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तीसरा प्रकाश
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विषय में तो प्रश्न के अनुसार गौणरूप से होती है। सिद्ध परमेष्ठी ऐसे नहीं हैं-वे निःश्रेयस का न तो मुख्यरूप से उपदेश देते हैं
और न गौणरूप से, क्योंकि वे अनुपदेशक हैं। इसलिए ‘परमहितोपदेशी' विशेषण कहने से उनमें अतिव्याप्ति नहीं होती । प्राप्त के सद्भाव में प्रमाण पहले ही ( द्वितीय प्रकाशमें ) प्रस्तुत कर 5 आये हैं। नैयायिक श्रादि के द्वारा माने गये 'प्राप्त' सर्वज्ञ न होने से प्राप्ताभास हैं—सच्चे प्राप्त नहीं हैं । अतः उनका व्यवच्छेद (निराकरण) 'प्रत्यक्षज्ञान से सम्पूर्ण पदार्थों का ज्ञाता' इस विशेषण से ही हो जाता है।
शङ्का-नैयायिकों के द्वारा माना गया प्राप्त क्यों सर्वज्ञ 10 नहीं है ?
समाधान-नैयायिकों ने जिसे प्राप्त माना है वह अपने ज्ञान का ज्ञाता नहीं हैं, क्योंकि उनके यहाँ ज्ञान को अस्वसंवेदी-ज्ञानान्तरवेद्य माना गया है। दूसरी बात यह है कि उसके एक ही ज्ञान है उसको जानने वाला ज्ञानान्तर भी नहीं है। अन्यथा उनके अभिमत प्राप्त में 15 दो ज्ञानों के सद्भाव का प्रसङ्ग आयेगा और दो ज्ञान एक साथ हो नहीं सकते, क्योंकि सजातीय दो गुण एक साथ नहीं रहते ऐसा नियम है। अतः जब वह विशेषणभूत अपने ज्ञान को ही नहीं जानता है तो उस ज्ञानविशिष्ट प्रात्मा को ( अपने को ) कि 'मैं सर्वज्ञ हूँ" ऐसा कैसे जान सकता है ? इस प्रकार जब वह अनात्मज्ञ है तब 20 असर्वज्ञ ही है-सर्वज्ञ नहीं है। और सुगतादिक सच्चे प्राप्त नहीं हैं, इसका विस्तृत निरूपण आप्तमीमांसाविवरण–अष्टशती में श्रीप्रकलङ्कदेव ने तथा अष्टसहस्री में श्रीविद्यानन्द स्वामी ने किया है। अत. यहाँ और अधिक विस्तार नहीं किया गया । वाक्य का