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न्याय-दीपिका
केवलान्वयी है। जैसे-'अदृष्ट (पुण्य-पाप) आदिक किसी के प्रत्यक्ष हैं, क्योंकि वे अनुमान से जाने जाते हैं। जो जो अनुमान से जाने जाते हैं वे वे किसी के प्रत्यक्ष हैं, जैसे-अग्नि प्रादि ।' यहाँ 'अदृष्ट प्रादिक' पक्ष है, 'किसी के प्रत्यक्ष' साध्य है, 'अनुमान से जाना 5 जाना' हेतु है, 'अग्नि प्रादि' अन्वय दृष्टान्त है । 'अनुमान से जाना
जाना' हेतु पक्ष बनाये गये 'अदृष्ट आदिक' में रहता है और सपक्ष किये 'अग्नि आदि' में रहता है । अतः पक्षधर्मत्व और सपक्षसत्त्व है। तथा विपक्ष यहाँ कोई है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और सपक्ष के
भीतर प्रा लिए हैं। इस कारण विपक्षव्यावृत्ति है ही नहीं। कारण, 10 ब्यावृत्ति अवधि (सीमा) को लेकर होती है और व्यावृत्ति की अवधि
विपक्ष है, वह यहाँ है नहीं। बाकी कथन अन्वयव्यतिरेकी की तरह समझना चाहिए।
३. जो पक्ष में रहता है, विपक्ष में नहीं रहता और सपक्ष से रहित है वह हेतु केवलव्यतिरेकी है। जैसे-'जिन्दा शरीर जीव15 सहित होना चाहिए, क्योंकि वह प्राणादि वाला है। जो जो जीव
सहित नहीं होता वह वह प्राणादि वाला नहीं होता, जैसे-लोष्ठ ( मिट्टी का ढेला ) । यहाँ 'जिन्दा शरीर' पक्ष है, 'जीवसहितत्व' साध्य है, 'प्राणादि' हेतु है और 'लोष्ठादिक' व्यतिरेकतृष्टान्त
है । 'प्राणादि' हेतु पक्षभूत 'जिन्दा शरीर' में रहता है और विपक्ष 20 लोष्ठादिकसे व्यावृत्त है-वहाँ वह नहीं रहता है। तथा सपक्ष
यहाँ है नहीं, क्योंकि सभी पदार्थ पक्ष और विपक्षके अन्तर्गत हो गये । बाकी कथन पहले की तरह जानना चाहिये।
इस तरह इन तीनों हेतुओं में अन्दयव्यतिरेकी हेतु के ही पाँचरूपता है। केवलान्वयी हेतु के विपक्षव्यावृत्ति नहीं है और 25 केवलव्यतिरेकीके सपक्षसत्त्व नहीं है। अतः नैयायिकोंके मतानु