SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 55
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना १७ का उन्होंने स्पष्टतया समर्थन किया है। सामान्यतया प्रमाणलक्षण में अपूर्व पदको न रखनेका तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्ष तो अपुर्वार्थग्राही होता ही है और अनुमानादि प्रत्यक्ष से अगृहीत धर्माशोंमें प्रवृत्त होनेसे अपूर्वार्थग्राहक सिद्ध हो जाते हैं । यदि विद्यानन्द को स्मृत्यादिक अपूर्वार्थविषयक इष्ट न होते तो उनकी प्रमाणता में प्रयोजक अपूर्वार्थताको वे कदापि न बतलाते । इससे स्पष्ट है कि विद्यानन्द भी प्रमाणको अपूर्वार्थग्राही मानते हैं। इस तरह समन्तभद्र और अकलङ्कदेव का प्रमाणसामान्यलक्षण ही उत्तरवर्ती जैन तार्किकोंके लिए आधार हुआ है । प्रा० धर्मभूषणने न्यायदीपिकामें विद्यानन्दके द्वारा स्वीकृत 'सम्यग्ज्ञानत्व' रूप प्रमाणके सामान्यलक्षणको ही अपनाया है और उसे अपनी पूर्वपरम्परानुसार सविकल्पक अगृहीतग्राही एवं स्वार्थव्यवसायात्मक सिद्ध किया है तथा धर्मकीर्ति प्रभाकर, भाट्ट और नैयायिकौंके प्रमाणसामान्यलक्षणों की आलोचना की है। ५. धारावाहिक ज्ञान दार्शनिक ग्रन्थों में धारावाहिक ज्ञानोंके प्रामाण्य और अप्रमाण्यकी विस्तृत चर्चा पायी जाती है। न्याय-वैशेषिक और मीमांसक उन्हें प्रमाण मानते हैं। पर उनकी प्रमाणताका समर्थन वे अलग-अलग ढंगसे करते हैं। न्याय-वैशेषिकोंका' कहना है कि उनसे परिच्छित्ति होती है और लोकमें वे प्रमाण भी माने जाते हैं। अतः वे गृहीतग्राही होने पर भी त्वेऽपि प्रत्यभिज्ञातस्य तद्विषयस्य नाप्रमाणत्वं लैंगिकादेरप्यप्रमाणत्वप्रसंगात् । तस्यापि सर्वथैवापूर्वार्थत्वासिद्धेः ।”—प्रमाणप० पृ० ७० । "स्मृतिः प्रमाणान्तरमुक्तं नचासावप्रमाणमेव सवादकत्वात् कथञ्चिदएकत्र हित्वात् ..."-प्रमाणप० पृ० ६७ । “गृहीतग्रहणात्तर्कोऽप्रमाणमिति चेन्न वै । तस्यापूर्वार्थवेदित्वादुपयोगविशेषतः ।।"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १६५ । १ "अनधिगतार्थगन्तृत्व च धारावाहिकज्ञानानामधिगतगोचराणां
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy