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________________ १४० न्याय-दीपिका हो सकता और लक्षणकथन किए बिना परीक्षा नहीं हो सकती तथा परीक्षा हुए बिना विवेचन-निर्णयात्मक वर्णन नहीं हो सकता। लोक और शास्त्र' में भी उक्त प्रकार से (उद्देश, लक्षणनिर्देश और परीक्षा द्वारा ) ही वस्तु का निर्णय प्रसिद्ध है। 5 विवेचनीय वस्तु के केवल नामोल्लेख करने को उद्देश्य कहते हैं। जैसे 'प्रमाणनयैरधिगमः' इस सूत्र द्वारा प्रमाण और नय का उद्देश्य किया गया है। मिली हुई अनेक वस्तुओं में से किसी एक वस्तु को अलग करनेवाले हेतुको (चिन्ह को ) लक्षण कहते हैं। जैसा कि श्री अकलंकदेव ने राजवात्तिक में कहा है-'परस्पर मिली हुई 10 वस्तुओं में से कोई एक वस्तु जिसके द्वारा व्यावृत्त ( अलग ) की जाती हैं उसे लक्षण कहते हैं।' लक्षण के दो भेद हैं-१ आत्मभूत और २ अनात्मभूत । जो वस्तु के स्वरूप में मिला हुआ हो उसे प्रात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे अग्नि की उष्णता। यह उष्ण ता अग्नि का स्वरूप होती १ स्वर्णकार जैसे सुवर्ण का पहिले नाम निश्चित करता है फिर परिभाषा बांधता है और खोटे खरेके के लिए मसान पर रखकर परीक्षा करता है तब वह इस तरह सुवर्ण का ठीक निर्णय करता है। २ 'त्रिविधा चास्य शास्त्रस्य प्रवृत्ति:-उद्देशो लक्षणं परीक्षा चेति । तत्र नामधेयेन पदार्थमात्रस्याभिधानं उद्देशः । तत्रोद्दिष्टस्य तत्त्वव्यवच्छेदको धर्मो लक्षणम् । लक्षितस्य यथा लक्षणमुपपद्यते नवेति प्रमाणैरवधारणं परीक्षा ।'-न्यायभा० १-१-२ । ३ लक्षण के सामन्यलक्षण और विशेष लक्षण के भेदसे भी दो भेद माने गए हैं। यथा—'तद् द्वेधा सामान्यलक्षणं विशेषलक्षणम् च ।' प्रमाणमी० पृ० २ । न्यायदीपिकाकार को ये भेद मान्य हैं। जैसा कि ग्रन्थ के व्याख्यान से सिद्ध है । पर उनके यहां कथन न करने का कारण
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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