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प्रस्तावना
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उनमें प्रामाण्य और अप्रामाण्य दोनों स्वीकार किया है। क्षणभेददष्टा (योगी) की अपेक्षासे प्रमाणता और क्षणभेद अदृष्टा व्यावहारिक पुरुषों की अपेक्षासे अप्रमाणता वणित की है। * जैनपरम्पराके श्वेताम्बर ताकिकोंने धारावाहिक ज्ञानोंको प्रायः प्रमाण ही माना है उन्हें अप्रमाण नहीं कहा है। किन्तु अकलङ्क और उनके उत्तरवर्ती सभी दिगम्बर आचार्योंने अप्रमाण बतलाया है। और इसीलिए प्रमाणके लक्षणमें अनधिगत या अपूर्वार्थ विशेषण दिया है । विद्यानन्दका कुछ झुकाव अवश्य उन्हें प्रमाण कहनेका प्रतीत होता है। परन्तु जब वे सर्वथा अपूर्वार्थत्वका विरोध करके कथंचित् अपूर्वार्थ स्वीकार कर लेते हैं तब यही मालूम होता है कि उन्हेंभी धारावाहिक ज्ञानोंमें अप्रामाण्य इष्ट है । दूसरे, उन्होंने परिच्छत्तिविशेषके अभावमें जिस प्रकार प्रमाणसम्प्लव स्वीकार नहीं किया है, उसी प्रकार प्रमितिविशेषके अभावमें धारावाहिक ज्ञानोंको अप्रमाण माननेकाभी उनका अभिप्राय स्पस्ट मालूम होता है। अतः धारावाहिक ज्ञानोंसे यदि प्रमितिविशेष उत्पन्न नहीं होती है
इति प्रमाणसंप्लववादी दर्शयन्नाह पूर्वप्रत्यक्षेण इत्यादि । एतत् परिहरति -तद् यदि प्रतिक्षणं क्षणविवेकदशिनोऽधिकृत्योच्यते तदा भिन्नोपयोगितया प्रथक प्रामाण्यात् नानेकान्तः । अथ सर्वपदार्थष्वेकत्वाध्यवसायिनः सांव्यवहारिकान् पुरुषानभिप्रेत्योच्यते तदा सकलमेव नीलसन्तानमेकमर्थं स्थिररूपं तत्साध्यां चार्थक्रियामेकात्मिकामध्यवस्यन्तीति प्रामाण्यमप्पुत्तरेबामनिष्टमेवेति कुतोऽनेकान्तः ?" हेतुबिन्दुटी० लि० पृ० ३६ BI
१ "गृहीतमगृहीतं वा स्वार्थ यदि व्यवस्यति । तन्न लोके न शास्त्रेषु विजहाति प्रमाणताम् ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४ । २ “उपयोगविशेषस्याभावे प्रमाणसम्प्लवस्यानभ्युपगमात् । सति हि प्रतिपत्तुरुपयोगविशेषे देशादिविशेषसमवधानादागमात्प्रतिपन्नमपि हिरण्यरेतसं स पुनरुतुमानाप्रतिपित्सते ।”—अष्टस० पृ० ४ ।