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________________ तीसरा प्रकाश १८७ करना अनुमान का प्रयोजन है। केवल धर्म की सिद्धि तो व्याप्तिनिश्चय के समय में ही हो जाती है। कारण, जहाँ जहाँ धूम होता है वहाँ वहाँ अग्नि होती है' इस प्रकार की व्याप्ति के ग्रहण समय में साध्यधर्म-अग्नि ज्ञात हो ही जाती है। इसलिए केवल धर्म की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन नहीं है। किन्तु 'पर्वत अग्नि- 5 वाला है' अथवा 'रसोईशाला अग्निवाली है' इस प्रकार 'पर्वत' या 'रसोईशाला' में वृत्तिरूप से अग्नि का ज्ञान अनुमान से ही होता है। अतः आधारविशेष (पर्वतादिक) में रहने रूप से साध्य (अग्न्यादिक) की सिद्धि करना अनुमान का प्रयोजन है। इसलिए धर्मी भी स्वार्थानुमान का अङ्ग है। 10 अथवा स्वार्थानुमान के दो अङ्ग हैं-१ पक्ष और २ हेतु । क्योंकि साध्य-धर्म से युक्त धर्मों को पक्ष कहा गया है। इसलिए पक्ष के कहने से धर्म और धर्मी दोनों का ग्रहण हो जाता है। इस तरह स्वार्थानुमान के धर्मी, साध्य और साधन के भेद से तीन अङ्ग अथवा पक्ष और साधन के भेद से दो अङ्ग हैं, यह सिद्ध हो गया। 15 यहाँ दोनों जगह विवक्षा का भेद है। जब स्वार्थानुमान के तीन अङ्ग कथन किये जाते हैं तब धर्मी और धर्म के भेद की विवक्षा है और जब दो अङ्ग कहे जाते हैं तब धर्मी और धर्म के समुदाय की विवक्षा है। तात्पर्य यह कि स्वार्थानुमान के तीन या दो अङ्गों के कहने में कुछ भी विरोध अथवा अर्थभेद नहीं है । केवल कथन का 20 भेद है। उपर्युक्त यह धर्मी प्रसिद्ध ही होता है-अप्रसिद्ध नहीं। इसी बात को दूसरे विद्वानों ने कहा है--"प्रसिद्धो धर्मी' अर्थात्धमी प्रसिद्ध होता है। धर्मी की तीन प्रकार से प्रसिद्धि का निरूपणधर्मी की प्रसिद्धि कहीं तो प्रमाण से, कहीं विकल्प से और 25
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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