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पहला प्रकाश
के कारणभूत' सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के विषय जीव, अजीव, प्रास्त्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन तत्त्वों का ज्ञान करानेवाले उपायों का प्रमाण और नयरूप से निरूपण करता है। क्योंकि प्रमाण और नय के द्वारा ही जीवादि पदार्थों का विश्लेषण पूर्वक सम्यक्ज्ञान होता है। प्रमाण और 5 नय को छोड़कर जीवादिकों के जानने में अन्य कोई उपाय नहीं हैं । इसलिए जीवादि तत्त्वज्ञान के उपायभूत प्रमाण और नय भी विवेचनीय–व्याख्येय हैं। यद्यपि इनका विवेचन करनेवाले प्राचीन ग्रन्थ विद्यमान हैं तथापि उनमें कितने ही ग्रन्थ विशाल हैं और कितने ही अत्यन्त गम्भीर हैं-छोटे होनेपर भी 10 अत्यन्त गहन और दुरूह हैं। अतः उनमें बालकों का प्रवेश सम्भव नहीं है। इसलिए उन बालकों को सरलता से प्रमाण और नयरूप न्याय के स्वरूप का बोध करानेवाले शास्त्रों में प्रवेश पाने के लिए यह प्रकरण प्रारम्भ किया जाता है ।
उद्देशादिरूपसे ग्रन्थ की प्रवृत्ति का कथन
इस ग्रन्थ में प्रमाण और नय का व्याख्यान उद्देश, लक्षणनिर्देश तथा परीक्षा इन तीन द्वारा किया जाता है। क्योंकि विवेचनीय वस्तु का उद्देश-नामोल्लेख किए बिना लक्षणकथन नहीं
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१ सम्यग्दर्शनज्ञानचारिज्ञाणि मोक्षमार्गः'-त० सू० १-१। २ 'जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम्'-त० सू० १-४ । ३ लक्षण और निक्षेपका भी यद्यपि शास्त्रों में पदार्थोंके जानने के उपायरूपसे निरूपण है तथापि मुख्यतया प्रमाण और नय ही अधिगम के उपाय हैं। दूसरे लक्षणके ज्ञापक होनेसे प्रमाणमें ही उसका अन्तर्भाव हो जाता है और निक्षेप नयोंके विषय होनेसे नयोंमें शामिल हो जाते हैं । ४ अकलङ्कादिप्रणीत न्यायविनिश्चय आदि । ५ प्रमेयकमलमार्तण्ड वगैरह। ६ न्यायविनिश्चय आदि ।