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________________ प्रस्तावना .३३ परोक्ष ही कहा गया है। जैनदर्शन में संव्याहारिक प्रत्यक्षके जो मतिज्ञानरूप है, भेद और प्रभेद सब मिलकर ३३६ बताये गए हैं । जिन्हें एक नक्शेके द्वारा पहले बता दिया गया है । १२. मुख्य प्रत्यक्ष - दार्शनिक जगतमें प्रायः सभीने एक ऐसे प्रत्यक्षको स्वीकार किया है, जो लौकिक प्रत्यक्षसे भिन्न है और जिसे अलौकिक प्रत्यक्ष', योगिप्रत्यक्ष' या योगिज्ञानके नामसे कहा गया है । यद्यपि किसी किसीने इस प्रत्यक्षमें मनकी अपेक्षा भी वर्णित की है तथापि योगजधर्मका प्रामुख्य होनेके कारण उसे ग्रलौकिक ही कहा गया है। कुछ ही हो, यह अवश्य है कि आत्मामें एक अतीन्द्रिय ज्ञान भी सम्भव है । जैनदर्शन में ऐसे ही आत्ममात्र सापेक्ष साक्षात्मक प्रतीन्द्रिय ज्ञानको मुख्य प्रत्यक्ष या पारमार्थिक प्रत्यक्ष माना गया है और जिस प्रकार दूसरे दर्शनोंमें अलौकिक प्रत्यक्षके भी परिचित्तज्ञान, तारक, कैवल्य या युक्त, युञ्जान आदिरूपसे भेद पाये जाते हैं उसी प्रकार जैनदर्शनमें भी विकल, सकल अथवा अवधि, मनः पर्वय और केवलज्ञान रूपसे मुख्यप्रत्यक्षके भी भेद वर्णित किये गये हैं । विशेष यह कि नैयायिक और वैशेषिक प्रत्यक्षज्ञानको अतीन्द्रिय मानकर भी उसका अस्तित्व केवल नित्यज्ञानाधिकरण ईश्वरमें ही बतलाते हैं। पर जैनदर्शन प्रत्येक आत्मामें उसका सम्भव प्रतिपादन करता है और उसे विशिष्ट ग्रात्मशुद्धिसे पैदा होनेवाला बतलाता है । ग्रा० धर्मभूषणने भी अनेक युक्तियों के साथ ऐसे ज्ञानका उपपादन एवं समर्थन किया है । १२. सर्वज्ञता भारतीय दर्शनशास्त्रोंमें सर्वज्ञतापर बहुत ही व्यापक और विस्तृत १ “एवं प्रत्यक्षं लौकिकालौकिकभेदेन द्विविधम् ।"- सिद्धान्तमु० पृ० ४७ । २ “भूतार्थभावनाप्रकर्षपर्यन्तजं योगिप्रत्यक्षम् ।" - न्यायविन्दु पृ० २० |
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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