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न्याय-दीपिका
शाब्द सामानाधिकरण्य है। यहाँ 'जीवः' लक्ष्यवचन है; क्योंकि जीवका लक्षण किया जा रहा है। और 'ज्ञानी' लक्षणवचन है। क्योंकि वह जीव को अन्य अजीवादि पदार्थों से ब्यावृत्त कराता है । 'ज्ञानवान्
जीव है' इसमें किसी को विवाद नहीं है। अब यहाँ देखेंगे कि 5 'जीवः' शब्द का जो अर्थ है वही 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है। और
जो 'ज्ञानी' शब्द का अर्थ है वही 'जीवः' शब्द का है। अतः दोनोंका वाच्यार्थ एक है। जिन दो शब्दों-पदों का वाच्यार्थ एक होता है उनमें शाब्दसामानाधिकरण्य होता है। जैसे 'नीलं कमलम्' यहाँ
स्पष्ट है। इस तरह 'ज्ञानी' लक्षणवचन में और 'जीवः' लक्ष्यवचन10 में एकार्थप्रतिपादकत्वरूप शाब्दसामानाधिकरण्य सिद्ध है। इसी प्रकार
'सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्' यहाँ भी जानना चाहिए। इस प्रकार जहाँ कहीं भी निर्दोष लक्ष्यलक्षणभाव किया जावेगा वहाँ सब जगह शाब्दसामानाधिकरण्य पाया जायगा । इस नियम के अनुसार
'असाधारणधर्मवचनं लक्षणम्' यहाँ असाधारणधर्म जब लक्षण होगा 15 तो लक्ष्य धर्मों होगा और लक्षणव वन धर्मीवचन तथा लक्ष्यवचन
धर्मीवचन माना जायगा । किन्तु लक्ष्यरूप धर्मीवचन का और लक्षणरूप धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ एक नहीं है । धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ तो धर्म है और धर्मवचन का प्रतिपाद्य अर्थ
धर्मी है। ऐसी हालत में दोनों का प्रतिपाद्य अर्थ भिन्न भिन्न होने से 20 धर्मारूप लक्ष्यवचन और धर्मरूप लक्षणवचन में एकार्थप्रतिपाद
कत्वरूप सामानाधिकरण्य सम्भव नहीं है और इसलिए उक्त प्रकार का लक्षण करने में शाब्दसामानाधिकरण्याभावप्रयुक्त असम्भव दोष प्राता है।
अव्याप्ति दोष भी इस लक्षण में आता है। दण्डादि असाधा5 रण धर्म नहीं हैं, फिर भी वे पुरुष के लक्षण होते हैं। अग्नि की
उष्णता, जीव का ज्ञान आदि जैसे अपने लक्ष्य में मिले हुए होते