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न्याय-दीपिका
विचार किया गया है । चार्वाक और मीमांसक ये दो ही दर्शन ऐसे है जो सर्वज्ञता का निषेध करते हैं। शेष सभी न्याय-वैशेषिक, योग-सांख्य, वेदान्त, बौद्ध और जैन दर्शन सर्वज्ञताका स्पष्ट विधान करते हैं । चार्वाक इन्द्रियगोचर, भौतिक पदार्थोंका ही अस्तित्व स्वीकार करते हैं, उनके मतमें परलोक, पुण्यपाप आदि अतीन्द्रिय पदार्थ नहीं हैं। भूतचैतन्यके अलावा कोई नित्य अतीन्द्रिय आत्मा भी नहीं है । अत: चार्वाक दर्शनमें अतीन्द्रियार्थदर्शी सर्वज्ञ आत्माका सम्भव नहीं है। मीमांसक परलोक, पुण्य-पाप, नित्य आत्मा आदि अतीन्द्रिय पदार्थोंको मानते अवश्य हैं पर उनका कहना है कि धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थो का ज्ञान वेदके द्वारा ही हो सकता है । पुरुष तो रागादिदोषोंसे युक्त हैं । चूकि रागादिदोष स्वाभाविक हैं और इसलिए वे आत्मा से कभी नहीं छूट सकते हैं । अतएव रागादि दोषोंके सर्वदा बने रहनेके कारण प्रत्यक्षसे धर्माधर्मादि अतीन्द्रिय पदार्थोंका यथार्थ ज्ञान होना सर्वथा असम्भव है। न्याय-वैशेषिक ईश्वरमें सर्वज्ञत्व माननेके अतिरिक्त दूसरे योगी आत्माओं में भी स्वीकार करते हैं । परन्तु उनका वह सर्वज्ञत्व मोक्ष-प्राप्तिके बाद नष्ट हो जाता है । क्योंकि वह योगजन्य होनेसे अनित्य है । हाँ, ईश्वरका सर्वज्ञत्व नित्य एवं शाश्वत है। प्रायः यही मान्यता सांख्य, योग और वेदान्तकी है। इतनी विशेषता है कि वे अात्मामें सर्वज्ञत्व न मानकर बुद्धितत्त्वमें ही सर्वज्ञत्व मानते हैं जो मुक्त अवस्था में छूट जाता है ।
१ "चोदना हि भूतं भवन्तं भविष्यन्तं सूक्ष्मं व्यवहितं विप्रकृष्टमित्येवं जातीयकमर्थमवगमयितुमलम्, नान्यत् किञ्चनेन्द्रियम् ।"-शावरभा० १-१-२ । २ “अस्मद्विशिष्टानां तु योगिनां युक्तानां योगजधर्मानुगृहीतेन मनसा स्वात्मान्तराकाशदिक्कालपरमाणुवायुमनस्सु तत्समवेतगुणकर्मसामान्यविशेषेषु समवाये चावितथं स्वरूपदर्शनमुत्पद्यते । वियुक्तानां पुनः...।"-प्रशस्तपा० भा० पृ० १८७ ।