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________________ न्याय-दीपिका प्रमाण ही हैं । भाट्टोंका मत है कि उनमें सूक्ष्म काल-भेद है। अतएव वे अनधिगत सूक्ष्म काल-भेदको ग्रहण करनेसे प्रमाण हैं । प्रभाकर मतवाले कहते हैं कि कालभेदका भान होना तो शक्य नहीं है क्योंकि वह अत्यन्त सूक्ष्म है। परन्तु हाँ, पूर्वज्ञान से उत्तरज्ञानों में कुछ अतिशय (वैशिष्ठ्य ) देखने में नहीं आता। जिस प्रकार पहले ज्ञानका अनुभव होता है उसी प्रकार उत्तर ज्ञानोंका भी अनुभव होता है। इसलिए धारावाहिक ज्ञानोंमें प्रथम ज्ञानसे न तो उत्पत्तिकी अपेक्षा कोई विशेषता है और न प्रतीतिकी अपेक्षासे है । अतः वे भी प्रथम जानकी ही तरह प्रमाण हैं । ___ बौद्धदर्शनमें यद्यपि अनधिगतार्थक ज्ञानको ही प्रमाण माना है और इसलिए अधिगतार्थक धारावाहिक ज्ञानोंमें स्वतः अप्रामाण्य ख्यापित हो जाता है तथापि धर्मकीर्तिके टीकाकार अर्चटने पुरुषभेदकी अपेक्षासे लोकसिद्धप्रमाणभावानां प्रामाण्यं विहन्तीति नाद्रियामहे ।....."तस्मादर्थप्रदर्शनमात्रव्यापारमेव ज्ञानं प्रवर्तकं प्रापकं च । प्रदर्शनं च पूर्ववदुत्तरेषामपि विज्ञानानामभिन्नमिति कथं पूर्वमेव प्रमाणं नोत्तराण्यपि।"न्यायवा० तात्पर्य० पृ० २१ । १ "धारावाहिककेष्वप्युत्तरोत्तरेषां कालान्तरसम्बन्धस्यागृहीतस्य ग्रहणाद् युक्तं प्रामाण्यम् । तस्मादस्ति कालभेदस्य परामर्शः। तदाधिक्याच्च सिद्धमुत्तरेषां प्रामाण्यम् ।”- शास्त्रदी० पृ० १२४-१२६ । २ “सन्नपि कालभेदोऽतिसूक्ष्मत्वान्न परामृष्यत इति चेत् ; अहो सूक्ष्मदर्शी देवानांप्रियः !"- (शास्त्रदी० पृ० १२५) [अत्र पूर्वपक्षेणोल्लेख:] "व्याप्रियमाणे हि पूर्वविज्ञानकारणकलापे उत्तरेषामप्युत्पत्तिरिति न प्रतीतित उत्पत्तितो वा धारावाहिकविज्ञानानि परस्परस्यातिशेरते इति युक्ता सर्वेषामपि प्रमाणता ।"-प्रकरणपं० पृ० ४३ । ३ “यदैकस्मिन्नेव नीलादिवस्तुनि धारावाहीतीन्द्रियज्ञानान्युत्पद्यन्ते तदा पूर्वेणाभिन्नयोगक्षेमत्वात उत्तरेषामिन्द्रियज्ञानानामप्रामाण्यप्रसङ्गः । न चैवम् अतोऽनेकान्त
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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