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प्रस्तावना
न्याय-वैशेषिक दोनोंको परतः, सांख्य दोनोंको स्वतः, मीमांसक' प्रामाण्यको तो स्वत: और अप्रामाण्यको परतः तथा बौद्ध दोनोंको किंचित् स्वतः और दोनोंको ही किंचित् परतः वर्णित करते हैं। जैनदर्शनमें अभ्यास और अनभ्यासदशामें उत्पत्ति तो दोनोंकी परतः और ज्ञप्ति अभ्यासदशामें स्वतः तथा अनभ्यासदशामें परत: मानी गई है। धर्मभूषणने भी प्रमाणताकी उत्पत्ति परसे ही और निश्चय (ज्ञप्ति) अभ्यस्तविषयमें स्वतः एवं अनभ्यस्त विषयमें परतः बतलाया है।
७. प्रमाणके भेद
दार्शनिकरूपसे प्रमाणके भेदोंको गिनानेवाली सबसे पुरानी परम्परा कौन है ? और किसकी है ? इसका स्पष्ट निर्देश तो उपलब्ध दार्शनिक साहित्यमें नहीं मिलता है; किन्तु इतना जरूर कहा जा सकता है कि प्रमाण के स्पष्टतया चार भेद गिनानेवाले न्यायसूत्रकार गौतमसे भी पहले प्रमाणके अनेक भेदोंकी मान्यता रही है। क्योंकि उन्होंने ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इन चारका स्पष्टतया उल्लेख करके उनकी अतिरिक्त प्रमाणताका निरसन किया है तथा शब्दमें ऐतिह्यका और
। १ "द्वमपि परत इत्येष एव पक्षः श्रेयान्'–न्यायमं० पृ० १६० । कन्दली० पृ० २२० । २ “प्रमाणत्वाप्रमाणत्वे स्वतः सांख्याः समाश्रिताः।" -सर्वदर्श० पृ० २७६ । ३ "स्वतः सर्वप्रमाणानां प्रामाण्यमिति गम्यताम् । न हि स्वतोऽसती शक्तिः कर्तुमन्येन पार्यते ॥"-मी० श्लो० सू० २ श्लो० ४७ । ४ "उभयमपि एतत् किञ्चित् स्वतः किञ्चित् परत इति..."तत्त्वसं० पं० का० ३१२३ । ५ ' तत्प्रामाण्यं स्वतः परतश्च"-परीक्षामु०१-१३ । “प्रामाण्यं तु स्वत: सिद्धमभ्यासात परतोऽन्यथा ॥"प्रमाणप० पृ० ६३ । ६ “प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दा: प्रमाणानि ।"न्यायसू०१-१-३ ।