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________________ १३८ न्याय - दीपिका हो सकता। इसलिये प्रत्येक कृतज्ञ ग्रन्थकार का कर्त्तव्य होता है कि वह अपने ग्रन्थ के आरम्भ में कृतज्ञता - प्रकाशन के लिए परापर गुरुत्रों का स्मरण करें । अतः कृतज्ञता - प्रकाशन भी मङ्गल का एक प्रमुख प्रयोजन है । इस प्रयोजन को श्र० विद्यानन्दादि ने 5 स्वीकार किया है । ५. ग्रन्थ के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण को निबद्ध करने से शिष्यों, प्रशिष्यों और उपशिष्यों को मङ्गल करने की शिक्षा प्राप्ति होती है । श्रतः 'शिष्या अपि एवं कुर्युः' अर्थात् शिष्य- समुदाय भी शास्त्रारम्भ में मङ्गल करने की परिपाटी को कायम रक्खे, इस 10 बात को लेकर शिष्य - शिक्षा को भी मङ्गल के अन्यतम प्रयोजन रूप में स्वीकृत किया है । पहले बतला श्राए हैं कि इस प्रयोजन को भी जैनाचार्यों ने माना है । इस तरह जैनपरम्परा में मंगल करने के पाँच प्रयोजन स्वीकृत किए गए हैं। इन्हीं प्रयोजनों को लेकर ग्रन्थकार श्री अभिनव धर्म - 15 भूषण भी अपने इस प्रकरण के प्रारम्भ में मङ्गलाचरण करते हैं और ग्रन्थ-निर्माण (न्याय - दीपिका के रचने) की प्रतिज्ञा करते हैं: वीर, प्रतिवीर, सन्मति, महावीर और वर्द्धमान इन पाँच नाम विशिष्ट अन्तिम तीर्थंकर श्री वर्द्धमान स्वामी को अथवा 'अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग विभूति से प्रकर्ष को प्राप्त समस्त जिनसमूह को 20 नमस्कार करके मैं (अभिनव धर्मभूषण ) न्यायस्वरूप जिज्ञासु बालकों ( मन्द जनों) के बोधार्थ विशद, संक्षिप्त और सुबोध न्याय - दीपिका' ( न्याय - स्वरूप की प्रतिपादक पुस्तिका) ग्रन्थ को बनाता हूँ । प्रमाण और नयके विवेचन की भूमिका 'प्रमाणनयैरधिगम:' [त० सू० १-६] यह महाशास्त्र तत्त्वार्थ25 सूत्र के पहले अध्याय का छठवाँ सूत्र है । वह परमपुरुषार्थ — मोक्ष
SR No.009648
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmbhushan Yati, Darbarilal Kothiya
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1968
Total Pages390
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size34 MB
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