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________________ १६ न्याय-दीपिका 'अविसंवादि' पदको भी रखा है। ये पद कुमारिल तथा धर्मकीर्ति से आये हुए मालूम होते हैं; क्योंकि उनके प्रमाणलक्षणोंमें वे पहलेसे ही विहित हैं । अकलङ्कदेवके उत्तरवर्ती माणिक्यनन्दिने अकलङ्कदेवके 'अनधिगत' पदके स्थानमें कुमारिलोक्त 'अपूर्वार्थ' और आत्मा' पदके स्थानमें समन्तभद्रोक्त 'स्व' पदका निवेश करके 'स्वापूर्वार्थ' जैसा एक पद बना लिया है और 'व्यवसायात्मक' पदको ज्योंका त्यों अपनाकर स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं' यह प्रमाणसामान्यका लक्षण प्रकट किया है। विद्यानन्दने यद्यपि संक्षेपमें 'सम्यग्ज्ञान' को प्रमाण कहा है और पीछे उसे 'स्वार्थव्यवसायात्मक' सिद्ध किया है, अकलङ्क तथा माणिक्यनन्दिको तरह स्पष्ट तौर पर 'अनधिगत' या 'अपूर्व' विशेषण उन्होंने नहीं दिया, तथापि सम्यग्ज्ञानको अनधिगतार्थविषयक या अपूर्वार्थविषयक मानना उन्हें अनिष्ट नहीं है उन्होंने जो अपूर्वार्थका खण्डन किया है। वह कुमारिलके सर्वथा 'अपूर्वार्थ' का खण्डन हैं । कथंचिद् अपूर्वार्थ तो उन्हें अभिप्रेत है । अकलङ्कदेवकी तरह स्मृत्यादि प्रमाणोंमें अपूर्वार्थता १ "प्रमाणमविसंवादिज्ञानम्" अष्टश० का० ३६ । २ "स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् ।'–परीक्षामु० १-१ । ३ “सम्यग्ज्ञानं प्रमाणम्"-प्रमाणपरी० पृष्ट ५१ । ४ "किं पुनः सम्यग्ज्ञानं ? अभिधीयते-स्वार्थव्यवसायात्मकं सम्यग्ज्ञानं सम्यग्ज्ञानत्वात्..." -प्रमाणप० पृ० ५३ । ५ 'तत्स्वार्थव्यवसायात्मकज्ञानं मानमितीयुता लक्षणेन गतार्थत्वात् व्यर्थमन्यद्विशेषणम् ॥"-तत्त्वार्थश्लो० पृ० १७४ । ६ "सकलदेशकालव्याप्तसाध्यासाधनसम्बद्धोहापोहलक्षणो हि तर्कः प्रमाणयितव्यः, तस्य कथाञ्चिपूर्वार्थत्वात् ।” “नचैतद् गृहीतग्रहणादप्रमाणमिति शङ्कनीयम्, तस्य कथाञ्चिदपूर्वार्थत्वात् । न हि तद्विषयभूत मेकं द्रव्यं स्मृतिप्रत्यक्षग्राह्य येन तत्र प्रवर्त्तमानं प्रत्यभिज्ञानं गृहीतग्राहि ... मन्येत तद्गृहीतातीतवर्तमानविवर्त्ततादात्म्यात् द्रव्यस्य कथञ्चिदपूर्वार्थ
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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