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________________ तीसरा प्रकाश २१७ विस्तार से किया गया है। अतः विराम लेते हैं-उसका पुनः खण्डन यहाँ नहीं किया जाता है। हा उपनय, निगमन और उपनयाभास तथा निगमनाभास के लक्षण साधनवान् रूप से पक्ष की दृष्टान्त के साथ साम्यता का कथन 5 करना उपनय है। जैसे-इसीलिए यह धूम वाला है। साधन को दोहराते हुए साध्य के निश्चयरूप वचन को निगमन कहते हैं। जैसे-धूम वाला होने से यह अग्नि वाला ही है । इन दोनों का अयथाक्रम से-उपनय की जगह निगमन और निगमन की जगह उपनय का-कथन करना उपनयाभास और निगमनाभास हैं। अनुमान प्रमाण 10 समाप्त हुआ। पागम प्रमाण का लक्षणप्राप्त के वचनों से होने वाले अर्थज्ञान को प्रागम कहते हैं । यहाँ 'पागम' यह लक्ष्य है और शेष उसका लक्षण है। 'अर्थज्ञान को पागम कहते हैं' इतना ही यदि आगम का लक्षण कहा जाय 15 तो प्रत्यक्षादिक में अतिव्याप्ति है, क्योंकि प्रत्यक्षादिक भी अर्थज्ञान हैं। इसलिए 'वचनों से होने वाले' यह पद-विशेषण दिया है। 'वचनों से होने वाले' अर्थज्ञान को प्रागम का लक्षण कहने में भी स्वेच्छापूर्वक ( जिस किसी के ) कहे हुए भ्रमजनक वचनों से होने वाले अथवा सोये हुए पुरुष के और पागल आदि के वाक्यों से 20 होने वाले 'नदी के किनारे फल हैं' इत्यादि ज्ञानों में अतिव्याप्ति है, इसलिए 'प्राप्त' यह विशेषण दिया है। प्राप्त के वचनों से होने वाले ज्ञान को' आगम का लक्षण कहने में भी प्राप्त के वाक्यों को सुनकर जो श्रावण प्रत्यक्ष होता है उसमें लक्षण की अतिव्याप्ति है, अतः 'अर्थ' यह पद दिया है। 'अर्थ' पद तात्पर्य में रूढ है। 25
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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