________________
२१८
न्याय-दीपिका अर्थात्-प्रयोजनार्थक है, क्योंकि 'अर्थ ही–तात्पर्य ही वचनों में है' ऐसा प्राचार्यवचन है। मतलब यह कि यहां 'अर्थ' पद का अर्थ तात्पर्य विवक्षित है, क्योंकि वचनों में तात्पर्य ही होता है।
इस तरह प्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थ (तात्पर्य) ज्ञान को जो 5 आगम का लक्षण कहा गया है वह पूर्ण निर्दोष है । जैसे
"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" [त० सू० १-१] 'सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों की एकता ( सहभाव ) मोक्ष का मार्ग है' इत्यादि वाक्यार्थज्ञान । सम्यग्दर्शनादिक सम्पूर्ण कर्मों के क्षयरूप मोक्ष का मार्ग अर्थात् उपाय है-न कि 'मार्ग हैं'। ) अतएव भिन्न भिन्न लक्षण वाले सम्यग्दर्शनादि तीनों मिलकर
ही मोक्ष का मार्ग हैं, एक एक नहीं, ऐसा अर्थ 'मार्गः' इस एक वचन के प्रयोग के तात्पर्य से सिद्ध होता है। यही उक्त वाक्य का अर्थ है। और इसी अर्थ में प्रमाण से संशयादिक की निवृत्तिरूप प्रमिति होती है।
प्राप्त का लक्षण
प्राप्त किसे कहते हैं ? जो प्रत्यक्षज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता (सर्वज्ञ) है और परमहितोपवेशी है वह प्राप्त है। 'समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इत्यादि ही प्राप्त का लक्षण कहने पर श्रुतकेवलियों में अतिव्याप्ति होती है, क्योंकि वे आगम से समस्त पदार्थोंको जानते हैं । इसलिए 'प्रत्यक्षज्ञान से यह विशेषण दिया है। 'प्रत्यक्ष ज्ञान से समस्त पदार्थों का ज्ञाता' इतना ही प्राप्त का लक्षण करने पर सिद्धों में अतिव्याप्ति है, क्योंकि वे भी प्रत्यक्षज्ञान से ही सम्पूर्ण पदार्थों के ज्ञाता हैं, अतः 'परमहितोपदेशी' यह विशेषण कहा है। परम-हित निश्रेयस-मोक्ष है और उस मोक्ष के उपदेश में ही अरहन्त की मुख्यरूप से प्रवृत्ति होती है, अन्य
सिद्धों में अतिझाता हैं, अता है और उस है, अन