 5 ज्ञानरूप नहीं हो सकता। इसलिए ज्ञान पदसे प्रमाताकी तो व्यावृत्ति हो सकती है। परन्तु प्रमिति की व्यावृत्ति नहीं हो सकती । कारण, प्रमिति भी सम्यग्ज्ञान है। समाधान—यह कहना उस हालतमें ठीक है जब ज्ञान पद यहाँ भावसाधन हो। पर 'ज्ञायतेऽनेनेति ज्ञानम्' अर्थात् जिसके द्वारा जाना 10 जावे वह ज्ञान है। इस प्रकारको व्युत्पत्तिको लेकर ज्ञान पद करण साधन इष्ट है। 'करणाधारे चानट्' [१-३-११२] इस जैनेन्द्रव्याकरणके सूत्रके अनुसार करणमें भी 'अनट्' प्रत्ययका विधान है। भावसाधनमें ज्ञानपदका अर्थ प्रमिति होता है। और भावसाधनसे करणसाधन पद भिन्न है। फलितार्थ यह हुआ कि प्रमाणके लक्षणमें 15 ज्ञान पद करणसाधन विवक्षित है, भावसाधन नहीं। अतः ज्ञान पदसे प्रमितिकी व्यावृत्ति हो सकती है। इसी प्रकार प्रमाणपद भी 'प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणम्' इस व्युत्पत्तिको लेकर करणसाधन करना चाहिए। अन्यथा 'सम्यग ज्ञानं प्रमाणम्' यहाँ करणसाधनरूपसे प्रयुक्त 'सम्यग्ज्ञान' पदके 20 साथ 'प्रमाण' पदका एकार्थप्रतिपादकत्वरूप समानाधिकरण्य नहीं बन सकेगा। तात्पर्य यह कि 'प्रमाण' पदको करणसाधन न मानने पर और भावसाधन मानने पर 'प्रमाण' पदका अर्थ प्रमिति होगा और 'सम्यग्ज्ञान' पदका अथं प्रमाणज्ञान होगा और ऐसी हालतमें दोनों पदोंका प्रतिपाद्म अर्थ भिन्न-भिन्न होनेसे 25 शाब्द सामानाधिकरण्य नहीं बन सकता। अतः 'प्रमाण' पदको करणसाधन करना चाहिए। इससे यह बात सिद्ध हो गई कि
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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