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________________ १८८ न्याय-दीपिका कहीं प्रमाण तथा विकल्प दोनों से होती है। प्रत्यक्षादिक प्रमाणों में से किसी एक प्रमाण से धर्मों का निश्चय होना 'प्रमाणसिद्ध धर्मी' है। जिसकी प्रमाणता या अप्रमाणता का निश्चय नहीं हुआ है ऐसे ज्ञान से जहाँ धर्मी की सिद्धि होती है उसे 'विकल्पसिद्ध धर्मी' कहते हैं। और 5 जहाँ प्रमाण तथा विकल्प दोनों से धर्मी का निर्णय किया जाता है वह 'प्रमाणविकल्पसिद्ध धर्मी' है। प्रमाणसिद्ध धर्मो का उदाहरण-'धूम से अग्नि की सिद्धि करने में पर्वत' है । क्योंकि वह प्रत्यक्ष से जाना जाता है। विकल्पसिद्ध धर्मी का उदाहरण इस प्रकार है-'सर्वज्ञ है, 10 क्योंकि उसके सद्भाव के बाधक प्रमाणों का अभाव अच्छी तरह निश्चित है, अर्थात्-उसके अस्तित्व का कोई बाधक प्रमाण नहीं है।' यहाँ सद्भाव सिद्ध करने में 'सर्वज्ञ' रूप धर्मी विकल्पसिद्ध धर्मी है। अथवा खिरविषाण नहीं है, क्योंकि उसको सिद्ध करने वाले प्रमाणों का अभाव निश्चित है' यहाँ अभाव सिद्ध करने में 'खरविषाण' ' 15 विकल्पसिद्ध धर्मी है । 'सर्वज्ञ' सद्भाव सिद्ध करने के पहले प्रत्यक्षादिक किसी भी प्रमाणसे सिद्ध नहीं है, किन्तु केवल प्रतीति (कल्पना) से सिद्ध है, इसलिए वह विकल्पसिद्ध धर्मी है। इसी प्रकार 'खरविषाण' असद्भाव सिद्ध करने के पहले केवल कल्पना से सिद्ध है, अतः वह भी विकल्पसिद्ध धर्मों है। 20 उभयसिद्ध धर्मों का उदाहरण-'शब्द परिणमनशील है, क्योंकि वह किया जाता है-तालु आदि की क्रिया से उत्पन्न होता है।' यहाँ शब्द है। कारण, वर्तमान शब्द तो प्रत्यक्ष से जाने जाते हैं, परन्तु भूतकालीन और भविष्यत्कालीन शब्द केवल प्रतीति से सिद्ध हैं और वे समस्त शब्द यहाँ धर्मी हैं, इसलिए 'शब्द' रूप धर्मी प्रमाण 25 तथा विकल्प. दोनों से सिद्ध अर्थात्-उभयसिद्ध धर्मों है। प्रमाण
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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